महाप्राण निराला । गंगाप्रसाद पाण्डेय
30-Jun-2020 12:00 AM 2464
उस दिन मैं बिना कुछ सोचे हुए ही भाई निराला जी से पूछ बैठी थी---‘आपको किसी ने राखी नहीं बांधी ?अवश्य ही उस समय मेरे सामने उनकी बंधनशून्य कलाई और पीले कच्चे सूत की ढेरों राखियां लेकर घूमने वाले यजमान-खोजियों का चित्र था। पर अपने ही प्रश्न के उत्तर में मिले प्रश्न ने मुझे क्षण भर के लिए चौंका दिया। ‘ कौन बहन हम ऐसे भुक्खड़ को भाई बनावेगी ?’ महादेवी के ये वाक्य कितने अपनत्व से भरे हैं। वे आजीवन निराला को राखी बांधती रहीं और मानती रहीं कि उन्होंने अपने सहज विश्वास से मेरे कच्चे सूत के बंधन को जो दृढता और दीप्ति दी है, वह अन्यत्र दुर्लभ रहेगी। (जो रेखाएं कह न सकेंगी। महाप्राण निराला : कृतिकार: गंगाप्रसाद पाण्डेय)
 
छायावाद के प्रमुख स्तंभों में निराला को कौन नहीं जानता। उनके जीवन और कवि व्यक्तित्व के बारे में इतनी किंवदन्तियां हैं कि उनका हिसाब लगाना मुश्किल। उनका कवित्व इतना प्रौढ और छंद सामर्थ्य से युक्त है कि हिंदी कवियों में ऐसी कोई दूसरी मिसाल नहीं। अल्पवय में ही पिता को खो देने वाले तथा विवाह के कुछ ही वर्षों में प्राणप्रिय पत्नी मनोहरादेवी को खो देने वाले निराला का जीवन संघर्षमय ही रहा किन्तु उससे उनकी कविता पर कोई प्रभाव नहीं पडा़ । अपने परिवार के पालन पोषण के लिए उन्होंने अनेक कठिनाइयां झेलीं किन्तु सरस्वती का आंगन कभी सूना नहीं होने दिया। हर वक्त चिंतन मनन और सृजन में तल्लीन निराला ने कविता में मुक्त छंद का प्रवर्तन कर कविता की मुक्ति की राह सुझाई। आज की तरह तब कवियों के प्रचार प्रसार का कोई साधन न था, वे अपने ही जीवन की जरूरतों से इतने घिरे रहे कि उसके लिए अपनी ओर से कोई यत्न भी नहीं किया। यहां तक कि उनकी प्रसिद्ध रचना ‘जूही की कली’ को पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती’ से लौटा दिया था। हालांकि बाद में वे उसमें ससम्मान छपते रहे। संभवत: मुक्त छंद को लेकर द्विवेदी के मन में कुछ पूर्वग्रह रहे होंगे कि उन्हें निराला की ‘जूही की कली’ स्वीकार्य न लगी। जबकि निराला तो कविता को छंदों के बंधन से मुक्त कर उसकी मुक्ति का पथ प्रशस्त कर चुके थे। ‘परिमल’ की भूमिका में उन्होने लिखा, ‘’मनुष्य की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है।‘’ हिंदी में मुक्त छंद की उदभावना निराला की अक्षय देन है। यह बात और है कि इसके लिए उन्हें जाने कितने लांछन सहने पड़े। छंद कविता के रसिकों अध्यापकों ने उसे रबड़ छंद और केचुआ छंद कह कर नकारने की कोशिश की। विश्वविद्यालयों के गतानुगतिक अध्यापकों की संवेदना इस कदर छंदमोह से ग्रस्त थी कि वे आगे के कवियों अज्ञेय, मुक्तिबोध तक को पढ़ाने की रसिकता, विशेषज्ञता और अनिवार्यता विकसित नहीं कर सके।
 
