Home
About
...
SAYED HAIDER RAZA
Awards and Recognitions
Education
Exhibitions
Journey
Social Contributions
About Raza Foundation
Trustees
Raza Chair
Awardees
Artists
Authors
Fellowships
Grants Supports 2011-12
Grants Supports 2012-13
Grants-Supports-2013-14
Grants-Supports-2014-15
Press Coverage
Collaborative Programs
Events
Festival
AVIRAAM
Mahima
Raza Smriti
Raza Utsav
UTTARADHIKAR
Krishna Sobti Shivnath Nidhi
Yuva
Aaj Kavita
Aarambh
Agyeya Memorial Lecture
Andhere Mein Antahkaran
Art Dialogues
Art Matters
Charles Correa Memorial Lecture
DAYA KRISHNA MEMORIAL LECTURE
Exhibitions
Gandhi Matters
Habib Tanvir Memorial Lecture
Kelucharan Mohapatra Memorial Lecture
Kumar Gandharva Memorial Lecture
Mani Kaul Memorial Lecture
Nazdeek
Poetry Reading
Rohini Bhate Dialogues
Sangeet Poornima
V.S Gaitonde Memorial Lecture
Other Events
Every month is full of days and weeks to observe and celebrate.
Monthly Events
Upcoming Events
Video Gallery
Authenticity
Copyright
Publications
SAMAS
SWARMUDRA
AROOP
Raza Catalogue Raisonné
RAZA PUSTAK MALA
SWASTI
RAZA PUSTAKMALA REVIEWS
Supported Publication
OTHER PUBLICATIONS
Exhibition
Contact Us
प्रकाश का प्रकाश आस्तीक वाजपेयी
SAMAS ADMIN
08-Jun-2019 12:00 AM
3735
मुझे 24 नवम्बर को रज़ा फाउण्डेशन ने ‘विनय पत्रिका’ पर बोलने के लिए बुलाया था। शाम को एक जगह मैं एक वरिष्ठ कवि, आलोचक, चिन्तक से बात कर रहा था। बीच में कुछ बातचीत ने ऐसा रुख लिया कि उन्होंने मुझे डाँट दिया। उनका कहना था कि मैं ज़्यादा से ज़्यादा दूसरों को और उनके काम को नकारने लगा हूँ। उन्होंने कहा कि यह आदत अहंकार में तब्दील हो सकती है। मुझे दो कारणों से बुरा लगा। एक तो इसलिए कि एक सार्वजनिक स्थान पर डाँट खाने के बाद ऐसा भ्रम पैदा होता है कि उपस्थित सब लोग हमें ही देख रहे थे और दूसरा इसलिए कि इस बात में सच्चाई थी। जिन कवि का मैं जिक्र कर रहा हूँ वे मुझे बचपन से जानते हैं और मेरा यह विश्वास है कि वे ईमानदार आदमी हैं और उन्होंने बिना सोचे-समझे और गहरा मन्थन किये मुझ पर ऐसा दोष नहीं लगाया होगा।
अब यह तो स्पष्ट है कि मुझमें दूसरों को नकारने की खराब आदत है। इसे सुध्ाारा कैसे जाए। मैं एक काम करूँगा। मैं कुछ लेख लिखूँगा। हर लेख मेरी पीढ़ी के किसी लेखक की एक किताब पर केन्द्रित होगा। हरेक लेख में मेरी कोशिश और जि़म्मेदारी यह होगी कि मैं उनकी कृतियों की बुराई करने या कमज़ोरी बताने से ज़्यादा उनके गुणों पर प्रकाश डालूँ जो उस लेखक से सीखने योग्य है। समकालीनों को नकारना आसान होता है और स्थापित कवियों को नकारने के पहले हम समकालीनों पर अपने औज़ार पैने करें। मैं इस जड़ को अपने मानस से उखाड़ फेंकना चाहता हूँ। इस तरह उपर्युक्त कवि और सम्भावित पाठकों के आशीर्वाद से मैं एक बेहतर इंसान बन पाऊँगा।
