कुमार शहानी की कविताएँ
23-Mar-2022 12:00 AM 1981

सबा

आती है
सुबह
मेरे गालो को छूने
फिर फेर लेती है आँखें
बिना पूछे उस को
जिसे हम भूल बैठे हैं


मुद्दत

मुद्दत हुई है, यार,
लेकिन घर भी तो न था-
न दहलीज़, न दरवाज़ा
न देश, न विदेश

इक दूजे को कहाँ पायें

नक्शे भी तो बदल गये...

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