कविता का सत्य’ अशोक वाजपेयी
29-Dec-2019 12:00 AM 5854

निरंजन भगत भारतीय कविता और साहित्यजगत् में एक आधुनिक स्थपति के रूप में बहुमान्य हैं। वे उन कवियों में से एक रहे हैं जिन्होंने, विशेषतः हमारे लोकतन्त्र में, कविता में नयी नागरिक आधुनिकता को रूपायित करने की कोशिश कीः ऐसी आधुनिकता जिसमें समावेश, बहुलता और सृजन की अपनी सत्ता का सहज स्वीकार शामिल हैं। यह कविता-नागरिकता खुली, नवाचारी और कई अर्थों में निर्भीक रही है, जि़म्मेदार और सजग होने के साथ-साथ। इस नागरिकता ने कविता के पारम्परिक भूगोल में तात्विक, ऐन्द्रिय और सार्थक विस्तार किया, उसकी प्रश्नवाचकता और उत्तराधिकार के बोध को गहरा किया और कविता के लिए नये मार्ग खोले और प्रशस्त किये। हमारी पीढ़ी और उसके बाद की पीढि़यों का कविसमाज निरंजन भगत जैसे पूर्वज कवियों का ऋणी रहा है कि उनकी उजली विरासत से हम आलोक और साहस, दोनों पाते रहे हैं। मैं इसे अपना सौभाग्य मानता हूँ कि आपने पहले निरंजन भगत स्मृति व्याख्यान के लिए मुझे न्यौता दिया। अगर मेरा व्याख्यान आपको अपर्याप्त लगे या निराश करे तो उसके लिए आपका चुनाव भी किसी हद तक जि़म्मेदार होगा, मेरी अपनी अपर्याप्तता के अलावा।
हमारे समय में सत्य के इतने दावेदार हैं और उनके दावों का ऐसा भयावह तुमुल कोलाहल लगभग रोज़ होता है कि उसमें कविता की बात करना और उसके किसी सत्य पर इसरार करना बहुत कठिन होता जाता है। इस समय की सबसे भीषण विडम्बना यह है कि ऐसी सत्ताएँ हैं जो राजनीति में, धर्म में, विचार और विवाद में झूठ का पूरी बेशरमी और बेबाकी से सहारा लेती हैं और इसका लगातार आग्रह करती हैं कि झूठ ही सच हैं। ऐसे झूठ को तकनालजी के माध्यम से तरह-तरह से दूर और देर तक फैल जाने की बड़ी सुविधा मिली हुई हैः हमारे समय में झूठ बहुत तेज़ फैल रहा है और सच को लगभग सफलतापूर्वक ढाँक-सा रहा है। पाखण्ड, झाँसे, लांछन, गाली-गलौज आदि झूठ के बहुत सक्षम सहचर हैं। हो यह रहा है कि सत्य सीमित, अल्पसंख्यक हो गया है जबकि झूठ
’ ‘निरंजन भगत स्मृति’ में दिया गया व्याख्यान।
लगभग असीम और बहुसंख्यक। झूठ के साथ भय और घृणा भी लगातार फैल रहे हैंः जातियों, धर्मों, सम्प्रदायों, वर्गों आदि के बीच झूठ पर आधारित और उससे पोषित घृणा जितनी आज है, शायद पहले कभी नहीं थी। कई बार यह सन्देह होता है कि मानो झूठ अनिवार्य हो गया है और सत्य सिफऱ् एक दुबका हुआ-सा विकल्प। सार्वजनिक संवाद और उसकी भाषा, व्यापक रूप से, इतनी अभद्र पहले कभी नहीं हुई। विचित्र यह भी है कि इस अभद्रता को सत्ता, राजनीति, धर्म, मीडिया और बहुत सारे पढ़े-लिखे लोग स्वाभाविक और आवश्यक मानकर पोस रहे हैं। सारी संस्कृति अनुष्ठानों, सार्वजनिक तमाशों और तरह-तरह के दिखावों में घटा दी जा रही है। इस कनफोड़ माहौल में जिसमें दूसरी शान्त आवाज़ों के लिए न कोई अवसर है न कोई जगह, कविता के सत्य की बात करना कुछ अटपटा-सा है। इसलिये कविता के सत्य को लेकर जो कुछ कहा जानेवाला है, वह एक अटपटा लगभग अप्रासंगिक वक्तव्य क़रार दिया जा सकता है।
