महाभारतदर्पणः अनुवाद एवं पाठालोचन की भारतीय परम्परा डाॅ. राजकुमार
23-Mar-2022 12:00 AM 1293

महाभारत को सभ्यतापरक ग्रन्थ के रूप में देखा जा सकता है। महाभारत ध्ार्म के किसी एक विशिष्ट निश्चित रूप का प्रचार नहीं करता बल्कि सामाजिक नैतिकता को प्रश्नांकित करता है। उल्लेखनीय है कि सामाजिक नैतिकता को लेकर ब्राह्मणिक परिप्रेक्ष्य और ब्राह्मणिक परिप्रेक्ष्यों को चुनौती देने वाली परम्पराओं के बीच लम्बे समय तक वाद-विवाद होता रहा।
-रोमिला थापर (2010ः 14-19)
(1)
शास्त्र प्रकाश प्रेस, कलकत्ता से 1828-29 में ‘महाभारतदर्पण’ पहली बार प्रकाशित हुआ। पण्डित लक्ष्मीनारायण ने इसे शुद्ध किया। गार्साद तासी ने इसे उस दौर में छपने वाले हिन्दी के सबसे महत्वपूर्ण ग्रन्थों में से एक माना और इसके अनुवाद के लालित्य और मूल के समीप होने की तारीफ की।
चालीस साल बाद अमेठी के राजा माध्ाव सिंह के आर्थिक सहयोग से नवल किशोर प्रेस ने इसे दोबारा प्रकाशित किया। तब तक कलकत्ता से छपा यह संस्करण समाप्त हो गया था। पचास रुपये देने पर भी उपलब्ध्ा नहीं था।
नये संस्करण के प्रकाशन से पहले नवल किशोर प्रेस के पण्डित प्यारेलाल और रामरतन बाजपेई ने इसे संशोध्ाित किया। सन् 1874 में यह तैयार हो गया। 6000 पृष्ठों के इस ग्रन्थ को चार जिल्दों में प्रकाशित किया गया। प्रत्येक खण्ड के साथ इण्डेक्स भी जोड़ा गया। इसकी कीमत 12 रुपये रखी गयी। यह प्रकाशित होते ही हाथों-हाथ बिक गया। ब्रिटिश पब्लिकेशन रिपोर्ट में इसे हिन्दी प्रकाशन जगत की सन् 1874 में घटित होने वाली सबसे महत्वपूर्ण घटना बताया गया। इसका दूसरा और तीसरा संस्करण सन् 1883 और सन् 1891 में छापा गया।
महाभारतदर्पण की सफलता से उत्साहित होकर नवल किशोर प्रेस ने खड़ी बोली में महाभारत प्रकाशित करने की योजना बनाई। खड़ी बोली में ‘महाभारत भाषा’ सन् 1886 में आया। खड़ी बोली में महाभारत लाने का काम पण्डित कुंजबिहारी लाल ने शुरू किया और इनके चाचा पण्डित कालीचरण ने इसे पूरा किया। अनुवादकों और प्रकाशक के सहकार से यह बड़ा काम सम्भव हुआ। किन्तु नवल किशोर प्रेस से पहले सन् 1875 में कलकत्ता से कृष्णचन्द्र ध्ार्माध्ािकारी ने महाभारत का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित करवा दिया था।
कुंजबिहारी लाल, मोहन लाल के बेटे और गोकुलचन्द्र के पौत्र थे। कालीचरण गोकुलचन्द्र के पुत्र थे। कुंजबिहारी लाल ने पहले पाँच पर्वों का अनुवाद किया। शेष पर्वों का अनुवाद कालीचरण ने किया। किन्तु उद्योग पर्व का अनुवाद महेश दत्त शुक्ल ने किया। नवल किशोर प्रेस द्वारा प्रकाशित खड़ी बोली के अनूदित महाभारत को ‘महाभारतभाषा’ नाम दिया गया। उल्लेखनीय है कि हिन्दी क्षेत्र की भाषाओं के लिए ईसा की दूसरी सहस्राब्दी में ‘भाषा’ या ‘शाखा’ शब्द का ही प्रयोग होता रहा है। बाहर से आने वालों ने इस हेतु अवश्य हिन्दुई शब्द का प्रयोग किया है। ‘महाभारतभाषा’ की भाषा ‘शुद्ध हिन्दी’ रखी गयी और फ़ारसी-अरबी के शब्दों को यथासम्भव हटा दिया गया। किन्तु उसे तत्सम बहुल अलंकरण प्रध्ाान हिन्दी नहीं कहा जा सकता। इसमें हिन्दी का सहज प्रवाह देखा जा सकता है। उल्लेखनीय है कि भारतेन्दु ने 1873 में लिखा था कि ‘हिन्दी नई चाल में ढली’। ‘महाभारतभाषा’ की हिन्दी और भारतेन्दु की नये चाल की हिन्दी में दिखायी पड़ने वाली समानता का गहन अध्ययन करने की ज़रूरत है। इससे ‘नई चाल की हिन्दी’ को समझने में मदद मिलेगी। किन्तु फिलहाल यह हमारे अध्ययन का विषय नहीं है। इसलिए इस प्रसंग को यहीं छोड़ देना उचित होगा। चलते-चलते यह उल्लेख कर देना ठीक रहेगा कि ‘महाभारतभाषा’ के मुख्य पृष्ठ पर लिखा रहता था कि ‘संस्कृत महाभारत का यथातथ्य पूरे श्लोक का भाषानुवाद कराया।’ ध्यातव्य है कि यहाँ यथातथ्य, श्लोक दर श्लोक समूचे संस्कृत महाभारत का अनुवाद कराने पर ज़ोर दिया गया है। किन्तु ‘महाभारतदर्पण’ की तरह यहाँ भी यह नहीं बताया गया कि संस्कृत महाभारत का कौन-सा रूप था, जिसका अनुवाद कराया गया।
महाभारत का ब्रजभाषा रूपान्तर काशी नरेश उदित नारायण सिंह की आज्ञानुसार आरम्भ हुआ। इसके पूरा होने में कहा जाता है कि पचास वर्ष लगे। शुरुआत भले ही महाराजा चेतसिंह जी के समय में हुई हो, लेकिन ये पूरा हुआ उदित नारायण सिंह जी के समय में। ये भी उल्लेख मिलता है कि काशी नरेश ने इस कार्य हेतु उस समय एक लाख से अध्ािक रुपया दिया था। महाभारत के भाषा रूपान्तर को पूरा करने में तीन व्यक्तियों का योगदान था। इन तीनों व्यक्तियों के बारे में उपलब्ध्ा जानकारी का उल्लेख नीचे किया जा रहा है ः-
(1) गोकुलनाथ बंदीजन ः-
गोकुलनाथ बंदीजन कवि रघुनाथ बंदीजन के पुत्र थे। शिवसिंह सरोज के अनुसार संवत् 1834 में इनके मौजूद होने का उल्लेख मिलता है। शिवसिंह सरोज सर्वेक्षण में किशोरीलाल गुप्त ने लिखा है कि ‘‘यह काशी नरेश महाराजा बरिबण्ड सिंह (शासनकाल 1797-1827 वि.), महाराजा चेतसिंह (शासन काल 1827-38 वि.) और महाराजा उदित नारायण सिंह (शासनकाल 1852-92 वि.) के आश्रय में रहे। इनका चेतचन्द्रिका ग्रन्थ प्रामाणिक माना जाता है। इसके अतिरिक्त ‘गोविन्द सुखद बिहार’ ग्रन्थ भी बहुत अच्छा बन पड़ा है। चेतचन्द्रिका इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इसमें काशीनरेश की वंशावली का विस्तृत वर्णन मिलता है। चैरा गाँव, जो पंचकोशी के भीतर है, में इनका घर था। इन्होंने संस्कृत महाभारत का महाभारतदर्पण नाम से देशभाषा में रूपान्तरण आरम्भ किया। इनकी कीर्ति का सबसे बड़ा आध्ाार महाभारत का महाभारतदर्पण के नाम से किया गया रूपान्तरण ही है।
(2) गोपीनाथ बंदीजन ः-
ये गोकुलनाथ के पुत्र थे और इनके संवत् 1850 में मौजूद होने का उल्लेख मिलता है। अपने पिता गोकुलनाथ के साथ महाभारत के रूपान्तर में इन्होंने भी हाथ बँटाया। इनके जीवन का ज़्यादा समय महाभारत के रूपान्तरण में व्यतीत हुआ। यद्यपि इन्होंने श्ाृंगार आदि रसों से सम्बन्ध्ाित रचनाएँ भी लिखीं, किन्तु इनकी ख्याति का आध्ाार भी महाभारत का इनके द्वारा किया गया रूपान्तरण ही है।
(3) मणिदेव ः-
शिवसिंह सरोज के अनुसार ये संवत् 1896 में मौजूद थे। इन्होंने गोकुलनाथ और गोपीनाथ के साथ महाभारत के रूपान्तर का कार्य किया। कुछ लोग इन्हें गोपीनाथ का शिष्य मानते हैं। डाॅ. किशोरीलाल गुप्त ने लिखा है कि ‘‘ग्रियर्सन ने इन्हें गोपीनाथ का शिष्य कहा है जो ठीक नहीं है। यह गोपीनाथ के बाप के शिष्य थे।’’
महाभारतदर्पण के प्रत्येक अध्याय के पीछे उस अध्याय के रचयिता का नाम दिया गया है। आदि, सभा, वन, विराट और उद्योगपर्व का अनुवाद मणिदेव ने किया है। इनमें से वनपर्व के चार अध्यायों का रूपान्तर इन्होंने नहीं किया। गोकुलनाथ ने भीष्मपर्व के पाँच, द्रोणपर्व के चार और शान्तिपर्व के नौ अध्यायों का रूपान्तर किया है। गोपीनाथ ने भीष्म और द्रोण पर्व के शेष भाग और अश्वमेध्ा, आश्रमवासिक, मुशल एवं स्वर्गारोहण पर्वों तथा हरिवंश पर्व का रूपान्तर किया। शान्तिपर्व के इन्होंने केवल 30 अध्याय लिखे। मणिदेव ने कर्ण, शल्य, गदा, सौप्तिक, ऐशिक, विशोक, स्त्री और महाप्रस्थान पर्वों तथा शान्तिपर्व के शेष प्रायः 225 अध्यायों की रचना की। वनपर्व के शेष चार अध्यायों में से गोपीनाथ और मणिदेव ने दो-दो अध्याय बनाए। इस हिसाब से महाभारत में इन तीनों महाशयों ने आकार की दृष्टि से बराबर रूपान्तर किया। जान पड़ता है इन तीन कवियों ने महाभारत और हरिवंश को मिलाकर तीन बराबर भागों में विभक्त करके एक-एक भाग का अनुवाद कर डाला।
यद्यपि महाभारत का अनुवाद तीन व्यक्तियों ने मिलकर किया। फिर भी मिश्रबन्ध्ाु के अनुसार ‘कवित्त शक्ति और रचना शैली इन तीनों कवियों की बिल्कुल एक है।’ मिश्रबन्ध्ाुओं के अनुसार इन तीन कवियों की मदद के लिए पण्डित भी नियत कर दिए गए थे। किन्तु ये पण्डित क्या करते थे? इनकी भूमिका क्या थी? इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता।
(2)
