22-Mar-2023 12:00 AM
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नर्मदादत्त जी के लिए बम्बई प्रवास दुर्भाग्यपूर्ण सिद्ध हुआ; कुमुद के और उनके कुछ ही दिन बम्बई में सुख से बीते थे कि उनपर विपदा टूट पड़ी और रोग और यहाँ तक कि मरण भी उतना दुःख नहीं देते जितना कोतवाली और कचहरी के मसले। मैं धोवन का सोडा ख़रीदने दुकान पर खड़ा था कि नर्मदादत्त जी आते दिखायी दिये, यदि पहले बताया होता तो गोबरगौरी पकवान बनाकर रखती और मैं बाज़ार से मिठाई लाकर रखता। वे पैदल ही चले आ रहे थे। मैंने चरण स्पर्श किया तब भी उत्तर नहीं दिया, कुर्ता पसीने-पसीने हो रहा था और चलते हुये वे ऐसे लँगड़ा रहे थे जैसे जूता काट रहा हो। चुप्पी ठानकर वे सीढ़ियाँ चढ़ते गये। पहले की भाँति ठठोल-ठट्ठा नहीं न संसार भर की राजनीति और साहित्य की कोई बात उन्होंने की; अवश्य ही कुमुद से कोई दोष हुआ है अन्यथा नर्मदादत्त जी इतनी देर तक मौन रहने वालों में से नहीं।
आते ही कुर्सी पर बैठ गये और कुछ देर हाँफते रहे। मैं जाकर जल ले आया; ‘ठहर, गुड़ की डली संग तो ले जा’ माँ पीछे टोकती रही। नर्मदादत्त जी गिलास गटागट पी गये और ठण्डी आह भरी। इतने में शिवालय से ख़ाली लोटा हिलाती बुआ आ गयी तब तक नर्मदादत्त जी के अचानक आने का उद्देश्य किसी यत्न से उजागर न हुआ था। ‘दामाद जी मेरी शवयात्रा में आये उपकार किया मगर मैं तो पराये घर में पड़ी हूँ बस जल ही पिला सकूँगी’ बुआ ने कहा। बड़ी अटपटी बात थी। माँ तुरन्त समझ गयी, हाथ में गुड़ की डली दिखाते हुये बोली, ‘दीदी यह रही, मैं देने ही आई थी कि गोबरधन पानी लिये दौड़ा आया’।
पिताजी प्रत्येक मास बुआ को प्रसाद और मन्दिर में दान देने के लिए कुछ रोकड़ देते थे, साड़ी की किनोर से रुपया खोलकर वे मेरी ओर बढ़ाती बोली, ‘घर भर के लिए मिठाई लाना, थोड़े गाँठिए भी बँधवा लाना’। मैंने धोवन के सोडे का थैला गोबरगौरी को पकड़ाया और रुपया लेकर मिठाई लेने निकल पड़ा; दौड़ा-दौड़ा गया, फटा-फट आया तब भी बुआ ने घुड़की दी, ‘ठण्डी गार जलेबी लाने में इतनी देर!’ नमर्दादत्त जी को उस दिन खाने पीने में किंचित रुचि न थी, उन्मन जलेबी उठाकर खाते रहे, चाशनी कुर्ते पर टपकती रही। बुआ चुहिया की भाँति गाँठिए कुतर रही थी और साथ में बोलती भी जा रही थी, ‘गंगाशंकर से मिलने आये आप पर उसकी छुट्टी तो बृहस्पतिवार को होती है। इतवार को तो नाटक देखने ग्राहक टूट पड़ते है। सब भले घर के आदिमयों को विलासी बनाने के नुस्खे है। पोलका-पेटिकोट पहनकर जनाने गले से आदमीजात नाच गा रही है।’ मैंने नमर्दादत्त जी को देखा, हम दोनों कई बार संग नाटक देखने जाते थे। उनका चित्त कहीं ओर था, वे आँखें झुकाये कुछ विचारते रहे।
अन्धकार होने आया था, नमर्दादत्त जी उठ खड़े हुये और जाने को ऐसे उद्यत हुये जैसे याद आया हो घर का किवाड़ लगाये बिना चले आये थे। अवश्य ही कोई विकट प्रसंग है ऐसा सोचकर उनके पीछे जाने के निश्चय से मैं भी उठ खड़ा हुआ। ‘कुमुद अकेली होगी अँधेरा होने से पहले ही पहुँच जाओगे’ बुआ ने कहा या पूछा किसी को समझ नहीं आया। ‘मैं चिमनी लेकर आती हूँ। सीढ़ियों का हाल यह है कि हाथ को हाथ न सूझे’ गोबरगौरी ने किवाड़ की ओट से कहा और जाकर चिमनी बनाने लगी किन्तु उसके लिए रुकने जितना भी धैर्य उस दिन नमर्दादत्त जी में न था। वे खटाखट सीढ़ियाँ उतरते गये और मैं उनके पीछे दौड़ता गया। पीछे गोबरगौरी हाथ में चिमनी लिये, बुआ और माँ दरवाज़े पर खड़े हमें नीचे उतरते देख रहे थे; गोबरगौरी की दृष्टि में उलाहना थी कि मैं उसके चिमनी लाने तक नहीं ठहरा। बाहर गली भी अँधेरी पड़ी थी किन्तु नमर्दादत्त जी तेज़-तेज़ पाँव बढ़ाते जाते थे जैसे बैरिस्टर गाँधी चलते थे। ‘बनेवी जी सुनिये, मैं भी पीछे आ रहा हूँ’ मैंने उन्हें पीठ पर पुकारा तब उन्होंने पीछे देखा, ‘क्या हुआ?’ मैं दौड़कर उनके संग हो लिया।
‘तुम कहाँ चल रहे हो?’ नमर्दादत्त जी ने पूछा। सब्ज़ी मण्डी से निकलकर मुख्य मार्ग पर हम लोग पहुँच चुके थे। अधिकतर जन सब्ज़ी मण्डी की तरफ दौड़े जा रहे थे क्योंकि अँधेरा होते ही शाक-भाजी का मूल्य आधा हो जाता था। एक स्त्री न्यू बॉम्बे हॉटेल के बाहर किसी पुरुष से बात कर रही थी, मेरा ध्यान वहीं जाकर अटक गया। नमर्दादत्त जी कुछ कहते रहे सुन नहीं सका। वह स्त्री कु लीन और धनाढ्य दिखती थी; पुरुष चपटी नाकवाला था और काया से दुकान पर बैठनेवाला दिखायी देता था। मुझे उत्सुकता थी कि जानूँ वे क्या बात कर रहे है। ऐसा कौन सा भावावेग है जिसके कारण स्त्री भरे बाज़ार में पुरुष के सम्मुख खड़ी है। उसके हाथों की अंगुलियाँ किसी बात को लेकर आकु ल होने से अधिक हताश थी। हमें प्रत्येक क्षण अपने शरीर के सभी अंगों का ध्यान नहीं रहता किन्तु उस स्त्री की अंगुलियों को देखकर ऐसा लगता था जैसे वे अंगुलियाँ उसकी चेतना से बहुत दूर, किसी खाई में खो चुकी थी।
‘गोवद्धर्न, तुम कहाँ जाओगे? मैं यहाँ से ताँगा लूँगा’ नमर्दादत्त जी ने मेरी वह चलायमान मूर्च्छा सी अवस्था तोड़ी, ‘मैं, मैं तो घर ही लौटूँगा’ मैंने कहा और पलटकर अन्तिम बार उस स्त्री को देखा। ‘तब आये क्यों थे पीछे? क्या प्रतिदिन उसे देखने आते हो?’ नमर्दादत्त जी ने कहा और लज्जा से मेरा मस्तिष्क जड़ हो गया, कुछ क्षणों तक कुछ कहते नहीं बना। सायंकाल से ही नमर्दादत्त जी चिन्तित दिखायी दे रहे थे, प्रथम बार आज उनके ललाट पर दीप्ति दिखायी दी थी। ‘मैं तो बैंक से आकर घर पर ही टिका रहता हूँ; आज आपके पीछे इसलिये आयाकि जान सकूँ आपको कौन सा रंज खा रहा है’ मैंने कहा और जैसे झटका देकर हृदय और ग्रीवा का सम्बन्ध काटने की कल्पना की, निश्चय किया अब पलटकर न देखूँगा।
चिन्ता का कारण पूछने पर नमर्दादत्त जी के ललाट पर पुनः अँधेरा छा गया, उन्होंने कुछ कहा नहीं बस आँख चुराते रहे, ताँगा ढूँढने का ढोंग करने लगे। ‘कल पिताजी को देर से नाटक कम्पनी जाने का कहकर रखूँगा यदि आप आ रहे है उनसे मिलने तो ‘मैंने पूछा, वे देर तक मुझे देखते रहे और उत्तर दिया, ‘कल दफ़्तर नहीं जाऊँगा। कुमुद और बच्चों को लेकर आता हूँ’ कहकर वे ताँगे पर चढ़ गये और मैं पलटा किन्तु यह देखकर हताश हुआ कि जहाँ वह स्त्री-पुरुष खड़े थे उस स्थान पर एक घोड़ा अब लीद कर रहा था और उसका मालिक कुछ दूर पर पेशाब करने बैठा हुआ था।
लौटते समय सीढ़ियों पर अन्धकार होने के कारण जब मैं अन्तिम सीढ़ी पर पहुँचा तब यह नहीं समझ सका कि यह अन्तिम सीढ़ी है और मैंने उस अनुपस्थित सीढ़ी को लांघने के लिए पग उठाकर उसपर ज़ोर दिया। मैं लड़खड़ाया और पीछे से मेरी ग्रीवा को गुरुत्वाकषर्ण ने खींचा, मेरी रीढ़ टेढ़ी हुई और मेरा पिछला पग अपने स्थान से हट गया; मैं फिसलता हुआ चार पाँच सीढ़ी नीचे आ गिरा। मेरे दाएँ पग में पिछले भाग में तीव्र पीड़ा हुई जहाँ पग टांग से एक पतली और कोमल माँसपेशी द्वारा जुड़ता है, ‘आह्ह आयँ’ मैं कराहते हुये देर तक वहीं पग को हथेली से दबाकर बैठा रहा।
इमारत की सीढ़ियाँ दूसरी इमारतों की सीढ़ि़यों की अपेक्षा छोटी छोटी थी और इमारत का नक़्शा बनानेवाले ने रेलिंग की सज्जा पर अधिक ध्यान दिया था, रेलिंग और सीढ़ि़याँ कास्ट आयरन की थी, सीढ़ियों के ऊपर शीशम के पिटए लगाये गये थे और रेलिंग के ऊपर शीशम के मोटे-मोटे लट्ठों को उरेब में काटकर चिपकाया गया था जिससे ज़ीना अदालतों और वाचनालयों या जहाज़ी कारोबारी दफ़्तरों की तरह ठाठ-बाटवाला लगता था और इससे हमारे घर में आनेवाले अतिथि हमें घर के भीतर घुसने तक बड़ा धनी-मानी समझते, कई जलकुकड़े हो जाते तो कई सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते उधार माँगने की योजना बना लेते। रात बहुत हो चुकी थी और इमारत के सभी जन अब तक अपने-अपने घरों में सोने की तैयारी कर रहे थे। पिताजी हमारी इमारत में सबसे देर से घर लौटते थे।