सत्य पर अपना दावा जतानेवाले सदियों से, मनुष्यता के लम्बे इतिहास में, बहुत सारे रहे हैंः अध्यात्म, दर्शन, धर्म, विज्ञान, राजनीति, सत्ता आदि उनमें से कुछ शक्तियाँ हैं जो सत्य की खोज को अपना लक्ष्य बताते हुए, अक्सर उसको सिफऱ् अपने कब्ज़े में होना मानते रहे हैं। इनमें से किसी भी शक्ति को अन्यत्र भी सत्य होने का कोई अहसास या एहतराम प्रायः बहुत कम रहा है। सत्य की बहुलता या उसको खोजने के मार्गों की अनेकता का स्वीकार बहुत कम ही है। इतिहास की यह एक विडम्बना है कि जिसे लगता है कि सत्य उसके पास है, वह उस पर एकाधिपत्य जमा लेता है और वह एक तरह से तानाशाह, सत्य के तानाशाह की तरह व्यवहार करने लगता है। यह तक कहा जा सकता है कि सत्य का लोकतन्त्र बहुत कम बन पाया है, उसकी तानाशाही अधिक बनी-बढ़ी है। इस मुक़ाम पर, इस पर विचार करने का अवसर नहीं है कि सत्य के स्वभाव में ऐसा क्या है कि वह बहुलता की ओर कम, एकनिष्ठता की ओर अधिक झुकता है। इस पर सदियों से लम्बी बहस हुई है कि सत्य कभी पूरा पाया नहीं जाता है, कोई परम सत्य न होता है, न ही कभी सम्भव है। ऐसा भी सोचा जा सकता है कि सत्य आत्मप्रतिष्ठ नहीं होता, उसका कोई-न-कोई सन्दर्भ होता है जो उससे बाहर होता है और जो उसकी सत्यता को प्रामाणिक बनाता है। सत्य का असत्य से कोई संवाद सम्भव नहीं होता क्योंकि सत्य को अपने आप में असत्य का प्रत्याख्यान होता है। ऐसा भी लगता है कि हर युग के अपने सत्य होते हैं जो युग बदलने पर पुनर्नवा किये जाने और उनमें कुछ नये सत्य जोड़े जाने के बाद ही समीचीन हो पाते हैं। दूसरी तरफ़, यह भी सही है कि ऐसे सत्य होते हैं जो सार्वभौम और सार्वकालिक होते हैंः देश-काल के हिसाब से ये बदलते या अप्रासंगिक नहीं हो जाते। दूसरे शब्दों में, सत्य का मामला काफ़ी उलझा हुआ है- हर समय में रहता आया है। हम इसे भी नहीं भूल सकते कि सत्य मानवीय अवधारणा है- वह मनुष्य की खोज, मनुष्य का आविष्कार है। अन्य प्राणियों में या प्रकृति में उसकी कोई कल्पना या अस्तित्व है, इसका कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है।
कविता और सत्य का सम्बन्ध इस लम्बे उलझाव का ही एक रूप है। भारतीय परम्परा में कविता और सत्य के बारे में कोई विचार या विश्लेषण है तो उसका कम-से-कम मुझे पता नहीं है। इसलिए मैं यह मानकर चल रहा हूँ कि कविता और सत्य के सम्बन्ध की बात थोड़ी नयी है। सौन्दर्य-चिन्तन की अपनी परम्परा में हमने सत्य के सन्दर्भ में कलाओं और साहित्य पर विचार नहीं किया है। इसका एक आशय तो यह है कि भारत में साहित्य और कलाओं तथा सत्य के बीच किसी सम्बन्ध की कल्पना ही नहीं थी। उनकी स्वायत्तता और स्वतन्त्रता थी, उनमें रस-ध्वनि-अलंकार-औचित्य आदि की अवधारणाएँ थीं। पर सत्य से या उसकी खोज से उन्हें जोड़ा नहीं जाता था।
