02-Aug-2023 12:00 AM
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अनुवाद : राधू मिश्र
महामारी में कविता
बीमारी
(विश्वव्यापी महामारी 2020-21 से मिलता जुलता यह दृश्य कवि के मन में आज से कई साल पहले कौंध उठा था। इस कविता को कवि की 2012 में प्रकाशित पुस्तक ’नास्तिक र भक्ति कविता’ से लिया गया है।)
जितना प्राचीन है आदमी
उतनी ही उसकी बीमारी।
पर यह नयी बीमारी आयी कहाँ से?
सुनायी नहीं पड़ी इसके पँंवों की आहट,
पहुँचने की खबर भी नहीं दी, बेल बजाकर
और दबोच रही अचानक
इलाज तक का मौका नहीं दे रही,
भौंचक्के खड़ी हैं
पुरानी बीमारियाँ,
हाथ खड़े कर चुके हैं डॉक्टर।
मुखौटा पहनकर
आ-जा रहे हैं लोग
नये साल में हैंडशेक भी बन्द है।
बन्द है प्यार भरे चुम्मे की लेन-देन
माँ देख रही बच्चे को
काँच के बन्द दरवाज़े के इस पार से,
पति-पत्नी नहीं सो रहे
एक ही बिस्तर पर,
छोटे से खिलौने के लिए
बढ़ी हुई नन्ही हथेली को भी
भर दिया जाता दस्ताने में।
सारा शहर चल रहा है
मुखौटा पहनकर
मर चुके सैंकड़ों लोग
जितने बीमारी से नहीं
कहीं ज़्यादा उसके खौफ़ से।
इस अनजान बीमारी का कोई इलाज नहीं
कोई उपचार नहीं इस महामारी का
फिर शास्त्र बने कैसे?
मुक़ाबला कैसे हो
इस संक्रामक रोग का?
कितने दिन में शायद
तैयार हो जाएँ शास्त्र, बीमारी को रोकने में
समर्थ हो सरकार
लेकिन
तब तक ’आत्मरक्षा’
बन चुकी होगी
सबसे बड़ा संक्रामक
इस धरती के पटल पर,
खुद को बचाने की जुगत में
हर क्षण
मरते रहेंगे लोग
निःशब्द
अपने ही भीतर।
भूत
(22 मार्च 2020 शाम ५ बजे)
बादल के हाथों में शंख था माँ
हवा के हाथों में ताली
बारिश के हाथों में घण्टा था माँ
आकाश के हाथों में थाली।
वे तुझे जगाने आये थे
स्वर्ग से छुट्टी लेकर, ताला बन्द कर नरक में
खेतों में छोड़ कर हल बैल
छोड़ कर नावों को नदी पर
उदास मालगाड़ी के हॉर्न को चुरा कर पहाड़ की गुफा से
आये थे, रूँधे गले से फागुन की राख लेकर।
जब तुझे होश आया, तूने करवट बदल कर
पूछा - मेरे बच्चो?
पूछते ही झुक आये तेरे चेहरे पर
तेरे ही करोड़ों बेटे-बेटियाँ
निकल कर अपने-अपने एकान्त से
मानो तमाम आकाश के तारे
उतर आए हों झील के पानी पर तैर रहे
हँसमुख चाँद से मिलने।
खेल अभी न हो पाया तो न सही,
जान की बाज़ी लगाकर मौत के संग दीवाली मनाने का
बहाना भी न मिला तो न सही
तू बैठ माँ उठ कर बैठ
तेरे आँचल की छाँव में हम हैं तेरे तमाम बच्चे।
ज़िन्दा हैं
न आग में जले
न पानी में डूबे
न हवा में उड़े
डर में हिम्मत जुटा कर हैं आभार में खड़े।
भाग भूत तू जाः
खड़े-खड़े पिघल जा
अपना मांस खुद ही खा
जाः
हमें गोद में लिये बैठी है हमारी माँ।
महामारी में कविता
इक्कीस रातों तक बन्द रहेगा नक्षत्र लोक
इक्कीस रातों तक बन्द रहेगा स्वर्ग की सीढ़ी का काम
इक्कीस रातों तक बढ़ना बन्द करेंगी लताओं में लौकियाँ
इक्कीस रातों तक न बढ़ेंगे उंगलियों में नाखून, न सर पर बाल
न बहेगा आँखों का छलछलाता पानी।
एक दिन कोई पगडण्डी से उठा कर मैले रंग के कोलाहल को
रख जाएगा सन्नाटे का उदास ‘सा’ बना कर
तार सप्तक पर
गणित में कमज़ोर कोई कृष्ण पक्ष का चाँद ग़लती से
पाँव धर देगा आदमी की छाती पर और चौंक कर
कहेगा आःहा ...।
खाँसना मना है इस त्रस्त माहौल में, हँसना या रोना भी मना है
