ख़ुदकुशी नामा रिज़वानुल हक़
20-Jun-2021 12:00 AM 1538

ये सूरते हाल उर्दू@हिन्दी में तो है ही, चन्द मग़रिबी मुल्कों को छोड़कर लगभग पूरी दुनिया में यही सूरते हाल है। ये कुछ ऐसे सवाल हैं, मसलन किरदार और उसके रचनाकार में क्या रिश्ता है? क्या कभी किरदार अपने रचनाकार से गुफ़्तगू करते हैं? अगर गुफ़्तगू करते हैं तो क्या गुफ़्तगू करते हैं? और क्या वाक़ई किरदार का कोई रचनाकार होता है? साथ ही ये भी कि क्या किरदार का कोई अस्तित्व होता है? या वह महज़ एक कठपुतली होता है। जिस की डोर रचनाकार के पास होती या उस उपन्यास के निहित लेखक के पास होती है? निहित लेखक और रचनाकार में क्या रिश्ता होता है? क्या दोनों बुनियादी तौर पर एक ही होते हैं? या अलग अलग? और अगर अलग अलग होते हैं तो उनका आपसी रिश्ता क्या होता है। ऐसे न जाने कितने सवाल हैं, जिन पर गुफ़्तगू तक़रीबन नहीं के बराबर होती है। ये सवाल सिर्फ़ आलोचना के नहीं हैं, इनका रिश्ता रचनाकार से भी होता है। अगर आलोचना इन सवालों को नज़र अन्दाज़ करेगी तो ये सवाल रचनाकार की रचनाओं में जगह पाएँगे।

पूर्व गुफ़्तगू
इस उपन्यास में मेरा नाम तालिब है, मैं ही इसका मुख्य किरदार हूँ, मेरा रचनाकार आज फिर मुझे कि़स्सा सुनाने पर मजबूर कर रहा है। (अब इस बात की व्याख्या ज़रूरी है कि औपचारिक रूप से ये उपन्यास शुरू हो चुका है, और आगे मैं जो भी बातें कहुँगा, वह उपन्यास ही का हिस्सा होंगी।) मैं अपने रचनाकार से आवेदन कर रहा हूँ कि जनाब आप कि़स्सा गो हैं आप जैसा चाहें कि़स्सा सुनाइये, लेकिन मुझे इस कि़स्सा गोई से दूर रखिए, मैं आपके उपन्यास का रावी नहीं बनना चाहता। कि़स्सा सुनाने के लिए आप एक कि़स्सा गो की रचना कीजिए, या कोई उपेक्षित किरदार भी रावी हो सकता है। मैं तो आपका मुख्य किरदार हूँ, अगर मैं कि़स्सा सुनाऊँगा तो ये कि़स्सा एक जीवनी कि़स्म का आख्यान बन जाएगा। एक किरदार को किसी जीवनी में क्या दिलचस्पी हो सकती है? जीवनी में बहुत सी ख़ूबियाँ हो सकती हैं। लेकिन वह फि़क्शन का पर्याय नहीं हो सकता। अगर किरदार कि़स्सा गोई करेगा तो कि़स्सा गोई पर कुछ न कुछ असर ज़रूर पडे़गा।
इसलिए बेहतर होगा कि मुझे सिफऱ् किरदार ही रहने दिया जाए, कि़स्सा सुनाने के लिए मुझे मजबूर न किया जाए। रही बात इस कि़स्से में किरदार बनने या निभाने की तो इसके लिए हमेशा ही मेरा सर झुका हुआ है। मैं आपकी रचना हूँ, आप जो रोल देंगे मैं उसे अदा करने की पूरी कोशिश करुँगा।
एक किरदार के तौर पर ये तालिब हर तरह का किरदार निभाने को तैयार है लेकिन मुझे किरदार ही रहने दीजिए कि़स्सा गो मत बनाइये। कि़स्सा सुनाने में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं है। कि़स्सा सुनाते वक़्त मैं एक कि़स्म की नाक़ाबिले बयान कशमकश में मुबतला हो जाता हूँ। फिर ये कि़स्सा भी तो देखो कैसा है? ‘‘ख़ुदकुशी नामा!’’ ज़रा ये भी तो ग़ौर फ़रमाइये, लोग क्या कहेंगे? लोग सोचेंगे कि मैं उन्हें ख़ुदकशी की तरफ़ आकर्षित करने के लिए ये कि़स्सा सुना रहा हूँ। मेरे साथ ये बड़ी नाइन्साफ़ी है। मेरी बात मानी जाए या न मानी जाए लेकिन मैं अपना प्रतिरोध्ा ज़रूर दर्ज करा देना चाहता हूँ। ताकि प्रमाण रहे कि मुझे कि़स्सा सुनाने पर मजबूर किया गया है।
मेरे रचनाकार मेरी बात कहाँ मानने वाले, कहते हैं, नहीं! इस बार कि़स्सा तुम्हें ही सुनाना होगा। ऐसा नहीं है कि मैंने कभी कोई कि़स्सा सुनाया न हो। ये सच है, मैं पहले भी किरदार रहते हुए कि़स्सा सुना चुका हूँ लेकिन बहुत कम। मेरे रचनाकार, मेरे दिमाग़ मेें अभी अभी एक विचार आया है, मैं आपकी कहानियों से आपका हम आवाज़ रहा हूँ, कहीं ऐसा तो नहीं कि आप मुझसे ऊब चुके हैं और ख़ुदकुशी नामा का हीरो बनाकर, मुझसे ख़ुदकुशी करवा के अपना पीछा छुड़वाना चाहते हैं।
मुझे शक है कि इस कि़स्से में ज़रूर कुछ ऐसी बातें होंगी, जिसका इल्ज़ाम आप अपने सर नहीं लेना चाहते होंगे, क्योंकि रावी के विचार को लोग लेखक के विचार मान ही लेते हैं। लेकिन वही विचार अगर किसी किरदार के हों, भले ही वह मुख्य किरदार के हों, तो बहर हाल लेखक की उससे एक दूरी क़ायम हो जाती है। कि किरदार के विचार लेखक के विचार नहीं हो सकते, क्योंकि किरदार तो हर तरह के होते हैं। अक्सर विरोध्ाी विचार के और टकराव भरे भी, सभी एक ही रचनाकार की रचना होते हैं। ऐसे में सवाल उठेगा कि किस किरदार के विचार लेखक के विचार होंगे? और किस किरदार के विचार लेखक के नहीं माने जायेंगे। इसका फ़ैसला कैसे होगा? वैसे मैं अपने तजुर्बे की बुनियाद पर इस नतीजे पर पहुँचा हूँ कि निहित लेखक किसी भी तरह का हो, उसके विचारों को लेखक के विचार समझ लेना एक गुमराह करने वाली बात है।
मैं समझता हूँ शायद मेरा रचानाकार इस कि़स्से को जज़्बातियत और व्यक्तिगत तजुर्बात से भी दूर रखना चाहता होगा, जब कोई शख़्स ख़ुद का कि़स्सा बयान करता है, तो बहरहाल वह अपना तमाशा ज़रा संभल कर ही करता है। बहुत सी बातें जब निहित लेखक दूसरे का कि़स्सा मान कर बयान करता है तो लेखक आज़ाद होता है, जितनी चाहे जज़्बातियत की रचना कर सकता है लेकिन जब एक किरदार कि़स्से को जीवनी के तौर पर बयान करेगा तो ज़्यादा वस्तुनिष्ठ रवैया इख़्ितयार करना मुश्किल है। मैं जानता हूँ आपबीती के तौर पर कि़स्सा सुनाने में रहमदिली और आयरनी ज़्यादा आसानी से और बेहतर तरीक़े से पैदा की जा सकती है लेकिन मैं वही तो नहीं चाहता हूँ।
बहर हाल मैं अपने रचनाकार के आग्रह के आगे मजबूर हूँ, ये किरदार तालिब एक बार फिर आप ख़्वातीन ओ हज़रात! अगर तीसरे लिंग के लोग भी हिन्दी उपन्यास के पाठक में शामिल हैं, तो उनके भी सामने मैं एक कि़स्सा लेकर हाजि़र हूँ। अब ये पूरा उपन्यास मेरी नज़र से आप तक पहुँचेगा। यहाँ से रचनाकार का रोल ख़त्म होता है।
ये कि़स्सा सुनाते वक़्त मेरे सामने श्रोता नहीं हैं। अब मैं ये कि़स्सा अपने रचनाकार को संबोध्य मानकर सुना सकता हूँ। जो सच पूछो तो रचनाकार भी सीध्ो मेरे सामने नहीं है। जैसे आप दुनियावी इन्सान ख़ुदा को हाजि़र और दर्शक मान कर बहुत सारी झूटी सच्ची क़समें खाते रहते हैं। वैसे ही ये कि़स्सा गो भी अपने रचनाकार को हाजि़र और दर्शक मानकर कि़स्सा सुना सकता है, जहाँ तक सच और झूठ का सवाल है तो मेरे ऊपर तुम्हारी दुनिया की पाबन्दी नहीं है। मैं सच का पाबन्द हूँ लेकिन तुम्हारी दुनिया के सच का नहीं, बल्कि फि़क्शन के सच का, जो इस वास्तविक और ठोस दुनिया के सच के समानांतर एक दूसरा सच है।
इस कि़स्से की सूरत हाल ये है कि मैं एक टैक्सी में शहर से दूर भाग रहा हूँ और इसी टैक्सी में अपने कि़स्से को याद कर कर के अपने जी को परेशान कर रहा हूँ। ऐसे में इस कि़स्से का एक बड़ा हिस्सा तो ख़ुद से बात करने के हालात में है। बहर हाल ये नाचीज़ तालिब एक बार फिर कि़स्सा गोर्ई के लिए आप तमाम लोगों की खि़दमत में हाजि़र है।
कुछ वाकि़ए, कुछ बातें वक़्त से परे होती हैं, आप ये नहीं कह सकते कि इस वाकि़ए का किसी ख़ास ज़माने से सम्बन्ध्ा है। कुछ बातों का रिश्ता किसी बहुत पुरानी बातों से होता है। किसी बात का सम्बन्ध्ा सैकड़ों साल पहले से भी हो सकता है। फिर आज जो कुछ हो रहा है वह भूतकाल में हुए किसी वाकि़ए का नतीजा, प्रतिक्रिया या उसका विस्तार भी मुमकिन है। पृष्ठभूमि के बग़ैर आप समकालीन को समझ नहीं सकते।

कि़स्से की पृष्ठभूमि
मैं आपको एक अनजान ज़माने के जाने पहचाने भूगोल में ले चलता हूँ। लखनऊ के उत्तर में क़रीब तीस मील की दूरी पर एक छोटा सा शहर करीम नगर स्थित है। जिसके पश्चिम मेें कोई डेढ़ मील की दूरी पर फन्दा गाँव आबाद है। ये गाँव फन्दा लगाने के लिए उस इलाक़े में बहुत मशहूर है। चाहे वह मामला ख़ुदकुशी का हो, फाँसी देने का हो या दूसरे के गले में फन्दा डाल कर उसे क़त्ल कर देने का हो। हर तरह के वाकि़आत का एक पूरा इतिहास इस गाँव में मौजूद है।
फन्दा गाँव के अस्तित्व में आने के बारे में एक वाकि़आ मशहूर है, जिसे आम तौर पर इस गाँव का बच्चा बच्चा जानता है। इसलिए इस वाकि़ए से आप का भी तआरुफ़ करा देना चाहिए। वह मशहूर वाकि़आ इस तरह है।
बात पुरानी है, हर काई जानता है लेकिन कितनी पुरानी है कोई नहीं जानता है। जब कोई वाकि़आ ज़्ाुबानी चलता है लेकिन लिखा नहीं जाता, तो उसका अंजाम ऐसा ही होता है। करीम नगर के महाराज के सिपाहियों ने एक बार ख़ौफ़नाक डाकू राम कुकरेती को पकड़ कर महाराज की खि़दमत में पेश कर दिया। करीम नगर के महाराज कहने को तो ख़ुद मुख़्तार महाराजा थे लेकिन अदालत अंग्रेज़ बहादुर की ही चलती थी। कुकरेती के बारे में मशहूर था कि उसे पकड़ना बहुत मुश्किल है और पकड़ कर कै़द में रख पाना उससे भी मुश्किल बल्कि नामुमकिन है। वह कई बार पकड़ा जा चुका था, मामला अदालत तक पहुँचा और अदालत इन्साफ़ के लम्बे सफ़र पर चल कर कोई फ़ैसला सुनाती, इससे क़ब्ल ही वह हर बार किसी न किसी तरीक़े से कै़दख़ाने से भाग जाता। कभी क़ैदख़ाने के सुरक्षा कर्मियों को कुछ लालच देकर, कभी जेल की दीवार में सेंध्ा लगाकर और कभी सुरक्षा कर्मियों को क़त्ल या ज़ख़्मी करके। इस तरह उसको कै़द में रख पाना नामुमकिन सा हो गया था और भागने के बाद वह अपने पकड़ने वालों को, या पकड़ने में मदद करने वालों और उसे किसी भी कि़स्म की तकलीफ़ देने वालों को वह चुन चुन कर मारता था।
इस बार महाराज चाहते थे कि कुकरेती का मामला अदालत तक न पहुँचने पाए और उसे फ़ौरन फाँसी दे दी जाए लेकिन मुश्किल ये थी कि शाही जल्लाद अभी अपने गाँव गया हुआ था, उसकी बेटी की शादी थी। और कोई दूसरा ये काम अंजाम देना नहीं चाहता था, क्योंकि सब जानते थे कि राम कुकरेती को फाँसी पर चढ़ाना आसान नहीं है, किसी न किसी बहाने वह निकल भागेगा और भागने के बाद वह चुन चुन कर बदला लेगा। ऐसे में महाराज ने ऐलान करा दिया कि जो कोई राम कुकरेती को फाँसी के फँदे पर चढ़ाएगा उसे महाराज की तरफ़ से ख़ूब इनाम ओ इकराम से नवाज़ा जाएगा।
किसी की हिम्मत न हो रही थी कि वह आगे आकर उसे फाँसी पर चढ़ाए, उनका ख़्याल था कि कुकरेती इस बार भी किसी न किसी बहाने बच निकलेगा और फिर हमें जि़ंदा न छोड़ेगा। ऐसे में महाराज के व्यक्गित सुरक्षा कर्मियों के एक सदस्य यूसुफ़ हुसैन ख़ाँ का बीस साल का जवान बेटा मंज़्ाूर हुसैन ख़ाँ सामने आया, वह बहुत बहादुर और ताक़तवर था। मंज़्ाूर हुसैन ख़ाँ ने उसी रात कुकरेती के गले में फंदा डाल कर खींच दिया और वह मारा गया। महाराज ने उसकी लाश को चुपके से गड्ढे में गड़वा दिया कि कहीं अंग्रेज़ बहादुर की अदालत को मालूम न हो जाए कि उन्होंने अदालत के काम को अपने हाथ में लिया है। मरने के बाद भी कई दिनों तक लोगों को यक़ीन न आया कि वह मारा गया है, यही खटका लगा रहता कि वह किसी न किसी बहाने भाग निकला होगा और अपने जिं़दा होने के ऐलान के लिए फिर कोई वारदात कर देगा। लेकिन हक़ीक़त हक़ीक़त होती है, देर सबेर अपने आपको मनवा ही लेती है।
उसके मरने के बाद महाराज ने चैन की साँस ली, उन्होंने अपने वादे के मुताबिक़ मंज़्ाूर हुसैन खाँ को ख़ूब इनआम ओ इकराम से नवाज़ा। महाराज ने मंज़्ाूर हुसैन ख़ाँ को नक़द के साथ साथ चार गाँव की ज़मींदारी भी अता की। ये चारों गाँव करीम नगर से एक से तीन मील के दायरे में थे। मंज़्ाूर हुसैन खाँ ने उन्हीं गाँव के क़रीब अपनी शानदार हवेली तामीर करवाई और वहीं रह कर चारों गाँवों की ज़मींदारी का काम देखने लगे। हवेली के आस पास ही उन्होंने कई लोगों को बसाया। शुरू में हवेली तामीर करने वाले मज़दूरों को बसाया। जब हवेली बन गयी तो भी मन्ज़्ाूर हुसैन ने उन मज़दूरों को वहाँ से जाने न दिया। औरतें बच्चे हवेली में काम करने लगे और मर्द खेतों में।
गाँव में पैसा ज़मीन, जायदाद सब कुछ था, इसके बावजूद मंज़्ाूर हुसैन का वहाँ दिल न लगता। कारण ये था कि गाँव में कुलीन वर्ग से कोई न था। जिससे वह बातचीत करते, दोस्ती और रिश्तेदारी करते और सुख दुख में शामिल होते। यँू तो करीम नगर में अभी भी उनका पुश्तैनी मकान था। वह अक्सर वहाँ रहते भी थे लेकिन दिक़्क़त ये थी कि अगर वह शहर में रहते तो ज़मींदारी सही से नहीं चल पा रही थी। और अगर गाँव में रहते तो कोई यार दोस्त ऐसा न था, जिससे दो घड़ी बात चीत कर सकते। बहुत सोच बिचार के बाद मंज़्ाूर हुसैन ने ये फ़ैसला किया कि अपने कुछ दोस्तों और रिश्तेदारों को ज़मीन जायदाद दे कर गाँव में ही बसाया जाए।
इस तरह मंज़्ाूर हुसैन ने कई दोस्तों और रिश्तेदारों को ज़मीन जायादाद दी और वह लोग हवेली के आस पास रहने लगे, ध्ाीरे ध्ाीरे ये हवेली एक गाँव में तबदील होती चली गयी और लोगों ने इस गाँव को फन्दा कहना शुरू कर दिया। मंज़्ाूर हुसैन को चार गाँवों की ज़मींदारी मिली थी लेकिन उन्होंने उसमें एक गाँव फन्दा का इज़ाफ़ा करते हुए पाँच गावों के ज़मींदार बन गये। शुरू शुरू में मंज़्ाूर हुसैन ख़ाँ को ये नाम बिलकुल पसन्द न आया लेकिन उनके एक दोस्त ने समझाया कि कुछ भी हो, इस नाम के साथ तुम्हारी बहादुरी के कि़स्से भी नस्लों तक जारी रहेंगे। इससे लोग आपसे डरते भी रहेेंगे और लोगों पर आपके ख़ानदान की बहादुरी का रोब भी छाया रहेगा। आखि़र राम कुकरेती को फाँसी का फन्दा डालने वाला कोई मामूली शख़्स तो नहीं हो सकता। ये बात मंज़्ाूर हुसैन खाँ के दिल को भा गयी और उन्होंने उस गाँव का नाम फन्दा ही रहने दिया।
मंज़्ाूर हुसैन खाँ का ख़ानदान कई नस्लों तक फन्दा गाँव में ज़मींदारी करता रहा। इस दौरान फन्दा गाँव की आबादी भी काफ़ी बढ़ गयी थी। कई लोग अंग्रेज़ी हुकूमत में नौकरी करने लगे थे, अब गाँव में उन सरकारी नौकरों का एहतेराम भी बढ़ता जा रहा था। आज़ादी के बाद जब ज़मींदारी न रही तो ध्ाीरे ध्ाीरे इस ख़ानदान के व्यक्ति शहर में जा जा कर बसने लगे और हवेली वीरान होती चली गयी। ऐसा न था कि ज़मींदार के घर वाले कुछ सोच समझ कर एक साथ शहर में जा बसे हों। दर अस्ल हुआ यूँ कि एक बार पढ़ने के लिए जो शहर गया, तो फिर लौट कर कोई वापस गाँव न आया। सबसे बड़ी समस्या ये थी कि गाँव में बिजली न थी। बिजली के बगै़र गाँव में उनका रहना मुमकिन न था। ज़मींदार साहब ने लखनऊ में भी एक कोठी बनवाई थी। जिसमें कई लोग रहते थे। ख़ानदान के कई लोग दूसरे शहरों में भी नौकरी या कारोबार के सिलसिले में आबाद हो गये थे। फिर एक ज़माना ऐसा आया कि घर के सारे लोग शहर में जा बसे, और उस वक़्त के ज़मीदार असलम ख़ान अकेले हवेली को वीरान होते देखते रहे, वह न उसे फिर आबाद कर सके और न उसे छोड़ सके, उन्होंने आखि़री साँसे उसी हवेली में लीं। उसके बाद ख़ानदान के लोग कभी कभी आते थे और खेत व बाग़ों के हिसाब कि़ताब करके चले जाते थे। अपनी जायदाद की देखभाल की जि़म्मेदारी उन्होंने गाँव के लोगों को दे रखी थी।
अब हवेली टूट टूट कर खण्डहर बनती जा रही है, अब इसमें कोई नहीं रहता है। लेकिन गाँव अब भी क़ायम है, मेरे पूर्वज मंज़्ाूर हुसैन ख़ाँ के उन रिश्तेदारों में थे जिन्हें उन्होंने ज़मीन जायदाद देकर गाँव में आबाद किया था। तो ये रही फन्दा गाँव की मुख़्तसर तारीख़। अब जिस गाँव का नाम ही फन्दा हो और जिस गाँव की बुनियाद की वजह भी फन्दा ही हो, तो नाम का कुछ तो असर होना ही था। उस गाँव में फाँसी का फन्दा डाल कर मार देने की एक पुरानी परम्परा रही है, लेकिन अब गाँव के बुज़्ाुर्ग इस बात को लेकर परेशान हैं कि अब ये परम्परा टूट रही है। अब इस जनवादी हुकूमत में किसी ज़मींदार को ये अध्ािकार भी नहीं है कि वह किसी को फाँसी दे दे, इध्ार कुछ बरसों से देखने में ये आया है कि यहाँ के लोग ख़ुदकुशी करने के लिए भी दूसरे तरीक़े अपनाने लगे हैं। आप कह सकते हैं कि इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है? ख़ुदकुशी तो ख़ुदकुशी है चाहे फन्दा डाल कर की जाए, चाहे किसी दूसरे तरीक़े से। जी नहीं! रस्सी का फन्दा डाल कर मरना, मरने का एक ऐसा तरीक़ा है जिसमें सबसे कम हिंसा होती है। न कोई ख़ून निकलता है, न कोई ज़ख़्म होता है, ये मौत बीमार होकर मरने से भी कहीं आसान और बेहतर इन्सानी मौत है। शायद इसीलिये आध्ाुनिक जनवादी देशों में भी फाँसी की सज़ा के लिए इसी तरीक़े को अपनाया गया है।
