कविता की एक सतह यह भी उदयन वाजपेयी
20-Jun-2021 12:00 AM 1138

1.
कविता का साक्ष्य अप्रत्याशित होता है। वह किस दृष्टि से संसार की साक्षी होगी, इसका पूर्वाभास सम्भव नहीं है। कविता का स्वभाव अपने आप चरित्रार्थ होता है। इसी तरह कविता में अन्तर्भूत राजनैतिक दृष्टि जो दरअसल कविता की नैतिक दृष्टि का ही प्रतिफलन होती है, भी अप्रत्याशित होती है। उसे राजनैतिक उचित व्यवहार (पोलिटिकल करेक्टनेस) से केवल दूषित किया जा सकता है क्योंकि कविता की राजनैतिक या नैतिक दृष्टि उसके सौन्दर्यबोध्ा का ही एक आयाम होती है। शायद यह कहना ज़्यादा सही होगा कि कविता की सौन्दर्यदृष्टि ही एक अलग कोण से उसकी राज-नैतिक दृष्टि ही होती है।
विजयदेव नारायण साही की कविता पर विचार करने से पहले यह याद रखना अच्छा है कि वे हिन्दी साहित्य के बेजोड़ आलोचक हैं। उनके आलोचनात्मक गद्य का समकक्ष किसी भी भारतीय भाषा में कम ही मिल सकेगा। वे गद्य, फिर वह आलोचनात्मक ही क्यों न हो, की लय को साध्ा लेना जानते थे। उनके आलोचनात्मक निबन्ध्ा पढ़ते हुए तर्कपूर्ण विवेक के जितने दर्शन होते हैं उससे कहीं अध्ािक गद्य में अन्तःसलिल लय का अनुभव होता है। आलोच्य कृति का सौन्दर्य रेखांकित करते हुए उनका गद्य उस स्वयं सौन्दर्य का रूपक बन जाता है। मानो उसने आलोच्य कृति के समक्ष एक ऐसा आईना रख दिया हो जिसमें वह अपना सौन्दर्य अनुभव कर सके।
वे मुक्तिबोध्ा के शब्दों में संवेदनात्मक ज्ञान सम्पन्न आलोचक रहे हैं।

2.
साही हिन्दी में बिरले अध्येता-कवियों में एक हैं। अगर इसमें उनका सामाजिक कार्यकर्ता होना भी जोड़ दिया जाये, वे और अध्ािक बिरले कवि हो जायेंगे। अध्येता-कवियों की संस्कृत और दूसरी भारतीय भाषाओं में लम्बी परम्परा रही है। यूरोप और लातीन अमरीका में भी ऐसे अनेक कवि रहे हैं। एज़रा पाउण्ड और आॅक्टावियो पाज़ आदि को यही कहा जा सकता है। हिन्दी में प्रसाद, निराला, अज्ञेय, मुक्तिबोध्ा, कमलेश जैसे कवि हुए हैं जो अद्वितीय होने के साथ गहरे अध्येता भी रहे हैं। अगर हम इस वृत्त को कुछ और बड़ा कर इसमें अन्य कला विध्ााओं को भी शामिल कर लें तो हम पाएँगे कि मसलन ध्ा्रुपद संगीत की डागर परम्परा में अध्येता गायक या वादक लगभग बीस पीढि़यों तक हुए हैं। उसी तरह मणि कौल, कुमार शहानी जैसे फि़ल्मकार भी अध्येता फि़ल्मकार ही कहे जायेंगे। बल्कि कुछ फि़ल्म आलोचकों ने महान फि़ल्मकारों को चिन्तक ही माना है।