इस श्रृंखला की पहली किताब है ‘आवाज़ से झर कर’। कवि हैं प्रकाश। उनका जन्म 11 नवम्बर 1976 को कोलकाता में हुआ था और उन्होंने 26 जनवरी 2016 को आत्महत्या की थी। यह उनका दूसरा कविता संग्रह है। मैं तीन महीने पहले अपने घर में आयी हुई कुछ नयी दस-बारह किताबों को दिलचस्पीनुमा भाव से देख रहा था। दिलचस्पी तो ठीक-ठीक नहीं कह सकता क्योंकि मैंने उनमें से एक भी किताब अपने हाथ में उठाने की ज़हमत नहीं की थी। उनमें से एक किताब यह थी। पतली थी इसलिए उसे उठा लिया। दो कविताएँ पढ़ी और फिर किताब को वापस रख दिया। अब किताब फिर से उठायी है।
इस श्रृंखला में इस किताब को सबसे पहले चुनने का कारण यह था कि मैंने इस किताब को छूने से पहले प्रकाश को कभी नहीं पढ़ा था और दूसरा यह कि वे भी मेरी तरह नवम्बर में पैदा हुए थे। मैं उनसे पूरा दस साल छोटा हूँ। क्योंकि वे अब नहीं रहे हैं, यह किताब उनका अन्तिम दस्तावेज़ है। प्रकाश की तीक्ष्ण प्रतिभा के आलोक में मैं इसे अपने पश्चाताप का पहला दस्तावेज़ बनाता हूँ।
पहली ही कविता ‘जल का जल में’ में यह स्थापित हो जाता है कि कवि शब्द को, अर्थ को और उस अर्थ से उत्पन्न स्पर्श को अलग-अलग करके देखना चाहता है। वे पहली पंक्ति में लिखते हैं-
भीग कर जल-जल होता जाता था
जल किससे भीगता था ? यह सोचिये किसी लेखक में कितना साहस और कल्पनाशक्ति होगी कि वह शुरुआत में ही जल के भीगने पर जल के पैदा होने की बात लिख रहा है। यहाँ जल शब्द और उसके अर्थ का पहले ही क्षण में द्वन्द्व स्थापित हो जाता है।
जल उस पर ध्ाार-ध्ाार बरसता,
वह भीग कर घुलता जाता था।
जल का बरसना नया हो जाता है। वह भीगता है। जल शब्द और उसके अर्थ का द्वन्द्व स्थापित होता है।
वह जल में डूबता था
जल का एक सरोवर उठता था।
जब सरोवर में केवल सरोवर रह जाता था
जल सरोवर को उत्सुक देखता था
उसे जल में कुछ विस्मय नज़र आता था
झिझकते हुए वह जल को छूता था
मतलब जल को डूबोया (फिर एक स्पर्श डूबने का और जल का द्वन्द्व)। पहले तो जल को जल के ही गुण और जल के ही स्पर्श की विशेषता बता देने या उपमा देने के बाद, जल सरोवर को देखने लगा। इसका आशय यह हुआ कि अपने ही हिस्सों को जोड़कर खुद बनकर वह खुद को ही देखने लगा। यह थीसियस का ऐसा ज़हाज है जो ज़हाज के हिस्सों से वापस खुद बनकर पूछता है कि क्या यह ज़हाज है ? वह यह नहीं पूछता कि क्या यह वही ज़हाज है ? वह पहली बार जल बना है।
इस कविता के अन्तिम पैराग्राफ़ में सरोवर जल को देखकर मुखौटा हटाकर हँसता है। यह कैसा मुखौटा है ? उसके खुद में जल के अलावा कुछ और होने का ? पर और क्या ? सरोवर को क्या काई, मछलियाँ, कीचड़ आदि सरोवर बनाते हैं या जल ? ज़ाहिर है जल। जल चेतन हो गया, खुद को ही देखने के लिए चेतन। जीवन या कहें जीवन का भ्रम होना कैसे व्यक्त होता है? यहाँ खुद को ही दृश्य बनाकर देखते समय अपने भ्रम होने के भाव को ही वह देखता है। सरोवर इसीलिए हँसता है, क्योंकि जल, जल का साक्षी है। जल यदि मानस है तो कवि, कवि को ही देखकर हँस रहा है। इस तरह संसार को देखने में शब्द पर प्रश्न खड़ा होता है। ‘अपने’ होने के दूसरेपन पर भी।
‘नदी का स्वाद’ के अन्त में पंक्ति है-
वहाँ अपने होने के उजाले में नदी का स्वाद बन जाता था!
