02-Aug-2023 12:00 AM
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एकदा भारतवर्षे, आषाढ़मासे, सतलुज तीरे।
जसविंदर को कथक के स्वप्न आते थे। वो आधी रात जागकर उठ बैठता था। उसकी निद्रा घुँघरुओं की दासी हो गयी थी। अकस्मात् घुँघरू टूटने का डर भी कहीं भीतर तक व्याप गया था। नर्तकी मालविका उसे पूरे भूलोक में दिखती थी, कभी इस पर्वत, कभी उस नदी, कभी उस महाद्वीप... जसविंदर की हरेक कल्पना में। उसकी साँसें नर्तकी के दिव्य घुँघरुओं की छम-छम पर संचालित होती थी। सारा आरोह-अवरोह उतना ही और वैसा ही।
और इस प्रक्रिया में बाहर कोई ध्वनि नहीं थी। भीतर विराट शान्ति का रौद्र कलरव था।
कथक नर्तकी मालविका उसे श्राप दे चुकी थी। खुली आँख के स्वप्नों में और निद्रा में भी बिना अनुमति आने के जघन्य अपराध में। शापित युवक जसविंदर धीरे-धीरे मनुष्य देह त्याग कर एक कपोत में परिवर्तित हो रहा था। पूरी तरह कपोत हो जाने पर उसका रंग अन्य सामान्य भूलोकीय कपोतों से थोड़ा अधिक आसमानी नीला था। उसके पंख थोड़े अधिक तीखे पर लगभग निरर्थक। उसकी आँखें अपराधी भाव में मुन्दी रहने वाली थीं। यह जगत उसे एक जन्तु-आलय लगने लगा, जिसमें वह अकेला पक्षी बचा हो और उसके पाँवों में कथक के घुँघरुओं की बेड़ियाँ बँधी थी।
कपोत गिरगिट नहीं होता और वह बिल्लियों से भयाक्रान्त रहता है। कपोत की दैहिक निर्मिति बड़ी विशेष होती है, सम्भवतः व्यक्तित्व भी थोड़ा पृथक ही होता है। उसके पाँव मयूर जैसे नहीं होते। मयूर की तरह नाचता भी नहीं है, नाचते वक़्त मयूर अपने पाँव देखता है क्या? पाँव देखकर जो सोचता होगा, क्या वैसा मनुष्य भी सोच सकता है कभी! और जो नाचता नहीं, क्या वह पक्षी अपने पाँव देखता है। कपोत जसविंदर अपने पाँवों में कथक के घुँघरूओं के साथ जब चलता था, उसे लगता था कि पृथ्वी कम्पायमान है, क़दम रोकते ही लगता कि सृष्टि थम गयी है। पृथ्वी के हिलने-थमने का हेतु बनकर जीना उसके लिए सरल नहीं था। कभी-कभी आधी रात को सोते हुए अकस्मात् जागकर अपने पाँव और उनमें बँधे घुँघरूओं की पड़ताल करता था।
उन दिनों जसविंदर के जीवन का ठाठ कथक के ‘थाट’ पर अवलम्बित था। तबले और पखावज दो बेहद चुलबुले मित्र। इन्हीं से उसे नर्तकी मालविका के कुशलक्षेम ज्ञात होते थे। तबले और पखावज ने मनुष्य रूप धारण करके सखा भाव से जीवन में प्रवेश कर लिया, यह भी रोमांचकारी और अविस्मरणीय घटना थी। ऋतुओं का आगमन और विदाई भी तबले और पखावज से ज्ञात होती थी। एक दिन तबले ने कहा, ‘सुनो दोस्त जी! नृत्य भंगिमाओं और देहाभिनय की कला है।’ जसविंदर को तबले का मन्तव्य समझ में नहीं आया। उसे लगा कि तबला उसे इस कला से और अधिक गहन परिचय करवाना चाहता है। वह विनीत एवं कृतज्ञ भाव से देखता रहा।
पखावज उसे अधिक प्रिय था। अपने स्वभाव के अधिक निकट लगता था। यह सामीप्य कई बार इतना अधिक होता कि नर्तकी मालविका की आँखों में एक ईर्ष्याभाव या सौतिया डाह जलती दिखायी देती, अनन्त ऊँचाई तक, मीलों लम्बी। कथक की शिक्षा में नर्तकी मालविका को सिखाया गया था कि ईर्ष्या का त्याग करो। पर ऐसे कहने मात्र से त्याग हो जाए तो कहना ही क्या! प्रेम न भी हो तो किसी की स्वामिभक्ति जैसा प्रेमभाव हम कहाँ बाँट सकते हैं। हम चाहे न चाहें, हमें एकपक्षीय प्रेम करनेवाला भी जिस दिन किसी और को प्रेम भरी दृष्टि से देख लेता है, हमें लगता है कि हमारा साम्राज्य किसी ने अपहृत कर लिया है। पखावज के प्रति यही भाव था कि हमारे लौहे में तो दोष नहीं है। लौहे की प्रतिबद्धता तो सर्वथा असंदिग्ध थी।
श्रावण मास उपरान्त, अमावस्या की रात्रि थी, दो प्रहर लगभग व्यतीत हो चुके थे। नर्तकी मालविका ने स्वप्न देखा। स्वप्न में अपने पाँव, पाँवों में चाँदी के घुँघरू दिखायी दिये। जो उसकी नानी शारदा देवी ने उसके चौदहवें जन्मदिन पर दिये थे।
नर्तकी मालविका ने स्वप्न में देखा- घुँघरुओं में लिपटा हुआ काला स्याह सर्प। इतना काला कि जीवन में कोई वस्तु इतनी काली नहीं देखी थी उसने। नर्तकी मालविका भय से जाग गयी। पसीने से लथपथ हो गयी थी। अपने सुसज्जित शयनकक्ष के ठीक मध्य में रखी शय्या के सिरहाने बाँयी ओर रखे पीतल के प्राचीन लौटे से जल लिया, मुँह धोया और चार बूँदें गले से नीचे उतारकर आँखें बन्द कर ली।
नर्तकी मालविका की काँपती सुकोमल छरहरी देह ने अपने गुरु सैयद मुबारक़ अली देहलवी के सिखाये शान्ति मन्त्र का जाप प्रारम्भ कर दिया। धीरे-धीरे कम्पन कम हुआ और जाप का स्वर उर्ध्वः
ओम द्यौः शान्तिरन्तरिक्षँ शान्तिः
पृथ्वी शान्तिरापः शान्तिरोषधयः शान्तिः।
वनस्पतयः शान्तिर्विश्वे देवाः शान्तिर्ब्रह्म शान्तिः
सर्वं शान्तिः शान्तिरेव शान्तिः सा मा शान्तिरेधि।।
ओम शान्तिः शान्तिः शान्तिः।।