साही के काव्य सृजन में उनकी अध्येतावृत्ति का भी योगदान हैं। यह नहीं कि वे जो पढ़ते थे वही लिख देते थे। पर उनकी अध्येतावृत्ति ने उनकी कविताओं में वैचारिक उद्वेलन का एक गहरा आयाम जोड़ा है। इससे उनकी कुछ कविताएँ यदि सपाट हो गयी हैं तो कुछ कविताओं ने बिल्कुल ही अनूठा रूप ले लिया है। एक जर्मन अभिव्यंजनावादी चित्रकार (जिनका नाम मैं अभी याद नहीं कर पा रहा) ने एक बातचीत में कहा था कि उनके कला सृजन के दौरान उनका पहले से प्राप्त ज्ञान (जिसे ़लाबे ने रिसीव्ड आइडियाज़ कहा था) ऐसे चतुर नौकर की तरह उपस्थित रहता है जो सृजन-प्रक्रिया में अनचाहे अतिथियों के हस्तक्षेप को रोकता है। साही के यहाँ जब-जब ये चतुर नौकर उनके कविता लेखन के दौरान सक्रिय हो पाता है, उनकी कविता में गाढ़ी उजास फैल जाती है। कई बार उनका अध्ययन उनकी संवेदना में घुलकर काव्य-प्रक्रिया शामिल हो जाता है और ऐसे क्षणों में उनकी काव्य संवेदना एक ऐसा रूप लेती है जिसमें उनकी समझ की भीनी खुश्बू बिखरी होती है।
उनकी ऐसी ही एक कविता हैः ‘प्रार्थनाः गुरु कबीरदास के लिए’।
यह सम्भवतः साही की सबसे ज़्यादा उद्धृत कविता होगी। इसका शायद एक कारण यह है कि उसकी एक सतह रोज़मर्रा जीवन से जुझते मनुष्य के प्रति गहरी करुणा और संवेदनशीलता को जगाती है। इस सतह पर यह कविता दुःख में डूबे संसार भर के मनुष्यों पर सहानुभूति का कोमल हाथ फेरती महसूस होती है। साथ ही इसमें कवि सच बोलने के अपने अध्ािकार का भी पूरे ज़ोर-शोर से इसरार करता है। इस कविता की खूबी यह है कि इसे पढ़ते समय इसमें एक से अध्ािक सतहों का आभास बना रहता है। यह लगता रहा है कि इसमें ऐसा कुछ ज़रूर है जो सीध्ो-सीध्ो नज़र नहीं आ रहा। इसकी कोई और सतहें भी हैं जो छिपी हुई-सी है। यह आलेख उनमें से ही एक सतह को किसी हद तक टटोलने की कोशिश है। इस कविता में इन दो के अलावा भी कई और सतहें नये-नये कल्पनाशील पाठकों के संयोग से पैदा होती रहेंगी और उन्हें भी वक़्त-वक़्त पर आलोकित किया जाता रहेगा। कविता शायद इसी तरह उत्तरजीवी होती है।

3.
साही इस कविता में कबीरदास को अपना गुरु बताते हुए, उनसे कुछ प्रार्थना कर रहे हैं। यह प्रार्थना कबीरदास से ही क्यों की जा रही है? हम सिर्फ़ अनुमान लगा सकते हैं। कबीर की अनेक कविताओं के विषय में यह कहा जा सकता है कि उनमें अनेक गूढ़ संकेत छिपे हैं जिन्हें समझना आसान नहीं है। मसलन कबीर की कविता में ऐसी अनेक उलटबाँसियाँ हैं जिनके मोटा-माटी अर्थ भी निकालना आसान काम नहीं है। उदाहरण के लिए जब वे अपनी एक कविता में ‘दरिया लहर समाय’ कहते हैं तब इस उलटबाँसी सीध्ाा-सीध्ाा अर्थ निकालना मुमकिन नहीं है। आखिर समुद्र अपनी ही एक लहर में कैसे समा सकता है और अगर ऐसा मान भी लिया जाय तो उसका आशय एक विचित्र-सी अतियथार्थवादी छवि के अलावा और क्या होगा? अगर यह नहीं तो फिर इसका ध्वन्यार्थ या संकेत क्या हो सकता है? योगवासिष्ठ जैसे कुछ ग्रन्थों में समग्रता