महाकाल की दर कहो, साहूकार कुमार मोहन्ती ओडिया से अनुवाद : दिनेश कुमार माली
22-Mar-2023 12:00 AM 1531

1.

क्या है दुःख की दर, कहो साहूकार
सुख की दर क्या, कहो
जीवन-मरण की दर तो गिन ली
‘परम’ की दर कहो
साहूकार
‘सर्जन’ की दर कहो।

तुम्हारी कितनी दर में
शून्य से फूटा अंकुर
पिता के बीज की दर कहो
कितनी दर में खरीदा
माता का गर्भशूल।
‘ऊआँ, ऊआँ’ आवाज़ की दर कहो
साहूकार
स्वर्गद्वार की दर कहो।

पृथ्वी की दर क्या होगी
कहो साहूकार
कितनी होगी जाति की दर?
ओड़िया जाति की
दर तो गिन ली
कैवल्य की दर कहो
साहूकार
विश्वास की दर कहो।

भरोसा दर के अभाव वाले
इस संसार में
अनुभूति की दर कहो
कवि के शब्दों में
दर का किया आकलन
अनाक्षर की दर कहो
साहूकार
‘अन्तिम साँस’ की दर कहो।
‘अन्तिम साँस’ की दर कहो साहूकार
महाकाल की दर कहो
दुःख की दर क्या कहो, साहूकार
सुख की दर क्या कहो ?

 

2.

हम सभी
अकेले-अकेले लोग
अकेले आते, जाते अकेले
लोप होते अकेले-अकेले।

देह देवल में गूँजता
महाकाल स्वर
शब्दों की ज़मींदारी पर
किसका अधिकार ?
बोता कोई, काटता कोई
खाता कोई और।

हम तुच्छ मिथ्या मालिक!

तेरे-मेरे के मोहासक्त
अन्धे जगत की
अंधेरी गलियों में खोजता
उजियाला घर
घर बताने के लिए
कहाँ है वे लोग?

हम खोजते राजपथ सारा
राजपथ देहली में
लोगों का बोबाली
लोगों का बहाना कर
खोजते अपनी पाली।

लूटने राष्ट्र देश
धर्म के वेश

कहो, हम किस देश के लोग!
अकेले आते, जाते
अकेले-अकेले लोप होते लोग।

3.

प्रणाम करो, देशवासियो!
आज कर उनका स्मरण
न्योछावर किया जिन्होंने अपना जीवन
ताकि हो सके हमारा भविष्य निर्माण।

प्रणाम करो, देशवासियो!
आज कर उनका स्मरण

न था उन्हें लोभ-लालच
न थी हिंसा मिथ्याभिमान
न थी उन्हें सत्ता की भूख
न था परायेपन का भाव

था केवल एक ही स्वप्न
मानव मूल का अन्वेषण।

मानव मूल को खोजते-खोजते
वे खो गये, पता नहीं, किस ठाँव
रक्त से लिखे उनके सपने
तिरंगा फहराने का गौरव।

गौरव के कहाँ उत्तराधिकारी
कहाँ उसके सुरक्षा प्रहरी ?

नहीं चाहते वे महिमा-मण्डन
हम खोजते, कहाँ-कहाँ शिरोमणि
एक-एक कर चले गये सब
रखते पाँव हम गिन-गिनकर।

घर के नीचे अब ‘चोराबालू’
कौन भरेगा अब यह महागर्त ?

कितने-कितने सहे प्रहार
इस जाति ने, काल के पारावार
हार नहीं मानी भारत के
इतिहास ने युग-युगान्तर।

हम स्वप्न-विक्रेता दल
कहाँ गुम हो गये हमारे सपने?


4.

कोटि जीवनों के, कोटि सपनों के
आँसुओं के ज्वार में तैरती नौका
कल की छाती में आज को जलाकर
भविष्य हुआ था पैदा।

तीन रंग--आशाओं के अंकुर ने
आकाश में किया जुहार
हे अनाम !
क्या सावन में भी बीज हो गये खराब?

रिमझिम सावन की दुपहरी बेला में
कौवा करने लगा काँव-काँव
क्या कोई आएगा अनजान बटोही
विकल नदी की नाव ?

नदी में भँवरी, भँवरी में कात
बहाने लगी पवन
हे अनाम !
निश्वास में आशा की राह।

आशा-आशा में बीत गया युग
कौवा का कोयल के लिए बसा
कौन वह किसका अनजान व्यापार
जीवन-कपट-पाशा।

आज जो उज्ज्वल, कल वे मलिन
कपाल में लिखी दशा
हे अनाम !
सभी को गद्दी का नशा।

गद्दी के नशे में लड़खड़ाते क़दम
धन हो गया दण्ड-पलीता
धन के सहारे सत्ता अर्जन
गद्दी से स्वर्ण सीता।

बारबाटी खेत पड़े गोचर
नेत खा गये नेता
हे अनाम !
धन्य हमारी स्वाधीनता।
रात में गरजती साँय-साँय पवन
आ रही है कोई आत्मा ?
बिजली चमकती किसी दिग्विलय
सुनायी पड़ती घोड़ों की टाप

डरावनी आवाज़ें तोड़ती रात की नीरवता
‘कल्कि’ को क्यों हो रही देर
हे अनाम !
होने वाली है भोर।
5.