मैं जैसे-तैसे उठा और अपना जूता ढूँढने लगा जो गिर पड़ने की अफ़रा-तफ़री में निचले माले की सीढ़ियों पर जाकर अटक गया था। निचले माले पर एक ही घर था जहाँ कोई मराठी बन्धु भावविनायक कमलाकर अपनी वृद्ध पत्नी और अभी पिछले वर्ष ही रंडुआ हुये पुत्र गणपति भा. कमलाकर के साथ रहते थे। दोनों पुरुष मास्टरी करते थे और पूरे दिन स्वादिष्ट महाराष्ट्रियन व्यंजनों का सुवास उनके पाकगृह से उठा करता था। गणपति भा कमलाकर मुझसे वय में सात-आठ वर्ष अधिक था और उसकी एक पुत्री थी। आत्माराम पाण्डुरंग के अनुयायी होकर इन्होंने सनातन धर्म का परित्याग कर दिया था और पुत्री जो नौ-दस वर्ष की होने आई थी अभी तक उसका लग्न न हुआ था, मास्टरी और पण्डित कुल होने पर भी इन्होंने ऐसा मार्ग चुना था यदि धनवान कुल होता तो पुत्री के लग्न की कोई आशा भी थी किन्तु अब प्रतीत होता था यह विधर्मीजन इसी प्रकार अपनी मृत्यु तक हमारी इमारत को दूषित करनेवाले थे। पुत्री का नाम लीलावती था। वह दीर्घकेशी और रूपसी थी, विधाता की रचना का ऐसा अपव्यय देखकर इमारत के सभी जन दुःख पाते थे।
इससे पूर्व मैं उठता एक आकृति ऊपर यों चढ़ती आती थी जैसे अन्धकार में भी उलूक की भाँति सब सहज ही देख रही हो। मेरे दाएँ पग पर अचानक उस आकृति ने अपना पाँव रखा। चमरौंधे के नीचे मेरे पग का अँगूठा कुचल दिया, ‘हरामी कौन है?’ मैं पीड़ा और क्रोध से चिल्लाया, ‘गोवर्द्धन, तू यहाँ क्या कर रहा है?’ पिताजी ने पूछा किन्तु मेरे गाली देने पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। ‘माफ़ करना पिताजी। मैं यहाँ गिर गया था। पग घायल हो गया’ मैंने कहा तब तक पिताजी ने हाथ पकड़कर मुझे उठाया। ‘आप चलिये मैं अपना जूता नीचे से ले आऊँ’ मैंने कहा किन्तु पिताजी ने हाथ नहीं छोड़ा, ‘अँधेरे में कहाँ ढूँढेगा! सुबह ढूँढना’ और मैं एक टांग पर उछलता सीढ़ियाँ चढ़ने लगा, ‘इतनी रात गये कहाँ गया था?’ पिताजी ने पूछा। ‘बनेवी जी पधारे थे उनपर कोई विपद पड़ी है’ मैंने कहा, ‘देर तक आपकी बाट जोहते रहे कह गये है कल फिर आवेंगे’ मैंने उत्तर दिया। ‘नमर्दादत्त जी मुझसे नाटक कम्पनी के दफ़्तर में आकर मिल गये आज’ पिताजी ने केवल इतना कहा। मैं जानने को कितना उत्सुक था कि नमर्दादत्त जी का कौन-सा विकट प्रसंग था कि वे घर जाने की कहकर सीधे पिताजी के दफ़्तर पहुँच गये किन्तु पिताजी से पूछने का साहस न हुआ।
नमक डालकर गरम पानी लाना तो छोड़ गोबरगौरी उल्टे रुष्ट होकर बैठ गयी, ‘मैंने तो कहा था चिमनी ले जाओ मगर दोनों को जाने की हाय ऐसे पड़ी थी मेरी बात क्यों मानते’ कहकर पाँव पटकती हमारे कमरे में भाग गयी। घर में भगदड़ मच गयी। माँ ने पानी गरम किया और बुआ ने फ़ौरन हल्दी की चाय तैयार की। रुष्टा होकर पलंग पर पड़ी गोबरगौरी भी चाय की गन्ध पाकर बिलारी की तरह रसोई में मंडराने लगी। पिताजी बैठक में भोजन कर रहे थे चाय की गन्ध पाकर वे चिल्लाये, ‘जब देखो तब यह विदेशी काढ़ा पीते रहेंगे। गिर गये चाय जुकाम हो गया चाय दस्त लग गये चाय माथा दुखा चाय।’
अन्दर मुँह पर हाथ रखकर गोबरगौरी खीखीखी करने लगी, बुआ ने फटकार लगायी, ‘गोबरगौरी, सुसरा हैकि खेल हो गया। बत्तीसी फाड़-फाड़कर खी-खी। चाय पलट रही हूँ तब तक बशियाँ धोकर ला।’ ऐसे काम से जी चुरानेवाली गोबरगौरी तुरत मोरी में बशियाँ धोने लगी चाय की कितनी शौक़ीन थी। अँधेरे में टटोल-टटोलकर बशियाँ धोना कठिन काम था, कभी भी चीनी की बशी मोरी की दीवार या बाल्टी या देहरी से टकराकर चटक सकती थी मगर चाय की चटोरी गोबरगौरी बड़े ध्यान से काम को बैठक से आती क्षीण ज्योति में अंजाम दे रही थी। गरम पानी की बाल्टी में पानी रखे मैं चाय की प्रतीक्षा कर रहा था कि मोरी से धुली बशियाँ लिये गोबरगौरी निकली, ‘बहुत दरद है न और न ले जाओ चिमनी। अच्छी भली बनायी थी मगर राजा साहेब के दो अँधेरे में निहारनेवाले उल्लू नयन है।’ पिताजी ने आँख उठाकर गोबरगौरी को देखा। माँ ने टोका, ‘पति परमेश्वर से ऐसी गोष्ठी कौन करता है गोबरगौरी?’ बुआ अवसर कैसे चूकती। सड़सी से चाय का पतीला और कन्धे पर चाय छानने का कपड़ा और हाथ में कप लेकर वहीं आ गयी, ‘ऐसे जिह्वादराज को दे दिया अपना मद्रासी हीरे जैसा पूत। बरोबरी से बालम से बात करना कौन-सी बम्मन बहू की रीत है बताओ। लँगड़े आदमी पर भी पिùनियाँ प्राण देती है दूसरी लाकर बैठा दी न छाती पर मूँग दलने को तो बड़े बनाकर खाना’। ‘लँगड़ा! इतनी सी चोट से कौन लँगड़ा होता है’ कहकर मैंने बुआ को अपनी चाल बतायी हालाँकि एड़ी के ऊपर प्राण निकालनेवाली रड़क उठ रही थी।
सब सड़प-सड़प अपनी-अपनी चाय पीने लगे तब मुझे नमर्दादत्त जी की याद आई, ‘बुआ पिताजी से मिलने बनेवी जी नाटक कम्पनी चले गये आज की आज’ पहले बशी से बुआ ने चाय का अन्तिम घूँट भरा फिर बोली, ‘क्यों रे गंगाशंकर, नमर्दादत्त जी को क्या मुश्किल है? नौकरी में कोई अड़चन है क्या?’ पिताजी ने कोई उत्तर न दिया। बुआ ने भी आगे पूछताछ नहीं की। इतनी रात गये चाय पीने के पश्चात् किसको नींद आती। अवश्य ही कुमुद का कोई दोष है या धनाभाव के कारण नमर्दादत्त जी का कोई काम अटका पड़ा होगा अन्यथा वे इतना विकल न होते कि कल की प्रतीक्षा भी न करते। पग की चोट तो उतनी नहीं टीस रही थी जितना मुझे उस रात अनिद्रा दुःख देने लगी थी और बाएँ कन्धे में भी कष्ट हो रहा था। मैंने चिमनी जलाई, बिस्तर के नीचे रखी और फ़र्श पर ही टॉमस हार्डी का उपन्यास ‘जूड द अब्स्क्यर’ रखकर बिस्तर से लटके-लटके पढ़ने लगा।
टॉमस हार्डी का यह उपन्यास अभी कुछ ही महीनों पूर्व प्रकाशित हुआ था और लगता था जैसे प्रकाशन गृह से सीधे जहाज़ में इसे लादकर बॉम्बे भेज दिया गया था। इसकी स्याही सुगन्धित और उष्ण अनुभव होती थी, कागज इतनी लम्बी समुद्री यात्रा करने पर भी आर्द्र नहीं हुये थे। बैलॉर्ड इस्टेट में नवीन पुस्तकों के विक्रेता गोल्डबर्ग एण्ड सन्स से यह पुस्तक मैंने बड़ा भारी मूल्य चुकाकर पायी थी और यदि घर में किसी को यह पता लगता कि यह पुस्तक कितनी महँगी है तब तो कलह मचते देर न लगती, यह उपन्यास दिन-प्रतिदिन मेरे लिये महत्त्वपूर्ण होता जा रहा था क्योंकि इसका नायक भी मेरी ही भाँति ब्रितानिया में उच्च शिक्षा प्राप्त करने से वंचित रह जाता है जबकि वह ब्रितानिया का ही नागरिक रहता है। ब्रितानिया का नागरिक जब धनाभाव के कारण जिस नगर में वह रहता है उसी नगर के विश्वविद्यालय में प्रवेश न पा सके तो समुद्र पार रहनेवाले बम्बई निवासी के लिए यह कैसे सहज हो सकता है यह बात मुझे किंचित शान्ति देती थी और यह बात भी कि कम-से-कम मैंने एलफ़िस्टन कॉलेज से तो शिक्षा ग्रहण की थी भले कृष्ण धूम्र और मछलियों की दुर्गन्ध से भरे विश्व में मेरा जन्म हुआ हो जबकि मर्कंटाइल बैंक ऑफ़ इण्डिया लिमिटेड के हमारे दफ़्तर में लगे जॉन कॉन्स्टेबल के चित्र जैसे सुन्दर स्थान पर जूड फ़ॉली संसार की भीषणतम यातनाएँ झेलता हो।
लैटिन सीखकर बैरिस्टर गाँधी की भाँति अपने पत्रों में यदा-कदा लैटिन कहावतों का उपयोग की करने की मेरी कामना अपूर्ण ही रह गयी न ग्रीक त्रासदियों का बिना अनुवाद के मूलरूप में अध्ययन करने की इच्छा पूर्ण हुई। अध्ययन की इच्छा समझनेवाला मेरे कुल में था भी कौन! जन्म लेना, खा-खाकर युवा होना, विवाह फिर सन्तति जीवन की केवल इतनी परिभाषा मेरे समाज में थी। पंचतत्त्वों से बने इस संसार से कहीं अधिक सुन्दर कहीं अधिक करुण एक और संसार साहित्य में मनुष्य पा सकता है यह जाननेवाले कितने व्यक्ति इस असंख्य जनों से भरे महानगर में थे! बैरिस्टर गाँधी से विद्या और दशर्न पर जो दो-तीन बार मेरी बात हुई थी वही मेरे जीवन की दुलर्भ सम्पदा थी उसके लिए मैं ब्रह्मचारी बनकर जीवनभर एकाकी भी रह सकता था। पुस्तक पढ़ने पर उसके विषय में बात करने को जो वासना उठती है वह कितनी उत्कट और कितनी निर्मल होती है और कितनी कोमल; क्या इसे गोबरगौरी समझ सकती थी?
