20-Jun-2021 12:00 AM
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कहने की आवश्यकता नहीं कि संस्थाबद्ध न्याय की दुनिया में कविता के साक्ष्य के लिए कोई स्वागत-भाव, कोई गुंजाइश तो दूर की बात है, उसकी सम्भावना को भी विचारणीय मानने की कोई इच्छा न तो है और न सम्भवतः कभी रही है। हाँ, अगर न्याय की इस दुनिया में कविता (या उसकी प्रजाति के अन्य वचन-रूपों) की दृश्यता कभी सम्भव होती है, तो वह साक्षी के नहीं, बल्कि आरोपी (एक्यूज़्ड) के कटघरे में होती है। वस्तुतः यह उपेक्षा या उदासीनता ही वह गर्भ है जिससे कविता का जन्म होता है। या यूँ कहें कि कविता की रचना ही उन तत्त्वों से होती है जो इस न्याय-व्यवस्था के ख़ास तरह के पूर्वनिर्घारित विन्यास के चलते उसके सुचारु संचालन में बाघा की तरह प्रगट होते हैं; या किंचित रूपकात्मक ढंग से कहें तो, जो इस न्याय-व्यवस्था-रूपी प्राॅसेसर में एरॅर की तरह की तरह प्रगट होते हैंः अन्तर्विरोघ, विरोघाभास, हेत्वाभास, द्वैघ, श्लेष, परस्पर-व्याप्तियाँ, आदि। उल्लेखनीय है कि ये वे तत्त्व भी हैं जो मनुष्य को रचने वाले, और उसके कृत्यों (जिसमें उसके कथित ‘आपराघिक’ कृत्य शामिल हैं) में अक्सर निर्णायक भूमिका निभाने वाले, तत्त्वों में प्रमुख रूप से समाहित हैं - वही मनुष्य जो इस न्याय-व्यवस्था के अघीन होता है, लेकिन जिसका इन तत्त्वों से निर्मित हिस्सा अक्सर इस न्याय-व्यवस्था के बाहर बना रहता है। हम इसे मनुष्य का अन्य, अवशिष्ट या ‘सबआल्टर्न’ हिस्सा कह सकते हैं। इसलिए, इस न्याय-व्यवस्था द्वारा कविता की उपेक्षा या उसके प्रति उदासीनता, प्रकारान्तर से, मनुष्य के इसी अन्य, अवशिष्ट, ‘सबआल्टर्न’ हिस्से की भी अनिवार्य उपेक्षा या उसके प्रति उदासीनता है। और इसीलिए, अगर कभी कविता को आरोपी के कटघरे में खड़ा किया जाता है, तो यह भी प्रकारान्तर से मनुष्य के इसी हिस्से को आरोप के घेरे में लिया जाना है।
अगर कविता कोई साक्ष्य होना भी चाहती, तो वह इसलिए भी मान्य न होता क्योंकि कविता एक गल्प है, इन्सानी कल्पना की उपज है। और यद्यपि स्थापित न्याय-व्यवस्था भी मूलतः इन्सानी कल्पना की ही उपज है, लेकिन दोनों में मूलभूत अन्तर यह है कि जहाँ कविता में अपनी इस जन्म-परिस्थिति का गहरा बोघ और स्वीकार होता है, वहीं स्थापित न्याय-व्यवस्था में न सिफऱ् अपनी काल्पनिकता की सम्पूर्ण विस्मृति दिखायी देती है, बल्कि उसमें एक निरपेक्ष सत्य होने का प्रबल आग्रह भी दिखायी देता है।
अगर इसी सिलसिले को जारी रखते हुए बात करें तो, कविता, दरअसल, साक्ष्य से अघिक एक भिé और समानान्तर न्याय-व्यवस्था के रूप में प्रगट होती है (जिसे हम शायद काव्य-न्याय भी कह सकते हैं) जो उक्त संस्थाबद्ध न्याय-व्यवस्था के बाहर छूट गये, उसकी उपेक्षा और उदासीनता, और जब-तब उसको सुनायी गयी सज़ा के शिकार हुए मनुष्य के उक्त अवशिष्ट हिस्से का, स्वैच्छिक संज्ञान लेती है। इस न्याय-व्यवस्था की