नदी का स्वाद कौन बन जाता था ? नदी है क्या ? अपने होने का उजाला क्या है ?
यह एक विलक्षण कवि है। इसके लिए हर समय अपनी खुदी को नकारकर एक वस्तु के भीतर घुस जाना ज़रूरी होता है।
सुबह एक चिडि़या के जल पीने के दृश्य में
नदी जिह्ना पर कल-कल बहने लगती थी
पानी तत्व की संज्ञा है।
‘नदी का स्वाद’ में वे फिर लिखते हैं-
कई बार अथाह अन्ध्ाकार का अदृश्य मुझे दिखता था
अदृश्य कैसे दिख सकता है ? फिर वे कहते हैं कि दिन की बारिश की तरह रात का उजाला बरसता था। यह है कवि का तीव्र कौशल जिसका जि़क्र मैं शुरुआत में कर चुका हूँ। कवि ने रात के उजाले को बारिश बना दिया है।
मैं पीने के लिए नदी को जिह्वा पर सँभालता था
फिर एक जटिल संज्ञा ‘नदी’ को उसके मूल तत्व में मिला दिया गया है।
‘नदी का स्वाद’ में वे लिखते हैं-
जिस पर दिन की बारिश की तरह रात का उजाला बरसता था
दिन की बारिश की स्वभाविक रूप से रात के उजाले से तुलना हो गयी। बड़ा कवि दो लकडि़यों की या दो आदमियों की या दो बिस्तरों की तुलना नहीं करता (आमतौर पर)। वह तुलना इतनी भिन्न चीज़ों की करता है कि ऐसा करने से वह पाठक की कल्पना को झकझोड़ दे।
वे ‘रात की नदी’ में लिखते हैं-
फूल रात का
नदी में विसर्जित कर देता था
यह एक घिसी-पिटी पंक्ति हो सकती थी अगर प्रकाश ने पहले ही हमारे लिए ‘रात’ और ‘नदी’ के अर्थ को पहले की कविताओं में इतना आन्दोलित नहीं कर दिया होता। वे अपनी कविता की संरचना से पुराने अर्थों को उनके पुरानेपन से मुक्त कर देते हैं।
‘उसका जल’ की यह पंक्ति मुझे बहुत मार्मिक लगी-
अपने ही जल का ऐसा मुख देख
उसका जल गल-गल कर बहता था।
प्रकाश का जल, जल-का ही मुख देख रो पड़ा। ज़ाहिर है ये कविता और किताब के पहले हिस्से में, जिसका नाम है ‘भीग कर जल जल होता जाता था’, की लगभग सारी कविताएँ अकेलेपन के बारे में लिखी कविताएँ हैं। यह पंक्ति मार्मिक इसलिए है क्योंकि यह आदमी इस कदर मानवीय है कि उसने इंसानों की कमी में जल और रात में प्राण फूँक दिये हैं और अब उन्हें सहेज रहा है।
‘मैं जल को उसके नाम से पुकारता था
मैं उसके मुख पर जल फेंकता था।
वे लिखते हैं ‘पेड़’ में-
यद्यपि वह हिलता था
अतः मैं हिलते हुए हरितवर्ण पर कान ध्ारता था।
अब वह खुलकर कहते हैं कि वे हरितवर्ण में मिल रहे हैं।
‘पेड़ की हरित अस्थि-शाखाओं के साथ खड़ी देह एक हरा पेड़ थी’
प्रकाश की कविता में मनुष्य और पेड़, जल, रात जैसे तत्व मिले हुए होते हैं। मनुष्य पेड़ भी है, जल भी, रात भी।
कविता ‘चिडि़या’ की कुछ पंक्तियाँ हैं -
हिलने पर बैठी को हिलने से थमने का उपाय नहीं था
वह चकित चकमक आँख से टुकटुक देखती थी
चुपचाप आँख मूँद हिलने में डूब जाती थी !
