26-Oct-2020 12:00 AM
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सुबह की बातें
सुबह जो बातें तुमने कही थीं
वे शाम होते ही ढल गयीं
सूरज की किरणों के साथ
सुबह मैंने तुम्हारी बातों को
सजाने की कोशिश की
खिलती हुई रंगीन कलियों से
शायद मन के बाग में कलियाँ खिल उठें!
मैंने देखे
हरे पेड़-पत्तियाँ
सूरज की पहली किरणों के साथ
मिल गये थे
खेल-खेल में हवाओं ने
हरे-भरे बागों के गीत सुनाये थे
और अपने लिए गुनगुनाते हुए तुम
तुमने जो पंक्तियाँ भेजीं
सुबह मैंने पढ़ने की कोशिश की
दिन की झिलमिल ध्ाूप में
नीले आँचल की छाँव में
रात होते ही
सारे आकार काले हो उठे
जैसे मेरे आँसुओं की बारिश हुई और
ध्ाुल गये सारे पृष्ठ।
तुमने हँसकर कहा, चलो जाने दो
कुछ बातें भुलाने के लिए भी
कही जाती हैं।
मेरे पास अभी भी पड़े हैं
हमारी कहानी के
सारे ध्ाुले पृष्ठ।
जीने की कोई वजह नहीं थी
जीने की कोई वजह नहीं थी
तब भी, अब भी
जीने की कोई वजह नहीं है
पर जि़न्दा हूँ।
क्यों एक पुरानी रेल की तरह
बेरंग डिब्बों से
अपनी यादों को बैठा कर
चलती रहती हूँ हर रोज़
पुराने ठिकानों पर ही
रुक जाती हूँ कुछ देर के लिए
एक पुराना गाना याद आता है
मुस्कुराने लगती हूँ
कभी सोचती हूँ
शायद तुमने मेरे सपनों के डिब्बे में
अपने पुराने खत तो नहीं छोड़े
सफ़ेद-नीले...
आँखों की रोशनी चले जाने से पहले
पढ़ सकती वो खत।
देखो जि़न्दा हूँ अभी
साँसें चल रही हैं
(डरना मत) रेल बिल्कुल पटरी पर है...
हो सके तो मेरे जाने के बाद
अपने सीने में दफ़्न
मेरे सपनों को
रंग-बिरंगे पंख पहनाकर
आज़ाद करना
आसमान खुला है अभी भी
जहाँ हमारी शब्दों की दुनिया थी
जहाँ हमारी आँखों के बादल थे।