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नर्तकी मालविका के उन चाँदी के घुँघरुओं की कथा भी अलौकिक है। किशोरी मालविका को बताया गया कि पटियाला महाराज राजेन्द्रसिंह, जब अपनी फ्रां़स से मंगवायी ‘दे दियों बुतों’ कार में शहर से निकलने वाले थे, राजराजेश्वरी मन्दिर में पूजा करके आये थे और रनिवास के द्वार पर सुखमणि को वे घुँघरू स्वयं महाराजा ने दिये थे। सुखमणि को उनके पिता महेन्द्र सिंह नये बनाये महिन्द्रा कॉलेज में संगीत की शिक्षिका बनाकर लाये थे। सुखमणि ने जब उनकी 366 वीं रानी बनने से मना कर दिया तो महाराजा ने उन्हें आधा राज्य देकर महारानी बनाना चाहा तो यह कहकर मना कर दिया कि यदि मुझे आपकी 366 वीं रानी नहीं बनना तो 366 में पहली भी नहीं बनना। मेरा प्रेम आपके लिए है, मेरे प्रेम में और मेरे लिए कुछ करना ही चाहते हैं तो बस इतना कीजिए कि मेरी कुलदेवी काली माता का एक मन्दिर बनवा दीजिए। महाराजा राजेन्द्रसिंह इससे पहले कि वचन निभा पाते, उनकी मृत्यु हो गयी।
राजराजेश्वर मन्दिर के विशाल प्रांगण में जब पटियाला के अगले महाराजा भूपेन्द्र सिंह ने काली माता का मन्दिर बनवाया, कलकत्ते से काली की मूति मँगवायी थी, सुखमणि की बेटी कौशल्या देवी को नृत्य के लिए बुलाया था।
राजेन्द्रसिंह के मरने के कुछ ही साल बाद गर्भवती कौशल्या की अकाल मृत्यु हो गयी, नीलमणि पेट में थी, उसकी जान जैसे तैसे करके बची। राजेन्द्रसिंह जीते जी मूर्ति के लिए कलकत्ते के मूर्तिकार से मिल आये थे, पेशगी दे दी गयी थी, मूर्तिकार ने काम प्रारम्भ कर दिया था। महाराजा राजेन्द्रसिंह ने पुत्र भूपेन्द्र सिंह को अन्तिम इच्छा मन्दिर बनाने की बतायी, भूपेन्द्रसिंह ने भव्य मन्दिर बनवाया तो आज्ञाकारी पुत्र की तरह पिता की मनोकामना पूर्ति करते हुए कौशल्या की 22 साल की बेटी नीलमणि ने जब नृत्य किया तो रनिवास की एक दासी ने सरेआम उसकी माँ कौशल्या का नाम लेकर अपमानजनक शब्द कह दिये थे। उसके बाद वो दासी न देखी गयी, न सुनी गयी और यह कहानी भी महाराजा के आदेश पर पूरे पटियाला ने भुला दी। और उसके बाद नर्तकी के परिवार से कोई नृत्य करने पटियाला राजपरिवार में नहीं गया, और न बुलावा आया। और वो कहानी इतिहास की किसी पुस्तक में अंकित भी नहीं हुई। इतना अवश्य हुआ कि मन्दिर में एक दीवार बनवा दी गयी जिसका समुचित कारण कोई नहीं जानता।
नीलमणि पटियाला घराने के नामी गायक बड़े गुलाम अली खाँ से एकपक्षीय प्रेम करती थीं। जिनसे वे जीवन में केवल एक बार मिलीं थीं, उनकी आवाज़ के जादू को अपना हृदय हार बैठी। फिर, एक बार प्रेम का सन्देशा भी भिजवाया था, परन्तु वह सन्देश पहुँचने के लिए नियति द्वारा समर्थित ही नहीं था। अन्यथा एक निष्णात नर्तकी और पूरी सदी को अपनी गायकी से आन्दोलित करने वाले अद्भुत गायक का संगम युगान्तरकारी होता।
नीलमणि की छह संतानें जन्म लेते ही मृत्यु को प्राप्त हुई। आस्थानुसार देवी कृपा से जो सातवीं संतान बच पायी, उसका नाम रखा गया शारदा देवी। और फिर इसी शारदा देवी के गर्भ से सन् 1980 ईस्वी के शिशिर ऋतु में फाल्गुन मास की अमावस्या के दिन शतभिषा नक्षत्र में उत्तर सूर्यास्त काल में जन्मी थी नर्तकी मालविका। कुलज्योतिषि पण्डित श्रीहरिचरण गोस्वामी ने कहा था कि शतभिषा नक्षत्र में जन्मे जातक अपने सिद्धान्तों पर अडिग रहते हैं और किसी भी मूल्य पर उनसे समझौता नहीं करते, जिस कार्य को उचित नहीं समझते वह कार्य करने के लिए इसे कोई बाध्य नहीं कर पाएगा, इस बालिका का अत्यन्त आकर्षक और मजबूत व्यक्तित्व की स्वामिनी होना सुनिश्चित है। इसकी उपस्थिति सदैव गरिमामय और प्रभावशाली होगी, चौड़े माथे, तीखी नाक और सुन्दर नेत्रों के कारण बालिका अतीव सुन्दरी होगी।
नर्तकी मालविका के उस्ताद जनाब सैयद मुबारक़ अली देहलवी के दादा सैयद हसन अली कोटकपूरे के नवाब के यहाँ सारंगी बजाते थे, नवाब ने उन्हें दिल्ली से बुलाया था, इसलिए उनके बाद उनके वंशज देहलवी कहलाये। हसन अली के बेटे यानी मुबारक़ अली के पिता सैयद मंसूर अली की रुचि और महत्वाकांक्षा कण्ठसंगीत में थी। वे पटियाला आये, (इन दिनों पटियाला घराना हिन्दुस्तानी शास्त्रीय गायकी के उरूज पर था) पटियाला घराने के सहजनक उस्ताद फ़तेह अली खान के गण्डाबन्ध शिष्य होने की उत्कट अभिलाषा लेकर। परन्तु उस्ताद फ़तेह अली खान ने सारंगीनवाज़ के बेटे से कहा कि सारंगी एक उम्दा साज़ है, उसी का रियाज़ करो, मौसिकी पीढ़ियों के रियाज़ और अक़ीदत से अता होती है। युवक मंसूर अली को लगा कि वे गायकी को बड़ा मानते हैं और सारंगीवाले के बेटे को उसके लिए सर्वथा अयोग्य मानते हैं। मंसूर अली को सारंगी के अलावा संगीत के किसी भी क्षेत्र में जाना था, मंसूर लखनऊ जाकर कथक सीखने लगे। फिर पटियाला आकर कथक के उस्ताद हो गये। नगर में आते ही फ़तेह अली के हुजरे में हाज़िर होकर आशीर्वाद मांगा, फ़तेह अली खान ने दिल से दुआ और आशीर्वाद देते हुए अपना प्रिय हारमोनियम उपहार में दिया, यह वही समय था जब भारत के रेडियो पर हारमोनियम पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था, पर बड़े ग़ुलाम अली खान और अमीर खान जैसे उस्ताद सारंगी के स्थान पर हारमोनियम को प्राथमिकता दे रहे थे।
और फिर स्वाभाविक रूप से, सैयद मुबारक़ अली देहलवी को कथक अपने पिता से विरसे में मिला। उस्ताद मुबारक़ अली देहलवी अद्भुत मनुष्य हैं: पाँच वक़्त के नमाज़ी, गुरुद्वारे के सामने से निकलें तो सिर ढँककर अन्दर जाकर सिर नवाए बिना न रहें और शिवरात्रि के दिन तो उनसे बड़ा कौन शिवभक्त हो सकता है भला!