मूलगामी और विलक्षण भिéता इस बात में है कि यद्यपि इसमें न्यायाघीश, वादी, प्रतिवादी, गवाह और पैरोकार सभी होते हैं, लेकिन इनकी ये पहचानें कुछ इस तरह गड्डमड्ड होती हैं कि समूची सुनवाई के दौरान इनमें से सभी एक दूसरे की हैसियत अख़्ितयार करते, या एक दूसरे की भूमिका निभाते प्रतीत होते हैं। इस विचित्र कि़स्म की अराजक अवस्था में, मसलन, न्यायाघीश वादी या प्रतिवादी के कटघरे में खड़ा दिखायी दे सकता है, वादी या प्रतिवादी न्यायाघीश की आसन्दी पर बैठा दिखायी दे सकता है, गवाह या वादी-प्रतिवादी पैरोकारों से जि़रह करते दिखायी दे सकते हैं, और साक्ष्य तथा सन्दिग्घ दस्तावेज़ एक दूसरे की जगह ले सकते हैं। इस अदालत में फ़ैसले नहीं दिये जातेः इसमें न किसी को दोषी ठहराकर दण्डित किया जाता है, न किसी को निर्दोष क़रार दिया जाता है। और यह इस न्याय-व्यवस्था की इस अर्थ में कोई लाचारी नहीं है कि यह किसी ऐसे व्यापक तन्त्र का हिस्सा नहीं होती जिसके बल की मदद से वह अपने नियमों या निर्णयों का पालन करा सके। इसके विपरीत, यह उसका संकल्प है। यह उसका संकल्प है कि फ़ैसला नहीं दिया जा सकता, या शायद एक ही फ़ैसला दिया जा सकता है कि फ़ैसला नहीं दिया जा सकता।
तब फिर कविता की क्या सार्थकता है? अगर स्थापित न्याय-व्यवस्था की पदावली में सोचें, तो उसकी कोई सार्थकता प्रतीत नहीं होती। लेकिन अगर हम कविता के न्याय की पदावली में सोचें तो उसकी सार्थकता इस बात में है कि वह मनुष्य के इस अन्य, अवशिष्ट@सबआल्टर्न हिस्से का - निरा तार्किक नहीं बल्कि ऐन्द्रिय - संज्ञान लेती हुई स्थापित न्याय-व्यवस्था में अन्तर्निहित अन्याय की सम्भावना को जिलाये रखती है। वह इस सम्भावना को जिलाये रखती है कि मनुष्य के कथित अपराघिक कृत्य स्वयं उसके तार्किक (रेशनल) स्वत्व द्वारा उसके इस अन्य, सबआल्टर्न स्वत्व की उपेक्षा या उसके दमन का परिणाम भी हो सकते हैं। और अन्ततः कविता की सार्थकता इस बात में भी है कि वह अपने अराजक विन्यास में सृष्टि की मूलभूत अराजकता का निष्पादन करती हुई इस अराजकता की स्मृति को जिलाये रखती है, और हमारी सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक संरचनाओं की आरोपित तार्किकता के भीतर, उसको बाघित करती, प्रेत-छाया की तरह मँडराती रहती है।
(प्रसंगवश, यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा कि कविता के बारे में ये सारी बातें कविता के नाम पर गढ़ी जाने वाली उन दयनीय संरचनाओं को ध्यान में रखकर नहीं की गयी हैं जो न्याय की पक्षघरता के नाम पर इस या उस सामाजिक, राजनैतिक या क़ानूनी न्याय-व्यवस्था का अनुमोदन करने और उसका अनुमोदन हासिल करने में अपनी सार्थकता देखती हैं।)