एक आँसू मेरी दायीं आँख के कोने पर अत्यन्त धीमे-धीमे प्रकट हुआ, भावावेश के कारण मैंने आँखें मींच ली तब वह आँसू नीचे गिर पड़ा। बैरिस्टर गाँधी के मित्र कवि रायचन्द के बताये बसरा के सौ टके सच्चे मोती की तरह वह गिरता हुआ आँसू चिमनी के गोलाकार आलोक में चमक रहा था और कितने धीमे-धीमे नीचे गिर रहा था। जहाँ से उसकी गोलाई बायीं ओर मुड़ती थी वहाँ इन्द्रधनुष जैसा प्रकट हो रहा था। आँसू और साबुन के झाग में अधिक अन्तर नहीं और इसलिये नहीं कि दोनों ही स्वच्छ करते है बल्कि उनकी रूपगत समानताओं के कारण हालाँकि गुण दोनों के बहुत भिन्न है आँसू गिरता है, साबुन का झाग उड़ता है। आँसू के कारण मेरी नई पुस्तक के पृष्ठ पर एक तरल गोलाकार बन गया। मैंने ज़ल्दी से पुस्तक उठाकर दोहर से वह स्थान पोंछने का प्रयास किया किन्तु उससे वह तरल गोलाकार आड़ा-टेढ़ा होकर फैल गया और पृष्ठ उस स्थान पर पारदर्शी, लगभग फटने-फटने को हो गया।
‘सोये नहीं अभी तक’ गोबरगौरी जाग गयी, ‘चिमनी जलाकर क्या कर रहे हो आधी रात बीत चली’ जम्हाई लेते हुये वह बोली, ‘चिमनी बुझा दो। उजाले में नींद नहीं आती’। ‘जूड फ़ॉली देर रात जब सू से मिलकर क्रिस्टमिन्स्टर लौटता है तब उसे अतीत के महान विद्वान हँसते हुये दिखते है वह दृश्य पढ़कर सोऊँगा’ मैंने पृष्ठ पलटा और गोबरगौरी से कहा किन्तु उसमें इतना धीरज कहाँ था, ‘अभी बन्द करो चिमनी। आधी रात को कोई पढ़ता है यह सब गप्प गोष्ठियाँ’ और मुझे घूरने लगी। मैं पढ़ने का अभिनय करता रहा किन्तु मेरा माथा क्रोध के कारण जलने लगा था, मेरे जीवन की अराबेला यही औरत है- श्रीमति गोबरगौरी दवे जिसे यह सहन नहीं होता कि मैं दो वाक्य भी इसकी आज्ञा के बिना पढ़ लूँ। अराबेला उपन्यास के अभागे नायक जूड फ़ॉली से कपट करके विवाह कर लेती है और उसे जूड की इच्छाओं की थोड़ी सी भी चिन्ता नहीं होती, वह केवल अपने सुख की दासी होती है। ‘बुझा दो न चिमनी, नींद आती है’ उसने कहा और मैंने तुरन्त उत्तर दिया, ‘बस इतना पढ़कर’, वह बोली, ‘मैं बुआ जी को पुकारती हूँ’ कहकर वह चिमनी बुझाने को उठी। मैंने एक हाथ से चिमनी उठाई और दूसरे से उसकी कलाई मरोड़ दी। वह पहले चिल्लायी, ‘अईं माँ मेरा हाथ’ और छटपटाने लगी। उसके चिल्लाने से मैं हड़बड़ा गया और उसे चुप करने के लिए एक चाँटा उसके गाल पर लगाया। वह पलटी तो उसकी पीठ पर भी एक धौल जमा दिया वह भूमि पर गिर पड़ी। यज्ञदत्त जाग गया और रोने लगा तो वह उसे गोद में लेने को दौड़ी। मैंने चिमनी ज़ल्दी से बुझा दी। सम्भवतः किसी को हमारे झगड़े की आवाज़़ नहीं आई या उन्होंने इसे हमारा प्रणय कलह समझा क्योंकि कोई नहीं आया। देर तक यज्ञदत्त रोता रहा। गोबरगौरी मार खाकर भी रोई नहीं, सो गयी।
सब कुछ इतनी ज़ल्दी हुआ था कि मुझे अपने किये की गम्भीरता और नीचता बहुत देर से समझ आयी, देर तक मैं जूड फ़ॉली के बारे में सोचता रहा, कैसे उसकी पत्नी अराबेला उसके उपचार के लिए आये डॉक्टर से नैन मटक्का करती है और संकेत से बताती है कि वह जूड की मृत्यु की प्रतीक्षा कर रही है। स्त्रियों को पीटना एक सामान्य बात है और मैंने गोबरगौरी को यदि एक चाँटा मार भी दिया तो इसमें कौन सा असाधारण काम कर दिया मैं बार-बार स्वयं से यही कहता रहा। जो बात मुझे दुःख दे रहे थी वह गोबरगौरी को पीटने की ग्लानि नहीं थी बल्कि इस बात का अन्देशा था कि कल गोबरगौरी नौटंकी करेगी, ग़ुस्सा होकर बैठेगी और मुझे उसे मनाना होगा और साथ ही जब यह बात माँ को पता लगेगी तब वह क्रोध करेंगी। पति और उसकी स्त्री के बीच माँ का हस्तक्षेप मुझे कुण्ठा से भर देता था क्योंकि मैं उन्हें यह नहीं बता पाता था कि गोबरगौरी मेरी स्त्री है और यह मेरे और उसके बीच की बात है इसमें उनका हस्तक्षेप उचित नहीं। माँ को पति और उसकी स्त्री के बीच हस्तक्षेप करने का अधिकार केवल इसलिये नहीं मिल जाता कि पिताजी से उनके सम्बन्ध कटु थे और उन्हें क्या पता था कि गोबरगौरी पर मालिकी दिखाकर, उसे थोड़ा प्रताड़ित करके जिस अधिकार का मुझे अनुभव होता था उसे पुरुष होने के नाते मुझसे कोई छीन नहीं सकता था, यह हम दोनों के मध्य प्रगाढ़ता के लिए आवश्यक था।
किसी भी प्रकार इस बात को मैं साधारण, प्रतिदिन घटित होनेवाला प्रसंग बना देना चाहता था इसलिये मैंने फ़र्श पर जहाँ गोबरगौरी सोई हुई थी वहीं लेटकर गोबरगौरी की चोटी उठायी और उसकी ग्रीवा को दाँतों से धीमे से काटा। उसने कोई शब्द नहीं किया सम्भवतया वह सो गयी थी या निद्रा की नाटिका खेल रही थी किन्तु ऐसी कौन स्त्री हो सकती है जो मार खाकर निद्रा का नाटक करे! एक अंग्रेज़ी उपन्यास के प्रसंग का संस्मरण हो आया जिसमें उपन्यासकार कहता है नायिका नायक से मार खाकर उसे और अधिक प्रेम करने लगी थी। मार खाकर कोई स्वाभिमानी व्यक्ति चाहे स्त्री हो या पुरुष किसी को प्रेम कैसे कर सकता! हो सकता है स्त्री कर सकती हो प्रेम मार खाकर भी आखि़र माँ भी पिताजी से कितना प्रेम करती थी किन्तु क्या कोई मारनेवाला उस व्यक्ति को प्रेम कर सकता है जिसे वह मारता हो? पिताजी माँ से प्रेम नहीं करते थे न मुझसे वे प्रेम करते थे। अब तक के जीवन में मैंने केवल एक बार ही उनका कोमल पक्ष देखा था जब वे मुझे ज़ीने से सहारा देकर उठाकर लाये थे अन्यथा उन्हें हमने या तो आत्ममग्न देखा था या विषादमय।
मैंने गोबरगौरी के कान की लव और उसका ऊपरी भाग काटते हुये कहा, ‘सुनो’ मेरा स्वर बहुत कोमल, फुसफुसाता हुआ था किन्तु वह यों सोती रही जैसे जीवित न होकर उसका शव वहाँ पड़ा हो। गोबरगौरी का दायाँ स्तन दूध से भरा हुआ था, उसका पोलका खोलकर मैंने क्रोध और वासना में उसका मदर्न करके सब दूध बहा दिया। उसके पश्चात् उससे मनोनुकूल क्रीड़ा की। निकट सोता यज्ञदत्त रोने लगा था। गोबरगौरी ने नेत्र नहीं खोले। उस दिन मुझे उसपर बहुत क्रोध हुआ और उस रात के लिए मैं उसे कभी क्षमा नहीं कर पाऊँगा उसकी मृत्यु के बाद भी नहीं ऐसा मैंने स्वयं से उस रात बार-बार कहा और उसने तो सम्भवतः अपनी मृत्यु के बाद भी मुझे ऐसे व्यवहार के लिए क्षमा न किया हो। कौन जानता है और कौन जान सकता है। उसे क्षमा न करूँगा यही सोचते-सोचते मेरी नींद लग गयी।
प्रातःकाल चोट लगने के कारण पानी भरने का काम माँ और गोबरगौरी ने किया। तब तक गोबरगौरी गभर्वती है उसे स्वयं भी पता न था। वह मेरा धुला हुआ कौपीन, धोती और बुशर्ट अपने स्थान पर रख गयी, टोपी झाड़कर खूँटी पर टाँगी और जूते और छाता झटकारकर किवाड़ से टिका गयी। स्नान, भगवती के पाठ के पश्चात् भोजन परोसने में भी उसे संकोच न हुआ जबकि मैं रात की घटना के कारण लज्जा से गड़ा जा रहा था। उस समय गोबरगौरी मुझे इतनी निर्लज्ज और निष्ठुर लगी कि खाते-खाते मैंने थाली परे की और बाहर आकर जूते पहनने लगा। वह रसोई में अचार की बरनी से आम की फाँकें निकालने का अभिनय करती रही और उसने यह तक उचित नहीं समझा कि मुझे भोजन पूरा करने को कहती या पूछती कि खाते-खाते उठने का कारण का क्या हुआ। नीचे पहुँचा तो कमलाकर जी के यहाँ से शुद्ध घी में मराठी व्यंजन अनरसे तलने की सुगन्ध आ रही थी, कई बार वे लोग हमें प्रसाद स्वरूप मराठी व्यंजन भेजते थे किन्तु माँ मुझे पूरी थाली चुपचाप कुत्तों को देने का कहती थी, प्राथर्ना समाज के मतावलम्बियों के घर का सब कुछ दूषित वे मानती थी किन्तु बुआ के आने के पश्चात् यह रीति छोड़ दी गयी, ‘शुद्ध घी के पक्के चौके में छुआछूत का सवाल नहीं। ला, मुझे दे, खाकर तो देखूँ कैसी बनायी है चकली और भाकरबड़ी’।