नर्तकी के उस्ताद मुबारक़ अली के पिता मंसूर अली ही वे पत्रवाहक थे, जो नर्तकी की नानी माँ नीलमणि का प्रेम सन्देश बड़े गुलाम अली तक पहुँचाने गए थे। पत्र पहुँचाने के कई दिन तक जब कोई जवाब नहीं आया तो मंसूर अली ने क़ुबूल किया कि वे स्वयं नीलमणि से प्रेम करते हैं, वह पत्र ऐसे हाथों में देकर ही नहीं आये कि सुनिश्चित रूप से वह पहुँचा होगा। नीलमणि ने उनके प्रेम निवेदन को तो विनम्रता से अस्वीकार कर दिया था पर परिवार के लिए उनकी सेवाओं और कला में महारथ को दृष्टिगत रखते हुए कोई सजा नहीं दी, सेवाएँ जारी रहने दी थीं, अन्यथा नर्तकी को आज उस्ताद मुबारक अली देहलवी जैसा क़ाबिल उस्ताद भी नहीं मिला होता, जिन्होंने उसे कला और जीवन के महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाये, देह और मन के कितने ही रहस्यों से परिचय करवाया, प्रेम और पीड़ा का अन्तर बताया, तात्कालिक सुख और चिरसुख का भेद अनावृत किया।
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नर्तकी मालविका अपना क्षण- क्षण जीवन अपनी शर्तों पर चाहती थी, यानी मेरा जीवन जैसा मैं चाहूँ ठीक वैसा ही, उतना ही, न एक रत्ती कम, न एक तोला अधिक। उसने अपनी अतुलनीय मेधा और साधनावत् श्रम से यह अर्जित किया था कि वह इसके सर्वथा योग्य भी थी। पर प्रेम उसके सुन्दर पाँवों का घुँघरू तो नहीं था। प्रेम की विशिष्टता या सीमा यह है कि सद्भाव पर अवलम्बित होता है, अन्यथा बिन पानी खाद के पौधे की तरह चुपचाप मुरझा जाता है, काल कवलित हो जाता है अर्थात् प्रेम बहुत स्वाभिमानी होता है, उसे ज्ञात था कि दो लोगों का सहजीवन केवल उसकी शर्तों से संचालित नहीं हो पायेगा, सहजीवन का अर्थ है- साथ चलने का न्यूनतम साझा कार्यक्रम अर्थात् कुछ मान लेना, कुछ मनवा लेना। अर्थात् नर्तकी मालविका स्वयं इसे पूर्णतया समझती थी पर उसे अपने ऊपर अभिमान भी कम नहीं था। अथवा अपने जीवन संघर्ष ने उसमें एक अज्ञात-सा भय या असुरक्षाबोध भर दिया था। उस बोध ने एक अभिमान और उस अभिमान ने एक निसंगभाव नर्तकी मालविका के रक्त में प्रवाहित कर दिया था।
परन्तु वह जसविंदर से प्रेम करती थी तो यह भी सम्भव नहीं था कि उसको अपना जीवन अपनी शर्तों पर जीने की अनुमति न दे। साथ होने पर एक का अपनी शर्तों पर जीवन जीने का संकल्प और निश्चय दूसरे के लिए घोर यातना बन सकता है। क्योंकि जब दो सहजीवी लोगों का दृष्टिकोण किसी विषय पर अलग हुआ, तो उनमें से अपनी शर्तों पर जीवन जीने का निश्चय करने वाला व्यक्ति क्रूर हो जाएगा। सहजीवन का अर्थ समवेत शर्तों का होना हो जाता है, वह अपने प्रेमपात्र जसविंदर के लिए क्रूर नहीं होना चाहती थी और उससे इतर चयन के मानसिक स्तर से बहुत आगे आ चुकी थी।
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प्रेम नर्तकी मालविका के जीवन में जिस रूप में आया था, उसे वह जान और पहचान तो रही थी, पर मानने में संकोच हो रहा था। ऋतुओं की पहचान और रंगों की चमक उसे अब भिन्न रूप में हुई थी। धूप-छाँव का ऐसा और इतना अन्तर नर्तकी मालविका को कभी अनुभव नहीं हुआ था। नर्तकी मालविका एक सुख का आवरणात्मक बन्धन अपने मन और देह के चारों ओर आठों प्रहर अनुभव कर रही थी। अपने मेधावी मस्तिष्क से जितना इसका निषेध करने का यत्न करती, मन और देह से उतना ही सकारात्मक आवेग उस निषेध का प्रबल संहार कर देता।
नर्तकी मालविका को अपना नगर, नगर के पास की नदी, नदी के जीव, वायु, गन्ध, पक्षी, थलचर सब नवीन लगने लगे। नर्तकी मालविका ने एक सर्वथा नया संसार अपने समक्ष अनावृत्त होते हुए पाया। नर्तकी मालविका को लग रहा था जैसे उसका अपने ऊपर ही नियन्त्रण नहीं रहा। या इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की वह स्वामिनी है। यह विरोधाभास नर्तकी मालविका को रहस्य और सुख की एक विरल दुनिया, एक पृथक द्वीप की रहवासिनी में परिवर्तित कर रहा था। यह परिवर्तन सूक्ष्म भी था, गहन भी, व्यापक भी, यह परिवर्तन वस्तुतः जीवन की आस्थाओं के विराट परिवर्तन का सूक्ष्मतम आभास दे रहा था।
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सद्य स्नाता नर्तकी मालविका ने आज अपनी वेणी में नवपल्लवित पारिजात के पुष्प सजाये थे। उसकी तीव्र सुगन्ध जसविंदर तक पहुँचकर उसे विचलित कर रही थी, उसका स्वयं पर नियन्त्रण ही खो रहा था। वह अपने आपको इस गन्ध के लिए सर्वस्व समर्पित कर देना चाहता था।
नर्तकी ने पूछा- ‘तुम्हारे लिए जीवन क्या है?’
जसविंदर के लिए प्रश्न निःसन्देह अप्रत्याशित था। उसने एक क्षण अपलक नर्तकी को देखा।
-‘तुम्हे ऐसे देखना।’
-‘धत्।’
-‘सच में।’
-‘और झूठ में?’
-‘बाकी सब जिसे सच मानते हैं।’
-‘शिव शिव शिव मुझे पाप से बचाये, अहम से दूर बनाये रखे।’
-‘आह, बड़ी चिंता है पापमुक्त रहने की। इस जगत में कोई भला पापमुक्त रह सकता है?, इतना अवश्य है कि कुछ पाप हम सायास करते हैं, कुछ अनायास हो जाते हैं।’
-‘वाह! आज तो आपका पाण्डित्य चरम पर है!’
-‘इसे पाण्डित्य नहीं, दर्शन कहिए देवी!’
-‘उत्तम, दर्शन! फिर मृत्यु आपके लिए क्या है?’
-‘मृत्यु निद्रा के विस्तार के अतिरिक्त कुछ भी तो नहीं। जब तक खुलती है, आत्मा देहविहीन हो जाती है, या किसी किसी सिद्धान्त के अनुसार कभी-कभी नयी देह के साथ खुलती है, सुदीर्घतम निद्रा।’
-‘कभी ऐसा हो सकता है, सुदीर्घ निद्रा के उपरान्त हम मिलें, नयी देहों में या नयी देहों से पहले आत्मास्वरूप’
- ‘बिलकुल हो सकता है, सृष्टि लिखती होगी ऐसा भाग्य!’