बुख़ार तो मना है, इस राहु काल में बुढ़ापा भी मना है
गृहवन्दिनी परियों की शापमुक्ति का समय है यह सन्धिकाल
शेष नाग पर सोये हुए की करवट बदलने की बेला है।
रात गहरी, सुनसान सड़ाकों, ऐसे में
निकल पड़ा हूँ धरती का भाग्य बदलने
एक हाथ में डण्डा लिए, दूसरे में लालटेन
हृदय में भारत माता, तालाबन्दी माथे पर।
लौटूँगा मैं बहुत ही जल्द सारे विषाणुओं को समेट कर
कविता में, बिम्ब में मारने के लिए किसी घुप्प अँधेरे में
देखकर अमृत बेला शुक्ल त्रयोदशी के दिन।
मरे तो मेरी कविता घुट कर मर जाए इस महामारी के संग
धरती पर खुली हवा में जीवित रहे आदमी।
महामारी की रात
कितने भय से कितना शीतल हो जाता है लहू के अन्दर का लोहा
हम जानते हैं,
कितने शीतल लहू से कितनी पीड़ा उतरती है छाती से
हम जानते हैं,
तट पर कितनी पीड़ाएँ जमा होने से सूखती है आँखों की
उफनती नदी
हम जानते हैं,
कितनी नदियाँ सूख जाने पर नींद से जागता है रेगिस्तान
हम जानते हैं,
कितने रेगिस्तानों के जलने पर हुताशन से प्रकट होती है पानी
की एक बून्द
हम जानते हैं।
हम जानते हैं, जानती नहीं महामारी,
महामारी नहीं जानती कि करोना भी हो सकता है चित्रग्रीव
कपोत का नाम
महामारी नहीं जानती कि उन्नीस नम्बर कोविड भी हो सकता है
नरक में शरणार्थियों का एक गाँव,
हम जानते हैं,
नाम देकर शत्रु को भी अमर बनाने की कला
हमारे हाथों में है,
इस सुनसान सड़क की नसों में चुपचाप बहते पीले पित्त को
हम जानते हैं,
इसीलिए साँसें थामकर हम पड़े रहते हैं रात भर
अपने-अपने काले कलूटे बिस्तर पर,
हम जानते हैं
मौत को मात दी जा सकती है सिर्फ़ नींद से।
कौन मरे? कौन जीये?
बौरों से लदे आम के पेड़ की किस डाली पर बैठा है उल्लू,
किस घर की ओर मुखातिब है धूमकेतु,
कब तक आकाश में टिका रहा मौत का पुछल्ला,
कब तक आँखों में तैरता रहा पहाड़ का नज़्ज़ारा
चाँद डूबने से पहले, हम जानते हैं।
आज दोपहर के बाद से बाघ ने माँस खाया नहीं,
खेतों को उजाड़ा नहीं हाथियों ने,
उड़े नहीं सुग्गे चोंच से जाल को उठा कर,
दोपहर के बाद से देह में बढ़ी है गरमी,
बढ़ी है खाँसी, बढ़ी है साँस की तकलीफ़ें
लेकिन कोई मरेगा नहीं
हम जानते हैं।
शाम तक ढूँढे जा चुके हैं फटे कपड़े, बलगम पोंछने को,
साथ ही थोड़े से बचे जूठे फल-से जंगल में फेंके हुए
चाँद को,
उसे लाकर कोई छोड़ गया है धान काटने वाले हसिंये-सा,
रात के आकाश में।
कायम रहे हमारा अन्धविश्वास कि जब तक
आकाश में पड़ा है हँसिये-सा टुकड़ा भर जूठा चाँद,
महामारी छुएगी नहीं आदमी को
हम जानते हैं, जानती नहीं महामारी।
महामारी में प्रेम
आह, पाँव धर दिये तलवार की धार पर! आलता लगे पाँव में
लहू दिखा नहीं घर के अँधियारे में,
आकाश से झूल रहा एक टुकड़ा बादल गुर्राया, बिजली कौंध
गयी लपलपाती लताओं-सी तेरी फूस की झोपड़ी की छानी पर।
अब तो आकाश साफ़ है,
तेरे बिस्तर पर चैती पूनम का चाँद,
उजले आईने-सा,
इधर सारे शहर को जक़ड़ कर पड़ी है बीमार चाँदनी,
महामारी की,
बोलो, यह और कब तक? तू मुझसे पूछती
बग़ैर चाँदनी के चाँद लिये हाथों में,
संसार से पूछता हूँ मैं भी, चाँद कितनी बार निकलने पर
मिट जाती है कितनी चाँदनी, कितनी आँखों से पुण्य की
कितनी रोशनी झर जाने पर वसूल होता है कितना अँधेरा?
