12-Dec-2017 05:38 PM
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अँग्रेज़ी से अनुवाद : गीत चतुर्वेदी
मैं सिर्फ़़ एक ही बात जानता हूँ कि मैं कुछ नहीं जानता।
सुकरात
हर क़िस्म की कला के लिए एक शाश्वत सवाल उठता है- ‘क्यों?’। यह सवाल हमेशा बना रहेगा। कलाओं को संचालित करने वाले नियमों के अनुसार इसका जवाब हर कलाकार के भीतर से आना चाहिए। हालिया दिनों में ऐसा दिखायी देता है कि तकनीक, कला के नवाचारों से आगे निकली जा रही है और कला उसकी रफ़्तार को पकड़ने की कोशिश में बदहवास-सी दौड़ रही है, हाँफ़ रही है। हम सिनेमा की इस यात्रा में चाहे कितना भी आगे आ चुके हों, डिजिटल तकनीक ने इसके लिए कई और रास्ते भी खोल दिये हैं। अब आप बड़े शहरों से दूर, छोटे गाँवों में रहते हुए भी फ़िल्म बना सकते हैं। दूसरी कलाओं में भी ऐसा हुआ है, मसलन रेकॉर्डिंग तकनीक ने ग्लेन गूल्ड2 जैसे कलाकारों को फलने-फूलने का नया वातावरण दे दिया है जो एक पारम्परिक प्रदर्शनकारी कला के माध्यम से एक व्यक्ति की तरह खुलकर सोचने के स्वाभाविक अन्तर्विरोधों से जूझ रहे थे, उस कला के प्रदर्शनकारी हिस्से को ही लगभग बायपास करते हुए। अब, क्या हम इस बात की समीक्षा कर सकते हैं कि सत्य की खोज में सिनेमा किस हद तक एक व्यावहारिक उपकरण की तरह उपयोग में आ सकता है? धन और मानवीय सम्बन्धों ने हमेशा फ़िल्म-निर्माण की प्रक्रिया में हस्तक्षेप किया है लेकिन तकनीक के कारण इन सबकी अनिवार्यता अब धीरे-धीरे कम हो रही है, इससे कलाकार को अन्तर्यात्रा के लिए अधिक समय और अवकाश मिल रहा है। फ़िल्म बनाना अब कहीं अधिक निजी और अधिक अन्तरंग हो गया है। यह एक दर्शक, कम से कम एक असली दर्शक, की सोच के दायरों से बाहर घटित हो रहा है। इसमें कमाने के लिए कोई पैसा नहीं है, न ही कोई बहुत शोहरत। फिर फ़िल्मकार के पास क्या पारितोषिक बचता है? मेरे जैसे व्यक्ति के लिए इसका जवाब है- ‘प्रक्रिया’1। अपनी फ़िल्म को और ज़्यादा गहरायी से और ज्यादा अन्तरंगता से जिया जा सके, इस बात की सम्भावना बढ़ गयी है। फ़िल्मकार जिस तरह का विषय चुनता है, फ़िल्म बनाते समय जिस तरह की किताबें पढ़ता है, जो बातें सीखता है और जो विचार उसके मन में आते हैं, वे सब उस फ़िल्म को बनाने के महत्वपूर्ण कारण बन जाते हैं। सिनेमा एक तरह से संस्कृति, इतिहास, संगीत, सौन्दर्य और अन्ततः सत्य (?) की तलाश और अध्ययन का नया रास्ता बन जाता है।
1. इस पुस्तक-अंश में आये सभी हिस्सों के नम्बर वे ही हैं जो इसी नाम से रज़ा फाउण्डेशन और राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हो रही पुस्तक में हैं।
2. मेरा विश्वास है कि कला का औचित्य उस आन्तरिक आग में निहित है जो मनुष्य के हृदय में जल उठती है, न कि उसकी उथली, बाहरी, सार्वजनिक अभिव्यक्ति में। कला का उद्देश्य नसों में उफान भर देने वाले रस (एड्रेनालिन) का क्षणिक उत्सर्जन मात्र नहीं है, बल्कि एक शान्त, चमकीली निरभ्रता व अचम्भे के निरन्तर बनते संसार की निर्मिति है। - ग्लेन गूल्ड, (1962), पेजांट में (ग्लेन गूल्ड : म्यूजिक एण्ड माइण्ड), पृष्ठ 6
वास्तविक स्वतन्त्र सिनेमा क्या है? सबसे पहले तो सिनेमा को उसकी आत्म-छवि से स्वतन्त्र करने की ज़रूरत है, और उसके बाद ही उसे वह स्वतन्त्रता मिल पाएगी, जिसे हम पूरी स्वतन्त्रता के साथ समझ सकते हों।2 इसके लिए उसे खुला होना होगा, कला के अन्य रूपों के प्रति खुला हुआ। हाल के दिनों में, अधिकतम सिनेमा गद्य की तरह रचा जाता है, वह उपन्यास के बहुत क़रीब है और उसका ‘पठन’ भी लगभग उसी तरह होता है। कला के एक अपेक्षाकृत युवा रूप, सिनेमा को हम समय से पहले बुढ़ाते हुए देख रहे हैं? भारतीय सौन्दर्यशास्त्र3 की मूल परम्परा, कला के हर रूप को एक आधारभूत तात्विक सातत्य की अवस्था में देखती है। और फलस्वरूप, कला के एक रूप की समझ, दूसरे रूपों की समझ के बिना पूरी तरह नहीं बन पाती। क्या हम सिनेमा को इस तरह कला-रूपों के सातत्य में देख सकते हैं? क्या हम सिनेमा के बारे में उसी तरह सोच सकते हैं जैसे संगीत और पेंटिंग के बारे में, क्या सम्पादन को उस तरह सोच सकते हैं जैसे समय और अवकाश, टाइम और स्पेस, के दृष्टिकोणों के बारे में सोचते हों? कला के अन्य रूपों की तरह सोचना यानी अक्षरशः वैसा ही सोचना नहीं, बल्कि एक काव्यात्मक तरीके से सोचना। इसके बाद सम्भावनाएँ विस्तृत हो जाती हैं, तब हम सिनेमा को शतरंज की तरह भी सोच सकते हैं, ‘बस्ता’ या ‘ज्योतदान’4 की तरह भी : एक गम्भीर छात्र द्वारा बनायी गयी पेंटिंग्स के एलबम की तरह, जिन्हें आपस में अनिवार्य अभ्यास और निरन्तर बढ़ने वाली रुचि का एक धागा जोड़ता हो।