तो मैं आज इसी गाँव फन्दा का एक कि़स्सा सुनाने जा रहा हूँ। अगरचे मैं जानता हूँ कि ये कि़स्सा मुझे ख़ुदकलामी और सरगोशी के अन्दाज़ में ही सुनाना है क्योंकि जिनको मैं सम्बोध्ाित कर रहा हूँ, वह मैं ख़ुद हूँ या मेरा रचनाकार और कोई नहीं है। अगरचे रचनाकार को ये अध्ािकार भी है कि वह इस कि़स्से को छपवा भी सकता है और इसके दरवाज़े तमाम अवाम के लिए खोल दे लेकिन फि़लहाल मैं ये कि़स्सा तनहाई में और लगभग ख़ुदकलामी की कैफि़यत में सुना रहा हूँ।

पहला अध्याय
वह एक ख़ौफ़नाक ज़माना था, हर तरफ़ ख़ौफ और दहशत का माहौल था। लोग कुछ भी कहने से डरते थे, जिनको उन सबके खि़लाफ़ आवाज़ उठानी थी वह कह रहे थे, हर तरफ़ अम्न ओ अमान है, वह कह रहे थे मुल्क तरक़्क़ी कर रहा है, वह इन्साफ़ का एक बहुत पुराना विचार लागू करना चाहते थे और कह रहे थे हम इन्साफ़ के सुनहरे दौर में रह रहे हैं, शेर और बकरी एक घाट पर पानी पीते हैं। वह आसुओं के सैलाब को रहमत की बारिश कह रहे थे और मासूमों के दुख दर्द को मुल्क के दुश्मनों की साजि़श।
मैं आपको फन्दा गाँव का परिचय ‘कि़स्से की पृष्ठिभूमि’ के तौर पर करवा चुका हूँ, कि़स्से का शीर्षक भी आप देख ही चुके हैं। आइये अब अस्ल कि़स्से की जानिब बढ़ते हैं। शीर्षक से आप पर ये बात भी स्पष्ट हो चुकी होगी कि मैं एक सम्भावित ख़ुदकुशी की जानिब बढ़ रहा हूँ, और इस ख़ुदकुशी के लिए एक अच्छा सा ख़ुदकुशी नामा तैयार करने की कोशिश कर रहा हूँ। जिससे मेरी ख़ुदकुशी अर्थपूर्ण हो सके। लेकिन मैं चाहता हूँ कि ख़ुदकुशी के सख़्त तरीन नतीजे पर पहुँचने से पहले मैं उन हालात को भी थोड़ा सुना दूँ। जिनकी वजह से मैं ये सख़्त तरीन क़दम उठाने पर मजबूर हुआ। इसके बाद तो मुझे ख़ुदकुशी करनी ही है और ख़ुदकुशी से पहले एक ख़ुदकुशी नामा भी लिखना है। यूँ तो मेरी पूरी जि़न्दगी ही ख़ुदकुशी के लिए कहीं न कहीं राह हमवार करती रही है। लेकिन वर्तमान परिस्थितियों की जहाँ से शुरू होती है, अब मैं इस कि़स्से की वहीं से शुरुआत करता हूँ।
बात तक़रीबन एक साल पुरानी है, उन दिनों मैंने एक नई नौकरी शुरू की थी वह एक एन. जी. ओ. था। उसका दावा था कि वह ख़वातीन की खि़दमत करता है। नौकरी के दौरान यूँ तो बहुत से वाकि़ए पेश आए, मैं उन तमाम वाकि़आत में अपना काम जि़म्मेदारी से करता रहा। लेकिन ये सारे काम मैं पेशेवराना जि़म्मेदारी से करता था। मैंने कभी भी अपने आपको सामाजिक कार्यकत्र्ता नहीं समझा। उन कामों को नौकरी की जि़म्मेदारियाँ समझ कर ही निभाता रहा। इसी नौकरी के दौरान मेरे सामने एक औरत की ख़ुदकुशी का वाकि़आ पेश आया। उस औरत का नाम रजि़या था, उसने हालात से मजबूर होकर ख़ुदकुशी कर ली थी। इससे पहले उसके शौहर का क़त्ल हो गया था। उसे मुआवज़ा दिलाने और उसके मरहूम शौहर के क़ातिलों को जेल पहुँचाने के लिए एक स्थानीय नेता सनेही राम सामने आए। जो वहाँ के एम. पी. भी थे। मालूम हुआ कि वही नेता उस बेवा औरत का बरसों तक यौन शोषण करता रहा है।
जब एक बार रजि़या गर्भवती हो गयी, तो उसने नेता जी पर ज़ोर डालना शुरू कर दिया कि मुझसे शादी करो। नेताजी तो पहले से शादी शुदा थे और रजि़या से शादी करने का उनका कोई इरादा भी नहीं था। ऐसे में रजि़या ने नेता जी के ऊपर बलात्कार का आरोप लगाया और उनके खि़लाफ़ रिपोर्ट लिखवाने थाने पहुँच गयी। थानेदार ने नेता जी को फ़ोन करके मामला समझाया। नेताजी ने फ़ौरन एक गाड़ी भेजकर रजि़या को थाने से अपने घर बुलवा लिया। आखि़र कार दोनों में इस बात पर रज़ामंदी हुई कि नेताजी अपने एक मुस्लिम अंध्ा भक्त से उसकी शादी करा देंगे।
अभी शादी की तैयारियाँ चल ही रही थीं कि अंध्ा भक्त की आँखें खुल गयीं, क्योंकि उसको रजि़या के गर्भ के बारे में मालूम हो गया, फिर वह अचानक कहीं ग़ायब हो गया। महीनों तक उसकी तलाश जारी रही लेकिन वह न मिलना था न मिला। अब रजि़या ने गर्भपात कराने की कोशिश की, अब तक पाँचवा महीना शुरू हो चुका था, इसलिए डाक्टर ने गर्भपात करने से मना कर दिया। उनका कहना था कि इस मरहले में गर्भपात कराना ज़च्चा को सीध्ो मौत के हवाले करना है। अब गर्भपात मुमकिन नहीं है। रजि़या अस्पताल से मायूस होकर वापस चली आयी। जब बाइज़्ज़त जि़न्दगी की कोई सूरत न निकल सकी तो रजि़या ने ख़ुदकुशी कर ली।
मामला सियासी था, वह नेता सत्ताध्ाारी पार्टी का एम. पी. है। शुरू में जो ख़बर मिली थी उसके मुताबिक़ रजि़या ने ख़ुदकुशी नामा लिखा है और उसने अपनी मौत के लिए एम. पी. को जि़म्मेदार ठहराया है। लेकिन अख़बारों में जो ख़बर छपी उसमें बताया गया कि ख़ुदकुशी व्यक्तिगत कारणों से की गयी है और इस सिलसिले में कोई ख़ुदकुशी नामा मिलने का कोई जि़क्र नहीं था। ये पूरी ख़बर पुलिस के हवाले से छपी थी।
मुझे जब से ये ख़बर मालूम हुई थी, तभी से मैं इस वाकि़ए के विवरण जमा कर रहा था, लेकिन अब तक कुछ ख़ास हाथ न लगा था। एक दिन एक शख़्स मेरे द़तर आया जो रजि़या का एक रिश्तेदार था, उसने मुझे रजि़या के ख़ुदकुशी नामे की एक कापी दी और मदद की अपील की। उसने रजि़या का पूरा कि़स्सा सुनाते हुए बताया कि किसी प्रोग्राम में उस एम. पी. सनेही राम की नज़र रजि़या पर पड़ गयी थी, रजि़या बहुत ख़ूबसूरत थी और वह उसको पहली ही नज़र में भा गयी और उसने रजि़या को कैसे भी हासिल करने का फै़सला कर लिया। एम. पी. ने अपने आदमियों को उसी वक़्त ये मालूम करने के लिए लगा दिया कि वह कौन है, उन लोगों ने रजि़या के शौहर के बारे में मालूम करके बता दिया। इसके बाद एम. पी. ने रजि़या के शौहर का क़त्ल करवा दिया। रजि़या की ख़ूबसूरती ही उसकी दुश्मन बन गयी। उसकी रजि़या के शौहर से कोई दुश्मनी न थी, एम. पी. ने उसे सिफऱ् इसलिए क़त्ल करवा दिया कि अब रजि़या उसके पास आने के लिए मजबूर हो जाएगी और हुआ भी कुछ ऐसा ही।
जब उसके शौहर के क़त्ल की ख़बर फैल गयी तो उसके शौहर के क़ातिलों को पकड़वाने और रजि़या को मुआवज़ा दिलवाने के लिए एम. पी. ख़ुद रजि़या के घर गया। उसने रजि़या को यक़ीन दिलाया कि वह जल्द ही उसके शौहर के क़ातिलों को पकड़वा कर जेल भिजवाएगा। साथ ही उसने सरकारी मदद और मुआवज़ा दिलवाने का वादा किया। रजि़या और उसके शौहर का सम्बन्ध्ा लखनऊ के आस पास के किसी गाँव से था। रजि़या का शौहर लखनऊ आकर इलेक्ट्रिशियन का काम करने लगा था। उसका कोई क़रीबी रिश्तेदार शहर में न था, कुछ दूर के रिश्तेदार और यार दोस्त ज़रूर थे। उन लोगों ने कुछ दिन तो रजि़या का साथ दिया फिर वह सब भी अपने काम ध्ान्ध्ो में लग गये। एम. पी. मदद के लिए रजि़या को कभी यहाँ कभी वहाँ बुलवाने लगा। अपनी तरफ़ से रजि़या को मदद के नाम पर कुछ पैसे भी देने लगा। रजि़या के पास आमदनी का कोई दूसरा ज़रीआ न था। फिर एम. पी. ने उसकी यौन शोषण शुरू कर दिया। रजि़या अकेली इतने बड़े शख़्स से कैसे लड़ सकती थी? फिर उसकी अपनी आर्थिक और शारीरिक ज़रूरते थीं। हल्की फुल्की न नुकुर के अलावा उसने एम. पी. से कोई एहतिजाज न किया। उसे अपने शौहर के क़ातिलों के बारे में कुछ भी नहीं मालूम था। पुलिस रजि़या के क़ातिल को तलाश करने में नाकाम रही। और अब रजि़या की ख़ुदकुशी में भी पुलिस को कोई साजि़श नज़र न आई थी, इसलिए दोनों केस बन्द हो चुके थे।
रजि़या का ख़ुदकुशी नामा मिलने के बाद मैंने पत्रकारों और विपक्षी पार्टियों की मदद लेनी चाही। मैंने एक प्रेस कान्फ्ऱेन्स आयोजित की। पूरा वाकि़आ सबको बताया, ख़ुदकुशी नामा की एक कापी भी दी। विपक्षी पार्टियों ने इस वाकि़ए में कोई दिलचस्पी न दिखाई। मीडिया में ये एक मामूली सी ख़बर बनकर ग़ायब हो गयी, किसी अख़बार ने ये न लिखा कि रजि़या का ख़ुदकुशी नामा मौजूद है और उसने एम. पी. पर बलात्कार का इल्ज़ाम लगाया है और उसकी ख़ुदकुशी का जि़म्मेदार वही है। ख़बर में सिफऱ् ये छपा कि रजि़या नाम की एक बेवा औरत ने ख़ुदकुशी कर ली।
उस प्रेस कान्फ़ेन्स का कोई ख़ास असर न पड़ा, जबकि मुझे लगता था कि इस ख़बर से सियासी हलक़ों में ज़लज़ला आ जाएगा। तो मैंने सोशल मीडिया पर भी ये ख़बर डाल दी। सोशल मीडिया के मेरे दोस्तों में देहली के एक पत्रकार ने जब ये ख़बर देखी तो उसने मुझसे सम्पर्क किया। मैंने पूरा विवरण ख़ुदकुशी नामा की कापी के साथ उसको भेज दी। उसने इस ख़बर को ख़ास सुर्खी के साथ छाप दिया, ये एक इलेक्ट्रानिक अख़बार था, काग़ज़ पर छपने वाला न था। बहर हाल उसका कुछ तो असर पड़ा, इस ई अख़बार में छपने के बाद कुछ और इलेक्ट्रानिक अख़बारों ने भी ये ख़बर छाप दी। देहली के एक एन. जी. ओ. ने मामला राष्ट्रीय मानवाध्ािकार आयोग तक पहुँचा दिया। कुछ हिन्दुस्तान के बाहर के अख़बारों ने भी इस ख़बर को छाप दिया। मामला ध्ाीरे ध्ाीरे बढ़ा, लेकिन ये सिलसिला चलता रहा। उसके बाद देहली के काग़ज़ पर छपने वाले अख़बारों ने भी इस ख़बर को छापना शुरू कर दिया। तब जाकर स्थानीय अख़बार भी ये ख़बर विस्तार के साथ छापने पर मजबूर हो गए। और फिर टी. वी. ख़बरों में भी इस वाकि़ए पर बहसें शुरू हो गये। मुझे कई चैनलों पर बहस के लिए बुलाया गया।
जब ये ख़बर तेज़ी से फैलने लगी तो विपक्षी पार्टियों ने भी उसे एक सियासी बहस का विषय बना दिया। कुछ अख़बारों ने मेरे खि़लाफ़ भी कुछ ख़बरें छापीं और रजि़या के किरदार पर भी सवाल उठाए, कुछ अख़बारों ने इसे हिन्दू मुस्लिम रंग देकर इस तरह ख़बर छापी जैसे किसी मुस्लिम संगठन ने एक गिरे हुए किरदार की मुस्लिम औरत का इस्तेमाल करके एक हिन्दू नेता को फँसाने की कोशिश की हो। अब जब कि ये मामला सुखिऱ्यों में आ चुका था और विपक्षी पार्टियों ने भी पार्लियामेण्ट में हँगामा शुरू कर दिया था। उसके बाद केस सी. बी. आई. को सौंप कर मामला ख़ामोश कर दिया गया। ये वह ज़माना था जब ये कुत्ता अपने आक़ा के इशारे के बग़ैर किसी पर नहीं भौंकता था और आक़ा की मजऱ्ी नहीं थी कि वह इस मामले में भौंके या काटे। यूँ भी अब रजि़या को क्या इन्साफ़ मिलता? जबकि वह इस दुनिया को ठुकरा कर जा चुकी थी।
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रजि़या वाले केस के बाद मेरी शोहरत काफ़ी बढ़ गयी थी, लोग मुझे मानवाध्ािकार और सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर जानने लगे, इसी के साथ ही मेरी जि़न्दगी को भी ख़तरा हो गया। सनेही राम ने मुझे हर तरह से तबाह और बरबाद करने की कोशिश की। एक दिन मुझे मारने की भी कोशिश की गयी। अगर मैं लखनऊ छोड़कर रातों रात भाग न गया होता तो शायद वह मेरा क़त्ल भी करवा देता। मैंने कई अख़बारों में अपने ऊपर हुए हमले के बारे में भी ख़बर छपवा दी कि एम. पी. ने मुझ पर क़ातिलाना हमला करवाया है, विपक्षी पार्टियों ने मेरे ऊपर हुए हमले पर भी पार्लियामेण्ट में सवाल उठाए।
इसके बाद ख़ुद उसकी पार्टी ने सनेही राम को चेतावनी दी कि आगे मेरे ऊपर ऐसी कार्यवाही न की जाए इससे पार्टी की बदनामी हो रही है और अब अगर कुछ हुआ तो उसे पार्टी से निकाल दिया जाएगा। इसके बाद वह दिखावे के लिए ख़ामोश हो गया। उसने मुझे मरवाने की इरादा भी कुछ वक़्त के लिए टाल दिया। कुछ समय बाद मुझे देहली के एक बड़े एन. जी. ओ. में नौकरी मिल गयी और मैं चुपचाप देहली चला गया। अब मैं किसी अवामी जलसे में जाने से गुरेज़ करने लगा और कोशिश करता कि किसी को ये न मालूम होने पाए कि मैं देहली में रहता हूँ और यहीं किसी संस्था में काम करता हूँ।
एक दिन देहली में ही औरतों के एक प्रोग्राम में मुझे बुलाया गया, मैंने उन लोगों को यही बताया कि मैं अभी भी लखनऊ में रहता हूँ। उस प्रोग्राम में औरतों के लिए लड़ने के लिए मेरी बहुत तारीफें हुईं और मुझे बोलने के लिए कहा गया। मैंने औरतों के मसाइल को दूसरे समाजी और सियासी मसाइल से जोड़ते हुए अपने विचार व्यक्त किए। इसमें शरीक लोग ज़्यादातर किसी न किसी एन. जी. ओ. से थे, कुछ उन बस्तियों के लोग भी थे जहाँ ये एन. जी. ओ. वाले काम करते थे। मेरे वक्तव्य के बाद काफ़ी लोगों ने मुझे घेर लिया और बहुत से सवाल पूछते रहे, वहाँ मेरी काफ़ी तारीफ़ें हुईं।
मैं उनकी नज़रों में लखनऊ से आया था। इसलिए मेरे खाने और ठहरने का इंतज़ाम भी उन लोगों ने उसी इमारत में कर दिया था, जहाँ दिन का प्रोग्राम था। रात में एक शानदार दावत का भी इन्तज़ाम किया गया था। जिसमें दिन की तरह भीड़ तो न थी लेकिन फिर भी काफ़ी लोग थे। बहुत सी औरतें और कुछ मर्द भी। कुछ औरतें काफ़ी कम कपड़ो में थीं, उनमें से कुछ मुझसे ज़्यादा बेतकल्लुफ़ होने की कोशिश कर रही थीं। कई औरतें शराब भी पी रही थीं लेकिन ऐसी औरतों की संख्या बहुत कम थी जो सिगरेट पी रही हों। ऐसे में एक औरत ने मुझे सिगरेट पेश की तो मैंने क़ुबूल कर ली, हालांकि मैं सिगरेट नहीं पीता था, लेकिन कभी कभी किसी के आग्रह पर एक आध्ा सिगरेट पी लेता था। जब सिगरेट किसी औरत ने पेश की हो तो उसे ठुकराना ठीक न लगा। बहर हाल ये एक नई कि़स्म की नई प्रगतिशीलता थी, मुझे जिसकी रक्षा करनी थी।
पहला कश थोड़ा तेज़ लिया, तेज़ कश लेते ही खाँसी आयी लेकिन ये कश बहुत ज़्यादा कड़ुवा था, जैसे सीध्ो दिल पर उसका हमला हुआ हो, कुछ लोग हँसे, शायद मेरे नौसिखियेपन पर, मैंने अपने नौसिखियापन की झेंप मिटाने के लिए जल्दी जल्दी तीन चार भर पूर कश ले लिए, ये कश लेते ही जैसे मैं किसी और दुनिया में पहुँच गया। यह नश्शा मेरे लिए बिलकुल अजनबी था, इससे पहले मैं शराब में भी कभी ऐसे होश से बेगाना न हुआ था। नश्शे की ऐसी कैफि़यत से मैं वाकि़फ़ ही न था। यह सिगरेट शराब से भी ज़्यादा नशा लाने वाली थी। थोड़ी देर में मेरे लिए खड़े रहना नामुमकिन सा हो गया। मैं अपने कमरे की तरफ़ चल पड़ा, अभी दो चार क़दम ही बढ़ाए होंगे कि मेरे क़दम लड़खड़ाए और मैं वहीं गिर गया।
जिस औरत ने सिगरेट पेश की थी उसी ने मुझे संभाला एक दो औरतें और आ गयीं, वह भी मुझे पकड़ कर साथ साथ चलने लगीं, मैंने उनसे गुज़ारिश की मुझे मेरे कमरे में पहुँचा दो। चलते चलते वह ख़वातीन मुझे संभालने की कोशिश में मुझसे क़रीब से क़रीबतर होती जा रही थीं। अब मुझे उस वक़्त की कोई भी बात याद नहीं है लेकिन चन्द अक्स मेरे जे़हन में हैं। उसके बाद मैं होश से तक़रीबन बेगाना हो चुका था। कमरे में पहुँचने के बाद शायद वह मुझसे काफ़ी क़रीब हो गयी थीं। वह कम से कम दो या तीन थीं, ऐसा मुझे याद आ रहा है, उसके आगे क्या हुआ? मुझे अब कुछ भी याद नहीं। न आवाज़ न कोई अक्स।
सुब्ह जब उठा तो नश्शा टूट चुका था। थोड़ी देर में मेरे पास किशु तोमर का फ़ोन आया। वह औरतों के अध्ािकार के लिए काफ़ी मशहूर हैं लेकिन उतनी ही विवादित भी। रजि़या वाले केस में उन्होंने उस नेता के समर्थन में बयान दिया था, यूँ तो उनका सम्बन्ध्ा भी उसी पार्टी से था, जिसकी केन्द्र में सरकार है, लेकिन वह पार्टी से सम्बन्ध्ा कभी ज़ाहिर नहीं करती थीं। उनकी नज़र महिला आयोग के आयुक्त की कुर्सी पर थी। उन्होंने मुझसे फ़ोन पर कहा, आप ने अच्छा नहीं किया है, ये मत समझना कि आप समाजी कार्यकर्ता हैं, इसलिए आपके साथ कोई रिआयत बरती जाएगी।
मैंने जवाब दिया, मुझे क्या रिआयत चाहिए? तो उन्होंने कहा, कल रात तुमने एक क्रिश्चियन औरत क्रिस्टोफ़र के साथ बलात्कार किया है। मेरे पास उसके सारे सुबूत फ़ोटोग्राफ़ की शक्ल में मौजूद हैं, क्रिस्टोफ़र ने तुम्हारे खि़लाफ़ थाने में रिपोर्ट लिखवाने का फ़ैसला कर लिया है। अभी किसी तरह से मैंने उसे रोक लिया है लेकिन वह रुकने वाली नहीं है। मुझे याद आया शायद सिगरेट देने वाली वह औरत क्रिस्टोफ़र ही थी। उसने मेरे साथ ऐसा क्यों किया? मेरे साथ उन लोगों की क्या दुश्मनी है?