‘महाभारतदर्पण’ के कवियों ने न तो अपने ग्रन्थ की कोई भूमिका लिखी है और न ही इसके रचनाकाल का उल्लेख किया है। मिश्रबन्ध्ाुओं ने लिखा है कि उन्होंने मणिदेव के पौत्र शीतला प्रसाद से इसके बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि महाभारतदर्पण संवत् 1884 में पूरा हुआ। इसलिए ये मान लेने में कोई हर्ज नहीं कि महाभारत का रूपान्तर संवत् 1884 में पूरा हुआ। इसके बावजूद ये जानने को कोई ठोस आध्ाार नहीं है कि महाभारत के रूपान्तर का कार्य कब आरम्भ हुआ। मिश्रबंध्ाु लिखते हैं कि ‘गोकुलनाथ का कविताकाल अनुमान से लगभग संवत् 1828 से प्रारम्भ होता है। यही समय इस अनुवाद का आरम्भ समझना चाहिए। इस तरह संवत् 1828 से 1884 के बीच महाभारत के अनुवाद का कार्य पूरा हुआ, ऐसा माना जा सकता है। रामचन्द्र शुक्ल ने अपने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में लिखा है कि ‘‘इस ग्रन्थ के बनने में पचास वर्ष से ऊपर लगे हैं। अनुमानतः इसका आरम्भ संवत् 1830 में हो चुका था और यह संवत् 1884 में जाकर समाप्त हुआ। इसकी रचना काशी नरेश महाराजा उदित नारायण सिंह की आज्ञा से हुई जिन्होंने इसके लिए लाखों रुपये व्यय किये।’’ स्पष्ट है कि रामचन्द्र शुक्ल का अनुमान मिश्र बन्ध्ाुओं के साक्ष्य पर ही आध्ाारित है और दोनों में कोई विशेष अन्तर नहीं है।
विचारणीय प्रश्न ये है कि क्या ‘महाभारतदर्पण’ को संस्कृत महाभारत का अनुवाद कहा जा सकता है? अनुवाद के लिए एक मूल ग्रन्थ चाहिए। प्रश्न ये है कि अठारहवीं सदी में वह कौन सा संस्कृत महाभारत था जिसका अनुवाद किया गया। ‘महाभारतदर्पण’ के कवियों ने ऐसा कोई उल्लेख नहीं किया जिससे ये पता चल सके कि किस संस्कृत महाभारत का उन्होंने अनुवाद किया। उल्लेखनीय है कि अठारहवीं सदी में महाभारत के कई रूप प्रचलित थे। इसलिए ये सोचना ग़लत है कि संस्कृत महाभारत का कोई एक रूप था और सर्वत्र उसी का प्रयोग होता था।
ध्यातव्य है कि हिन्दी-क्षेत्र में अभी भी किताब छापने के लिए प्रिटिंग प्रेस का इस्तेमाल नहीं किया जाता था। इसीलिए ‘महाभारतदर्पण’ का वजूद उस समय एक हस्तलिखित ग्रन्थ के रूप में था। ‘महाभारतदर्पण’ की हस्तलिखित पाण्डुलिपि काशी नरेश के पुस्तकालय में उपलब्ध्ा है। लेकिन फि़लहाल इस पुस्तकालय की अवस्था ऐसी है कि उसे देख पाना असम्भव हो गया है। ‘महाभारतदर्पण’ की पाण्डुलिपि के कुछ अंश उदयपुर में भी हैं, ऐसी सूचना मिलती है। लेकिन अभी तक उपलब्ध्ा जानकारी से ये पता कर पाना मुश्किल है कि महाभारतदर्पण का ‘अनुवाद’ किस संस्कृत महाभारत के आध्ाार पर किया गया। इसलिए ये जानने की कोशिश की गई कि अठारहवीं सदी के बनारस में संस्कृत महाभारत का कौन-सा हस्तलिखित रूप प्रचलन में था। खोजने पर पता चला कि उस दौर में नीलकण्ठ द्वारा तैयार किया गया नीलकण्ठ महाभारत और महाभारत पर उनके द्वारा लिखी गयी ‘भारतभावदीपटीका’ उपलब्ध्ा थी।1
नीलकण्ठ वैसे तो दक्षिण के रहने वाले थे किन्तु वे बनारस में आकर बस गये थे। कुछ लोग उन्हें महाराष्ट्र का निवासी भी बताते हैं। नीलकण्ठ ने उस समय उपलब्ध्ा महाभारत की पाण्डुलिपियों का अध्ययन कर महाभारत का एक प्रामाणिक पाठ तैयार किया और उसकी एक टीका भी लिखी।2 पाठ तैयार करने के दौरान उन्होंने महाभारत पर लिखी गई टीकाओं का भी इस्तेमाल किया। अर्जुन मिश्र द्वारा लिखी गई टीका का प्रभाव नीलकण्ठ द्वारा तैयार किये गये पाठ में सबसे ज़्यादा दिखाई पड़ता है। अर्जुन मिश्र के अतिरिक्त ग्यारहवीं सदी के कश्मीरी विद्वान् देवध्ार की टीका का भी अच्छा खासा प्रभाव इस पाठ पर दिखता है।
नीलकण्ठ द्वारा बनाया गया यह संस्करण बहुत प्रभावशाली सिद्ध हुआ और बीसवीं सदी में भण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इस्टीट्यूट द्वारा सुकथणकर के सम्पादन में तैयार किए गये महाभारत के क्रिटिकल एडिशन के पहले तक इस संस्करण की ध्ाूम थी। ये सही है कि महाभारत का नीलकण्ठी पाठ उत्तर भारत में उपलब्ध्ा पाण्डुलिपियों के आध्ाार पर तैयार किया गया था किन्तु इसके बावजूद इसका महाभारत के पाठ-निधर््ाारण में बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। एक तरह से इसने महाभारत के पाठ को स्थिर कर दिया। इसके बाद महाभारत में कोई उल्लेखनीय नई बात नहीं जोड़ी गयी। महाभारत के नीलकण्ठ द्वारा तय किए पाठ को लेकर दक्षिण भारत के विद्वानों ने आपत्ति की। उनकी आपत्ति का मुख्य आध्ाार ये था कि नीलकण्ठ द्वारा तय किए गये महाभारत के पाठ में दक्षिण भारत में उपलब्ध्ा पाण्डुलिपियों का उपयोग नहीं किया गया है। इसीलिए कालान्तर में दक्षिण भारत के आचार्यों ने महाभारत का दाक्षिणात्य पाठ तैयार किया। पहला पाठ पी.पी. शास्त्री और दूसरा कुम्भघोनम ने तैयार किया। किन्तु इन दोनों पाठों की चर्चा न कर फिलहाल नीलकण्ठ द्वारा तैयार किए महाभारत की चर्चा करेंगे।
सन् 1900 में कलकत्ता में प्रताप चन्द्र राय ने महाभारत का एक पाठ तैयार किया। ये पाठ नीलकण्ठ के द्वारा तैयार किये गए महाभारत के पाठ पर ही आध्ाारित था। क्ले लाइब्रेरी ने भी नीलकण्ठ महाभारत को ही अनुवाद हेतु चुना। फिर के.एम. गांगुली ने समूचे महाभारत का अंग्रेजी अनुवाद 1883 ई. से 1896 ई. के दौरान किया। ये अनुवाद भी नीलकण्ठ द्वारा तैयार किये गये संस्करण पर आध्ाारित है। यही नहीं, गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित महाभारत भी मूलतः नीलकण्ठ के महाभारत के आध्ाार पर बनाया गया है। यह अवश्य है कि इसमें दाक्षिणात्य संस्करणों में पायी जानी वाली भिन्नता का समावेश कर लिया गया है। दाक्षिणात्य संस्करणों से जो श्लोक शामिल किए गए हैं, उनकी श्लोक संख्या नहीं दी गयी है। उन्हें कोष्ठक में रख दिया गया है। केवल नीलकण्ठ संस्करण पर आध्ाारित श्लोकों की संख्या दी गयी है। इस तरह प्रताप चन्द्र राय का महाभारत, के.एम. गांगुली कृत महाभारत का अंग्रेजी अनुवाद क्ले पुस्तकालय तथा गीता प्रेस द्वारा तैयार किया गया संस्करण- ये सभी नीलकण्ठ महाभारत पर ही आध्ाारित है। कुछ विद्वान तो सुकथणकर, पाठ के मुकाबले नीलकण्ठी पाठ को ज़्यादा बेहतर मानते हैं। (देखें प्रदीप भट्टाचार्य का लेख, 2018)।
यदि ‘महाभारतदर्पण’ को ‘नीलकण्ठ महाभारत’ से मिलाकर देखा जाय तो ये स्पष्ट हो जाता है कि महाभारतदर्पण ‘नीलकण्ठ महाभारत’ के आध्ाार पर तैयार किया गया है। ‘महाभारतदर्पण’ में ‘नीलकण्ठ महाभारत’ की भाषा को प्रायः यथावत् उतार दिया गया है (देखें परिशिष्ट-1)। ‘महाभारतदर्पण’ की तत्सम् शब्दावली ‘नीलकण्ठ महाभारत’ से हूबहू मिलती है। जो भिन्नता है वह क्रियारूपों के कारण है। इससे ये बात समझ में आ जाती है कि ‘महाभारतदर्पण’ ‘नीलकण्ठ महाभारत’ को सामने रखकर तैयार किया गया है। इसलिए ‘महाभारतदर्पण’ को पश्चिमी ढंग के अनुवाद के प्रारम्भिक साक्ष्य के रूप में लिया जा सकता है। आगे बढ़ने से पहले ये उल्लेख कर देना ज़रूरी है कि ‘महाभारतदर्पण’ में ‘नीलकण्ठ महाभारत’ को यथावत् उतारने की कोशिश तो की गयी है किन्तु कुछ अवान्तर प्रसंगों को या तो संक्षिप्त कर दिया गया है या उन्हें पूरी तरह छोड़ दिया गया है। यथावत् अनुवाद के पश्चिमी ढंग में अनुवादक किसी प्रसंग को न तो छोड़ सकता है न तो संक्षिप्त कर सकता है। इस दृष्टि से विचार करें, तो ‘महाभारतदर्पण’ को भी पूरी तरह आइकाॅनिक ;प्बवदपबद्ध अनुवाद नहीं कहा जा सकता। इसके बावजूद ज़्यादातर प्रसंगों को ‘महाभारतदर्पण’ यथावत् प्रस्तुत करता है। इसलिए इसे ‘आइकाॅनिक’ अनुवाद के प्रारम्भिक साक्ष्य के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। उल्लेखनीय है कि ज़्यादातर विद्वान् ये मानते हैं कि भारत में ‘आइकाॅनिक’ अनुवाद की शुरुआत पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव के कारण उéीसवीं सदी में हुई। लेकिन ‘महाभारतदर्पण’ के साक्ष्य से इस कथन को संशोध्ाित करना चाहिए। पूरी तरह न सही, फिर भी ‘आइकाॅनिक’ अनुवाद के इस साक्ष्य के आध्ाार पर यह कहा जा सकता है कि अठारहवीं सदी के उत्तराद्र्ध से ‘आइकाॅनिक’ अनुवाद की हिन्दी क्षेत्र में शुरुआत हो जाती है। किन्तु सच तो ये है कि अठारहवीं सदी से पहले भी ‘आइकाॅनिक’ अनुवाद के साक्ष्य कम-से-कम जैन परम्परा में मिलने लगते हैं। एक पश्चिमी अध्येता कोर्ट ने बनारसीदास जैन के ग्रन्थों के साक्ष्य पर ये सिद्ध करने का यत्न किया है कि आगरे में सत्रहवीं सदी के दौरान ही आइकाॅनिक अनुवाद की शुरुआत हो जाती है। ये सही है कि इस तरह के आइकाॅनिक अनुवाद के कुछ ही उदाहरण मिलते हैं। लेकिन इससे ये तो पता लग जाता है कि उéीसवीं सदी से पहले भी आइकाॅनिक अनुवाद की परम्परा मिलने लगती है। यहाँ ये उल्लेख कर देना ज़रूरी है कि ए.के. रामानुजन ने अनुवाद के तीन प्रकारों की चर्चा की है। आइकाॅनिक अनुवाद उन्होंने उसे कहा जहाँ स्रोत भाषा के ग्रन्थ को लक्ष्य भाषा में यथावत् अनूदित की कोशिश की जाती है। कहने के लिए ठीक, लेकिन यथावत् अनुवाद तो सम्भव ही नहीं। फिर भी आइकाॅनिक अनुवाद में इसी आदर्श का निर्वाह करने की कोशिश होती है। सिम्बाॅलिक और इण्डेक्सिकल अनुवाद को भी अनुवाद माना जाय तभी अनुवाद की भारतीय परम्परा खोजी जा सकती है। लेकिन जैसा पहले कहा गया, ‘आइकाॅनिक’ अनुवाद के साक्ष्य उéीसवीं सदी से पहले बहुत ही कम मिलते हैं। ‘महाभारतदर्पण’ को पूरी तरह न सही, फिर भी आइकाॅनिक अनुवाद की श्रेणी में रखा जा सकता है।
