23-Mar-2022 12:00 AM
2036
बेनाम
मैं इब्राहिम1 नहीं हूँ कि
हाजिरा2 को ’ाहर बदर करने
’ााम3 से मक्का के जलते सेहराओं में चला आऊँ
और वो भी
सारा4 की हुक्मबरदारी5 में
मैं इब्राहिम नहीं हूँ
कि चला जाऊँ अपने बेटे के हमराह
इक अनदेखे ख़ुदा की फ़रमाबरदारी में
अपने बेटे को कु़र्बान करने
मैं इस्माईल नहीं हूँ
कि जिसकी एडि़यों की रगड़ से
चाह ज़मज़म फूट पड़ा था।
मैं इस्माईल नहीं हूँ
कि बाप का हुक्म मानते हुए
फ़ौरन क़ुर्बानी के लिए तैयार हो जाऊँ
मैं वो ’ौतान भी नहीं हूँ
कि जिसने इब्राहिम का रास्ता रोका था
और आज जिसे कंकरियाँ मार कर
तुम ख़ु’ा होते हो
1. एक पैग़म्बर, जिन्होंने ख़्वाब में ख़ुदा के हुक्म पर अपने बेटे इस्माईल की बलि दी लेकिन ख़ुदा ने बेटे को बचा लिया, 2. इब्राहिम की दूसरी पत्नी, 3. सीरिया, 4. इब्राहिम की पहली पत्नी, 5. हुक्म को पूरा करने।
मैं वो ख़ुदा भी नहीं हूँ
कि जिसने ऐन क़ुर्बानी के वक़्त
इब्राहिम के आगे एक दुम्बा6 डाल दिया था
मैं उस कहानी या हक़ीक़त का
किसी भी तरह हिस्सा नहीं हूँ
मैं कोई कि़स्सा नहीं हूँ
मैं वो मुसलमान भी नहीं हूँ
कि जो दिल के हजे-अकबर को छोड़ कर
काबे का गि़लाफ़ छूने हर साल
मक्का चला जाऊँ
मैं उनमें से भी नहीं हूँ
कि जो मोटे-मोटे बकरों की तला’ा में
निकल पड़ते हैं
और कु़र्बानी करके
गो’त अमीर ओ उमरा में तक़सीम करते हैं
अपने नफ़्स7 को आज़ाद छोड़कर
मैं उन लोगों में भी नहीं हूँ
जो जोक़ दर जोक़8
ईदगाहों में चले आते हैं
सफ़ेद कपड़े पहन कर और इत्र लगा कर
छः ज़ायद-तकबीरों9 से
ख़ुदा को याद करने
मैं तो घर में पड़ा पड़ा
अपनी आकि़बत10 की दुआ करता हूँ
और अपने तूल अमल को मुख़्तसर
करने में मगन रहता हूँ
मैं उन इमामों में भी नहीं हूँ
6. भेड़, 7. स्वयं, 8. पंक्तियों, 9. अतिरिक्त अल्लाह हुअकबर कहना (ईद की नमाज़ में), 10. मृत्यु के बाद की जि़न्दगी।
कि जो रात भर ख़ुतबा रट रट कर
सुबह सुबह ईदगाहों और मस्जिदों में
पहुँच जाते हैं
अपनी ग़लत सलत ताबीरों11 के साथ
क़ौम के लिए उजरत याफ़्ता मुसल्लेह12 बनने के लिए
और जिनकी तक़रीरें
सिफऱ् इबादतगाहों के
अहाते तक महदूद रह जाती हैं
मैं उस भीड़ में भी नहीं हूँ
कि जो ईदगाहों से लौटते हुए
ट्रैफि़क जाम कर देती है
और अज़्ल13 के भूखे नंगे फ़क़ीरों पर
चन्द सिक्के उछाल कर
अपनी सख़ावत14 का सुबूत देती है
मैं उन दावतियों में भी नहीं हूँ
कि जो ज़्यादा से ज़्यादा
बिरयानी, क़ोरमा और रोटी
खाने को अपना पैदाइ’ाी हक़ समझते हैं
मैं तो उन सायमीन15 में से हूँ
कि जिनको मुरग़न गि़ज़ाओं16 से
मतली आती है
मैं उस सड़ते हुए निज़ाम17 का
हिस्सा हूँ
कि जो चैदह सौ सालों
से बिखरते बिखरते
महज़ टोपियों
ऊँचे टख़ने के पाजामों और मस्जिदों
11. व्याख्याओं, 12. भुगतान पर सुध्ाार कार्य करने वाले, 13. हमे’ाा, 14. दानवीरता, 15. रोज़ा रखने वालों, 16. मुर्गे वाले खाने, 17. व्यवस्था।
तक महदूद हो गया है
जो रियाकारी में अफ़ज़ल18 और ख़ुफि़या नेकियों में
बदतर है
मैं वो हूँ जो
हिन्दुस्तान में मुसलमान
पाकिस्तान में मुहाजिर
सऊदी अरब में हिन्दी
और अमरीका में दह’ातगर्द कहलाता है
मैं वो हूँ जो किसी ज़्ाुबान को नहीं समझता
और जो आज़ादी से जि़न्दा नहीं रह सकता
न ही इज़्ज़त के साथ
मर सकता है
मैं वो हूँ
जिसके ’ोर रद्दी की टोकरी
की नज़्ा्र हो जाते हैं
और जिसके दीवान
घुन लगी अलमारी में अपने नज़रे आति’ा
होने का इन्तज़ार कर रहे हैं
मैं जब अपनी ज़ात सिफ़ात19 की
कु़र्बानियाँ दे रहा हूँ
तो ये क़ुर्बानी कैसी
जब तुमने ज़्ाुबान काट ली है
तो मकालमा20 कैसा
मुआनक़ा21 कैसा
गुफ़्तगू कैसी
तुम मुझे किसी नाम से न पुकारो
न माज़ी के
न मुस्तक़बिल के
18. बुरे कामों में अच्छा, 19. व्यक्तिगत गुणों, 20. संवाद, 21. गले लगना।
न ही हाल के
मुझे एक नए नाम की तला’ा है
मैं उसे ढूँढ़ते-ढँूढ़ते
अगर मर जाऊँ
तो तुम मुझे
बेनाम मुरदार22 का नाम दे देना
और क़ब्रिस्तान से बाहर
किसी कूड़े करकट के ढेर में मिला देना
और
मेरे वजूद को
इक बुरा ख़्वाब समझ कर
जला देना
अंध्ोरे घर में तला’ा
अज़लम उल अ’िाया व दारुल हबीब बिला हबीब
(दुनिया में सबसे ज़्यादा अंध्ोरा महबूब का घर है, जब महबूब मौजूद न हो)