तदनन्तर दोनों पुष्पवत् निद्रासमाधि में चले गए थे। पर्जन्यवत् वर्षा होती रही निरन्तर। शतद्रुम नदी का जलस्तर बढ़ जाने तक।
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वह रात्रि नर्तकी मालविका के जीवन की सबसे भयावह रात्रि थी। चतुर्दिक निद्रा का कोई चिन्ह नहीं था, मन में उद्विग्नता चरम पर थी। ‘क्या कहा था मैंने? क्यों कहा था? यही कहना उचित था क्या?’ स्वयं को यूँ अपने ही तराजू पर तौलने की आदत नर्तकी मालविका को बाल्यकाल से थी। पर इतनी विकट परीक्षा की घड़ी प्रथम बार ही आयी थी। अपनी ओर भीषण आवेग से आते हुए प्रेम के दरिया को बाँध बनाकर उसकी दिशा मोड़ दी थी। यद्यपि उस प्रेम की प्रतिबद्धता, एकनिष्ठता और सम्पूर्णता पर उसे किंचित भी सन्देह नहीं था, इतनी और ऐसी निष्ठा से प्रेम शायद ही उसे अब तक के जीवन में मिला था, और न शेष जीवनपर्यंत पुनः ऐसे सघन, एकनिष्ठ, प्रतिबद्ध प्रेम की प्राप्ति की उसे कोई सम्भावना थी। परन्तु इस प्रकार से स्वयं को अनन्त सिकता के मध्य अपने ही हाथों से नितान्त अकेलेपन का श्राप दे दिया था नर्तकी मालविका ने। एक नदी द्वारा स्वयं को अनन्त अथाह मरुस्थल हो जाने का कठोरतम श्राप।
फिर कई रात्रियों तक नर्तकी मालविका और निद्रा में सघनतम शत्रुता रही। उसने निद्रा की औषधि लेकर भी सो जाने का उपक्रम किया पर निराशा ही हाथ लगी। नर्तकी मालविका ने जैसे अपनी निद्रा बेच दी थी, अपने प्रिय जसविंदर को यह सन्देश देते हुए कि मेरे जीवन की प्राथमिकता तुम ना तो हो और ना ही हो सकते हो, मेरे जीवन की प्राथमिकता कोई पुरुष नहीं हो सकता, नृत्य मेरे जीवन की प्राथमिकता है।
जसविंदर ने नर्तकी मालविका की बात सुनी और कहा कि यह मुझे पता है, मुझे द्वितीय प्राथमिकता पर रख लो। पर मेरे जीवन की पहली प्राथमिकता तुम्हीं हो। नर्तकी मालविका उसका उत्तर सुनकर स्तब्ध नहीं हुई, नर्तकी मालविका को इसी उत्तर की अपेक्षा थी। ठीक वैसे ही जैसे कि एक कवि यह लिखकर सौ वर्ष पूर्व इस संसार से जा चुका था कि मुझे ज्ञात है कि प्रत्युत्तर में मेरा प्रियतम क्या लिखेगा, तो अगला पत्र पहले से ही लिखकर रख लेता हूँ।
पर नर्तकी मालविका प्रत्याशित उत्तर सुनकर भी भीतर ही भीतर भीग गयी थी, उसका मस्तिष्क जाग्रत हुआ, सक्रिय हुआ, बहुत तीव्र और गहन चिंतन करने पर भी नर्तकी मालविका को यही कहना सूझा कि तुम न पहली, न दूसरी, न तीसरी। कोई प्राथमिकता नहीं हो सकते। तुम सर्वथा योग्य हो कि तुम्हें कोई अपने जीवन की प्रथम प्राथमिकता मानकर प्रेम करे, मैं किसी स्वार्थवश तुम्हारे उस अधिकार से तुम्हें वंचित करने का पाप नहीं कर सकती।
यह कहते हुए नर्तकी मालविका ने ऐसा पर्वत उठाकर जसविंदर पर फेंका, जो वह स्वयं भी उठाने और फेंकने में बाहर भीतर रक्तरंजित हो गयी थी।
प्रेम की इतनी सुन्दरतम अस्वीकृति इतिहास में कभी हुई होगी क्या? जसविंदर कह सकता था, पर उसका प्रत्युत्तर अत्यन्त सुन्दर, सुविचारित और समर्पित मौन ही था।
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नर्तकी मालविका को नदी से अगाध प्रेम था, वह कई बार सूर्योदय से पहले ही सतलुज तीरे पहुँच जाती। सतलुज का अनन्त और विस्मयकारी वैभव नर्तकी मालविका में असीम आत्मविश्वास का संचार करता। इतना कि वह नदी के स्वरूप में स्वयं को देखती थी, और अपने को हिमालय की बेटी मान लेती थी। नर्तकी मालविका दोनों हाथ जोड़कर साष्टांग करते हुए नदी को प्रणाम करती, उसे लगता कि उसका यह प्रणाम कीरतपुर साहब तक पहुँच रहा है और इस तरह से गुरुनानक देव जी तक भी... अपने प्रथम नर्तक गुरु शिव के निवास स्थान कैलाश पर्वत से निकली शतद्रुम अर्थात् सतलुज नदी को प्रणाम करके अपने शिव से अन्तरंग हो जाती थी नर्तकी मालविका। प्रणाम करने के बाद फिर अपने पाँव नदी के प्रवाह में डालकर बैठ जाती, तब तक कि जब तक निकटवर्ती क्षेत्र में जीवन की सरगम नहीं छिड़ जाती थी। नदी के इस किनारे पर मछलियाँ थी, उनके लिए घर से आटे की छोटी-छोटी गोलियाँ बनाकर ले आती थी। कभी मछलियों के रूप में अपनी परिकल्पना करती। मछलियों को खिलाते-खिलाते उनसे अपने मन की बातें कह देती थी नर्तकी मालविका, जिन्हें वह किसी भी जीवित मनुष्य से नहीं कह पाती थी। वह गुनगुना रही थी -
‘यहीं कहीं नदी का ख़त मिला,
रहो यहीं मिट्टी का घर बना।’
यह उसकी भाषा नहीं थी, पर गहन चिन्तन की अवस्था में वह भाषा का बन्धन भी लाँघ जाती थी। यह वस्तुतः उसके गुरु सैयद मुबारक़ अली देहलवी के एक गीत का मुखड़ा था, जो उसे उसी दिन अत्यन्त प्रिय हो गया था, उर्दू, फ़ारसी, अरबी, संस्कृत, पंजाबी और हिन्दी छह भाषाओं के गुणी उस्ताद मुबारक अली देहलवी। वे नर्तकी मालविका से कहते कि हर मनुष्य को एक भाषा के अत्यन्त निकट होना चाहिए, मेरी सलाह है कि तुम्हारे लिए वह भाषा संस्कृतनिष्ठ हिन्दी हो। जब वह कार्तिक पूर्णिमा के दिन जल में दीपदान करके गुरुजी को प्रणाम करने उनके आवास पर गयी थी, तो गुरुजी ने उसे इस गीत का यह मुखड़ा प्रथम बार सुनाया था। नर्तकी मालविका को नदी तट की रेत पर दौड़ना भी प्रिय था, वह भी तब जब वह वहाँ अकेली हो, केवल प्रकृति ही देख रही हो- नर्तकी मालविका को अठखेलियाँ करते। इन अलौकिक क्षणों में नर्तकी मालविका सोचती थी कि ऐसे दौड़ते हुए देखते हुए प्रकृति उसमें समा गयी है और उसने प्रकृति को अपने में आत्मसात कर लिया है। वह स्वयं प्रकृति का पर्याय हो गयी है।
उस सुबह नर्तकी मालविका सूर्योदय से पहले रेत पर दौड़ रही थी, जैसे स्वयं को स्वयं ही पकड़ रही हो और स्वयं ही द्रष्टा भी हो। नर्तकी मालविका को ध्यान नहीं रहा, जैसे ही सूर्य की प्रथम किरण उस तक पहुँची, वह रुक गयी, सूर्य की किरण ही नहीं, एक जोड़ी मनुष्य आँखें भी नर्तकी मालविका की देह को छू रही थीं। ये एक जोड़ी मनुष्य आँखें एक पुरुष की थी। नर्तकी मालविका ग़ुस्से से भर गयी और पैर पटकते हुए वहाँ से भाग खड़ी हुई। आगे बढ़ते नर्तकी मालविका के दो पाँवों के पीछे अदृश्य असंख्य घुँघरुओं का स्वर रह-रह कर नदी के कानों में गूँजता रहा। नितान्त दिव्य, अलौकिक और सुमधुर संगीत।