‘महाभारतदर्पण’ की भाषा की ज़्यादातर विद्वानों ने खूब प्रशंसा की है। रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं कि इसकी भाषा ‘प्रांजल और सुव्यवस्थित’ है। भाषा प्रांजल और सुव्यवस्थित भले ही हो, लेकिन उसमें हिन्दी का सहज प्रवाह कहीं-कहीं बाध्ाित हुआ है। कारण सम्भवतः ये है कि इसकी भाषा को मूल के यथासम्भव समीप रखने की कोशिश की गयी है। बलदेव उपाध्याय के शब्दों में ‘इसकी भाषा मूल संस्कृत के काफ़ी निकट है।’ भाषा को मूल संस्कृत के काफी निकट रखने के कारण ही ‘महाभारतदर्पण’ की भाषा में वैसा सहज प्रभाव नहीं दिखाई पड़ता जैसा सबलसिंह कृत महाभारत में मिलता है। ये स्वाभाविक भी है क्योंकि इससे पहले हिन्दी की जातीय परम्परा में ‘मूल’ को लक्ष्यभाषा में यथावत् रूपान्तरित करने की चेष्टा प्रायः नहीं की गयी। इसलिए महाभारतदर्पण को एक ऐसे नये प्रस्थान के रूप में देखना चाहिए जहाँ मूल को यथावत् अनूदित करने की कोशिश की गयी। इससे पहले नया ग्रन्थ रचने का चलन था। कभी-कभी तो मूल ग्रन्थ कौन है, यही तय कर पाना असम्भव हो जाता था। जैसे पुराने बरगद के पेड़ में मूल तना कहाँ है, ये तय कर पाना मुश्किल होता है। ऊपर से नीचे लटकने वाले बरोह भी समय बीतने के साथ तने के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। किन्तु अनुवाद के लिए ये आवश्यक है कि आप पहले किसी मूल ग्रन्थ की परिकल्पना स्वीकार करें, तभी आप उसका अनुवाद कर सकते हैं।
(3)
दक्षिण एशिया में पूर्व औपनिवेशिक दौर में अनुवाद की परम्परा नहीं मिलती। अठारहवीं सदी से पहले किसी विदेशी ग्रन्थ के हिन्दी या किसी अन्य भारतीय भाषा में अनूदित किए जाने के साक्ष्य नहीं मिलते। असल में ट्रान्सलेशन के लिए किसी भारतीय भाषा में कोई शब्द नहीं दिखता। संस्कृत के शब्दकोशों में अनुवाद का अर्थ पीछे बोलना, जैसा बोला गया, पीछे समझना था। ट्रान्सलेशन के लिए अनुवाद शब्द का प्रयोग उन्नीसवीं सदी में होने लगा। शब्द तो पुराना रहा किन्तु अर्थ बदल गया। अनुवाद का अर्थ ट्रान्सलेशन हो गया। हरिश्चन्द्र मैग्ज़ीन में भारतेन्दु ने अनुवाद शब्द का प्रयोग ज्तंदेसंजपवद के अर्थ में किया है। सम्भव है कि अनुवाद शब्द का श्ज्तंदेसंजपवदश् के अर्थ में प्रयोग भारतेन्दु से पहले भी हुआ हो, किन्तु अभी तक जो जानकारी उपलब्ध्ा है, उसके अनुसार ट्रान्सलेशन के अर्थ में अनुवाद शब्द का यह सबसे पुराना प्रयोग है। उन्होंने बंगभाषा से अनुवाद@छायानुवाद के रूप में इस शब्द का प्रयोग किया है।
सुसन वाॅस्नेट और हरीश त्रिवेदी ने (199ः9) ने लिखा है कि ट्रान्सलेशन के लिए संस्कृत के अनुवाद शब्द का प्रयोग भारत के प्रायः सभी भाषाओं में हुआ है, जबकि संस्कृत में अनुवाद का अर्थ दोहराना या पुनर्कथन है। अनुवाद के इसी अर्थ को ध्यान में रखते हुए किस्ट्री मेरिल ने अनुवाद की भारतीय परम्परा के सम्बन्ध्ा में सम्बद्धता, गतिशीलता और संवादध्ार्मिता पर जोर दिया है (2009ः 34)। यदि ट्रान्सलेशन का अर्थ एक भाषा के ग्रन्थ को दूसरी भाषा में ले जाना है तो अनुवाद का अर्थ ‘बदले में बोलना’ है। अनुवाद को बदले में बोलने के रूप में देखने पर मूल को यथावत् दूसरी भाषा में उतारने की चिन्ता नहीं रहती और अनुवादक की भूमिका सर्जनात्मक हो जाती है। सच तो यह है कि वह अनुवादक ही नहीं रह जाता, सर्जक हो जाता है। इस प्रकार मूल रचनाकार और अनुवादक का पदानुक्रम ही भंग हो जाता है। असल में अनुवादक की अवध्ाारणा तभी महत्वपूर्ण होगी जब रचना, रचनाकार और स्वामित्व की मान्यता को स्वीकृति मिलेगी। कहने की ज़रूरत नहीं कि प्रिन्ट पूँजीवाद के वजूद में आने के बाद ही ये अवध्ाारणाएँ स्थिर हुईं। पूर्व औपनिवेशिक दौर में प्रचलित अनुवाद की अवध्ाारणा में यथावत् अनुवाद की चिन्ता नहीं थी; सर्जनात्मक नवोन्मेश से कृति नयी होती चली जाती थी। संवाद और सम्बद्धता की पूर्व औपनिवेशिक परम्परा तो खोजी जा सकती है किन्तु इसे आध्ाुनिक अर्थों में अनुवाद कहना मुश्किल है। इसीलिए इस समूची प्रक्रिया को ‘इण्टर टेक्सच्युऐलिटी’ के सहारे ज़्यादा बेहतर ढंग से व्याख्यायित किया जा सकता है। भारत में अनुवाद के बजाय एक नयी रचना तैयार की जाती थी। इसलिए सही-सही अनुवाद करने की चिन्ता भी यहाँ कहीं नहीं मिलती। कोर्ट के अनुसार, उन्नीसवीं सदी से पहले यथावत् अनुवाद की चिन्ता दक्षिण एशियाई साहित्यिक संस्कृति में देखने को नहीं मिलती। ब्रियान ए. हैचर ने लिखा है कि उéीसवीं सदी में भी ईश्वरचन्द विद्यासागर के यहाँ ऐसी चिन्ता नहीं, किन्तु बंकिमचन्द्र तक आते-आते मूल को अनुवाद में यथावत् उतार देने की चिन्ता दिखाई पड़ने लगती है। भगवत्गीता की टीका में इसे देखा जा सकता है। बंकिम चन्द्र लिखते हैं कि एकाध्ािक अवसरों पर उन्होंने अर्थबोध्ा कराने हेतु यथावत् अनुवाद के आदर्श का उल्लंघन किया है। (1985ः2-680-81)
भारत में साहित्यिक ग्रन्थों ही नहीं, चिकित्साशास्त्र के ग्रन्थों का भी अनुवाद नहीं रूपान्तर किया गया। मूलभूत बातों का सार या कई ग्रन्थों में लिखी गयी बातों को एक ग्रन्थ में संग्रहीत करने के प्रयास किए गये। सोलहवीं सदी से ऐसे लोगों के लिए भाषा में ग्रन्थ बनाए जाने का सिलसिला बढ़ गया जो संस्कृत या फ़ारसी नहीं जानते थे। ये ग्रन्थ फ़ारसी या संस्कृत ग्रन्थों पर आध्ाारित थे, किन्तु इन्हें किसी एक ग्रन्थ का अनुवाद नहीं कहा जा सकता। इन्हें पश्चिमी ढब पर अनुवाद भले न कहा जा सके फिर भी इससे यह तो पता लग ही जाता है कि पश्चिमी ढंग के अनुवाद के चलन से पहले एक भाषा से दूसरी भाषा में ज्ञान के रूपान्तरण की एक पद्धति भारत में चली आ रही थी।
अनुवाद की अनुपस्थिति को समझने की दृष्टि से भाषा और ग्रन्थ की दक्षिण एशिया में प्रचलित अवध्ाारणा को समझना ज़रूरी है। ग्रन्थ की अवध्ाारणा के दो आयाम रहे हैं- केन्द्राभिसारी और केन्द्रापसारी। कपिला वात्स्यायन समेत अनेक विद्वानों ने भारतीय सन्दर्भ में ग्रन्थ के इन दो आयामों की चर्चा की है। दूसरी समस्या भाषा की है।3 भारतीय परम्परा में भाषाओं का स्वरूप प्रायः इतना खुला हुआ है कि एक भाषा को दूसरी भाषा से अलग करना मुश्किल हो जाता है। इसीलिए कुछ विद्वान यह मानते हैं कि आध्ाुनिक भारत में भी एक भाषा को दूसरी भाषा से अलग कर परिभाषित कर पाना आसान नहीं था। आध्ाुनिक भारतीय भाषाओं में ही नहीं, संस्कृत में भी भाषा की निरपेक्ष और सिर्फ़ लिखित सत्ता स्वीकार नहीं की गयी। प्राकृत, संस्कृत, लौकिक एवं वैदिक संस्कृत को पूरी तरह से अलग कर नहीं देखा गया।4
भारत में ‘मूल’ को यथावत् अनूदित करने पर कभी जोर नहीं दिया गया। इसलिए ‘अनुवाद’ की परम्परा भी नहीं रही। यहाँ अनुवाद शब्द का प्रयोग ‘ट्रान्सलेशन’ के वजन पर किया जा रहा है। आगे बढ़ने से पहले यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि मूल ग्रन्थ ;न्त जमगजद्ध की अवध्ाारणा भी ए.के. रामानुजम की मानें तो भारतीय नहीं है। बरगद के पुराने पेड़ के तने और बरोह की तरह यह तय कर पाना ही मुश्किल है कि कौन तना है कौन बरोह है। बरोह ;ैीववजद्ध तने में तब्दील हो जाता है और ‘मूल’ तने का वजूद ही ख़त्म हो जाता है।
भारतीय परम्परा में ग्रन्थ की स्वतन्त्र सत्ता के बजाय उनकी पारम्परिक सम्बद्धता पर ज़ोर देने का चलन रहा है। इसीलिए यहाँ एक नहीं अनेक रामायण और महाभारत हैं। और इनमें से किसी को भी पूर्ववर्ती कृति का अनुवाद नहीं कहा गया। ये स्वतन्त्र ग्रन्थ हैं, अनुवाद नहीं। वस्तुतः मूल और अनुवाद का पदानुक्रम पहले नहीं था। इसलिए न तो ट्रान्सलेशन के अर्थ में अनुवाद शब्द था और न ही यथावत् अनुवाद की कोई चिन्ता थी।