लीलावती विद्यालय जाने के लिए बाहर खड़ी थी। उसका पिता गणपति अन्दर अपने बूट पॉलिश कर रहा था, गणपति ने ही उसका नाम ऐलेग्ज़ैंड्रा नेटिव गर्ल्स स्कूल में लिखवाया था और वही उसे विद्यालय छोड़ते हुये अपनी मास्टरी निभाने जाता था। जीवनशैली तो उस परिवार की सनातनियों से अधिक शुद्ध थी तब क्यों ब्राह्मण होने पर भी इन्हें अशुद्ध माना जाता था यह मेरी समझ के परे था, अनरसों की शुद्ध घी मिश्रित चावल के आटे और शक्कर की सुगन्ध को भरपूर साँसों में भरकर मैंने सोचा। इस सुगन्ध के कारण मैं गोबरगौरी के दुर्व्यवहार को भूल चुका था और संसार के प्रति मेरी आसक्ति पुनर्जीवित हो गयी थी। ‘दफ़्तर के लिए आज ज़ल्दी निकल रहे है, दवे जी?’ गणपति भा कमलाकर ने अन्दर से ही बूट पॉलिश करते हुये पूछा, घर में ऐसा दूषित कर्म करना निश्चय ही उस युग में पापिष्ठ है किन्तु बैरिस्टर गाँधी भी अपने बूट आप ही पॉलिश करते थे इसलिये मैं उतना अचम्भित नहीं हुआ। वहीं उनके किवाड़ पर रुक गया, लीलावती थोड़ा पीछे हटकर खड़ी हो गयी, वह कढ़ाई से निकल रहे गरम-गरम अनरसा बाहर ही खड़ी-खड़ी कुतर रही थी जो कि एक स्त्री के गरिमा के अनुरूप न था, क्या किसी तरूणि को ऐसे बाहर खड़े होकर किसी भोज्य पदार्थ का चपचप सेवन करना चाहिए।
‘आओ, बेटा गोवधर्न, जलपान कर लो’ चौके से अनरसों से भरी थाली लिये लीलावती और गणपति भा कमलाकर की माँ जिसे इमारत के सभी लोग वर्षा ताई कहते थे, उन्होंने मुझे पुकारा। मैंने कुर्ते की जेब में हाथ डाला तब पता लगा घड़ी भूल आया हूँ, आधा भोजन छोड़कर उठा था इसलिये भूखा था और मीठे को देख जिह्वा भी ललक रही थी किन्तु मैंने संयम साधा और कहा, ‘और कभी आऊँगा। आज दफ़्तर में ज़ल्दी जाना है’ कहते हुये मैं थाली देखने से बच रहा था जिसे वर्षा ताई भाँप गयी और उन्होंने उत्तर दिया, ‘देखती हूँ मन मीठा खाना चाहता है और माथा दफ़्तर जाने को कहता है। तुम कहो तो पूड़ा बाँध दूँ?’ पूड़ा ले लेने का मैं इच्छुक तो था किन्तु यदि माँ को पता लगता कि घर का भोजन अधखाया छोड़कर मैं प्रार्थना समाजवाले कमलाकर जी से मीठे का पूड़ा बँधवाकर अपने कार्यालय ले गया तो उन्हें बहुत संताप होता। मैंने जाने को पाँव बढ़ाया तो वर्षा ताई ने कहा कि सायंकाल तो मुझे अनरसे खाने आना ही पड़ेगा। क्या उन्हें पता लग गया था कि अनरसों की सुगन्ध से ही सीढ़ियाँ उतरते समय मेरी जिह्वा कैसी लपलपा गयी थी सोचते हुये मैं लिज्जत ज़ल्दी-ज़ल्दी चलता बैंक पहुँच गया और उस नीच गोबरगौरी के विषय में मन में कोई विचार नहीं आया।
बैंक के ब्रितानी अफ़सर का कहा कागज़ पर पहले खड़े-खड़े इमला लिखना फिर कच्चा लिखकर उन्हें दिखाना, वे तब त्रुटियाँ गिनाते और मैं सम्पादित करके पत्र पुनः लाता उसमें वे फिर त्रुटि निकालते ऐसे दिनभर में चार पाँच दस्तावेज मैं करता था, इसी की मुझे डाँट और पगार दोनों मिलती थी। वॉलिस ब्रदर के हिन्दुस्तानी आढ़तिए कपास ख़रीदी के लिए सत्तर हज़ार रुपया ले गये थे। वॉलिस बिरादरों की गारण्टी पर रुपया दिया गया था और छह मास बीत चुके थे, नया वर्ष लगनेवाला था मगर ब्याज क्या मूल तलक नदारद था, उगाही वास्ते पहले आढ़तिए को पत्र भेजे गये अब कार्रवायी की अन्तिम चेतावनी के लिए वॉलिस ब्रदर्स को लम्बा पत्र भेजना था। नमर्दादत्त जी भी वॉलिस ब्रदर्स की फ़र्म में काम करते थे मगर वह दूसरी फ़र्म थी- बॉम्बे बर्मा ट्रेडिंग कम्पनी, इस फ़र्म का नाम था वॉलिस ब्रदर्स कॉटन ट्रेडिंग और इसका खाता हमारी बैंक में चलता था।
गोबरगौरी का कहना था रात को चिमनी जलाकर पढ़ने के पाप के कारण मेरा दृष्टिदोष बढ़ रहा था और ऐनक के बिना देखने में मुश्किल होती थी, उस दिन कागद पत्र तैयार करने में अनेक त्रुटियाँ हो रही थी और विलम्ब भी बहुत हो रहा था। बार-बार विलियम ग्रीन साहेब मुझे त्रुटि गिनवाकर लौटा देते थे। कागद का सही बनना इसलिये अत्यन्त आवश्यक था क्योंकि उधारी न पटाने पर इसी के आधार पर कचहरी में हरकती दाखिल होना थी। अक्षर गोल बनते-बनते कंकड़-भाटे जैसे बन जाते कभी वर्तनी की भूल होती तो कभी वाक्य इतना लम्बा बन जाता है आखि़र तक पहुँचते-पहुँचते मुझे स्वयं बात बिसर जाती। भोजनावकाश के पश्चात् विलियम ग्रीन साहेब ने मुझे अपने कमरे में फिर से बुलाया। मैं घर से भोजन करके आता था इसलिये अपने मटके से जल पीकर रहता था। एक विधवा पण्डिताइन जल भर दिया करती थी और मेरा मटका दूसरी जातिवाले न छुये इसलिये मटका अगोरना भी उसका ही काम था बदले में मैं उसे रुपया देता था।
Which university have you disgraced Dave? विलियम ग्रीन साहेब दवे को डेव पढ़ते और पुकारते थे, मुझे लगा वे वाजिब सवाल कर रहे है इसलिये गर्वान्वित स्वर में मैंने उत्तर दिया, ‘एलफ़िस्टन कॉलेज, बॉम्बे, द बेस्ट इन बॉम्बे सो इन इण्डिया’। वे चुरूट फूँकते थे, धुवाँ पीते हुये बोले, 'Are you married?' मुझे उस दिवस तीव्र उल्लास हुआ कि उनकी मेरे जीवन में इतनी रुचि जागरित हुई है, मैंने बिना व्याकरण का विचार किए कहा, ‘येस सर, मैरीड टू चिल्ड्रन’। वे हँसने लगे और मुझे कमरे से दफ़ा होने की कहकर ख़ुद कागदपत्र तैयार करने लगे। सही उत्तर होता married with a child, बीपसक, मुझे भय होने लगा कि मुझे नौकरी से बर्ख़ास्त कर दिया जाएगा। दसों अँगुलियों के मैंने नाखून चबा लिए और तम्बाकू पीने की तलब होने लगी। नूतन कारण खोज-खोजकर मैंने बार-बार विलियम साहेब के कमरे में जाने लगा किन्तु उन्होंने अपना माथा टेबुल से न उठाया और ध्यानस्थ लिखते रहे जिसके कारण नौकरी जाने का मेरा सन्देह पक्का हो गया।
एक कारकुन का दायित्व है भी क्या? कागद बनाना और उसमें भी मेरी गति शून्य नहीं तो लँगड़ी तो थी ही तब क्यों ही बॉम्बे की इतनी बड़ी बैंक का अफ़सर मुझे अपने यहाँ टिकाये रखेगा! अकाल के कारण मालमत्ते की संसारभर में कमी थी, मन्दड़ियों की मौज थी और घर-घर लोग फाँके करके सोते थे ऐसे में पिताजी के वेतन में कैसे गृहस्थी चलेगी इस चिन्ता के कारण मैं बार-बार जल पीता और लघु शंका निवारण को जाता। मेरा मटका जहाँ रखा रहता था उससे लगकर ही विलियम साहेब के चाय-जलपान तैयार होने का स्थान था जिसे वे पैंट्री कहते थे। वहाँ उनका नौकर चाय बना रहा था। चौकोर तश्तरी में केतली ऊन के तिकोने लबादे से ढँककर वह जब चला गया तब मैंने विलियम साहेब का तम्बाकू चुराने का निश्चय कर लिया। तम्बाकू में मेरी प्रबल आस्था थी और मुझे लगता था लपेटकर पीने से मेरा नौकरी जाने का दुःख जाता रहेगा।