संसार के पास कोई उत्तर नहीं, वह उत्तर भी क्या दे, उसे तो
ढंग से कपड़े भी पहनने नहीं आते, सिर पर पगड़ी दिहाड़ी
मजदूर-सी, पीठ की कूबड़ पर चन्द्रहार, ऊबड़-खाबड़ सब
बेशर्मी से बराबर, बीच बाजार में नंगधड़ंग, बेहयाई में कौन
उसका सानी है?
इस संसार ने ऐसा कभी कहा है, जो सुकून दे मन को? बस
रूखे स्वर में हुआँ-हुआँ, नहले पर दहला मार आदमी को
चुप करता आया, मौत का डर दिखाकर भिड़काता गया
एक-एक दरवाज़ा।
जनमे बच्चे की रुलाई सुनते ही डर जाता
कहीं कोई मोर मुकुटवाला तो निकला नहीं।
अरे देखो संसार देखो
दक्षिण से भागी आ रही तूफ़ानी गाड़ी
धीमी होते ही धुन्ध भरे स्टेशन में छलांग मार रहा है एक
आदमी, गठरी थामे, उसके होंठों पर मुस्कान, पाँवों में दमखम,
धड़कती छाती
भागा जा रहा वह ताड़ की कतार, केवड़े के झुरमुट, अमराई
लाँघ कर दूर कहीं
खिल रहे हैं केवड़े
खिल रही हैं कुई।
उधर खिल चुके कुंकुम रंग के सारे रंगणी फूल कुएँ किनारे,
एक औरत चाँद को निहारते गिन रही है पहर,
थोड़ा मुस्कुराकर अपने उभरे हुए पेट से कह रही - मार लात
जितनी मारनी हों, बोल दूँगी तेरे बापू से, आएगा वह आज
आएगा ज़रूर, आज जो पूर्णमासी है चैत की।
यह संसार जानता क्या है?
न चाँद जानता न चाँदनी,
न केवड़ा जानता न कुई,
न रंगणी फूल न होंठों की मुस्कान
और न ही जानता आँखों का पानी।
महामारी में प्रार्थना
महामारी के विनाश के लिए प्रार्थना मत कर पगले!
प्रार्थना नहीं की जाती किसी के विनाश के लिए।
प्रार्थना की जाती है अपनी छाती की चाँदनी रात से
हे योगेश्वरी!
अँधेरे में छलावे की जंगली आग पर ध्यान रहे
जंगल के साथ कहीं जल न जाए पर्वत भी,
प्रार्थना की जाती है अपनी नश्वरता की भंवर से
मातेश्वरी!
पानी में डूब जाए मेरी इस मुट्ठी भर आख़िरी मिट्टी
रहे न अवशेष कोई,
प्रार्थना की जाती है सामने खड़े अपने प्रतिपक्ष से
जीतेश्वर!
उत्सव में बदल दो मेरे इस हारे हुए हृदय के दांव को
मैं भूल जाऊँ अपनी पराजय,
प्रार्थना की जाती है उस आईने से,
जिसने मुँह फेर लिया हो,
विम्बेश्वरी!