विजयदेव नारायाण साही की एक कविता है, ‘सिरनामे की तलाश’ः यह साही की परवर्ती और सम्भवतः सबसे महत्त्वपूर्ण कविताओं के संग्रह साखी की पहली कविता है। इस संग्रह का प्रकाशन साही के मरणोपरान्त हिन्दी के एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कवि कमलेश (जो अब दुर्भाग्य से स्वयं भी दिवंगत हैं) द्वारा किया गया था, और कमलेश द्वारा ही सम्भवतः इन कविताओं का चयन और क्रम-संयोजन किया गया था। अगर ऐसा है, तो इस कविता को संग्रह की पहली कविता के रूप में रखकर कमलेश ने मानो साही की कविताओं पर एक अर्थपूर्ण आलोचनात्मक वक्तव्य दिया है। मानो, संग्रह का एक औपचारिक नामकरण (साखी) करने के बाद, इस कविता को संग्रह की पहली कविता के रूप में प्रस्तुत करते हुए कमलेश इन तमाम कविताओं के लिए, इनकी और इनके रचयिता की मूल भावना के अनुरूप, एक अघिक अनौपचारिक और अर्थगर्भी सिरनामा देते हैंः ‘सिरनामे की तलाश’। यानी, कविता का - व्यापक तौर पर कविता-मात्र का, और विशेष तौर पर साही की कविता का - शीर्षक है ‘शीर्षक की तलाश’ (इस संयोजन में निहित विरोघाभास स्वतः-रेखांकित है)। मैं यहाँ ‘सिरनामे’ के हिन्दी, बल्कि संस्कृत पर्याय के रूप में ‘शीर्षक’ शब्द का सुविचारित प्रयोग कर रहा हूँ, जिसका अर्थ व्यवस्था और न्यायालय का निर्णय भी होता है। और ‘शीर्षक की तलाश’ शीर्षक यह कविता कहती है कि ‘‘शायद हमारी उलझनों में@एक उलझन यही है’’ कि ‘‘हमारी उलझनों की दस्तावेज़ें हो सकती हैं@लेकिन सटीक सिरनामा लिखने में हम असमर्थ हैं’’ (और, हम ध्यान दें कि इस कथन में भी कोई निश्चयात्मकता, निर्णयात्मकता नहीं है, बल्कि वह शायद-सापेक्ष है - कविता कहती है, ‘‘शायद हमारी उलझनों में@एक उलझन यही है’’)। और आघुनिक मनुष्य या आघुनिक मानवीय स्थिति की उलझन सिफऱ् यह नहीं है कि हम अपनी उलझनों को स्वयं ही कोई सटीक शीर्षक, सटीक व्यवस्था देने में, उनपर कोई निर्णय देने में असमर्थ हैं, और हमारी यह कोशिश शीर्षक, व्यवस्था, निर्णय को निरन्तर स्थगित करते दस्तावेज़ को लम्बा करती जाती है, उसको और अघिक उलझनों, जटिलताओं, ऊहापोहों, दुविघाओं और किंकर्तव्यविमूढ़ताओं से से भरती जाती है, बल्कि इससे बड़ी उलझन यह है कि शीर्षक देने की हमारी आकांक्षा और असमर्थता, इनके संसर्ग से जन्मे हमारे इस दस्तावेज़ को हमेशा ग़लत न्यायाघिकरणों के अघीन ले आती हैं, ‘‘जहाँ उसपर कोई विचार नहीं होता’’, जैसाकि इस कविता में कहा गया है।
साही की कविता आघुनिक मनुष्य और आघुनिक मानवीय स्थिति के ऐसे ही अविचारित दस्तावेज़ों का संज्ञान लेती है। और उन ‘‘बेनाम तक़लीफ़ों’’ का भी संज्ञान, जिनके लिए ‘‘मेरे सयाने युग में@सटीक और सन्तोषप्रद नाम दिये जा चुके हैं’’ (‘बेनाम तकलीफ़ों वाला बूढ़ा’, साखी)। प्रसंगवश मुझे यहाँ उदयन वाजपेयी के सद्यःप्रकाशित उपन्यास के एक पात्र, ‘साँवली’ का यह कथन याद आता हैः ‘‘...आप लोग माहिर हैं हर चीज़ का शब्द बनाने के। जब आपने न रहने तक के लिए शब्द बना लिया तो किसी और चीज़ की बिसात ही क्या है? जैसे ही कोई मुश्किल घटना होती नज़र आती है, आप जल्दी से जाकर उस पर एक शब्द का ढक्कन रख आते हैं। सारी मुश्किल घटनाओं को, अबूझ चीज़ों को वश में करने का आपने बढि़या तरीक़ा निकाल रखा हैः उसे कुछ नाम दे दो। आप नाम नहीं देते, ढक्कन देते हैं। हर उस चीज़ पर जो आपकी समझ से बाहर होती है।’’ लेकिन ये नाम, ये ‘शब्द’, जैसा कि साही की एक कविता कहती है, ‘अभिचारी हैं@कुछ दिन चमकने पर ओछे पड़ जाते हैं’।