इस सन्दर्भ में यह देखा जा सकता है कि समाज, समय और सत्य के साथ साहित्य के सम्बन्ध को देखने की बात हमारे यहाँ अपेक्षाकृत नयी बात है। इसकी शुरुआत आधुनिकता से ही हुई है। आधुनिकता ने ही इस त्रयी को केन्द्रीयता दी है जो उससे पहले नहीं थी। इसका यह आशय क़तई नहीं है कि पहले के साहित्य या कविता में सत्य-समाज-समय नहीं थे। वे तो अनिवार्यतः थे पर उन पर व्यापक विचार नहीं किया जाता था और वे आकलन के प्रतिमान भी नहीं बने थे जैसे कि वे आधुनिकता के दौर में स्पष्टतः बनकर उभरे हैं। पहले कविता इससे जाँची थी कि कितना आनन्द देती है, अब हम इससे परखते हैं कि कितना सच बोलती है।
रबीन्द्रनाथ ठाकुर और अलबर्ट आइन्स्टीन के बीच एक संवाद की याद आती है। कवि कह रहा था कि सत्य और सौन्दर्य की अवधारणाएँ बुनियादी रूप से मानवीय हैं, कि कुछ भी सच या सुन्दर नहीं हो सकता, अगर उसे उसका ऐसा होना मनुष्य न पहचाने। वैज्ञानिक का आग्रह था कि सत्य और सौन्दर्य मनुष्य के देखने या महसूस करने से स्वतन्त्र होते हैं। आकाशगंगा का उदाहरण देते हुए वैज्ञानिक ने इसरार किया कि वह सुन्दर और सत्य है, भले मानवीय दृष्टि उसे नहीं देख पाती या मानवीय मस्तिष्क उस तक नहीं पहुँच पाता। कवि का कहना था कि अगर मनुष्य ऐसा अनुभव न करे तो वह सत्य या सुन्दर नहीं हो सकता। दोनों में से कोई भी दूसरे को अपने से सहमत नहीं कर पाया।
कविता का सत्य एक जटिल अवधारणा है और उसकी जटिलता को समझना ज़रूरी है। कविता का सत्य उसमें अंगीभूत या चरितार्थ अनुभव या अनुभव-पुंज के सत्य से अपना जीवत्व पाता है। यह प्रश्न उठता है कि क्या कविता में प्रकट अनुभव सच्चा अनुभव है। फिर अभिव्यक्ति के सत्य का प्रश्न भी उठता हैः क्या अभिव्यक्त होने से कुछ सत्य हो जाता है? भाषा में सच और झूठ, दोनों सम्भव हैः भाषा में आने से कुछ सच हो भी सकता है, कुछ झूठ भी पड़ सकता है। अज्ञेय ने कभी कहा थाः ‘मैं सच लिखता हूँ, लिख-लिखकर सब झूठा करता जाता हूँ।’ यह प्रश्न उठ सकता है कि क्या कोई सत्य भाषा में आने से पहले भी सत्य रहता है और भाषा उसे सिफऱ् व्यक्त-विन्यस्त भर कर देती है या शायद सही यह है कि भाषा कविता में सत्य को आलोकित या प्रकट भर करती है- उसकी रचना नहीं करती। तब यह प्रश्न बनता है कि क्या सत्य कविता से बाहर स्वतंत्र अस्तित्व में रहता है और कविता उसे भाषा में खींच भर लाती है? क्या भाषा में आकर सत्य वही बना रहता है जैसा कि वह पहले था या कि वह परिवर्तित हो जाता है और इस अर्थ में भाषा सत्य में अपना कुछ जोड़ भी देती है? कविता में भाषा शिल्पित होती है तो उसके साथ उसमें लाया गया सत्य भी शिल्पित हो जाता हैः इसका आशय यह है कि कविता का सत्य शिल्पित सत्य है। अगर शिल्प में कोई कमी या खोट है तो यह सत्य को उसकी सम्पूर्ण जटिलता और उत्कटता में प्रकट करने में सक्षम नहीं होगी।
सत्य अकसर हम सामान्यीकृत करते रहते हैंः हमारा आप्तवाक्य ‘सत्यमेव जयते’ इसी तरह का सामान्यीकरण है; यद्यपि इस समय राजनीति ने उसे बदलकर व्यवहार में लगभग ‘असत्यमेव जयते’ कर दिया है! हम जानते हैं कि आज तो असत्य ऐसा दिग्विजयी जान और दीख पड़ रहा है कि यह सामान्यीकरण सच नहीं होता लगता। कम-से-कम कविता के क्षेत्र में यह कहा जा सकता है कि उसका देवता सामान्यीकरणों में नहीं, ब्योरों में बसता है। ये ब्योरे ऐन्द्रिक, चिन्तनपरक, बौद्धिक आदि हो सकते हैं। शब्द, जिनसे कविता की काया रची जाती है, जीवन की अनेक ठोस छवियाँ कविता में ले आते हैंः उन्हीं से कविता का ऐन्द्रिक आधार बनता है। यही ब्योरे कविता का जीवन को सहज और अहरह स्पन्दन देते हैं।