डबलरोटियाँ, अण्डे, केक जैसे गर्हित पदार्थों से स्थान भरा पड़ा था और एक क्षण को मुझे विचार आया भी कि क्या ऐसे स्थान पर रखी तम्बाकू पीने पर दोष न होगा, अपनी गृहलक्ष्मी गोबरगौरी पर हाथ उठाने का फल तो ईश्वर ने मुझे तुरन्त दे ही दिया था तब क्या यह तम्बाकू पीकर नया पाप करना उचित होगा? फिर यह धारणा बनी कि तम्बाकू कौन-सी मुख में डालना है, केवल उसका धूम्र ग्रहण करना है और अग्निदेवता तो सबको पुनीत करनेवाले है इसलिये तम्बाकू पीने में हर्जा नहीं। एक काँच के ढक्कनवाली पीतल की डिबिया थी जिसमें तम्बाकू भरा था, कारकुनी कागद का एक पर्चा मैं फाड़कर लाया था उसी में ज़रा सी तम्बाकू उलटी ही थी कि विलियम साहेब का नौकर आ गया, ‘साहेब का तम्बाकू क्यों गड़बड़ कर रहे दवे बाबू?’ मैं घबराया मगर हाथ से डिबिया छूटने न दी, ‘तलब थी थोड़ा-सा ले रहा था’, चपरासी होकर भी मुझपर हावी होने का उसका मनसूबा था, ‘अपना तम्बाकू आप लेकर आया करो’ मगर मैं भी कम न था, ‘यह बैंक पेटे की तम्बाकू है’ और उसने जवाब न दिया सीधे विलियम साहेब के कमरे में गया। पहले भी तो निकाल ही रहे थे अब तम्बाकू चोरी की धारा और जोड़कर निकाल देंगे ऐसा सोचकर मैंने वहीं तम्बाकू कागज में लपेटना शुरू कर दिया।
ऐसा अनुभव हुआ पौरुष जाग गया हो। माचिस जलाकर चेतन की और धुँवे का प्रथम श्वास भरा तो चेतना हुई कि कारकुनी जाने पर काम क्या करूँगा? रोटी-पानी के लाले न पड़ जाएँगे, बुआ की तरह जैन मन्दिर में चन्दन घिसने का काम कर लूँगा कुछ नहीं तो चावल और शक्कर की व्यवस्था हो हो जाएगी फिर लगा चन्दन ही घिसना था, मन्दिर में झाड़ू पोंछा मारना था तो एलफिस्टन कॉलेज क्यों गया, अंग्रेज़ी क्यों सीखी, नाटककार बनने का स्वप्न क्यों देखा था? क्लर्की आत्मा को खानेवाला रोग है, तम्बाकू पीकर इससे मुक्ति नहीं, न पत्नी को पीटकर ही इससे मुक्त हो सकते है; इससे मुक्त होने के लिए अपने क्षुद्र अन्तःकरण की दीवालें ढहाना पड़ती है, अभय प्राप्त करना पड़ता है। क्लर्की मनुष्यों ने इसलिये ईजाद की कि आत्मा जैसे मनुष्य के वायवीय अंग को तेल-नून-भाजी-चून में बदला जा सके। ^Clerkdom is a process which converts a part of soul into grocery everyday* मैंने अंग्रेज़ी में वाक्य बनाने का प्रयास किया- व्याकरण की दृष्टि से शुद्ध वाक्य जिसमें विलियम साहेब दोष न निकाल सके और मुझे कभी नौकरी से न निकाले क्योंकि ऐसे शुद्ध अंग्रेज़ी वाक्य को बनाने का गुण बम्बई में आखि़र कितने क्लर्कों में था। बुआ को इसी को मन में महाराज होकर बैठना कहती है, तम्बाकू फूँककर मैंने निश्चय कर लिया कि अभी की अभी जाऊँ और विलियम साहेब के चरणों में गिरकर नौकरी बचाने के लिए उनसे प्राथर्ना करूँ।
विलियम साहेब कमरे में नहीं थे उनका चपरासी जूठे कप-बशी अबेर रहा था, मुझे देखते ही बोला, ‘आज तुम बच गये मैं जब तक आया साहेब निकल चुके थे’। एक आत्महीन चपरासी के मुँह लगता इतना विवेक मुझमें था मैंने अंग्रेज़ी में उसे बाहर जाने को कहा और वह मूषक की भाँति भागा। विलियम साहेब की मेज़ ख़ाली पड़ी थी शायद श्रीनाथ काबरा जी जो बैंक में बड़े कारकुन थे उन्होंने पत्तर समेट लिये थे। बैंक बन्द होने का घण्टा भी तब तक बज चुका था।
मैं घर की तरफ़ चला मगर मेरी आत्मा इस भय से कि मुझे कारकुनी से कल बर्खास्तपत्र मिलेगा पूर्णरूपेण क्लर्क बन चुकी थी जैसे बच्चा कोई स्थान न छोड़ना चाहे तो उस स्थान के खम्भों-दीवारों से चिपक जाता था। अंग्रेज़ी भाषा सही-सपाट बोलना और लिखना कितना कठिन था, मैं टॉमस हार्डी के उपन्यास पढ़ता था और भी अंग्रेज़ी की कई क़िताबें मैंने पढ़ी थी कम-से-कम बीस पच्चीस ग्रंथों का तो अध्ययन किया था किन्तु तब भी अंग्रेज़ी व्याकरण और वर्तनी में प्रतिदिन त्रुटि होती थी जैसे मेज़, कुर्सियाँ, पलंग, सिंगार दपर्ण कोई सब ख़रीद ले किन्तु घर में उसे बरोबर जमा न पाये ऐसी मेरे मगज की दशा थी, सब था बापरने का ढँग न था। शाक-भाजी ख़रीदने का दायित्व मेरा था, प्रतिदिन सब्ज़ी मण्डी से ख़रीदारी करके घर लौटता था, उस दिन ढाई सेर बटाटे लेकर ही संतोष किया।
गोबरगौरी के व्यवहार में तृणमात्र भी परिवर्तन न था बल्कि अब मुझे बुआ और माँ भी कोपवती दिखने लगी। उन्होंने कुछ कहा नहीं। समय से चाय तैयार हो गयी, गाँठिए के संग मैं बैठकर खाता रहा और वे दोनों हमारे सम्बन्धियों की निन्दा में व्यस्त रही; मुझसे यह तक नहीं पूछा कि मेरा कपाल ऐसा निष्प्रभ क्यों है या भौंहें ऐसी खिंची-खिंची क्यों है जैसे दर्ज़ी ने वहाँ टाँके लगा दिये हो या हो सकता है अपार क्लेश से भरे हृदय का मेरे मुख से कोई ज्ञान ही होता हो। दूर से गोबरगौरी मुझे देख रही थी, उसकी दृष्टि से लगता था वह मेरा क्लेश जान पा रही है जैसे काँच की बोतल में रखा विष आत्महत्या करनेवाले को स्पष्ट दिखता है किन्तु वह निकट नहीं आयी न एक शब्द ही कहा केवल दूर से ही देखती रही। इतने में नीचे से लीलावती आ गयी, इससे पूर्व वह हमारे घर कभी न आयी थी, ‘गनपत दादा ने अनरसे खाने को बुलाया है, कहा है वचन दिया था’। मेरा जाने को बिलकुल भी जी न था। नमर्दादत्त जी पर क्या विपदा पड़ी है यह पता न था, गोबरगौरी गुस्सा थी और नौकरी जाने का अन्देशा अलग था ऐसे काल उनके घर मीठा खाऊँ और गप्प लगाऊँ यह मेरे वश में न था। ‘किसे बुलाया है?’ बुआ ने पूछा, बुआ को लीलावती की दिनचर्या में बहुत उत्सुकता थी; वह प्रतिदिन कहाँ जाती है? उसका लग्न क्यों नहीं हुआ? या लग्न हो गया है और मालिक ने दूसरी डालकर इसके पीछे लात लगाकर इसे यहाँ भगा दिया है? ‘इन्हें’ उसने मेरी ओर संकेत करके कहा, कहते बखत उसकी भंगिमा अत्यन्त निस्संकोच थी और वह सभी को खटकी। ‘तुम जाओ, विचार बनेगा तो आएगा’ बुआ ने निधड़क स्वर में कहा और लीलावती नीचे चली गयी।
गोबरगौरी पीपे से आटा निकालकर बैठक में आ गयी, ‘कितनी सुन्दर है, बैठने को कहना चाहती थी संकोच के कारण जिह्वा जड़ रही’, बुआ ने तुरन्त उत्तर दिया, ‘कैसी बेशरम की नाई पराये आदमी की तरफ उँगली करके बात करती है देखा नहीं’। उठायी तो थी लीलावती ने अँगुलि किन्तु उससे मुझे सुख ही हुआ था और इस बात की कल्पना करके अत्यधिक आनन्द हुआ था कि उसके ऐसा करने से गोबरगौरी को डाह होगी और यहाँ उल्टे गोबरगौरी उसे बैठाकर बात करना चाहती थी। ‘होकर आता हूँ, बहुत बार बुलाते है आज भी न जाऊँगा तो अभिमानी न मान ले’ मैंने जाने का निश्चय कर लिया था, डाह में जलकर ही हो सकता था गोबरगौरी का मन शुद्ध हो जाये। गोबरगौरी मुझे थिर तारकों से निहारती रही, मुझे मारो-पीटो और प्रेम करो परायी से किन्तु उसने कहा, ‘छोटी बालिका है वह बुआजी, उसे नर नारी का भेद ही कहाँ पता होगा’।
‘आयँ बालिका! आज ब्याह कर दे तो कल सौरी में सोये’ बुआ बोली पर गोबरगौरी कब अपनी बात गिरने देती, ‘मेरा लग्न हुआ तब यह सत्रह के थे मैं तेरह की तब तो वह नौ दस बरस की बालिका ही हुई’। मैंने जूते में पाँव दिये और फटाफट सीढ़ियाँ उतरने लगा, लग्न के समय गोबरगौरी तेरह की थी किन्तु लगती नौ वर्ष की थी जबकि लीलावती नौ की होकर भी तेरह-चौदह वर्ष की हृष्टपुष्ट किशोरी लगती थी और लीलावती को बालिका समझकर गोबरगौरी खुद को भरोसा दिलाना चाहती है कि इस बालिका से उसकी गृहस्थी को कोई जोखम नहीं। पीछे तीनों स्त्री और वय पर बहस करती रही, बुआ का कहना था कि सात वर्ष में ही उन्होंने अपने सबसे बड़े पुत्र को जन्म दे दिया था, उनके कुल चार सन्तान हुई किन्तु जीवित केवल कुमुद ही रही यह बात तो सत्य थी किन्तु सात की वय में स्वयं को गभर्वती होना बताना तो हास्यास्पद असत्य था।
