कोई है? और अन्य कविताएँ शिरीष ढोबले
23-Mar-2022 12:00 AM 1993

कोई है ?

पुरखों की सृष्टि के
नभ से झरती राख
से लथपथ केश, देह।
अबोध शिशु जैसी विमूढ़, निर्जल नयनों से
मूक विलाप करती पृथ्वी।
उसकी सूखी, ढली हुई काया की अनदेखी कर उड़ जाते हैं पक्षी देवता।

एक पृथक तल पर
हरा, हरा नहीं
नीला, नीला नहीं कहलाता।
आँखों से फूटती, पसरती भाप में
उपजते इन्द्रधनुष में
राख और माटी के
अनगिनत वर्ण होते हैं,
कर्कश कोलाहल को
और गाढ़ा करते
अपने अपने रेशों से।

कोई है जो सुने?
रहा जब तक

ईश्वरों का आलिंगन,
मैं एक नद जैसा प्रवाहित हुआ।

स्पर्श था जितना,
उनका अंश था जितना
पनिहारिन के घड़े में ठहरा,
नाभि तक आते जल में सूर्य को
अघ्र्य देते खड़े गृहस्थ की देह से लिथड़ा।

अक्षर जैसा
शब्द जैसा
गर्भ में पला
तट के वृक्षों से
जन्मा
झरा
काठ की देह धर
गीले पैरों से नाच किया घाट पर।

पंचक्रोशी में व्याप्त हुआ।

सुमन को सुगन्ध,
दूब को दूब का
रंग दिया
हर पत्ते को प्रेम की भिक्षा दी।

जब तक रहा ईश्वरों की छवि के आवरण में रहा,
जब नहीं रहा
उठता उमड़ता नीला
कोहरा हो कर
उनके घरों का
पहरा किया।

जब मैं लिखूँ वह

अन्धकार के सबसे गाढ़े क्षण में
जब स्वप्न हो अभागा
अभागी सूर्यशप्त दोपहर का
स्वेद से से लथपथ
नयनहीन पथिक का
उसकी झुलसी हुई देह का।
और जब मैं लिखूँ वह
सूर्य शब्द का ताप
क्षीण होता जाए
पल प्रति पल
अकस्मात छाया हो माथे पर
मोगरे की गन्ध हो पथिक की देह पर।
अन्धकार में लिखे शब्द काला वस्त्र ओढ़ लेते हैं।
सूर्य भी,
प्रेम भी और
उसकी आँच भी।
झरे मोगरे की कुम्हलाई पंखुडि़यों का वलय धरा पर
उसकी महीन गन्ध का वलय
आकाशों पर,
ठहरा रहता है
डाल से बिछुड़ा
काल से बिछुड़ा।
अन्धकार में
न सूझता पथ
पथ से अलग न पहचाना जाता पथिक
यदि हो भी कहीं
तब भी लगता है, नहीं है।

निष्कलुष

ऐसे सजा कर
पारिजात की एक डाल को
नीले परदों वाली खिड़की को
छूती हो जो,
जिसके बाहर ठहरी हो गौरैया की
उड़ान और चहक, सुगन्ध जैसे हो उपजती पारिजात की ही।
पके भात को
ईश्वरों की जूठन
बना कर
हाथों की पत्तल सबसे हरे पत्तों
से गढ़ी
ऐसे खाया कि
मद्य जैसे पिया
छक कर।
अपने पिता का स्मरण करते
साँवला मुख सलौना
वही मन्द स्मित,
स्वप्न में देखा
कारागृह के द्वार पर
बन्दियों से मिलने आयी उनकी विधवा महतारियों वाली क़तार में खड़ी साम्राज्ञी
वह आख्मतोवा,
वही जिसने
कई बार प्रेम किया।
मैं यह भी कहना चाहता हूँ कि मैंने
धूल का एक कण भी बैठने नहीं दिया
न नीले परदे पर
न पिता की स्मृति पर
और
न कवियित्री पर।

नायिका

अपने किनारों से
जर्जर पृष्ठों वाली
सरहाने रखी
पर पढ़ी जा चुकी
पोथी की विस्मृत कथा के वाक्यों की
कारा में पड़ी
विस्मृत नायिका

निःसन्तान
निःशक्त गात्र

किसी भी जीवन में
या
किसी भी कथा में
फिर उल्लेख हो सके उसका
इसके लिए उसे तज देना होगा
अपना जन्म
या जीवन
या प्राण
या शरीर

श्वेत वस्त्र पहन कर पधारे ईश्वर
क्षुब्ध और क्रोधित थे
मूल कथा में
व्याकरण के दोषों से
याद आता है उन्हे
इस तपस्विनी को
वरदान दिया था
अजर अमर रहने का
अक्षत सौन्दर्य का