नर्तकी मालविका के जीवन की विचित्रता यह भी थी कि वह न तो योगिनी थी, न भोगिनी। विलक्षण बुनावट थी उसके व्यक्तित्व की। यही विलक्षणता सकारात्मक भी थी और नकारात्मकता के स्तर को छूती हुई भी। वह सामान्य भी नहीं थी। पर नर्तकी मालविका की असामान्यता पागलपन नहीं थी। व्याधि नहीं थी, यह असामान्यता नर्तकी मालविका को अलौकिक ही बनाती थी। और उसे नर्तकी मालविका इस रूप में दिव्य प्रतीत होती थी, असाध्य मानसिक व्याधि के स्तर तक।
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शुक्ल पक्ष की पंचमी के दिन नर्तकी मालविका भोर से ही उत्सव की मनस्थिति में थी। उसका उत्साह चरम पर था। उसकी देह का रोम-रोम पुलकित था। उमंगातिरेक की इस अवस्था में उसके कटिप्रदेश में अतिरिक्त लोच थी। कमल सरीखे नयनों में तड़ित-सी आभा, (ऐसी आभा देखकर ही एक दिन गुरुजी ने उसका नया नामकरण किया था, ‘क्षणप्रभा’, और उस दिन के बाद से गुरुजी को जब भी नर्तकी मालविका पर अतीव स्नेह उमड़ता तो उसे क्षणप्रभा कहकर सम्बोधित करते, और उस क्षण वह स्वयं को सृष्टि की सबसे भाग्यशाली प्राणी मानती।) उसने अपना श्रृंगारकक्ष खोला। निरभ्र आकाश सम माथे पर टीका बाँधा। नासिका को सजाया। फिर कर्णफूल, कण्ठहार और अन्ततः पाँव का क्रम आया। उसने देखा कि एक ही पाँव के घुँघरू हैं। उसके वाम पाँव के घुँघरू किसी ने चुरा लिए थे। उसने सोचा कि ये चुराना किसी चोर का काम तो कदापि नहीं है। एक पाँव के घुँघरू चुराना तो सुविचारित, प्रयोजनमूलक षड्यन्त्र ही हो सकता है किसी ईर्ष्यालु सखी का। उसकी सहपाठी सखियाँ भी सचमुच विचित्र ही थीं।
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उस दिन नर्तकी मालविका ने ताण्डव नर्तक अपने आराध्य शिव को वार्षिक प्रणाम करने का विधिवत आयोजन रखा था। जसविंदर भी आमन्त्रित किया था। यह उसके लिए नर्तकी मालविका के जीवन में अपनी महत्ता और आवश्यकता को उत्तरदायित्व के साथ समझने का अवसर था। इससे पूर्व वह पूछता था कि तुम्हें अपने जीवन में मेरी आवश्यकता है भी या नहीं? नर्तकी मालविका सदैव कोमलता और अनुनय भाव में कहती कि बिलकुल है न। जब भी जसविंदर अनुभव करता कि कहीं यह रागात्मकता एकपक्षीय तो नहीं है, पूछता कि तुम्हें अपने जीवन में मेरी आवश्यकता है भी या नहीं? और नर्तकी मालविका पूरे मन से और अपने पूरे व्यक्तित्व को समेट कर अपनी जिह्वा पर लाकर कहती कि बिलकुल है जी।
एक क्षणविराम के उपरान्त ‘पता है तुम कैसे हो?’, इससे पहले कि जसविंदर कोई प्रत्युत्तर देता, नर्तकी मालविका ने कहना जारी रखा, ‘साथ चलते हुए, कब तुम प्रेमी से पिता हो जाते हो, पता ही नहीं चलता, तुम साथी नहीं, संरक्षक और जीवन के सारथी हो जाते हो, जिसके विश्वास पर निश्चिंत हो सकता है यात्री। पर फिर क्या प्रेमी रह पाते हो?’
आज नर्तकी मालविका ने नटराज शिव की कांस्य प्रतिमा को स्थापित किया, जसविंदर को अपने वामांग खड़ा करके जलपात्र में पुष्प अर्पित करवाए, दीपक जलाने में एक हाथ स्वयं का और एक हाथ उसका लगवाया। जसविंदर को अनुभव हुआ कि यही उसके अस्तित्व की अनिवार्य जीवन ज्योति है, उसने मन्त्र- ‘एक ओंकार, करता पुरख, निरभो, निर्वेर, अकाल मूरत, अजूनीं सैभं, गुरु प्रसाद’ का मृदुतम उच्चारण पूरा करते हुए नर्तकी मालविका की ओर एक मुस्कान प्रक्षेपित की, उसने उसी तीव्रता और आवेग से परन्तु स्त्रीसुलभ संयम के साथ उसे ग्रहण करते हुए प्रत्युत्तर दिया कि ये मन्त्र मुझे भी बहुत प्रिय है, जब भी इसे सुनती हूँ, या स्वयं इसका उच्चारण करती हूँ, मुझे अनन्त सकारात्मक ऊर्जा से भर देता है, यह कहते हुए नर्तकी मालविका के नेत्रों में दिव्य आभा थी। जसविंदर ने कहा कि मेरे लिए भी यह धार्मिक मन्त्र नहीं, सृष्टि का वह अलौकिक ध्वनि समुच्चय है जो मुझे किसी अन्य लोक में ले जाता है, जहाँ मुझे अपनी होंद यानी अस्तित्व दृश्यमान हो जाता है और आगे के मार्ग को देखने के लिए रश्मियाँ झिलमिलाने लगती हैं।
जब जसविंदर यह बोल रहा था, नर्तकी मालविका उसको बहुत प्रेम से निहारते हुए कहती जा रही थी कि प्रेम नियम और अपवाद दोनों ही से परे है, कुछ लोग इसे विज्ञान से परिभाषित और व्याख्यायित करते हैं परन्तु वस्तुतः विज्ञान के नियमों से तो बस काम और संतानोत्पत्ति ही होते हैं। और उसमें भी काम भी कहाँ, वह तो भाव की क्रीड़ा है, भाव विज्ञान की परिधि में कितना और कब आया भला?
वह चुपचाप सुन रहा था।
‘सारथी जी, और एक बात बतानी है, मेरे गुरु उस्ताद मुबारक़ जी कहते थे कि भावनाओं को तर्को का आवरण देने लगोगे तो जीवन निरर्थक कर लोगे।’
नृत्य नर्तकी मालविका की देह से नहीं, आत्मा से सृजित होता था, भीतर के संगीत का दैहिक रूपान्तरण। इसीलिए वह स्वयं को देह मानना त्याग चुकी थी, किसी भी सामान्य व्यक्ति के लिए यह या तो पागलपन होता या अलौकिक अर्थात् दिव्य अनुभव। नर्तकी मालविका स्वयं भी इसे दिव्य ही मानती थी, इस दिव्यताबोध ने उसे विशिष्ट धरातल पर पहुँचा दिया। मनस् चेतना के अभूतपूर्व, अज्ञात, कल्पनातीत, विलक्षण धरातल।
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आषाढ़ मासे, ऋतु की प्रथम वर्षा से मार्ग की रेत भीग गयी थी। किंचित् कीचड़ भी था। नर्तकी मालविका के काजल से सजे सलोने नयन भी नम थे। जसविंदर का दाँया हाथ अपने बाँये हाथ में थामे नर्तकी मालविका चौराहे की ओर गतिमान थी। उसकी पदचाप संयम और उत्साह का सम्मिलित आभास दे रही थी। वह भी सामान्य नहीं। वहीं, जसविंदर के पाँव सन्तुष्टि और सुख का अनुभव कर रहे थे। न जाने कितने दिनों की अत्यन्त विकट प्रतीक्षा के बाद उसे नर्तकी मालविका ने यह दुर्लभ अवसर दिया था। जसविंदर को लग रहा था कि सृष्टि आज मुझ पर अनन्त दयालु-कृपालु है। जिस क्षण यह माँगा, उस क्षण वह कुछ और भी माँग लेता तो सृष्टि मुक्तहस्त से दे देती। स्यात् सृष्टि ही इर्ष्यालु हो गयी हो, पर फिर उसने पुनर्विचार किया कि इससे अधिक क्या माँगता? उसे लग रहा था कि यह उसके जीवन का श्रेष्ठतम क्षण है, इसे बस यहीं ठहर जाना चाहिए। गति और स्थिरता दोनों एक साथ उसे लुभा रहे थे- अप्रतिम मणिकांचन संयोग। उसे लग रहा था कि वह इस क्षण के लिए पता नहीं कितनी शताब्दियों और जन्मों में भटका है। उसे सर्वदा लगता था कि भटकनें राह दिखाती हैं उसे, जब वह निराशा के गहनतम गर्त में होता है तब भी।
बीच में एक गुरुद्वारा आया, दोनों ने अपने सिर ढँक लिए : नर्तकी मालविका ने चुन्नी से और जसविंदर ने रूमाल से। और तदन्तर ग्यारहवें गुरु श्रीगुरुग्रन्थसाहिब को घुटनों के बल झुककर प्रणाम किया। गुरुद्वारे से बाहर निकलते हुए जसविंदर ने नर्तकी मालविका से पूछा- ‘तुम आस्तिक हो न?’ नर्तकी मालविका ने जवाब दिया- ‘अगर नृत्य को धर्म और ईश्वर माना जाए तो मैं पूरी तरह आस्तिक हूँ, मेरा अंग-प्रत्यंग आस्तिक है।’ जसविंदर ने धर्म और ईश्वर के सन्दर्भ में अपनी सम्मति प्रकट की, उसे धर्म पाँव में एक सुन्दर बेड़ी लगता था। नर्तकी मालविका उसके तर्कों और आस्था से प्रायः असहमत ही थी। प्रेम असहमतियों को आनन्द से ग्रहण करने का नाम है, इसलिए दोनों की असहमतियाँ अधिक समय तक दोनों के बीच अस्तित्वमान नहीं रही। जसविंदर भी तो केवल प्रेम को ईश्वर मानता था, उसके जीवन में इतना ही धर्म था। न इससे अधिक, न कम। कुछ देर दोनों मौन हो गये। चतुर्दिक एक मौन था, जो उन्हें क्रमशः कर्णकटु ध्वनि में परिवर्तित होता हुआ अनुभव हुआ। और उस क्षण नर्तकी मालविका के सूखे होठों पर लिखे शब्द आँखें बन्द करके उसने अपने होठों से पढ़े, पूरी तरह स्पष्ट, नर्तकी मालविका ने शब्द समर्पित कर दिये, जैसे वे उसने उसके लिए ही सहेज रखे थे, इस शब्द समुच्चय में सदियों का इतिहास था और अब इतिहास उसके सीने में धड़कने लगा। सतलुज नदी के पानी से सिंचित खेतों के किनारे दो जोड़ी होठ भीगकर समुद्र हो रहे थे शनैः शनैः ! मधुरतम गहन शान्त समुद्र!
नर्तकी मालविका ने कहा कि क्या तुम्हें पता है कि हमारा सम्बन्ध नदी और सेतु का है, साथ होना, पर मिलना सेतु के विखण्डन से ही सम्भव होता है। प्रत्युत्तरस्वरूप जसविंदर ने कहा- ‘निःसन्देह, कुछ निर्माण ध्वंस की नींव पर होते हैं।’ यह उसकी परम एवं उद्भट सकारात्मकता का प्रकटीकरण था। अगले क्षण दोनों के बीच एक मौन ने स्थान बना लिया पर वह स्थायी नहीं था।
जसविंदर ने नर्तकी मालविका से कहा कि क्या तुमने भी सुना है कि जल की स्मृति अनंत होती है, कभी न मरने वाली। नर्तकी मालविका ने न में सिर हिलाया। उसने इस न को अस्वीकारते हुए उत्तर दिया कि अगर यह सत्य है तो लो, अनन्तकाल के लिए हमारे चुम्बन का साक्षी बना लिया इसे हमने। उसकी बात सुनकर नर्तकी मालविका मुस्कुरा दी। और ‘मेरे पास तुम पर अविश्वास का कोई कारण नहीं’, कहते हुए सम्भवतः अपनी मुस्कान को भी अमर बना दिया।
नर्तकी मालविका ने कहा, ‘तो फिर जल का ही नहीं, वर्षा का स्मृति के साथ एक साहचर्य है, वर्षा कभी हमारी विचार रेखा को भविष्य में नहीं ले जाती, सदैव स्मृतिकोष में ले जाती है।’ उसने कहा, ‘तुम्हारे साथ यात्रा का यही सुख अप्रतिम है। तुम्हारे मन तक पहुँचते हुए मेरे मन ने जीवन की सबसे सुदीर्घ यात्रा, सन्तोषप्रद और सुन्दरतम यात्रा भी कर ली है।’
‘इतना सन्तोष और प्रसन्नता है तो चलो मृत्यु का वरण कर लेते हैं। जानते हो सहजीवन और सहमरण दोनों में सहभाव है, सहभाव ही सर्वथा प्राकृतिक है क्योंकि यही प्रकृति का मौलिक भाव अर्थात् स्वभाव है!’ नर्तकी मालविका ने कहा तो वह आश्चर्य से भर गया। उसके इस आश्चर्य को देखकर वह मुक्तभाव से हँस पड़ी, वह निश्छल हँसी उस स्थान पर शताधिक पुष्प और सुगन्ध बनकर प्रसारित हो गयी।
जीवन और मृत्यु का विमर्श करते हुए वे दोनों मनुष्य प्रजाति के प्राणी दूर तक साथ आ गए थे। चौराहा कब का पीछे छूट चुका था। कई एकड़ तक फैले श्वेत कपास के खेतों को पार करके ज्वार की फसल तक, नील नभ की छत्रछाया में यह वस्तुतः एक लम्बी यात्रा थी, सतलुज के बेटों जैसे लहलहाते खेतों की यात्रा, बाहर भी, भीतर भी। वे सभी तरह की बातें कर रहे थे। नर्तकी मालविका के भीतर जैसे सतलज नदी हिलोरें मार रही थी। कभी वह देर तक अपनी उड़ानों और कल्पनाओं को शब्द देने का प्रयास करती और नर्तकी मालविका का सहगामी जसविंदर अपने कामों, अपनी सफलताओं, असफलताओं, संकल्पों, प्रतिज्ञाओं और अपमानों की कथाएँ सुना रहा था। उसने अन्तिम कथा अपने वर्तमान स्वामी द्वारा अपमान और उससे व्यथित होकर नौकरी छोड़ने की सुनायी। यह सुनाते हुए वह आत्मविश्वास से भरे हुए स्वाभिमानी युवक का आभास दे रहा था। उसने अन्तिम वाक्य सूक्ति-सा कह दिया, ‘मेरी उद्विग्नता ही मेरी गति की स्रोत है’। उसने अल्पविराम की तरह एक साँस ली, तभी ‘सुनो’ कहकर उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करते हुए अगले ही पल नर्तकी मालविका उसे विगत रात्रि का स्वप्न सुना रही थी।
इस क्षण को सम्पूर्ण जीते हुए वह स्वप्न सुनने में तल्लीन था। उसे एक तीव्र प्रहार अपने सिर पर अनुभव हुआ। एक युवक होने की दहलीज पर खड़े किशोर ने एक लाठी से उसके स्वप्न को भंग कर दिया था। ऐसा स्वप्न जो सच में घटित हो रहा था।
नर्तकी मालविका के कण्ठ से आर्तनाद प्रस्फुटित हुआ। वह अचेत हो गयी।
जब चेतना की वापसी हुई, नर्तकी मालविका ने स्वयं को एक शैय्या पर पाया, एक सखि निकट बैठी थी। बगल में नगर के श्रेष्ठतम चिकित्सक द्वारा संस्तुत कुछ औषधियाँ रखी थीं, एक ताम्र जल पात्र भी। सखि ने पूछा, ‘ठीक तो हैं आप? नींद कैसी आयी?’ नर्तकी मालविका ने प्रत्युत्तर दिया, ‘नींद भी ठीक ऐसी जैसे कई रातों बाद जागी हूँ, पर मुझे बताओ, मैं यहाँ कैसे आयी? मुझे क्या हुआ?’