1. कश्मीर शैववाद के कुछ ग्रन्थों में ‘प्रक्रिया’ की अवधारणा है जिसमें किसी अनुष्ठान या ध्यान का एक निर्दिष्ट अभ्यास किया जाता है, जो कि परम ज्ञान का ही एक रूप है, यानी जो लक्ष्य है वही मार्ग है।
2. कश्मीर की श्रेष्ठतम तन्त्र परम्परा में, अभ्यास या साधना की निर्दिष्ट विधियाँ सम्बोधि के लालित्य के प्रति हमेशा खुली हुई होती हैं, इस कदर खुली हुई कि साधक, अपनी साधना की क्रियाओं के भी पार जा सकता है और ऐसा करने से वह उन निर्देशित रास्तों से स्वतन्त्र हो जाता है, एक मार्गहीन मार्ग को चुन सकता है, जिसे ‘अनुपाय’ कहते हैं।
3. भारतीय सौन्दर्यशास्त्र के बुनियादी सिद्धान्तों को कला के हर रूप पर लागू किया जा सकता है, कविता से लेकर शिल्प से लेकर संगीत तक। मसलन, ‘ध्वनि’ तत्व, जिसे आशय की तरह भी परिभाषित किया जा सकता है और आवाज़ की तरह भी, वह कला के हर रूप पर लागू होता है। यह तत्व अपना रस नवीं शताब्दी के कश्मीरी शैववादियों की उस विश्व-दृष्टि से भी लेता है कि यह पूरा ब्रह्माण्ड दरअसल एक अनुगूंज है, एक नाद है, जो अपने को विभिन्न रूपों में अभिव्यक्त करता है। इस तरह, हर कलात्मक प्रयास अन्ततः सृष्टि के अनुकरण का ही उपक्रम है।
4. मिनिएचर पेंटिंग्स के पन्नों से बना हुआ एक अलबम, जिसे कलाकार या संयोजक उसी क्रम में बनाता या संयोजित करता है, जिसमें वे पन्ने या फोलियो लगे हैं।
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जिस तरह लोग सिनेमाघरों में अपने मोबाइल फ़ोन लेकर जाते हैं, उससे सिनेमा देखने का सामूहिक अनुभव लगातार दुर्बल होता जा रहा है, खण्डित निजी दुनियाओं से सिनेमाई दुनिया भी खंखरी और झिरझिरी हो रही है। दूसरी तरफ, अगर हम संगीत को एक किताब की तरह पलट सकते हैं, उसे देह के विस्तार की तरह सुन सकते हैं, तो हम उसी तरह सिनेमा को भी पलट सकते हैं। पहले डीवीडी, और अब लैपटॉप के कारण सिनेमा दर्शकों के एकदम निजी दायरे के भीतर आ गया है। सिनेक्रिचर (सिनेमा को लिखना) के कारण फ़िल्मकार को सिनेमा के लेखक की तरह देखा जाना सम्भव हो गया है, यही समय है कि दर्शक भी फ़िल्म देखने के अपने अनुभव को पूरी तरह नियन्त्रित कर सकता हो। ऐसे समय में जब कुछ लैपटॉप्स को ‘नोटबुक’ कहा जाने लगा है, लैपटॉप पर फ़िल्म देखने की इस आदत को, फ़िल्मकार को गम्भीरता से लेना ही होगा। अगर ऐसा हो, तो फ़िल्मकार अपनी फ़िल्म की लम्बाई, सूचनाओं की प्रगाढ़ता (या विरलता), संरचना समेत कई चीज़ों की चिन्ता करना छोड़ सकता है। वह अपनी रचना में अपनी मर्जी से लौटकर इन चीज़ों को ठीक कर सकता है। सिनेमा जिसे कि समय की कला कहा जाता है, अब ठीक उसी तरह समय से नहीं जुड़ा रह गया। सिनेमाई छवि के भीतर तो स्पेस भी एक ‘नैविगेबल’ जगह बन गया है, अब उसमें हाइपरलिंक्स और फुटनोट्स भी लगाये जा सकते हैं। असल में, अब फ़िल्मकार के लिए एक अनन्त, अक्षय, असमाप्त सिनेमा बनाने की सम्भावना पहले से कई गुना बढ़ गयी है।
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अगर सारे औज़ार दे दिये जाएँ, तो क्या एक फ़िल्मकार, किसी पारम्परिक शिल्पकार की तरह अपने शिल्पों की निर्मिति और वितरण कर सकता है? क्या किसी के भीतर एक पारम्परिक शिल्पकार की तरह जीवन गुज़ारने की तलब भी उठती होगी, कि वह बेशुमार दौलत और शोहरत की कर्कशताओं को छोड़कर एक गुमनाम मध्यवर्गीय जीवन गुज़ार सके और सत्य के पक्ष में काम कर सके? भारतीय दार्शनिक परम्पराओं में सारी कलाओं, बल्कि यह कहना चाहिए कि आजीविका के सारे तरीकों, का लक्ष्य जीवन में चार चीज़ों की प्राप्ति है- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। और वह भी बिल्कुल इसी क्रम में। एक साधारण गृहस्थ के रूप में जीते हुए भी इसे पाया जा सकता है, लेकिन इन्हें पा लेना एक असाधारण काम होता है, खासकर एक कलाकार के लिए। गृहस्थ जितनी निजता के साथ रह लेता है, क्या उतनी निजता के साथ रहना किसी फ़िल्मकार के लिए सम्भव है?