प्रेम था कथा में
करतार था
कर्तव्यों पर खरा
भरतार था
कुनबा था भरा पूरा
गाँव में कुआँ था गहरा
बारामासी सरिता
थी सीमा पर
और रसोई में
राख से मंजे
चमचमाते घड़े थे
ताँबे के
गंगाजल से भरे
झाँकने पर
जिनके भीतर
ईश्वरों के बिम्ब
दीख पड़ते थे

एक कथा से
दूसरी कथा में
चले जाते हैं ईश्वर
और उनके बिम्ब

 

रूपक

किसी और नक्षत्र पर
मैं ही।
विरह के कणों
से सन्तृप्त वायु में
साँस लेता हूँ।

शिराओं में बहता रक्त
धीरे-धीरे गहराता है नीला।

प्रेम के किसी उद्दाम
रूपक से रुष्ट
कविताओं में प्रारब्ध लिखने वाली देवियों की भवें तनती है
वे श्राप देती हैं।

हर कविता अन्तिम साँस और रक्त से लिथड़ी हिचकी से अपनी देह धरती है
हर कविता के अन्तिम छोर से शब्द पलायन करने लगते हैं।

देह नीली पड़ती जाती है
मेरी ही
दोनों नक्षत्रों पर।

 

रूपक 2

ष्ठनज सपाम सवअम
ंतबीमते ंतम इसपदकष्
स्वतबं

धू धू जलता अरण्य
गीले काठ से ज्यों झरता तरल अंगारा
वह अश्रु है बहता ऊष्ण।

आँखों के परदे की ओट में खड़ी
रोहिणी हो साक्षात
क्रुद्ध, कुपित।

शावक की झुलसती
ऐंठती त्वचा
देखते देखते
विलाप करती
कलपती हरिणी।

दृष्टिहीन धनुर्धर को कहा किसी ने, बताया कि वह जन्म से दृष्टिहीन है।
बाघ जैसा स्मित ला सके अपनी
भंगिमा में,
वह हँसा,
प्रेम क्यों पसरा है इतना कि दृष्टि का क्षय हो
उसकी गन्ध से?
यह नक्षत्रों की
गढ़न का खोट है।

मैं तितलियाँ
पकड़ता हूँ इन्द्रधनुष गढ़ने,
मेरे द्वार पर निर्भय खेलते हैं मृगशावक
इसी बेला
किसी वसुन्धरा।


वासवदत्ता

स्वप्न का न
आरम्भ न
मध्य न
अन्त।

उच्श्रृंखल वाक्य
और सम्वाद
अंक भी
मंच पर फिरती हो
दासी की वेशभूषा पहने साम्राज्ञी।

स्वप्नों को वरदान मिला होता है
जागृति पर
अपने विस्मृत हो जाने का।

जीवन वैसा ही
पर अपनी
अनगढ़
बुनाई पर,
अपने खोटे
रंगों पर
सदा लज्जित,
छाया की तरह
दिन भर,
जिसकी स्मृति किंचित रह गयी हो भोर तक मन में
उस अभागे स्वप्न की तरह
साथ साथ चलता है
जीवन भर।

 

मण्डल

शाश्वत निश्चेतना और
निरन्तर स्वप्न की साँझी छाया में पड़ी
कण कण बिखरती
देह का
अन्तिम सुमन,
कण कण गढ़ा
मण्डल।

उसे बीन कर कोई
फेंकता है व्योम की
देहरी पर,
वह देवताओं के सँकरे पथ का अनुसरण करता है
रंग रूप गन्ध्ा गंवाता और
अन्ततः अजन्मा हो कर प्रवेश करता है
अस्खलित महास्वप्न के उस अध्याय में
जहाँ निरुद्देश्य उड़ रहे होते हैं
उध्वस्त मण्डल की रेत के
रंग बिरंगे कण।

 

नर्तकी

वह चलती है
सदा
डूबी हुई हो जल में
काँध्ाों तक
और
प्रवाह के विपरीत
चलती हो जैसे।

इतना तनाव
देह में भर कर चलती है कि किसी भी क्षण
बिखर सकती है
कण कण
विलीन हो सकती है।

उसका दृष्टिक्षेप
आत्मा को चीर देता है
सर से पैर तक
क्रोध्ा से नहीं
स्वभाव से।

सरल रेखाओं का मान
वह तब तक ही रखती है
जब तक उसकी चपल देह की
पिघली ध्ाातु को मुड़ना
न पड़े
एक छोर पर
कटार होने।

एक कठिन मन्त्र
एक तन्त्र
एक रेशमी ध्वजा
एक ऋतु
उसके मंच की पाश्र्वभूमि,
उसकी ऊँची यष्टि से
सदा
आठ अंगुल नीचे।


‘बाघ नख
बूढ़ा अरण्य
हाँफ़ता है
होंठों के किनारे से रिसता है
फेफड़ों में अटे रहस्यों से उभरता
हरा झाग।