सखी ने कहा- ‘आप विश्राम करें, मैं सब बताती हूँ।’ सखी ने प्रारम्भ किया। वह कथा तनिक विस्तृत थी।
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जसविंदर ने नर्तकी मालविका से कहा कि मुझे तुमको देखकर प्रायः मेरे गाँव की एक बुढ़िया की याद आती है। गाँव की अकेली मस्जिद के पास उसका घर था। ऐसे गाँव की मस्जिद जिस गाँव में कोई मुसलमान नहीं है, कहते हैं कि विभाजन के समय दस के दस मुस्लिम परिवार पाकिस्तान चले गये, पीछे रह गयी वीरान मस्जिद। उस बुढ़िया के घर से गाँव का मन्दिर थोड़ा दूर था, घुटनों में दर्द शुरू होने से पहले ही उसने निश्चित कर लिया था, ‘वीरान मस्जिद में रोज़ सुबह और शाम एक दीपक जला लूँगी, मेरा रब तो इसी से खुश हो जाणा है।’ तुम्हें देखकर उस बुढ़िया की याद आने का उचित कारण या समानता मैं खोजता रहता हूँ पर अब तक मुझे सफलता नहीं मिली, मेरे भीतर कोई वाणी है सम्भवतः वह तुम्हे उससे जोड़ती है।
नर्तकी मालविका ने पूछा, ‘कौन बुढ़िया? क्या करती हैं वे?’ नर्तकी मालविका के स्वाभाविक प्रश्न पर जसविंदर ने बताया कि उसका नाम शान्ति था, पर वह समस्त गाँव की बुआ ही थी, और मस्जिद तक का नाम पड़ गया बुआ वाली मस्जिद। शान्ति बुआ बचपन में ही विधवा होकर अपने पीहर आ गयी थी, फिर संयोग- दुर्योग से उसके पीहरवाला गाँव में कोई नहीं बचा। माता पिता मर गये। एक भाई नौकरी के लालच में दूर चला गया। पर उसने आधी ज़मीन जो नौ बीघा और चार कनाल थी, शान्ति बुआ के नाम कर दी थी, उसी को ठेके पर देकर बुआ जी रही थी। अकेली जान। अधिक खर्च था नहीं, अड़तालीस घरों के सम्पूर्ण गाँव को पैसा उधार देती थी। ब्याज का एक पैसा शेष नहीं छोड़ती थी, गाँव भी बड़ा ईमान वाला था, किसी का साहस नहीं होता था कि बुआ का पैसा खा जाए या निर्धारित ब्याज न दे। जब बुआ की मृत्यु हुई तो अन्तिम इच्छा में पूरा धन और सम्पत्ति गाँव के नाम कर गयी कि गाँव के लोग सार्वजनिक हित में जो निर्माण करना चाहें, जो सबके लिए हो। बुआ ने यह भी लिखा, ‘गाँव का ही पैसा था, अगर मैं ब्याज खाऊँ तो कुम्भीपाक नरक जाऊँ और मेरे मस्जिद वाले अल्लाह को भी तो नाराज़ नहीं करणा मैंने। और अगर इतने साल दीपक जलाने पर मस्जिद पर मेरा कोई हक बनता है तो मेरी दरख़्वास्त है कि पंचायत किसी यारिया गए आदमी से सवेरे शाम दीपक जलाने का इन्तज़ाम कर दे, मेरा रब राजी और मेरी आत्मा को सुकून रहेगा।’ (सतलुज के इलाके की मान्यता के अनुसार ‘यारिया गया आदमी’ उसे कहते हैं जो मर कर ज़िंदा हो गया हो, कई बार समाचार छपते हैं कि फलाँ जगह आदमी मर गया, डॉक्टर ने मरा हुआ घोषित कर दिया, जब जलाने लगे तो ज़िंदा हो गया, फिर वह आदमी उस पारलौकिक यात्रा के क़िस्से सुनाता है और उसके बाद कभी झूठ, पाप का जीवन न जीने का संकल्प लेता है, पंचायतों में ऐसे आदमी की गवाही अत्यन्त विश्वसनीय मानी जाती है।)
नर्तकी मालविका बड़े ध्यान से सुन रही थी, कोई समानता ढूँढ रही थी, स्वयं में और शान्ति बुआ में। उसे निराशा ही प्राप्त हुई। हठात् किसी क्षण उसकी आँखें बन्द हो गईं, वह अकेली चिंतन यात्रा पर निकल पड़ी, तभी जसविंदर ने नर्तकी मालविका को जगाया।
दोनों एक-दूसरे को समझ रहे थे, जी रहे थे, अनुभव कर रहे थे। नर्तकी मालविका अपने नये रूप को जान-समझ रही थी। उसके समक्ष एक सर्वथा नवीन संसार अनावृत हो रहा था- शुभ्र और सुखद।
तभी एक बूढ़ा फ़क़ीर दोनों के पास आया। जसविंदर ने ‘पैरी पौना बाबा जी’ कहते हुए फ़क़ीर को प्रणाम किया, नर्तकी मालविका ने भी उसे देखकर सिर झुका दिया। बूढ़े फ़क़ीर ने आशीष देने की मुद्रा में हाथ उठा दिया। बूढ़े ने कहा, ‘तुहाडी मुहब्बत बणी रवे। चन्न तारयाँ वांग।’ दोनों उसकी बात पर मुस्कुरा दिये। नर्तकी मालविका ने पूछा, ‘बाबा आपका नाम क्या है?’ बूढ़े फ़क़ीर ने कहा, ‘फकीरां दा कोई नां नी होंदा धीए।’ और कहकर वह हरे खेत की पगडण्डी की ओर मुड़ गया।
वे दोनों आगे बढ़े। एक पुराना मन्दिर था, मन्दिर लगभग बिना छत का। बस एक ओट-सी थी। बाहर आवारा घास उसकी रक्षा कर रही थी, दोनों थक गए थे, परिसर के एक टूटे से नल से दोनों ने बारी-बारी से जल पीया और एक चबूतरे जैसी जगह पर बैठ गए। तभी एक पुजारीनुमा आदमी वहाँ आया। गेहूँआ रंग, शरीर दुबला-पतला सा, उम्र 40-42 साल और क़द दरम्याना। भीतर गया और थोड़ी देर में नीला रेशमी वस्त्र बिछी कांसे की एक थाली में जलती हुई ज्योति के साथ आया।
दोनों को विश्वास हो गया कि पुजारी है पर यहाँ रहता नहीं है। दोनों ने क्रमशः अपने हाथों से एक छत्र बनाकर ज्योति ग्रहण करके अपने चेहरे और सिर पर ले ली, सृष्टि के संरक्षण भाव को अनुभव किया। अप्रतिम और सर्वोच्च संरक्षकभाव। नर्तकी मालविका ने दानस्वरूप कुछ धातु मुद्रा अपने हाथ से और कुछ उसके हाथ से थाली में अर्पित की।
पुजारी ने प्रसाद के रूप में कच्चे नारियल के टुकड़े और कुछ बताशे दोनों के हाथ में दिये, तभी उसने पुजारी से पूछा कि एक फ़क़ीर हमें अभी मिला था, लम्बी सफ़ेद दाढ़ी, लम्बा काला-सा मैला कुचैला कुरता, सिर पे पगड़ी। उसने अपना नाम नहीं बताया, वह पंजाबी बोल रहा था।
पुजारी ने कहा, ‘वाह भई वाह। आप तो बहुत भागांवाले हो। वह इस रास्ते पर कभी-कभी दिखता है। वह बुल्ला है यानी बुल्लेशाह। और हर किसी को दिखायी भी नहीं देता है।’
पुजारी की बात सुनके नर्तकी मालविका हँसते हुए बोली, ‘बुल्ले को मरे तो कई सौ साल हो गए।’
पुजारी ने कहा, ‘हाँ। वही बुल्ला है।’
नर्तकी मालविका आश्चर्य से बोली, ‘बुल्ले का भूत!’