इन आँखों में छुपी भीरु छाया को भी ले लो
कि लगे, कभी लज्जा जैसा कुछ था ही नहीं।
इतने में समाप्त होती नहीं प्रार्थना
फिर भी कुछ शेष रह जाता, किसी आाम के लिए,
किसी खास के लिए, उस असम्भव के लिए
जो पल भर में ग़ायब कर सकता है नदी, पर्वत, पक्ष,
विपक्ष, जगत, जीवन और दर्पण को।
लो, हाथ जोड़ो
तुम्हारी प्रार्थना शुरू होती है
अब,
मत बुलाओ सभी देवताओं को एक साथ
संगरोध के इस व्याकुल विश्व में आएँ तुम्हारे इष्टदेव ही
अकेले, मुखौटा पहने, विराजें आसन पर,
हाथ धोएँ उस पवित्र गंगा जल से
जो तमाम बर्फ़ीली सर्द संड़ान्धों को
मनोकामनाओं सहित बहा ले गयी है,
हाथ जोड़ो
बोलो
मैं पापी, मैं पातकी, मैं दोषी, मैं द्रोही, मैं कृतघ्न,
मैं लोभी, मैं हिंसक, मैं विध्वंसकारी हूँ,
हाथ जोड़ो
बोलो
हे असम्भव, अब बरसा दो अपने शीर्ष नक्षत्र का जल
बचा लो जगत को, बचा लो जीवन को,
स्वार्थ सिद्ध करो हे महाकाल,
महामारी से कहो : स्थिर हो जा
वहीं पर, जहाँ हो
इस प्रार्थना की समाप्ति तक,
पर याद रहे, तुम्हारी प्रार्थना कभी समाप्त न हो।
मैं ...?
एक असम्भव समय में इस जगत का कवि हूँ
तुम्हारी करोड़ों एकल प्रार्थनाओं का सामूहिक स्वर हूँ मैं।
महामारी में ईश्वर
नंगे पहाड़ के कन्धे पर पड़ी-पड़ी
धीरे-धीरे शीतल होती है बैशाख की रात
पहाड़ अपने रुखे हाथों से सहला देता रात को
बोलता, इन उपद्रवी पुछल्ले तारों से मत डरना बेटी
आ, सो जा, मैं हूँ न।
बून्द भर पानी को तरसते फट कर मुँह बाये पड़े खेत की
बिलबिलाती छाती पर मन ही मन पसरती रहती अबोध
‘करमा’,
खेत हँस देता, अपने हड़ियल हाथों से उसे सहला देता और
कहता
संभल जा मेरी दुखियारी
भोर की बेला में ओस बरसेगी, मरेगी नहीं तू
आ, सो जा, मैं हूँ न।
कोई न कोई तो है किसी के लिए
पर तुमने
कभी किसी से कहा है कि तुम हो?
तुम्हारे महाशून्य में रोज़ मर जाते अनगिनत तारे
एक सर्वग्रासी काला गड्ढा निगल जाता ग्रह, छायापथ
ब्रह्माण्ड के गाँव और शहर
तुमने कभी कहा है ओह?
तुम्हारी आँखों के आगे, तुम्हारे इस धूल-धुएँ की धरती पर
मर रहे हैं लाखों लोग, वे तुम्हारे कौन हैं?
तुमने कभी कहा है अहा?
कभी भले ही कुछ न कहो पर ... रहो
तुम न भी रहो, तुम्हारी पृथ्वी का कुछ नहीं बिगड़ेगा ईश्वर
लेकिन तुम न रहो तो समाप्त हो जाएगा यह संसार हमारा।
महामारी में जीवन
श्यामचन्द्रिका
हवा कहती बुर्ज थोड़ा और बुलन्द हो,
मैं कहता - हुम
पानी कहता मैल की एक परत रहने दो धोने को,
मैं कहता - हुम
आग कहती मंझार में अंगारा दहकता रहे,
मैं कहता - हुम
आकाश कहता राहुग्रास में धुआँती रहे चन्द्रमसि,
मैं कहता - हुम
मिट्टी कहती पुण्यतोया मैली हो,
मैं कहता - हुम
कहता, पर तब तक संभल कर रह नहीं पाता
वैसे ही अधूरी कविता की तरह छोड़ जाता
मेरे दुःख, शोक, स्मृतियों और सम्भ्रम को
मेरी घृणा, लज्जा, पाप और प्रत्याख्यान को मेज़ पर,
दराज़ में बन्द कर के रख देता श्यामचन्द्रिका को
एक और जन्म के लिए।
किस किस को सँभालूँ?