वाल्टर वेन्यामिन ने लिखा है कि अनुवाद अन्ततः पुनर्लेखन है किन्तु पुनर्लेखन की बात भारतीय परम्परा में पहले से मान्य रही है। इसीलिए यथावत् अनुवाद पर कभी जोर नहीं दिया गया। पुनर्रचना कहने की ज़रूरत इसलिए महसूस की गयी क्योंकि पुनर्रचना के साथ यह भी ध्यान देना होता है कि पुनर्रचना विध्ाा के अनुरूप हो। कहने का आशय यह कि यदि कविता का अनुवाद किया जा रहा है तो पुनर्रचना भी कविता जैसी लगनी चाहिए। मुकुन्द लाठ लिखते हैं ‘कविता के सफल अनुवाद कैसे होते हैं? मैं समझता हूँ, अनुवादक मूल के आध्ाार पर एक नयी कविता गढ़ लेता है और अनुवाद का इससे अलग अपना एक नया अस्तित्त्व हो जाता है। तो फिर प्रश्न उठता है कि मूल के साथ उसका सम्बन्ध्ा क्या होता है? कविता अगर नयी होती है तो उसे किसी मूल का अनुवाद क्योंकर कह सकते है? इस प्रश्न का उत्तर हमें संस्कृत काव्य विमर्श की परम्परा में भी मिलता है। पुरानी कविता को नयी कर लेना और इस तरह उसे अपना बना लेना संस्कृत में कविता करने का माना हुआ मार्ग था। काव्य चोरी का प्रश्न उठाते हुए राजशेखर ने अपनी ‘काव्यमीमांसा’ में इसकी विस्तार से चर्चा की है और इसे स्वीकरण की संज्ञा दी है।... दूसरों की कविता को अपना लेने भर से चोरी नहीं हो जाती, बात इस पर निर्भर करती है कि कैसे अपनायी जाती है दूसरे की कविता। नया कवि उसके साथ करता क्या है? उन्होंने अपनाने के दो बिल्कुल भिन्न प्रकार बतलाये हैं- एक हरण, दूसरा स्वीकरण। हरण सरासर चोरी है पर स्वीकरण चोरी नहीं। उसमें सृजन है, उत्पादन है। नयी रचना का अध्ािकार है। (2019ः 91)
स्वीकरण की अवध्ाारणा महत्वपूर्ण है। इससे यह गुत्थी काफ़ी कुछ सुलझ जाती है कि भारत में अनुवाद की परम्परा क्यों नहीं थी। ‘महाभारतदर्पण’ के अध्ययन में भी इस सूझ से मदद मिल सकती है। किन्तु ‘महाभारतदर्पण’ की चर्चा से पहले यह देख लेना चाहिए कि सत्रहवीं सदी से क्या स्वीकरण की पुरानी परम्परा में कुछ परिवर्तन होने लगता है।
स्वीकरण की अवध्ाारणा से यह बात भी स्पष्ट हो जाती है यहाँ ‘सन्देश’ को एक भाषा से दूसरी भाषा में लाने में एक प्रकार की रचनात्मक उन्मुक्तता थी, रूप को हुबहू उतार देने पर ज़ोर नहीं दिया जाता था। इसका कारण सम्भवतः यह था कि वाक् और अर्थ की सम्पृक्ति पर इतना ज़ोर दिया जाता था कि वाक् को हटाकर अर्थ निचोड़ लेने की कल्पना कर पाना मुश्किल था। यह मान लिया गया था कि किसी रचना को एक भाषा से दूसरी भाषा में पूर्णतः भाषान्तरित कर पाना सम्भव ही नहीं। यहाँ तक कि एक ही भाषा में उसे ‘दूसरे शब्दों’ में नहीं लाया जा सकता। भाषा का अर्थ बोलने से है। भाषा के लिए जितने भी शब्द संस्कृत में हैं, उन सभी शब्दों का अर्थ बोलना है। यदि हमारी परम्परा में भाषा का अर्थ उच्चरित भाषा है, तो फिर ‘दूसरे शब्दों’ में वह ध्वनि कैसे आ सकती है? कविता में तो बिल्कुल ही नहीं आ सकती, दूसरी विध्ााओं और अनुशासनों में भी पूरी तरह नहीं आयेगी। अनुवाद के लिए एक लिखित पाठ की ज़रूरत होती है। यदि भाषा को पूर्णतः वाच्य मान लिया जाय तो अनुवाद सम्भव ही नहीं। वाचिक के बजाय लिखित भाषा की परिकल्पना अर्थात् शब्दों को उच्चार के बजाय लिखित चिन्ह के रूप में देखने पर ही अनुवाद सम्भव है। वेदों को इसीलिए लम्बे समय तक लिखा नहीं गया क्योंकि वहाँ लिखित के बजाय उच्चरित शब्द की प्रध्ाानता थी। जहाँ अर्थ से ज़्यादा उच्चारण का महत्व होगा, वहाँ अनुवाद नहीं होगा। इसीलिए कहा गया कि जो वेदों को लिखने का प्रयास करेगा, नर्क जायेगा। लिखना शब्द को चिह्न में निःशेष करना है। ऋचाओं और मन्त्रों का अनुवाद इसीलिए असम्भव है क्योंकि वहाँ नाद सौन्दर्य बहुत महत्वपूर्ण है। कविता का अनुवाद नामुमकिन न सही, मुश्किल ज़रूर है। इस बोध्ा ने स्वीकरण की अवध्ाारणा को जन्म दिया। वस्तुतः साहित्य में स्वीकरण की अवध्ाारणा का वही महत्व है जो हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की दुनिया में बढ़त का। राग वही रहता है किन्तु कुछ संगीतज्ञों का मानना है कि उसमें 60-70 प्रतिशत तक बढ़त की जा सकती है। इसीलिए एक ही राग के गायन में इतना रचनात्मक वैविध्य दिखायी पड़ता है। अलग-अलग गायक उसे अपने ढंग से गाते हैं। यहाँ तक कि एक ही गायक उसी राग को हर बार एक ही ढंग से नहीं गाता। पश्चिमी संगीत में यह छूट नहीं है। वहाँ सिम्फनी के नोट्स लिखे होते हैं, और वह सिम्फ़नी हर बार एक ही तरह से बजायी जाती है। कहने का आशय यह है कि चाहे अनुवाद हो, चाहे संगीत, उन्हें भारतीय परम्परा में जैसी रचनात्मक छूट मिली थी, वैसी रचनात्मक छूट पश्चिमी परम्परा में नहीं थी।
इसलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि पूर्व औपनिवेशिक दौर में अनुवाद का अर्थ कुछ और था- सांस्कृतिक दृष्टि से सार्थक और प्रभावशाली एक नया ग्रन्थ तैयार करना था। कैलवर्त और हेमराज ने लिखा है कि ‘दक्षिण एशिया में रूप को संरक्षित करने की जटिलता पर जोर देने के बजाय सन्देश के सम्प्रेशण को प्राथमिकता दी जाती थी (1983)। किन्तु औपनिवेशिक दौर में यह प्राथमिकता बदल गयी। अनुवाद के आध्ाुनिक अर्थ का सम्बन्ध्ा औपनिवेशिक शासन की उस प्रवृत्ति से है जहाँ सत्य को किसी एक समान उत्पत्ति से जोड़ दिया जाता है। किन्तु सर्जनात्मक पुनर्रचना की पूर्व औपनिवेशिक परम्परा को अनुवाद की पश्चिमी अवध्ाारणा ने अपदस्थ कर दिया। इसलिए अनुवाद की एक वैकल्पिक सम्भावना पर पुनर्विचार आवश्यक है। अनुवाद का सम्बन्ध्ा सिर्फ़ भाषा से नहीं है। लीडिया लियु के मुताबिक ‘एक पराभाषिक व्यवहार के रूप में अनुवाद का मतलब अन्तरभाषिक सन्दर्भ में अर्थ का स्थानान्तरण और रूपान्तरण मात्र नहीं है। अनुवाद से आशय विशिष्ट ऐतिहासिक सन्दर्भ में अर्थ का आविष्कार-अर्थ भरने के इतिहास से भी है; और इसे संस्कृति एवं सत्ता से अलग नहीं किया जा सकता (1995ः 32)। किन्तु भाषा की नैमित्तिक भूमिका स्वीकार कर लेने के बाद अनुवाद की भूमिका बदल गयी।
(4)
ए.के. रामानुजन ने अनुवाद की तीन श्रेणियाँ बनायी हैं ः
1. आइकाॅनिक ट्रान्सलेशन (प्बवदपब ज्तंदेसंजपवद)
2. इन्डेक्सिकल ट्रान्सलेशन (प्दकमगपबंस ज्तंदेसंजपवद)
3. सिम्बाॅलिक ट्रान्सलेशन (ैलउइवसपब ज्तंदेसंजपवद)
आइकाॅनिक अनुवाद तो वह है जहाँ मूल को हूबहू उसी रूप में उतारने की चेष्ठा की जाती है। असल में अनुवाद वही है और पश्चिमी संस्कृति में इसे ही अनुवाद के आदर्श के रूप में पेश किया जाता है।
इन्डेक्सिकल अनुवाद में मूल का अनुकरण करने में कुछ छूट ले ली जाती है। सिम्बाॅलिक ट्रान्सलेशन में मूल केवल आध्ाार के रूप में रहता है। मूल की बुनियाद पर गुणात्मक रूप से भिन्न रचना बना ली जाती है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि अनुवाद की अवध्ाारणा को इतना विस्तृत कर देने पर किसी भी प्रकार का सम्प्रेषण-संवाद अनुवाद के दायरे में आ जाता है। किन्तु इससे भाषिक संवाद-सम्प्रेषण के संस्कृति-सापेक्ष वैशिष्ट्य का बोध्ा नहीं होता। इसलिए यदि अनुवाद शब्द को ट्रान्सलेशन के अर्थ में प्रयोग करना ही हो तो भी अनुवाद को संस्कृति सापेक्ष व्यवहार के रूप में ही देखना चाहिए। इस चर्चा को आगे बढ़ाने से पहले आइकाॅनिक अनुवाद की पूर्व औपनिवेशिक परम्परा विचार कर लेना चाहिए।
उल्लेखनीय है कि जानकोर्ट (2015) ने लिखा है कि सत्रहवीं सदी में अनुवाद के साक्ष्य जैन परम्परा में मिलने लगते हैं। उन्होंने बनारसी दास जैन द्वारा किए गये अनुवादों को आइकाॅनिक अनुवाद की संज्ञा दी और यह भी बताया है कि आइकाॅनिक अनुवाद की यह परम्परा ‘बनारसीदास’ के बाद भी जारी रही। उल्लेखनीय है कि बौद्ध-जैन परम्पराओं में लेखन और ‘ग्रन्थ’ की महत्ता हिन्दू परम्परा से अध्ािक रही है। सम्भवतः इसीलिए सत्रहवीं सदी में आइकाॅनिक अनुवाद के साक्ष्य जैन परम्परा में मिल जाते हैं।
जैन परम्परा के अतिरिक्त इस्लामी परम्परा में भी अनुवाद का इतिहास रहा है। ‘तजऱ्ुमान’ शब्द फ़ारसी में पहले से था। अनुवाद की तरह इसे औपनिवेशिक आविष्कार नहीं कहा जा सकता। उल्लेखनीय है कि आगरे में ही अकबर के शासनकाल में संस्कृत के अनेक ग्रन्थों का फ़ारसी में अनुवाद कराया गया था। इन ग्रन्थों में रामायण और महाभारत का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। किन्तु यहाँ हम सिर्फ़ महाभारत के अनुवाद की चर्चा संक्षेप में करेंगे।
महाभारत का ‘रज़्मनामा’ नाम से फ़ारसी में अनुवाद 1584ई0 में किया गया। सुकथणकर का विश्वास था रज़्मनामा महाभारत का अनुवाद नहीं है। इसमें महाभारत की कथा उन्मुक्त भाव से कह दी गयी है। सुकथणकर के अतिरिक्त अड्लूरी और हिल्टबीटल भी यही मानते थे। किन्तु प्रदीप भट्टाचार्य का कहना है कि रज़्मनामा महाभारत का अनुवाद है, उसका संक्षिप्त रूप नहीं। (2018) अकबर ने महाभारत के अनुवाद के लिए विद्वानों का एक बड़ा समूह तैयार किया था। इसमें देवी मिश्र, चतुर्भुज मिश्र, सत्वदन मध्ाुसूदन मिश्र, रुद्रभट्टाचार्य और शेख भावन (दक्षिणी ब्राह्मण जिसने इस्लाम स्वीकार कर लिया था) के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। ये विद्वान उत्तर, दक्षिण और बंगाल से आते थे। अकबर का आदेश था कि मूल का यथावत् अनुवाद हो और कुछ भी छूटने न पाये। अनुवाद अकबर को सुनाया जाता था और फिर उस पर चर्चा होती थी। मूल और उसके रूपान्तरण को मिलाकर जाँच की जाती थी।
रज़्मनामा के अनुवाद में फ़ारसी विद्वानों की निगरानी फ़ैज़ी और अबुल फ़ज़ल ने की। नेतृत्व नकीब खाँ ने किया। उनके साथ मुल्ला षीरी, सुल्तान थानीसरी और बदायूँनी जैसे फ़ारसी के विद्वान थे। अबुल फ़ज़ल ने कच्चे अनुवाद को काव्यात्मक अनुवाद में रूपान्तरित किया। संस्कृत के विद्वान महाभारत का अर्थ एक साझी भाषा में फ़ारसी के विद्वानों को बताते थे। नकीब खाँ इस साझी भाषा को हिन्दी कहते हैं। फ़ारसी के विद्वान् हिन्दी में सुनकर उसे फ़ारसी में तब्दील करते थे। स्पष्ट है कि यह अनुवाद संस्कृत और फ़ारसी के विद्वानों ने मिलकर किया। इसे संस्कृत से सीध्ो फ़ारसी में नहीं किया गया। इसलिए इसे आईकाॅनिक अनुवाद कहना मुश्किल है क्योंकि जैसे पहले कहा गया, हिन्दी वह भाषा थी जिसमें संस्कृत का अनुवाद सुनकर उसे फ़ारसी में तब्दील किया जाता था।
‘रज़्मनामा’ में ज़्यादातर अवध्ाारणात्मक संस्कृत के शब्दों को फ़ारसी में यथावत् लिप्यन्तरित कर दिया गया है। कुछ शब्दों को अनूदित भी किया गया है, जैसे ब्रह्मा के लिए ख़ुदाबन्द शब्द का प्रयोग। कुछ प्रसंगों को इस्लामिक एकेश्वरवाद की परम्परा के मेल में लाने के लिए, संक्षिप्त भी किया गया है। जैसे गीता को बहुत संक्षिप्त रूप में ही रखा गया है। किन्तु कृष्ण को पैग़म्बर मुहम्मद, हिन्दू, देवता और कहीं-कहीं इस्लामिक ख़ुदा के रूप में पेश किया गया है। ‘नल दमयन्ती’ की कथा को स्थानीय रंगत में ढाल दिया गया है।5
उल्लेखनीय है कि अठारहवीं सदी के ‘महाभारतदर्पण’ से पहले सोलहवीं सदी में रज़्मनामा और सत्रहवीं सदी में ‘नीलकण्ठ महाभारत’ का पाठ तैयार किया जा चुका था। यद्यपि ‘रज़्मनामा’ और ‘नीलकण्ठ महाभारत’ के बीच सम्बन्ध्ा स्थापित करने वाला कोई तथ्य फि़लहाल उपलब्ध्ा नहीं है, किन्तु विभिन्न पाण्डुलिपियों के आध्ाार पर महाभारत का एक पाठ तैयार करने की प्रक्रिया इन दोनों पाठों में दिखायी पड़ती है। ‘नीलकण्ठ महाभारत’ और ‘महाभारतदर्पण’ के पारस्परिक सम्बन्ध्ा के बारे में कोई लिखित साक्ष्य भले न मिलता हो किन्तु दोनों की तुलना करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ‘महाभारतदर्पण’ के लिए ‘नीलकण्ठ महाभारत’ का ही आध्ाार के रूप में प्रयोग किया गया था। परिशिष्ट में ‘द्रौपदी-चीरहरण’ प्रसंग का प्रयोग महाभारत के विभिन्न पाठों में तुलना करने हेतु किया गया है। इस तुलना से स्पष्ट हो जाता है कि ‘महाभारतदर्पण’ तैयार करने हेतु ‘नीलकण्ठ महाभारत’ का ही आध्ाार-ग्रन्थ के रूप में प्रयोग किया गया था। इसे आइकाॅनिक अनुवाद कहना अनुचित नहीं होगा। तुलना करने से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि ‘महाभारतदर्पण’ में संस्कृत महाभारत की भाषा को ही उतारने का प्रयास किया है। उल्लेखनीय है कि कलकत्ता के शास्त्र प्रकाश मुद्रा यन्त्र से प्रकाशित करने के पहले इसे पण्डित लक्ष्मीनारायण से शुद्ध कराया गया। जब इसे नवल किशोर प्रेस ने छापा तो उन्होंने भी रामरतन बाजपेई और प्यारे लाल से इसे दोबारा शुद्ध कराया।
यदि ‘महाभारतदर्पण’ की पाण्डुलिपि उपलब्ध्ा हो जाती तो पता लग जाता कि शुद्ध करने का नाम पर इसमें कैसे बदलाव किये गये? इसके बावजूद यह प्रश्न तो उठता ही है कि इसे दो बार शुद्ध क्यों कराया गया। प्रिन्ट में लाने से पहले और प्रिंट में आ जाने के बाद दोबारा क्यों शुद्ध कराया गया? लगता है कि आइकाॅनिक अनुवाद करने और भाषा के छन्द में ढालने के कारण ‘महाभारतदर्पण’ की भाषा में जो किंचित अटपटापन रह गया है, उसे शुद्ध करने के नाम पर ठीक किया गया है। यह बात अलग है कि शुद्ध करने के बावजूद अटपटापन कुछ बचा रह गया। अनुवाद की दो पद्धतियाँ बहुत विख्यात हैं।
एक, जहाँ पढ़ते हुए एहसास बचा रहता है कि यह किसी ग्रन्थ का अनुवाद है। मूल की छाप जहाँ पूरी तरह मिटायी नहीं जाती। मूल की स्मृति जहाँ बची रहती है। मूल और अनुवाद का अन्तर बना रहता है तो पाठक का आलोचनात्मक विवेक जाग्रत रहता है और फिर सांस्कृतिक और ऐतिहासिक अन्तराल का ध्यान रखते हुए मूल और अनुवाद के बीच तुलना की जा सकती है।
दूसरी, जहाँ अनुवाद पढ़ते हुए यह एहसास ही नहीं होता कि अनुवाद पढ़ा जा रहा है। जहाँ अनुवाद अनुवाद लगता ही नहीं। जहाँ मूल और अनुवाद के बीच ऐतिहासिक सांस्कृतिक अन्तराल का बोध्ा नहीं होता जहाँ अनुवाद और मूल का अन्तर मिट जाता है।
कहने की ज़रूरत नहीं कि ‘महाभारतदर्पण’ के अनुवाद को पहली श्रेणी में रखना होगा। यहाँ यह एहसास बचा रहता है कि आप अनुवाद पढ़ रहे हैं।
बलदेव उपाध्याय ने महाभारतदर्पण की चर्चा के दौरान ज़्यादातर बातें तो रामचन्द्र शुक्ल के हिन्दी साहित्य के इतिहास से हू-ब-हू उतार दी है। किन्तु ज़्यादा महत्वपूर्ण है ‘महाभारतदर्पण’ की भाषा के विषय में उनका यह कथन- ‘‘यह अनुवाद भावों की अभिव्यंजना, शब्द-चयन, भाषा, सौष्ठव आदि साहित्यिक दृष्टि से मूल संस्कृत के बहुत ही निकट है।’’ (2016ः 120)।
ईसा की दूसरी सहस्राब्दी लोक भाषाओं की सहस्राब्दी मानी जाती है। शेल्डन पोलक ने अपने प्रसिद्ध लेख ‘इंडिया इन वर्नाकुलर मिलेनियम’ में इस प्रक्रिया का विशद विवेचन किया है। दूसरी सहस्राब्दी में संस्कृत का महत्व घटता है और स्थानीय भाषाओं की भूमिका बढ़ने लगती है। इसी के साथ संस्कृत-ग्रन्थों को देश भाषाओं में लाने की कोशिश भी शुरू हो जाती है। महाभारत दर्पण को लोकभाषीकरण की प्रक्रिया से जोड़कर देखना चाहिए। (पोलक 1998ः 41-76)
उस समय हिन्दी क्षेत्र में ज़्यादातर रचनाएँ ब्रजभाषा में लिखी जाती थी। बनारस की भाषा ब्रजभाषा नहीं थी। लेकिन अठारहवीं सदी के बनारस के सभी रचनाकारों ने लेखन के लिए ब्रजभाषा का प्रयोग किया था। इसीलिए ‘महाभारतदर्पण’ की भाषा को भी विद्वानों ने ब्रजभाषा माना। किन्तु मिश्रबंध्ाुओं की ये समझ में आ गया था कि ‘महाभारतदर्पण’ की भाषा ‘शुद्ध’ ब्रजभाषा नहीं है। वे लिखते हैं कि ‘इन्होंने काव्य-प्रणाली में ब्रजभाषा को प्रध्ाान रखा परन्तु कथावर्णन में इनकी कविता में ब्रजभाषा और तुलसीदास की भाषाओं का मिश्रण हो गया है। मिश्र बंध्ाुओं के इस कथन से ये बात स्पष्ट हो जाती है कि ‘महाभारतदर्पण की भाषा’ में भले ही ब्रजभाषा का प्राध्ाान्य हो किन्तु इसमें अवध्ाी की मिलावट भी कुछ कम नहीं है। यही नहीं, सच तो ये हैं कि इसमें खड़ी बोली की झलक भी कहीं-कहीं मिल जाती है। खड़ी बोली ही नहीं, रेख्ते का असर भी दिखाई पड़ जाता है। इसलिए ये कहना अनुचित नहीं होगा कि हिन्दी काव्यभाषा के विकास की दृष्टि से ‘महाभारतदर्पण’ की भाषा का ज़्यादा गहराई से अध्ययन करने की ज़रूरत है।
जैसा कि पहले कहा गया ‘महाभारतदर्पण’ की भाषा ‘मूल’ के निकट है। संस्कृत महाभारत को सामने रखकर रूपान्तरित करने का परिणाम यह हुआ कि ‘महाभारतदर्पण’ की भाषा कहीं-कहीं तत्सम बहुल हो गयी है। इसे लोक भाषा का संस्कृतिकरण कहा जा सकता है। संस्कृत के छन्द को लोकभाषा के छन्द में उतारना आसान नहीं था। यह भी ध्यातव्य है कि संस्कृत के विपरीत लोकभाषा के ज़्यादातर छन्दों में तुक मिलाना पड़ता है। यह अकारण नहीं कि ‘महाभारतदर्पण’ के कुछ छन्दों में कई बार सिफऱ् तुक मिलाने के लिए शब्द लाये गये हैं। आगे बढ़ने से पहले यह उल्लेख कर देना आवश्यक है कि लोकभाषाओं का संस्कृतिकरण भक्ति आन्दोलन के दौरान ही आरम्भ हो गया था। रीतिकाल में यह प्रक्रिया आगे बढ़ी। इसलिए यह मानना उचित नहीं होगा कि हिन्दी का संस्कृतीकरण बीसवीं सदी में ही हुआ। बीसवीं सदी से पहले भी हिन्दी के संस्कृतीकरण की परम्परा मिल जाती है।
हिन्दी क्षेत्र की जनपदीय भाषाओं की पारस्परिक सम्बद्धता पर मैंने अपने लेख ‘बहता नीर’ में विस्तार से विचार किया था। उस लेख में इस प्रसंग की चर्चा भी की गयी थी कि क्षेत्रीय भाषाओं की अपवर्जी अस्मिताएँ गढ़ने का काम उन्नीसवीं सदी में शुरू हुआ था। बीसवीं सदी में यह प्रक्रिया और भी प्रगाढ़ हुई। हिन्दी जनपद की भाषायें तो इतनी सम्बद्ध थी कि उन्हें कई बार अलगाना मुश्किल हो जाता है। काव्य भाषा के स्तर पर तो इन्हें अलग कर पाना और भी मुश्किल है। मुल्ला दाऊद की भाषा को न तो पूरी तरह अवध्ाी कहा जा सकता है और न ही विष्णुदास के ‘पाण्डवचरित’ की भाषा को पूर्णतः ब्रजभाषा माना जा सकता है। कुछ विद्वानों का तो यह भी मानना है कि हिन्दी क्षेत्र में कई जनपदीय भाषाओं को मिलाकर एक काव्य भाषा बना लेने का चलन रहा है। डाॅ. विश्वनाथ प्रसाद लिखते हैं कि-
‘चन्दायन की भाषा हिन्दी के विकास का वह प्रारम्भिक रूप है, जिसमें उसके किसी एक स्थानीय स्वरूप को लेकर और उसमें अन्यान्य कई बोलियों के प्रचलित प्रयोगों का मिश्रण करके उसे अध्ािक से अध्ािक व्यापक बनाने की प्रवृत्ति पायी जाती है। भाषा का एक सर्वजन-सुलभ और सुबोध्ा रूप खड़ा करने के लिए इसमें विभिन्न भाषा क्षेत्रों में प्रचलित रूपों के मिश्रण का कुछ ऐसा ही आदर्श अपनाया गया है, जैसा कि कबीर आदि सन्त कवियों की परम्परा में हमें मिलता है, क्योंकि उनका भी उद्देश्य अपने सिद्धान्तों को अध्ािक से अध्ािक लोगों को हृदयंगम कराना था’। (1962ः 14)
इस सन्दर्भ में परमेश्वरीलाल गुप्त का यह उद्धरण भी दृष्टव्य है।
पच्चीस-तीस वर्ष पूर्व हमें गुजरात के एक गाँव अपने मित्र के घर जाना पड़ा था, वहाँ उनके वयोवृद्ध पितामह को तुलसीदास के रामचरितमानस का सस्वर पाठ करते सुना। जिज्ञासावश जब हमने उनसे पूछा कि क्या आप रामचरितमानस की भाषा समझ लेते हैं तो उन्होंने बड़े ही सहजभाव से उत्तर दिया था- ‘इसमें समझने की क्या बात है, यह तो पुरानी गुजराती है।’
विष्णुदास की भाषा के लिए ग्वालियरी नाम के प्रयोग का उस समय तक कदाचित कुछ औचित्य भी हो सकता था जब तक उस काल की भाषा के स्वरूप की व्यापकता प्रकाश में नहीं आयी थी। मौलाना दाऊद के ‘चन्दायन’ के प्रकाश में आ जाने के बाद उसका औचित्य समाप्त हो जाता है। देश के दो छोरों पर रहते हुए भी दोनों ही कवि एक ही काल में एक ही तरह की भाषा में रचना कर रहे थे। उनकी भाषा के इस भौगोलिक विस्तार को देखते हुए उसे किसी प्रादेशिक नाम से पुकारना दृष्टिकोण की संकीर्णता मात्र होगी। वस्तुतः न तो मौलाना दाऊद की भाषा को अवध्ाी नाम दिया जा सकता है, और न विष्णुदास की भाषा को ग्वालियरी। उनकी भाषा को यदि किसी नाम से पुकारना ही अभीष्ट हो तो उसे किसी व्यापक नाम से पुकारना भौगोलिक और ऐतिहासिक दृष्टि से समीचीन होगा (1990ः 114-115)।
भाषाओं की अपवर्जी अस्मितायें गढ़ने के बजाय उन्हें एक भाषायी नैरन्तर्य के रूप में देखने और उनकी पारस्परिक सम्बद्धता रेखांकित करने की प्रवृत्ति कोई नयी नहीं है। प्राचीन काल में वैदिक संस्कृत, लौकिक संस्कृत और प्राकृत को पूरी तरह एक दूसरे से अलगाकर देखने की प्रवृत्ति पर ज़ोर नहीं दिया जाता था।
आगे महाभारतदर्पण से अवध्ाी खड़ी बोली और संस्कृत प्रध्ाान भाषा प्रयोग के कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं।
महाभारत दर्पण में अवध्ाी के प्रयोग
पूजब गौरीनाथ को, कूजब सीताराम।
सूझब प्रभु मैं जग भलो, बूझब तत्त्व सुनाय।। (दोहा)

पूजब, कूजब, सूझब, बूझब, अवध्ाी की सामान्य भविष्यत क्रियाएँ

सुनो तात सो तत्त्व अनूपा। भरत वंश अति पावन रूपा।।
नृप अजभीढ़ प्रगटभे तामें। ता सुत जह्नुअगण गुण जामें।।
ता सुत सिन्ध्ाुदीप भूस्वामी। ता सुत बलाकाश्व जयगामी।।
तासु तनय बल्लभ नयगाभी। कुशिक तासु सुत अनुपम नाभी।।
(भीष्म उबाच, चैपाई, शान्ति पर्व)
टिप्पणी ः
अनूपा, रूपा, अवध्ाी की ‘आ’ कार प्रवृत्ति
प्रगटभे- भे- अवध्ाी की सामान्य भूत क्रिया
तासु- अवध्ाी का सर्वनाम

सो सुनि सत्यवती की माता। कही सुताते बचन बिख्याता।।
कहि सुबचन मुनिकहँ अवराध्ाौ। भोरेहँु पुत्र होइ सो साध्ाौ।।
सत्यवती निजपति सन भाषी। भो जननी शुभ सुत अभिलाषी।।
तुव प्रसादसुत चाहति साईं। हम हमारि जननी शुभ ठाईं।।
माता, विख्याता, अवध्ाी की ‘आ’ कार बहुला प्रवृत्ति
कहँ- अवध्ाी के सम्बन्ध्ाकारक के लिए परसर्ग
हमारी, मोरे हँु, मो,- अवध्ाी के सर्वनाम
सन- अवध्ाी का परसर्ग- करण कारक के लिए

महाभारतदर्पण में खड़ी बोली के प्रयोग-
भगिनी सुमन कहाँ ये पाये।
अतिहि सुगन्ध्ा चारू सों छाये।।

अध्ारम जो हम देखते, लव हिय माहिं सुजान।
करते और बिचार नहिं, देते षाप महान।।

कौन काल में कीजिये, यज्ञ क्रिया अभिराम।
कैसे द्विज को दीजिये, दान कहहु बुध्ािध्ााम।।

शयन करेंगे अब हम राजा। चित में आलस भयो दराजा।।
कबहुँ न हमैं जगावे कोऊ। दाबो पद मेरे तुम दोऊ।।

परम दुर्लभ सलिल है, परलोक माही भूप।

ऋषि के जब भूपति पास गये। सहनारि सुढारि सुहर्ष छये।।
तबहि ऋषि अन्तद्र्धान भये। सहनारि सु भूपति सोच रये।।

(शान्ति पर्वः दानध्ार्मदर्पण)

महाभारतदर्पण में संस्कृत प्रध्ाान भाषा -
उपाख्यान उत्तममहा पावन ध्ान्य यशस्य।
पुण्य पुत्र ध्ानध्ाान्यप्रद मंगल मंजु रहस्य।।

दानध्ार्म हरिचिंतवन, परउपकार सुकर्म।
ग्राह्ययदा ये भूपमणि, गुणि सुख दायक पर्म।।
(शान्तिपर्व-दानध्ार्मदर्पण)
तडि़त श्यामघन रूप कमल बान ध्ानुध्ार विशद।
स्मित मुख शुभद अनूप सीताराम सुस्वामि प्रभु।।
(हरिवंशदर्पण, अध्याय-एक-दक्षोत्पत्तिवर्णन)
उल्लेखनीय है कि ‘महाभारतदर्पण’ में कई ऐसे अंश हैं जिन्हें संस्कृत में ही रहने दिया गया है। (देखें परिशिष्ट-5)। विचारणीय प्रश्न यह है कि इन अंशों का अनुवाद क्यों नहीं किया गया। वस्तुतः ये वही अंश हैं जिनका सम्बन्ध्ा नामावली, स्तुति, स्वस्तिवाचन, मन्त्रवाचन आदि से है। ये ऐसे अंश हैं जिनका अनुवाद सम्भव नहीं माना गया। भारतीय परम्परा में वाक् की केन्द्रीयता वेदों के समय से रही है। इसीलिए तर्क का आध्ाार यहाँ गणित नहीं, व्याकरण रहा। उल्लेखनीय है कि वेदों की परिकल्पना लिखित ग्रन्थ के रूप में नहीं, वाच्य ग्रन्थ के रूप में की गयी थी। इसीलिए उन्हें श्रुति भी कहा गया। वेदों में शब्दों का महत्व लिखित चिह्न के रूप में नहीं, वाच्य के रूप में है। इसीलिए उन्हें लम्बे समय तक वाचिक परम्परा में सुरक्षित रखा गया। कहा गया कि यदि कोई उन्हें लिखने की कोशिश करेगा तो वह नरक चला जायेगा। ध्यातव्य है कि संस्कृत में भाषा, वाणी, वद्, वाक् आदि जितने शब्द हैं, उन सभी का अर्थ बोलना है। शब्द की परिकल्पना लिखित के बजाय वाचिक रूप में की गयी। वेदों के अर्थ से ज़्यादा उनका पाठ-नाद महत्त्वपूर्ण हैं। काव्य में भी शब्दों के अर्थ से कम महत्त्वपूर्ण शब्दों का नाद सौन्दर्य नहीं है। शब्द-नाद का महत्व काव्य के अतिरिक्त संगीत में भी दिखायी पड़ता है। इसीलिए भारतीय संगीत गायन-प्रध्ाान है, जहाँ शब्द में व्यंजन से ज़्यादा स्वर महत्वपूर्ण हो जाते हैं। संगीत की तरह मन्त्रों में भी शब्दार्थ का ज़्यादा महत्व नहीं है, उनका एक विशेष पद्धति में पाठ ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है। जहाँ लिखित से ज़्यादा वाचिक महत्वपूर्ण हो जाता है, वहाँ अनुवाद सम्भव नहीं होता। स्वर का अनुवाद नहीं हो सकता। इसीलिए जहाँ शब्द-नाद की केन्द्रीयता है, उन्हें अनूदित नहीं किया गया है। उन्हें संस्कृत में ही रहने दिया गया है। वस्तुतः अठारहवीं सदी में यह एहसास बचा हुआ था कि कुछ भाषिक प्रयोगों- जहाँ शब्द और ध्वनि ज़्यादा महत्त्वपूर्ण होती है- का अनुवाद सम्भव नहीं है। क्योंकि ये अर्थ-प्रध्ाान भाषिक प्रयोग नहीं हैं। जहाँ अर्थ की प्रध्ाानता होगी, वहाँ अनुवाद आसान होगा। किन्तु जहाँ शब्द की प्रध्ाानता होगी, वहाँ अनुवाद नामुमकिन होगा। जहाँ शब्द और अर्थ दोनों महत्त्वपूर्ण होंगे, वहाँ अनुवाद नामुमकिन तो नहीं, मुश्किल होगा। परिशिष्ट-5 में महाभारतदर्पण के उन अंशों की सूची दी गयी है, जिन्हें संस्कृत में ही रहने दिया गया है।
महाभारतदर्पण की लोकप्रियता से प्रभावित होकर कलकत्ते के प्रकाशक ने महाभारत का खड़ी बोली अनुवाद सन् 1875 में प्रकाशित कर दिया। नवल किशोर प्रेस क्यों पीछे रहता। उसने भी सन् 1889 में ‘महाभारतभाषा’ नाम से इसे हिन्दी में प्रकाशित कर दिया। महाभारतभाषा के भी चार संस्करण प्रकाशित हुए। फिर क्या था, उन्नीसवीं सदी के अन्तिम और बीसवीं सदी के प्रारम्भिक दशकों में हिन्दी महाभारत छापने की बाढ़ सी आ गयी। कहने की ज़रूरत नहीं कि हिन्दी की प्रिंट-संस्कृति के निर्माण में महाभारत के प्रकाशन की सर्वाध्ािक उल्लेखनीय भूमिका रही है। यही नहीं बीसवीं सदी में ‘सांगीत महाभारत’ भी खूब छपे और खेले गए। विदित हो कि नौटंकी को पहले संगीत कहा जाता था।
प्रकाशन की दृष्टि से रामायण की तुलना में महाभारत की लोकप्रियता अध्ािक थी। कालान्तर में ‘रामचरितमानस’ अवश्य बहुत लोकप्रिय हुआ किन्तु यह बीसवीं सदी की परिघटना है। ‘रामचरितमानस’ की लोकप्रियता के पीछे उसकी ध्ाार्मिक ग्रन्थ के रूप में स्वीकृति की महती भूमिका रही है। किन्तु महाभारत को कभी भी ध्ाार्मिक ग्रन्थ नहीं माना गया। उल्टे लम्बे समय तक यह माना जाता रहा है कि महाभारत घर में रखने से परिवार में कलह बढ़ जाती है। इसके बावजूद प्रिंट में आने के बाद इसे हाथों-हाथ लिया गया। इसलिए यह कहना अनुचित नहीं होगा कि उन्नीसवीं सदी और बीसवीं सदी के प्रारम्भिक दशकों का हिन्दी-प्रकाशन का इतिहास महाभारत के उल्लेख के बिना अध्ाूरा रह जायेगा।
जैसे 19वीं सदी के उत्तराधर््ा से 20वीं सदी के प्रारम्भिक दशकों के हिन्दी प्रकाशन का इतिहास महाभारत के उल्लेख के बिना अध्ाूरा है, वैसे ही महाभारत की कोई भी चर्चा दूसरे कलामाध्यमों पर पड़ने वाले महाभारत के प्रभाव के उल्लेख के बिना अध्ाूरी है। विशेष रूप से चित्रकला और मूर्तिकला के क्षेत्र में महाभारत के प्रभाव का। आगे बारहवीं शताब्दी से आरम्भिक उन्नीसवीं शताब्दी तक की चित्रकला और मूर्तिकला के महाभारत से सम्बन्ध्ाित कुुछ महत्वपूर्ण नमूने दिए जा रहे हैं, जिनमें होयसल राजवंश के समय की मूर्तिकलाओं के कुछ चित्र, महाभारत के फ़ारसी रूपान्तरण रज़्मनामा की पाण्डुलिपि से लिए गए कुछ चित्र, अठ्ठारहवीं शताब्दी के महत्वपूर्ण पहाड़ी चित्रकार नयनसुख के कुछ चित्र तथा आरम्भिक 19वीं शताब्दी के चित्र शामिल हैं। इन चित्रों में द्रौपदी चीरहरण प्रसंग के चित्र अध्ािक उल्लेखनीय हैं। काल परिवर्तन के साथ साहित्य (रज़्मनामा से लेकर महाभारतदर्पण तक), चित्रकला और मूर्तिकला (12वीं शताब्दी के होयसल राजवंश से लेकर 19वीं शताब्दी तक) में इस प्रसंग का विकास तीन चरणों में देखा जा सकता है। पहले चरण में द्रौपदी के बाल पकड़ कर सभा में लाए जाने और कटु वचन बोले जाने की कथा है। दूसरे चरण में इस कथा में चीरहरण के प्रयास का भी प्रसंग जुड़ जाता है। तीसरे चरण में द्रौपदी के चीरहरण को निष्फल करने के लिए कृष्ण द्वारा चीर बढ़ाने की कथा जुड़ती है। नीलकण्ठ महाभारत और उसका कमोबेश अनुसरण करने वाला ग्रंथ महाभारतदर्पण इसी तीसरे चरण की रचनाएँ हैं। द्रौपदी चीरहरण प्रसंग के इस उदाहरण के माध्यम से यह समझा जा सकता है कि भारतीय परम्परा में एक ही कथा प्रसंग में समय के साथ किस प्रकार हिन्दुस्तानी संगीत की तरह बढ़त पैदा की जाती है।
नवलकिशोर प्रेस से प्रकाशित महाभारतदर्पण में पंक्ति समाप्त होने के बाद यदि जगह बचती थी तो वहीं से दूसरी पंक्ति आरम्भ हो जाती थी। यहाँ एक सीध्ा में एक ही पंक्ति रखी गयी है। दूसरी पंक्ति उसके नीचे आती है।
महाभारतदर्पण में अध्याय का नाम अध्याय की समाप्ति पर दिया गया है। यहाँ अध्याय के आरम्भ में भी अध्याय का नाम दे दिया गया है।
महाभारतदर्पण के प्रारम्भ में सूचीपत्र जोड़ा गया है। इसे हटा दिया गया है। इसके स्थान पर क्रम संख्या, अध्याय का नाम (यदि कोई नाम है तो) और पृष्ठ संख्या दी गयी है।
महाभारतदर्पण के कुछ अध्याय बीच में ग़ायब हैं। पृष्ठ संख्या में तो निरन्तरता है किन्तु अध्याय संख्या में निरन्तरता नहीं है। महाभारतदर्पण के नवलकिशोर प्रेस से तीन संस्करण प्रकाशित हुए। इसके बावजूद इन छूट गये अध्यायों पर किसी का ध्यान नहीं गया। महाभारतदर्पण को जब हिन्दी में ‘महाभारतभाषा’ नाम से नवल किशोर प्रेस ने प्रकाशित किया, तब भी इन छूट गये पृष्ठों पर किसी का ध्यान नहीं गया। महाभारतदर्पण में अध्यायों का क्रम देखने पर यह पता चल जाता है कि बीच के कुछ अध्याय लुप्त हैं, परन्तु महाभारत भाषा में इस पर क़लई करने के प्रयास में क्रम संख्या इस तरह दुरुस्त कर दी गई है कि पकड़ में ही नहीं आता कि बीच में कुछ अध्याय लुप्त हैं (देखें परिशिष्ट 8)। जि़क्र आता है कि नवल किशोर प्रेस ने महाभारत का प्रूफ़ देखने के लिए आठ-आठ विद्वानों की टीम लगा रखी थी। मेरे लिए यह सुखद आश्चर्य से कम नहीं कि मेरे साथ इस काम में लगे युवा अध्येताओं ने इस चूक को पकड़ लिया। यदि महाभारतदर्पण की पाण्डुलिपि मिल जाती तो हम चूक को दुरुस्त भी कर लेते। परिशिष्ट-6 में उन अंशों की सूची दे दी गयी है जो छूट गये हैं।
हमारे यहाँ पाण्डुलिपि में शब्दों को अलग कर नहीं लिखा जाता था। एक पंक्ति खींचकर सभी शब्द मिला दिये जाते थे। प्रिंट में लाने के लिए शब्दों को अलग करना पड़ता है। शब्दों को अलगाने में कई बार चूक हो जाती है। अर्थ और छन्द का ध्यान कर शब्दों को अलगाया जाना चाहिए। ऐसी चूकें प्रायः प्रत्येक पृष्ठ पर थीं। इन्हें यथासम्भव ठीक कर दिया गया है। ऐसे ही कई बार शब्द को पढ़ने में चूक होती है। महाभारतदर्पण में भी ऐसी चूकें थी। उन्हें भी कुछ अंशों में ठीक कर दिया गया है। महाभारतदर्पण में ग़लत छपे शब्दों की सूची परिशिष्ट 7 में दे दी गयी है।
नवलकिशोर प्रेस ने महाभारतदर्पण को चार खण्डों में प्रकाशित किया था। पृष्ठ संख्या को ध्यान में रखते हुए हमने इसे आठ भागों में बाँटा है। शान्ति पर्व बहुत बड़ा था इसलिए इसे दो भागों में बाँट दिया गया है। एक भाग में आपद्ध्ार्म एवं मोक्षध्ार्म है और दूसरे में दानध्ार्म। शेष भागों में एक पर्व है। किन्तु भाग 4 में भीष्म और द्रोण पर्व है। भाग 5 और आठ में कई छोटे पर्वों को एक साथ रख दिया गया है।
महाभारतदर्पण के बारे में हिन्दी के विद्वानों ने जो कुछ लिखा है, उसके प्रासंगिक अंश भी परिशिष्ट में दे दिए गये हैं।
महाभारतदर्पण की रचना काशी में हुई थी। यह सुखद संयोग है कि उसके पुनप्र्रकाशन की योजना काशी में ही तैयार हुई। किन्तु यह योजना प्रकाश में न आती यदि उदयन वाजपेयी ने इसे रज़ा फाउण्डेशन से प्रकाशित करने की संस्तुति न की होती। उदयन वाजपेयी की मेरे प्रति ऐसी अहेतुक कृपा रही है कि उसके लिए आभार व्यक्त करना बेइमानी लगता है। श्री अशोक वाजपेयी के अनुग्रह से महाभारतदर्पण प्रकाशित हो रहा है। उनके प्रति सादर नमन। नयी किताब प्रकाशन समूह के स्वामी श्री अतुल महेश्वरी ने इसके प्रकाशन हेतु तत्परता दिखायी और इसे इतने सुन्दर रूप में प्रकाशित किया। वे बध्ााई के पात्र हैं। उम्मीद है कि भविष्य में भी उनका इसी प्रकार सहयोग मिलता रहेगा।
टिप्पणियाँ ः
1. नीलकण्ठ ने विभिन्न देशों के ग्रन्थों का अध्ययन कर और पुराने गुरुओं की ज्ञान परम्परा का अनुगमन करते हुए महाभारत का एक नया पाठ तैयार किया। इससे यह भी समझ में आता है कि पाठालोचन ;ज्मगजनंस ब्तपजपबपेउद्ध की एक पूर्व औपनिवेशिक परम्परा मौजूद थी। नीलकण्ठ लिखते हैं ः
‘बहून समाहृत्य विभिन्नदेश्यान् कोशान विनिश्ंिचत्य च पाठमग््रयम
प्राचाँ गुरुणामनुसृत्य वाचम् आरभ्यते भारतभावदीप।
क्रिस्टोफर मिंकोव्स्की ;ब्ीतपेजवचीमत डपदावूेापद्ध ने नीलकण्ठ महाभारत और भारतभावदीपटीका के बारे में विस्तृत अध्ययन किया है। नीचे उनके और कुछ दूसरे विद्वानों द्वारा लिखे गये लेखों का जिक्र किया जाता है-
प्ण् प् ूपसस ूेंी वनज लवनत उवनजी ूपजी उल इववजण्
प्प्ण् । ळनपकम जव च्ीपसवसवहपबंस ।तहनउमदज पद म्ंतसल डवकमतद ठंदंतें पद ैण् च्वससवबा ;म्कण्द्ध म्चपब ंदक ।तहनउमदज पद ैंदेातपज स्पजमतंतल भ्पेजवतलण् डंदवींत क्मसीपण्
प्प्प्ण् छपंांदजींश्े प्देजतनउमदजे व िॅंतए 2004 डवकमतदए टमतदंबनसन्तए ठंतइंतवने प्दकपंद म्बवदवउपब ंदक ैवबपंस भ्पेजवतल त्मदपमण्
प्टण् त्वेंसपदक व् भ्ंदसवद रू 2010 स्मजजमत भ्वउम रू ठंदंतें च्ंदकपजे ंदक डंतंजीं त्महपवदे पद म्ंतसल डवकमतद प्दकपंण् डवकमतद ।ेपंद ैजनकपमे अवसण् 44ए पेेनम . 2ए डंतबी 2010ण्
2. पाठालोचन और पाण्डुलिपिशास्त्र के अध्ययन के लिए देखें-
प्ण् डंदनेबतपचजे ंदक डंदनेबतपचजवसवहल रू डमजीवकवसवहल ंदक ैंदेातपज त्मेमंतबीमे इल त्ंजदं ठेंन ैबीववस व िटमकपब ैजनकपमेए त्ंअपदकतं ठींतजप न्दपअमतेपजलए ज्ञवसांजंए 2012ण्
प्प्ण् छमू स्पहीजे वद डंदनेबतपचजवसवहल रू । ब्वससमबजपवद व ि।तजपबसमे व िच्तवण् िज्ञण्टण् ैंतउंए ैमतपमे प्प्प्ए ैतमम ैंतकं म्कनबंजपवद ैवबपमजल त्मेमंतबी ब्मदजतमए ब्ीमददंपए 2007ण्
प्प्प्ण् ज्मगजनंस ब्तपजपबपेउ प्दकवसवहल ंदक पद म्नतवचमंद च्ीपसवसवहल कनतपदह जीम 19जी ंदक 20जी बमदजनतपमेण् ीजजचरू ध्ध्ब्तवेेेंपंद . श्रवनतदंसेण्नइण्न्दप. ीमपकमजइमतहण् कमध्पदकमगण्चीच ध्महअेध्ंतामइमध्दमूेध्2008ण्
3. मिशेल लीसा ने लिखा है कि समुदायों और भाषा का जो सम्बन्ध्ा भारत में आज दिखायी पड़ता है, वह औपनिवेशिक दौर की निर्मिति है। उन्नीसवीं सदी से पहले ऐसी स्थिति नहीं थी। भाष और अस्मिता का ऐसा सम्बन्ध्ा पूर्व औपनिवेशिक काल में नहीं दिखता। मिशेल ने तर्क किया है कि उन्नीसवीं सदी से पहले दक्षिण भारतीय बुद्धिजीवी कई भाषाओं के बीच बड़े आराम से संचरण करता था। उसे लगता था कि ये भाषायें परस्पर पूरक हैं, समान्तर नहीं। औपनिवेशिक शासन के दौरान भाषाओं के वजूद को समान्तर और विशिष्ट मानने की प्रवृत्ति आ गयी। देखेंः