ऐ महबूब
हज़ारों मील का सफ़र तै करके
हम तेरी तला’ा में यहाँ क्यों आए
तेरा घर इतना तारीक23 क्यों है
इसके बाम-ओ-दर24 में इतना अंध्ोरा क्यों है
तेरे घर की सियाही को देखकर
हमें इतना डर क्यों लग रहा है
तुमने अपनी बरकतें अपने ख़ाली घर में
क्यों नहीं छोड़ीं
तुम हमारी नफ़सानी25 आँखों को
22. मुर्दा, 23. अंध्ोरा, 24. छज्जे और दरवाज़े, 25. कामुक।
क्यों नहीं दिखाई दे रहे हो
तुम्हारे घर के एतराफ़ तवाफ़26़ में उठाए गए
हमारे क़दम इतने भारी क्यों हो गये हैं
हमारे संगज़दा27 दिल ध्ाड़क क्यों नहीं
रहे हैं
हमारी आँखों में आँसू क्यों नहीं आ रहे हैं
हमारे हाथों से दुनिया-व-उक़बा28 का दामन
छूट क्यों नहीं रहा है
क्यों हम अपनी इन ज़रूरियात से
चिमटे हुए हैं
यहाँ आने से पहले
हमने तेरे हुज़्ाूर अपने दिलों के
प्यालों को ख़ाली क्यों नहीं किया
क्यों हमने जान ओ दिल के असासा को
तुम्हारी राह में बर्बाद नहीं किया
हमने इस पत्थर की इमारत में
तुम्हें तला’ा क्यों किया
क्यों हमने मजरूह29 दिलों में तुम्हारी
आमद30 को ख़ु’ाआमदीद31 नहीं कहा
क्यों हमने दुनिया-व-दीन में
मंज़र-व-पस मंज़र में
अपने जिस्म-ओ-जान में
तुम्हारे अक्स के अक्स को
तुम्हारे जलवे की किरनों
को बिखरते नहीं देखा
हम तुम्हें ढूँढ़ते हुए
इस अंध्ोरे घर तक क्यों आ पहुँचे
26. चारों तरफ़ चक्कर काटना, 27. पथरीले, 28. मरने के बाद, 29. घायल, 30. आना, 31. स्वागत।
क’मीर के लिए एक नज़्म
(सैलाब से पहले)
मेरे दिल को ज़ख़्मी वादी में दफ़्न कर दो
जहाँ चिनारों से उभरते हुए नारंजी ’ाोलों
की दहक उसे नीम बफऱ् आलूद32 और सैलाबज़दा मिट्टी में
जला देगी
डल के यख़ बस्ता33 पानी की गहराईयों में
उसे ऐसी नींद आएगी कि
दह’ात के काबूस34
और पुलिस की गोलियाँ भी उसे जगा न पाएंगी
बोलवार्ड पर लालची सय्याहों की निगाहें भी
उसे जि़न्दगी पर उकसा न पाएंगी
लोलाब35 की वादियों में खिले हुए ज़ाफ़रान के
उन्नाबी36 फूल भी उसकी आत्मा के ह्यूले37 को अपनी
जानिब बुला न पाएंगे
हज़रत बल की मुक़द्दस अलमारी में बन्द तबर्रुकात
की तासीर कहाँ चली गयी है
नूरुद्दीन वली के नग़मे कहाँ खो गये हैं
हारवान का बाग़ इतना सुनसान क्यों है
आज ऐवान38 में उभरते हुए लफ्फ़ाज़ी के कीचड़ से
मेरे तमाम कपड़े इतने गन्दे कैसे हो गये
आज ’ांकराचार्य के मंदिर की घंटियों की
सुरीली सदा39 क्यों सुनाई नहीं देती
आज सफ़ेदे के पेड़ों में पत्ते क्यों नहीं हैं
आज गुलमर्ग की हरियाली ज़र्द क्यों पड़ गयी
इस बर्फ़बारी में
32. आध्ो बफऱ् से ढके, 33. जमी हुई बफऱ्, 34. बुरे सपने, 35. घाटी का नाम, 36. गहरा लाल, 37. परछाई, 38. सत्ता का महल, 39. आवाज़।
आज फ़र्नों के अंदर जला देने वाली इतनी
सारी आग क्यों आ गयी
आज कांगडि़याँ बुझ क्यों नहीं रही हैं
मेरी ला’ा लाल चैक में
बेगौर40-ओ-कफ़न पड़ी हुई है
और उसके गिर्द
भाँत भाँत के कुत्ते भौंक रहे हैं
वो किसी को ला’ा उठा कर दफ़्न करने नहीं देते
और मुझे कफ़न देने भी नहीं देते
मेरी रूह की आवाज़
न आसमान में जाती है
और न पहाड़ों में
दिल्ली के लाल कि़ले से टकराने का तो सवाल ही
पैदा नहीं होता
इन वादियों में
न ’िाव है
न अल्लाह
न ही गौतम बुद्ध
सरकण्डों के पीछे
हर तरफ़
डाकुओं की टोलियाँ छिपी हुई हैं
एक दूसरे की ताक में
एक तरफ़ से दूसरी तरफ़
मुसलसल ग’त कर रही हैं
मासूम लोगों की तला’ा में
गोलियाँ दाग़ने के इन्तज़ार में
कितनी गर्मी है इस बहार में
’ाायद च’मए-’ााही का पानी ही
40. बिना क़ब्र।
कड़वा हो गया है
झेलम का पानी तो पहले से तअफ़्फ़ुनज़दा41 है
फिर भी मेरे मुर्दा दिल को
तुम इस ज़ख़्मी वादी की गोद में दफ़ना दो
ताकि ज़मीन के अन्दर
रिसते हुए ख़ून में गदलाहट मिल कर
ये भी सड़ जाए
और यहाँ से उठती हुई गंध्ा में इज़ाफ़ा
हो जाए
ताकि कुछ तो सही
श्रीनगर और दिल्ली के अम्न फ़रो’ाों के
ज़हनों में सफ़ाई के कीड़े कुलबुलाएँ
और उन्हें आज न सही कल
जारोब क’ाी42 की सआदत43 मिल जाए
बाहर तो बहुत अंध्ोरा है
अंध्ोरे
आहिस्ता-आहिस्ता किसी अज़दहे44 की तरह
आगे बढ़ रहे हैं
अपने पेट में
’िाकार की रौ’ानी लिए हुए
इसी रौ’ानी ने
इसी नूर ने
हमें आज तक जि़न्दा रखा है