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असली सफलता व समृद्धि का विचार दरअसल एक कठिन चुनौती है क्योंकि सफलता का अर्थ व्यापक पहचान प्राप्त करने से भी हो सकता है और सिद्धि प्राप्त करने से भी। यह फ़िल्मकार के लिए एक बड़ी चुनौती भी है क्योंकि सफलता महज आजीविका व भरण-पोषण ही नहीं होती, और न ही वह इसका अतिरेक है। क्या एक फ़िल्मकार उन चीज़ों के प्रति पर्याप्त सन्वेदनशील है, जो बिना किसी प्रयास के भी समृद्ध बना देती हैं? क्या फ़िल्मकार सफलता के एक नये विचार की तरफ जा सकता है? क्या फ़िल्मकार इन सर्वसुलभ तत्वों से अपनी प्रेरणा ले सकता है : धरती, पानी, हवा, आग, आकाश। या फ़िल्मकार की मंशा चीज़ों को कुछ और बनाने की है? आपके हाथ में जो सम्पदा है, वह किस किस्म की है, क्या आपको इस बात की पर्याप्त जानकारी है? हमारी परम्परा ने सम्पदा को अधिक महत्व दिया है, न कि धन को। धन का अर्थ सिर्फ़ पैसा ही नहीं होता, बल्कि विद्या-धन और कला-धन भी धन ही हैं। अगर सम्पदा की आकांक्षा है, तो उसे उसकी अप्रत्यक्ष विविधता और गरिमा के साथ देखा जाना चाहिए। एक बार एक जापानी टी-मास्टर ने पतझड़ की शुरुआत में अपने एक शिष्य से चेरी का बगीचा साफ़ करने के लिए कहा। शिष्य ने पूरा दिन बगीचा साफ़ किया और अपने गर्व को सावधानी से छिपाते हुए गुरु को बगीचा दिखाया। गुरु ने नकार में सिर हिला दिया और चला गया। हैरान और दुखी शिष्य ने दोगुनी ऊर्जा के साथ फिर से मेहनत की, पेड़ के तनों की धूल भी पोंछ दी, यहाँ तक कि पेड़ पर लगे फलों को भी पोंछकर साफ कर दिया। गुरु ने फिर से नकार में सिर हिलाया और चले गये। शिष्य निराश हो गया। पेड़ से हर पल पत्तियाँ गिर रही थीं और अब वह उन्हें दौड़-दौड़कर पकड़ रहा था, ज़मीन पर गिरने से पहले ही। उसने एक बार फिर गुरु को बुलाया, इस उम्मीद के साथ कि उस समय हवा ठहरी हुई होगी ताकि और पत्तियाँ न गिरें। इस बार गुरु चुपचाप पेड़ के पास गये और उन्होंने धीरे-से उसके तने को हिलाया। कई सारी पीली पत्तियाँ पेड़ से गिर गयीं। हवा ने उन पत्तियों को पूरे बगीचे में फैला दिया। गुरु ने कहा, अब बगीचा साफ़ हो गया है।
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अभिनय का हर आयाम ‘औचित्य’ के सिद्धान्त से संचालित होना चाहिए। औचित्य, सन्दर्भों की एक लगाम है जो अभिनय के हर तत्व के अनुपात और स्थिति को तय करती है। कोई भी तत्व यदि रस के अनुपात को कम-ज्यादा करता है, या फूहड़ता या अति-भावुकता पैदा करता है, तो उसे औचित्य के सिद्धान्त द्वारा रोका जा सकता है। अगर अभिनेता दृश्य और उसकी माँग के प्रति सतर्क है, तो उसकी निजी कमियों को भी फायदों की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। लेकिन एक मेधावी अभिनेता भी अगर लापरवाह है, औचित्य की उपेक्षा करता है, तो उसकी निजी प्रतिभा व श्रेष्ठता भी किसी काम की नहीं रहेगी। कोई भी अभिनय जो औचित्य की सीमा को लाँघ जाता है, एक ‘आभासता’ में बदल जाएगा और ऐसा अभिनय, अभिनय की नकल-मात्र होगा। सौन्दर्यवादी आचार्य भामह के अनुसार, अनौचित्य, लोकविरोध है। वह संसार और प्रकृति के विरुद्ध है। इसीलिए कलात्मक व सौन्दर्यशास्त्रीय चयन न केवल एक रचनात्मक निर्णय है, बल्कि एक नैतिक निर्णय भी।
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अभिनेता को हमेशा निर्देशक से एक कदम आगे होना चाहिए, उसे बारीकियों को अधिक ध्यान से देखना चाहिए और प्रकृति व अपने परिवेश के प्रति अधिक सन्वेदनशील होना चाहिए। बर्गमान और मिजोगुची जैसे फ़िल्मकार एक तरह से फ़िल्म को अभिनेताओं के हवाले हो जाने देते थे। वे अभिनेताओं को एक खास स्थिति में झोंक देते थे और फिर प्रतीक्षा करते थे कि वे अपने सर्वश्रेष्ठ और गरिमापूर्ण समाधानों के साथ निकलकर आएँगे। इस तरह से उन्होंने महान फ़िल्में बनाईं। मॉडल की तरह इस्तेमाल किये जाने के बाद ब्रेसाँ के अभिनेताओं ने कई बार उदासी और अवसाद की शिकायतें की हैं। जबकि पासोलिनी के अभिनेता परदे पर दिखने वाले अपने व्यक्तित्व से ज्यादातर अप्रभावित ही रहते थे। सिनेमा की अपनी समझ के कारण कुछ अभिनेताओं ने निर्देशन शुरू कर दिया था- चार्ली चौपलिन, ऑरसन वेल्स (वी आई पुदोवकिन ने तो आदत बना ली थी कि वह अपनी हर फ़िल्म में अभिनेता की तरह दिख जाते थे), इस तरह के कई नाम याद आते हैं। इन उदाहरणों से विविधताओं से भरी उन आध्यात्मिक सम्भावनाओं को ही बल मिलता है, जो एक प्रक्षेपित छवि की तरह सिनेमा में प्रविष्ट होने के बाद एक अभिनेता को महसूस होती हैं। दूसरी तरफ, पीटर सेलर्स जैसा अभिनेता भी है जिसने कहा था कि अभिनेता बनने के लिए मैंने अपने ‘आत्म’ को एक ऑपरेशन के जरिए निकालकर बाहर कर दिया।
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छात्र जीवन की अपनी शुरुआती लघु फ़िल्में बनाने के दौरान, अपने आप में फ़िल्म माध्यम की एकलता को मैं अनुभूत करना चाहता था और उसे साहित्य और पेंटिंग जैसी पारम्परिक कलाओं, जिनसे मैं बहुत प्रेरित होता था, के सौन्दर्यशास्त्र से मुक्त करना चाहता था। नतीजतन, वे शुरुआती दृश्य-योजना या मीज-ऑन-सेन बन गये, जिसमें अपरिष्कृत प्रकाश-प्रभावों और उन चाक्षुष सन्वेदनाओं का प्रयोग किया गया जो केवल कैमरे की आँख से ही सम्भव हैं। स्मृति और गझिन मोंटाज की प्रधानता के बाद भी, मैं चाहता था कि उन फ़िल्मों में कथाख्यान के गुण बचे रहें। तवज्जो और चयन की स्वतन्त्रता के बीच, अवचेतन और बुद्धि के बीच, कथा और विमर्श के बीच एक सन्तुलन पाने का विचार था।
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अपने फॉर्म के पीछे पूरब व फ़ारस के मिनिएचर कलाकारों का विचार यह था कि मनुष्य की दृष्टि की सीमाओं के कारण हुए विरूपण को समाप्त कर दें और दुनिया को उस तरह चित्रित करें जैसा कि पवित्र ईश्वरीय आँख देखती होगी। भारतीय मिनिएचर कलाकार ने भी ऐसा ही फॉर्म विकसित किया था जहाँ बाहरी दुनिया का एक खास किस्म का निष्ठावान सत्याभास उसकी चिन्ताओं के दायरे में सबसे कम था, लेकिन जिस सिद्धान्त से वह सबसे ज़्यादा संचालित होता था, वह ‘चाक्षुष्ाी सत्याभास से बचना’ नहीं था, बल्कि फॉर्म या रूप की आत्मा का चित्र खींचना था। उसकी परम्परा में कलात्मक औचित्य विस्तृत होकर अनुपातों या दृश्य-संयोजना तक पहुँच जाता था। तो, किसी भी वस्तु को दिखाते समय, मानवीय आँख के कथित विरूपणों को निकाल दिया जाता था और वस्तुओं को उनके असली ज्यामितीय स्वरूप में प्रस्तुत किया जाता था। एक ऐसी आँख जिसे इसकी आदत नहीं है, उसे विरूपण का यह अभाव एक विरूपण जैसा ही नजर आता था। तो इसमें स्वरूप या पर्सपेक्टिव, उस अवकाश के भीतर, दर्शक के लिए पहले से परिभाषित नहीं होता था, दृश्य में गहराई को उत्पन्न करने के लिए उसे अपनी कल्पनाशीलता का प्रयोग करना होता था। अपने शुद्ध रूप में मिनिएचर एक स्थिति को दिखाता है, बजाय किसी एक क्षण को दिखाने के। इससे वे ज़्यादा पारदर्शी हो जाते हैं। इसी तरह, मोंटाज की अपरिष्कृत सूचनाओं से मीज-ऑन-सेन का सच बनता है। उसे दर्शक को प्रदान किया जाता है और उससे उम्मीद की जाती है कि वह अपने मन में ही उसका सम्पादन कर ले यानी देखने की प्रक्रिया के दौरान अवकाश और समय का जो विरूपण होता है, फ़िल्म की छवि में उसकी कोई भौतिक क्षतिपूर्ति नहीं की जाती, बल्कि दर्शक की कल्पना के अनुसार उसे मानसिक स्तर पर घटित होने के लिए छोड़ दिया जाता है।
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मिनिएचर में कथा बयान करने की एक असाधारण परम्परा है। अलग-अलग जगहों और समयों में घटने वाली घटनाओं को एक ही पेंटिंग में प्रस्तुत किया जाता है। दर्शक की आँख के लिए महज कुछ ही संकेत छोड़े जाते हैं जिनसे कि वह अपनी नज़र को क्रम से दौड़ाते हुए पेंटिंग को देख सके। हो सकता है कि निगाहों का एक पूरा जाल हो या रंग योजना ऐसी रखी जाए या आकृतियों के आकार अलग-अलग हों, जिनसे कि समय और अवकाश, उनकी अवस्थिति और महत्ता का पता चल सके। इसी तरह, लाँग टेक में भी समय और अवकाश को एक साथ व्यवस्थित किया जाता है और एक अबाध नैरन्तर्य में एक-दूसरे से बदल दिया जाता है, इस खास शैली में कि दिमाग, जिसे पहले से ही यथार्थ के खण्डित विरूपण को देखने की आदत पड़ी हुई है, उसे तुरन्त समझ नहीं पाता है। वह अपना ध्यान किस दिशा में ले जाए, इसके लिए उसे समय लगता है। उसके बाद वह स्क्रीन पर दिखने वाले विभिन्न तत्वों के बीच एक काल्पनिक सम्बन्ध बनाने लगता है। इस तरह समझने में लगने वाला समय स्थगित होता है, विस्तृत होता जाता है, दर्शक को इससे समय मिलता है कि वह समय के उस खण्ड के बीच कहानी को अपनी तरह से बुन ले।
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जब बर्गमान या ब्रेसाँ अपने अतिशय एक-केंद्रीय आख्यानों के लिए अत्यन्त क्लोजअप का प्रयोग करते हैं, स्क्रीन पर समय का इतना अधिक विस्तार कर देते हैं कि वह लैंडस्केप की तरह नजर आने लगती है, जिस पर उभार, छाया और हल्की गतिविधियाँ फ्रेम के प्रमुख सौन्दर्य बन जाते हैं। देखना जैसे ही रुकता है, सोचना शुरू हो जाता है।
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लांग टेक को उसकी लम्बाई से नहीं मापना चाहिए, बल्कि ‘शामिल की गयी-छोड़ी गयी जगहों’ को किस तरह उसमें समायोजित किया गया है, उसकी गुणवत्ता से मापना चाहिए। ये ‘शामिल की गयी-छोड़ी गयी जगहें’ दिख रही तस्वीर के परदे के पीछे होती हैं। हिन्दुस्तानी संगीत में आलाप की बारीकियों की व्याख्या करते हुए मणि कौल लिखते हैं-
‘दृश्य-रहित प्रस्तुति के इस पूरे फॉर्म में, समय का एक खण्ड या पौने खण्ड में ऐसा कोई संरचनात्मक पैमाना नहीं होता, जिसका पालन किया जाए। ना ही समय के एक नियत काल में, संगीत, अपने विस्तारण के मामले में, अनन्त की लालसा नहीं करता। इसके उलट, अनुपस्थिति स्पेस के वास्तविक अनुभव की तरह महसूस होती है और ऐसे अनुभव का उद्देश्य चित्त के एक चरम गुण को उजागर करना होता है।’
किसी टेक की लम्बाई के लिए भी यही बात सच है। शॉट को कहीं न कहीं खत्म होना है और अगले को शुरू होना है। लेकिन इससे वर्तमान शॉट की निजी गुणवत्ता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
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फ़िल्म में लिए गये ओजू के पॉज, उनके विलम्बित शॉट, उन्हें सिनेमा के उन आदर्शों के बहुत करीब खड़ा कर देते हैं, जो चिन्तन के लिए छोड़ी जगहों के कारण बनते हैं। तब यह माध्यम पारदर्शी होने लगता है, तब वह चित्त और ध्यान को प्रस्तुत-चित्रित चीज़ों से दूर ले जाता है, और आत्मपरकता से एक-केन्द्रीयता की तरफ भी, और ध्यान को मोड़कर अपने शुद्ध रूप में स्थित माध्यम की तरफ भी ले आता है। तब उस अनासक्त, निस्वार्थ अवस्था में सौन्दर्य का अनुभव सम्भव है।
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क्या मैं सिनेमा को एक विशुद्ध विचार मानते हुए बात कर सकता हूँ, जहाँ आप सिनेमा की छवियों को विचार में अनुवाद नहीं करते, बल्कि उसे विचार की तरह ही बनाते हैं। शब्द किताब से बाहर निकलकर आ रहे हैं और दीवार पर परछाईं में तब्दील हो जा रहे हैं। हर कोई सबकुछ जानता है, कुछ भी नष्ट नहीं होता, बस रूप बदल लेता है, खुद को री-साइकल कर लेता है। तस्वीर, विचार, कहानी ये सब दर्शक के मन में पहले से हैं, मुझे सिर्फ़ उन्हें जगाना है। मुझे, आपको, हमको क्या करना है, बस अचेतन पर विश्वास करना है। मैं चेतना पर विश्वास नहीं करता, वह अचेतन पर कुछ ज्यादा ही निर्भर करती है। हममें से हर किसी के अचेतन में प्रतीक होते है। सबकुछ आपके मन के भीतर है। मैं कोई चीज़ सृजित नहीं कर रहा, बस, खोज के निकाल रहा हूँ।
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भारत में कई जनजातियाँ अपने मकानों पर रहस्यमयी तस्वीरें बनाती हैं और रिवाज के अनुसार, चित्रकार को उस दीवार के पास सोना पड़ता है जिस पर वह चित्र बना रहा है। उसे कौन-से चिह्न बनाने हैं, कौन-से तत्व रखने हैं, दृश्य-संयोजन कैसे करना है- यह सब उसे अपने सपनों से प्राप्त करना होता है। मैंने खुद से पूछा- क्या मैं खुद के लिए ऐसे किसी रिवाज को सोच सकता हूँ?
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जनपदीय विषय हैं क्या और जनपदीय सिनेमा से हमारा क्या सरोकार है? जैसे कि वासुदेव जी (वासुदेव शरण अग्रवाल) कहते हैं- जनपदीय अध्ययन को विकसित करने के तीन मुख्य द्वार हैं :
पहला. भूमि और भूमि से सम्बन्धित वस्तुओं का अध्ययन
दूसरा. भूमि पर बसने वाले जन का अध्ययन
तीसरा. जन की संस्कृति या जीवन का अध्ययन
सिनेमा में काम करने वालों को अपनी धरती के जीवन-प्रवाह से जुड़ना अतिआवश्यक है।
वासुदेवशरण जी एक सुन्दर उदाहरण देते हैं :
‘मिट्टी, पानी और हवाओं का अध्ययन, भूमि-सम्बन्धी अध्ययन का विशेष अंग है। जलाशय, मेघ और वृष्टि सम्बन्धी कितना अधिक ज्ञान जनपदीय अध्ययन से प्राप्त किया जा सकता है। हमारे आकाश में समय-समय पर जो मेघ छा जाते हैं, उनके बिजोने, घोरने और बरसने का जो अनन्त सौन्दर्य है और बहुविध प्रकार हैं उनके सम्बन्ध में उपयुक्त शब्दावली का संग्रह और प्रकाशन हमारे कण्ठ को वाणी देने के लिए आवश्यक है। ऋतुसंहार लिखने वाले कवि के देश में आज ऋतुओं का वर्णन करने के लिए शब्दों का टोटा हो, यह तो विडम्बना ही है।
ऋतु-ऋतु में बहने वाली हवाओं के नाम और उनके प्रशान्त और प्रचण्ड रूपों की व्याख्या जनपदीय जीवन का अत्यन्त मनोहर पक्ष है।
- फागुन मास में चलने वाला फगुनहटा अपने हड़कम्पी शीत से मनुष्यों में कम्पकम्पी उत्पन्न करता हुआ पेड़ों को झोर डालता है और सारे पत्तों का ढेर पृथ्वी पर आ पड़ता है।
- दक्षिण से चलने वाली दखिनिहा वायु, न बहुत गर्म न बहुत ठण्डी, भारतीय ऋतु चक्र की एक निजी विशेषता है।
- वैशाख से आधे जेठ तक चलने वाली पच्छिवाँ या पछुआ अपने समय से आती है और फूहड़ स्त्रियों के आँगन का कूड़ा-करकट बटोर ले जाती है।
- आधे जेठ से पुरवैया हमारे आकाश को छा लेती है, जिसके विषय में कहा जाता है-
‘भुइयाँ लोट चलै पुरवाई, तब जानहु बरखा ऋतु आई।’
भूमि से लोटती हुई, धूल उड़ाती हुई यह तेज वायु सबको हिला डालती है। किन्तु यही पुरवाई यदि चैत के महीने में चलती है तो आम ‘लसिया’ जाता है और बौर नष्ट हो जाता है, लेकिन चैत कि पुरवाई महुए के लिए वरदान है। महुए और आम के अभिन्न सखा जानपदजन के जीवन में पुरवइया का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है। जनपद वधुएँ इसके स्वागत में गाती हैं-
तनिक चलो हे पुरवा बहिन, हमें मेह की चाह लग रही है,
चय नेक चलो परवा भाण मेहारी म्हारे लगर ही चाय।
इसी प्रकार पानी को लाने वाली शूकरी हवा है जो उत्तर की ओर से चलती है और जिसके लिए राजस्थानी लोकगीतों में स्वागत का गान गाया गया है।
सूरया, उड़ी बादली ल्या गीरे
(हे सूरया, उड़ना और बादली लाना) अथवा
रीती मति आए, पाणी भर लाए तों सूरया के संग आवे बदली।
(हे बदली, रीती मत आना, सूरया के संग आना।)
हमारे आकाश की सबसे प्रचण्ड वायु हउहरा (संस्कृत में- हविधारक) है जो ठेठ गर्मी में दक्खिन-पच्छिम के नैऋत्य कोण से जेठ मास में चलती है। यह रेगिस्तानी हवा प्रचण्ड लू के रूप में तीन दिन तक बहती रहती है, जिसकी लपटों से चिड़िया, चील तक झुलसकर गिर पड़ती हैं।
अब जरा सोचिए, क्या यह सब जानकारी हमारे छात्रों को मिलती है? यह सब सिनेमा के कितने नजदीक जान पड़ता है। हवाओं के नाम, उनका स्वभाव, गानों व मुहावरों के माध्यम से यह ज्ञान एक से दूसरी पीढ़ी तक जाता रहता है।
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जब हम ‘जनपद’ के सम्बन्ध में सिनेमा की बात करते हैं, तो हम कल्पना को दरकिनार नहीं करते, बल्कि यह मानते हैं कि कल्पना से ही यह ज्ञान सार्थक होगा। इस जनपदीय ज्ञान को छात्र अपनी फ़िल्मों की कहानियों, गीतों, नृत्य आदि में शामिल कर सकते हैं। आज कितने ऐसे छात्र होंगे, जो इस तरह की जानकारियों के साथ फ़िल्म-स्कूल से बाहर निकलते होंगे? कितनों को हमारे देश में चलने वाली तरह-तरह की हवाओं के नाम पता होंगे? अगर इस तरह के गुण उनके सिनेमा में आ जाएँ, तो उनका सिनेमा सचमुच जनपदीय व विलक्षण होगा।
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वासुदेव जी के अनुसार पशु-पक्षियों और वनस्पतियों का अध्ययन भी जनपदीय अध्ययन का एक विशेष अंग है। अनेक प्रकार की घास, लता और वनस्पतियों से हमारे जंगल भरे हुए हैं। कहते हैं कि भगवान की रचना में साढ़े तीन दल होते हैं।
1 चींटी दल
2 टीढ़ी दल
3 चिड़ी दल
आधे दल में पह और मानस हैं।
पशु-पक्षियों, आस-पास उगने वाले फल फूलों का अध्ययन जनपदीय कामों में आएगा। जनपदीय अध्ययन का अत्यन्त रोचक विषय मनुष्य स्वयं है। उसके विषय में जहाँ जितनी जानकारी प्राप्त कर सकें, करनी चाहिए।
रहन-सहन, रीति-रिवाज इत्यादि का ज्ञान एक जागृत फ़िल्मकार के पास होना आवश्यक है। इस सबका लेखा-जोखा बनाकर फ़िल्म-स्कूल का पाठ्यक्रम तैयार किया जा सकता है। शोधार्थी इन सब विषयों का विधि से गहन अध्ययन करके अपना विषय-वस्तु निर्धारित कर सकेगा। वैसे इस पाठ्यक्रम की रूपरेखा वासुदेव जी की इसी पुस्तक के निबन्ध ‘जनपदीय कार्यक्रम’ में प्रकाशित ‘जनपद कल्याणी योजना’ से मिल सकती है :
वर्ष 1. साहित्य, कविता, लोकगीत, कहानी आदि जनपदीय साहित्य के विविध अंगों की खोज और संग्रह वैज्ञानिक पद्धति से उनका सम्पादन और प्रकाशन (अभिलेखन)। भाषा-विज्ञान की दृष्टि से जनपदीय भाषा का साँगोपाँग अध्ययन अर्थात उच्चारण या ध्वनि-विज्ञान, शब्दकोष, प्रत्यय, धातु-पाठ, मुहावरे, कहावत और नाना प्रकार के पारिभाषिक शब्दों का संग्रह और आवश्यकतानुसार सचित्र सम्पादन, अभिलेखन।
वर्ष 2. स्थानीय भूगोल, स्थानों के नाम की व्युत्पत्ति और इनका इतिहास, स्थानीय पुरातत्व, इतिहास और शिल्प का अध्ययन। पृथ्वी के भौतिक पदार्थों का समग्र परिचय प्राप्त करना अर्थात वृक्ष, वनस्पति, मिट्टी, पत्थर, खनिज, पशु, पक्षी, धान्य, कृषि, उद्योग-धन्धों का अध्ययन।
वर्ष 3. जनपद के निवासी जनों का सम्पूर्ण परिचय अर्थात मनुष्यों की जातियाँ, लोक का रहन-सहन, धर्म, विश्वास, रीति-रिवाज, नृत्य-गीत, आमोद-प्रमोद, पर्व, उत्सव, मेले, खान-पान, स्वभाव के गुण-दोष, चरित्र की विशेषताएँ। इन सबकी बारीक़ छानबीन और पूरी जानकारी प्राप्त करके ग्रन्थ रूप, फ़िल्मों में प्रस्तुत करना।
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जनपदीय ज्ञान को सिनेमा के अन्य तकनीकी पढ़ाई के साथ सम्मिलित करना होगा। छात्र साल-भर में जो भी अभ्यास-फ़िल्में बनाएँ, उनके लिए इन विषयों को ध्यान में रखकर अपनी पटकथा लिख सकता है। वर्ष के अन्त में जो एक फ़िल्म बनानी होगी, उसके लिए उसे पूरी स्वतन्त्रता हो। पर मुझे पूरा विश्वास है कि साल-भर के गहन अध्ययन का उसके जीवन और फ़िल्मों के स्वभाव पर भी गहरा असर पड़ेगा। इस एक प्रक्रिया से फ़िल्म-स्कूल के पास कुछ ही वर्षों में प्रचुर व अनमोल जनपदीय सामग्री संग्रहीत हो जाएगी। बड़े करीने से, लिखित सामग्री के साथ, इन फ़िल्मों का उचित वितरण करना होगा। आने वाली पीढ़ियों के लिए यह बेहद उपयोगी सिद्ध होंगी। सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि यह शिक्षा छात्र-फ़िल्मकार को भारतीय समाज की मुख्य धारा से जोड़ देगी। उसके पास इस सम्बन्ध में एक विस्तृत सैद्धान्तिक ढाँचा होगा, वह कला फ़िल्मों के अलावा टीवी पर रोज़ आने वाले धारावाहिक, मनोरंजक फ़िल्में, पत्रकारिता से लेकर अध्यापन या फिर उच्च शिक्षा के लिए- इनमें से कहीं भी इसका प्रयोग कर सकता है। हम जानते हैं कि रेणु जैसे लेखकों ने भी फ़िल्मों की पटकथाएँ लिखी हैं। मुख्य धारा में ऐसे लोगों के समावेश से भारतीय समाज का आन्तरिक सुधार होगा।
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पेंटिंग :
जैसा कि एलिस बोनर सरीखे कई विद्वानों ने ध्यान भी दिलाया है, पहाड़ी मिनिएचर अनजाने ही सदियों पुरानी कला-परम्पराओं के निशानों को अपने भीतर लेकर चलते हैं। सूक्ष्म दृष्टि या खुले दिल से देखा जाए, चित्रित पटल परत-दर-परत खुद को खोलते हुए चलता है- सन्दर्भ, इतिहास, रूप-चैतन्यता और सम्बन्धों की परत। लेकिन यह सब कुछ एक स्थिर, सीमित ‘पटल’ के भीतर है। एलिस बोनर इसे ‘आकाश-खण्ड’ या ‘मापदण्ड’ जैसे शब्द देती हैं। लेकिन स्थिर पटल ‘काल-खण्ड’ या ‘गति’ के सह-अस्तित्व में भी है। वे गतिशील रेखाएँ, उनकी क्रियाएँ और उनमें बनने वाला सम्बन्ध स्पेस या आकाश में नहीं, समय में बनता है। इसमें वह समय भी शामिल है, जो एक दर्शक, चित्रित पटल को देखकर आत्मसात करने में लगाता है। जब उसका ध्यान हटता है और वह प्रतीकों और उनसे जुड़े सिद्धान्तों से गुजरते हुए अन्त में पेंटिंग के ‘सार’ तक पहुँचता है, इन सबमें जो समय लगता है, वह भी उसमें शामिल है। जितनी बार उस चित्र को देखा जाए, जितनी बार समय में यात्रा की जाए, उतनी बार पेंटिंग का वह ‘सार’ बदल सकता है। यह सौन्दर्यात्मक ‘सार’- जो कि ‘रस’ है, दरअसल आकाश के बजाय समय की कीमियाई उत्पत्ति है- उस समय जब दोनों तत्वों का सही एकीकरण होता है।