आध्ाुनिक हिन्दी कविता के एक वरिष्ठ कवि पर प्रकाश ने आलोचना की एक किताब लिखी है। कवि हैं अशोक वाजपेयी और यह चिडि़या शायद चकित आँखें लिए उनकी कविता से प्रकाश की कविता में आयी है। अशोक जी की कविताओं में छोटी चिडि़यों का बहुत जि़क्र है। उन चिडि़यों के लिए इन कविताओं से बेहतर घोंसले नहीं हैं।
वे लिखते हैं कविता ‘हरा नृत्य’ में-
हरे का रस उसकी पुतलियों में दिप कर,
उसे पास बुलाता था
वह अपने पंखों और हवा के साथ नृत्य करता हुआ
पुनः वृक्ष के हरे पर उतरता था।
फिर देखिये हरे का रस चिडि़या की पुतलियों में दिप गया। चिडि़या को अकेले नहीं रहने दिया। उसमें पेड़ का हरा मिला दिया। प्रकाश अकेलेपन को, जीव में निर्जीव को मिलाकर, कम करते हैं। चिडि़या तब तक अकेली है जब तक उसमें पेड़ और हरा नहीं मिलते। जब मिल जाते हैं तब वह साक्षात् प्रकृति का रूप बन जाते हैं। इस तरह जिसे हम सामान्यतः प्रकृति कहकर बुलाते है उसका अर्थ भी बदल जाता है। प्रकृति अपने हिस्सों का जमावड़ा नहीं बचती, वे हिस्से प्रकृति के अंग हो जाते हैं। मुझे नहीं पता कि प्रकाश ने किन परिस्थितियों में आत्महत्या की लेकिन अकेलेपन में दुनिया से नफ़रत करने की जगह प्रकृति में जीव के विलय की कल्पना निःसन्देह किसी कायर का नहीं हिम्मती आदमी का उद्यम है। फिर वे ‘नाच का दरिया’ में संज्ञा को क्रिया से मिला देते हैं -
दरिया को छूना नाचते हुए नाच को छूना था
नाच को छूना नाचते हुए दरिया को छूना था
दरिया में नाच मिल गया।
इन कविताओं को पढ़ते हुए बाख़ के संगीत की याद आती है जिसमें अनगिनत थीम एक-दूसरे में मिल जाती हैं। हारमनी का एक अर्थ सामंजस्य है। यहाँ एक विराट, आन्दोलित, अपने बहुमुखी होने में भी एकीकृत प्रकृति है। ‘नर्तक का नाच’ में कर्ता अपने कर्म से दूर खड़ा उसका साक्षी बनता है-
उसका नाच उसको घेर कर नाचता था
नाच के केन्द्र में निर्वाक् खड़ा
वह अपना नाच देखता था !