41. बदबू भरा, 42. झाड़ू लगाने, 43. गौरव, 44. अजगर।
ज़मीन पर चलते हैं
दरियाओं में तैरते हैं
हवा में उड़ते हैं
सियाही ही से छनछन कर
आने वाली रौ’ानी ही तो हमारी
जि़न्दगी की बुनियाद है
यही हमारी फ़रियाद है
इसमें हम घर बनाते हैं
रस्ते सजाते हैं
हम जब भी ख़ुदा की तला’ा करते हैं
मुसलसल दीवार से
टकरा कर गिर जाते हैं
उजाले में मर जाते हैं
हमें यहाँ पर रोज़
आना पड़ता है मरने के लिए
हमें जीने का मातम करना पड़ता है
ज़हर भरे तीर को सीने में घोंप कर
जीने का नाटक करना पड़े
ज़मीन से कुछ भी नज़र नहीं आता
आसमान से कुछ नज़र नहीं आता
इस अंध्ोरी सुरंग में
सिर्फ़ महसूस किया जा सकता है
उस ऊँचाई को जिसे अर्’ा कहते हैं
उस गहराई को जिसे पाताल कहते हैं
तुम दर्द की चिंगारी लिए
चुपचाप मेरे साथ चलते रहो
बाहर मत देखो
बाहर तो बस अंध्ोरा है
अल्लाहो-अकबर
बर्फ़ से ढके सनोबरों45 की तरह
सीने में पेवस्त खं़जरों की तरह
मेरी ज़्ाुबान बन्द है
मेरे जीने और मरने का हर नि’ाान बन्द है
जब म’ारिक़46 से सूरज निकलेगा
जब ध्ाूप फैलेगी
जब बफऱ् पिघलेगी
तो मेरे लब खुलेंगे
हरे हरे नुकीले पत्तों की तरह
जब सीने से ख़ंजर बाहर निकाला जाएगा
तो दो चार ख़ून के क़तरे
जिस्म के बाहर आएँगे
ज़मीन में जज़्ब हो जाएँगे
लेकिन तब
जान जा चुकी होगी
जिस्म ठण्ढा पड़ चुका होगा
कोई आवाज़ नहीं आएगी
सुकून हमे’ाा की तरह बाक़ी रहेगा
सिफऱ् ला’ा को जनाज़े में रखने वालों
की चेम गोइयाँ
और जनाज़ा ढोने वालों
के नार-ए-तकबीर का ’ाोर
फि़ज़ा में गूँजेगा
और ’ाायद यही मेरी आखि़री नज़्म होगी
सुकूत47 को तोड़ने वाला
महज़ एक नारा
अल्लाहो-अकबर
45. चिलग़ोज़े का पेड़, 46. पूरब, 47. ’ााँति।
तुम कैसे फूल हो
तुम कैसे फूल हो
जो ध्ाूल नहीं बने
न तुम मिट्टी में गिरे
न ही तुम्हारी पत्तियाँ टूटीं
ख़ु’ाबू अब तक आ रही है
’ाायद तुम ’ााख़ पर नहीं हो
’ाायद तुम गुलदान में हो
जहाँ हर रोज़ पानी बदल दिया जाता है
तुम कैसे दोस्त हो
जो अब तक मेरे लिए बबूल नहीं बने
न ही दिल दुखाने वाली कोई बात की
न ही छुप छुप कर
मेरे दु’मनों से मुलाक़ात की
’ाायद तुम दोस्त नहीं हो
और न कोई बदरूह48
’ाायद तुम गो’त पोस्त नहीं हो
मैं तुम्हें फ़रि’ता भी नहीं कहूँगा
ये मेरे एतक़ाद49 के बाहर है
कायनात से भी
ज़ात से भी
मुझे सिर्फ़ आसमान के कबूदी फूलों से
मुहब्बत है
जो बादलों से झाँकते हैं
आका’ा में जन्म लेते हैं
ऐसे फूल जो दिखाई देते हैं
48. बुरी आत्मा, 49. वि’वास।
किसी अन्जान लम्हे में
जब आँख सो रही होती है
ये वक़्त रात का है
या सुबह का पता नहीं
’ाायद नक़्ले मकानी50 के बाद
मेरे घर का कोई पता नहीं
मैं तमाम इमकानात51 में
आज़ादी और आवारगी से
भागती हुई बेख़बरी हूँ
मुझे कोई ख़बर न देना
मैं टेलीविज़न से थका हुआ दिमाग़ हूँ
और सोना चाहता हूँ
नीले कबूदी आसमानी फूलों के दरमियान
जो कभी ध्ाूल नहीं बनते
चुभते हुए काटों से आरी
ख़ला52 में लटकती हुई जड़ों से मेरे
ख़्वाब की इंतिहा के बाद कोई नींद नहीं है
एक बेनाम ख़ु’ाबू है
जो पूरी कायनात में फैल गयी है
गौहरे-नायाब
वो क्या गौहरे-नायाब53 था
जो खो दिया मैंने
वुफ़ूरे-रौ’ानी54 से
रास्ता इक बुक़्क़ए-नूर55 था
50. मकान बदलने, 51. सम्भावनाओं, 52. ’ाून्य, 53. क़ीमती मोती, 54. रौ’ानी की अध्ािकता, 55. रौ’ानी का केन्द्र।
कोई रहज़न न था
कोई दु’मन न था
सभी थे दोस्त
जो हमराह थे
चुराता कौन उसे
न था ये जेब में
और न गलों में
न जिस्म के ऊपर था
’ाायद दिल में था
फिर कैसे खो गया
क्या ये ग़म था होने का
और ख़ु’ाी न होने की
या फिर कोई ख़ुफि़या आरज़्ाू थी
तमन्ना थी ख़्याबान56 की
सुरूद57 ओ नग़मा
किसी अंजुमन का
ख़ु’ाबू गुलो-लाला58 के चमन की
वो क्या था
या न था
वो क्या गौहरे-नायाब था
जो खो दिया रस्ते में
या फिर जुस्तजू59 की भूख ने
उसको मिटा डाला
जि़न्दगी के दर्द ने
उसे जला डाला
वो क्या था
सोच के आइना-ए-ज़ंगार60 में
इक अक्स भी बाक़ी नहीं उसका
56. फूलों भरा रास्ता, 57. गीत, 58. गुलाब और लाला के फूल, 59. तला’ा, 60. ज़ंग लगा आइना।
उसकी याद का
इक नक़्’ो-पा61 भी
रेत पर
बाक़ी नहीं उसका
यहाँ तक आते आते
दिन के उजाले जाते जाते
’ााम के गहराते सायों में
अब कुछ भी
याद आता नहीं
बस एक एहसास
मुबहिम62 सा है
खोने का
सिवाए जिस्म ख़स्ता व बीमार के
कुछ भी होने का
अब जी चाहता है
दिले आवारा से कह दूँ
किसी जंगल में
आज़ाद कर दे
जिस्म ओ जाँ को भी
किसी सेहरा63 में जाए
किसी रेत के तोदे64 में
दफ़्न कर दे
ख़ुद को भी
फूल ज़ख़्म है
नवि’त-ए-बहार65
61. पैर का नि’ाान, 62. अर्थहीन, 63. रेगिस्तान, 64. टीला, 65. बहार का लिखना।
ज़ख़्मे-ज़र अंगार66
फूल सा मुस्करा रहा है क्यों
गुलाबी पत्तियों पे
किरनें सुबह की
सँवर रहीं हैं यूँ
कि जैसे ये गुल आफ़ताब67 हों
सबा68 के नर्म नर्म झोंके में
कोई सुनहरी नाव
झील में चल रही है
ज़ेरे आब69
लहरें दर्द की
दूर के किनारे
साहिलों में
जज़्ब हो रही हैं
लहू के क़तरे
सुखऱ्रू उफ़क़70 की लाली में
चार चाँद लगा रहे हैं
ये जि़न्दगी है ख़्वाब की
या ख़्वाब जि़न्दगी में है
ज़ख़्म फूल और बहार
सभों का रंग एक है
उभर रहा है जो नज़र के सामने
वो महज़ इक सराब71 है
कोई नहीं यहाँ पे जो
अनेक है
हर एक फूल की महक
इज़्ितराब72 है
66. नासूर बन चुके ज़ख़्म, 67. गुलाब रूपी सूरज, 68. सुबह की ठण्डी हवा, 69. पानी के नीचे, 70. ’ााम की लालिमा, 71. मृग तृष्णा, 72. बेचैनी।
मेरा लहू बहार में
ख़ुदा की तरह एक है
अज़ल का नग़मए नाबूद73
जब आँख नहीं
जब नींद नहीं
जब ख़्वाब नहीं
जो दिख रहा है
वो क्या है
ऐसे जैसे
बड़े बड़े पर्दे पर
कोई फि़ल्म चल रही है
ध्ाूल भरे रास्ते में
कोई जिस्म कटा हुआ पड़ा है
दरख़्तों की ओट में छिपी
कोई रूह रो रही है
अनदेखे समुन्दरों के बीच
बड़े सुकून से
कोई नाव सो रही है
आफ़ाक़74 में कहीं
सुबह हो रही है
चार सू
उजाला फैल रहा है
काले-काले मुर्दा सायों से
73. हमे’ाा रहने वाला नग़मा जो अब नहीं है, 74. ब्रह्माण्ड।
आँख मिचैली खेल रहा है
ये सब
क्या हो रहा है
कहाँ हो रहा है
जहाँ हो रहा है
वहाँ
क्या कोई अन्दे’ा-ए-वफ़ा है
क्या कोई आमाद-ए-वफ़ा75 है
जो दिख रहा है
वो क्या है
जब दिल नहीं है
जब क़दमों की
मंजि़ल नहीं है
जब दर्द का कोई
साहिल नहीं है
जब किसी चीज़ का
कोई हासिल नहीं है
जब ख़ु’ाी ख़त्म हो गयी
दर्द भी ज़ाइल76
ग़म भी ख़त्म हो गया है
अब हमारा
क्या आसरा है
लक़-ओ-दक़ सेहरा में
जो तपती रेत बिछी है
लटकती ज़्ाुबानों में
जो प्यास लगी है
जो कुछ है
जो कुछ बाक़ी है
75. वफ़ा के लिए तैयार, 76. ख़त्म होना।
वो सज़ा है
जि़न्दगी की आहनी77 सलाख़ों के पीछे
इक जिस्म जो पा-ब-जोलाँ78 लड़खड़ा रहा है
इक रूह जो
तितली की तरह
किसी यख़बस्ता79 तहख़ाने में
भटक रही है
आज़ादी के खुले मैदान में
इक दीवार जो गिर गयी है
इक घर जो बैठ गया है
इक रस्ता जो खो गया है
इक दरिया जो सूख गया है
इक सेहरा जो चमक गया है
इक मंजि़ल जो लापता है
जो दिख रहा है
वो क्या है
न मेरे चेहरे पर
आँखें है
न सामने मेरे
कोई आईना है
फिर दर्द मेरे दिल में
क्यों सिवा है
मैं दूर ख़ुद से
बढ़ रहा हूँ
हर मोड़ पर
अपने आपसे
लड़ रहा हूँ
फिर भी
77. लोहे की, 78. पैरों में ज़ंजीर, 79. बफऱ् सी जमी।
अन्दर और बाहर
इक ख़ला है
काले काले
घने घने जंगलों
हर तरफ़ से लपकती हुई
बला है
जब आँखें बन्द हैं
तो
जो दिख रहा है
वो क्या है
मंज़र
हर तरह के क़दमों की
ध्ाूल से अटा है
मंज़र
मेरी आँखों में सजा है
उसे
आँसू कभी न ध्ाो पाएँ
हम जाएँ तो कहाँ जाएँ
ख़्वाबों की ओट में
कोई पनाह नहीं है
वो कौन सी जगह है जहाँ
जीना गुनाह नहीं है
किताबे-असा80 और पहाडि़याँ
हमें क्यों बुला रही हैं
ज़हरीले नागों से लदी झाडि़याँ
हमें क्यों पुकारती हैं
तकमील81 तो कहीं भी हो न पाए
अपनी ज़ात की
80. तोरैत (पवित्र किताब), 81. पूर्ण।
हमारी इबादतों की
पुर सुकून झील में
तहलील82 भी न हो पाए
कहानी कभी
उस रात की
हरगिज़ नहीं बदलेगी
इस कायनात की
कोई भी रो’ानी
मेरी आँखें जो देख रही हैं उसे बदल नहीं सकती
कोई भी जेहाद हो
हमारी ज़ात
दु’मनों के नगऱ्े़83 से निकल नहीं सकती
आहिस्ता-आहिस्ता चुभते
ग़्ाुलामी के नी’ा-अक़रब84
कुचल नहीं सकती
फिर भी
जो दिख रहा है
वो क्या है
क्या ये अन्दे’ा-ए-वफ़ा है
क्या ये कोई बला है
क्या ये हमारे वजूद की सज़ा है
क्या हमारे पास
इसकी कोई दुआ है
या फिर
जिसे पीकर हमे’ाा हमे’ाा के लिए सो जाऊँ
ऐसा कोई न’’ाा है?
कोई तो बताए
आखि़र को
82. घुल मिल जाना, 83. घेरे, 84. हीरे की ध्ाार।
जो दिख रहा है
वो क्या है
लालाज़ार में खि़ज़ाँ85
वो लालाज़ार86
वो आब’ाार87
वो फूलों का बन
वो सरसब्ज़88 चमन
देख रहे हैं!
वो जहाँ
ख़्वाब में भी हम
कभी पहुँच न पाएँगे
वो आँसू देख रहे हैं
जो पलकों पर आके
बंजर ज़मीनों पर गिर न सके
अध्ाूरे सफ़र के
अध्ाूरे मुसाफि़रों की तरह
देख रहे हैं
मु’क-बू-का हामिल89
वो आहू90
जो भागे तो कभी कहीं रुके नहीं
वो ख़ु’ाबू देख रहे हैं
जिसका पता फूल भी न बता सके
हिज्र91 की नामुराद आँखों में
वस्ल92 का नाकाम साया
85. चमन में वीरानी, 86. लाला फूल की क्यारी, 87. झरना, 88. हरा भरा, 89. हिरन की नाभि की ख़ु’बू की तरह, 90. हिरन, 91. जुदाई, 92. मिलन।
लहरा रहा है
जी चाहता है
आँखें मूँद लें
हो सकता है
चलने वालों की मजबूरी महज़
रास्ता ख़त्म करने पर मौक़ूफ़ हो
या फिर वासिता ख़त्म करने के लिए
या फिर
जिस्म के हदों से निकल कर
बे-तरतीबी93 के ज़र्रों में ढल कर
किसी सब्ज़ आज़ार के ढलवान की तरफ़
मौजूद गिरती हुई खाई में
गिर रहे हैं
इस वाकि़ए का
हँसी में न ढलने का अमल
अभी अध्ाूरा है
लेकिन
सोच का दायरा
उदास आँखों में
बाक़ी है
जीने से कुछ नहीं होगा
मरने से कुछ नहीं होगा
कौन सी ’ौ है
जो हमारी
रूहों के आइने से निकल कर
सड़ते हुए ज़ेहनों में घुल कर
इस ऐसी सिम्त चली गयी
जिसका हमें पता नहीं
93. अप्र’िाक्षण।
रग-ओ-रे’ाा94 में दर्द अभी
बाक़ी है
जिसमें ’ाायद कोई रंग कभी
पैदा हो सके
यादों की तरह
कोई तुम्हारी बातें सुन सके
इस महमिल95 गुफ़्तगू में खो कर
कोई मानी का जाल बुन सके
वो लाला ज़ार देख सके
जहाँ
तुम किसी किताब का सानेहा96
सुन सको
और जहाँ निस्फ़-’ाब97 को
इक ’ाोर बपा हो
नोहागरी98 का
’िाकस्त ख़ुर्दगी का
और उसे सुनते
भीगी बिल्लियों की तरह
दबे पाँव
खोए हुए लफ़्ज़
वापस आ सकें
हर चीज़ को
इक ऐसा मानी देने के लिए
जो सिफऱ् सियाही का
आकार
ज़्ाुबानी इज़हार
और
समाअत99 की आखिरी मंजि़ल
94. जिस्म की ध्ामनियों, 95. अर्थहीन, 96. घटना, 97. आध्ाी रात, 98. ’ाोकगीत, 99. सुनने।
न हो
ख़ूनी कारज़ार से
उखड़ा हुआ मेरा दिल न हो
जि़न्दगी का कोई हासिल न हो
रंग बिरंगे
फूलों में खुल जाए आँख
मंजि़ल के बगै़र
रस्ता पूरा हो जाए
और जीने
की कोई मंजि़ल न हो
रौ’ानी के ख़्वाब
बन्द आँखों में
नज़र के आगे
बादलों या ध्ाुन्द की
एक दबीज़100 सफ़ेद चादर फैली हुई है
किसी बे दाग़
सफ़हए-अब्यज101़ की तरह
क्या ये मेरी बयाज़102 है
जिसकी बुर्राक़103 सफ़ेदी में
मेरी अनकही नज़्में छपी हुई हैं
मेरे पास अब कोई क़लम नहीं है
वो क़लम जो इस पुर सुकून
ख़ाली जगह को भर सके
’ाायद अब
100. मोटी, 101. सफ़ेद पेज, 102. डायरी (जिस पर ’ाायरी लिखी जाती है), 103. बहुत सफ़ेद।
उँगलियों ही को क़लम बनाना होगा
ताज़ा-ताज़ा लहू की रौ’ानाई
सफ़ेदी पर सुखऱ् अल्फ़ाज़
कितने हसीन
कितने ख़ूबसूरत
दमकते हुए
ज़मीन-ओ-आसमान
उनकी रौ’ानी से मुनव्वर
आसमान में ख़ुदा
और
ज़मीन पर बन्दे
ख़ु’ाी से पागल
ये यक लम्हाए-निजात
जिसमें ममात104 नहीं
एक मुज़दा जाँफि़ज़ा105 है
जो वजूद को
मुअत्तर कर रहा है
जिससे सब कुछ
ख़ु’ागवार हो गया है
मालूम नहीं
ये ज़मीन है या आसमान
मैं हर चीज़ से दूर नहीं हूँ
लेकिन दिल से मजबूर ज़रूर हूँ
गो माज़ी व हाल में मगन हूँ
मुस्तक़बिल अभी पैदा नहीं हुआ है
इस सफ़ेद चादर की तरह
हसीन और नायाब
गहरी नींद के ख़्वाब की तरह
104. मौत, 105. दिल को ख़ु’ा कर देने वाली ख़बर।
हर तरफ़ छाया हुआ है
ये ख़्वाब जागने पर
याद नहीं रहेगा
नींद चाहे उजाले की हो
या अंध्ोरे की
कितनी हसीन होती है
जि़न्दगी से ज़्यादा ख़ूबसूरत
मौत से ज़्यादा दिल फ़रोज़
मैंने फै़सला किया है
मैं पहले जैसी बातें नहीं करूँगा
लेकिन
जब चुप्पी टूटे तो
बोलता रहूँगा
पलकों के साए तले
रौ’ान आँख थक गयी है
थकन से चूर आँखें
खोलता हूँ
तो
दूर दूर तक
फैले हुए रात के अंध्ोरे
आँखों में चले आते हैं
रौ’ानी के ख़्वाब टूट जाते हैं
ये रास्ता नहीं है
वह’ात106 का रास्ता तुम्हारी तरह नहीं होता
जो घर से निकल कर सीध्ो मंजि़ल पर पहुँच जाता है
106. जंगलीपन।
इसमें कोई मोड़ भी नहीं
संगे-मील भी नहीं
ये तो बस अपने घर से निकल कर अपने घर ही तक पहुँचता है
हम पत्थर अपने हाथ में लिए खड़े हैं
जो अपने ही सर को ताक रहा है
इसमें कोई मंजि़ल ही नहीं
कोई साहिल भी नहीं
इस पर चलना तो
कहीं जंगल में खो जाने के बराबर है
इस रास्ते का मक़सद
खो जाना है
और किसी को या अपने आपको याद नहीं आना है
मुझे इस रास्ते पर अकेला चलने दो
मैं कहीं नहीं जाऊँगा
और न कहीं आऊँगा
और न कहीं रुकूँगा
मुझे किसी मफ़हूम107
किसी लफ़्ज़
और हफऱ्108 की दुम पकड़ कर
मुहज़्ज़ब नहीं बनना है
न ही मैं अपनी ज़ात का
इज़हार करना चाहता हूँ
मुझे किसी ज़्ाुबान की ज़रूरत नहीं
जहाँ मैं रहता हूँ
वहाँ अ’िाया109 और इन्सानों का वजूद नहीं
न ही ख़्यालों और ख़्वाबों का
मैं बरहनगी110 के साए में खड़ा हूँ
और
107. समझ, 108. अक्षर, 109. चीज़ों, 110. नंगेपन।
कभी का
अपने तमाम कपड़े
अपना पूरा जिस्म
और
अपनी बे मानी रूह को उतार चुका हूँ
बहरूपिया
जब दिन अजनबी हो जाए
और रात भी
और जब अपनी ज़ात111 भी अजनबी हो जाए
तो उसे तनहाई नहीं कहते
उसके लिए लुग़त112 में कोई लफ़्ज़ नहीं
उसका कोई मानी ही नहीं
अक्सर लोग इस तरह से नहीं गुज़रे
अब मैं नए मफ़ाहीम113 क्यों ईजाद करूँ
क्यों किसी को बताऊँ
और इसके लिए क्यों नए अल्फ़ाज़ बनाऊँ
इसका फ़ायदा क्या है
मुझे किसी को अपना हमराज़ नहीं बनाना है
किसी को अपना राज़ नहीं बताना है
किसी को अपने लामौजूद साए से भी नहीं डराना है
मुझे तो लोगों के साथ
इस दुनिया के हमराह
ऐसे रहना है जैसे मैं इन्हीं में से हूँ
ये नहीं बताना है कि मैं कहाँ हूँ
क्योंकि
111. स्वयं, 112. ’ाब्दको’ा, 113. अर्थ।
जो ख़ुदा इन्सान और ’ौतान के पास
नहीं होता वो कहीं का नहीं होता
और किसी भी मानी में हसीं नहीं होता
भले ही इसकी कोई वाजे़ह114 सूरत न हो
और वो चाहे कितना ही बदसूरत क्यों न हो
लोग तो महज़ आकार देखते हैं
देखते हैं उनके सामने क्या है
मैं मिस्टर एक्स
की तरह हमे’ाा कपड़े पहने रहूँ तो अच्छा है
इन्सान को किसी न किसी बोली में तो बोलना ही
पड़ता है
चिडि़यों की तरह
या फिर चील कव्वों की तरह पर तोलना ही पड़ता है
जब तक यहाँ रहूँ
ये सब काम तो करने ही पड़ेंगे
मैं उनके लिए नया सहीफ़ा115 भी नहीं ला सकता
क्योंकि जो कुछ उनके पास है
उसे ही पढ़ लें तो बड़ी बात है
पुराने को नया बनाना मेरा काम नहीं
मेरा काम सिर्फ़ इतना है कि
जब तक यहाँ रहँू
उनमें घुल मिल कर जीता रहूँ
और कभी उन पर अपना राज़ आ’कार116 न करूँ
कभी अपना असली चेहरा नहीं दिखाऊँ
जब मरूँ तो
क़ब्र में दबाने के लिए उन्हें मेरी रूह भी मिले और जिस्म भी
और मैं क़ब्र से दूर खड़ा हुआ
ये तमा’ाा देखता रहूँ
114. स्पष्ट, 115. ई’वर द्वारा भेजी गयी किताब, 116. खोलना।
और फिर इमाम बन कर
ख़ुद अपनी फ़ातिहा पढ़ूँ
रास्ता वाज़ेह है
(अहमद खि़ज़रवी के नाम)
कोई चले न चले
कोई आए न आए
कोई जाए न जाए
कोई माने न माने
रास्ता वाज़ेह है और हक़ ज़ाहिर है
खुला हुआ है ध्ाूप में
खुला हुआ है अंध्ोरे में
खुला हुआ है तूफ़ानों में
खुला हुआ है साफ़ मौसमों में
ज़ाहिर है फूलों में
कलियों में
बाग़ों में
सेहराओं में
पहाड़ों में
दरियाओं में हक़
दिलों में आँखों में
नींदों में ख़्वाबों में
साँसों में
अम्न में जंगों में
ज़ाहिर है हक़
तुम मानो न मानो
तुम जानो न जानो
कोई फ़र्क नहीं पड़ता
न तुमको न हक़ को
रास्ता वाजे़ह है हक़ ज़ाहिर है
तुम अपने ’ाहर में रहो
या किसी दूर दराज़ बस्ती के ख़ूबसूरत गाँव में
तुम घर में रहो कि बाज़ार में
तुम आबादी में रहो कि क़ब्रिस्तान में
मकान में कि लामकान में
इस जहान में कि उस जहान में
ख़ला117 में कि ज़मीन पर
तुम कहीं भी रहो
रास्ता वाज़ेह है
ध्ाूप की तरह
नूर की तरह
ध्ाुँध्ा में अटी पगडंडी की तरह
आओ न आओ
जाओ न जाओ
चलो न चलो
रास्ता वाज़ेह है
रास्ता मिट्टी का भी
पत्थर का भी
सीमेंट का भी
कोलतार का भी
बड़ा भी है छोटा भी
वादियों में भी है पहाड़ों में भी
117. ’ाून्य।
दूर से और नज़दीक से
हमे’ाा चमकता हुआ नज़र आता है
हमे’ाा बुलाता रहता है
तमा’ााइयों को
जो किनारे पर खड़े देखते रहते
हैं रहगीरों को
आते जाते हुए
मरते जीते हुए
हक़ ज़ाहिर है
तुम्हारे चेहरे में
बन्द पड़ी किताबों में
मुर्दा ख़्यालों में
जागते ख़्वाबों में
दर्द में कराहों में
आँसुओं में
मुस्कराहटों में
सच्ची बातों में
झूठी ख़बरों में
हर कहीं
हक़ ज़ाहिर है
कोई चले न चले कोई माने न माने
रास्ता वाज़ेह है हक़ ज़ाहिर है
जंगलों में जाऊँ
कि सेहराओं में
’ाहरों में रहँू
कि बयाबानों118 में
कुर्सी पर बैठूँ
कि फ़र्’ा पर
118. जंगलों।
हर जगह हर मक़ाम पर
रास्ता वाज़ेह है
मिट्टी है आँखों में ऐसी कि
कुछ भी दिखाई नहीं देता
मैल है कानों में ऐसा
कि कुछ भी सुनाई नहीं देता
जिस्म है बोझ इक ऐसा कि
उठाते नहीं उठता
जज़्बों के कीकर में
जकड़ा है रूह का परिंदा ऐसा
कि छुड़ाए नहीं छुटता
ज़मीन पर हर जा
ख़ून के छींटे हैं
दिल किसी ज़मींदोज़ खाई में
गिरा पड़ा हो
लेकिन ऐसे में भी
सुलगते मंज़र के रूबरू
आँखों के सामने ख़ूबरू
रास्ता वाज़ेह है
हक़ ज़ाहिर है
कोई तो हिम्मत दे जाने की
कोई तो क़ुव्वत119 दे उठने की
कोइ्र तो चाहत दे
ख़्वाह मा ख़्वाह
राह में भटकने की
बिल आखि़र मरने की
कुछ न कुछ करने की
बर्बाद हो कि आबाद
119. ’ाक्ति।
ना’ााद रहो कि ’ााद120
मुर्दा हो कि जि़न्दा
माज़ी हो कि आइन्दा
हर लम्हा हर मक़ाम पर
हर रंग में
हर आईना में
रास्ता वाज़ेह है हक़ ज़ाहिर है
कोई चले न चले
कोई आए न आए
कोई जाने न जाने
कोई माने न माने
रास्ता वाज़ेह है हक़ ज़ाहिर है
’ौतान के लिए एक नज़्म
तू काला नहीं है
कि मैं तेरी दास्तान सियाह121 क़लम से लिखूँ
रौ’ानाई तो अक्सर
नीली होती है
या फिर सियाह
और तहरीरें122
सिर्फ़ सफ़ेद बुर्राक़123 काग़ज़ ही पर
लिखी जाती हैं
नेकी और बदी पर
एक ही क़लम और एक ही रौ’ानाई से
किसी को नहीं मालूम
कि सवाब के पर्दे में कितने गुनाह होते हैं
120. ख़ु’ा, 121. काला, 122. लिखावटें, 123. चमकदार।
और फिर
तू तो हर रंग में मौजूद है
फ़रि’तों की तरह सिफऱ् सफ़ेद नहीं
न उनकी तरह तेरे दिखाई देने वाले
पंख हैं
तेरा सब कुछ तेरे जिस्म के अन्दर है
जो दिखाई नहीं देता
न ही तेरी रूह ज़ाहिर है
’ाायद तू ख़ुदा का दायाँ हाथ होते होते
ग़्ाायब है
वरना तेरी हुक्म अदूली124 की बुनियाद पर
वह दुनिया की बुनियाद क्यों रखता
तुझे दुनिया और उसकी मख़लूक़125 में
सरायत126 करने की इजाज़त क्यों देता
तू दुनिया भी है और इसका जवाज़127 भी
तुझे किया गया है हर तरह से सरफ़राज़128 भी
तू हर तरफ़ ख़्वाहि’ाों अरमानों
और आरज़्ाूओं की बे’ाुमार पोटलियाँ
लिए फिरता है
जिसको चाहा उसे वह दे दिया
जिसको न चाहा उसे महरूम129 कर दिया
मैं ख़ाली बैठे बैठे
दुनियावी कामों से दूर
दीनी और समाजी कामोें से अलग
तने-तनहा
जे़हन में तेरे डाले हुए ख़्यालात ही को
’ााइरी के नाम पर क़लम बन्द कर रहा हूँ
और मेरा कमरा नज़्मों के ढेर से भर गया है
124. हुक्म न मानने, 125. जीव, 126. घुलने, 127. कारण, 128. सम्मानित, 129. किसी चीज़ का न होना।
ऐसी नज़्में
जिन्हें लोग हरगिज़ पढ़ना न चाहेंगे
नक़्क़ाद130 उन पर
गै़र मुनासिब, ग़ैर मौज़्ाूँ, ग़ैर अदबी और
ग़ैर असरी की मोहर लगाएँगे
तू किस किस तरह से ज़ेहनों में सरायत करता है
और जि़न्दगी में
लोगों के ’ााना-ब-’ााना131 चलता है
हर तरफ़ तेरी हुकूमत फैली हुई है
तू हर जगह मौजूद है
कहीं बच्चों और बीवी की सूरत में
कहीं महबूबा के रूप में
कहीं दोस्तों की तरह
कहीं समाज के रूप में
तो कहीं सरकारी कुर्सियों पर बिराजमान है
सियासी पार्टियों की ’ाक्ल मेें
तो कहीं
माबदों132 में बैठे हुए
पुजारियों और मुल्लाओं की तरह है
ये सब तेरे ही नुमाइन्दे हैं
ख़ुदा का नाम तो ख़्वाह मा ख़्वाह ख़राब हो रहा है
उसने
तुझमें अजीब ख़लीफ़ा ढूँढ़ा है
अगर सब कुछ तेरी कारस्तानी है
तो हमारे लिए
अज़ाब133 और क़यामत क्यों
जन्नत क्यों
दोज़ख़ क्यों
130. आलोचक, 131. कंध्ो से कंध्ाा मिलाकर, 132. पूजा स्थल, 133. प्रताड़ना।
तू मुझे अकेले ही रहने देना नहीं चाहता
मेरी सोच भी तेरी ताबे134 है
इस पर ख़्वाह मा ख़्वाह मज़हब का मुलम्मा135 चढ़ा हुआ है
बाज़ारों में न जाया करो
वहाँ ’ौतान ने अण्डे दे रखे हैं
तूने तो पयम्बर के उस क़ौल को भी
झुठला दिया है
और मक्का मदीना को बाज़ार बना दिया है
वहाँ
लाखों की तादाद में जाने वाले ज़ायरीन136
पता नहीं
ख़ुदा के घर जाते हैं
या तेरे अण्डे ख़रीदने
तेरी सल्तनत में ख़ुदा को ढूँढ़ते-ढूँढ़ते
ख़ुद में समाते समाते
मैं तंग आ चुका हूँ
इस तारीक137 कुएँ में
जिसे मैं ज़ात ही कहता हूँ
मुझे तेरी ’ाक्ल नज़र आती है
कभी फ़रि’तों के रूप में
तो कभी हसीन अप्सराओं की तरह
और कभी
बुज़्ाुर्गो के रूप में
जो मुझे जि़न्दगी की इस फ़सील138 की तरफ़
ले जाते हैं
कि जिसके अन्दर
कुलबुलाते हुए इन्सान ही इन्सान हैं
अफ़ज़ाइ’ो नस्ल139
134. अध्ािकार में, 135. पर्त, 136. श्ऱद्धालु, 137. अंध्ोरे, 138. सीमा, 139. बच्चे पैदा करना।
ख़ुराक की फ़राहमी
घरों और मुल्कों की तामीर
फिर जंग और
इन्हदाम140 ही उनके मसलक141 हैं
उनका मज़हब है
और कि जिसके जाने के लिए
नज़दीक या दूर कोई समुन्दर भी नहीं
ऐ ’ौतान
दुनिया को छोड़ न छोड़
दीन को छोड़ न छोड़
ख़ुदा के लिए न सही
मेरे लिए
मुझे अकेला छोड़ दो
अपने लफ़्ज़ अपने हर्फ़142
अपने ख़्यालात अपनी ज़्ाुबान
अपनी तहज़ीब
और उसकी नैरंगी143
मुझसे ले लो
और अपने वजूद को मेरी ज़ात से
मेरी कायनात से
हर बात से
मेरी रात से
अलग कर दो
ये एक न ख़त्म होने वाला सिलसिला है
जिसकी इन्तेहा144 सिर्फ़ तुझे ही मालूम है
किसी और को नहीं
अब देखो
तुझ पर लिखी गयी ये नज़्म भी
140. बर्बादी, 141. पंथ, 142. अक्षर, 143. विविध्ाता, 144. अंतिम छोर।
ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रही है
लफ़्ज़ के बाद लफ़्ज़
ख़्याल के बाद ख़्याल
मिसरे145 के बाद मिसरा
ज़ेहन में यूँ आ रहा है
जैसे अज़ल146 से छूटा हुआ
कोई ऐसा अज़ीम रेला है कि जिसका
काम महज़ बहना ही बहना है
एक बे मंजि़ल सफ़र
कि जिसे रोकने के लिए
आस पास न कोई पहाडि़याँ हैं
न चटानें
तेरी बनाई हुई
तारीख़ और जुग़राफि़या147 के
उस हिस्से से काट कर
मुझे दूर किसी ऐसी वादी में
फेंक दे
जहाँ तेरा गुज़र न हो
कि जहाँ सांसों की आमद-ओ-रफ़्त148
मुझे किसी मआनी और मफ़हूम149 की तरफ़
न ले जाती हो
न मुझे कोई रौ’ानी दिखाई दे
न अन्ध्ोरा
जहाँ सिफऱ् और सिर्फ़ हो
मेरी ज़ात का सवेरा
मैं खो गया हूँ
कहीं से ढूँढ़ के लाओ
मेरा बसेरा
145. ’ोर की एक पंक्ति, 146. उत्पत्ति का दिन, 147. इतिहास और भूगोल, 148. आना जाना, 149. समझ।