जीवन के इस स्पन्दन से कविता के सत्य का क्या कोई सम्बन्ध है? एक तो यही कि बिना ऐसे स्पन्दन के सत्य अपने को कविता में चरितार्थ नहीं कर सकता। सत्य अगर जीवन का सार या लक्ष्य है तो भी, कम-से-कम, कविता के लिए जीवन इस सत्य से बड़ा होता है - अधिक विशाल, अधिक व्यापक, अधिक सजीव, अधिक जटिल और अधिक अदम्य। दूसरे, कविता के लिए, एक तरह से, उसका सत्य जीवन और भाषा से ही निकलता हैः कविता अपने श्रेष्ठ क्षणों में भी जीवन और भाषा से बड़ी नहीं होती। यह उन्हें आलोकित-प्रकट करने, प्रश्नांकित और विन्यस्त करने की चेष्टा करती है पर वह उन्हें अतिक्रमित नहीं कर सकती, न ऐसा अतिक्रमण उसकी चेष्टा या आकांक्षा का अंग होता है। अगर कविता किसी तरह का सत्यापन है तो वह जीवन और भाषा का सत्यापन हैः उसमें आकर जीवन और भाषा अधिक सच लगते हैं। कई बार हम जीवन की जटिलता-सूक्ष्मता-वितान को, भाषा की शक्ति और सम्भावना को कविता से ही पहचान पाते हैं, अगर हमारे पास उससे प्रतिकृत होने का धीरज और समय हो।
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हमारा समय चूँकि छोटे-बड़े झूठों से अटा पड़ा है, उनसे प्रायः हर दिन और हर स्तर पर आक्रान्त है, कविता का ज़रूरी और तात्कालिक काम सत्य-कथन हो जाता है। जब आसपास सभी झूठ बोल रहे हों, झूठ से काम चला रहे हों तो कविता सच बोलने का और इसलिए अकेले पड़ जाने का जोखिम उठाने से विरत नहीं हो सकती। पर कविता हमारे समय में और कई काम सत्य-कथन के अलावा करती रही हैः वह समकाल को समझने-निपटने के लिए आवश्यक मिथक रचती है। वह दी हुई दुनिया, दी हुई नैतिकता, दी हुई सामाजिकता, दिये गये निजत्व आदि को अपनी प्रश्नवाचकता के घेरे में लाती है। वह हमारे प्रश्नविमुख दौर में प्रश्न पूछने का दुस्साहस करती है। संसार में ऐसी अनेक चीजें़ हैं, घटनाएँ-अनुभव-भाव-छबियाँ हैं जो हमारे ध्यान के वितान से बाहर रह जाते अगर उन्हें कविता नामांकित न करतीः कविता चीज़ों को नाम देकर उन्हें एक तरह से, सच और टिकाऊ बनाती है। कविता तथाकथित नैतिक सच, सामाजिक सच, राजनैतिक सच, बाज़ारू सच आदि को भी प्रश्नांकित करती हैः आधुनिक काल में कविता लगातार अपने समय और समाज का प्रश्नांकन करती रही है। ऐसा करने का उसे नैतिक अधिकार मिलता है, इस सचाई से कविता अपना प्रश्नांकन भी लगातार करती रहती हैः कई बार उसे अपनी व्यर्थता का भी तीख़ा बोध होता रहता है। अज्ञेय ने कहा हैः
खोज में अब निकल ही आया
सत्य तो बहुत मिले- एक ही पाया।
अन्यत्र वे कहते हैंः
शब्द, यह सही है, सब व्यर्थ हैं
पर इसीलिए कि शब्दातीत कुछ अर्थ हैं।
हिन्दी के एक दूसरे मूर्धन्य कवि शमशेर बहादुर सिंह ने कहा हैः
सत्य का मुख
झूठ की आँखें
क्या- देखें!