जब मैं पहुँचा तब वर्षा ताई कढ़ाई में घी उड़ेल ही रही थी, पक्की रसोई में धुआँ-गरमी बहुत होने के कारण वर्षा ताई बैठक के पास कोयले रखने की जगह पर ही तलने का काम करती थी, कच्ची रसोई भीतर पाकशाला में बनाती थी। इतना घी क्या बुआ और बा किसी बाहरवाले पर खर्च कर सकती है जितना वर्षा ताई ने कढ़ाई में उड़ेला था; वे तो आत्मीयजनों को भी नाप-तौलकर घी या मिष्ठान देती थी। मुझपर इतना खर्चा करने का उद्देश्य तो कोई सूझता नहीं, ताई सम्भवतया प्रेमवश ही ऐसा कर रही हो; प्रेम इतना दुलर्भ था कि सहसा उसपर विश्वास नहीं होता था और उसके पीछे कोई स्वार्थी उद्देश्य की ही आशंका होती। गणपति दादा अभी-अभी ही लौटे थे, बैठक में कुर्सी पर बैठे जूते के तस्में खोल रहे थे, पुस्तकों का एक मोटा बण्डल उनके सम्मुख मेज पर पड़ा था। इतने घी-गुड़ के तत्त्व नित्य खाने पर भी वे कितने दुबले थे, गाल की हड्डियाँ निकली हुई और हाथों की एक-एक शिरा दिखायी देती थी; पत्नी न हो तब पुरुष की काया इसी गति को प्राप्त होती है। ‘आइये आइये, दवे जी’ गणपति दादा ने कहा और मेरे बैठने के लिए स्थान बरोबर किया, वहाँ पर विद्यालय की कॉपियाँ-क़िताबें पड़ी हुई थी। ‘सात बजे तक बैंक से लौट आते है’ गणपति दादा ने कहा और मुझे अचानक बैंक की घटना याद आ गयी, क्या पता कल कारकुनी रहेगी कि जाएगी और यदि गयी तो दूसरी जगह रोज़ी का बन्दोबस्त कैसे होगा; ‘श्रीयुत, पानी’ लीलावती ऐन मस्तक पर खड़ी होकर चिल्ला रही थी। मैं चौंक गया और पानी लेने की हड़बड़ी में लोटा गिरते-गिरते बचा। काँसे का लोटा था, टूटते-टूटते बचा। बाद में लीलावती मुझे सदैव श्रीयुत कहकर ही पुकारती थी।
लोटा देकर लीलावती ने गणपति दादा की पुस्तकों का बण्डल उठा लिया और सुतली खोलने का यत्न करने लगी, ‘नवादी कादम्बरियाँ है या स्कूल में पढ़ने ले गये थे, बाबा? लीलावती ने मराठी में पूछा और गणपति दादा मुझे देखकर गर्व से मुस्कुराए, देखा मेरी पुत्री अंग्रेज़ी के यह मोरे-मोटे ग्रन्थ पढ़ने में सक्षम है फिर लाड़ जताते हुये लीलावती से कहा, ‘अरे पगली, कल ही तो लाया था नयी क़िताबें। पहले वह तो पढ़ ले, यह तो मैं शाला में ख़ाली समय में पढ़ने ले गया था।’ शुद्ध घी खर्चने का उद्देश्य दिखावा है अब मुझ पर उजागर हो गया था। लीलावती एक-एक पुस्तक निकालकर उलटने-पलटने लगी और अचम्भे से मेरा मुँह तब खुला रह गया जब उसने टॉमस हार्डी का नवीनतम उपन्यास जूड द अब्स्क्यर खोलकर अपने मुँह के आगे किया।
‘गणपति दादा, आपको टॉमस हार्डी का यह नया उपन्यास कहाँ से मिला?’ मैंने कपट उल्लास से पूछा, मन मेरा ईर्ष्या से पूरा जल चुका था; ‘आप चाहे तो ले जाइये पढ़कर वापस कीजियेगा’ गणपति दादा ने कहा और लीलावती ने उपन्यास मेरी और बढ़ाया, ‘आप पढ़ते है टॉमस हार्डी?’ गणपति दादा ने पूछा। ‘मेरे पास भी है इसकी एक प्रति। आपने पढ़ा? कैसा लगा आपको?’ मैंने पूछा और पुस्तक लीलावती के हाथ से ले ली, बिलकुल यही पुस्तक मेरे पास भी थी फिर भी उस प्रति को देखने का लोभ संवरण न होता था जैसे वह कोई नूतन, भिन्न पुस्तक हो। लीलावती की आँखें मुझ पर स्थिर हो गयी, उसके पिता की पुस्तक का अन्य के हाथों में देने का उसे दुःख था, मैंने पुस्तक उसे देते हुये कहा, ‘क्या तुम अंग्रेज़ी पुस्तकें पढ़ लेती हो?’ पुस्तक झपटकर उसने कहा कि न केवल वह अंग्रेज़ी पुस्तकें पढ़ती है बल्कि प्रतिदिन एक पृष्ठ अपनी कॉपी में इन पुस्तकों की नक़ल भी करती है, कागज महँगा पड़ता है तो भी उसके बाबा उसे लाकर देते है कई बार तो उधार करके लाकर देते है और जो बात उसने अन्त में कही उससे मुझे प्रतीत हुआ वह मेरा मन किसी अखबार की तरह पढ़ रही है, ‘आप सोचते होंगे मेरा लग्न अब तक क्यों नहीं हुआ? जूड फॉली की तरह मैं शिक्षा पूर्ण होने से पूर्व विवाह नहीं करना चाहती, अराबेला ने कैसे उसकी होनहार का खात्मा किया’, सुनकर गोबरगौरी मेरी दृष्टि के सम्मुख आ खड़ी हुई और मेरा मन कटु हो गया था।
‘तुम्हें उसकी होनहार की इतनी ख़बर कैसे हुई! गये दिन का अख़बार आता है होनहार का कोई अखबार नहीं निकलता’ मैंने कहा, स्वर इतना कर्कश था कि मुझे स्वयं खटका। ‘टेलीस्कोप की ईजाद से पहले गगनमण्डल आजोबा के मोटे कम्बल जैसा काला और मोटा था, आर-पार देखना तो दूर हवा तक नहीं जाती थी और फिर देखिये टेलीस्कोप आने पर शुक्र, मंगल, दूर दूरस्थ के तारकगण, शनि, बृहस्पति सब दिखायी देने लगे उसी प्रकार उत्तम शिक्षा होने पर होनहार के भी पहले ही दर्शन हो जाते है’। इसी प्रकार गोबरगौरी के अशिक्षित रहने पर कटूक्ति कसने इन्होंने मुझे बुलाया था, अनरसा तो बहाना भर था। मेरा कण्ठ अवरुद्ध हो गया, कुछ कहते नहीं बना। गणपति दादा भी पाँव धोने और कपड़े बदलने चले गये थे। लीलावती के प्रति सद्यःजात विशुद्ध घृणा के कारण उस दिन अनरसा मुझे कड़वा लगा और लगा जैसे शुद्ध घी में नहीं उसे सरसों के तेल में तला हो, चाय फीकी थी और फरसाण बासा। ‘बित्तेभर की बाला बोल बनाये बड़े-बड़े’ बुआ लीलावती के लिए सही ही कहती थी।
गणपति दादा से हालाँकि देर रात तक बातें होती रही। उनका विचार था कि हिन्दू होने में और हिन्दूपने में अन्तर है, हिन्दू होना दुस्साध्य है किन्तु हिन्दूपना अपनाना सरल और यह कि पण्डों के बस रहकर मोक्ष नहीं मिलता उसके लिए ब्रह्मचर्य, तप, अध्ययन, मनन, निध्यासन करना पड़ता है, स्वर्ग प्राप्ति के लिए सत्कर्म किन्तु हम लोग पण्डों को दक्षिणा देकर, गंगास्नान और गोदान करके सोचते है कि हमें स्वर्ग मिल गया और शेष जीवन अनुचित कर्म करते चले जाते है। इस प्रकार अंग्रेज़ी पढ़नेवाले किसी भी हिन्दू युवक जैसे उनके विचार थे और उसमें कुछ विशेष मुझे नहीं दीखा। फिर उन्होंने अपनी दस मिनट पूर्व कही बातों के उलट यह भी बताया कि ईश्वर के न मिलने तक वे स्वयं को नास्तिक मानते रहेंगे; जैसे ईश्वर का अस्तित्त्व उनके मानने न मानने पर निर्भर है और इसलिये ईश्वर को गणपति दादा को दर्शन देकर गणपति दादा का ईश्वर में विश्वास उत्पन्न करना ही होगा। ईश्वर को लेकर वे विकल थे किन्तु उनमें ऐसी प्रतिभा नहीं थी कि दार्शनिक स्तर पर वे कोई नवीन उद्भावना लेकर आते, पढ़ी-सुनी बातों का साहित्यिक शब्दों में दोहराव मात्र था।
एक ही समय एक पुस्तक दो दूर बैठे मनुष्य एक संग पढ़े यह विचार प्रेम के सबसे अधिक निकट है, उस अनुभूति का सबसे मूर्त रूप है और गणपति दादा और मैंने हमारे मध्य यही साहचर्य पाया था भले वह कुछ ही वर्षों तक ही रहा हो। वे प्रत्येक नयी क़िताब पढ़ने को उत्सुक रहते थे और ढेरों क़िताबें खरीद लाते कई बार उधार खरीदते और कई बार पगार पाते ही क़िताबों की दुकान पर पहुँच जाते या डाक से क़िताबें मँगाते; बाद के वर्षों में वे अनुशीलन भवन के प्रकाशन में वर्तनी दोष निकालने का काम भी करने लगे और देर रात गये घर लौटते। प्रति सन्ध्या हम दोनों एक-दूसरे को वचन देते कि आज अमुक पुस्तक के इस नम्बर पृष्ठ से उस नम्बर के पृष्ठ तक समय विशेष में पढ़ेंगे फिर दूसरे दिन चाय पर हम गयी रात पढ़े गये पर वार्ता करते, कई बार समुद्र तट पर घूमते हुये आधी-आधी रात तक मिल्टन तो कभी सोफ़ोक्लीज़ पर हमारा विवाद होता।