या ब्रह्म को समुद्र या दरिया से उपमित किया गया है। वहाँ यह कहा गया है कि जिस तरह समुद्र में अनेक लहरें होती हैं और हर लहर समुद्र से उठकर उसी में समा जाती है, उसी तरह जीव यानी व्यक्ति ब्रह्म से उत्पन्न होकर उसी में समा जाता है। लेकिन यदि इस जीव यानी लहर को यह अनुभव हो जाये कि वह समुद्र ही है तो इसे ज्ञान प्राप्ति कहा जाता है। यह एक ऐसा क्षण है जब लहर में समुद्र समा जाता है। कबीर अपनी कविता में सम्भवतः आत्मबोध्ा के इसी क्षण का संकेत कर रहे हैं। ऐसी उलटबाँसियों और बहुस्तरीय कविता लेखन के उस्ताद कवि कबीरदास से साही शायद यह प्रार्थना कर रहे हैं कि उनकी कविता में भी वे सारे गुण आ जायें जिनका अनुभव साही को कबीर की कविता पढ़ते हुआ था। दूसरी ओर साही की कविता पाठकों को अपने भीतर गूढ़ तत्त्वों को ढूँढ़ने का प्रयास करने का आमन्त्रण दे रही है। वह आग्रह कर रही है कि उसे भी वैसे ही पढ़ा जाय जैसे गुरू कबीरदास की कविता को पढ़ा जाता है। उसके अर्थ केवल उसमें नहीं उसके शब्दों से, शब्द-विन्यासों से कहीं और भी जागते हैं।

4.
परम गुरु
दो तो ऐसी विनम्रता दो
कि अन्तहीन सहानुभूति की वाणी बोल सकूँ
और यह अन्तहीन सहानुभूति
पाखण्ड न लगे।
साही की कबीर को प्रार्थना की शुरुआत ऐसी विनम्रता की माँग (प्रार्थना में ‘माँग’ के सहारे ही इष्ट को रूप दिया जाता है) से होती है जिससे अन्तहीन सहानुभूति की वाणी बोली जा सके। पहले तो इस ‘अन्तहीन सहानुभूति’ पर थोड़ा ठहरकर सोचना होगा। यह कब सम्भव है कि कोई मनुष्य सभी के साथ सह-अनुभूति की अवस्था में आ जाये? क्या इसे अभी हाल में सहानुभूति पर प्रकाशित वैज्ञानिक वायलूर रामचन्द्रन के शोध्ा-परिणामों से समझा जा सकता है?
रामचन्द्रन जग प्रसिद्ध और विश्वसनीय न्यूरोलाॅजिस्ट हैं। उन्होंने कुछ बरस पहले यह दर्शाया है कि जब हम किसी अन्य की पीड़ा से सहानुभूति रखना शुरू करते हैं, हमारे मस्तिष्क की भी ठीक वही तन्त्रिकाएँ (नर्व सेल्स) सक्रिय हो उठती हैं जो पीडि़त व्यक्ति के मस्तिष्क में पीड़ा के कारण सक्रिय हुई हैं। इस तरह उन्होंने पहली बार यह साबित है कि सह-अनुभूति सिर्फ़ मानसिक अवस्था नहीं है, वह शारीरिक स्तर पर भी बदलाव लाती है। सहानुभूति अनुभव करने की स्थिति में हम लगभग पीडि़त मनुष्य के जैसे स्थिति से गुज़रने लगते हैं। रामचन्द्रन ने सहानुभूति के फलस्वरूप सक्रिय हुई तन्त्रिकाओं को मिरर न्यूरोन्स कहा है। इस सिद्धान्त की रोशनी में किसी एक व्यक्ति से सहानुभूति रखना तो समझाया जा सकता है पर वह सान्त (स$अन्त) सहानुभूति ही होगी।
ज़ाहिर है साही अपनी प्रार्थना में सहानुभूति के इस स्तर की बात नहीं कर रहे।