यह योगवाशिष्ट का विचार है कि कर्म में संलग्न होकर ही संसार रूप भ्रम का एहसास होता है। अपनी कला के रस में डूबा नर्तक ‘ब्रह्मानन्द’ ले रहा है। जगन्नाथपुरी के जगन्नाथ की तरह अपनी ही कृति पर आश्चर्यचकित हो गया है, इसलिए उनकी आँखें इतनी बड़ी हैं। निर्वाक् वे भी देखते हैं।
‘चलना’ कविता की शुरुआती पंक्तियाँ हैं-
चलते-चलते पाँव चलने में उठते थे
गिर कर उसमें मिल जाते थे।
इस पंक्ति में कवि ने पाँव को चलने में मिला दिया है।
पाँव उठाकर गिराने की क्रिया में कवि के हिसाब से पाँव चलने में मिल गया है। इसको ऐसे भी कह सकते हैं कि चलने की क्रिया में लीन हो गया है। काम करते समय वह विशुद्ध काम बन गया है। यह स्थापित कर देने के बाद वह इस चित्र को पलटते हैं। वे लिखते हैं-
मानो चलना एक पाँव था
फिर पाँव नहीं केवल चलना होता था
फिर चलनेवाला चलने से बाहर हो जाता था। पूरी तरह क्रिया में अपना अंग मिल जाने के बाद कर्ता अपने कर्म से ही बाहर हो जाता है। फिर कर्म में संलग्न होकर वह कर्म से निरपेक्ष हो गया है। ‘वह’ मतलब कर्ता।
वे लिखते हैं-
बाहर हुआ चलनेवाला
हाँफता हुआ चलने के पीछे भागता था
चलने के पीछे भागने का मेरे हिसाब से मतलब है कि हम कई बार किसी काम में इस कदर डूब जाते हैं कि हम भूल जाते हैं कि वह काम कर रहे थे। जब अनुभूति अचानक होती है, तब उस काम को अनुभूति के कुछ क्षणों बाद तक उस रफ़्तार के साथ नहीं कर पाते हैं जिस रफ़्तार के साथ अन्यतः हम कर रहे होते थे। अगली और अन्तिम पंक्ति इसे ही इंगित करती है-
चलना पीछे मुड़कर मुस्कुराता था !
यहाँ चलना खुद इस बात पर हँस रहा है। कविता ‘आवाज़ में झर कर’ में इस किस्म की सृजनात्मक तात्विक संरचना का अगला पड़ाव आ जाता है। वे लिखते हैं-
मैं जा रहा था भागता ध्ाुँध्ा में
थोड़ा घर गया
थोड़ा बच कर गिर गया
आवाज़ में झर कर द्वार पर
फूल-सा बिखर गया !
जो थोड़ा बच कर गिर गया वह ध्ाुँध्ा था। ध्ाुँध्ा में मिला हुआ नायक गिर गया। वह फूल-सा बिखर गया। टूटे हुए फूल के बिखरने की तुलना ध्ाुँध्ा से की गयी है।
‘चिल्लाता पक्षी’ में नींद में गुँथकर वह खुद चिल्लाता पक्षी बन जाता है। ज़्यादातर कविताओं में प्रकाश अपनी पहचान को किसी दूसरे जीव या तत्व में मिलाकर इस कदर उसमें घुल जाते हैं कि वे वही बन जाते हैं।
एक अलग किस्म की कविता है, ‘अ-उपस्थित’। वे लिखते हैं-
दृश्य का कोई दर्शक नहीं था
यदि दर्शक न हो तो दृश्य क्या होता है ? जो हमें दिखता है वह दुनिया में कितना होता है और कितना हमारी आँखों में ? चित्त की चेतन, अवचेतन और सुषुप्ति में दर्शक, दृष्टा और दृश्य के सम्बन्ध्ा में मैंने कुछ सालों पहले अपने गुरू से बहुत बात की थी। बिना दर्शक के दृश्य का सवाल उस समय भी उठा था। मुझे पता नहीं कि प्रकाश भी इस प्रश्न से जूझे थे या नहीं लेकिन यह कविता तो अवश्य जूझती है। दृश्य बिना दर्शक के पड़ा था, यानि दर्शक दृश्य को ग्रहण नहीं करता, समय आने पर दृश्य दर्शक को ग्रहण करता है।
‘उच्चारण’ में वे लिखते हैं-
उच्चारण उच्चरित का छिलका था