प्रथम शब्द, प्रथम अक्षर
प्रतीकरूप ओंकार सुन्दर
ओंकार से परे अनाहत सुर
सुर से परे अनाम सुन्दर

सुन्दर तो है सुन्दर
अब क्यों कर रहे हुँदर ?

क्या चलेगा जाति नन्दीघोष?
क्या दिखता है चलाने वाले रथी?
रथ रोकेगा रास्ता जब
क्या पता है पलायन वाली गली ?

धन के सिवाय कुछ सोचते हैं क्या ?
शमशान की गन्ध सूँघी क्या ?
भाव के बिना सभी अभाव
क्या यश-कीर्ति के लिए सारा संचय ?

बेचारा महाजन बनिया
क्या खरीद पाएगा प्रेम-प्रीति?
निर्माल्य के एक कण से तर जाती आत्मा
फिर छप्पन भोगों की क्या ज़रूरत ?

सुन्दर तो है सुन्दर
क्यों कर रहे हुँदर?
सुन्दर करो संसार
नहीं तो, अपनी गद्दी खाली कर।

6.

क्या नहीं किया बन्धु, क्या नहीं किया
मेरे पैसों से मुझे ही
नीलाम कर दिया।
बन्धुत्व बन्धु का पथ, पथ अन्तहीन
समय के गर्त में कथा अन्तहीन
झूठ को ठगने के लिए
पसारा आँचल
सत्य मानकर मैंने
परोस दिया खाने का थाल।
मुझे भूख के बहाने
मुझे ही लूटा
क्या नहीं किया बन्धु, क्या नहीं किया।

राजा-रजवाड़ों की गाथा केवल इतिहास
प्रजा के भूख नहीं होती हमेशा पौष मास
सात-सात दरवाज़ों के
ताले हुए खण्ड-खण्ड
पाँवों की साँकल
के टुकड़े हुए नवखण्ड।
मुक्ति का कहने पर बेड़ी
और कसकर बाँधी
क्या नहीं किया बन्धु, क्या नहीं किया।

गद्दी के लिए गोलमाल, नीति नहीं कोई
पैसा क्या सब-कुछ, सिद्धान्त-मूल्य नहीं कोई
विश्वास शिमली की रुई
हवा में उड़ी
जीवन नहीं वाणिज्य
मृत्यु अपरिहार्य
मेरे आँसू को बेचकर मेरा
सौदा किया
क्या नहीं किया बन्धु, क्या नहीं किया।

कपट चलता एक दिन, फिर दिन किसके लिए
पलक झपकते जीवन समाप्त, फिर मना किसके लिए
मना को मानती है कभी
गणिका का मन
निरीह चेहरा होता कभी
सती का चिह्न

काँच के घर में रह स्वयं ने
फेंके पत्थर-ईंटा
क्या नहीं किया बन्धु, क्या नहीं किया।


7.

नाम के लिए कोई पागल
कोई बदनाम
नाम जप-जपकर किसी ने
अर्जित किया सुनाम
किसने फिर माथा बेचकर
जीते कितने नाम
नामियों की दुनिया में
हम जो हैं अनाम
हम तो हैं बिलाल सेन
काल के अवतार में
कूर्म श्याम राम ।
बिलाल सेन ने देखा
घूमता सुदर्शन
किसका धनु किसका तीर
नाम मात्र अर्जुन
भाड़ेतिया कीर्तन वाले
करते भजन
एक मुट्ठी भोजन के लिए
ये सारा प्रहसन
काल करता गर्व-भंजन
गद्दी की उम्र तो मात्र दो दिन
आखिर साक्षी है शमशान।

गद्दी का कोकुआ छा जाता
क्या नगर, क्या गाँव
युवकों की मूँछों पर कहाँ ताव
हो गये वे कायर
कायर मरते
शताधिक बार
निडर मरता मीत
केवल एक बार
नहीं तो मुँह पर मधुर
और मन में अंगार
सिपाही ही चोर
चोर चोर चोर चोर
पुकारा चोर
चोर को खोजा
घर के भीतर बाहर
सभा-सम्मेलन में कितने
वाक-चतुर
चोर को देखा कहीं
अन्तर भीतर
बदल गया अन्तर
चोर या क्षुद्र रे
ऋषि रत्नाकर।

रूठे ऋषि पर
अब रूठता है कौन
खतरा देखे बिना ही
रोकने को उद्यत
व्यथा तो तुम्हारे मन की
करती मेरे मन को दहन
बातें हैं अन्तहीन
ढल रहा है समय
भले ही, मर जाए कुमर, कालिया !
तेरा क्या लेना-देना रे
अमिट रह जाती हैं कथाएँ।

 

8.

गाँव-गाँव घूमकर
कितना खोजता हूँ
बस्ती-बस्ती, घर-घर
आज बिन माँगा
मिला उस समय
जब बीतने लगी उम्र।

हाथ-पापुलियों से पोंछूँगा कितनी बार
मेरे चेहरे का चिन्ता पसीना
अपने लिए तो पूरी दुनिया पागल
कपाल फोड़ेगा तेरा
विश्वास आता
इस रास्ते से तो
भरोसा जाता उस रास्ते।

इस तरफ देखता हूँ पत्थर-प्राचीर
उस तरफ तैयार खड़ा है काल
दोनों तरफ से उठती है तेरे लिए पुकार
कहाँ फैलाओगे थाल ?
कह नहीं सकते
होंठों के फाँक
आँखों से तो माल-माल।
आकर चले गये पलक में रूप
झलसाकर दल-दल
तुम्हारे साथ मेरा कैसा परिचय
आती-जाती लहरों की तरह
रखना है जितना
सम्भाल कर रखा
मैं हूँ समुद्र का बालू तट।

जीवन तो सारा हलाहलमय
जिस कण्ठ में दिये मैंने सुर
उसी ने मेरे गले पर चलायी
छूरी बार-बार।
कुमर गिन रहा है
पाँवों की आहट
वयस और कितनी है दूर।

 

9.

दुःख के साथी तो तुम
दुखी मेरा जीवन
मनवन में अग्न
जलाता है सावन।
मेरे आँगन में श्रावण है तो
तुम्हारी आँखों में मेघ
मेरे उपवन में सुमन हैं तो
तुम्हारे जूड़े में लोभ

मैं जो था, वही हूँ
यही तो मेरा प्रेम
दुःख बढ़ाकर केवल
खोजते हो क्या प्रमाण ?

कौड़ी गिनते-गिनते सभी ने
बिता दी रात्रि।
चोर लेकर खिसक गया
तुम्हारी कजलपाति।

सम्भालने-सँवारने को कितना बचा जीवन
मनुष्य पागल केवल जीवन-जीवन।
सभी यहाँ पानी के बुलबुले
भोर गगन
सभी उड़ते सफ़ेद मेघ
थमता आँधी-तूफान।
किसी के छप्पर पर आम की डाली किसी के द्वार पर नीम
कहीं विवाह वेदी तो कहीं शमशान का नाम।
शमशान के पश्चात पूछो
कैसा है तुम्हारा रंग
सृजन का कैसा रंग
और कैसा सृष्टा का रंग
कितने रंग करते हो इधर रंग कितने भिन्न-भिन्न
काला, सफ़ेद, लाल तीनों समझ नहीं पाया मन।
डूबते-तैरते कितने काल
अरे बालखिल्य
उलटे वृक्ष की टहनी पर
आकाश में चेर
आकाश चीरकर हाथों से करता हूँ अंधेरे भजन
तिल-तिल अंधेरे का किया मैंने अकेले पान।

 

10.

तुम्हारे प्रेम में डूबकर खो गया मेरा रंग
तमाल वन में हास
किसी का चौदह वर्ष वनवास तो
मेरा चौदह दिन का रास।

चौदह दिन में चौदह घटाया
फिर शेष रह गये दिन
दिन-रात कुछ समझ नहीं पाया
सुहाग रात का मन
माधवी लता में लपेटे हुए
अनसर मधुमास।

अनसर दाँड़ में छुपा इसलिए
शायद समझ लिया रोगी
स्नान करने के बाद नहीं छूता नीर
क्यों करते खेल
तुम्हारे अधरों का रस मेरे अंगों को भेदकर
करता है राजपथ में सहवास।।

राजपथ में चलता है मेरा रथ
कहने को खींचा जाता है
सारथी पकड़ते हैं घोड़े की लगाम
डाहुक का मति-भ्रम
मेरे-तुम्हारे भीतर सिहरन का नशा
मतवाली होती कण्ठ की क्षुधा।

मैं हूँ मतवाला तेरे प्रेम के खातिर
श्रद्धाबालू का घोल
शासक चूसते हैं तेरे रक्त की बून्दें
किन्तु तुम्हारे लिए नहीं पखाल
बन्धु! विगत वर्ष में जो आशा थी
इस वर्ष हो गयी गरल।

तुम्हारे दुखों से विदीर्ण होता है मेरा हृदय
फट जाए राजदण्ड
टूट जाए राज नन्दीघोष रथ
कहाँ है मेरे धनुष काण्ड
श्वेत अश्व मेरे अभी सजाओ, कुमर
अन्त हो जाए छलना इस बार।

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