प्ण् डपजबीमसस स्पें ;2005द्धरू ष्च्ंतंससमस स्ंदहनंहमेए च्ंतंससमस ब्नसजनतमे रू स्ंदहंनहम ं छमू थ्वनदकंजपवद वित जीम त्मवतहंदप्रंजपवद ंदक च्तंबजपबम पद ैवनजीमतद प्दकपंए प्दकपंद म्बवदवउपब ंदक ैवबपंस भ्पेजवतल त्मअपमू 42;4द्धरू 445.67ण्
प्प्ण् ३३३ण् 2006 रू डंापदह जीम स्वबंस थ्वतमपहद रू ैींतमक स्ंदहनंहम ंदक भ्पेजवतल पद ैवनजीमतद प्दकपं ष्श्रवनतदंस व िस्पदहनपेजपब ।दजीतवचवसवहलए 16;2द्धरू 229.48ण्
प्प्प्ण् स्ंदहनंहम म्उवजपवद ंदक च्वसपजपबे पद ैवनजी प्दकपं रू ज्ीम डंापदह व िडवजीमत ज्वदहनमण् ठसववउपदहजवद रू प्दकपंदं न्दपअमतेपजल च्तमेेण्
4ण् ।ेीवा ।ासपलांत ;1996द्ध रू ैंदेातपज ें ैनचतमउम स्ंदहनंहम पद प्दकवसवहल ंदक ैजंजने व िैंदेातपजए ीकण् ठल श्रंदम म्ण्डण् भ्वनइमतण् ज्ीम कपेपदमसपदंजपंद जव ेमचंतंजम ैंदेातपज तिवउ जीम स्ंदहनंहम च्तपदबपचसम ंदकए ूींज ूम ूवनसक बंससए टमकपब ैंदेातपज पे उंजमीमकए ंज जीम वजीमत मदकए इल जीम कपेपदबसपदंजपवदए वद जीम चंतज व िजीम ंनजीवते व िमंतसल ैंदेातपज स्पदहनपेजपब ूवतोए जव पदकपबंजम जींज ूीमद जीमल कपेबनेे ूींज ेममद जव इम च्तंातपज ूवतके जव नेए जीमल ींअम पद उपदक संदहनंहमे तमसंजमक जव ैंदेातपज इनज कपििमतमदज तिवउ पजण् ज्ीमपत ेेंनउचजपवद ंचचमंते जव इम जींज व िसपदहनपेजपब बवदजपदनंउए मगजमदकपदह तिवउ ूींज ूम बंसस ैंदेातपज जव ूींज ूम बंसस च्तंातपजण् छव ूीमतम कवमे वदम हमज जीम ेमदेम जींज जीमल मिसज ंदल नतहमदबल जव पेवसंजम ैंदेातपज ें ं संदहनंहमण्श् ख्च्ंहम 74.75, श्रंद म्ण्डण् भ्वनइमद ;2012द्ध रू प्कमवसवहल वद ंदक ैजंजने व िैंदेातपजए डवजपसंस ठंदंतेंपकेंए क्मसीपण्
5ण् ।नकतमल ज्तनेबीाम ;2017द्ध रू ब्नसजनतम व िम्दबवनदजमतए च्मदहनपद प्दकपंए छमू क्मसीपण्
विशेष रूप से देखें- अध्यायः 3 मेनी पर्शियन महाभारताज़ फ़ाॅर अकबर
सन्दर्भ
1ण् ।ण्ज्ञण् त्ंउंदनरंद ;1991द्ध रू ज्ीतमम भ्नदकतमक त्ंउंलंद रू थ्पअम मगंउचसमे ंदक जीतमम जीवनहीजे वद जतंदेसंजपवद पद ष् डंदल त्ंउंलंद इल च्वनसं त्पबीउंदए ठमतामसमल न्दपअमतेपजल च्तमेे व िब्ंसपवितदपं च्तमेेण्
2ण् ब्ंससमूंतज ॅ ंदक ैण् भ्मउतंर ;1983द्ध रू ठींहंूंक ळपजंदनूंक रू । ेजनकल पद ज्तंदेबनसजनतंस जतंदेसंजपवदए छमू क्मसीपए ठपइसपं प्उचमतण्
3ण् श्रीवद म् ब्वतज ;2015द्ध रू डंापदह पज टमतदंबनसन्त पद ।हतं रू ज्ीम च्तंबजपबम व िज्तंदेसंजपवद इल ैमअमदजममदजी ब्मदजनतल श्रंपदे पद ज्मससपदह ंदक ज्मगज वचमद ठववा च्नइसपेीमत स्वदकवदण्
4ण् ज्ञनउइीहीवदंउ डंींइींतंजं . डंींइींतंजं . ैवनजीमतद त्मबमदेपवदए ज्ञनउइींहीवदंउ म्कपजपवदण्
5ण् स्पें डपजबीमसस रू डंापदह जीम स्वबंस थ्वतमपहद रू ैींतमक स्ंदहनंहम ंदक भ्पेजवतल पद ैवनजीमतद प्दकपंए श्रवनतदंस व िस्पदहनपेजपबे ।दजीतवचवसवहलए टवसण् 16ए प्ेेनम 2ण्
6ण् स्पन स्लकपं ; 1995द्ध रू ज्तंदेसपदहनंस च्तंबजपबमए ैजंदकवितकए ब्ंसप िरू ैजंदकवितक न्दपअमतेपजल च्तमेेण्
7ण् डंींइींतंजंउ ूपजी जीम ब्वउउमदजंतल व िछपसांदजीं रू ब्ीपजतेंींसं च्तमेेए च्ववदं ब्पजलए 1929ण्
8ण् डमततपसए ब्ीतपेजप ;2009द्ध रू श्।जिमत सपमि व िच्ंदकपजतल त्मजीपदापदह थ्पकमसपजल पद ेंबतमक पद जमगज व िूपजी उनसजपचसम वतपहपदेश् पद कमबमदजमतपदह जतंदेसंजपवद ेजनकपमे पद प्दकपं ंदक इमलवदकए मकेण् श्रनकल ॅंांइंलेंीप ंदक त्पजं ज्ञवजींतपए च्ीपसंकमसचीपं रू श्रीवद ठमदरंउपद च्नइसपेीपदहण्
9ण् च्ण्च्ण्ैण् ै।ैज्त्प् रू ज्ीम डंींइींतंजं ;ैवनजीमतद त्मबमदेपवदद्धए टण् त्ंउेंूंउप ैेंजतनसन - ैवदेए 292ए म्ेचसंदकमए डंकतेंण्
10ण् च्तंकपच ठींजजंबींतलं ;2017.18द्धए त्मअपेपदह जीम ब्तपजपबंस म्कपजपवद व िडंींइींतंजं प्दकवसवहपबं ज्ंनतपदमेपंए 48.44ण्
11ण् त्वउपसं ज्ींचंत ;2010द्ध रू ज्ीम म्चपब व िठींतंजेंए ैमउपदंत 608ण्
12ण् ज्ीम डंींइींतंजं व िटलें ;म्दहसपेी च्तवेम ज्तंदेसंजपवदद्ध ।नजीवत. ज्ञण्डण् ळंदहनसप, स्पदा. ीजजचेरूध्ध्ंतबीपअमध्वतहध्कमजंपसेध्जीमउंींइींतंजंव.िातपेीदंकूंपचंलंदंअलेंध्चंहमध्द93ध्उवकमध्2नच
13ण् न्दसपाम ैजंता ;2008द्ध रू ।द मउचपतम व िठववो च्मतउंदमदज ठसंबा त्ंदपाीमजण्
14ण् ॅंसजमत ठमदरंउपद रू प्ससनउपदंजपवद ;1986द्ध रू ैबीवबामद च्तमेेए छमू ल्वताण्
1. महाभारत (मूल संस्कृत श्लोक और हिन्दी अर्थ सहित) प्रध्ाान सम्पा.- डाॅ. पण्डित श्रीपाद दामोदर सातवलेकर, प्रकाशक- वसन्त श्रीपाद सातवलेकर, स्वाध्याय मण्डल, पोस्ट-‘स्वाध्याय मण्डल (पारडी)’, पारती (जि. वामसाड)- 1968, प्रथम आवृत्ति।
2. महाभारतदर्पण- प्रकाशकः मुंशी नवल किशोर प्रेस, लखनऊ, 1891
3. महाभारत - गीता प्रेस, गोरखपुर, सन् 2015
4. महाभारत - (भण्डारकर ओरिएण्टल रिसर्च इन्स्टीट्यूट) सम्पादक- सुथणकर, ;ैंदेातपज कवबनउमदजण्वतहद्धण् जुलाई 23, 2013
5. मिश्रबंध्ाु-विनोद अथवा हिन्दी साहित्य का इतिहास तथा कवि-कीर्तन (द्वितीय भाग)ः लेखक- गणेश बिहारी मिश्र, माननीय श्यामबिहारी मिश्र, एम.ए.; राय बहादुर शुकदेव बिहारी मिश्र, बी.ए.; प्रकाशक- गंगा पुस्तकमाला, कार्यालय, लखनऊ, संवत् 1984
6. गुप्त, किशोरीलाल (1967)ः सरोज सर्वेक्षण, हिन्दुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद
7. गुप्त, किशोरीलाल (1970)ः शिवसिंह सरोज, हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद
8. शुक्ल, रामचन्द्र (2017)ः हिन्दी साहित्य का इतिहास, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी
9. मोतीचन्द्र (1962)ः काशी का इतिहास, हिन्दी ग्रन्थ-रत्नाकर प्रा.लि., बम्बई
10. उपाध्याय, बलदेव (2016)ः काशी की पाण्डित्य परम्परा, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी।
11. मुकुन्द लाल सेठ (2019)ः भावन, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली।
12. डाॅ. विश्वनाथ प्रसाद (1962)ः चन्दायन, क.मु. हिन्दी तथा भाषा विज्ञान पीठ, आगरा विश्वविद्यालय, आगरा।
13. परमेश्वरीलाल गुप्त (1990)ः शोध्ा और समीक्षा, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी।
14. डाॅ. राजकुमार (2020) ‘हिन्दी की जातीय संस्कृति और औपनिवेशिकता’, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली।
महाभारत दर्पण और महाभारतभाषा
1. महाभारतभाषा (1875)ः (सम्पादक) कृष्णचन्द ध्ार्माध्ािकारी, कलकत्ते से प्रकाशित, प्रकाशक का नाम अनुपलब्ध्ा।
2. महाभारतदर्पणः नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ, संस्करण 1974, 1883, 1891.
3. महाभारतभाषा- नवल किशोर प्रेस, लखनऊ, चार संस्करणः 1889, 1895, 1898, 1922.
4. सचित्र महाभारत भाषा-टीका (11 खण्ड)ः लक्ष्मीदास, प्यारेलाल जैन, लाहौर, 1934.
5. महाभारत भाषाः गिरध्ाारी लाल थोक पुस्तकालय, खारी बावली देवली।
6. हिन्दी महाभारत (1930)ः सम्पा- चतुर्वेदी द्वारिका प्रसाद, रामनारायण लाल, इलाहाबाद।
7. महाभारतदर्पण (1826-29)ः शास्त्र प्रकाश प्रेस, कलकत्ता।
8. सचित्र हिन्दी महाभारत, ले. गणेशः इण्डियन प्रेस, लि., इलाहाबाद, प्रकाशन वर्ष अनुपलब्ध्ा।
9. महाभारतः महावीर प्रसाद मालवीय वैद्य (1924)ः बेलवेडियर प्रेस, इलाहाबाद, ज्ञानलोक दारा गंज, प्रयाग।
10. महाभारतः भगवान दास शास्त्री, प्रकाशक, प्रकाशन वर्ष अनुपलब्ध्ा।
11. सचित्र महाभारत (1925)ः सन्तराम, लाजपत राय एण्ड सन्स, लाहौर।
12. अथ महाभारत भाषा (दो खण्ड) (2020)ः महावीर प्रसाद मिश्र, तेज कुमार सन बुक डिपो, लखनऊ।
13. महाभारत कथा (1939)ः निराला (1960)ः राजकमल प्रकाशन, दिल्ली।
14. संक्षिप्त महाभारत दो भाग (1916)ः बाम्बे मशीन प्रेस, लाहौर
15. महाभारत (1936)ः भूमिका स्वामी विश्वनाथ- बाबू बैजनाथ प्रसाद, राजा दरवाजा, बनारस सिटी।
16. महाभारत (मूल संस्करण तथा हिन्दी अनुवाद)ः गंगा प्रसाद शास्त्री, महाभारत प्रकाशक, माडल, चाँदनी चैक, दिल्ली प्रकाशक वर्ष अनुपलब्ध्ा।
17. महाभारतः भगवानदास, ज्ञानलोक प्रकाशन, दारागंज, प्रयाग, प्रकाशन वर्ष अनुपलब्ध्ा।
18. महाभारत कथा पूर्ण सोमसुन्दरम् व्यासरविरन्दु (1949)ः के चक्रवर्ती रामगोपालाचारी कृत अनुवाद का अनुवाद, सस्ता साहित्य मण्डल, नयी दिल्ली।
19. महाभारत सार रचयिताः सूरजमल मोहता (2010)ः सस्ता साहित्य मण्डल प्रकाशन, दिल्ली।
20. महाभारतखण्ड भाषा दो भाग (1890)ः नवलकिशोर प्रेस, लखनऊ।
21. महाभारत रामदित्तामल (1912)ः पुस्तकाँ वाला लोहारी दरवाजा, लाहौर।
22. महाभारत कथा अमृतलाल नागर (1988)ः राजपाल एण्ड सन्स, दिल्ली।

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