प्रकाश का यह वाक्य उनकी काव्य दृष्टि का एक मौलिक तत्व भी है। वे शब्द को उच्चारण से जुड़ी उसकी प्रचलित छवि से अलगाने वाले कवि हैं। उनकी राजनैतिक नहीं शाब्दिक क्रान्ति है जो और भी मूलभूत हुआ करती है और कवि के लिए शायद ज़्यादा ज़रूरी होती है।
कविता ‘सुकर्ण’ में वे लिखते हैं-
सुकर्ण सूर्य की ओर अपलक देखता था
सुकर्ण अवाक् को सुनता था
सुनकर सुकर्ण स्वीकृति में सिर हिलाता था
संग्रह की अन्तिम कुछ कविताओं में प्रकाश, एक कविता में एक बिम्ब को अलग रूप नहीं दे रहे हैं, वे एक साथ दो-तीन बिम्बों पर केन्द्रित कविताएँ लिख रहे हैं। एक उदाहरण ‘कहना-सुनना’ है। इस कविता में कहना और सुनना दोनों मात्र क्रियाएँ अपनी सामान्य परिभाषा से बाहर आकर सजीव हो जाती हैं, एक नये और अप्रत्याशित अर्थ में।
कविता ‘पाँव पर’ में अपने आँसुओं और सिर को भी वह उनके प्रचलित उपयोगों से निजात दिलाकर इस्तेमाल में लाते हैं। ‘शस्त्र-त्याग’ में ‘आकाश’ छोड़ी हुई जगह को भर देता है-
जो गिर गया उसके छूटे शून्य में बारिश टप्-टप् भरती थी
बारिश के साथ उत्सुक आकाश उतरता था !
प्रकाश अपनी कविताओं में हर मनुष्य का, गिरे हुए का भी एक नैसर्गिक सम्बन्ध्ा आकाश, पानी और अन्ध्ाकार से स्थापित करते हैं। आप सोच रहे होंगे कि यह तो वैसे भी होता है, इसमें क्या नयी बात है। नयी बात यह है कि वह तत्वों से स्थापित एकतरफ़ा सम्बन्ध्ा नहीं है। वह दो दोस्तों के सम्बन्ध्ा की तरह आश्चर्यचकित करने वाला, अह्लादित और हर्षित करने वाला सम्बन्ध्ा है।
प्रकाश की एक अलग किस्म की कविता है ‘जो जाता है’। इस कविता में वह लौटने और लौटने से, रोज़मर्रा के जीवन में जो बदले हुए से जान पड़ने वाले रोज़ के काम हैं, उनकी मदद लेकर अकेलेपन की नियति के बारे में सोचते हैं। मैं यह किताब पढ़ते हुए महसूस कर रहा हूँ कि बाद की कविताओं में खुद को व्यक्त करने की अभिलाषा तीव्र हो रही है। पहले की कविताओं के मौलिक तत्व (तत्वों की चेतना) को पहले की कविताओं के परिष्कार के साथ प्रस्तुत नहीं किया जा रहा है। अब कविताओं में मनुष्य का कोलाहल बढ़ रहा है।
एक कविता है ‘हर बार’। सूफ़ी कवि ‘रूमी’ से या उससे भी पहले से परम्परा चली आ रही है, ऐसी कविता की जिसमें माशूक और खुदा दोनों मिले हुए हों। इसी तरह देखा जाए तो प्रकाश की यह कविता प्रेम या श्रद्धा या दोनों की हो सकती है।
किताब का आखिरी हिस्सा है ‘आत्मन् के गाये गये कुछ गीत’। प्रकाश अन्त में भारतीय दार्शनिक परम्पराओं के सबसे जटिल सिद्धान्त आत्म के विचार के साथ खेलते हैं। इस हिस्से की पहली कविता है, ‘आना’। इस कविता में प्रकाश लिखते हैं-
वह जीवित, मृत्यु नाम की जगह पर
बार-बार जाता था
और हर बार अपनी जगह
लौट आता था
आत्म के अनश्वर होने को इतनी सहजता से व्यक्त होते मैंने नहीं पढ़ा है। कविता उस मनुष्य रूपी आत्म के बारे में लगती है जो अपने स्वभाव में स्थिर है, यानी आत्म की अनुभूति कर रहा है अपने छोटे-छोटे कर्म में। कविताएँ ‘सुनना’ और ‘कहना’ में आत्म के एकान्त को केन्द्र बनाकर उसके सुनने और कहने की असम्भावना को व्यक्त किया गया है। ‘सोना’ में प्रकाश लिखते हैं-
यह तुम्हारी वही पुरानी होश की शराब है !