शिराओं में
बहते विष से
झुलसी
वेदना से विकृत देह।

जब भी कोई
अश्वारूढ़ योद्धा
या रथी देवता
अपराजित
पार करता है सीमा
शक्ति क्षीण होती है
बाघ के नख टूटते हैं।

पारिजात
तमाल
सूखते है।


‘परमेश्वर’
(येहूदा अमिखाई को समर्पित)

देह पर घाव पड़े थे।
प्रत्येक श्वास का आघात सहते थे।
पीड़ा की लहर मस्तक तक उठती थी।
एक भरता नहीं था।
हर सम्वत्सर पर दूसरा उभरता था।
सूखी त्वचा पर पूरे कुल की आयु गिनी जा सकती थी,
सकल सूर्योदयों की लिखा पढ़त थी।
कथा देवता जानते थे, उनके शस्त्र थे।
पीड़ा पृथ्वी जानती थी, दिठौना भी और हल्दी का लेप भी वह लगाती थी।
मुझे गोद में लिए ध्ौर्य से बैठी रहती थी।
नीली किनार के सूती वस्त्र से छाया करती थी।
वह मालकौंस की भाषा में बोलती रहती और मैं बेसुध्ा पड़ा रहता था। सूर्यास्त होता था।
पंच और साक्ष्यदार आते नहीं थे।
ऊँचे आसन से उठ कर जाते देवताओं के मुख पर मन्द हास होता था।


यह स्वप्न से बाहर

मरुस्थल की नाभि
पर नाचता था सूर्य
उसके पार थे पुरखे
क्लान्त देह
मलिन मुख
जाते किसी दिशा।
यह स्वप्न था
निश्चय नहीं हो पाता था
स्वप्न में किसी का जाना
जीवन में निकट आने जैसा था
या
जीवन से और दूर जाने जैसा
कई दिनों तक
एक सन्तप्त पीड़ा
मन पर कुण्डली ध्ारे
बैठी रही
यह स्वप्न से बाहर था !

 

परमहंस

पूर्वजन्म की किसी बेला
वचन था
देवता मिलेंगे
इस जन्म तक बह आयी प्रतीक्षा थी
आँखों में उतर आया मोतिया था।
आभास और स्मृति की तरह
सरोवर के जल पर उतरता था हंस।
एक अन्ध्ाा पक्षी
आकाश पर तनी डोर टटोलता उड़ता था।
देवता अरण्य मार्ग से आये
अभी अभी उड़ चुके हंस की स्मृति और जल पर ठहरे उसके आभास के लिए
मोती ले कर।

कहो !

फीकी पड़ गई
तुम्हारी नीली चूनर
अध्ाजली
बरसते अँगार से जली।
गहरी गाढ़ी छाया
सहोदर नक्षत्रों की
देवताओं की
तुम्हारे अनावृत कन्ध्ाों पर
ध्ाुँध्ालाती निरन्तर
निरन्तर दूर जाता
प्रार्थना का सुर।
गर्भ से बहता
पिघला लावा
उठता ध्ाुआँ
अभागी देह पर खिलता
अन्तिम सुमन सेवन्ती
वसन्त का त्यागपत्र
या मेरा कुम्हलाया प्रेमपत्र
अब मैं
मेनका की समाध्ाि पर पसरी ध्ाूल में
उँगलियों से अपना
नाम लिखूँ
तुम्हारे लिए शोकगीत
लिखूँ या
तुम्हारी रेत में, राख में
बदलती देह पर
कोई यज्ञ रचाऊँ
कहो
क्या करूँ ?

वाक्य

घना मेघ
निर्जन पथ पर
उनींदी देह पर
मृत्यु झरे
अपनी अन्तिम बूँद तक।
मृगया शब्द
न मृग का है
न बाघ का
वैसे ही जैसे
जीवन नहीं है
मृत्यु का
वैसे ही जैसे
तर्जनी की
हलकी थरथराहट
सृष्टि का स्वप्न देखते
ईश्वर का
वाक्य नहीं है।

 

आली रे मेरे नैना बाण पड़ी ...!

एक अभिमन्त्रित शर
छूटता है प्रत्यंचा से।

जितना विकल उसका आहत लक्ष्य
जैसा उसका आर्तनाद,
उतना ही
वैसा ही
धनुर्धर का सन्ताप।

प्रेम ऐसे ही रचता है
उभयमुखी संहार,
कण्ठ पर झूलता अमरबेल का
निर्जीव हार।

विरह के निष्कम्प सरोवर में फैलती
रक्त रचित काई पर
फिसलता माणिक।

आलाप के गवाक्ष से
भीतर आता
विलाप।

© 2025 - All Rights Reserved - The Raza Foundation | Hosted by SysNano Infotech | Version Yellow Loop 24.12.01 | Structured Data Test | ^