किस किस के दुःख में कहूँ - अहा?
रात के दुःस्वप्नों में हाथ-पैर खोकर ठूँठ-सा
पड़ा होता एक सबेरा, हवा उसे चौंका नहीं पाती,
चिड़िया की चोंच में दाना जितना, भोजन उसका
उतना ही, दूब की नोक पर ओस जितनी
प्यास के लिए पानी उतना ही, इतने में ही
चल जाता, बीत जाता समय।
बेहोश पड़ी होती एक दोपहर, हाथ-पाँवों में
जान नहीं होती
एक हल्की-सी साँस बन कर शहर की नसों में
चल रही होती गर्मी, प्यासी भैंसों का झुण्ड लेकर
धूप पार कर जाती पठार और नदी।
झुकी-झुकी सी आकर चौरा तले एक दीया
रख जाती सांझ, लड़खड़ाते दो पैर, छाती पर
तिरछी जंजीर की तरह धरे दो दुबले पतले हाथ,
बुझते हुए व्योम का टुकड़ा भर तिलक माथे पर,
आकाश में नाक की लौंग जैसा अदना-सा एक
तारा, बस और कोई नहीं कहीं भी।
जख्मी रात हाथ पकड़ कर छुआ देती यहाँ
भार ढोने का दर्द, यहाँ मार खाने की पीड़ा,
यहाँ विश्वास की घात, यहाँ सर झुकाने की
मजबूरी और कहीं हिऽयों की गुफा में
ढेले के ढेले मरे हुए स्वप्नों का पावना।
कहा नहीं जा सकता ये कृतघ्न हाथ मेरे हैं,
ये भगोड़े पाँव मेरे हैं, बताया नहीं जा सकता
नालायक दिल लौटा नहीं अभी तक, जुएखाने में
कब से ताले लग चुके।
किस किस को संभालूँ?
किस किस के दुःख में कहूँ अहा?
जाए, बीत जाए यह जीवन बिना किसी तर्क के
हवा की तरह, पानी की तरह, आग की तरह,
आकाश की तरह, मिट्टी की तरह।
बुद्ध
ऑश्विट्स के बाद क्या हुआ कविता का मैं नहीं जानता
नहीं जानता हिरोशिमा के बाद कविता बची भी या नहीं
मैं नहीं जानता महामारी के बाद कविता रहेगी या नहीं।
मैं नहीं जानता निर्वाण के बाद कहाँ गये बुद्ध के दाँत
नहीं जानता बज्रा के पाँव होते हैं या नहीं,
मैं नहीं जानता बज्रा, वाहन बन कर लुढ़कता है
चक्कों पर या ध्यान बन कर मस्तक में खिलता है
मैं नहीं जानता आसान कितना आसान है, इसको
वाहन बना कर चलाया किसने?
हे मेरे प्रिय ज़ेन कवियो!
मैं बस इतना जानता हूँ कि आपके आने से पहले
नीरवता थी, आपके जाने के बाद भी नीरवता रहेगी
नीरवता की मिट्टी को गूँथ कर आपने
जो हँसमुख तोंदवाले मटके बनाये
नीरवता के पत्थर को पानी बना कर आपने
जो बदसूरत लोहा उपजाया
नीरवता के बीहड़ जंगल को राख बना कर
जिस शराब को आपने मिट्टी में गाड़ कर सड़ाया
वह हुआ नहीं हमसे,
जो हुआ नहीं
मूढ़ों को उसी ने दार्शनिक बनाया
मासूमों को दिया पागलपन
उसीने मुझे और मेरे सहकवियों को मौन कर दिया
हमें मालूम नहीं थी नीरवता को नीरवता से
अलंकृत करने की कला
खास इसी के लिए
जवानी में हमने खो दिया प्रेम
प्रेमिका को बहलाने के बोल जो नहीं थे
बोलने के लिए अनगिनत नाम थे आकाश में
पर छूने के लिए धरती पर एक भी तारा नहीं था
खास इसीलिए
हम हर परीक्षा में चारों खाने चित्त, ओह, बादलों में
सवाल-जवाब नहीं थे, न ही पाठ थे स्कूली किताबों में!