यानि वह होश जिसे आत्म का ज्ञान नहीं होता है।
मुझे नहीं पता कि अच्छा कवि किसे कहा जाता है। जैसे मान लिजिए कि कोई वैज्ञानिक मनुष्य के उड़ने की विध्ाि, जैसे हवाई ज़हाज को इजाद करे तो हम उसे अच्छा तकनीकी वैज्ञानिक कहते हैं। कोई गुरुत्वाकर्षण का रहस्य समझाये तो उसे महत्वपूर्ण वैज्ञानिक कहते हैं। कवि क्या करता है ? क्या वह प्रकृति का अन्वेषण करता है ? तो फिर वैज्ञानिक क्या करेगा ? क्या वह इतिहास को बेहतर समझने में मदद करता है ? तो इतिहासकार क्या करेगा ? क्या वह समाज में बदलाव लाने की कोशिश करता है ? तो फिर सामाजिक कार्यकर्ता या राजनेता क्या करेगा ? क्या वह बदलते हुए समय में बदलते हुए कानूनों की पैरवी करता है ? तो फिर न्यायाध्ाीश और वकील क्या करेंगे?
कवि या कवियित्री बाहर को नहीं अपने अन्दर को बदलते हैं। दुनिया को नहीं उसे देखने वाली आँखों को बदलते हैं। कवि का क्या काम है और क्या नहीं इस विषय पर हर व्यक्ति का मत हो सकता है और मुझे यकीन है कि मुझसे अलग मत मुझसे बेहतर ही होंगे, लेकिन अपना मत व्यक्त करना चाहता हूँ। कवि ‘दुनिया ऐसी है’ को व्यक्त कर सकता है पर उसका ध्ार्म होता है ‘दुनिया ऐसी भी है’ को व्यक्त करना। सच्चाई को दिखाना नहीं, नये तरीके से देखना। इसमें कोई सन्देह नहीं कि प्रकाश ऐसा करते हैं। जो बात दिल को छूती है, वह प्रकाश की काव्य-कुशलता या व्याकरण या तकनीक नहीं, अपनी कल्पना के प्रति उनकी सच्ची निष्ठा है। कवि इससे ज़्यादा क्या कर सकता है ?
किताब - आवाज़ में झरकर (कविताएँ)
लेखक - प्रकाश
प्रकाशक - रज़ा पुस्तकमाला, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली
«
लिखने के ढंग में लेखन का रहस्य मिथलेश शरण चौबे
समीक्षा
SAMAS
»
एकान्त का रचनात्मक बसाव मिथलेशशरण चैबे
×
© 2025 - All Rights Reserved -
The Raza Foundation
|
Hosted by SysNano Infotech
|
Version Yellow Loop 24.12.01
|
Structured Data Test
|
^
^
×
ASPX:
POST
ALIAS:
light-of-light
FZF:
FZF
URL:
https://www.therazafoundation.org/light-of-light
PAGETOP:
ERROR: