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कविताएँ मनोज कुमार झा
SAMAS ADMIN
29-Dec-2019 12:00 AM
5452
कुफ्र
मैं पूरी तरह बर्बाद होना चाहता था मेरी जान
मैं वह गिरा पत्ता जिसमे कल तक के लिए हरियाली
जबकि मैं आज और अभी में घुल जाना चाहता था।
यह जो सारंगी की धुन है
यह पेड़ती है मुझे
मैं ईख से गुड़ बनता हूँ
और उम्र बढ़ जाती है।
मैं पैंतीस में खत्म हो जाना चाहता था
जबकि तुम मिल गयी पैंतीसवे में
जैसे गिर रहे पतंग को
बच्चे का हाथ मिले ।
अब मैं बर्बाद भी हुआ
तो एक हरा जीवन जीकर बर्बाद होऊँगा
फिर बर्बाद कहाँ होऊँगा
तूने कुफ्र किया है मेरी जान
एक कवि को बर्बाद होने से बचाया है।
चमक
कितना अंधियारा था उस रात
हम बरगद के नीचे खड़े थे
बिजली चमकती थी
तो तेरा चेहरा चमकता था
क्या मेरा भी चेहरा चमकता था?
अब भी बता दे प्रिये
अब जबकि मैं रौशनी की कतार में खत्म हो रहा
तुम रौशनी की लिबास से संगत बिठा चुकी
मगर अब भी तेरा माथा दिपता जैसे बरगद के पेड़ के नीचे पहले
तब मेरे चेहरे पर झुर्रियाँ नहीं थी
क्या बिजली चमकती थी तो मेरा चेहरा भी चमकता था?
बता दे प्रिये, मैं जानना चाह रहा कि
मुझे रौशनी ने खत्म किया है
या ऐसा ही था प्रेम की इब्तिदा में भी?
खण्ड
मैं तुझसे मिलता भावना के हर खण्ड के साथ
मगर कुछ रह गये धान के खेत में
कुछ पितामह के जलते शव के साथ मसान में ।
मैं तुझसे अपने सारे विचारों के साथ मिलता
लेकिन कुछ बस गये अधपढ़ी किताब में
तो कुछ जुलूस में तनी बँधी हुई मुट्टी में।
मैं तुझसे पूरा का पूरा मिलता
लेकिन बीसवीं सदी के अन्त को लांघकर आया हूँ प्रिये।
अकेले लोगों का घर
अकेले लोगों के भी घर होते हैं
हवा और रिक्ति से सम्पूर्ण
एक मेज़ किसी की प्रतीक्षा कर रही
प्रतीक्षा करती बिस्तर की धूल किसी के स्पर्श की
साँझ गाढ़ी होकर कोने में जमा हो रही
कमरे का बल्ब कोई चेहरा ढूँढता
रौशनी बगल के ठसाठस भरे घर में जाकर प्रफुल्लित।
अकेले लोगों के भी घर होते हैं
चुप्पियों और उपेक्षाओं के अभ्यस्त।
पुनःप्राप्ति
कहानी के कई हिस्से बार बार छूट जाते हैं
उनके लिए वहाँ जाना ही होगा
कि जहाँ बनती थी गुड़, चूल्हा उखड़ जाने के बाद भी बची है सुगन्ध
फ़ोन से नहीं होगा, वहाँ जाना ही होगा
कि कैसे हैं राधे पासवान, क्या अब भी बजाते हैं बाँसुरी
ओह! वह बाढ़ में बाँसुरी बजाना भैंस की पीठ पर बैठकर
कैसे हैं कन्हाई मिसर, क्या अब भी खाते हैं चिकनी मिट्टी
कितना भी बड़ा भोज हो, उनका आधा पेट ही भरता था
वो जो एक सहेली थी जिन्हें मेरे साफ़ कपड़ों में भी बदबू उबकाती थी
क्या निबह रहा उसका ठीक अपने पति के साथ
नानी कह लेती थी सात कि़स्से लगातार
मिल से लौटता तो माँ पूछती
कैसी थी साड़ी--लाल या काली
नयी या फटी हुई
कितनी तो कथाएँ हैं, कितने उनमें ताखे
लौटकर जाना ही होगा--हड्डियों में बजती हैं कथाएँ।
कुछ फूल
प्यारे प्रभो
थोड़े फूल लौटा दो
कनेर के कुछ फूल
और एक फूल कमल का।
मुझे किसी के पास जाना है
और पहले तू मिला तो तुझे ही सौंप दिया
आदमी का सौंपा हर फूल आदमी की अमानत है
जो वह कभी भी तुझसे मांग सकता है ।
और कोई याचना नहीं तुझसे
मेरे कुछ फूल दे दो, बस
नाराज़ होकर जितना तू बिगाड़ सकता है
वो उससे अधिक बिगाड़ सकती है।
कुछ फूल लौटा दो
बाज़ार में कोई पुष्प-विक्रेता दिख नहीं रहा
और सोचो, चढ़ाए गये फूल माँगना
अपनी प्रिये के लिए
कितनी तुच्छ याचना है।
क्या बिना हत्या किए कोई जी नहीं सकता
पानी में भींगा
तो लगा किसी के आँसुओं से भींग रहा हूँ।
सिगरेट जलाने माचिस निकाला
तो लगा किसी का घर जलाने जा रहा।
रिक्शेवाले को बुलाया चैक जाने तो
लगा मैं एक भीड़ का हिस्सा हूँ
और उसे मारने के लिए बुला रहा।
लग रहा कल एक छुरी खरीदूँगा
और अपने सबसे प्रिय दोस्त की औलाद
का कत्ल कर दूँगा।
यही बातें कल एक दोस्त भी कह रहा था
एक रात बाद उसने आत्महत्या कर ली
और चिट पर लिखा
हत्यारा बनने से बचने के लिये यही एक रास्ता था।
मुझे इसी पेड़ के नीचे जलाना
मुझे इसी पेड़ के नीचे जलाना
जानवरों के पीछे दौड़ते जब थक जाता था
तो यहीं सुस्ताता था।
बनूँगा प्रेत मुझे मालूम है
धरम कमाना आया नहीं, उतनी औकात भी नहीं थी
मरने के बाद तेरे खेतों की रखवाली भी करता रहूँगा।
पण्डिज्जी ना मिले कोई बात नहीं, मेरी घरीतनी को चूड़ा-दही खिलाना
समझूँगा मेरा मरना अकारथ नहीं गया
पुष्प बाधा है
मिष्टान्न खाने की हूक उठी
तो पहुँचा एक देवालय भव्य
भव्य कपड़ों में थे आगन्तुक
जो स्थायी थे, भिखारी-वो फटेहाल
मुझे तो मिष्टान्न की प्रतीक्षा थी
प्रसाद मिला, खुश हुआ
पर फूलों की पत्तियाँ थी कुछ अधिक ही अधिक
स्वाद के मार्ग में बाधा थीं ये पत्तियाँ
जिन गेंदा के फूलों के लिए मिट्टी कितनी बार गूँथा
वो आज बाधा थी।
प्राप्ति
सरपंच ने भी कहा था रुकने के लिए
किन्तु वो विजय की कहानियाँ सुनाता
उन कहानियों का मेरे लिए क्या अर्थ
अपनी तो यही एक सारंगी है
और सारा संसार एक कथा
यही अपनी प्राप्ति
तेरे यहाँ ही रुकूँगा माई
मेरा भोजन कुछ नही
मुझे बहुत भूख नहीं लगती
घर छोड़ने से यह भी एक प्राप्ति
दे देना लोटा भर जल
और कथरी
कहीं भी सो जाता हूँ
यह भी एक प्राप्ति
जाते समय भिक्षा भी ना देना माई
सुना है बहुत कम उपजा इधर अन्न
प्रकृति की लीला, मनुष्य का खेल, यह भी प्राप्ति।
और ऐसा होना भी चाहिए
बहुत मेहनत लगी बनाने में
बड़े प्यारे मज़दूर थे
मैंने कई गहने बेच दिये थे
जतन से बनाया था कुआँ
पूजा भी हुई थी
पकवान पके थे
जब सारी नदियाँ सूख जाएगी
तो भी बचेगा यह कुआँ
नहीं दादी नहीं
जब सब नदियाँ सूखेंगी
तो इस बीच यह कुआँ भी सूख जाएगा
जब सब घर जलने लगेंगे
तो जलेगा हमारा भी घर।
इसी तरह
कहाँ कहाँ से नमक आता है
शहद कहाँ कहाँ से
देह सब को अपना करती जाती है।
सूरज की ललाई होती है सामने अलसुबह
ज्योत्स्ना घेर लेती है रात में
आत्मा सब को अपना बना ले जाती है।
कहाँ कहाँ गड़े पाँव में काँटे
कहाँ कहाँ निगली नागफनी
क्षीण स्मृति ही अब इन थाह वाले क्षणों की
जीवन ऐसे ही चलता है।
मैं कभी रौशनी से बचता हूँ, कभी अँधेरे से
इसी तरह जगह पाता है ‘मैं’ इस दुनिया में।
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