योहान वोल्फ़गैंग गूटे के इस कथन ‘चेम्बर पीस संगीत चार बिद्धमान मित्रों का संवाद है’ इस पर हम सप्ताह भर सोचते रहे कि चार बुद्धिमान मित्रों के संवाद की भाँति संगीत कैसा होगा, वह कितना सुन्दर होगा और कैसे गाया बजाया जाता होगा? सुनने का तो हमारे निकट कोई साधन न था किन्तु हम उसकी कल्पना तब तक करते जब तक हमारे केश, कनपटियाँ, भौहें स्वेद से न भर जाते और स्वयं की हृदयगति स्वयं को ही सुनायी न पड़ने लगती; हम दोनों को विश्वास था कि चेम्बर पीस संगीत सुनते ही हम उसे पहचान जाएँगे। हम शिक्षित हिन्दुस्तानी मूढ़ों की तरह मानते कि यूरोप इस भुवन का वैकुण्ठ है और वहाँ का संगीत, वहाँ के उपन्यास और दर्शन सब कुछ श्रेष्ठ है और अंग्रेजों ने भारतवर्ष को अपना कर्म स्थल बनाकर हम पर उपकार ही किया था, यही विचार हमारी प्रगाढ़ मित्रता का कारण था। आगे गणपति दादा का अलग विचार बना और उनका अंग्रेज़ी शासन से उच्चाटन हो गया।
‘आप न दारू-तम्बाकू पीते हो न दारियाँ रगड़ते हो न सैर सपाटे की आपको आदत है, ऐसा कैसे?’ बहुत दिनों बाद एक दिन मैंने गणपति दादा से पूछा था। ‘इतना रुपया मेरे पास नहीं है कि दारू-तम्बाकू पी सकूँ या कुत्री-नखराल का खर्चा उठाऊँ। कल्पना और स्वप्न में ही सब आनन्द पाता हूँ’ गणपति दादा ने उत्तर तो दे दिया किन्तु मेरे प्रश्न ने उन्हें घाव दिया था, मैंने उनके पौरुष पर प्रश्न उठाया था। ‘घाणरेडी बाइयों के पीछे भटकना मर्दानेपन का सबूत है न’ उन्होंने टिप्पणी की।
उस क्षण उन्होंने ललाट ऐसे सिकोड़ा जैसे कुछ देखने में उन्हें मुश्किल हो, उनके केश समुद्री आँधी में उड़ रहे थे और नमक के कारण रूखे-सूखे, कुछ-कुछ भूरे हो गये थे। उनके कन्धे की हड्डियाँ कण्ठ के नीचे इतनी निकट आ चुकी थी जैसे कुछ देर मैं यों ही उन्हें देखते रहा तो वे एक-दूसरे का स्पर्श करने लगेंगी। उनकी झबरी, लम्बी-लम्बी मूँछें जो नीचे की ओर झुकी रहती थी वे एकदम काली थी जैसे लम्पट अधेड़ खिज़ाब लगाकर काली कर लेते है; उनकी मूँछें स्वभाविक रूप से ही काली थी क्योंकि उसमें एक तैलीय कान्ति थी जो खिज़ाब रंगनेवालों में दिखायी नहीं देती। उनकी भौहें मूँछों जितनी तो नहीं किन्तु अन्यों की अपेक्षा बहुत घनी थी और बरौनियाँ तो स्त्रियों जैसी थी। सस्ते लट्ठे का कुर्ता वे वर्षा ताई से सिलवाकर जो हमेशा पहनते थे उस दिवस भी वही पहने थे जो साफ तो था किन्तु धूल-धुलकर जूना पड़ गया था और वर्षों से नील दिये जाने के कारण जगह-जगह उस पर नील के चकत्ते पड़ गये थे। उनकी धोती की दशा तो कुर्ते से भी गयी बीती थी और किनारों से वह धागा-धागा हो चली थी फिर भी वे धोती न खरीदकर उस रुपये से नवीन ग्रन्थ ले आते थे। हड्डियों को कुछ माँसपेशियों से बँधा हुआ वे पुंजमात्र थे और बात करते-करते अति उत्तेजित हो जाते जैसे बहुत दिनों तक ब्रह्मचर्य रखने के कारण स्वस्थ पुरुष हो जाते है। उनके जूते साबुत थे किन्तु वह भी वर्षों पुराने दिखते थे, समुद्री हवा-पानी खा-खाकर वे भी सफे़द और काले से मटमैले पड़ गये थे। धोती और जूते के मध्य खुली पिंडलियों पर एक मोटी शिरा हमेशा ज़ोर-ज़ोर से फड़कती रहती थी जो वे जब कहीं जाते तो मुझे दूर तक दिखती रहती थी। जीवन का अर्थ पाने के लिए दर्शन और साहित्य के अरण्य में भटकते-भटकते वे ऐसे हो गये थे। उन्होंने बात आगे नहीं बढ़ायी और वाचनालय जाना है कहकर मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किये चले गये, वे बण्डी न पहनते थे और सायंकाल के कुसुम्भी आलोक में दूर तक सफे़द कुर्ते में उनका काला, गुस्सैल शरीर दिखता रहा और मुझे आभास हुआ कि अब हमारी मित्रता पूर्ववत न रहेगी। यह उस सन्ध्या के महीनों बाद की घटना है।
उस रात अनरसे और फरसाण खाकर जब लौटा तब खाना टेबुल पर लग ही रहा था, मैं पहले ही बहुत खा चुका था इसलिये गोबरगौरी को त्रास देने के लिए मैंने कहा कि मैं आज खा न सकूँगा। ‘बटाटेभाजी और ज्वार की भाकरी है आजा गरम-गरम खा ले’ बा ने मुझसे कहा, भाकरी अभी-अभी सिगड़ी से उतरकर आयी थी और उससे कोयले, ज्वार के आटे का सुवास उठ रहा था, बटाटेभाजी कटोरी में धुँधुआ रही थी, बटाटे के छिले हुये, बड़े-बड़े टुकड़े जिन्हें हल्दी और हींग के पानी में पकाया गया था वे सरसों और धने के मध्य जैसे लोट रहे थे। पास में ठण्डे पानी का गिलास रखा हुआ था और खड़ी लाल मिर्च के अचार का खुला हुआ डिब्बा। बुआ हरी मिर्च चबाती हुई भाकरी का कौर तोड़ रही थी, बाकी गोद में बैठा यज्ञदत्त गुड़ की डली चूस रहा था। गोबरगौरी भाकरी का डिब्बा लिये आयी किन्तु मुझे न खाते देख वह किंचित भी नहीं चौंकी। दो भाकरी उसने अपनी थाली में रखी और उन पर बटाटेभाजी उड़ेलकर खाने बैठ गयी। अनेक वर्षों पश्चात् देखा विंसेंट वान गॉग का चित्र द पटेटो ईटर्स (बटाटें खाते लोग) मेरी स्मृति में अब इसी चित्र ने उस रात्रिकालीन जेवनार के दृश्य के स्थान ले लिया है। शाक-सब्जी उन दिनों दाल से भी अधिक महँगी मिलती थी और बटाटे न केवल सस्ते आते थे बल्कि बहुत स्वादिष्ट भी लगते थे। देखने में भले बटाटें बेडौल और प्रभाहीन लगते हो काटने पर उनका स्वरूप प्रकट होता वह बाहरी रूप से कहीं अधिक सुन्दर होता और खाने पर जो स्वाद मिलता वह तो उनके आन्तरिक, पानीदार स्वरूप से कहीं अधिक अच्छा लगता। कई बार मैं प्रेम से बुआ को मेरा बटाटा भी पुकारता था।
सायंकाल कमलाकर जी के यहाँ बीत गया था और रात भी गहराती जा रही थी, इतनी देर तक मुझे अपनी नौकरी जाने का विचार न आया था और अब अचानक सबको रोटी खाते हुये देखकर दोपहर में दफ़्तर में घटा प्रसंग याद आ गया- क्या पता अब तक मेरे बर्खास्तपत्र का मुद्दा भी विलियम साहेब ने ठहरा लिया हो और कल पहुँचने पर मुझे ही उसका इमला लिखवा दें। कण्ठ भर आया और बैठे-बैठे मैं हाँफने लगा, तुरन्त हाथ पैर धोने का कहकर मोरी में पहुँचा तो गोबरगौरी भांडे मस रही थी, इतनी ज़ल्दी भोजन भी हो गया, इतना कम खाने के कारण ही चार वर्ष में सींक हो गयी है। उसने मुख उठाकर देखा। ‘गोबरगौरी, तू यज्ञदत्त को सुला दे, मैं मस दूँगी भाण्डे’ पीछे बा ने चिल्लाकर कहा। जरा देर को गोबरगौरी की पुतलियाँ मुझ पर टिकी होंगी उतनी ही देर में अश्रुओं से चमकने लगी और मेरा मन उससे लिपट-लिपटकर रोने का होने लगा। मैं ज़ल्दी से जाकर बिस्तर पर लेट गया ताकि गोबरगौरी के आने तक गहरी नींद में होने का नाटक कर सकूँ। उससे बात करने का साहस मैं अब तक जुटा नहीं पाया था।
थोड़ी देर बाद गोबरगौरी यज्ञदत्त को लेकर सोने आयी तब तक मेरी नींद न लगी थी हालाँकि वह भांडे धोकर, रसोई में जमाकर आयी थी। उसने कम्बल नीचे रखा और अपने आँचल को ही बिछाकर सो गयी, स्तनों पर यज्ञदत्त को सुला लिया। यज्ञदत्त साढ़े तीन वर्ष का हो गया था और उसे सीने पर सुलाकर रात काटना कितना कठिन था इसकी मैं तब तक कल्पना करता रहा जब तक नींद नहीं आयी। दूर-दूर तक कोई ध्वनि नहीं थी, उस रात जितनी नीरव रात बॉम्बे ही नहीं विश्व में, उसके एकदम कोने आन्तर में मनुष्य पहुँच जाये तो दुलर्भ है- सहसा नीरव स्थान और समय में स्वयं को पाकर हम कैसा अनुभव करते है जैसे हम समय और स्थान से परे हो चुके है, मृत्यु के बहुत निकट पहुँच चुके है; कोलाहल जीवन को पकड़े रखने की रस्सी है जिससे हम जीवन भर लटके रहते है, कोई कर जाता है तो ज़ोर-ज़ोर से रोते है, चीखते है जब तक मनुष्य रहता है तब तक कोलाहल करता रहता है किन्तु गोबरगौरी ने उस रात मार खाने के पश्चात् मरण जैसा मौन धारण कर लिया था। अकारण मुझे भय लगने लगा था कि वह अब और नहीं जिएगी; ऐसा सोचते हुये मैं अपने अवयवों के अन्दर ही रोता रहा बाहर मैं सो रहा था।
दूसरे दिन मैं जब तक उठा, बा, पिताजी और गोबरगौरी पानी भर चुके थे जबकि मैं अपने पग की चोट तब तक भूल चुका था। धूप से घर भरा हुआ था, दाल उबलने की आवाज़ पूरे घर में आ रही थी। जब मैं हजामत बना रहा था मोरी में यज्ञदत्त को नहलाने की तैयारी हो रही थी जिसके कारण वह कोने में खड़ा सुबक रहा था। मैंने ज़ल्दी के कपड़े उतारे और फटाफट नहाने लगा क्योंकि यज्ञदत्त के नहाने की प्रतीक्षा करने पर दफ़्तर में देर हो सकती थी। गोबरगौरी मुझे नहाता देख लज्जा से उल्टे लौट गयी। थोड़ा सा पानी यज्ञदत्त के मुख पर छिड़कने पर वह ज़ोर से रोता हुआ बाहर भागा और मैंने मोरी का किवाड़ लगा लिया। बाहर पिताजी के बकरी के ग्वाले से बहस का शब्द आ रहा था, यज्ञदत्त के निर्बल हाज़मे के लिए पिताजी बकरी का दूध लेते थे और प्रतिदिन ग्वाला उसमें पानी मिला देता था। बीच में साइकिल की घण्टी गली में बजती थी और एकाध टेर ताजा शाक बेचनेवाले का उठती थी। इमारत के संडास में दो औरतों की कचकच की आवाज़ भी आ रही थी, कई दफ़ा गन्देड़े लोग संडास में पानी उड़ेलकर टट्टी खड्डे में न बहाते थे और दूसरे आनेवाले को इस अस्वच्छता से बहुत घिन होती, बैरिस्टर गाँधी के लिए यह बहुत बड़ी मुसीबत थी और रोज संडास जाने से पूर्व उन्हें स्वयं को ऐसे बीभत्स दृश्य के लिए मानसिक रूप से तैयार करना पड़ता था। कई बार वे झाड़ू बाल्टी से संडास धोने का स्वप्न देखते किन्तु धोने का साहस न जुटा पाते थे, बापड़े का जी मचला जाता और पलटी हो जाती थी।
जब तक मैंने भोजन किया गोबरगौरी रसोई में डिब्बे खोलती और बन्द करती रही, चावल एक डिब्बे से दूसरे में डालने, कभी शक्कर का डिब्बा ख़ाली करने तो कभी आटा भरने की आवाज़ आती रही। बोलने पर जो हल्ला होगा, क्षमा याचना करना होगी, पैरों पर नाक रगड़ना होगी इससे उत्तम यह अबोला था; इसमें शान्ति तो थी किन्तु यह अबोला आजीवन तो रहनेवाला न था इसलिये यह ज़ल्दी टूटे यह भी मैं चाहता था और यह यों टूटे जैसे हमारे सामान्य जीवन के अनुक्रम में कोई व्यवधान हुआ ही न था और मैंने कभी गोबरगौरी पर हाथ न उठाया था। कई बार बा ने गोबरगौरी को पुकारा और वह कभी सब्जी तो कभी छाछ की लुटिया पकड़ा जाती थी किन्तु मेज पर रुकती न थी।
दफ़्तर की राह पैदल जाते बीच रास्ते अटक गया, वहाँ बहुत भीड़ लगी हुई थी और लोग बायीं तरफ देख रहे थे जहाँ पहले लोहे की चद्दर का पुल बना हुआ था क्योंकि मजदूरों और यन्त्रियों ने वह चद्दर हटा दी थी और उसके स्थान पर लोहे की विशालकाय भोंगलियाँ बनी हुई थी। यन्त्री लोग इन भोंगलियों को पाइपलाइन कहते थे और इन पाइपों पर जगह-जगह जोड़ थे और जगह-जगह पहिए लगे हुये थे। यन्त्री मजदूर को आदेश करते तब मजदूर सरपट पाइप पर चढ़ जाता और पाइप के दोनों तरफ पैर फँसाकर पहिया घुमा देता, पहिए के घूमते ही पानी बहने की आवाज़ आती और कभी कभी जोड़ के स्थान से पानी का फव्वारा फूट पड़ता जिसे सुधारने यन्त्री तो कभी मजदूर दौड़ते।
पाइपलाइन जितनी देखने में सुन्दर संरचना मैंने आज तक देखी न थी, वे एक जटिल जाल के द्वारा एक-दूसरे से जुड़ी हुई थी जैसे कविता का छन्द जुड़ा होता है और अर्थ की भाँति उनमें पानी बह रहा था जिसका केवल शब्द हम तक पहुँच पाता था पानी फ़व्वारा छूटने पर ही दिखता था अन्यथा अन्दर ही अन्दर बहता रहता और केवल आवाज़ आती थी जैसे ज़्यादा पेशाब आने पर कई बार गोबरगौरी को मोरी में ही फिरग होना पड़ता और मुझे आवाज़ आती और कई बार जब मजदूर ज़्यादा पहिया घुमा देता तो पानी के अन्दर घुमड़ने की आवाज़ आती जैसे पाइप फूट पड़ेगा और हम सब उसमें बह जाएँगे। लोहे को पहले भट्टी में पिघलाना फिर मोटे-मोटे पाइपों में ढालना और उसके बाद लादकर दूर-दूर तक बिछाना फिर उसमें पानी छोड़ना और पहियों से खोलना बन्द करना यह यन्त्रियों का चमत्कार ही था। एक पाइप तो इतना मोटा था कि मैं उसमें खड़ा होकर चल सकता था और सिर न झुकाना पड़े। कई बहुत पतले पाइप भी थी जिसमें लुढ़कता बटाटा भी फँस जाये और पहिए भी पाइप के आकार के अनुसार छोटे बड़े थे, कइयों ओर तो चढ़कर मजदूर अपने बदन का पूरा ज़ोर लगाते तब वह जरा सा हिलता, ऐसे में जाम पहिए को तेल पिलाना पड़ता था।
एक गँवार मुझे धक्का मारकर आगे हो गया और पाइप देखने लगा। पाइपों का जाल वहाँ बिछा हुआ था उसके नीचे भूमि न होकर समुद्री नहर थी जहाँ से बॉम्बे का गू-मूत समुद्र में छोड़ा जाता था। बास आने पर वह आदमी नाक पर हाथ रखकर दौड़ा और हड़बड़ी में एक मजदूर पहिया घुमाकर उस पर कूदते-कूदते बचा वरना उस गँवार की ग्रीवा टूटती।
मैं देर तलक उस धूल, बास और घाम में खड़ा-खड़ा पाइपलाइन देखता रहा, इतना सुन्दर दृश्य मैंने इससे पूर्व देखा न था। पाइप पर जगह-जगह जंग लग गया था और वे कहीं से लाल, कहीं हरी हो रही थी, एक पाइप का निचला भाग तो फिरोजी हो गया था और दूसरी दूर से ऐसे रंग की लगती जैसे हमारी बैंक के तिज़ोरी मैनेजर हुसेन हैदर अंगुलि में अक़ीक़ पहनते है। बीच-बीच में जोड़ की जगह जमा नमक मजदूर का हाथ या पाँव लगने पर टुकड़े का टुकड़ा गिर जाता और अनपढ़ जनता उसे देखने दौड़ती कि कोई विशेष वस्तु है। थोड़ी देर बाद ऊबकर लोग तितर-बितर हो गये किन्तु मैं वहीं पाइपलाइन देखता रहा।
दूर से देखने पर उसकी संरचना उत्तम प्रकार से प्रकट हुई और उसका सौन्दर्य मुझे यन्त्रणा देने लगा, पाइपलाइन इतने दिव्य रूप से भरी हो सकती है सम्भव है कोई इस पर विश्वास न करे। ऐसा लगता था जैसे हमारी शिराओं के जंजाल को किसी ने उघारकर रख दिया हो, पाइपलाइन पर पूर्व से धूप आ रही थी तो उत्तर से सड़क पार किसी इमारत की छाया पड़ रही थी और दक्षिण में समुद्र था। पाइपों का जाल किसी अज्ञात अंग्रेज़ी अक्षर जैसा दिखायी देता था और ऐनक उतरकर देखने पर समुद्र के ऊपर काले-सफे़द गुटके जैसे जमे दिखायी देते थे।
यह पाइपलाइन हालाँकि मैंने जीवन में प्रथम बार देखी थी तब भी क्यों मुझे इतनी सुन्दर लग रही थी यह मैं आज तक जान नहीं सका। उस पाइपलाइन को देखते हुये मेरे इतने दिनों से दौड़ते विचार सहसा एक स्थान पर एकत्रित हो गये थे और ऐनक उतारकर देखने पर आँसू गिरने लगे। ऐनक उतारकर और ज़ोर लगाकर देखने का नतीजा था या मनोदशा की तीव्रता यह जानने का मैंने जब यत्न किया तो पाया इस पाइपलाइन के मनोदशा के इतने तीव्र और इतने तीक्ष्ण ढँग से मुझ पर आक्रमण करने के कारण ही था। यदि मैं चित्रकार होता तो सम्भवतया आपको इस पाइपलाइन की सुन्दरता का सही साक्षात्कार करा पाता क्योंकि शब्द एक के बाद एक ही लिखे जा सकते थे, वे समय में घटित होते है किन्तु चित्र पूरा का पूरा एक बार में हम देखते है। चित्र समयानुक्रम से परे होता है। पाइपलाइन देखने की यह घटना मेरी आत्मकथा की सबसे महत्त्वपूर्ण घटनाओं में से एक है और मैं नहीं चाहता कि इसका कोई प्रतीकात्मक अर्थ ग्रहण करे। पाइपलाइन पाइपलाइन को छोड़ कुछ भी नहीं है, वह तो उस समय पानी पहुँचाने की कोई नयी मशीन भी नहीं थी। वह केवल एक चाक्षुष संवेदन था जिसके कारण मैं यह अनुभव कर सका था कि उस समय जीवित होने का क्या अर्थ है जब संसार में पाइपलाइन भी हो।