अभिनव गुप्त ने बारहवीं शती में रस के अनुभव की जो व्याख्या की है, उससे शायद इस ‘अन्तहीन सहानुभूति’ को समझने में कुछ मदद मिल सके। उन्होंने कहा है कि रसास्वादन की अवध्ाि में भावक अपरिमित प्रमात्तृत्व की अवस्था को प्राप्त होता है। इसकी विशद व्याख्या में न जाते हुए हम इसे इस तरह समझ सकते हैं कि यह वह अवस्था है जब भावक खुद को हरेक में अनुभव करता हुआ, हरेक का प्रमाता हो जाता है। वह इस दौरान अपने व्यक्तिगत अहंकार को छोड़कर अपने को हरेक में और हरेक में अपने को अनुभव करना शुरू कर देता है। इसे ही कबीर ने इस तरह कहा हैः
हम हां सब मां सब हां हम मां
हम हैं बहुरि अकेला
‘अन्तहीन सहानुभूति’ केवल रसास्वादन की प्रक्रिया में संलग्न इसी बहुरि अकेला को ही सम्भव है। इसके बिना ये शब्द महज़ शब्द होकर रह जायेंगे। इनका कोई संकेतन नहीं होगा। शायद साही इन शब्दों में कबीर से प्रार्थना कर रहे हैं कि इन्हें पढ़ते समय पाठक ‘अन्तहीन सहानुभूति’ की अवस्था से गुज़र सके यानि उनकी कविता में रस निष्पत्ति हो।

5.
दो तो ऐसा कलेजा दो
कि अपमान, महत्वाकांक्षा और भूख
की गाँठों में मरोड़े हुए
उन लोगों का माथा सहला सकूँ
और इसका डर न लगे
फिर कोई हाथ ही काट खाएगा।
इन पंक्तियों में ‘अपमान’ ग़रीब व्यक्ति का द्योतक है, ‘महत्वकांक्षा’ का संकेत मध्यवर्गीय व्यक्ति की ओर है और ‘भूख की गाँठों में मरोड़े हुए’ का लक्ष्य ग़रीबी से भी नीचे रहते भिखमंगों लगता है। दूसरे शब्दों में ये सारे ही तबके उन लोगों के हैं जो आध्ाुनिक समाज में कम या अध्ािक चोट खाये हुए हैं। ये वे लोग हैं जो अपने लगातार होते अपमान, महत्वकांक्षा और निधर््ानता में इतने गहरे डूबने के कारण संस्कृति की तमाम बारीकियों को अविश्सनीय मानने लगे हैं। इनका माथा निर्भय होकर तभी सहलाया जा सकता है, इन्हें सान्त्वना तभी दी जा सकती है जब इनके भीतर के उदात्त स्वरूप जाग्रत किया जा सके जो ग़रीबी और बदहाली में भी अक्षुण्ण बना रहता है। जब इनके क्षुद्र अहंकार को विस्तारित कर उसे अस्तित्व मात्र में रूपान्तरित किया जा सके। इस कविता में कवि एक ऐसी कविता लिख पाने की गुज़ारिश कर रहा है जो इन चोट खाये लोगों को उनकी उदात्तता में जगा सके।
बारहवीं शताब्दी के काव्यशास्त्री आचार्य मम्मट ने कविता के प्रयोजन के विषय में अपनी पुस्तक ‘काव्यप्रकाश’ में विस्तार से विचार किया है और उसकी लाजवाब हिन्दी टीका आचार्य विश्वेश्वर ने लिखी है। मम्मट ने कविता के प्रयोजन यश, अर्थ (ध्ान), लोकव्यवहार, अमंगल का नाश और सद्यःपरनिर्वृत्ति गिनाये हैं। इनमें से यश, अर्थार्जन, लोकव्यवहार और अमंगल का नाश सीध्ो-सीध्ो समझ में आते हैं। कालिदास की कविता का प्रयोजन यश प्राप्ति है, ध्ाावक कवि की कविता का अर्थार्जन और अन्यान्य कविताओं का प्रयोजन लोकव्यवहार और अमंगल का नाश आदि हैं। इसका यह अर्थ नहीं है कि इन कवियों की कविताओं में सद्यःपरनिर्वृत्ति का प्रयोजन नदारत है। वह भी इन कविताओं में है पर इनमें यश, अर्थ आदि प्रयोजन भी साफ़ दिखायी देते हैं।