सत्य का रुख़
समय का रुख़ हैः
अभय जनता को
सत्य ही सुख है,
सत्य ही सुख।
कविता अगर सत्य से अपने को सम्बद्ध करती है तो वह अभय होती है और अभय देती है। कविता के राज्य में सत्य और भय साथ-साथ नहीं रह सकते। उसके लिए वही सत्य का काम है जो उसे और रसिक को अभय प्रदान करे। स्वयं आतुर न हो बल्कि किसी भी भय का शमन करे।
अज्ञेय ने बहुत पहले यह पहचान लिया था कि
एक मृषा जिसमें सब डूबे हुए हैं-
क्योंकि एक सत्य जिससे सब ऊबे हुए हैं।
और अज्ञेय ने स्वयं कवि और कविता से अपनी मर्यादा में रहने की सलाह दी थीः
जितना तुम्हारा सच है उतना ही कहो।
यह भी याद रखना चाहिये कि कविता, हर हालत और हर समय में, जीवन का, उसकी अपार मोहक जटिलता और बहुलता का उत्सव मनाती हैः वह जन्म ही लेती है संसार के अनुराग से। यह अनुराग ही उसे जो सत्य देता है, वह रागसिक्त सत्य होता है, निरपेक्ष नीरस निस्संग सत्य नहीं। यह भी कह सकते हैं कि चूँकि हमारा जीवन मटमैला ही होता है, उसका कविता में उपलब्ध सत्य भी मटमैला सत्य होता हैः उसमें जीवन की विडम्बनाओं, उत्सुकताओं, घाव-खरोंच, धूलधक्खड़ सबकी अमिट छाप होती है। यह सत्य तटस्थ भी नहीं होताः विनोबा भावे के एक पद का इस्तेमाल कर कहें कि यह सत्य जीवन और उसकी बहुलता के पक्ष में झुका हुआ ‘पक्ष-पाती तटस्थता’ से बिंधा सत्य होता है।
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आयरिश कवि शीमस हीनी ने कभी कहा था कि अगर कविता सत्य और न्याय से अपना क़रार तोड़ दे तो वह विफ़ल होगी। कविता का सत्य मटमैला और पक्षपाती तटस्थ सत्य होता है और उसका न्याय से अनिवार्य सम्बन्ध होता है। हमारे सामान्य जीवन में राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक-धार्मिक कई तरह के अन्याय व्याप्त हैंः हम पर्यावरण, वन-नदी-पर्वत, प्रकृति, पशु-पक्षी आदि सभी मानवेतरों से अत्याचार और अन्याय करते रहते हैं। कविता अपना अद्वितीय सत्य इस व्यापक अन्याय को लक्ष्य कर, उनके शोषण और उनके साथ मनुष्य के लगभग शाश्वत अन्याय को दजऱ् करती है, उनकी व्यथा-विडम्बना को और एक तरह से मनुष्य की न्याय-बुद्धि की तरह उभरती है। दूसरे शब्दों में, कविता अगर सत्य की रंगभूमि है तो साथ ही न्याय की रणभूमि भी। उसका सत्य ऐकान्तिक नहीं हो सकता वह न्याय से अभिन्न रूप से जुड़ा होता है। कविता ऐसी जगह है जहाँ सत्य और न्याय एक-दूसरे के अनिवार्य सहचर और परस्पर पोषक होते हैं।
सत्य और न्याय में सौन्दर्य को भी जोड़ना ज़रूरी है, तभी वह त्रयी बनती हैः सत्य-न्याय-सौन्दर्य। कभी-कभी जब हम ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ कहते हैं तो उसका असली अभिप्राय यही त्रयी है। इस त्रयी को कविता की अपनी राजनीति और अपना अध्यात्म, दोनों ही माना जा सकता हैः राजनीति इसलिए कि कविता सत्य-न्याय-सौन्दर्य को चरितार्थ कर उन्हें समाज में प्रतिष्ठित करने की प्रेरणा देती हैः ऐसा समाज सभ्य नहीं हो सकता जिसमें इन तीनों के लिए आकांक्षा और उनके लिए जगह न हो। साथ ही, ये कविता का अध्यात्म भी हैं क्योंकि ये उसे कविता की विराट् का स्पन्दन हो सकने की आकांक्षा से जोड़ते हैं। कविता, अपने छोटे-छोटे अनुभवों-छबियों-बिम्बों-प्रसंगों से, विराट को स्पन्दित करने का प्रयत्न करती है और यह स्पन्दन आ नहीं सकता अगर कविता में सत्य-न्याय-सौन्दर्य का सजग सतत संस्पर्श न हो। निरंजन भगत ने जब रिल्के की मृत्यु पर लिखी अपनी कविता में कहा कि ‘एक काँटे से घायल होते हुए@तुमने शाश्वत गान के सत्य का सत्यापन किया?’ तो काँटे से शाश्वत गान को जोड़ते हुए वे इसी विराट को अपने पड़ोस में लग रहे हैं। शायद यह भी कह सकते हैं कि कविता कभी विराट से स्पन्दित होती है तो कभी-कभी घायल भी। स्वयं रिल्के की कविता में इस घायल होने का बहुत सघन और मार्मिक अनुभव दजऱ् है। वहाँ भी सत्य-न्याय-सौन्दर्य एक-दूसरे से संगुम्फि़त हैं, कुछ ऐसे कि उन्हें अलगाना सम्भव नहीं है। खुद कविता के सत्य को अलगाना, उसकी रागसिक्त काया से उसे अलग करना, उसे सौन्दर्य और न्याय से दूर कर देखना, उसे निष्प्राण कर देने के बराबर है।
इसी मुक़ाम पर हमें यह पहचान सकना चाहिये कि कविता का सत्य परिणत सत्य नहीं होताः वह हमेशा प्रक्रिया में रहता है। वह शायद कभी परिणति तक न पहुँचता है, न उसे किसी परिणति में पाया जा सकता है। इस अर्थ में वह ऐसा सत्य है जो हमेशा बनने की प्रक्रिया में रहता है पर समापन या परिणति पर कभी नहीं पहुँचता। ऐसा इसलिए भी है कि कविता का सत्य हिस्सेदार सत्य है। कविता स्वयं पूरा सच अपने में अंगीभूत कर ही नहीं सकती। उसका सच तब पूरा होता है जब पाठक या रसिक याने कोई-न-कोई दूसरा उसमें थोड़ा-सा अपना सच भी मिलाये। वह साझा सच होता है और यही कारण है कि अगर इस साझे के कई अलग-अलग रूप हों, जो कि होंगे ही, तो एक ही कविता की अलग-अलग व्याख्याएँ होंगी। महान्-से-महान् कविता का भी अर्थ और आशय, सत्य कभी सुनिश्चित नहीं होताः वह देश, काल, रुचि और दृष्टि के अन्तर से बराबर बदलता रहता है। कविता, सार्थक और बड़ी कविता, अगर हमेशा प्रासंगिक बनी रहती है तो इसलिए कि उसके हर समय में अनेक अर्थ सम्भव और ज़रूरी होते हैं। यह सोच सकते हैं कि कविता का सत्य हिस्सेदार, प्रक्रियाकेन्द्रित होने के अलावा बहुल भी होता है। चूँकि वह परिणत नहीं होता, निश्चित नहीं होता उसे देश-काल से परे उत्तरजीवी होने की सुविधा प्राप्त होती है। बड़ी कविता कालविद्ध होकर भी, बल्कि होकर ही कालजयी होती है- कालातीत होती है।
कविता के सत्य को सत्य की सामान्य धारणा से एक और अर्थ में अलगाना ज़रूरी है। सत्य की जो व्यापक और सामान्य अवधारणा है उसमें वह एकतान, एकनिष्ठ, अन्तर्विरोधहीन, सुगठित, सुसंगत होता है। कविता का सत्य इससे बिलकुल अलग होता हैः वह सत्य बहुलता से उपजता और उसे चरितार्थ करता है, उसमें अन्तर्विरोधों और विलोमों की जगह होती है, उसमें दरारें-विडम्बनाएँ- अराजकताएँ सब होती हैं और वह विसंगत को भी अवकाश देता है। कविता का सत्य अस्तित्व और जीवन की बहुलता को एकीकृत नहीं करता, उसे एकीकरण नहीं संश्लेष चाहिये। अगर पारम्परिक बिम्बों का उपयोग इस स्थिति को समझने में करें तो कह सकते हैं कि कविता का सत्य शान्त समरस अविचलित रामराज्य नहीं, शिव की बारात जैसा होता है जो सबको समटेती चलती रहती है।
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हमारे यहाँ यह कहा गया है कि ‘एकं सद् विप्राः बहुधा वदन्ति’। इस अवधारणा में एक ऐसे विराट सत्य की कल्पना की गयी है जो अनादि-अनन्त है और सर्वत्र व्याप्त है। उसके एक होने पर बल है और इस पर भी कि सत्य एक है पर जानकार लोग अलग-अलग ढंग से उसे व्यक्त करते हैं। मुझे लगता है कि सत्य की ऐसी परम एकता की हमें ज़रूरत नहीं है। इसलिए कि उसकी तथाकथित एकलता उसकी एक तरह की तानाशाही को जन्म देती है, दे सकती है, देती रही है। ख़ासकर कविता के हवाले से हमें यह पहचान सकना चाहिये कि सत्य भी अनेक और बहुल हैं। कवि अलग-अलग ढंग से एक ही सत्य को खोजते-अवगाहते-पाते नहीं हैंः उनकी खोज, उनका अनुसन्धान उन्हें अनेक सत्य पाने, सत्य की बहुलता की ओर ले जाता है। यही नहीं, अकेले साहित्य में कविता का सच, उपन्यास का सच और नाटक का सच भी एक नहीं होतेः वे अलग-अलग सच होते हैं। निराला का सच प्रेमचन्द के सच से अलग था, है। हमें भी सच एक क्यों चाहिये? अलग-अलग सच हमारे सामान्य जीवन का अनुभव हैं। कविता, इस अनुभव से अलग, किसी एक सत्य के शरण्य की तलाश हो, यह क़तई ज़रूरी नहीं है। सत्य के साथ न्याय का जुड़ाव भी तभी सार्थक हो सकता है जब उसमें अनेक सत्यों के होने और उनके एहतराम की सम्भावना हो।
हमारे समय को विश्वव्यापी स्तर पर ‘पोस्टट्रूथ’ का याने सत्यातीत समय कहा गया है। यह अवधारणा यह प्रतिपादित करती है कि हमारे समय में सत्य की केन्द्रीयता और महत्व समाप्त हो गये हैं। समय सत्य के आगे निकल गया है। यों तो यह बात नयी नहीं हैः जाॅर्ज आर्वेल ने द्वितीय महायुद्ध के दौरान लिखा था कि ‘‘वस्तुनिष्ठ सत्य की अवधारणा दुनिया से मिट रही है। अब झूठ इतिहास बनायेंगे।’ सत्यातीत समय की कुछ विशेषताएँ हैंः पहली यह कि वैकल्पिक तथ्य असली तथ्यों का जगह लेते हैं और भावनाओं का साक्ष्य से अधिक वज़न होता है। दूसरी यह कि वह एक तरह की विचारधारात्मक श्रेष्ठता का रूप है जिसके रहते उसके प्रयोगकर्ता किसी को ऐसे कुछ में विश्वास करने के लिए विवश करते हैं, जिसका कोई अच्छा साक्ष्य हो या न हो। तीसरी कि पैसे के बल पर किसी भी सिद्ध वैज्ञानिक सिद्धान्त को संदिग्ध बनाया जा सकता है, एक वैकल्पिक सिद्धान्त का छद्म खड़ा करके और उसे मीडिया और जनसम्पर्क द्वारा व्यापक रूप से फैलाया जा सकता है। चैथी कि सत्यातीत समय की सचाई को कुछ चुने हुए तथ्यों के चतुर नियोजन से गढ़ा जा सकता है, उन तथ्यों को छोड़ते हुए जो इस नियोजन की पुष्टि न करते हों। पाँचवीं यह कि समान अवसर या अवधि देकर सच्चे और झूठे, दोनों पक्षों के बीच एक अवास्तविक्त समता बना दी जाती है।
आज भारत में व्यापक रूप से जो रहा है वह इन सब विशेषताओं को लिये हुए है। ये विशेषताएँ हमें इस क़दर आक्रान्त किये हैं कि इतिहास, स्मृति, परम्परा सबके बारे में अब लगातार झूठ फैलाये जा रहे हैं और असत्य की एक विशाल भजनमण्डली बन गयी है। यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि इस हालत में कविता का अपने सत्य पर टिके रहना पहले से कहीं अधिक कठिन और ख़तरनाक हो गया है। इस स्थिति में एक और सूक्ष्म बाधा यह है कि सच्ची कविता अपने पर, अपने सत्य पर सन्देह भी करती है। यह सन्देह उस पर असत्य का पक्षधर हो जाने के लिए दबाव की तरह इस्तेमाल किया जाता है। तर्क कुछ यों बनता हैः जब कविता को स्वयं अपने सत्य पर सन्देह है तो उसे उस तथाकथित सत्य को क्यों नहीं स्वीकार कर लेना चाहिये जो व्यापक रूप से फैल रहा, मान्य हो रहा है? कहा जा सकता है कि सौभाग्य से सच्ची कविता अभी तक झूठ के झाँसों में नहीं आयी है और अपने सत्य पर जि़द करके अड़ी हुई है। कविता आज अल्पसंख्यक भले हो गयी हो, वह असत्य और उससे उपजनेवाली घृणा और हिंसा के विरुद्ध सत्याग्रह है। उसका अपना स्वराज्य, प्रभाव में कितना ही सीमित, इसी सत्याग्रह की जगह है। अगर कविता इस सत्याग्रह से विरत होती है तो वह अपना सत्य भी गँवा बैठेगी, यह स्पष्ट है। सौभाग्य से ऐसी आशंका करने का कोई आधार नहीं है कि वह अब झूठ से ललचा रही है। झूठ के घटा टोप में हम कविता से सच कहने और उस पर अड़े रहने की उम्मीद छोड़ नहीं सकते। अभी तक उसने इस उम्मीद को झुठलाया नहीं है।
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कविता भाषा में रची जाती है और उसका सत्य भाषा में ही चरितार्थ होता है। आज भाषा व्यापक अवमूल्यन और लगभग अमानवीय दुरुपयोग का लगातार शिकार बनायी जा रही है। सार्वजनिक संवाद की भाषा इतनी भोंथरी, सँकरी और आक्रामक पहले कभी नहीं हुई जितनी आज है। भाषा का यह दुव्र्यवहार राजनीति, धर्म, मीडिया, विज्ञापन आदि सभी कर रहे हैं। भाषिक पर्यावरण इतना प्रदूषित हो गया है कि उसमें सिफऱ् अभिधा का आतंक है। भाषा की अन्य शक्तियाँ हाशिये पर चली गयी हैं। झूठ-हिंसा-घृणा का जो घटाटोप छाया हुआ है उसमें भाषा की शब्दसम्पदा, भावसम्पदा, विचारसम्पदा आदि सभी एक तरह तरह से अनावश्यक से हो गये हैं, बहिष्कृत हैं। स्वयं अज्ञान शिखर से इतने आत्मविश्वास से लगभग रोज़ चीखता-पुकारता है कि भाषा की ज्ञानसम्पदा उसमें सम्प्रेषण के लिए एक अड़ंगा मानी जाने लगी है। लगभग जानबूझकर भाषा को स्मृतिहीन, अन्तध्र्वनियों से रिक्त, विवेक से विरत किया जा रहा है। हिन्दी का तो आलम, दुर्भाग्य से, यह है कि वह गाली-गलौज, लांछन-आरोप, झूठ आदि की आक्रामक भाषा बन गयी है जिसमें विचार और विवेक सम्भव या मौजूद ही नहीं लगते! आज कविता इस भाषायी क्षरण का प्रतिरोध है। वह ऐसा कुछ कविता में लाने का प्रयत्न है जो हमारे सामान्य ध्यान और अनुभव से लगातार बाहर रहा आता है। यह भी कह सकते हैं कि जिसे भाषा से सार्वजनिक सम्वाद में बाहर छोड़ या कर दिया गया है, कविता उसे अन्दर लाने की कोशिश करती है। जो इस समय कहने से बचा जा रहा है, जो कहने में कुछ जोखिम है, कविता उसे कहने का दुस्साहस करती है। वह अपना सत्य इसी साहस से अर्जित करती है। जब बोलना ज़रूरी हो और उसे द्रोह तक क़रार दिया जा सकता है तब बोलना, जो अकथनीय है उसे कथनीयता के अहाते में लाना, जब याद करने की बजाय भूलना एक सार्वजनिक व्याधि की तरह फैल गया हो तब याद करना, कविता यही कर अपना सत्व अर्जित करती है। वह भाषा के मानवीय और नैतिक कर्तव्य की विधा इस तरह बन पाती है। ऐसा समय हो सकता है और लगता है कि हमारा समय ऐसा है जिसमें कविता भाषा और अभिव्यक्ति से कहीं आगे जाकर अन्तःकरण की विधा बन जाती है। आप को याद होगा कि महात्मा गाँधी शुरू में कहते रहे थे कि ‘ईश्वर ही सत्य है’ पर अपने जीवन के उत्तराद्र्ध में उन्होंने कहा कि ‘सत्य ही ईश्वर है’। कुछ इस मुहावरे का उपयोग कर हम कह सकते हैं कि आज कविता का अन्तःकरण ही उसका सत्य है।
अन्तःकरण की बात करते ही हिन्दी कवि गजानन माधव मुक्तिबोध की याद आती है जिन्होंने लगभग 65 वर्ष पहले ‘अन्तःकरण का आयतन संक्षिप्त’ होने से पहचाना था। उन्होंने यह भी पहचाना था कि ‘विराट झूठ के अनन्त छन्द-सी@भयावनी अशान्त पीत धुन्ध-सी@सदा अगेय’। पर उन्होंने यह चेतावनी भी दी थी ‘अपने सत्य की गोद में बन्द न हों।’ सत्य, कविता का सत्य वही काव्य जो खुला हो और अपने या किसी को बन्द न करे। कविता को ‘सुन्दर जाल’ नहीं होना चाहिये ‘एक जलता सत्य देने टाल।’
हमारे यहाँ ऐसे कवियों का लम्बा सिलसिला है जिनके बारे में यह कहा जा सकता है कि उन्होंने अपने अन्तःकरण को कविता में रूपायित कर कविता का सत्य चरितार्थ किया। मुझे विश्वास है कि निरंजन भगत ऐसे ही कवि हैं जिनके यहाँ अन्तःकरण और सत्य तदात्म हैं।
श्रीकान्त वर्मा ने अपनी एक प्रसिद्ध कविता ‘तीसरा रास्ता’ में कहा थाः
... असत्य कहें,
असत्य करें
असत्य जिएँ।
सत्य के लिए
मर मिटने की आन नहीं छोड़ें
इस कविता का समापन श्रीकान्त जी ने ऐसे किया थाः
मित्रो,
तीसरा रास्ता भी
है-
मगर वह
मगध,
अवन्ती
कौसल
या
विदर्भ
होकर नहीं
जाता।
कविता का सत्य यही रास्ता है और वह सत्ता और अधिकार से अलग है। उसे पाने-समझनेवाले तीसरे रास्ते पर ही होते हैं।

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