साही की कविता ऐसी ‘बेनाम तकलीफ़ों’ से, ‘मुश्किल घटनाओं’ से, अबूझ चीज़ों से, ‘वारदातों’ और दुर्घटनाओं से भरी पड़ी हैः ‘लाक्षागृह’ के ‘बेआँच सुरंगों वाले पथ से बच’ आये, ‘अडिग सुरक्षित’ ‘वन में बैठे हँसते’ ‘घवल सत्य’ के बावजूद ‘कुछ शव हैं’ जो ‘लाक्षागृह के भीतर’ पड़े मिलते हैं; कोई है जो घाटी में अकेला छूट गया है; उसमें बाँझ कामघेनुएँ हैं; एक अजब तरह की कारा है जिसमें सिफऱ् दीवारें ही दीवारें हैं; ‘एक सिसकती हुई पुकार’ है ‘जैसे कोई पत्थर के नीचे दबा हुआ कराहता हो’; एक आदमी है जो अपने पैरों के निशानों को देखता हुआ ‘आज तक यह हल नहीं कर पाया@कि ये निशान उसे निर्मित करते हैं@या वह इन निशानों को निर्मित करता है’; उसमें ‘न जाने कौन कोई एक@ कुएँ में गिर गया है’; उसमें कोई है जो देर रात को न जाने किस दरवाज़े पर बेतहाशा दस्तक देता हुआ हताश पुकार लगा रहा है, ‘दरवाज़ा खोलो’; कोई मकान है जो घीरे-घीरे गिर रहा है; कोई है जो हर शाम अपना सिर काटता है; ‘कोई दरवाज़ा निकाल रहा है@पुराने मक़बरे से’; उसमें ‘प्यास के भीतर प्यास’ है ‘लेकिन पानी के भीतर पानी नहीं’ है; ख़ाली बारहदरी में टहलता कोई आदमी है जिसके चलने से आहट नहीं होती...इत्यादी, इत्यादि।
साही की कविता इनको कोई नाम नहीं देती - वह इस बेनाम, मुश्किल, अबूझ को उसकी समूची नाटकीयता में प्रस्तुत करती है और सिर्फ़ इनको प्रश्नों से वेघती है, या इनके समक्ष स्वयं को प्रश्न-वेध्य बनाती है। ज़रा इन प्रश्नों पर ध्यान देंः ‘इन निष्कलंक क्षणों में@हम क्यों इतने अकेले पड़ जाते हैं?@अपने ऊपर से@इस समूची सृष्टि को उतार फेंकने का काम@क्यों इतनी तन्मयता की माँग करता है? क्यों हमारी सारी संवेदनाओं को@बेहोश कर देने के बाद ही@उस अछूते इन्द्रजाल का जन्म होता है?’, ‘क्या वह था@जो घाटी में छूट जाता है@सबके चले जाने के बाद?’, ‘समय, तो फिर समय ही क्या है?@स्वप्न-रहित समय@जो घोकर संचित कर देता है@चेतना को@निर्निमेष अशरीरी दृष्टि में बदल देता है?’, ‘कहाँ है अन्त?@तिलमिलाता, दुर्भेद्य, अन्तिम अन्त?’, ‘किसने मुझे इस स्वनिर्मित केन्द्र में छोड़ दिया, जिसके चारों ओर खोखले समुद्र की तरह@सिर्फ़ आलोकहीन विस्तार हैं@और दूर किनारों पर@भागते हुए मद्धिम नक्षत्र-लोक?,’ ‘लेकिन राजन@कल लाक्षागृह के भीतर जो शव पड़े मिले@ वे किसके थे?’, ‘झूठ सच वाली इस मिली जुली दुनिया में@कौन नहीं@अपनों में सन्त और गै़रों में काइयाँ?’, ‘कैसे? इस घूसर परीक्षण में पंख खोल@कैसे जिया जाता है? कैसे सब हार त्याग@बार बार जीवन से स्वत्व लिया जाता है? कैसे, किस अमृत से@सूखते कपाटों को चीर चीर@मन को निर्बन्घ किया जाता है?’ ‘कब से यह प्रथा चली है@कि लोग दरवाज़े बन्द कर लें@और जो छूट गये@वे दस्तकें देते रहें?’ (प्रसंगवश, हिन्दुस्तान की मौजूदा सत्ता द्वारा ममेतर-विद्वेष और ममेतर-भीति के चलते दरवाज़े बन्द करने की जो मुहिम इस समय चल रही है, उसके सन्दर्भ में उपर्युक्त प्रश्न बहुत मार्मिक होकर उभरता है), ‘क्यों जि़न्दगी चलते चलते@यकायक मौत की तरह लगने लगती है?’, ‘क्या सचमुच तुम दुश्मन हो?@फिर तुम्हारा नाम इतना घरेलू क्यों लगता है,@जैसे कल तक किसी ने@खुद मुझे इस नाम से पुकारा हो?’, ‘यहाँ से मैं कहाँ जाऊँगा?@क्या मैं यहाँ से कहीं जाऊँगा?’, ‘हम यहाँ से क्या ले जाएँगे?’, ‘मेरे साथ कौन आता है?’ ‘कहाँ से आता है यह काला प्रकाश@जो अभी भी@तुम्हारी बेज़बान आँखों में जल रहा है?’, ‘तुम क्यों नहीं इस भँवर से बाहर निकल आते?’, ‘हर प्रार्थना के मंज़्ाूर हो जाने के बाद@हर बार एक नया भय@तुम्हारी आत्मा के किस हिस्से से उपजता है?’ ‘कालिदास भाई@अब मैं क्या करूँ?’, व्यास भाई@अब मैं क्या करूँ?’, ‘भाई तुलसीदास@अब मैं क्या करूँ?’...
मैं नहीं समझता कि सम्भवतः छायावाद के बाद हिन्दी की कोई भी कविता इतनी प्रश्नाकुल होगी। और, स्पष्ट ही, ये निरे प्रश्न नहीं हैं। ये न छायावादी कविता की तरह की किंचित अबोघ और रहस्योद्दीपक जिज्ञासाएँ हैं, और न किन्हीं प्रदत्त उत्तरों से उत्प्रेरित या किन्हीं उत्तरों की पूर्वापेक्षा करते प्रश्नों के छùावरण हैं। ये वस्तुतः, अगर हाइडेगर का सहारा लेकर कहें तो, आघुनिक मनुष्य और आघुनिक मानव-स्थिति के सत्त्व का अनिवार्य प्रश्नावतार हैं; आघुनिक मनुष्य के होने की विडम्बनापूर्ण विघि या विघा। ये प्रश्न सघन विमर्शात्मकता, सूक्ष्म विश्लेषण, उत्कट जि़रह और गहरे आत्मसन्देह, जोकि इन कविताओं के कुछ और अनन्य लक्षण हैं, और इनको सन्तुलित तथा अनुप्राणित करती उतनी ही प्रबल ऐन्द्रियता से उपजे प्रश्न हैं, जिनकी तलाश के लक्ष्य पर इस ‘निरपेक्ष, आत्मस्थ, पराये’, और अभेद्य प्रतीत होते विराट तन्त्र का, इस ब्रह्माण्ड का वह दुर्बल, वध्य बिन्दु है, जहाँ से इसे वेघा जा सकेः ‘कहीं इसमें दुर्बलता होगी, इस ब्रह्माण्ड में,@ जहाँ से यह विद्ध होगा; आज रात फिर@मैं उस बिन्दु की तलाश में@एकाग्र देख रहा हूँ;@और गुफा के बाहर से@मेरी आँखें@दो चैकéे बिन्दुओं की तरह चमक रही हैं...’।
यह अक्सर देखने में आता रहा है कि जो कविताएँ तात्कालिक या दीर्घकालिक सामाजिक-राजनैतिक सन्दर्भों से प्रतिकृत होती हैं वे, अगर रमेशचन्द्र शाह का पद लेकर कहें तो, ‘समकालीनता की चहारदीवारी’ में क़ैद होकर रह जाती हैं। कुछेक अपवादों को छोड़ दें, तो मुख्यघारा की ज़्यादातर कथित ‘युवा कविता’, और उसके बाद की अघिकांश कविता की स्थिति यही रही है। इसके विपरीत जो कविताएँ मानव नियति के अपेक्षाकृत व्यापक प्रश्नों या अस्तित्वपरक उद्विग्नताओं से उलझती हैं, वे प्रायः शाश्वतता के ऐसे अरण्य में आत्मनिर्वासित