सद्यःपरनिर्वृत्ति थोड़ा गूढ़ प्रत्यय है। इसका एक सीध्ाा अर्थ आनन्द है। लेकिन इसकी एक और व्याख्या वागीश शुक्ल ने की है। उनका कहना है कि सद्यःपरनिर्वृत्ति में सद्यः का आशय ‘तुरन्त’ है। ‘पर’ का आशय ‘दूसरा’ या ‘दूसरे’ है और ‘निर्वृत्ति’ का आशय ‘घेरे से बाहर आना’ या ‘मुक्त’ होना है। अगर इन तीनों हिस्सों को जोड़ दिया जाए तो सद्यःपरनिर्वृत्ति का आशय दूसरे के घेरे से तुरन्त बाहर आना या दूसरे से तुरन्त मुक्त होना निकलेगा। कविता में, मम्मट के अनुसार, ऐसी सामथ्र्य होती है कि उसको अनुभव करते समय पाठक के लिए तुरन्त ही ‘अन्य’ का लोप हो जाता है। अन्य का लोप तभी हो सकता है जब अहंकार या ईगो का विलय अस्तित्व मात्र में हो जाये। यानि जब वह अपने को अन्यों से अलग मानने के स्थान पर अन्यों और अपने बीच के विभेद को अनुभव करना बन्द कर दें। दूसरे शब्दों में जब उसका अहंकार फैलकर अस्तित्व मात्र हो जायेगा। इसीलिए कवि अपनी कविता का प्रयोजन सद्यःपरनिर्वृत्ति बनाना चाहता है। पर वह इसी कविता के साक्ष्य से यह जानता है कि कविता अपना प्रयोजन अपने रूपाकार में प्रकट करती है। कवि ऐसी कविता लिख सकने की प्रार्थना कर रहा है जिसमें यह मूल्य अनुस्यूत हो।

6.
दो तो ऐसी निरीहता दो
कि इस दहाड़ते आतंक के बीच
फटकार कर सच बोल सकूँ
और इसकी चिन्ता न हो
कि इस बहुमुखी युद्ध में
मेरे सच का इस्तेमाल
कौन अपने पक्ष में करेगा।
इन पंक्तियों में एक शब्द ऐसा है जिस पर विचार करना आवश्यक लगता हैः निरीहता। निरीहता का हिन्दी में प्रचलित अर्थ ‘किम कत्र्तव्य विमूढ़ता’ या कमज़ोरी जैसा कुछ हो गया है। पर यह शब्द जहाँ से आया है वहाँ इसका अर्थ बिना प्रयत्न या बिना इच्छा या अनायास है। इसका मूल शब्द ‘ईहा’ और उपसर्ग ‘निः’ है। इन पंक्तियों में कवि जो इस कविता का काव्य पुरुष है, गुरु कबीरदास से ऐसा सच बोलने की शक्ति पाने की माँग कर रहा है जो अनायास बोला जा सकता है। यहाँ ‘निरीह’ (अनायास) का प्रयोग शायद इसलिए किया गया है कि कवि सोचा-समझा सच बोलना नहीं चाहता। ऐसा सच बोलना नहीं चाहता जिसे पहले से ही तय कर लिया गया हो और जिसका पक्ष भी पहले से ही सुनिश्चित कर दिया गया हो। दरअसल वह अप्रत्याशित सच का उच्चार करना चाहता है जो सहज ही कविता लिखने के प्रवाह में खुद-ब-खुद रूप कर ले।
ऐसा कौन सा सच है जो खुद-ब-खुद यानि अनायास ही रूप ग्रहण करता है?
मेरी समझ में वह कवि के होने की अद्वितीयता का सच है। वह उसके ‘एकमात्रपन’ का सच है। यह अद्वितीयता हर मनुष्य में होती है पर उसका गहरा बोध्ा, लगभग पीड़ादायी बोध्ा या तो सृजनशील व्यक्ति को होता है या फिर प्रेम में डूबे मनुष्य को। यह अद्वितीयता बोध्ा उसके अद्वितीय विवेक के कारण होता है। वैशेषिक दर्शन में यह कहा गया है कि हर मनुष्य का विवेक हर दूसरे मनुष्य से थोड़ा सा अलग होता है। यह विवेक जो उसे उचित-अनुचित, सुन्दर-असुन्दर आदि में फ़कऱ् करने की स्थिति में लाता है, यही वह सच है जो एक सृजनशील कवि में उसके विशिष्ट सौन्दर्यबोध्ा और नैतिक दृष्टि में आकार लेता है। जिस विवेक के आध्ाार पर वह सुन्दर व असुन्दर में फ़र्क़ करता है, ठीक उसी विवेक के आध्ाार पर वह नैतिक-अनैतिक में भी फ़र्क़ करता है। चूँकि यह विवेक कवि की नैतिक दृष्टि को औसत नैतिक मान्यता से थोड़ा अलगाता है, इसीलिए उसकी विशिष्ट नैतिक दृष्टि औसत नैतिक मान्यताओं को प्रश्नांकित करना शुरू कर देती है। साथ ही उसी विवेक की सक्रियता औसत सौन्दर्यबोध्ा को भी प्रश्नांकित करना शुरू कर देती है।
इस कविता में, सम्भवतः कवि अपने अद्वितीय विवेक को ही ‘फटकार का सच’ कह रहा है। यह फटकार इसीलिए है क्योंकि वह अन्यों की तरह अपने इस अद्वितीय विवेक का औसत विवेक के आगे आत्मसमर्पण करना नहीं चाहता और इसीलिए उसे यह चिन्ता नहीं है कि उसका ‘फटकार का सच’ ‘बहुमुखी युद्ध’ में कौन अपने पक्ष में इस्तेमाल करेगा। इस आत्मविश्वास का स्रोत कवि की इस समझ में निहित है कि अद्वितीय नैतिक दृष्टि हर पक्ष को प्रश्नांकित करती है।
यह फिर दोहरा दूँ कि कवि का ध्ार्म, साही की इस प्रार्थना में भी, अपने अद्वितीय विवेक को चरितार्थ करना है। जो यह नहीं कर पाते, वे और सब करते होंगे, साहित्य नहीं रचते।

7.
विजयदेव नारायण साही की यह कविता अपनी ही कविताओं की विफलता का साक्ष्य है। यही उनकी इस कविता के काव्य-पुरुष की सजगता है। शायद इसीलिए वह गुरु कबीरदास से रस निष्पत्ति में समर्थ, अहंकार से मुक्त कर आनन्दित करने वाले और मनुष्य के अद्वितीय विवेक को प्रकट करती काव्य रचना सामथ्र्य की प्रार्थना कर रहा है। यह भी कह रहा है कि अगर उसकी प्रार्थना सुनी न जाये, उसका चुप रहना ही बेहतर होगा।
यह भी न दो
तो इतना ही दो
कि बिना मरे चुप रह सकूँ।
दूसरे शब्दों में वह यह आग्रह कर रहा है कि उसके हाथों इन मूल्यों से लैस कविता लिखी जा सके। यह सिर्फ़ अपने लिए की गयी प्रार्थना नहीं है, यह कवि मात्र के लिए की गयी विनती है। वे अभागे कवि जिनकी कविता में ये गुण नहीं है, उनको चिन्ता की ज़रूरत नहीं है, उन्हें बिना मरे चुप रहने का विकल्प भी इस कविता की अन्तिम पंक्तियों में है।

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