उदाहरण : ‘बाघ का वध करते बलवन्त सिंह’ शीर्षक पेंटिंग में पहली नज़र में जो भाव उत्पन्न होता है, वह नायकत्व का है। राजा की तलवार सिर से ऊपर उठी हुई है, वह बाघ के सिर पर प्रहार करने वाला है। बाघ के जबड़ों में एक आदमी का सिर है और उसने अपने पंजों से उसे जकड़ रखा है। डरे हुए लोगों का एक समूह उस खूँखार जानवर से एक सुरक्षित दूरी बनाकर हाथ उठाये हुए खड़ा है। दृश्य की नाटकीयता प्रत्यक्ष अनुभूत होती है और दृश्य के सहभागी का नाम वहाँ लिखा हुआ है, जिससे इसकी तात्कालिता बढ़ जाती है और ऐतिहासिक प्रामाणिकता का भी बोध होने लगता है। अगर इसके बारे में दर्शक को एक नयी सूचना दे दी जाए, यह पेंटिंग ज़रूरी नहीं कि वही दिखाये, जो वह दिखाना चाहती है। समझिए, एक कला-इतिहासकार जिसे यह पता है कि इस पेंटिंग से काफ़ी पहले, शहजादा खुर्रम की ऐसी ही एक पेंटिंग बन चुकी थी जिसमें वह बाघ का वध कर रहा है (उसमें जहाँगीर और अन्य दरबारी भी खड़े हैं और जो कि ‘बादशाहनामा’ में वर्णित एक असली घटना पर आधारित है), उस कला-इतिहासकार को यह पेंटिंग बलवन्त की ज़िंदगी का एक दूसरा ही पहलू दिखा देगी और इस तरह चित्रकार ने नायकत्व का जो भाव दिखाना चाहा था, उसमें एक अलग ही स्वाद व रंग आ जाएगा। चित्रकार जो कि मुगल पेंटिंग से बहुत प्रभावित रहा हो, हो सकता है कि उसने यह चित्र अपने संरक्षक राजा को खुश करने के लिए बना दिया हो और जंगल का यह पूरा दृश्य चित्रकार के कौशल को दिखा रहा हो कि वह किस तरह कल्पना को इतनी गतिशीलता के साथ यथार्थ बना सकता हो। एक उदाहरण-योग्य घटना के किंवदन्ती में बदल जाने, उसके एक प्रारूप या साँचा बन जाने और अन्ततः एक प्रतीकात्मक महत्व पा लेने की मिसालें पारम्परिक कला में कोई नयी बात नहीं है, जहाँ आधारभूत पद्धति की समझ विकसित कर, उस विधा के भीतर उन्मुक्त ‘इम्प्रोवाजेशन’ करना ही कलाकार का परम मूल्य बन जाता है। इस तरह इस पेंटिंग के भीतर समय न केवल एक खिलवाड़ बन जाता है, बल्कि दर्शक के ‘रस’ पर भी दुष्प्रभाव डालता है।
शतरंज :
शतरंज भी एक ऐसा खेल है, जिसका ‘विकास’ समय के भीतर ही होता है। समय के साथ जैसे मोहरे चलते हैं, वह एक स्थिर बोर्ड पर दिखता है। लेकिन एक स्थिर अवस्था, स्थिरता के सिवाय कुछ भी हो सकती है। जब एक खिलाड़ी अपने मोहरों को आगे-पीछे कर रहा होता है, तब वह पटल पर उसके सम्भावित नतीजों को भी देख रहा होता है। मेज़ पर लगी हुई घड़ी पलों के हिसाब से खेल को क्षैतिक रूप से बाँध रही होती है, तो खिलाड़ी का दिमाग समय को ‘वर्टिकली’ या ऊर्ध्व रेखीय तरीके से खोल रहा होता है, दो चालों के बीच कई सारी सम्भावनाओं को उठाते-बिठाते, स्मृति से चुनते हुए, भविष्य पर धावा बोलते हुए। शतरंज का नैरेटिव सतत परिवर्तनशील है, हर चाल सम्भावनाओं की बहुलता के सामने एक अभिव्यक्ति है, और वे सम्भावनाएँ आने वाली चालों में भी स्थानान्तरित होती रहती हैं। शतरंज का एक पूरा हो चुका खेल ‘गति के भीतर की स्थिरता और स्थिरता के भीतर की गति’ का मूर्त रूप है, पूरी हो चुकी एक पेंटिंग की तरह। शतरंज में कई बार वह स्थिति आ जाती है कि खेल कभी समाप्त होता नहीं दिखता, उसे उसी तरह खुला छोड़ देना होता है, या तो अनन्त तक वह वैसा ही चलता रहे, या फिर खुद को दोहराता रहे।
उदाहरण : आनन्द और कार्जाकिन का गेम या बॉटविन्निक और कापाब्लांका बीए 3 मूव गेम। अन्य दूसरे उदाहरण भी लिए जा सकते हैं।
सिनेमा :
यद्यपि सिनेमा समय में विकसित होता है (संगीत की तरह), यह समय से ‘बना हुआ’ भी है। यहाँ तारकोव्स्की को याद किया जाए, जो सिनेमा को ‘समय के भीतर बनाया गया शिल्प’ कहते थे, जिस कच्चे माल से यह शिल्प बनाया गया, वह भी समय ही है। शतरंज की ही तरह, फ़िल्म का एक दृश्य जो क्षैतिज रेखा में विकसित हो रहा है, ऊर्ध्व रेखा में भी उसी समय विकसित हो रहा है। यह जो ऊर्ध्व समय है, यह ‘सूत्रपात’ का क्षेत्र है, ‘सहृदय’ या ‘रसिक’ का क्षेत्र। उसके भीतर यह क्षमता होती है कि जब भी सामने आए, वह महत्वपूर्ण सम्बन्धों, प्रतीकों और विचारों को अपने भीतर प्रक्रियाधीन करता चले और इन सबको, स्क्रीन पर आने वाले अगले क्षण तक ले जा सके।
समय की यह ऊर्ध्वता, जरूरी नहीं कि समय के क्षैतिज प्रवाह के लिए कोई बाधा या कोई गूढ़ रहस्य बन जाए। बल्कि यह दर्शक की चुनौती और आनन्द को बढ़ा भी सकती है, जो जितनी बार भी उस कृति को देखे, और हर बार पूरी कामयाबी से समय के एक नये संस्पर्श की अपेक्षा करे। आज के सूचना-युग में, शतरंज के सबसे जटिल गेम को भी, चेस-इंजन की मदद से कोई आम आदमी भी समझ सकता है, चेस-इंजन गेम के पैटर्न को बता सकता है, इससे ‘समय के दबाव’ के विचार को समझा जा सकता है। फ़िल्म भी, जो कि समय के भीतर विकसित होती है, ‘सहृदय’ के लिए इसी तरह की चुनौती प्रस्तुत करती है, जो कि अपने अनुभवों के भण्डार का प्रयोग करते हुए विषयों की जटिलता और अमूर्तता का पीछा करता चलता है।
उदाहरण : ‘बाघ का वध करते बलवन्त सिंह’ की सिनेमाई व्याख्या फ़िल्म ‘नैनसुख’ में मिल जाती है।
मोंटाज के जरिए वह पेंटिंग फ़िल्म में प्रस्तुत की गयी है। पेंटिंग के हर तत्व को पुनर्सृजित किया गया है, लेकिन नायकत्व के भाव के ऊपर उस दृश्य के अभिनय या नाटकीकरण को सुपरइंपोज किया गया है। उसमें एक काव्यात्मक स्वतन्त्रता ली गयी है, नायकत्व के भाव को खिलन्दड़ तरह से दिखाया गया है, इस तरह हास्यरस पैदा किया गया है। यह सुपरइंपोज जितना काल्पनिक है उतना ही ऐतिहासिक तथ्य से भरा हुआ भी है। ‘वीर-भाव’ को ‘व्यभिचारी-भाव’ में दिखाया गया है। वह दर्शक, जिसे इसके ऐतिहासिक और कलात्मक सन्दर्भ पता हैं, उसका आनन्द इस दोहरे नाटकीकरण से बढ़ जाता है।
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सवाल - मैं इतने समय से आख़िर किस चीज़ पर काम कर रहा हूँ?
कुछ साल पहले तक, जब तक मैं अपनी नैसर्गिक वृत्ति का अनुसरण कर रहा था, यह सवाल नहीं उठा था, इसे शब्दों में साफ़-साफ़ कहने की ज़रूरत ही नहीं थी। मुझ पर किनके प्रभाव हैं, यह मुझे अच्छे से पता था। मैं उनका अनुकरण करने की कोशिश कर रहा था और इस प्रक्रिया के दौरान अपनी एक विशिष्ट शैली खोज रहा था। ‘ग़लती करो और उससे सीखो’ यही मेरी प्रक्रिया थी। फिर मैंने फ़िल्में बनानी शुरू कीं, या ऐसा कहें कि अपना अभ्यास शुरू किया- ये अभ्यास एक तरह से सिनेमा को लेकर मेरी गम्भीरताओं की जाँच भी थे और मेरी वृत्तियों को व्यावहारिक रूप देने की कोशिश भी। मेरे अनुभव का एक बड़ा हिस्सा उस बहुत सारे सिनेमा से आया था, जो हम नेशनल आर्काइव्ज और फ़िल्म इंस्टीट्यूट के मुख्य थिएटर में देख रहे थे। वही मेरे सहज ज्ञान की भूमि बनी, वह भूमि जहाँ मेरी सिनेमाई धारणाएँ सुविधाजनक रूप से जमा होने लगीं। उस अ-बौद्धिक भूमि से धीरे-धीरे कई सैद्धान्तिक विमर्श निकलकर आये जिन्हें उपेक्षित नहीं किया जा सकता था। मैं लेखकीय ‘मंतव्यों’ के प्रति सचेत हुआ, उस ‘रूप’ के प्रति जो हर ‘आकृति’ के केन्द्र में होता है, उस ‘मूल विचार’ के प्रति जो परिणाम से बहुत पहले अस्तित्व में आ जाता है।
क्या ‘भारतीय फ़िल्म’ नाम की कोई चीज़ हो सकती है? क्या भारतीय सन्दर्भों में फ़िल्म सिद्धान्त का अध्ययन किया जा सकता है? क्या इसकी कोई ज़रूरत है? क्या सिनेमा जैसी किसी आधुनिक कला को भारतीय सन्दर्भों में पढ़े जाने की कोई ज़रूरत है? यहाँ पर यह ‘सन्दर्भ’ शब्द बहुत महत्वपूर्ण है। जब हम फ़िल्म स्कूल में विश्व सिनेमा देख रहे थे, तब फ़िल्म में मौजूद सार्वभौमिक तत्वों और सांस्कृतिक सन्दर्भों के प्रति हमारा रुख बहुत प्रशंसात्मक था। जब हम पलटकर अपने सिनेमा को देखते हैं, तो सोचते हैं कि क्या हम इन सब चीज़ों के बारे में सचेत होकर सोच भी रहे थे। सवाल यह है कि क्या सोचने का एक भारतीय तरीका है, (इसमें दबाव ‘सोचने’ पर है), ए. के. रामानुजन ने अपने इसी शीर्षक से लिखे गए बेहद चर्चित निबन्ध में, परिहासपूर्वक प्रतिप्रश्न किया था कि क्या भारतीय सोचते भी हैं : ‘पश्चिम ही भौतिकवादी है, वह तर्कसंगत है, भारतीयों के पास कोई दर्शन नहीं, सिर्फ़ धर्म है, कोई सकारात्मक विज्ञान नहीं है, यहाँ तक कि मनोविज्ञान भी नहीं भारत में पदार्थ आत्मा के अधीन है, एक तर्कसंगत विचार, अनुभूति व अन्तःज्ञान के अधीन है।’ क्या यह सच है? क्या हमने कभी एक भारतीय रूप की दिशा में काम करने की कोशिश की? क्या यह आत्मसजगता, आत्मविश्लेषी है या पीछे मुड़कर देखने वाली? यह रचनात्मक है या अवनतिवादिता?