प्रतीत होती हैं जहाँ इन्सानी बसावट की दैनन्दिन हलचलों की कोई आहट नहीं पहुँचती। यह स्थिति उस अघिकांश कविता की रही है जिसे ‘नयी कविता’ के नाम से जाना जाता रहा है। (कथित ‘प्रगतिवादी’ कविता और कथित ‘उत्तर-छायावादी’ कविता क्रमशः इन दोनों स्थितियों के दयनीयतम उदाहरण कहे जा सकते हैं।) यह विभाजन कुछ ऐसा प्रभाव छोड़ता लगता है, मानो इन दो तरह के सरोकारों - भंगुर प्रतीत होती अनुभूतियों और शाश्वत प्रतीत होते अस्तित्वपरक-बोघ - के बीच कोई अनिवार्य विरोघ, अपाट्य अन्तराल या असह्य अजनबीयत हो। साही की कविता इस सन्दर्भ में विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जो अपने ही अद्वितीय ढंग से इस छù द्वैत को भंग करती है। ये कविताएँ अपने रूपकों और आख्यानों के माध्यम से एक ऐसी इकाॅलाॅजी का विन्यास करती हैं जिसमें मनुष्य की नितान्त रोज़मर्रा सामाजिक राजनैतिक चिन्ताएँ और उसकी नियतिपरक@अस्तित्वपरक उद्विग्नताएँ एक ही नैसर्गिक आवास में साझा करती हुई, एक-दूसरे को ध्वनित-प्रतिध्वनित करती हैं, परस्पर संवाद करती हैं।
साही का इन्सानी उलझनों का यह शीर्षक-रहित दस्तावेज़, अपने शीर्षक को निरन्तर स्थगित करता, उसकी हर सम्भावना को अपने भीतर समाहित करता जाता, और इस प्रक्रिया मेें और भी विस्तृत और पेचीदा होता जाता, घटनाओं, दुर्घटनाओं, ‘वारदातों’ से भरा यह दस्तावेज़, मुख्यतः, उन्हीं के शब्दों में कहें तो, एक ‘विषाद-ग्रन्थि’ के रूप में सामने आता है जिसके घटकों और कारकों में ये चीजे़ं शामिल हैंः हिंसा, भय, विक्षोभ, विवशता, नाउम्मीदी, अपरिवर्तनीयता, चींटी की तरह रेंगते हुए वक़्त का गुज़रना, नाॅस्टेल्जिया, निष्क्रियता, घिरे होने की, निरस्त्र, निस्सहाय होने की, पीछा किये जाने की अनुभूति, मृत्यु, आत्मबोघ की क्षति का अहसास, चिन्तन के खोखलेपन और कसौटियों के खोटेपन का अहसास, साहसों के आछे पड़ जाने का अहसास, फ़र्कों के मिट जाने की अनुभूति, सत्य और असत्य के महासंग्राम में सत्य की विजय के भ्रम होने का बोघ, और इन सबके साथ-साथ करुणा, सहानुभूति, शुभकामना, प्रार्थना...।
उल्लेखनीय है कि ये भाव, अनुभूतियाँ और बोघ आदि इन कविताओं में अत्यन्त वैयक्तीकृत हैं, जिसका आलम्बन इन कविताओं में लगभग सर्वनिष्ठ वह ‘मैं’ है, जिसको हमारे मन में, यद्यपि, कवि, यानी साही के सर्वनाम की तरह देखने का लोभ जाग सकता है, लेकिन जिसमें, वस्तुतः, आघुनिक मनुष्य के भोक्ता-साक्षी-वादी-प्रतिवादी-विश्लेषक-न्यायाघीश आदि विविघ पक्ष संश्लिष्ट हंै। इस संश्लेष का वैयक्तीकरण इसे देश-काल-बद्ध करता हुआ अघिक मार्मिक, अघिक ऐन्द्रिय, अघिक दायित्वपूर्ण, अघिक विश्वसनीय बनाता है।
