20-Jun-2021 12:00 AM
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क्या ऐसे ही मृत्यु
पीली चादर में लिपटा, मैं लेटा हुआ ओसारे पर
घर में शोर बच्चों का
स्त्रियों की गपशप
बड़े-बूढ़े पचास साल पहले घटी घटनाओं के ब्यौरे तलाश रहे
मुझे हल्की हल्की नींद थपक रही
क्या ऐसे ही आएगी मृत्यु
लोगों चीजों के कोलाहल मध्य गिरेगा एक पत्ता पियरा कर?
तथा
जब भी मुझे मौत की याद आती
मसान की याद आती
कच्ची लकड़ी की
मुखाग्नि की
तीन दिन पहले प्यारे दोस्त इफ़्ितख़ार की छोटी बच्ची मरी
तब लगा कि मौत से याद आनी चाहिए कभी कभी क़ब्रिस्तान भी और वह जिन्न भी जो रोती मांओं को कन्ध्ाा देता है।
याद दिलाना
किसी रोज़ कहीं भटकता मिलूँ
या बैठा दिखूँ भिखियारों की पाँत में
और तुम पहचान लो
तो मुझे अपनी याद दिलाना
मुझे ख़ुशी होगी, लज्जा नहीं
समय ही ऐसा है
--पितामह ने कहा था मरने से कुछ रोज़ पहले।
प्रति
जो कुछ प्रकृति में है उसकी एक छायाप्रति कहीं किसी कम्प्यूटर में क़ैद है या फिर हज़ारों कम्प्यूटर में।
जो कुछ मौजूद है उसका पाॅर्न बन चुका है।
शाम का मतलब प्रेम ही नहीं बासी हो चुका अख़बार भी होता है जो ध्ाकेल देता ताबड़तोड़ अपडेट्स में।
मन का खाँचा मशीनों के पास है, मशीनों का खाँचा आकाओं के पास
हर दीवार का पलस्तर उखड़ रहा है, हर शरीर की त्वचा अब शरीर से दूर जा रही मायाबाज़ार में।
ऐसा कहना पड़ रहा कि निरन्तर बजता लाउडस्पीकर कोयल की आवाज़ पर हमला है।
या क्या ऐसे कहूँ
कि बल्ब का फ़्यूज होना
तारे टूटने का विलोम है?
लम्बी है कथा
पहली बार किसी को मन से सौंपी थी देह
पिघलते मेह, तडि़त ही तडि़त!
फिर सबकुछ बह गये
लम्बी है कथा, कम है समय।
चला झंझा, उखड़ीं जड़ें
अब तो देह सौंपती अन्न के लिए
देह को सौंपती देह का अन्न।
जब देह पर ढारती जल का पहला खेप
तो मन भागता है पाकुड़ की ओर
जहाँ एक चिड़ई ताकती बच्चों की राह।
फिर ढ़ारती हूँ, ढ़ारती जाती हूँ
भीगता जाता है एक जीर्ण पत्र
ताक में हवाओं की नोक।
मुझसे छूट गयी मेरी देह
कोई छीन लेना चाहता मेरा स्नान
दिन में नहीं दिन, रात में नहीं रात
लम्बी है कथा, कम है समय।
आ जाओ
तूने मुझे तैरना सिखाया था
हम तैरते थे साथ-साथ
और बीच में चमकता था चाँद
तेरे आँगन में पानी है
मेरे आँगन में भी
आ जाओ, मैं तैरना भूल गया हूँ
आओ एक बार फिर सिखा दो
हम दोनों ने इस बीच बीसवीं सदी पार कर लिया है
आ जाओ, कम से कम एक बार तो मिले
बदला हुआ मैं, बदली हुई तू।
घर छोड़कर जा रहा हूँ
एक घर जहाँ रात को
पंखे के घड़ घड़ में सो सकता था कुत्ते की तरह निर्वस्त्र।
जहाँ विछावन पर खा सकता था
चादर पर गिड़ाते रोटी के टुकड़े।
जहाँ बारिश में बैठ सकता था
दरवाजे पर सिगरेट पीते हुए।
जहाँ रात के तीन बजे पढ सकता था काफ़्का की डायरी
काफ़्का यानी वह बुज़ुर्ग नौजवान जिसकी रगों में दुख का काला शहद बहता था।
एक घर जो मेरे बेढंगेपन को छुपाता था।
मैं एक सूखा पत्ता किसी जिद की तरह तरह चिपका था पेड़ से इस पतझर में।
एक घर जहाँ मूर्खता मूर्खता नहीं थी
वह जीने का एक ढब था ।
मैं जि़न्दा रहना चाहता था जीने की कुछ कम तरकीब जानकर भी।
लेकिन मैं जा रहा हूँ
जैसे एक बदनसीब नौजवान को घर छोड़कर जाना ही पड़ता है।
उजाड़ का गवैया
बिला गये वे सारे कन्द-मूल
जिन्हें मुसहर ब्राम्हणों से बेहतर जानते थे।
लुप्त हो गई कथाएँ
जो स्त्रियाँ पुरुषों को सुनाती थीं।
सोने के वाद्य वाले महन्तों ने छीन लीं जोगियों की सारंगियाँ
ध्ानिकों ने फोड़ डाले मंगतों के भिक्षापात्र।
शीतल पेय संयन्त्रों ने खींच लिया मटके का जल
उपद्रवियों ने छीनी चिता की आग।
बाढ़ में बह गये सारे आँसू
अकाल में भस्म हुआ लोकगीतों का सारा सोना।
‘मैं’ बिकता है और मैं बिकता हूँ
ओह! कौन रचता है मेरा ‘मैं’!
एक अन्ध्ाा गवैया गाता है इस सदी का सारा दुख लिये
नाचता है एक रस्सी पर जिसका नहीं ओर-छोर।
कि़स्सागो रो रहा है
कि़स्सागो रो रहा है
और लोग घेरे हुए कि
अब रुलाई रुकेगी
कि अब कि़स्सा शुरू।
क्यों रो रहा कि़स्सागो?
पाँव में चुभा काँटा
या किरदार फाँसी के फन्दे के पास!
या मृत्यु पास आ रही
और बहुत किस्से शेष?
या जैसा कि एक ने
कहा दो इसे सत्तू
या जो पंछी साथ साथ नहीं करते कलरव
उन्ही के आँसू बह रहे आँख से?
वह कहीं जाना चाह रहा
और साथ नहीं दे रहे पाँव?
या यही रहना चाह रहा मुसलसल
और घिर रहा अकाल!
कहाँ से निकसते आँसू
किसका है यह रोता हृदय
इक्कीसवीं सदी की तमाम खोजों के बावजूद
जानना मुश्किल कि किस्सागो क्यों रो रहा है।