खास इसीलिए
हमने खो दी अपनी कविताएँ, आँखों की समन्दर जितनी
आँसूभरी कहानी सुनाने, नमक का एक दाना नहीं था ज़ुबान
पर
चुप्पी साध कर
जब हमारे मुँह को लक़वा मार गया
सुनायी दी पर्वत से प्रपात के उतरने की आवाज
सुनायी दी धरती पर जाह्नवी की तेज़ी से गिरने की आह
सुनायी दी घने जंगल से, चोट खायी बाघिन की दहाड़
सुनायी दिया माँ की गोद से भूखे बच्चे का रोना
सुनायी दी पीड़ा को समझा न पाने वाले गूंगे की कराह
यहाँ तक कि सुनायी दी युगों से घूँघट की आड़ में
मुँह छुपा कर रोते-रोते अन्धी बन चुकी पृथ्वी की
अनसुनी आह!
वक्त अब आ चुका हमारा
प्रिय ज़ेन कवियो!
इस वक्त हमें चाहिये चिल्ला कर, रो-धो कर
कानों को पथरा देने की भाषा,
चाहिए दहाड़ की भाषा में शिकायत
ऊँचे स्वर में मन्त्र पाठ, माँग की भाषा में प्रार्थना।
मौन बुद्ध का परित्राण नहीं
मुखर बुद्ध का कोलाहल चाहिए
तपस्वी के मृग छाले में दिखनी चाहिए तीरबिद्ध हिरनी की
कातर आँखें, लोगों की भीड़ में
व्याध भी पहचाना जाना चाहिए।
ओम
मणि पद्मे हुम्
स्त्री
उसने कहा - चुप, मत बोलो और कुछ
मैंने तुम्हें माफ़ कर दिया है
अब जाओ।
जाते-जाते देख लो, वहाँ पड़ी है, टुकड़े भर जंग लगी
चाँदनी,
देखो, पड़े-पड़े सड़ रहा उधर एक पुराना क़बूलनामा
वहाँ बायीं तरफ देखना, पड़ी है
एक जोड़ी
टूटी हुई पायल, दाहिनी ओर पाओगे कमर का
काला धागा
हाँ, दहलीज पर देखना, पड़ा होगा एक
‘नहीं’
जिसे इस घर में रखने से पहले
मैंने जानबूझ कर गिरा दिया था।
प्लीज, समेट लो सब कुछ और जाओ, कुछ मत बोलो,
पलट कर मत देखो, जाओ।
मैं ठीक हूँ
मुझे कुछ नहीं हुआ है
हाथ-पैर पसार कर लेटी हूँ एक प्राचीन अन्धकार की
सप्तद्वीपा धरती, मैं अकेली।
मेरी मुट्ठी में था असीम प्रेम,
तुम्हारे लिए, पर उस मुट्ठी को तुम
खोल नहीं पाये।
कपास का खेत
उजड़ गया हो जैसे बन्द आँखों के अँधियारे में
तारों भरा आकाश
लगातार बारिश से मिट्टी पर लोट रहा
जगमगाता खेत का कपास।
नहर की मेड़ से राह बदल कर जाते हुए पवन को रोक,
दुखियारे कपास के खेत ने पूछा : हे महाप्रू!
देखा है क्या दरपू भुए को
कहाँ है वह
हमार मालिक, हमार भइया!
दरपू भुए ... दरपू भुए ... दरपू भुए ...
बात को अनसुना कर पवन ने कहा : धत् तेरे की ...
मैं क्या जानू, मैं तो जा रहा हूँ उबलते महुए की
महक के लिए बिदिया साव की भट्ठी को।
भट्ठी में मुंडी गड़ाये बैठा था दरपू भुए
उबलते महुए की सुगन्ध सड़ रही आग-सी धुँधुआ रही थी
उसके पेट में।
आखिरी पचास रुपये बिदिया साव को
थमा कर दरपू ने कहा : ले हरामी ले,
मार दे मुझे पिला-पिला कर।
बिदिया साव हँसने लगा
बोला : भौंक और भौंक, तेरे नाम को तो सरकार ने
काट कर फेंक दिया है उधारी खाते से,
उधार चुका नहीं सकता बरगड़ का दर्प नारायण भोई
मरे हुओं की सूची में दर्ज करो उसका नाम ... खल्लास।
गरज उठा दरपू चोट खाये जानवर-सा
गें-गें आवाज़ में बोला-अबे ओ सड़े हुए महुए
कौन है ये दरप नारन भोई?
मैं दरपू भुए जिन्दा हूँ, जिन्दा रहूँगा, मेरे कपास के संग
कपास बन कर फिर से लहराऊँगा अगले साल,
अगले साल एक और भगवान, एक और भाग्य,
एक और भट्ठी।
उधारी चुका दूँगा रे, जबान देता हूँ, चुका दूँगा जैसे भी हो,
मरूँगा नहीं मैं, उधारी बन कर सवार रहूँगा दुनिया के सर पर
मुझे चुकाएगा कौन?
बाढ़
दुःख की पूनम है आज
सोलह कलाएँ लिये आकाश में उगा है चाँद
व्यथा का समन्दर आज तट को लाँघेगा,
नदी और भी फूलेगी, बाढ़ आँखों की
उतरेगी नहीं आज
घुटने भर पानी में डूबी सुहाग सेज हमारी।
आ बैठें छत पर रात भर
ले आ, डूबने से पहले तेरे तमाम गहनों को
छोटी-सी उम्र की तेरी बड़ी जमा पूँजी
अपने माथे का जगमगाता टीका कलंक का
दे बहा दे पानी में।
ले आ, उस खरौंच लगी पाटेली साड़ी को
जिसके आँचल में पड़ी है गाँठ, किसी को भूल जाने की,
अरी पगली, गाँठ पड़ती याद रखने के लिए
भूलने के लिए नहीं, उसे भी ले आ
दे बहा दे बाढ़ के पानी में।
आ बैठें छत पर
सू-सू- गरज रही होगी बाढ़ की नदी
नदी किनारे इकट्ठे आदमी और गाय-भैंस
खुल रहे होंगे एक के बाद एक छेद तटबन्ध के
ठठरी ढोये एक छत ढूँढ रहा होगा आदमी
इस पार बज रहे होंगे मुँह के नगाड़े, उस पार बन्दूक लेकर
बाट जोहता होगा भाई।
पकड़ मेरा हाथ
मैं हूँ, जैसे पूर्णिमा है बादल में
मैं हूँ, जैसे नदी का पानी है आँखों में
जैसे है तटबन्ध, जैसे उसमें छेद हैं
जैसे आदमी हैं, जैसे हैं गाय-भैंस
जैसे मुँह के नगाड़े, जैसे भाई।
कल को बदल गया होगा संसार
उतर गयी होगी बाढ़
गीले सुहाग रात के कमरे में सेज बिछाने को
चेहरा छुपाकर आ रहा होगा प्रतिपदा का पहला अँधेरा
अपनी हँसी मिलाने को हमारी हँसी में।
एक रात का प्रेम
रात के साथ तर्क मेरा ख़त्म नहीं हुआ है
अभी तक
सम्भव नहीं हुआ है अभी तक
काफ़ी दिनों से कीचड़ जमे कुएँ से
निकाल पाना
तेरी खनखनाती चूड़ियों की रुनझुन
अटूट।
आसान नहीं हुआ है जीना तेरे जाने के बाद
आसान नहीं हुआ है आँसुओं से दुःखों को धोना
आसान नहीं हुआ है नशे में लड़खड़ाते पैरों को संभालना
घर वापसी के रास्ते।
बरसात से उजड़ी साँझ की तरह
मुँह छुपाए, गरदन झुकाए
दालान से होते हुए विश्वास के चले जाने के बाद
फिर सम्भव नहीं हुआ है विश्वास,
रात पर।
रात ने कितना समझाया कि तुझ से भी बड़ा है प्रेम तेरा,
फिर भी मैंने जलाये रखी है
तर्कों की दीप माला
तेरे आने की उम्मीद में।
मैं जानता हूँ, तेरा प्रेम नहीं
तू ही आएगी रात बीतने पर
और कहेगी :
ज़रा देना मेरी ओस रंग की वह लाज
दुनिया की नज़र पड़ने से पहले
इस नंगे बदन को ढक लूँ।
मैं जानता हूँ
तर्क खत्म हो न हो
सारी रातें खत्म हो जाएँगी
भोर की बेला में,
प्रेम के बिना
तू दिखेगी पहले से भी और सुन्दर
प्रेम के बिना
जीवन भी जी लिया जाएगा
आज रात की तरह।