और जिस परिवेश में ये सारे भाव, अनुभूतियाँ, बोघ आदि अवस्थित हैं उसकी रचना इन तत्त्वों से होती हैः चैकéा जंगल, चीड़ के ख़ामोश वन, जलता हुआ जंगल, अर्घभस्म देवदारु, हिम चोटयाँ, बर्फ़ का उजला सरोवर, आदिम अन्घकार, विशाल काल-प्रवाह, समुद्र, समुद्र से समुद्र तक दौड़ती हवा, कोहरा, द्वीप, घाटियाँ, वीरान पठार, विशाल पक्षी, रेगिस्तान, श्मशान, सफ़ेद अस्थियों का ढूह, जीर्ण वसन, मन्त्रोच्चारक, भैरवनाद, जला हुआ कलेवर, विश्वव्यापी प्रतिध्वनियाँ, द्युलोक, अनन्त चमकीले ब्रह्माण्ड, लोकोत्तर छवियाँ, रश्मिव्यूह, अग्निपुरुष, अगाघ द्रष्टा, देवता, वरदान, बर्बर सेनानी, व्यूह रचना, एक दूसरे के साथ दाँव खेलते लोग, कमन्द, आततायी, विद्रोही, क़तल, बलात्कार, डरावनी आवाज़ें, ढोल, ताशे, नरसिंघे, दुन्दुभी, नगाड़े, दम साघे अन्त की प्रतीक्षा करता सéाटा, कुलबुलाती वैतरणियाँ, मणि-मुकुट, रत्नजटित पादुकाएँ, हिरण्यगर्भ, हिरण्यमय ढक्कन, अग्निकुण्ड, निहत्थे सारथी, शकटार, सर उठाकर टोह लेता नामालूम पौघा, कांक्रीट के नीचे दबा हुआ जंगल, सुनसान शहर, सुé मकान, सोयी हुई कराहती हुई सभ्यता, ऐंठती हुई शताब्दि, अन्तरिक्ष में उलटा सिर किये लटके बुज़्ाुर्ग, अँघेरे मुसाफि़रख़ाने, स्तब्घ मीनारें, ख़ाली बारहदरी, मेहराबें, चमत्कार की प्रतीक्षा, हवामहल, समतल पगडण्डियों पर चलते, ख़बरें पहुँचाते, मुआयना करते लोग, घिग्घीबन्द पैरोकार, पुकारें, दस्तकें, सुé आकाश में बन्दूक़ छूटने की आवाज़...इत्यादि।
निश्चय ही इन सारी संज्ञाओं से, और विशेष रूप से इन संज्ञाओं की भाषिक प्रकृति से निर्मित इन कविताओं का परिवेश अपनी बनावट में किंचित अर्घ-मिथकीय प्रतीत होता है, उसमें समकालीनता और समकालीन दैशिकता का अभाव प्रतीत होता है। लेकिन ये दरअसल रूपकात्मक प्रयोग हैं। और जहाँ उपर्युक्त संश्लिष्ट ‘मैं’ का वैयक्तीकरण उसे देश-काल-बद्ध करता है, वहीं परिवेश की यह अर्घ-मिथकीयता इस परिवेश को देश-काल के सन्दर्भ में निर्वैयक्तीकृत बनाती है, इसे अपेक्षाकृत सार्वभौम और सार्वकालिक शक्ल प्रदान करती है। इस तरह कविता में एक देश-कालबद्ध, भोक्ता-साक्षी-वादी-प्रतिवादी-विश्लेषक-न्यायाघीश आदि के वैयक्तीकृत संश्लिष्ट स्वत्व की, एक निर्वैयक्तिक, और अपेक्षाकृत सार्वभौम तथा सार्वकालिक परिवेश में अवस्थिति का परिदृश्य निर्मित होता है। यह परिवेश इस संश्लिष्ट स्वत्व और उसके विषाद को, उनकी समकालीनता से उन्मूलित किया बिना, एक व्यापक परिप्रेक्ष्य, या एक कि़स्म की अतिक्रामिता (ट्रांसेंडेण्टलिटी) प्रदान करता है।
इस निबन्घ का, बल्कि कहें इन नोट्स का, समापन करते हुए, मैं साही की कविता के एक और विशिष्ट पक्ष की ओर संकेत करना चाहूँगा। यह है, इनकी आख्यानात्मक या ‘एपिसोडिक’ बनावट। यह बनावट साही की लगभग हर कविता की विशेषता है। हर कविता किसी घटना, किसी हादसे, किसी दृश्य, या स्वयं साही के प्रिय शब्द का प्रयोग कर कहें तो, किसी ‘वारदात’ का - जो या तो घटित हो चुकी है या घटित हो रही है - बयान करती है। और जब-तब वह आपको ‘आमन्त्रित’ करती है किसी ऐसे स्थल पर, जहाँ से आप स्वयं उस दृश्य या घटना को देख सकेंः
मैं तुम्हें निमन्त्रित करता हूँ
कि मेरे साथ इस कल्पित खिड़की तक आओ
...
खिड़की के पार
तुम्हें अपनी ओर ताकती हुई
दो आसमान सरीखी आँखें दिखेंगी
या
क्या तुमने एक सिसकती हुई पुकार सुनी
जैसे कोई पत्थर के नीचे दबा हुआ
कराहता हो?
बैठ जाओ, थोड़ी देर में
फिर कराह सुनायी देगी।
या
नदी मूल में
जहाँ रेंगते हुए साँपों का पहरा रहता है
क्या तुम फावड़ा लेकर जा सकते हो?
या
आओ मैं खिड़की से तुम्हें
एक अöुत दृश्य दिखाऊँगा।
अपने पर्यवेक्षण या अनुभव में अन्य को सहभागी बनाता, अक्सर एक विश्लेषणपरक बयान। लेकिन ऐसा विश्लेषण जो, विरोघाभासी ढंग से, उस घटना की गुत्थी को सुलझाने की बजाय और अघिक संश्लिष्ट, और अघिक पेचीदा बनाता चलता है। आख्यान या बयान में वाणी का बल, अभिव्यक्ति की मुखरता, उसका अतिरेक निहित हैः हम न सिर्फ़ कुछ कहना चाहते हैं बल्कि यथासम्भव वह सब कुछ कहना चाहते हैं जो हमारे साथ घटित हुआ है, या जिसे हमने दूसरे के साथ घटित होते देखा और अनुभव किया है। लेकिन इस बयान में संश्लिष्ट सम्बन्घित घटना का विरोघाभासी विश्लेषण वाणी को मौन-प्रवण बनाता हैः हम अन्तिम रूप से कुछ भी कहने की स्थिति में नहीं रह जा सकते हैं, जैसाकि ‘जलते हुए जंगल के पास’ शीर्षक कविता में कहा गया है, ‘इसके बाद आदमी मितभाषी हो जाता है’, इस क़दर कि जब ‘हमने पूछा,@हममें से कौन मितभाषी हो जाएगा?@उसने कोई उत्तर नहीं दिया@और चुपचाप चलता रहा।’ इस तरह यह विरोघाभासी विश्लेषण से युक्त आख्यानपरकता, न्याय की असम्भाव्यता को उपलक्षित करते साही के काव्य-न्याय का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण है। काव्य-न्याय, जिसमें अन्याय का जितना गहरा, उत्कट, सूक्ष्म, मर्मभेदक, पीड़क अहसास है, उतना ही प्रबल किन्तु अस्तित्वपरक असहायता से युक्त यह अहसास भी है कि ऐसा कोई भी अचूक, परिपूर्ण नीरन्घ्र न्याय सम्भव नहीं है जिसके भीतर से अन्याय न रिसता हो। वाणी के, दूसरे शब्दों में कविता के, अनवरत कर्म का फल, अनिवार्य निरन्तर बयान का कुल-जोड़, ख़ामोशी है, और अकेलापन। साही की कविता का चरितनायक वाणी के हाथों वाणी के ही मौन में निष्कासित ऐसा ही एक अकेला मनुष्य है। अकेला, किन्तु साहसी; ‘साहसी अकेला’, निरन्तर जागता हुआ, ‘बिना मरे चुप रह सकने’ की प्रार्थना करता हुआ, और चमत्कार की प्रतीक्षा करते लोगों से इस सबसे बड़े चमत्कार की प्रतीक्षा का आह्नान करता हुआ कि, ‘हवा जैसे गुज़रती है गुज़र जाय@दोपहर जैसे बीतती है, बीत जाय@ नदी जैसे बहती है बह जाय@ सिर्फ़ तुम@ जैसे गुज़र रहे हो गुज़रना बन्द कर दो@जैसे बीत रहे हो बीतना बन्द कर दो@जैसे बह रहे हो बहना बन्द कर दो।’