आहिस्ता आहिस्ता मुझे समझ में आने लगा कि मुझे इस प्रोग्राम में बुलाने से लेकर सिगरेट पिलाने और फिर मेरे ऊपर बलात्कार का आरोप लगाने तक पूरा मामला एक संगीन साजि़श थी। मुझे अपनी ग़लती का एहसास हुआ कि लोगों को जाने समझे बग़ैर, उनका दावत नामा क्योंकर क़ुबूल कर लिया। लेकिन उन पर यक़ीन न करने की कोई वजह भी तो न थी। किशू तोमर भी इस प्रोग्राम में शामिल हैं, मुझे किसी ने नहीं बताया था, वह इस प्रोग्राम में आयी भी नहीं थीं, न दिन में, न रात में। मैं उनको पसन्द तो नहीं करता था और उनकी पृष्ठभूमि से भी वाकि़फ़ था, लेकिन औरतों के मामले में वह मुझे दो तीन बार फ़ोन कर चुकी थीं। हर बार औरतों के लिए मेरे कामों की तारीफ़ करती थीं। उन्होंने ये भी कहा था कभी किसी तरह की दिल्ली में मदद दरकार हो तो बे झिझक कहना। उन पर यक़ीन तो कभी नहीं था लेकिन मेरे दिल में यह था, चलो अगर औरतों के लिए काम करती हैं, औरतों के बारे में हमारी उनकी राय मिलती है तो उनसे बात करने में क्या बुराई है? और बात तो तब भी की जा सकती है जबकि हमारी राय उनसे अलग हो।
दोपहर में फिर किशु तोमर का फ़ोन आया, उन्होंने शाम को एक जगह मिलने के लिए बुलाया और ये भी बताया कि क्रिस्टोफ़र भी वहाँ रहेगी। मैं शाम को तै शुदा मक़ाम और वक़्त पर पहुँच गया। उन्होंने तस्वीरें दिखायीं, मैं उन तस्वीरों में क्रिस्टोफ़र के साथ क़ाबिले-एतराज़ सूरत में नज़र आ रहा था। इसी दरमियान क्रिस्टोफ़र भी कमरे में दाखि़ल हुई और मुझे देखते ही चीखने लगी। थोड़ी देर तक मेरे ऊपर इल्ज़ाम लगाती रही, फिर तेज़ तेज़ रोने लगी। मैंने उसे समझाने की कोशिश की, मैंने ऐसा कुछ नहीं किया है, तो वह और तेज़ रोने लगी। फिर किशु तोमर ने उसे चुप कराने की कोशिश की और कहा तुम्हें पूरा इन्साफ़ मिलेगा। इसके बाद वह क्रिस्टोफ़र को समझाते हुए दूसरे कमरे में ले गयीं। मैं उसी कमरे में इन्तज़ार करने लगा। बुज़्ाुर्गो से त्रिया चरित्र के बारे में बहुत सुना था, कभी एतबार तो न हुआ लेकिन आज दीदार हो गये।
थोड़ी देर बाद वह फिर आयीं और मुझसे बोलीं, मैं तुम्हें बचा सकती हूँ। अगर तुमने मेरी शर्तें पूरी कर दीं तो क्रिस्टोफ़र मेरी बात मानने को तैयार है। पहली शर्त ये है कि मैं रजि़या वाले केस में दिलचस्पी लेना बन्द कर दूँ और रजि़या के किरदार के खि़लाफ़ प्रेस में बयान दूँ। दूसरी शर्त ये है कि एक निजी कम्पनी को एक बड़ा प्रोजेक्ट मिला है, जिसमें सैकड़ों किसानों की ज़मीन सरकार खाली कराके एक प्राइवेट कम्पनी को दे रही है, जिस पर वह कम्पनी कोई बड़ा प्रोजेक्ट लगाएगी। इस प्रोजेक्ट को मुकम्मल करने के लिए हज़ारों पेड़ भी काटने होंगे। इसके खि़लाफ़ अवाम अन्दोलन चला रहे हैं। अभी ये आन्दोलन बहुत मामूली सतह का है, तुम्हें इस आन्दोलन को विकास विरोध्ाी बता कर ख़त्म कराना होगा। अगर ये दोनों शर्तें तुमने पूरी कर दीं, तो ये तस्वीरें हमेशा के लिए नष्ट कर दी जायेंगी, और इसकी पुलिस में रिपोर्ट भी नहीं लिखवाई जायेगी।
ये सुनने के बाद मैंने किशु से पूछा कि इन सारी बातों का क्रिस्टोफ़र से क्या सम्बन्ध्ा है? वह मेरा सवाल सुनकर तिलमिला गयीं। उन्होंने अपने आप को संभालते हुए ग़्ाुुस्से में जवाब दिया। तुम्हें ये सब जानने की ज़रूरत नहीं है। मुल्जि़म तुम हो, इसलिए समझौता मेरी शर्तों पर होगा ना कि तुम्हारी शर्तों पर। ये सुनकर मैं घबरा गया, मैंने बात बनाने की कोशिश की। नहीं, नहीं बस ऐसे ही, कुछ जिज्ञासा हुई कि आखि़र ये मामला क्या है?
यह सुनकर किशु ने कहा, अब तुम जा सकते हो। कल दोपहर तक मुझे जवाब चाहिए, अगर दोपहर तक तुमने मेरी शर्तें मंज़्ाूर न कीं। तो मैं कल शाम को प्रेस कान्फ़्रेन्स कर रही हूँ। सारे सुबूत मीडिया को दे दूँगी। तुम काफ़ी मशहूर आदमी हो, सारे चैनलों पर सनसनी ख़ेज़ ख़बर फैल जाएगी, और थाने में रिपोर्ट भी लिखवा दी जायेगी। सोच लो कल पूरे मीडिया में सनसनीखे़ज़ ख़बर चल रही होगी, ‘‘तालिब ने एक बिदेसी औरत के साथ बलात्कार किया।’’ मुझे पूरी उम्मीद है कि वक़्त की नज़ाकत को तुम समझोगे।
उसके बाद मैं बहुत भारी मन से उस घर से निकला और जैसे तैसे अपने घर पहुँचा। पूरी रात न जाने कैसे कैसे ख़्याल आते रहे। मेरे सामने अब निजात का रास्ता कोई न था। उसने जो शर्तें मेरे सामने रखी थीं, ऐसा करने को मेरा ज़मीर किसी भी तरह तैयार न था, लेकिन वह लम्हा मैं कैसे बरदाश्त कर पाऊँगा? जिसको एक ज़माना औरतों के अध्ािकार के लिए लड़ने वाले के तौर पर जानता हो, उसी पर बलात्कार का इल्ज़ाम होगा। ख़बरें तमाम चैनलों पर प्रसारित हो रही होंगी और सोशल मीडिया में भी वायरल हो रही होंगी, ‘‘एक विदेशी औरत के साथ, समाज कार्यकर्ता ने बलात्कार किया।’’ मैं यह सब बर्दाश्त नहीं कर सकूँगा। फिर क्या करूँ? इस सवाल पर सोचते सोचते पूरी रात गुज़र गयी।
अगली सुबह मैंने क्रिस्टोफ़र के बारे में कुछ और लोगों से जानकारी हासिल करने की कोशिश की। अभी मामला लोगों की नज़रों में नहीं आया था, इसलिए मैं किसी से भी फ़ोन पर बात कर सकता था। क्रिस्टोफ़र की शक्ल से मैं पहले से वाकि़फ़ था, कुछ औपचारिक सलाम दुआ भी थी, कुछ प्रोग्रामों में, औरतों के लिए उसे विरोध्ा प्रदर्शन करते देखा था लेकिन उससे ज़्यादा मैं उसे नहीं जानता था। दोस्तों से पूछा तो मालूम हुआ कि वह एक अप्रवासी फ्ऱांसीसी औरत हैं, वह पिछली एक दहाई से देहली में रह रही हैं। किसी हिन्दुस्तानी से शादी करके देहली में रहने लगी थीं। शादी के दो साल बाद उनमें तलाक हो गया था और जबसे दिल्ली में ही आज़ाद जि़न्दगी गुज़ारती हैं। जि़न्दगी काफ़ी ऐश ओ आराम से गुज़ारती हैं लेकिन आमदनी का कोई स्थायी माध्यम नहीं है, पैसों के लिए वह कुछ भी कर सकती हैं। इतना सुनते ही जे़हन में आया बहुत मुमकिन है क्रिस्टोफ़र को एक बड़ी रक़म देकर ख़रीद लिया गया हो और यह पूरा वाकि़आ मेरे खि़लाफ़ एक सोची समझी साजि़श का हिस्सा हो।
दोपहर में किशु तोमर का फिर फ़ोन आया, मुझमें अब उनसे बात करने की हिम्मत न थी, मैंने फ़ोन नहीं उठाया। पाँच मिनट बाद फिर फ़ोन आया, फिर फ़ोन नहीं उठाया। इसके बाद मैंने फ़ोन बन्द कर दिया, मेरे फ़ोन न उठाने से वह ग़्ाुस्से से पागल हो रही होंगी। वह यक़ीनन अब प्रेस कान्फ़्रेन्स करेंगी और पुलिस में एफ. आई. आर. भी कराएंगी। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ?
अचनाकर मेरी पुरानी हमदर्द ख़ुदकुशी के मुहब्बत भरे हाथों ने मेरे जे़हन में दस्तक दी। उसने अपनी खि़दमत देने की पेशकश की। वह बचपन से मेरी दोस्त थी लेकिन एन. जी. ओ. में नौकरी के बाद से मैंने काफ़ी हद तक उससे मुँह मोड़ रखा था। इसलिए मैंने उसकी मुहब्बत को झटक दिया। उसने मेरी इस बदतमीज़ी का बिलकुल बुरा न माना, उसने बहुत गम्भीरता से फिर कहा, मुझे जल्दी नहीं है, तुम अपने सारी संभावनाओं पर ग़ौर कर लो और जब लगे कि मैं ही सबसे उचित और सुरक्षित संभावना हूँ, तब तुम मेरे पास आ जाना। मैं तुम्हारी हमज़ाद हूँ, हमेशा तुम्हारे साथ रहूँगी। तुम जब भी मुझे आवाज़ दोगे मैं हाजि़र हो जाऊँगी। थोड़ी देर चिंतन मनन के बाद मैंने फै़सला लिया कि मुझे ख़ुदकुशी नहीं करनी है। फि़लहाल इस बला को टालने के लिए मैं शहर दिल्ली से कहीं दूर, बहुत दूर जहाँ पुलिस न तलाश कर सके, लेकिन भाग कर कहाँ जाऊँगा? इसका मेरे पास कोई जवाब न था।
मेरे पैतृक निवास को भी बहुत लोग जानते हैं, वहाँ नहीं जा सकता हूँ। बहुत ग़ौर करने पर मुझे अनुराग की याद आयी। वह उत्तराखंड के उत्तर काशी जि़ले की सुदूर पहाडि़यों पर एक अज्ञातवासी का जीवन बिताता है। एक ज़माने में वह लखनऊ यूनिवर्सिटी में मेरे साथ पढ़ता था, उन दिनों अपने इश्क़ में नाकाम होने पर बहुत मायूस रहता था और ख़ुदकुशी करना चाहता था, तब मैंने उसे जि़न्दगी का हौसला दिया था, ध्ाीरे ध्ाीरे वह जि़न्दगी की तरफ़ वापस आ गया था। मैंने उसे फ़ोन करके बहुत मुहब्बत से बात की।
मेरे दोस्त अनुराग पंत, आज तुम्हारी बहुत याद आ रही है, मैं इस जि़न्दगी से ऊब गयी हूँ, ये शहरी और आध्ाुनिक जि़न्दगी बड़ी बेमुरव्वत है, इसमें इन्सान की कोई क़द्र नहीं है। मेरा इस दुनिया से मोह भंग हो गया है, अब बाक़ी जि़न्दगी तुम्हारी तरह जीना चाहता हूँ। मैं अपनी पिछली जि़न्दगी भूल कर, मेहनत मशक़्क़त करके, खेती बाड़ी करके बाक़ी जि़न्दगी गुज़ारना चाहता हूँ। मैं प्राकृतिक और आदिम जि़न्दगी में वापस आना चाहता हूँ। बस एक शर्त है, मेरे बारे में तुम किसी को बताओगे नहीं, वरना वह लोग मुझे ये गुमनाम जि़न्दगी जीने न देंगे और फिर इस हवस से भरी दुनिया के दलदल में घसीट लाएंगे।
उसने जवाब दिया, ‘‘आ जाओ मेरे दोस्त तालिब, मेरा वादा है, मैं किसी को कानों कान हवा न लगने दूँगा कि तुम कौन हो? कहाँ से आए हो? हम दोनों साथ साथ रहेंगे।’’
उससे बात करते करते मेरे फ़ोन में कई एस. एम. एस. आए, जब मैं अनुराग से बात कर रहा था, उस दौरान भी मेरे फ़ोन पर किसी अजनबी नम्बर से एक फ़ोन आ रहा था। बात ख़त्म करते ही मैंने कोई एस. एम. एस. पढ़े बग़ैर फ़ोन बन्द दिया और पहाड़ों पर जाने के लिए फ़ौरन निकल पड़ा। मैंने घर से थोड़ी दूरी पर जाकर एक अन्जान टैक्सी वाले से टैक्सी किराए पर ली और उत्तर काशी की सुदूर पहाडि़यों की तरफ़ एक गुमनाम जि़न्दगी के सफ़र पर निकल पड़ा।
दिल्ली के बाहर निकला तो बचपन से लेकर अब तक की जि़न्दगी के न जाने कितनी यादें मेरे ज़ेहन में उभरने लगीं। तरह तरह के ख़्यालात आने लगे। सबसे ज़्यादा अम्मा की याद आयी। जी चाह रहा था कि एक बार उनसे लिपट कर ख़ूब रो लूँ, अब्बू को अब अपने दिल पर एक पत्थर रखना होगा। कैसे कटेगा उनका बुढ़ापा? वह बेचारे तो मुझे याद करके रो भी न सकेंगे। माता-पिता को मुझसे बड़ी उम्मीदें थीं। जी चाह रहा था एक बार उनसे मिल आऊँ, बाजी से उनकी सुसराल जाकर मिल आऊँ, भाईजान से भी मिल लूँगा, मैंने उन सबकी मजऱ्ी के बग़ैर शादी करके पहली बार उन का दिल तोड़ा था, और अब उनकी जि़न्दगी से ही बहुत दूर जा रहा हूँ। अब उनसे मिलने का कोई मौक़ा नहीं है। अगर ख़ुदकुशी करनी पड़ी तो मैं अब उनसे कभी न मिल सकूँगा। ये सोच कर दिल बैठ सा गया और जे़हन में बचपन की बेशुमार यादें घुमड़ने लगीं।

दूसरा अध्याय
ये उस ज़माने की बात है जब केन्द्र में एक ऐसी हुकूमत थी जो बुनियादी तौर पर मध्य मार्गी सियासत करती थी। जिसमें दाएं बाज़्ाू के लोग भी बाज़ दफ़ा घुल मिल जाते थे। और बाज़ दफ़ा बाएं बाज़्ाू की सियासत करने वाले भी उसमें समा जाते थे, दलित इस हुकूमत से इसलिए ख़ुश थे कि उन्हें हुकूमत के ज़्यादातर कामों में आरक्षण हासिल था। ब्राहमण और दूसरी उच्च जाति के लोग इसलिए ख़ुश थे कि ये एक ऐसी हुकूमत थी जो उनकी थी, उनके द्वारा थी और उनके लिए थी। मुस्लिम इसलिए ख़ुश थे कि जब जब उन पर मुसीबतों का पहाड़ टूटता, उनसे वादा किया जाता कि तुम्हें डरने की कोई ज़रूरत नहीं है, हुकूमत तुम्हारी रक्षा करेगी।
ख़ुदकुशी में मेरी दिलचस्पी कब और कैसे परवान चढ़ी? अब यह बात सही से याद कर पाना मेरे लिए मुश्किल है, शायद ख़ुदकुशी से मेरा कोई आदिम रिश्ता था, लेकिन जितना मुझे याद है, उस लिहाज़ से ख़ुदकुशी से पहले मेरी दिलचस्पी मौत में शुरू हुई थी। मेरा ख़्याल है कि ख़ुदकुशी मौत की तरक़्क़ी याफ़्ता शक्ल है, जिसमें मौत के लिए आप सिर्फ़ दूसरों पर निर्भर नहीं होते। मुझे यक़ीन है मेरा बचपन भी आम लोगों की तरह गुज़रा होगा लेकिन मैं बचपन की याददाश्तों के मामले में थोड़ा ग़रीब ठहरा, अगरचे बाद की याददाश्तों के मामले मेें भी मैं बहुत अच्छा नहीं हँू, याददाश्त के मामले में ख़राब ही सही लेकिन दुनिया को समझने की जिज्ञासा मुझमें बहुत ज़्यादा थी। मैंने कई लोगों को तीन चार साल की उम्र के वाकि़ए सुनाते सुना है, मुझे अब छः साल के पहले का कोई भी वाकि़आ याद नहीं है।
छः बरस की उम्र की जो यादें हैं, वह भी उस वक़्त के महज़ चन्द अक्स हैं, जो मेरे जे़हन में बचे रह गये हैं। इससे ज़्यादा कुछ याद नहीं, मेरे ज़ेहन में उन अक्सों के ठीक बाद की जो यादें हैं। उनमें मौत से सम्बन्ध्ाित भी चन्द यादें शामिल हैं, मैं तभी से मौत के बारे में सोचता रहता था। जब भी किसी के मरने की ख़बर मिलती मैं गहरी सोच में डूब जाता कि ये मौत क्या बला है? मरने वाले को ज़मीन में क्यों गाड़ देते हैं? वह कब तक ज़मीन में दबे रहेंगे? उसके बाद क्या होगा? कभी कभी ख़्याल आता अगर ऐसा हो कि दुनिया के तमाम लोग मर जाएं और सिर्फ़ हम चन्द लोग बचे रह जाएं, तो कितना मज़ा आए, दुनिया की सारी चीज़ें हमारी हो जाएंगी। उन चन्द लोगों में सिफऱ् वह लोग होते जो मुझे बहुत अज़ीज़ होते, कुछ दोस्त, भाई-बहन, कुछ रिश्तेदार और माता-पिता भी! ल्ेकिन फिर ख़्याल आता कि माता-पिता की उम्र तो काफ़ी हो चुकी है, वह भला कैसे बचे रह पाएंगे? फिर सोचता कि हम चन्द दोस्त किस तरह फिर से पूरी दुनिया बसाएंगे? इस दुनिया के तमाम संशाध्ानों पर हमारा अध्ािकार होगा। मुझे लगता कि वह नई दुनिया जिसे हम बसाएंगे इस पुरानी दुनिया से यक़ीनन बेहतर होगी। ये भी ख़्याल आता कि ये दुनिया कब तक रहेगी? सब लोग कैसे मरेंगे? और जब सब लोग मर जाएंगे तो इस पृथ्वी का क्या होगा? बहर हाल ये सब बातें बहुत छोटी उम्र की हैं, जिनके अब कोई मानी नहीं हैं। इस वक़्त इन सवालों के बस इतने मानी हैं कि ये यादें भी मौत से सम्बन्ध्ाित हैं। अगरचे ये सवाल अब भी बड़े हैं लेकिन अब हमने इन सवालों को नज़र अन्दाज़ करना सीख लिया है।
जब थोड़ा बड़ा हुआ तो अम्माँ और अब्बू से दुनिया और मौत के बारे में बात की, उन्होंने मज़हबी एतबार से मौत, जन्नत, जहन्नम, क़यामत और ख़ुदा का तसव्वुर समझाया और नेक काम करने के लिए डराया भी। मौत के बारे में मज़हबी परिकल्पना मुझे उस वक़्त पसन्द तो नहीं आयी, लेकिन ये बातें माता-पिता ने बतायी थीं, जिनकी मैं इज़्ज़त भी बहुत करता था और उन पर यक़ीन भी करता था। फिर ख़ुदा से जिस तरह डराया गया था तो डर के मारे उन परिकल्पनाओं को क़ुबूल करने के सिवा हमारे पास कोई दूसरा रास्ता भी न था। उन परिकल्पनाओं से जि़न्दगी की एक व्यवस्था समझ में आ गयी थी। जिससे मौत के बारे में मेरी जिज्ञासा काफ़ी कम हो गयी थी। इसके बाद जब कभी मौत के बारे में सोचता तो उदास हो जाता। अब मैं ये सोचता कि ये दुनिया कब तक रहेगी? क़यामत कब आएगी? क्या मैं क़यामत में ही मरुँगा या उससे पहले? अगर पहले मर गया तो क़यामत तक मैं कहाँ रहुँगा? और लोग आते कहाँ से हैं? इन सब सवालों पर इस्लामी मालूमात से कभी तसल्ली न हुई। मुझे बस डराया गया, मेरी तलाश और जिज्ञासा को कभी शाँत न किया गया। उस छोटे से बच्चे में डर ज़्यादा देर तक ठहर नहीं सकता था और उनके पास डराने की एक व्यवस्था के अलावा और कोई दलील न थी।
मुझे बचपन में जब भी किसी के मरने की ख़बर मिलती तो ये जानने की जिज्ञासा हमेशा बनी रहती कि उसकी मौत कैसे हुई? एक सवाल ये भी ज़ेरे ग़ौर रहता कि क्या मौत से बचा जा सकता है? मौत से सम्बन्ध्ाित न जाने कितने सवाल बचपन से ही मेरे मासूम ज़ेहन में घुमड़ते रहते थे। लेकिन उन सवालों के जवाब किसी के पास न थे।
जब थोड़ा और बड़ा हुआ तो एहसास हुआ कि जि़न्दगी का सबसे बड़ा मसला मौत नहीं है, मौत तो आनी ही है, उसका कोई विकल्प नहीं हो सकता। अस्ल मसला इन्सानी दुखों का है और दुखों की दुनिया बहुत विस्तृत है। सबके अपने अपने दुख हैं, तो दुखों के हल भी सबके अपने अपने होंगे। उनमें से एक हल ये भी हो सकता है कि इस दुख भरी जि़न्दगी को ही ठुकरा दिया जाए और दुख से निजात हासिल कर ली जाए, दरअस्ल इसी परिकल्पना से ख़ुदकुशी अस्तित्व में आयी। मैं इन्सानी विकास के सफ़र और उसमें ख़ुदकुशी की तारीख़ी हैसियत के बारे में नहीं जानता। यहाँ मैं ख़ुदकुशी के व्यक्तिगत तर्जुबात की रौशनी में कुछ विचार पेश करना चाहुँगा। इसका सिलसिला वहीं से शुरू होता है जब हमने जि़न्दगी के दुखों का एक हल ख़ुदकुशी को भी मान लिया था। ख़ुदकुशी में मेरी दिलचस्पी उस वक़्त से है, जब ख़ुदकुशी के सही मानी भी नहीं समझता था। बहर हाल अब मेरे जे़हन में जो क़दीम तरीन यादे हैं, उनमें जाने में या अन्जाने में ख़ुदकुशी भी शामिल है।
मैं बचपन में मौत और ख़ुदकुशी के बारे में अपने माता-पिता से बहुत ज़्यादा सवाल पूछा करता था। कुछ समय बाद मुझसे मौत और ख़ुदकुशी को उसी तरह से छिपाया जाने लगा, जैसे भगवान बुद्ध से दुख और मौत को छिपाया गया था। अम्माँ हम लोगों से किसी की ख़ुदकुशी का जि़क्र भी नहीं करती थीं और कोशिश करती थीं कि मुझे किसी ख़ुदकुशी के बारे में कुछ मालूम न होने पाए।
मेरे घर में अम्मा की हुकूमत चलती थी। अब्बू घरेलू कामों में बहुत कम दिलचस्पी लेते थे। घर के सारे काम हों या बच्चों को प्यार करना हो या उन्हें मार पीट कार सच्चे रास्ते पर लाना हो, ये सारे काम अम्माँ के ही जि़म्मे थे। अब्बू का इन सब कामों में कोई ख़ास अमल दख़ल न रहता था। उस माहौल में जब भी किसी ख़ुदकुशी की ख़बर मिलती तो घर में अजीब रहस्यमय माहौल बन जाता। ख़ुदकुशी का जो सबसे पुराना वाकि़आ मेरी याददाश्त में अब तक सुरक्षित है वह दूर की एक मुमानी की ख़ुदकुशी है। मेरे भाई जान ने एक अंध्ोरी कोठरी में ले जाकर, मुझसे बड़े रहस्यमय अन्दाज़ में पूछा।
‘‘तुम्हें मालूम है, जग्गो मुमानी की मौत कैसे हुई है? उन्होंने ख़ुदकुशी कर ली है।’’
ये सुनकर मैंने उनसे पूछा, ‘‘ये ख़ुदकुशी क्या होती है?’’
उन्होंने जवाब दिया, ‘‘जब कोई व्यक्ति ख़ुद से मर जाए तो उसे ख़ुदकुुशी कहते हैं।’’
‘‘लेकिन ज़्यादातर लोग तो ख़ुद से ही मरते हैं, क़त्ल तो बहुत कम लोगों का होता है? फिर इसमें इतनी ख़ास बात क्या हुई?’’
उन्हें ये परिभाषा उनके किसी बड़े ने बतायी थी। लेकिन मैंने जब दूसरा सवाल पूछा तो उसका जवाब उनके पास भी न था। अब भाई जान गड़बड़ा चुके थे। ख़ुदकुशी के बारे में इससे ज़्यादा उन्हें भी नहीं मालूम था।
उन्हीं दिनों की बात है कि मेरे ख़ानदान के एक बुज़्ाुर्ग मोहर्रम अली, जिन्हें मैं दादा जानी कहता था, उनका इन्तक़ाल हो गया। ऐसा मालूम होते ही मैं अपने घर दौड़ता हुआ गया और अम्माँ को बताया।
‘‘अम्माँ! अम्माँ! दादा जानी ने ख़ुदकशी कर ली है।’’
ये सुनते ही पहले तो उन्होंने मुझे चुप कराया कि ऐसा नहीं कहते, वाकि़ए की सही सूचना उन्हें भी नहीं थी, उन्हें लगा कि दादा जानी ने वाक़ई ख़ुदकुशी कर ली होगी। वह अक्सर बड़बड़ाया करते थे।
‘‘या अल्लाह मौत दे दे, या अल्लाह मौत दे दे।’’
वह जल्दी से बाहर निकलीं और रास्ते में उन्हें जो भी मिला, उसे बताती गयीं कि दादा जानी ने ख़ुदकुशी कर ली है। इससे पहले कि वह दादा जानी के घर पहुँच कर सही जानकारी हासिल करतीं। उन्होंने रास्ते में कई लोगों को दादा जानी की ख़ुदकुशी की जानकारी दे दी। दर हक़ीक़त उनकी मौत एक पुरानी बीमारी में हुआ था। इसके बाद लोगों ने मेरा ख़ूब मज़ाक उड़ाया। मेरी वजह से अम्माँ की भी काफ़ी हास्यास्पद सूरत देखनी पड़ी। मेरी पेशी अब्बू के हुज़्ाूर में हुई, मुझे अब्बू से काफ़ी डाँट भी पड़ी, लेकिन अब्बू ने मुझे ख़ुदकुशी के सही मानी भी समझाए। उन्होंने बताया कि जब कोई शख़्स ख़ुद अपना क़त्ल कर ले या अपनी जान ले ले, उसे ख़ुदकुशी कहते हैं। उस दिन मुझे ख़ुदकुशी के सही मानी समझ में आए।
इस वाकि़ए के बाद ख़ानदान और मुहल्ले के बहुत से लोग मुझे ख़ुदकुशी कह कर चिढ़ाने लगे। कई लोगों ने तो मेरा नाम ही ‘ख़ुदकुशी’ रख दिया था। मैं कहीं जा रहा होता और कोई मुझे ख़ुदकुशी पुकारता, ख़ुदकुशी सुनते ही मैं आस पास में ढेला, लकड़ी, कंकर, पत्थर जो भी मिलता, उठा कर उसे मारने दौड़ता। अगर मारने में कामयाब हो जाता तो कहीं खेत खलिहान में जा कर छुप जाता और अगर मारने में नाकाम रहता तो फिर रोता हुआ घर चला आता और अम्माँ से शिकायत करता कि फ़लाँ ने मुझे ख़ुदकुशी कहा है। ये सब खेल खेल में चल रहा था। एक दिन सुबह सुबह मैं बन संवर कर बहुत मस्ती में कहीं जा रहा था कि मेरे ख़ानदान के एक चचा ग़फ़ूर अली ने पुकार कर कहा।
‘‘अरे ओए ख़ुदकुशी, कहाँ मरने जा रहा है।’’
चचा जान की बात सुनकर मेरा ग़्ाुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ गया। मैंने पास में ही पड़ा एक पत्थर उठाया और उन्हें फेंक कर मार दिया। उनके मुँह से चीख निकल गयी, मैंने डर के मारे उन्हें पलट कर भी नहीं देखा कि उन्हें चोट कहाँ और कितनी लगी है? बग़ैर देखे समझे में गाँव से दूर भागा। इस दौरान मैं बार बार मुड़ मुड़ कर चारों तरफ़ नज़रें दौड़ाता रहा कि कहीं कोई मुझे देख तो नहीं रहा है। जब भी शक होता कि किसी ने मुझे देख लियाा है, तो मैं उस जानिब से किसी दूसरी तरफ़ मुड़ जाता। इस तरह मैं गाँव का आध्ाा चक्कर लगाकर गाँव से थोड़ी दूरी पर मौजूद एक तालाब के पास पहुँच गया। तालाब के किनारे एक बहुत घना जामुन का दरख़्त था, मैं जल्दी से उस पर चढ़ कर छुप गया। दौड़ते दौड़ते मेरी साँसें बहुत तेज़ चलने लगी थीं। गर्दन और पीठ पसीने से भीग चुकी थी। जब साँसें थोड़ी मामूल पर आयीं, तो मैंने पेड़ पर छुपे छुपे अपने चारों तरफ़ नज़रे दौड़ायीं। ये गर्मियों के दिन थे, गेहूँ की फ़सल कट चुकी थी, खेत तक़रीबन ख़ाली थे, सामने तालाब में देखा तो एहसास हुआ कि तालाब में पानी तक़रीबन सूख चुका है। सिफऱ् बीच में थोड़ा पानी बचा था। सुबह की ध्ाुली ध्ाुली ध्ाूप बड़ी तेज़ लग रही थी।
इस जामुन के दरख़्त से मिला हुआ एक आम का बाग़ भी था। अब मैंने दरख़्त को ग़ौर से देखा तो इसमें जामुन तो आ चुके थे, लेकिन अभी छोटे और बिलकुल कच्चे थे, उन्हें पकने के लिए काफ़ी वक़्त दरकार था, इसलिए इस बात की सम्भावना न थी कि कोई दूसरा शख़्स जामुन तोड़ने के लिए इस पेड़ पर चढ़ेगा। मैं डरा सहमा सा जामुन के दरख़्त पर ही बैठा रहा। थोड़ी देर बैठे रहने के बाद जब कोई ख़तरा महसूस न हुआ, तो मैंने सुकून की साँस ली। मैंने एक बार फिर अपने इर्द गिर्द नज़रें दौड़ायीं तो देखा कि इस जामुन के दरख़्त के पास ही एक आम का भी दरख़्त था। दोनों दरख़्तों की कुछ शाखें आपस में मिली हुई थीं। मैंने ग़ौर किया कि इस जामुन के दरख़्त से आम के दरख़्त पर आसानी से जाया जा सकता है और आम के दरख़्त में काफ़ी आम लगे हुए हैं, मुझे उन्हें देखकर भूख का भी एहसास हुआ। अब मैंने आम के बाग़ में नज़रें दौड़ाईं तो आमों के बचाने वाले कुछ दूरी पर बैठे हुए ताश खेलने में व्यस्त थे।
अच्छा मौक़ा जानकर मैं जामुन की शाख़ से आम की शाख़ पर चढ़ गया। आम अभी पके तो न थे लेकिन कुछ कुछ गदराने लगे थे। मैंने जल्दी जल्दी चुन चुन कर तीन चार गदराए हुए आम तोड़े और वापस जामुन के दरख़्त पर आ गया। इस दौरान मैं बार बार आम की फ़सल बचाने वालों पर नज़रें डाल ले रहा था, वह अपने खेल में अब भी मस्त थे। इस बार मैं आम के दरख़्त से दूर वाली जानिब जाकर जामुन के दरख़्त पर बैठ गया कि किसी को शक न हो कि मैंने आम तोड़े हैं। मैंने सभी आम जामुन के दरख़्त की शाख़ों और पत्तों के बीच में इस तरह छुपा दिए कि अगर कोई मुझे देख भी ले तो आम न देख सके। मैं एक एक आम लेकर खाने लगा, आम पूरी तरह से तो नहीं पके थे और ऊपर से तो सख़्त थे लेकिन अन्दर से नर्म और पीले थे, इसलिए आम थोड़े थोड़े मीठे और मज़ेदार भी थे।
मैं बार बार इध्ार उध्ार देख रहा था कि कहीं कोई मेरी तरफ़ देख तो नहीं रहा है। तीन आम खाने के बाद मेरा पेट भर चुका था, अब मैंने सोचा कि चैथे आम को कल या परसों आऊँगा तब खाऊँगा। तब तक ये आम और मीठा हो जायेगा। मैंने जामुन के पत्तों से रगड़ रगड़ कर हाथ साफ़ किए। थोड़ी देर बाद ऊब सी होने लगी, अभी घर भी नहीं जा सकता हूँ। अब क्या करूँ? तालाब में देखने लगा, तालाब के किनारे किनारे दूर तक दरख़्तों का एक लम्बा सिलसिला था, अब मेरी नज़रें उन्हीं दरख़्तों में से एक दरख़्त पर ठहर गयीं।
गर्मियों की दोपहर गुज़ारने के लिए मुझे देसी आम का ये दरख़्त बहुत पसन्द था। तालाब के किनारे के इस पेड़ पर अक्सर मैं घण्टों बैठा रहता था, इस दरख़्त के आम शुरू में ही खटाई के लिए तोड़े जा चुके थे, क्योंकि इस दरख़्त के आम बहुत खट्टे होते थे और अक्सर खटाई या अचार बनाने के लिए कच्चे तोड़ लिए जाते थे। इस दरख़्त से मेरा एक जज़्बाती रिश्ता था, मैंने जाने कितने दिन इसी पेड़ पर बैठे बैठे गुज़ारे हैं। ये दरख़्त मेरे लिए दूसरे घर की तरह था।
गर्मियों की छुट्टियों में दोपहर में अम्माँ तो रोज़ डांट कर सुलाने की कोशिश करतीं। जो मुझे पसन्द नहीं था, मुझे जब भी मौक़ा मिलता चुपके से दरवाज़ा खोलकर बाहर निकल जाता और उस देसी आम के दरख़्त पर घण्टों बैठा रहता। ये दरख़्त सिर्फ़ मुझे ही बहुत महबूब न था, दर अस्ल ये दरख़्त मेरे तमाम दोस्तों के मिलने का अड्डा था। हम लोग दरख़्तों से सम्बन्ध्ाित कुछ खेल भी इसी दरख़्त पर खेलते थे। ख़ास तौर से एक खेल ‘सियर’ हम लोग ज़्यादातर आम के इसी दरख़्त पर खेलते थे।
मैं इस खेल में बहुत अच्छा न सही लेकिन ऐसा बुरा भी न था। मुझे इस खेल का कुछ रोज़ पहले का एक वाकि़आ याद आ गया। उस दिन सुबह से ही मेरा दिल बहुत उखड़ा उखड़ा हुआ था, ध्ाूप बहुत तेज़ थी और लू के झक्कड़ चल रहे थे। दोपहर मेें एक बार जब मैंने चुपके से दरवाज़े की कुण्डी खोल कर भागने की कोशिश की तो अम्माँ ने पकड़ लिया।
पहले तो ख़ूब डाँटा, फिर मुझे सुलाने के लिए बिस्तर पर ले गयीं। दोपहर में हम लोग एक कमरे में जमा होते, सबके बिस्तर ज़मीन में ही लगा दिए जाते थे। उस कमरे की खिड़कियों पर ख़स की टट्टियाँ लगी रहती थीं, उन पर पानी छिड़क कर कमरे का माहौल ठण्डा बनाने और लू से बचने की कोशिश की जाती। कमरे की छत से लटकने वाला बड़ा सा पंखा लगा हुआ था, जो रस्सी के ज़रिए हाथ से खींचने पर चलता था। जिसे चलाने की जि़म्मेदारी हम भाई बहनों की होती थी। तब तक गाँव में बिजली नहीं आयी थी। अम्माँ ने उस कमरे में ले जाकर लेटने का हुक्म दिया और मैं लेट गया। लेट तो गया लेकिन मेरी आँखों से नींद कोसों दूर थी, बड़े भाई पंखा चला रहे थे, मुझे सुलाने की कोशिश में अम्माँ ख़ुद भी कुछ देर में सो गयीं लेकिन मुझे नींद न आयी। मैंने भाई जान से कहा, आप सो जाइये, मैं पंखा चलाता हूँ। भाई जान पंखा चलाते चलाते थक चुके थे, उनकी तो मन की मुराद पूरी हो गयी। मैं पंखा चलाने लगा और वह जाकर बिस्तर पर लेट गए। कुछ देर में भाई जान को भी नींद आने लगी और वह भी सो गये।
जब सब लोग सो गये, तो मेरा दिल एक बार फिर बाहर निकलने के लिए बेताब हो गया। दिक़्क़त ये थी कि अब अगर मैं भागा तो अम्माँ शाम को ख़ूब पिटाई करेंगी। लेकिन जाना भी ज़रूरी था, मैंने दोस्तों से वादा किया था कि खेलने ज़रूर आऊँगा। इसलिए मैंने पंखा रोक कर, डरते डरते पंजों के बल चलते हुए चुपके से दरवाज़े की कुण्डी खोली और बाहर निकल गया, इस बार सब लोग सोते रह गये। वहाँ सारे दोस्त पहले से जमा थे, उन लोगों ने पहले से तै कर रखा था कि देर से आने की वजह से आज चोर मुझे ही बनाया जाएगा। सारे दोस्त उस दरख़्त के नीचे जमा हो गये। अगरचे चोर चुनने के कई तरीक़े थे, मिसाल के लिए सब लोग एक दायरे में खड़े हो जाते थे। एक एक शख़्स पर हाथ रख कर हम लोग पढ़ते जाते। अक्कड़ बक्कड़ बम्बे बोल अस्सी नब्बे पूरे सौ, सौ में लगा ध्ाागा चोर निकल के भागा। हर खिलाड़ी पर एक-एक शब्द बोला जाता, जिस पर आखि़री शब्द पहुँचता वह अलग हो जाता यानी वह चोर बनने से बच गया है। इसके बाद एक बार फिर वही सिलसिला शुरू हो जाता, आखि़री शख़्स जो बचता वही चोर मान लिया जाता। कभी कभी कोई ख़ुद से चोर बनने को तैयार हो जाता, तो उसे चोर मान लिया जाता। उस दिन मुझे देर से आने की सज़ा दी गयी कि चोर मुझे ही बनना है। मैंने उन लोगों की सज़ा क़ुबूल कर ली और चोर बन गया।
एक लकड़ी का टुकड़ा लिया गया, उस लकड़ी को एक लड़के ने अपने पैर के नीचे से दूर फेंक दिया। मैं दौड़ते हुए गया और उस लकड़ी को उठा लाया और तै शुदा जगह पर उसे रख दिया। जब तक मैं लकड़ी को उठा कर लाया, इतनी देर में सारे लोग पेड़ पर चढ़ चुके थे। पेड़ बहुत ऊँचा था और चारों तरफ़ उसकी शाखें फैली हुई थीं। वह शाखे़ काफ़ी नीचे इस तरह लटकी हुई थीं कि उन शाख़ों से भी पेड़ पर आराम से चढ़ा या उतरा जा सकता था। दर अस्ल इस खेल के लिए ऐसे ही पेड़ों का चयन किया जाता है। अब मुझे उनमें से किसी को छू कर आना था और उस लकड़ी को चूमना था। लेकिन ये भी ख़्याल रखना था कि कोई मुझसे पहले लकड़ी को न चूम ले, अगर ऐसा हुआ तो मुझे एक बार फिर चोर बनना पड़ेगा। मैं जब लकड़ी लेकर आया तो कोई भी शख़्स ऐसा न था कि मैं जिसे ज़मीन से ही छू सकूँ। तो मैं पेड़ पर चढ़ गया और एक साथी को छू भी लिया लेकिन इससे पहले कि मैं पेड़ से उतर कर वह लकड़ी चूमता, दिनेश पेड़ की एक शाख़ से लटक कर कूद गया और वह लकड़ी चूम ली। अब मुझे एक बार फिर से चोर बनना था, इस बार लकड़ी दिनेश को ही फेंकनी थी क्योंकि लकड़ी उसी ने चूमी थी। इसके बाद ये सिलसिला काफ़ी देर तक चलता रहा, कभी मेरे छूने से पहले ही कोई आकर वह लकड़ी चूम लेता और कभी मैं किसी को छू तो लेता लेकिन मेरे लकड़ी चूमने से पहले ही कोई और उसे चूम लेता। इस तरह ये सिलसिला तक़रीबन एक घण्टे तक जारी रहा लेकिन मैं किसी को छूकर वह लकड़ी न चूम सका कि उसको चोर बना सकूँ। अगरचे इससे पहले मेरे साथ ऐसा कभी न हुआ था कि मुझे इतनी देर तक चोर बनना पड़ा हो। लेकिन शायद वह दिन ही मेरे लिए ख़राब था।
उस दिन जब एक घण्टा खेलने के बाद घर पहुँचा तो मेरा चेहरा ध्ाूप और लू से जल कर काफ़ी काला पड़ चुका था। मैं डरते डरते घर में दाखि़ल हुआ। घर में अम्माँ न थीं, मुझे बड़ी ख़ुशी हुई कि अम्माँ की मार से बच गया, लेकिन बाजी ने मेरा हाथ पकड़ लिया। ‘‘तुम्हें अम्मा ने कितना मना किया था कि इस लू में घर से बाहर मत निकलना, फिर भी तुम निकल गए, शक्ल देखो ज़रा कैसी बना रखी है? लगता ही नहीं कि तुम इस घर के बच्चे हो, कितनी लू चल रही थी अगर तुम्हें लू लग जाती तो क्या होता? अम्माँ बहुत नाराज़ हैं, वह तुम्हें ढूँढ़ने बाहर गयी हैं।
मुझे तेज़ प्यास लग रही थी, मैंने बाजी से हाथ छुड़ाया और हाथ से चलने वाले नल के पास जाकर उसमें पानी निकालने लगा, तक़रीबन आध्ाी बाल्टी पानी निकालने के बाद उसमें से ताज़ा और ठण्डा पानी निकलने लगा, मैं गिलास में पानी लेकर पीने लगा, अभी मैंने पानी पीना शुरू ही किया था कि अम्माँ आ गयीं।
वह मुझे पानी पीते देखती रहीं, पानी पीते वक़्त कुछ नहीं कहा। अब पानी मेरी हलक़ से नहीं उतर रहा था, बहर हाल मैंने जैसे तैसे गिलास ख़ाली किया। उन्होंने मुझे एक रस्सी लाकर दी और बोलीं, जाओ जिस पेड़ के नीचे घण्टे भर से चोर बने हुए थे, उसी से फन्दा लगाकर लटक जाओ। मैं हैरान कि एक तो अम्माँ मुझे ख़ुदकुशी करने को कह रही हैं, कहाँ तो मेरे सामने ख़ुदकुशी का जि़क्र करना भी मना था और आज वह ख़ुद मुझसे ख़ुदकुशी करने को कह रही थीं। वह ख़ुदकुशी ही क्या ख़ुदकुशी हुई? कि जिसे दूसरे के कहने पर किया जाए। दूसरे उनको ये कैसे मालूम हो गया कि एक घण्टे से मैं ही चोर बना हुआ था। ये बात मुझे अगले रोज़ मालूम हुई कि एक दोस्त ने जो खेल को बीच में ही छोड़कर गाँव चला आया था। उसने किसी दूसरे लड़के पर अपना रोब दिखाने और मुझे ज़लील करने के लिए उस दिन के खेल का पूरा कि़स्सा कह सुनाया था। जब अम्माँ मुझे ढूँढ़ने के लिए गाँव में घर से बाहर निकली थीं तो रास्ते में वह मिल गया, अम्माँ ने उससे मेरे बारे में पूछा कि तुमने तालिब को तो नहीं देखा है? तो उस लड़के ने पूरा वाकि़आ अम्माँ को कह सुनाया। बहर हाल उस दिन अम्माँ ने मेरी ख़ूब पिटाई की, आखि़रकार बाजी ने ही ये कह कर मुझे बचाया कि कल से मैं देखुँगी कि ये बाहर कैसे निकलता है, अब इसे मारना बन्द करिये मैं जि़म्मेदारी लेती हूँ कि अब ये लू में घर से बाहर नहीं निकलने पाएगा। उस दिन मैं देर तक सिसक सिसक कर रोता रहा। बाजी ने बड़े प्यार से मुझे ख़ूब समझाया लेकिन अगले ही रोज़ मैं सब भूल गया। बाजी ने मेरी पूरी चैकीदारी की कि मैं बाहर न निकलने पाऊँ, और मैं कई दिनों तक वाक़ई दोपहर में घर से न निकल सका।
मैं जब उस दरख़्त की यादों से बाहर आया तो दोनों हाथों को गालों पर ले गया, जैसे आज़माना चाह रहा हूँ कि आज इन गालों पर कितने तमांचे लगेंगे? कौन जाने आज वह कैसे मारेंगी? इसके बाद मुझे एक लम्बी जम्हाई आई। अब मुझे नींद आ रही थी, मैंने एक घनी जगह तलाश की और जामुन के दरख़्त की एक चैड़ी शाख़ पर लेट गया। थोड़ी देर में नींद भी आ गयी। जाने कितनी देर सोता रहा। सोते सोते करवट लेने लगा और पेड़ से गिरने को हुआ कि आँखें खुल गयीं, मैं गिरते गिरते बचा। जब नींद पूरी तरह से टूटी तो सूरज की जानिब नज़रें दौड़ायीं, उसे देख कर लगा ग़फ़ूर चचा को मारे हुए तीन चार घण्टे तो गुज़र चुके होंगे। इसलिए अब मामला रफ़ा दफ़ा हो चुका होगा। यह सोच कर मैं दरख़्त से उतर कर घर की जानिब चल पड़ा।
घर पहुँचा तो माहौल बहुत ख़राब था, भाई जान ने मुझे देखते ही पूछा, कुछ ख़बर भी है तुमने क्या किया है? ग़फ़ूर चचा का सर फट गया है, और वह लहूलुहान होकर घर आए हैं। घर में सब लोग ग़्ाुस्से में थे। आदत के मुताबिक़ आज अम्मा ने घर पहुँचते ही मारना नहीं शुरू किया। उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और चुपचाप घर की अँध्ोरी कोठरी में लेकर चली गयीं। वहाँ पहुँच कर उन्होंने कहा, अब आज मैं कुछ नहीं करूँगी, आज जो कुछ करना है अब्बू करेंगे, शाम को अब्बू को आने दो, जब तक तुम इसी कोठरी में बन्द रहोगे। यह कह कर वह वापस चली गयीं और जाते जाते दरवाज़ा बाहर से बन्द कर गयीं। मैं बहुत घबराया, ये क्या बात हुई? जो कुछ मारना पीटना है मार पीट लें और बात ख़त्म करें। मामला अब्बू के पास क्यों जाएगा? अब्बू हम लोगों को आम तौर पर मारते पीटते न थे। वह घर में आम तौर पर बहुत ख़ामोश रहते थे अगरचे मैंने सुना था कि वह अपने कुछ ख़ास दोस्तों में ख़ूब हँसते हँसाते हैं लेकिन घर में वह हमेशा गम्भीर रहते थे। हम भाई बहन उनकी बहुत इज़्ज़त करते थे और डरते भी ख़ूब थे।
मुझे बस एक वाकि़आ याद है जब अब्बू ने भाई जान की ख़ूब पिटाई की थी। अब ये तो याद नहीं कि भाई जान को उन्होंने किस लिए मारा था लेकिन ये याद है कि जब मारा था तो ख़ूब जमकर मारा था। हम लोग अब्बू के सामने कभी कोई शरारत नहीं करते थे, फिर भी अगर हम लोगों की कोई बात उन्हें अच्छी नहीं लगती तो वह बस एक बार हमें घूर कर देखते और हम लोग डर कर ख़ामोश हो जाते। कभी कभी वह हम लोगों की किसी नापसन्दीदा हरकत पर अम्माँ को भी हिदायत देते थे कि बच्चे की ये शिकायत सुनी है या इससे कह दो कि ये आदत दुरुस्त कर ले। फिर अम्माँ हमें अच्छे से समझातीं कि आगे से ऐसा नहीं होना चाहिए वरना अब्बू नाराज़ हो जायेंगे। और अब्बू की नाराज़गी का मतलब हम भाई बहन ख़ूब अच्छे से समझते थे।
मैं तीसरे पहर से इस अंध्ोरी कोठरी में बन्द था, बीच बीच में अम्माँ आतीं और देख कर चली जातीं, बाजी और भाई जान भी एक आध्ा बार आए लेकिन किसी ने मुझसे बात न की, सब मेरी तरफ़ घूर कर देखते और वापस चले जाते। अम्माँ ने सख़्त हिदायत दे रखी थी कि कोई मुझसे बात नहीं करेगा। जैसे सब अब्बू बन गये हों।
शाम को अम्माँ चाय बिस्किट लेकर आयीं, मेरे सामने रख दिया, कुछ भी नहीं बोलीं, बस बैठी रहीं, जब मैंने बेशर्मी से चाय पी ली तो वह कप प्लेट लेकर चल दीं। वापस जाने लगीं तो मैं ये ख़ामोशी बरदाश्त न कर सका और उनका हाथ पकड़ कर गिड़गिड़ाने लगा। अम्माँ आप को जैसे मारना है मार लीजिए। हाथ से मारिए, पैर से मारिए, छड़ी या डण्डे से मारना है तो उससे मार लीजिए और मामला ख़त्म करिए।
उन्होंने पलट कर मेरी तरफ़ घूर कर देखा, हाथ छुड़ाया और चली गयीं, कुछ न बोलीं। मुझे उनकी और दूसरे लोगों की ख़ामोशी ने तोड़ दिया, अब्बू न जाने कितना मारेंगे, या कुछ और करेंगे? कुछ समझ में न आ रहा था, एक एक पल बिताना मुश्किल हो रहा था। जब अन्ध्ोरा बढ़ चला तो अचानक दरवाज़ा खुला, भाईजान लालटेन लिए हुए थे, अब्बू सबको साथ लेकर आए थे, सब मेरे चारों तरफ़ घेर कर खड़े हो गये, सबकी नज़रें मेरे ऊपर जमी हुई थीं। यूँ तो सबको बेचैनी थी कि अब्बू अब क्या करेंगे? किसी को नहीं मालूम था, लेकिन सबसे ज़्यादा बेचैन मैं था। उन्होंने मेरी तरफ़ घूर कर देखा, मैं उनकी नज़रों की ताब न ला सका और नज़रें नीची कर लीं। फिर दोबारा ऊपर देखने की हिम्मत न कर सका। वह कुछ देर उसी तरह मेरी तरफ़ घूरते रहे, फिर अचानक उठ कर चल दिये। उनके पीछे पीछे बाक़ी लोग भी चल दिए। फिर पूरी रात मुझसे किसी ने बात न की, अलबत्ता बाजी खाना रख कर चली गयी थीं। जिसे मैंने हाथ भी न लगाया। वही बेचैनी पूरी रात क़ायम रही जिस बेचैनी में दिन बीता था। अब मेरी बेचैनी ये थी कि सुबह फिर न जाने क्या होगा? बस यही ख़्वाहिश थी अब्बू को जो भी मारना पीटना हो मार पीट कर बात ख़त्म करें। लेकिन ये मामला था कि निपट ही नहीं रहा था। देर रात तक नींद न आई लेकिन सुबह होते होते कुछ देर के लिए आँखें लग गयीं। जब आँख खुली तो सब कुछ रोज़ की तरह था। सब लोग मुझसे यूँ बातें कर रहे थे जैसे कुछ हुआ ही न हो।
इस वाकि़ए ने मुझे अन्दर तक हिला कर रख दिया था, बल्कि मुझे बिलकुल बदल कर रख दिया था। मैं बहुत गम्भीर और और बड़ा हो गया था। किसी से कोई मार पीट नहीं, लड़ार्ई झगड़ा नहीं, ख़ुदकुशी की चिढ़ भी जाती रही लेकिन ख़ुदकुशी में मेरी गम्भीर दिलचस्पी और बढ़ गयी। उन्हीं दिनों की बात है, एक दिन मैं अख़बार पढ़ रहा था कि एक ख़बर पर मेरी नज़रें ठहर गयीं। ख़बर थी ‘‘दुनिया की हसीन तरीन ख़ुदकुशी’’ मैंने जब ख़बर की पूरी तफ़सील पढ़ी तो मालूम हुआ कि बहुत साल पहले न्यूयार्क शहर की एम्पायर स्टेट बिल्डिंग की छियासवीं मंजि़ल से कूद कर एवलिन मैकहाले नाम की तेइस साल की ख़ूबसूरत लड़की ने ख़ुदकुशी कर ली थी। जब वह नीचे गिरी तो सामने संयुक्त राष्ट संघ की एक ख़ूबसूरत लिमोजि़न कार थी, वह उस पर जा गिरी। दोनों हसीन तो थीं लेकिन ये ख़ुदकुशी इसलिए हसीन तरीन कहलाई कि तीन सौ बीस मीटर की ऊँचाई से गिरने के बावजूद जब वह नीचे गिर कर मरी तो बड़े हसीन अन्दाज़ में लेटी हुई थी, न कोई ज़ख़्म नज़र आ रहा था, न एक क़तरा ख़ून दिख रहा था। वह अपने तमाम मेक अप के साथ दिलकश और पुर सुकून अन्दाज़ में पैर के ऊपर पैर रखे लेटी हुई थी। इस वाकि़ए के महज़ चार मिनट बाद फोटोग्राफ़ी के एक विद्यार्थी राबर्ट सी विल्स वहाँ से गुज़रे और उन्होंने एवलिन की फ़ोटो खींच ली। मैंने एवलिन की हसीन तरीन ख़ुदकुशी वाली फ़ोटो अख़बार से काट कर रख ली थी। ये हसीन तरीन ख़ुदकुशी उस ज़माने में नहीं हुई थी, बस उस हसीन तरीन ख़ुदकुशी की तारीख़ को याद करने के लिए वह ख़बर छपी थी। मैं उस ख़बर को सालों साल पढ़ता रहा। शायद अभी भी वह कटिंग मेरे पुराने काग़ज़ों में कहीं रखी होगी। इस हसीन तरीन ख़ुदकुशी को पढ़ने के बाद अख़बारों में ख़ुदकुशी की ख़बरें पढ़ने में मेरी दिलचस्पी और बढ़ गयी थी।
अब जब भी कभी अख़बार में ख़ुदकुशी की कोई ख़बर छपती तो मैं उसे पूरी दिलचस्पी से पढ़ता, एक एक शब्द को कई कई बार पढ़ता और दिल ही दिल में उसकी मौत का मातम करता और उन हालात को समझने की कोशिश करता जिनकी वजह से उसने ख़ुदकुशी की थी। ध्ाीरे ध्ाीरे मैंने महसूस किया मौत तो हमेशा एक जैसी ही होती है, हर मौत का अन्जाम एक ही होता है, इस तरह मौत में दिलचस्पी भी आहिस्ता आहिस्ता कम होती चली गयी। उसके बाद मेरी दिलचस्पी ख़ुदकुशी के कारण तलाश करने और ख़ुदकुशी के तरीक़ों के अनुसंध्ाान में बढ़ गयी। लेकिन बाद में इस सिलसिले में एक दिलचस्पी और पैदा हो गयी और वह दिलचस्पी इस क़द्र बढ़ी कि बाद में सबसे ज़्यादा दिलचस्पी इसी में रह गयी। ये नयी दिलचस्पी थी ख़ुदकुशी से क़ब्ल लिखा जाने वाला ख़त यानी ख़ुदकुशी नामा। एक लम्बा अरसा मैंने ख़ुदकुशी नामों के शोध्ा में गुज़ारा और इस नतीजे पर पहँुचा कि अगर किसी ने ख़ुदकुशी की लेकिन ख़ुदकुशी नामा नहीं लिखा तो समझो उसने अपनी ख़ुदकुशी बरबाद कर दी। हालाँकि इसमें औपचारिक तौर पर शोध्ा जैसा कुछ न था, बस अख़बार में अगर किसी ख़ुदकुशी की ख़बर छपी तो उसे बहुत ग़ौर से कई कई बार पढ़ता और अगर कभी किसी को ख़ुदकुशी पर बात करते सुनता तो कान खड़े हो जाते और ग़ौर से सुनने लगता कि वह लोग ख़ुदकुशी के बारे में क्या बात कर रहे हैं? असली शोध्ा यह था कि मैं ख़ुदकुशी और ख़ुदकुशी नामा पर घण्टों सोच विचार करता रहता। कभी कभी ये भी सोचता कि अगर मैंने ख़ुदकुशी की तो कैसे करुँगा।

तीसरा अध्याय
यह बात उन दिनों की है, जब मुल्क में बड़ी बेचैनी थी, आज़ादी के चालीस साल बीत चुके थे और आज़ादी के तमाम ख़्वाब अब तक टूट चुके थे। किसी गै़र मुल्क से जंग हुए भी तक़रीबन पन्द्रह साल बीत चुके थे, कि लोग मुल्क की सलामती के लिए व्यक्तिगत उमंगें और ख़्वाहिशें छोड़ दें। नवजवानों में बेरोज़गारी और नाउम्मीदी फैली हुई थी। पूरी नस्ल के सामने जि़न्दगी का कोई माडल न था, वह उदास नस्लों का ज़माना था, उस ज़माने में ख़ुदकुशी एक व्यक्गित और मनोवैज्ञानिक मसला था, किसी सियासत से उसका कोई ख़ास सम्बन्ध्ा न था।
मेरी यादों के ख़मोश तलाब में ‘‘साहब जी!... साहब जी।’’ कह कर ड्राईवर ने जैसे पत्थर फेंक दिया हो। मेरी यादों के तमाम अक्स बिखर गये और मैं वर्तमान में लौट आया। मैंने बाहर झाँक कर देखा अब टैक्सी शहर से काफ़ी दूर निकल आयी थी, अंध्ोरा भी छाने लगा था। अब तक मैंने ड्राइवर से तक़रीबन नही ंके बराबर बात की थी। चाय की तेज़ ख़्वाहिश हो रही थी।
‘‘आप चाय नहीं पीते?’’ ड्राइवर ने झिझकते पूछा।
‘‘पीते हँू।’’
‘‘तो चाय पीते हैं, कैसी जगह चाय पीना पसन्द करेंगे।’’
‘‘किसी भी जगह पी लेंगे, बस ज़्यादा भीड़ भाड़ वाले ढाबे पर मत रोकना, कहीं किसी पुर सुकून जगह पर चाय पी जाएगी।’’
‘‘जी साहब।’’
कुछ दूर चलने के बाद ड्राईवर ने एक ढाबे पर टैक्सी रोक दी, मैंने तौलिये को थोड़ा मुँह ढकते हुए सर से बाँध्ा लिया। ढाबे पर एक टी वी चल रहा था, जिस पर इश्तेहार प्रसारित हो रहे थें, लेकिन नीचे कैप्शन में ‘‘देहली में एक औरत के साथ बलात्कार’’ की भी ख़बर चल रही थी। हम लोगों ने जल्दी जल्दी चाय पी और आगे बढ़ गये। अब मेरी बेचैनी और बढ़ गयी। कहीं रास्ते में कोई पहचान न ले, ज़रूर मेरी फ़ोटो भी टी वी पर दिखायी गयी होगी, बहुत संभल कर रहना होगा। थोड़ी देर में एक बार फिर मेरी हमदमे दैरीना ख़ुदकुशी ने दस्तक दी जो मेरी हमज़ाद बन मेरे साथ साथ चल रही थी, वह मुझसे सम्बोध्ाित हुई। अब तो सबको मालूम हो गया है, कब तक भागोगे? किस किस से भागोगे, कहाँ तक भागोगे? इस ज़लील जि़न्दगी को हासिल करके भी क्या करोगे? इस तरह तुम रोज़ ज़लील होगे, कभी समाज और दुनिया तुम्हें ज़लील करेगी, कभी दोस्त और तुम्हारे प्यारे तुम्हें ज़लील करेंगे और कभी ख़ुद अपने ज़मीर का सामना होगा तो ज़लील होगे। अगर जि़ल्लत भरी जि़न्दगी क़ुबूल कर लोगे तो इससे बुरा क्या हो सकता है? इससे बेहतर है कि तुम मेरे पास आ जाओ, मैं तुम्हें आदिम सुकून दूँगी।
मैंने एक बार फिर उसकी बातों पर ध्यान न दिया और बेदर्दी से उसे झटक कर आगे बढ़ता रहा। थोड़ी दूर चलने के बाद मैं फिर से पुरानी यादों में समा गया।
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एक दिन हम कुछ दोस्त अपने गाँव फन्दा में बैठे बातें कर रहे थे, बातें क्या बस ये समझिए कि दिनेश का व्याख्यान चल रहा था। दिनेश उम्र में तो मुझसे तक़रीबन तीन साल बड़ा था। लेकिन स्कूल में वह मेरा सहपाठी था। दर अस्ल वह पढ़ाई में बहुत ख़राब था, दो तीन बार फ़ेल हो चुका था लेकिन वह मेरा और मेरे जैसे कई और लड़कों का गुरु था। उसका कि़ताबी ज्ञान बहुत सीमित था, लेकिन जि़न्दगी का ज्ञान हम सबसे बहुत ज़्यादा। दुनिया भर की ऐसी न जाने कितनी मालूमात उसे थीं, जो किसी कि़ताब में न मिलती थीं। कम से कम मेरी पहुँच वाली कि़ताबों में तो बिलकुल न थीं। उसकी मालूमात से मैं और मेरे दूसरे दोस्त अक्सर फ़ायदा उठाते रहते थे। उस दिन वह लड़कियों के बारे में हमारे आगे ज्ञान के दरिया बहा रहा था। हम सब कान ध्ारे उसकी बातें सुन रहे थे और हैरान हो रहे थे कि लड़कियों के बारे में उसे इतनी मालूमात कहाँ से आती हैं, कि अचानक एक शोर उठा, हम लोगों ने उस शोर की तरफ़ देखा तो उध्ार से ध्ाुआँ उठ रहा था, ऐसा लगा जैसे कहीं आग लग गयी है। हम सब उसी तरफ़ दौड़े, वहाँ पहुँचे तो सामने जो मन्ज़र था उसे देख कर हम सबकी आँखें फटी की फटी रह गयीं।
सामने बाल मुकुन्द की बीवी रमा बाला जली हुई पड़ी थी और तड़प रही थी, और दिल दोज़ आवाज़ों के साथ चीख रही थी। वह लगभग नंगी हालत में थी, अब उसकी लम्बाई भी सिमट कर कम रह गयी थी। हम शायद उसे पहचान भी न पाते लेकिन उसका दो साल का बेटा अम्माँ अम्माँ कह कर चीख रहा था। वह बार बार उनसे लिपटने की कोशिश कर रहा था, लेकिन उसके ताऊ की बेटियों ने उसे पकड़ रखा था। वह ख़ुद भी चाची चाची कह कर चीख रही थीं। कुछ देर में रमा बाला की चीखें बन्द हो गयीं उसके हाथ पैर हिलने भी बन्द हो गये। लोग अभी भी उसके ऊपर पानी डाले जा रहे थे, मरने से पहले उसके मुँह से एक बार पानी निकला था। फिर उसके ससुर ने उस पर और पानी डालने से मना कर दिया। वह बोले घर से जल्दी से एक चादर लाकर इसके ऊपर डाल दो। और एक चारपाई तैयार करो जिस पर लिटा कर जल्दी से इलाज के लिए करीम नगर ले जाना होगा। उस वक़्त तक गाँव में किसी के यहाँ कार या दूसरा वाहन न था, अगर कोई ऐसा वाक्या होता तो उसे चारपाई पर लिटा कर पैदल ही करीम नगर अस्पताल ले जाते थे। अब रमा बाला मुकम्मल ख़ामोशी की हालत में पहुँच चुकी थी।
बाल मुकुन्द का भाई अंकुर जल्दी से उसके ऊपर चादर डाल कर ढक गया, घर वालों के अलावा शायद ही कभी किसी ने उसका चेहरा देखा होगा। वह जब भी घर से बाहर निकलती थी तो लम्बा सा घँूघट उसके चेहरे पर पड़ा रहता था और आज वह सरे आम सड़क पर माँ जई नंगी पड़ी हुई थी। अगरचे वह काफ़ी हद तक जली हुई थी, चर्बी भी काफ़ी जल चुकी थी। मिट्टी के तेल और चर्बी के जलने की बिसाँध्ा चारों तरफ़ फैली हुई थी। किसी ने पूछा, आग कैसे लगी? तो एक बच्चे ने जवाब दिया, चाची ने मिट्टी का तेल छिड़क कर माचिस से आग . . . लेकिन इससे पहले कि वह जुमला मुकम्मल करता, घर के एक बुज़्ाुर्ग ने उसे डाँटते हुए कहा, चुप रहो! जब तुम्हे सही नहीं मालूम तो क्यों बोल पड़ते हो, बहू अपने दो साल के बच्चे का दूध्ा गर्म कर रही थी कि अचानक स्टोव फट गया और आग लग गयी। ये बाद मुझे बाद में मालूम हुई कि उस वक़्त आग लगने या लगाने से जितनी भी मौतें होती थीं, सबमें यही बताया जाता था कि आग स्टोव फटने से लगी है और ये महज़ एक हादसा था।
यह वही ज़माना था जब जहेज़ के लिए तक़रीबन हर रोज़ कहीं न कहीं कोई औरत जला दी जाती थी, और इल्ज़ाम बेचारे स्टोव पर जाता था। अख़बार में तक़रीबन हर रोज़ ऐसी ख़बरें छपती थीं। ऐसे में सुनली दत्त ने एक फि़ल्म ‘‘ये आग कब बुझेगी’’ बनायी थी। फि़ल्म देखकर उस वक़्त मेरा मासूम दिल वाक़ई ख़ूब रोया था। मुझे नहीं मालूम कि ये इस फि़ल्म का असर था या कि तकनीक बदलने का, फि़ल्म रिलीज़ होने के कुछ अरसे बाद स्टोव से जलने वाली बहुएं बहुत कम हो गयी थीं। फि़ल्म के बाद लोगों को इस बात का यक़ीन कम रह गया था कि स्टोव हमेशा यूँ ही फटता है और हमेशा जवान बहुओं को ही जलाता है। जहाँ अस्सी की दहाई में मिडिल क्लास में तेज़ी से मिट्टी के तेल के स्टोव फैले थे, वहीं नब्बे की दहाई में तेज़ी से गैस के चूल्हे फैले थे। कारण जो भी हो, फि़ल्म के बाद स्टोव से जलने जलाने का यह तरीक़ा बहुत कम हो गया था। लेकिन हम अभी फि़ल्म से पहले के ज़माने की बात कर रहे हैं।
अब तक घर के लोग चारपाई भी निकाल लाए थे, लोग उस पर रमा बाला को लिटाने की तैयारी कर रहे थे कि किसी ने कहा, डाक्टर साहब आ गये। सब लोग उध्ार ही देखने लगे। किसी ने गाँव के अकेले डाक्टर को समाचार दे दिया था। डाक्टर ने डाक्टरी की कोई पढ़ाई तो न की थी लेकिन वह किसी डाक्टर के सहायक के तौर पर कुछ साल काम कर चुके थे और अब गाँव में अपना क्लीनिक चलाते थे। उन्होंने फ़ौरन आला लगा कर चेक किया और बोले, अब करीम नगर ले जाने का कोई मतलब नहीं है, साँसें काफ़ी पहले थम चुकी हैं।
डाक्टर के ऐलान करते ही लोगों ने ज़ोर-ज़ोर से रोना शुरू कर दिया। चारों तरफ़ मातम का माहौल बन गया। बाल मुकुन्द को अभी तक सूचना न मिल सकी थी। वह अपने काम से करीम नगर गए हुए थे। बाल मुकुन्द के चचा ने अपने बडे़ बेटे को बाल मुकुन्द को सूचना देने और बुला कर लाने के लिए भेज दिया था। यह वह ज़माना था जब मोबाइल का आविष्कार नहीं हुआ था, गाँव में अभी तक किसी के यहाँ लैण्ड लाइन फ़ोन भी नहीं था। घर और ख़ानदान के क़रीबी लोग चीख चिल्ला रहे थे, बाक़ी लोग आपस में काना फूसी कर रहे थे। दिनेश ने मेरा हाथ पकड़ा और एक किनारे ले जाते हुए कहा। तुम्हें मालूम है ये मामला क्या है? बाल मुकुन्द की बीवी ने ख़ुदकुशी क्यों की?
मैंने जवाब दिया, नहीं! मुझे क्या मालूम, हो सकता है कल तक ख़ुदकुशी नामा सामने आ जाए तो हम सब लोगों को सही सही मालूमात हासिल हो जायेगी, ये भी मुमकिन है कि कल के अख़बार में पूरी तफ़सील छप जाए। दिनेश ने कहा तुम किस कि़ताबी दुनिया में रहते हो? फन्दा गाँव से आज तक किसी की ख़ुदकुशी की ख़बर अख़बार में छपी है? जो अब छपेगी? न ही कोई ख़ुदकुशी नामा मिलेगा और न अख़बार में ख़बर छपेगी। वह ख़ुदकुशी पर मेरे शोध्ा के जुनून का ज़माना था, मुझे दिनेश के बयान से बड़ी मायूसी हुई लेकिन मुझे व्यक्तिगत तौर पर यही लगता था कि जब ख़ुदकुशी हुई है तो अख़बार में ख़बर भी ज़रूर छपनी चाहिए और ख़ुदकुशी नामा भी ज़रूर मिलना चाहिए। नहीं तो रमा की ख़ुदकुशी बेकार हो जायेगी।
अब तक का मेरा शोध्ा अख़बारों की रिपोर्टों पर ही आध्ाारित था, मुझे लगता था कि मैं ख़ुदकुशी के बारे में कोई बहुत बड़ा विशेषज्ञ हूँ और ख़ुदकुशी पर दुनिया का तमाम ज्ञान रखता हूँ। ऐसे में दिनेश की बात सुन कर मुझे बड़ी तकलीफ़ हुई। मैं जानता था वह जो कुछ कह रहा है वही सच होगा। इसके बाद वह मेरा हाथ पकड़ कर चल दिया और बोला, यहाँ जो होना था सो हो गया, अब चलते हैं। मैं जुनून की हद तक ख़ुदकुशी में दिलचस्पी रखने वाला व्यक्ति, आज जि़न्दगी में पहली बार किसी ख़ुदकुशी को इतनी क़रीब से देख रहा था, इसलिए अभी इस जगह से जाना नहीं चाह रहा था। अगरचे न मैंने उसे जलते हुए देखा था, न ख़ुदकुशी की वजह जानता था। फिर भी उसे जली हुई हालत में तड़पते और चीखते हुए देखा था, उसे आखि़री साँस लेते हुए देखा था।
मैंने दिनेश से हाथ छुड़ाया और अभी जाने से मना कर दिया। अब मैं उसके पास भी नहीं बैठना चाहता था क्योंकि मैं उस ख़ुदकुशी को महसूस करना चाहता था। उसके विभिन्न पहलुओं पर अपने ज्ञान की रौशनी में सोच विचार करना चाहता था। उसकी मौजूदगी में ये सारे काम मुमकिन न थे, वह लगातार कुछ न कुछ बोले जा रहा था। मैंने उससे कहा, तुम चलो, मैं बाल मुकुन्द के छोटे भाई अंकुर से मिल कर थोड़ी देर में आता हूँ। दिनेश मेरी बात मान गया। मेरी बाल मुकुन्द के छोटे भाई अंकुर से दोस्ती थी और मैं अभी उससे मिल भी नहीं पाया था, वह दौड़ ध्ाूप में लगा हुआ था। मैं थोड़ी देर वहाँ और रुका, अंकुर से मुलाक़ात हुई, मैंने उससे अफ़सोस ज़ाहिर करते हुए कहा, ‘‘ये सब अचानक कैसे हो गया? मुझे तुम्हारी भाभी के जलने का बहुत अफ़सोस हुआ।’’
‘‘हाँ सब कुछ अचानक हो गया, भाई को तो अभी भी नहीं मालूम है, वह करीम नगर में न जाने कहाँ होंगे, अब मैं भी उन्हें तलाश करने जा रहा हूँ, देखो कहाँ मिलते हैं वह।’’
यह कह कर वह चला गया, मैंने उससे बहुत मशीनी अन्दाज़ में बात की थी, मुझे अफ़सोस है कि मैं उससे अच्छे से अफ़सोस भी ज़ाहिर न कर सका। मेरी हमेशा की आदत है कि ऐसे मौक़ों पर चुप सी लग जाती है। इसके बाद मैं अपने घर वापस चला आया। घर आने पर मालूम हुआ कि अम्माँ भी बाल मुकुन्द के घर गयी हुई हैं।
मैं बेचैन था कि अम्माँ पूरी रिपोर्ट सुनाएंगी। वह किसी भी वाकि़ए को बहुत तफ़सील से और दिलचस्प अन्दाज़ में सुनाती थीं। अक्सर वह कुछ न कुछ नई मालूमात भी किसी न किसी तरीक़े से निकाल कर लाती थीं। अम्माँ ने बताया कि मामला बहुत गम्भीर है, कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है कि वह चाहती क्या थी, कभी किसी से खुल कर कोई बात ही नहीं करती थी। कोई लड़ाई नहीं, झगड़ा नहीं, दोस्ती यारी नहीं, अन्दर ही अन्दर घुटती रहती थी। कभी किसी को कुछ बताती ही नहीं थी, बहुत घुन्सी औरत थी। बेचारा बच्चा कैसे बिलख बिलख कर रो रहा था। यह कहते कहते अम्माँ के भी आँसू आ गये। अभी तो वह दो साल का है, सही से समझ भी नहीं सकता है कि वह अब यतीम हो चुका है। अभी तो उसकी चाची ने संभाल लिया है लेकिन उसका भविष्य क्या होगा? कोई नहीं जानता, इसके बाद वह सिसकियाँ लेने लगीं।
अम्माँ ने भी इस सिलसिले में कुछ ख़ास नहीं बताया। उस दिन मुझे महसूस हुआ कि कोई और वाकि़आ होता है तो अम्माँ कितनी दिलचस्पी के साथ और कितनी तफ़सील के साथ सब कुछ बताती हैं लेकिन जब ख़ुदकुशी का कोई वाकि़आ होता है तो वह हमेशा सबकुछ गोल मोल कर जाती हैं। इस बारे में उनसे बात करते हुए कई बार महसूस हुआ कि शायद वह कुछ छुपा रही हैं। इसके बाद पूरे दिन मेरी तबियत बेचैन रही, बार बार मिट्टी के तेल से जला हुआ नंगा बदन मेरे दिमाग़ में उभरता रहा। उसकी बदबू मेरे दिमाग़ में बस गयी थी। शाम को मालूम हुआ कि उसका अंतिम संस्कार भी उसी शाम हो रहा है। इससे पहले कि पुलिस को समाचार मिले और वह लाश को पोस्ट मार्टम के लिए ले जाए, उन लोगों ने अंतिम संस्कार कर देना ही मुनासिब समझा। बाल मुकुन्द तो आ चुके थे लेकिन रमा के घर वाले नहीं आ सके थे। मैं अंतिम संस्कार में शामिल होना चाह रहा था लेकिन अम्माँ ने सख़्ती से मना कर दिया। नहीं! जली हुई लाश तो तुम देख ही चुके हो, अब उसे और जलाने का क्या अर्थ रह गये हैं। चुपचाप घर में बैठो, इसके बाद अम्माँ ने बाहरी दरवाज़े बन्द करके ताला लगा दिया और चाभी अपने पास रख ली कि मैं किसी तरह भी बाहर न निकल पाऊँ।
उस रात मुझसे खाना न खाया गया, अभी खाने के लिए बैठा ही था कि दिमाग़ में फिर वही शक्ल उभर आयी, उसका गोरा चिट्ठा ख़ूबसूरत जिस्म, जो अब जली हुई काली लाश में तबदील हो चुका था, मेरी तबियत बेचैन हो गयी। एक निवाला भी खाए बग़ैर मैं उठ गया। अम्माँ ने बहुत कोशिश की कि मैं सब कुछ भुला कर खाने की कोशिश करूँ लेकिन ऐसा मुमकिन न हो सका। जब उसका अंतिम संस्कार हो जाने की ख़बर मिली तो अम्माँ ने बाहरी दरवाज़े का ताला खोल दिया।
तबियत बेचैन थी, जब बेचैनी हद से ज़्यादा बढ़ गयी तो मैं रात में एक बार फिर गाँव में घूमने निकल गया। हर तरफ़ ख़ौफ का माहौल था। दूर दूर तक सन्नाटा पसरा हुआ था, थोड़ा आगे बढ़ने पर कुछ लोगों के बोलने की आवाज़ें सुनाई दीं। ये आवाज़ें गाँव की अकेली दुकान से आ रही थीं। ये दुकान एक तरह से गाँव की चैपाल थी, जहाँ सब लोग जमा होकर विभिन्न विषयों पर बातें करते थे। मैं उसी तरफ़ चल दिया लोग रमा की ख़ुदकुशी का ही चर्चा कर रहे थे। वहाँ ख़ुदकुशी की तरह तरह की व्याख्याएं की जा रही थीं। कुछ लोगों को इस बात का बहुत अफ़सोस था कि रमा बाला ने फन्दा न लगा कर गाँव की रवायत को तोड़ा है, उसे आग लगाकर ख़ुदकुशी नहीं करनी चाहिए थी। उसे फन्दा लगाकर ही ख़ुदकुशी करनी चाहिए थी। यह बात सुन कर एक बुज़्ाुर्ग ने कहा कि वह इस गाँव की बेटी तो थी नहीं, वह तो बहू थी। उसे क्या मालूम कि इस गाँव के लोग ख़ुदकुशी कैसे करते हैं, इसकी क्या परम्परा है। यह सुन कर पहले वाले साहब ने जवाब दिया। लेकिन अब उसकी शादी हुए तीन साल से ज़्यादा अरसा गुज़र चुका था। उसे अब तक फन्दा गाँव की परम्परा मालूम हो जानी चाहिए थी, इसके लिए हम सब जि़म्मेदार हैं। गाँव की परम्परा को तोड़ कर उसने अच्छा नहीं किया, यह बदशगुनी है इस गाँव के लिए।
गँाव के लोग इस बात पर एकजुट थे कि यह हादसा नहीं बल्कि ख़ुदकुशी है, देर तक लोग उस ख़ुदकुशी के कारणों पर बातें करते रहे लेकिन सब ख़ाम ख़्याली बातें थीं किसी को कुछ नहीं मालूम था। किसी के पास कुछ ऐसी दलील न थी, जिससे मालूम होता कि उसने ख़ुदकुशी क्यों की? मुझे ख़ुदकुशी नामा में ख़ास तौर से दिलचस्पी थी, जब जब उसकी ख़ुदकुशी का जि़क्र होता तो मेरे ज़ेहन में ख़ुदकुशी नामा का सवाल ज़रूर आता, लेकिन किसी ने भी ख़ुदकुशी नामा का कोई जि़क्र ही नहीं किया। मेरे लिए यह बड़ी मायूसी वाली बात थी कि कोई ख़ुदकुशी नामा का जि़क्र ही नहीं कर रहा है, लगता है उसकी ख़ुदकुशी भी यूँ ही बर्बाद हो गयी।
मैं आखि़रकार घर लौट आया, कुछ देर में सोने के लिए लेट गया लेकिन हर आहट पर लगता कि बाल मुकुन्द की बीवी कहीं से आ रही है। गाँव में मशहूर था कि ख़ुदकुशी करने वाले का निर्वाण नहीं होता है और उसकी आत्मा यूँ ही भटकती रहती है। ज़ेहन में यही ख़ौफ़ बसा हुआ था कि उसकी आत्मा कहीं आस पास ही भटक रही होगी, जो किसी भी वक़्त और किसी भी रूप में आ सकती है। उसके आने के डर से किसी परिन्दे या झींगुर की आवाज़ सुनाई पड़ती तो लगता कहीं वह तो नहीं आ गयी। मैंने जब सोने की कोशिश की तो आदत के मुताबिक़ रौशनी बन्द करके लेट गया। दिल मज़बूत करके किसी तरह अपने आपको यक़ीन दिलाया कि डरना नहीं है, ऐसा कुछ नहीं होगा लेकिन कुछ तो भूख की वजह से और उससे ज़्यादा दिल मज़बूत करके लेटने की वजह से देर तक नींद न आ सकी।
अचानक किसी के क़दमों की आहट सुनाई दी, मैं डर कर संभल गया। अब आँख खोली भी नहीं जा रही थी और बन्द भी नहीं रखी जा सकती थी। बहर हाल मैंने डरते डरते इध्ार उध्ार देखने की कोशिश की। ऐसा लगा कि जैसे रौशनी के हल्के हल्के साए इध्ार उध्ार घूम रहे हों। क़दमों की आहट और नज़दीक होती जा रही थी। दूर कहीं कोई परिन्दा तेज़ आवाज़ के साथ उड़ा, तो मैं और डर गया। अब मुझे पूरा यक़ीन हो चला था कि हो न हो रमा बाला की ही आत्मा भटक रही होगी। मैंने उसकी ख़ुदकुशी के राज़ जानने की ज़रूरत से ज़्यादा कोशिश की है, कहीं इसीलिए वह मेरा पीछा तो नहीं कर रही है? अचानक मेरा दरवाज़ा खुल गया, मेरे मुँह से तेज़ चीख निकल गयी।
‘‘बचा ... ओ’’
‘‘तालिब! डरो मत, मैं अम्मा हूँ।’’
मेरी नज़रें अम्माँ पर पड़ीं, वह एक हाथ में चराग़ और दूसरे हाथ में एक ख़्वान लिए हुए थीं, उन्होंने कहा।
‘‘तुमने खाना नहीं खाया है, तुम दूध्ा ब्रेड खा लो, ख़ाली पेट नींद भी नहीं आती है और डर भी ज़्यादा लगता है।’’
क़रीब आकर उन्होंने ख़्वान रख दिया, उसमें दूध्ा ब्रेड थे, मैं ब्रेड को दूध्ा में डुबो कर खाने लगा। उन्होंने मुझे डर से बचाने के लिए कुछ दुआएँ पढ़ कर मुझ पर दम कर दीं। उसके बाद उन्होंने अपने मिट्टी के तेल के चराग़ से मेरे कमरे के चराग़ को रौशन किया और वापस अन्दर चली गयीं।
दिमाग़ में कशमकश तो चल ही रही थी, भले डर थोड़ा कम हो गया हो लेकिन अब उजाले में और भी नींद न आयी। मैं देर तक उजाले में सोने की कोशिश करता रहा। करवटें बदलता रहा, चराग़ की लौ को थरथराते देखता रहा, लेकिन किसी करवट नींद नहीं आ सकी। आखि़रकार एक बार फिर रौशनी बुझा कर सोने की कोशिश की और फिर देर तक करवटें बदलता रहा। ख़ौफ़ से पसीना पसीना होता रहा। रात के तीन बज चुकने के बाद आखि़रकार मुझे नींद आ ही गयी। अभी नींद में पहुँचा ही था कि एक ख़्वाब ने आकर मुझे बुरी तरह से जकड़ लिया। वह सफ़ेद साड़ी पहने, हाथों में दिया लिए चली आ रही थी।
बहुत ज़माने बाद जब मैंने मशहूर ज़मान चित्रकार राजा रवि वर्मा की ‘चराग़ लिए औरत’ वाली तस्वीर देखी थी जिसमें गुलाबी साड़ी पहने हुए औरत एक हाथ में चराग़ लिए हुए थी जबकि दूसरे हाथ से वह चराग़ को बुझने से बचाने के लिए चराग़ को हाथ से घेरे हुए थी। चराग़ की रौशनी का पीला सा अक्स उसकी साड़ी पर पड़ रहा था, साथ ही चेहरे पर चराग़ की रौशनी पड़ने से उसके चेहरे से उम्मीद का रौशनी फैल रही थी। चित्रकारी का वह दुर्लभ नमूना देख कर मुझे ख़्वाब का वह मन्ज़र याद आ गया था। दोनों बिलकुल एक जैसे थे। जबकि मुसव्विर और उसकी और उसकी मशहूर ज़माना तसवीर से उस वक़्त मैं बिलकुल अनभिज्ञ था। बहर हाल उस वक़्त उसे देख कर मेरे मुँह से ख़ौफ़नाक आवाज़ें निकल रही थीं। जैसे दूर से तेज़ हवा आ रही हो तभी अजनबी हाथ उसके ऊपर मिट्टी का तेल छिड़कने लगे, फिर हवा का तेज़ झोंका आया और उसी चराग़ से आग उससे दामनगीर हो गयी। आग लगते ही वह तेज़ तेज़ चीखने लग गयी।
‘‘तालिब! तालिब मुझे बचा लो, यह लोग मुझे जला रहे हैं, तालिब मुझे बचा लो।’’
वह जल रही थी, वह चीख रही थी, उसकी साड़ी जल गयी, उसकी खाल जलने लगी, उसका ह्यूला छत तक ऊँचा उठने लगा। वह चीख रही थी, उछल रही थी, दौड़ रही थी, कुछ अजनबी आवाज़ें उसका हँसी ठठ्ठा कर रही थीं। वह अचानक मेरी तरफ़ दौड़ी और मुझसे लिपट गयी।
‘‘तालिब मुझे बचा लो।’’
डर से मेरी घिग्घी बंध्ा गयी, मैं ख़्वाब में ही चीखने लगा, शायद ख़्वाब से बाहर भी मेरी ख़ौफ़नाक आवाज़ें निकल गयी थीं। एक बार फिर से मेरी आँखें खुल गयीं। फिर देर तक मैं सो न सका। सुब्ह होते होते फिर नींद आयी। कुछ देर ही सोया था कि अम्माँ ने स्कूल जाने के लिए जगा दिया। लेकिन जब उन्होंने मेरा हाथ छुआ तो मैं तेज़ बुख़ार में मुबतला था। मैं सुबह की रोज़ की ज़रूरतों से फ़ारिग़ हुआ तो उन्होंने मुझे नाश्ता खिला कर दवा खिलाई और कहा आज स्कूल मत जाना, घर में ही आराम करो।
अम्माँ के जाने के बाद मैं थोड़ी देर तो लेटा रहा। रात भर जागने के बावजूद नींद अब भी मेरी आँखों से कोसों दूर थी। देर तक करवटें बदलता रहा। फिर पसीना निकलने लगा, शायद अब बुख़ार उतर रहा था, अब तबियत हल्की हो रही थी। उसके बाद मैं गहरी नींद सो गया, नींद से उठा तो दोपहर हो चुकी थी, मैं नहाने की तैयारी कर रहा था, अम्माँ ने कहा, ऐसे बुख़ार में नहाने की ज़रूरत नहीं है, हाथ मुँह ध्ाोकर आ जाओ, मैं खाना लगाती हूँ। रात में भी तुमने खाना नहीं खाया था, खाना खाकर तबियत बेहतर हुई तो मैं घर से बाहर निकल गया।
बाहर जाते ही मेरी दिनेश से मुलाक़ात हो गयी, मिलते ही उसने पूछा।
‘‘तालिब तुम्हें मालूम है? भारतीय पैनल कोड में एक ध्ाारा ऐसी है कि जिसके तहत अगर कोई जुर्म करने में कामयाब हो गया तो उसके लिए कोई सज़ा नहीं है और अगर नाकाम रहा तो उसके लिए सज़ा है।’’
मैंने कहा, ‘‘नहीं, मुझे नहीं मालूम, भला ऐसा कौन सा जुर्म हो सकता है जो कामयाबी से करने पर कोई सज़ा नहीं है और नाकाम रहने पर सज़ा है।’’
‘‘ख़ुदकुशी! ख़ुदकुशी ऐसा जुर्म है कि उसे करने की कोशिश की लेकिन नाकाम रहे तो उसकी सज़ा है और अगर कामयाब हो गये तो मुर्दे को क्या सज़ा दी जा सकती है? कोई भी नहीं।’’
दिनेश भी आज मुझसे मिलने के लिए बेचैन था, उसे बाल मुकुन्द की बीवी की ख़ुदकुशी के तमाम राज़ मुझे बताने थे। मेरे बैठते ही उसने बाल मुकुन्द की बीवी की ख़ुदकुशी के तमाम राज़ों से पर्दे हटाने शुरू कर दिए। उसने बताया कि दर अस्ल मामला बाल मुकुन्द शर्मा और अरुणेश यादव की दोस्ती का था। बाल मुकुन्द शर्मा तो ज़ाहिर है ब्राह्मण है और अरुणेश यादव यानी अहीर है। लेकिन दोनों में दोस्ती बहुत पक्की थी और बचपन से ही थी। बाल मुकुन्द जितना गोरा था अरुणेश उतना ही काला था।
दोनों के घर कुछ ही दूरी पर स्थित थे, बाल मुकुन्द का मकान पक्का था और उसके पिछवाड़े कुछ ख़ाली जगह पड़ी थी जो उसी की थी। वहाँ कोई नहीं रहता था, सन्नाटा रहता था। मुस्तक़बिल में वहाँ दीवार बनाने की नियत से मौजूद दीवार में खाँचे बने हुए थे, कि जब दीवार तामीर होगी तो वह नयी दीवार इन्हीं खाँचों में बैठकर मज़बूत हो जायेगी। इन खाँचों से आसानी से छत पर चढ़ा जा सकता था। बाल मुकुन्द और दिनेश यादव के जिस्मानी सम्बन्ध्ा थे, दोनों सम लैंगिक सम्बन्ध्ा बनाते थे अरुणेश रात में मौक़े के अनुसार उन्हीं खाँचों से छत पर चढ़ जाता था और छत पर पहुँच कर वह दोनों अपनी हवस मिटा लेते थे। छत पर सिर्फ़ एक ही कमरा था, बाल मुकुन्द के बाक़ी घर वाले नीचे सोते थे। इसलिए नीचे वालों को ऊपर की कोई ख़बर न मिलती। वैसे बाल मुकुन्द ज़ीने के दरवाज़े बन्द कर लेता था।
बी ए के बाद बाल मुकुन्द शर्मा ने करीम नगर में छोटी मोटी ठेकेदारी का काम शुरू कर दिया था, तो उसकी शादी तै हो गयी, उस वक़्त तक अरुणेश पढ़ ही रहा था क्योंकि उसके घर में ठेकेदारी या कोई दूसरा कारोबार शुरू करने के पैसे न थे। उसका अभी पढ़ाई का लम्बा इरादा था, क्योंकि उसे तो कोई न कोई नौकरी ही करनी थी। इसलिए जब तक नौकरी नहीं लग जाती, शादी का कोई सवाल ही न था।
बाल मुकुन्द शर्मा की शादी में अरुणेश यादव ने ख़ूब बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया, कुछ ब्राह्मणों को इस पर एतराज़ भी था कि ब्राह्मणों की शादी की सारी रस्मों में एक यादव का क्या काम है? लेकिन उसके घर वालों को मालूम था अरुणेश उसके बचपन का जिगरी दोस्त है, उसे किसी रस्म से मना नहीं किया जा सकता। उसने जब बाल मुकुन्द की बीवी को देखा तो उसके दिल में उमंगें जाग उठीं। बहर हाल बाल मुकुन्द शर्मा की शादी अच्छे से सम्पन्न हो गयी।
शादी के कई दिन बाद तक बाल मुकुन्द ने अपनी बीवी से सम्बन्ध्ा न क़ायम किए, जब बीवी ने वजह जाननी चाही तो बाल मुकुन्द ने साफ़ साफ़ बता दिया कि उसके अरुणेश यादव के साथ सम लैंगिक सम्बन्ध्ा रहे हैं, मैं उसके साथ बेवफ़ाई नहीं करना चाहता। बीवी ने चाहा कि उसकी ये आदत छुट जाए तो बाल मुकुन्द इसके लिए तैयार भी हो गया। क्योंकि सम लैंगिकता उनका चुनाव नहीं था। कामुक ख़्वाहिशें अन्दर से उठती ही थीं लेकिन विपरीत सेक्स मौजूद नहीं था, तो सम लैंगिकता ही सही। अगरचे कुछ लोगों के लिए सम लैंगिकता पहली पसन्द भी होती है, लेकिन अरुणेश या बाल मुकुन्द के लिए सम लैंगिकता पहली पसन्द न थी। बल्कि सेक्स का एक बदल था, विपरीत सेक्स के साथ सेक्स का एक विकल्प।
जब बाल मुकुन्द सम लैंगिकता छोड़ने को तैयार हुआ तो उसने अपनी बीवी के सामने एक शर्त रख दी कि उसे अरुणेश को भी कभी कभी ख़ुश करना होगा। यह ऐसी शर्त थी जिसे वह किसी दुःस्वप्न में भी नहीं सोच सकती थी। वह बहुत नाराज़ हुई, कई दिन तक उसने बाल मुकुन्द से बात भी न की। लेकिन अब क्या हो सकता था? उसके घर वालों ने सिखाया था कि जिस घर में तेरी डोली जा रही है उसी घर से तेरी अर्थी निकलेगी। अब घर वापसी या शादी से आज़ादी की कोई सम्भावना न थी। भले क़ानूनी तौर पर हिन्दू ध्ार्म में तलाक़ का विकल्प हो गया हो। लेकिन उसकी परवरिश जिस ब्राह्मण समाज में हुई थी उसमें अभी भी तलाक़ की कोई कल्पना न थी।
बाल मुकुन्द की शर्त सुनने के बाद रमा को ख़ामोशी लग गयी। वह न कुछ बोलती और न कोई फ़रमाइश करती। काफ़ी दिनों तक ये सिलसिला चलता रहा लेकिन ऐसा कब तक चलता, आखि़रकार उसने अपने शौहर की शर्त क़ुबूल कर ली और ख़ुद को उसके सुपुर्द कर दिया। ध्ाीरे ध्ाीरे शौहर के साथ उसके सम्बन्ध्ा क़ायम हो गये। एक रात अरुणेश भी पिछवाड़े से छत पर आ गया। उसके कमरे के नीचे घर के दूसरे लोग सो रहे थे किसी कि़स्म के विरोध्ा की गुँजाइश न थी। वैसे भी सैद्धांतिक रूप से वह अपने शौहर की शर्त पहले ही क़ुबूल कर चुकी थी। अब बाल मुकुन्द जो जी चाहे करे या कराए। वह किसी कि़स्म का प्रतिरोध्ा न करेगी। अपने आपको उसने अरुणेश के हवाले भी कर दिया।
फिर ये सिलसिला चलता रहा, वह अक्सर देर रात में, अंध्ोरे में उसकी छत पर आ जाता, मुमकिन है कभी किसी ने उसे रातों में बाल मुकुन्द की छत पर आते जाते हुए देखा हो। लेकिन उनके बीच जो चलता था चलता रहा। जब तक कोई ठोस सुबूत न हों कोई कुछ नहीं कर सकता। इस दौरान रमा बाई के गर्भ ठहर गया, अब रमा को ये चिंता सताने लगी कि बच्चा किसका है? अगर बच्चा बिलकुल अरुणेश की तरह हो गया तो क्या होगा? यह सोच सोच कर उसकी नींद और उसका चैन सब उड़ जाते, इन्हीं सोचों में और डर के माहौल में बच्चा पैदा भी हो गया। जिसकी ख़ुशियाँ ध्ाूम ध्ााम से मनायी जाने लगीं। बच्चा माँ पर गया था, वह न बाल मुकुन्द की तरह गोरा था और न अरुणेश की तरह काला। शक्ल में भी अरुणेश या बाल मुकुन्द के कुछ स्पष्ट प्रभाव न थे, अलबत्ता माँ की एक झलक ज़रूर नज़र आती थी। फिर ये कहावत मौजूद थी कि जिसका बाप जि़न्दा हो उसको हरामी कौन कह सकता है? इसके बाद रमा ने एक फै़सला कर लिया की अब पिछली ग़लती नहीं दोहरानी है, कंडोम के बग़ैर अब अरुणेश के साथ बिस्तर में नहीं जाएगी। बच्चे की पैदाइश के बाद अब रमा अरुणेश के साथ रिश्ते की कशमकश से ऊपर आ चुकी थी, उसे अब अरुणेश का इन्तज़ार रहने लगा था और अरुणेश के साथ ज़्यादा मज़ा आता था। जो सच पूछो तो उसे अरुणेश से मुहब्बत हो गयी थी। बाल मुकुन्द ने यह बात महसूस तो की लेकिन वह बड़े दिल का था। उसके दिल में अरुणेश के लिए कोई जलन न पैदा हुई, बल्कि बच्चे की पैदाइश के बाद जब उसकी पत्नी अपने मायके गयी, तो उसने अरुणेश के साथ एक बार फिर समलैंगिक सम्बन्ध्ा स्थापित किए।
इस दौरान अरुणेश की तालीम भी मुकम्मल हो गयी उसे लखनऊ में एक कारख़ाने में नौकरी भी मिल गयी। ऐसे में अरुणेश के घर वालों को उसकी शादी की चिंता हुई और उसकी शादी के लिए लड़की देखी जाने लगी। अब अरुणेश लखनऊ में रहने लगा था, बीच बीच में जब वह गाँव आता तो बाल मुकुन्द और उसकी बीवी से दोस्ती उसी तरह क़ायम रही। जब अरुणेश की शादी तै हो गयी तो रमा बाला ने इसका सख़्त विरोध्ा किया। उसने कहा, मैंने तुम्हारे लिए इतनी क़ुरबानी दी है, अब तुम शादी नहीं कर सकते, अब हम तीनों लखनऊ में रहेंगे। अरुणेश ने कहा, नहीं! मैं तुम्हारे पास आता रहूँगा, लेकिन अब शादी ज़रूरी है, मुझे नौकरी मिल चुकी है, मेरी उम्र के गाँव के सारे लड़कों की बहुत पहले शादी हो चुकी है, अब शादी से मना करने का मेरे पास कोई बहाना नहीं है। इसके बाद अरुणेश लखनऊ चला गया, उसकी शादी की तारीख़ तै हो गयी थी। उसके लखनऊ जाने के बाद रमा बाला ने ख़ुदकुशी कर ली।
दिनेश ने मुझे रमा बाला की ख़ुदकुशी का ये राज़ बताया, उसने जिस विश्वास और सिलसिलेवार कड़ी से कड़ी जोड़ते हुए ये कि़स्सा सुनाया था, उस पर एतबार न करने की कोई वजह नहीं रह गयी थी। दिनेश एक सिद्धांत पर हमेशा बहुत पाबन्दी से क़ायम रहता था, कोई कितनी भी कोशिश कर ले लेकिन वह कभी किसी को ये नहीं बताता था कि उसे ये मालूमात कहाँ से हासिल हुई है? जिसको यक़ीन करना है करे, नहीं करना है तो न करे, वह अपने स्रोत कभी नहीं बताएगा। रमा बाला का ये कि़स्सा सुनते सुनते मुझे एक बार फिर बुख़ार चढ़ने लगा था और मैं जल्दी से घर चला आया।
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ख़ुदकुशी से कुछ हफ़्ते पहले रमा बाला अपने मायके गयी थी। उस वक़्त उसने सुसराल की तारीफ़ की थी और किसी कि़स्म की शिकायत न की थी। अगरचे शुरू में उसके मायके वालों को यही बताया गया था कि बच्चे का दूध्ा गर्म करते हुए स्टोव फट गया था लेकिन ध्ाीरे ध्ाीरे मायके वालों को मालूम हो गया था कि रमा बाला ने ख़ुदकुशी की थी। कोई ख़ुदकुशी नामा नहीं था, कोई शिकायत न थी, फिर उसका दो साल का बच्चा भी था, अगर पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई गयी तो बच्चे से भी सम्बन्ध्ा टूट जायेगा। वैसे भी जब तक इस बात के पक्के सुबूत न हों कि बाल मुकुन्द ने उसे ख़ुदकुशी पर मजबूर किया है तब तक पुलिस में एफ. आई. आर. करने से कुछ नहीं होने वाला। फिर बार बार यहाँ के थाने और कोर्ट में दौड़ कर आना पड़ेगा सो अलग से। इसलिए आखि़रकार रमा के मायके वालों ने बाल मुकुन्द और उसके घर वालों के खि़लाफ़ रिपोर्ट न लिखवाने का फै़सला किया।
उध्ार सुसराल में सब लोगों का यही ख़्याल था कि वह बहुत घुन्सी थी, कभी किसी को हमराज़ न बनाती थी, बल्कि कुछ लोगों का यह भी ख़्याल था कि शादी से पहले उसे किसी से मुहब्बत थी, इसलिए उसने बालमुकुन्द के साथ शादी को कभी दिल से क़ुबूल ही नहीं किया था।
अरुणेश यादव की शादी तैशुदा तारीख़ में ही हो गयी। उसकी बीवी अरुणा भी गाँव में रहने लगी। शादी के कुछ दिनों तक अरुणेश गाँव में रहा, इस दौरान अरुणेश ने अपनी बीवी को बाल मुकुन्द और उसकी बीवी से अपने रिश्तों के बारे में सब कुछ बता दिया। अरुणा को ये बात सुनकर गहरा सदमा हुआ, उसने अरुणेश से पूछा, तुमने मुझे ये बात क्यों बतायी? क्या तुम चाहते हो अब मैं भी बाल मुकुन्द के साथ वही रिश्ते बनाऊँ जो तुमने उसकी बीवी के साथ बनाए थे? मुझसे ऐसा हरगिज़ न होगा। मैं ऐसा होने से पहले चीख चीख कर सबको बता दूँगी और अगर आपने फिर भी मुझे मजबूर करने की कोशिश की तो मैं भी ख़ुदकुशी कर लूँगी। अरुणेश ने बात को टालने के लिए कहा मैं तुम्हें किसी बात के लिए मजबूर नहीं करुँगा, मैंने तो बस यूँ ही अपने माज़ी को तुम्हारे सामने रख दिया। कुछ दिनों तक अरुणेश उसके साथ रहा फिर वह अपनी बीवी को गाँव में ही छोड़ कर नौकरी करने लखनऊ चला गया। अभी लखनऊ में उसने अलग घर किराए पर न लिया था। वह एक दोस्त के साथ किराए पर कमरा ले कर रहता था। इसलिए बीवी को लखनऊ नहीं ले जा सकता था।
अरुणेश जिस दिन अरुणा को छोड़ कर लखनऊ गया उसी दिन बाल मुकुन्द की बीवी रमा बाला के भूत ने अरुणा को आकर जकड़ लिया। अरुणा खुल खेलने लगी। उसने अपने सारे बाल खोल दिए, तेज़ तेज़ क़हक़हा लगा कर हँसने लगी। अपनी सास के बाल पकड़ कर खींचे और हँसते हुए बोली, तूने ही अरुणेश की शादी कराई थी ना? अब मैं तुम्हें नहीं छोड़ुंगी।
अरुणा की आँखें अंगारे की तरह दहक रही थीं, गुस्से में वह सास को घूरे जा रही थी। अरुणेश की माँ ख़ौफ़ से तेज़ तेज़ चीखने लगीं। लोगों की भीड़ जमा हो गयी। झाड़ फूंक करने वाले एक मौलवी को बुलाया गया। उन्होंने अरुणा के बालों में एक गाँठ लगवायी और ख़ुद बुदा बुदा कर कुछ पढ़ने लगे। पढ़ने के बाद उन्होंने अरुणा के ऊपर फूँक दिया। वह तेज़ दहाड़ी।
‘‘हुँ...ह, मेरे ऊपर तुम्हारा कोई जंतर मंतर नहीं चलने वाला, तुम मेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते।’’
मौलवी साहब ने एक बार फिर पढ़ना शुरू किया। इस बार वह पहले से ज़्यादा बुलन्द आवाज़ में पढ़ रहे थे। पढ़ने के बाद उन्होंने चारों तरफ़ फूँका और एक बार फिर अरुणा की तरफ़ सम्बोध्ाित होकर कहा।
‘‘बताओ! तुम कौन हो? तुम्हें किसने भेजा है?’’
‘‘मैं नहीं बताने वाली, मुझे किसी ने नहीं भेजा है। मैं अपने बारे में तुम्हें कुछ नहीं बता सकती।’’
इस बार मौलवी साहब ने अरुणा के चारों तरफ़ खडि़या से एक दायरा बना दिया। और एक बार फिर से कुछ मुँह में बुदबदाते हुए पढ़ने लगे, आँखें बंद कर लीं और अरुणा के ऊपर दायरे के चारों तरफ़ फूँक कर बोले।
ं‘तुम्हें बताना ही पडे़गा। अब तुम बच कर नहीं जा सकतीं, मैंने तुम्हें घेर दिया है।’’
इतना सुनते ही अरुणा आग बबूला हो गयी और उसने एक लात खींच कर मौलवी के सीने पर मार दी, मौलवी साहब इस वार के लिए बिलकुल तैयार न थे इसलिए अपने आप को संभाल न सके और लड़खड़ा के पीछे गिर गये। कुछ बच्चे और नवजवान जो आस पास खड़े थे खिलखिला कर हँसने लगे। लेकिन मौलवी साहब जल्दी ही खड़े हो गये, कुर्ता झाड़ा, अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरा और मुक़ाबले के लिए फिर तैयार हो गये। लपक कर उन्होंने अरुणा के बाल पकड़ लिए और बहुत तेज़ खींचने लगे अब अरुणा बुरी तरह बिलबिला उठी।
‘‘मुझे छोड़ दो, मैंने कुछ नहीं किया है, आह मुझे छोड़ दो, बहुत दर्द हो रहा है।’’
‘‘तुम अरुणा को छोड़ दो मैं तुम्हें छोड़ दूँगा, लेकिन इससे पहले तुम्हें बताना होगा कि तुम कौन हो और यहाँ किस लिए आयी हो।’’
‘‘मैं बाला हूँ, मैं इध्ार से गुजर रही थी कि मेरी इस पर नज़र पड़ गयी, और मैं देखने लगी कि ये दुल्हन किसकी है, जब क़रीब आई तो मालूम हुआ कि ये तो दिनेश की बीवी है। मैं इसकी आशिक़ हो गयी, अब मैं इसे छोड़ कर जाने वाली नहीं हूँ।
‘‘तुम अभी भी सही नहीं बता रही हो, सच सच बताओ मामला क्या है।’’ इसके बाद मौलवी साहब ने बाक़ी लोगों से कहा, सिफऱ् अरुणा की सास यहाँ रहेंगी, बाक़ी सब लोग यहाँ से निकल जाएं। जब सब लोग निकल गये तो उन्होंने अरुणा की एक बाँह पकड़ ली और उसे मरोड़ने लगे। वह चीख चीख कर रोने लगी और ठहर ठहर कर बोली।
‘‘अरुणा ने मेरा सारा खेल बिगाड़ दिया है, मेरी उम्मीदों पर पानी फेर दिया है, मैं भी इस आराम से नहीं रहने दूँगी।’’
ये कह कर वह ज़मीन पर लेट कर रोने लगी, अब मौलवी साहब ने उसे छोड़ दिया। अरुणा वहीं ज़मीन पर लेटी रही, कुछ देर तक सिसकती रही, साँसें तेज़ तेज़ चलती रहीं, फिर जैसे नींद सी आने लगी। उसने आँखें बन्द कर लीं और गहरी नींद सो गयी। कोई आध्ो घण्टे तक वह यूँ ही पड़ी रही, इस दौरान वह न कुछ मुँह से बोली और न उसके जिस्म में कोई हरकत हुई, बस साँसें तेज़ तेज़ चलती रहीं।
मौलवी साहब ने बाहर आकर कहा अब सब कुछ ठीक है, सब लोग यहाँ से चले जाएं, कुछ लोग ज़रूर चले गये लेकिन काफ़ी लोग वहीं जमे रहे। आध्ो घण्टे बाद उसने आँखें खोलीं तो जल्दी से उसने साड़ी दुरुस्त की और घर के अन्दर वाली कोठरी में चली गयी।
यह ख़बर जब अरुणेश यादव को लखनऊ में मिली तो वह घर आ गया, वह मौलवी साहब के पास गया, उन्होंने कहा, इस पर एक ख़तरनाक चुड़ैल का साया है, लेकिन अब तुम्हें घबराने की कोई ज़रूरत नहीं है, मैंने उसे बाँध्ा दिया है। अब वह वापस नहीं आ पाएगी। अरुणेश ने अरुणा को करीम नगर में एक डाक्टर को भी दिखाया, उसने अरुणा की कई तरह की जाँचें करायीं, रिपोर्टें देख कर डाक्टर ने बताया कि अरुणा को कुछ ख़ास नहीं हुआ है, वह बिलकुल ठीक है, बस कोशिश कीजिए कि उसे किसी कि़स्म का ज़ेहनी तनाव न होने पाए। अगर फिर भी कोई दिक़्क़त आए तो दिमाग़ के डाक्टर को दिखा दीजिएगा। एक चिकित्सक की हैसियत से मैं कह सकता हूँ अरुणा बिलकुल ठीक है।
कुछ दिन सब कुछ ठीक ठाक रहा, और अरुणेश एक बार फिर लखनऊ वापस चला गया। शादी के बाद भी जिसका शौहर उससे दूर शहर में रहता हो और वह अपनी सुसराल में रहती हो। उसे जे़हनी और जिस्मानी दोनों तरह के तनाव होना प्राकृतिक बात है। अरुणेश के जाने के एक हफ़्ते बाद एक बार फिर बाला की चुड़ैल अरुणा पर सवार हो गयी। और ये सिलसिला चल निकला, वह अक्सर अरुणा पर आ जाती और वही सिलसिला घण्टों चलता रहता। गाँव वाले कह रहे थे देख लिया आग लगा कर ख़ुदकुशी करने का नतीजा? फन्दा गाँव में ख़ुदकुशी फन्दा डाल कर ही की जा सकती है। रमा बाला ने इस परम्परा को तोड़ा है, उसकी आत्मा इसीलिए अभी तक भटक रही है। जब मर कर भी चैन नहीं आएगा तो किध्ार जाएगी? चुड़ैल बन कर किसी को परेशान करेगी और क्या होगा? वह इसके सिवा और क्या कर सकती है? लेकिन सब्र से काम लेना होगा, चुड़ैल किसी को कितना भी परेशान कर ले, सुकून की बात ये है कि वह किसी की जान नहीं ले सकती।

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