पुजारी ने उत्तर दिया, ‘नहीं जी, बुल्ले की रूह। पवित्र आत्माएँ भूत नहीं बनती। वे पाक रूहें किसी का बुरा नहीं करती। बुल्ले के दर्शन कोई चाह कर भी नहीं कर सकता। कई सालों के बाद आप सौभाग्यशाली बने हो। मैं पन्द्रह साल से इस मन्दिर का पुजारी हूँ। इन पन्द्रह सालों में तीसरा मौका है, केवल और केवल मात्र तीन मिनट तेरह सेकिंड ही मिलता है बुल्ला, उस बच्चे को छोड़कर जिसे एक बार दिखा था, जो रास्ता भूल गया था, उसे बुल्ले ने साथ जाके घर पहुँचाया था, पर बच्चे के अतिरिक्त किसी को नहीं दिखा। इसी प्रकार एक बार एक प्रेमी युगल लड़ते हुए यहाँ आया तो बुल्ले ने उनको समझाया कि सच्ची मुहब्बत विरलों को नसीब होती है। बुल्ले ने दोनों को गले लगाया और चला गया। प्रेमी युगल उसे जाते हुए देखता रहा। मुझे तो लगता है कि बुल्ला या तो बच्चों को मिलता है या प्रेमियों को, और प्रेमी भी ऐसे जिनकी रूहें मिलकर रक़्स करें!’
पुजारी की बात सुनकर नर्तकी मालविका और जसविंदर दोनों अवाक् रह गए। दोनों एक-दूसरे की आँखों में देख मुस्कुराए और पुजारी को अनदेखा करते हुए एक-दूसरे से लिपट गये।
तभी आकाश में भयानक मेघगर्जना हुई, क्षणप्रभा प्रदीप्त हुई और वर्षा प्रारम्भ हो गयी। घनघोर अटूट वर्षा। पुजारी के आंगिक निर्देश पर भागकर अनुगामी होकर दोनों ने मन्दिर के ही एक टिनशेड के नीचे शरण ली। टिनशेड भी टपकने लगा। वर्षा रुकी तो शीत बढ़ चुकी थी। नर्तकी मालविका और जसविंदर दोनों प्रायः काँपने लगे।
पुजारी कहीं से सूखी लकड़ियाँ ले आया और अपनी जेब से अधगीली माचिस निकाल कर चार-पाँच प्रयासों में आग जला दी। जग-बुझ करती हुई अधगीली लकड़ियाँ सुलगने लगीं। पुजारी भारतवर्ष के महान लेखक वाल्मीकि द्वारा रचित मर्यादा पुरूषोत्तम राम के वनवास की कथा सुनाने लगा, ‘और ऐसे ही मिथिला की राजकुमारी, जनकनंदिनी सीता माता के आग्रह पर स्वर्णमृग की तलाश में रघुकुल गौरव राम अपने अनुज लक्ष्मण के साथ यत्र-तत्र भटक रहे थे।’
नर्तकी मालविका और जसविंदर की रुचि इस कथा में किंचित् भी नहीं थी। परन्तु घनघोर वर्षा के मध्य निर्जन वनप्रान्तर में असहाय अनुभव करते हुए अपने संकटमोचक के कथाप्रवचन को बाधित करने का नैतिक बल और साहस दोनों में नहीं था।
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नर्तकी मालविका ने जसविंदर को चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन बुलाया, पूछा कि क्या मेरा नृत्य देखना चाहेंगे। यह प्रथम अवसर था जब नर्तकी मालविका ने स्वयं ऐसा प्रस्ताव रखा हो, अन्यथा वही कहता था, या ऐसे नृत्य के अवसर पर उसकी सांयोगिक उपस्थिति होती। आज इस विशेष अवसर पर उसने बिना एक क्षण की देरी किए ‘हाँ’ में सिर हिलाया। उसे प्रतीत हुआ कि यह शापमुक्ति का एक विलक्षण, अपूर्व प्रकार एवं अवसर है। सम्भव है कि इस क्षण की पुनरावृति के लिए उसे फिर सदियों साधनावत् सघन प्रतीक्षा करनी पड़े और उस सघन प्रतीक्षा के उपरान्त भी यह अवसर आये या न आये, कौन जानता है।
नर्तकी मालविका देर तक नृत्यरत रही, तबले और पखावज के संग। वह मन्त्रमुग्ध होकर देखता रहा, नाचते-नाचते जब नर्तकी मालविका थक गयी, कालीन बिछी ज़मीन पर बैठ गयी, नर्तकी मालविका की भंगिमा जानकर तबले और पखावज वाले भानु जी, कानु जी उठकर प्रणाम करते हुए प्रस्थान कर गये।
उनके जाने के बाद दोनों अपलक एक दूसरे को निहारते रहे। जैसे कि कई युग ठहरे रहे। नर्तकी मालविका की थकान जाती रही। और फिर नर्तकी मालविका ने जसविंदर से कुछ क्षण की अनुमति माँगी, भीतर गयी। नर्तकी मालविका ने आकर एक रेशमी वस्त्र की पोटली जसविंदर के हाथों में दी, कहा, आप मुझसे प्रेम करते हैं तो इतना कीजिए कि पटियाला जाइए और काली देवी मन्दिर के पुजारी को इसे दे दीजिए, पुजारी से कहिएगा कि अपने हाथों से खोले और काली माँ को समर्पित कर दे।
जसविंदर ने बिना कोई प्रश्न पूछे, जो नर्तकी ने कहा, वही अक्षरशः किया, पुजारी के हाथों जब पोटली खुली तो उसमें चाँदी के घुँघरू थे। पुजारी ने घुँघरूओं को जल से प्रक्षालित किया, आँखें बन्द करके मन्त्र उच्चारित किए और घुँघरू काली माँ को समर्पित कर दिये। वह पुजारी के पास हाथ बाँधे, आँखें बन्द किए मूर्तिवत् खड़ा रहा।
जसविंदर लौटा तो पूरे नगर में यह समाचार जन-जन तक प्रसारित हो चुका था कि नर्तकी मालविका ने अपनी देह सतलुज को समर्पित कर दी है, जिस स्थान पर यह घटना घटी, एक काला स्याह सर्प भी मृत पड़ा था।
नर्तकी मालविका के कमरे से अन्तिम इच्छा के रूप में एक पत्र प्राप्त हुआ, जिसे विधि विभाग ने वसीयत मान लिया। इस पत्र में लिखा है कि मेरी समस्त सम्पत्ति नगर के सार्वजनिक हित के कार्यों में एक ट्रस्ट बनाकर प्रयोग में लायी जाए। नर्तकी मालविका के कुलज्योतिषि श्रीनिरंजन गोस्वामी सुपुत्र कविराज श्रीहरिचरण गोस्वामी का कथन समाचारपत्र के मुखपृष्ठ पर प्रकाशित हुआ, ‘शतभिषा नक्षत्र के तीसरे चरण में मालविका जी का जन्म हुआ था, जिसके स्वामी शनि होते हैं। शनि लग्नेश भी है अस्तु शनि की दशा शुभफल देती है, राहु की स्वतन्त्र दशा उत्तम फल देती है, परन्तु राहु में शनि या शनि में राहु की अन्तर्दशा शत्रुतुल्य अपार कष्टदायक होती है, यही अनन्यतम सुन्दर परन्तु क्रूर नियति थी उनकी।’
जसविंदर के आँसू सम्पूर्ण नगर में कोई नहीं देख-पढ़ पाया क्योंकि उस दिन नगर में ऋतु की सबसे घनघोर वर्षा हुई थी। कदाचित् यह विलक्षण श्रापमुक्ति थी, दो लोगों की मुक्ति एक ही श्राप से श्रापित, एक ही साथ दोनों की मुक्ति, एकश्राप का सहजीवन और सहमरण, वचनबद्ध जीवनपर्यंत।
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