ऐसे निराला जो रिकार्ड पर कविताएं पढ़ने से भी बिदकते रहे हों, उनके सान्निध्य में रहने वाले व छायावाद युग के प्रमुख आलोचक गंगाप्रसाद पांडेय ने जिन दो विभूतियों पर बड़ा काम किया उनमें महीयसी महादेवी और महाप्राण निराला प्रमुख हैं। कहा जाता है पांडेय जी ने ही उन्हें सर्वप्रथम महाप्राण की संज्ञा से अभिहित किया। वे इन दोनों के अत्यंत निकट भी रहे। इन कवियों में जो उदात्तता रही है वह इस युग के कवियों की भी एक विरल विशेषता रही है। निराला अपने व्यक्तित्व में आजीवन फक्कड़ रहे, किन्तु जिस महाकाव्यात्मकता के साथ निराला अपने काव्य में प्रवृत्त होते हैं वह उनकी परवर्ती पीढ़ी में उत्तरोत्तर विरल होती गयी। पंत में यह प्रतिभा सर्वाधिक थी किन्तु वे जन जन के कवि न हो सके। निराला की तो सरस्वती वंदना ही लोगों के जबान पर चढ़ गयी जो आज भी सभा समोरोहों की शान है। पर अपनी जिन बड़ी कविताओं से से जाने पहचाने गए उनमें जूही की कली, राम की शक्तिपूजा, कुकुरमुत्ता व सरोज स्मृति जैसी कविताएं हैं जिनसे हिंदी कविता का भाल उन्नत होता है।
 
निराला की महाकाय प्रतिभा ही थी कि उनका रामविलास शर्मा जी से अनन्य अपनापा रहा। ‘’निराला की साहित्य साधना’’ के तीन खंड लिख कर डा शर्मा ने प्रमाणित किया कि ऐसी प्रतिभाएं युगों में एक होती हैं। निराला का जीवन कितना संघर्षपूर्ण रहा है, इसकी मार्मिक विवेचना गंगाप्रसाद पाण्डेय ने अपने ग्रंथ ‘’महाप्राण निराला’’ में की है। यह पुस्तक उनके जीवन कवि व्यक्तित्व पर संस्मरण और विवेचन का एक समावेशी उदाहरण है। इसे पढ़ कर जाना जा सकता है कि बिना कवि के जीवन संघर्ष को समझे उसकी कविता को नहीं समझा जा सकता। 1948 में छपी इस पुस्तक के बारे में निराला ने स्वयं टिप्पणी करते हुए कहा है कि ‘इसको सरसरी निगाह पढ कर मैं समझा, मेरी पानी की बूंद मोती बनी है।‘ निराला के कवि जीवन को समझने के लिए यह पुस्तक आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। रजा फाउंडेशन ने इसे पुनर्प्रकाशित कर अनुपलब्ध पुस्तकों को मान देने का जो अभियान चलाया है वह स्तुत्य है।
 
महाप्राण निराला निराला के जीवन की छोटी छोटी घटनाओं का समाहार है। निराला के पिता का असमय ही निधन हुआ। उनकी मां भी कैशोर्य में ही छोड़ कर चली गयीं। सो युवावस्था में ही वे पितृ और मातृ छाया से वंचित हो गए। फलत: उन्हें जीविका के लिए महिषादल जमींदारी में पिता के स्थान पर नौकरी सम्हालनी पड़ी, फिर कुछ सालों बाद वहां से छोड़ कर इलाहाबाद, लखनऊ, उन्नाव आदि जगहों पर भांति भांति के कामों में निमग्न रहे। पांडेय जी ने उनके जीवन और कवित्व को अपने संस्मरणों में सहेजते हुए, युगीन काव्यधारा पर उनके प्रभावों, अनेक साहित्यिकों से उनके वाद विवाद संवाद एवं महिषादल, गढ़ाकोला, उन्नाव, इलाहाबाद, लखनऊ आदि जगहों के उनके रहन सहन का सुंदर समायोजन किया है। उनके जीवन की घटनाओं के साथ साथ उनकी कृतियों व कविताओं के उल्लेख से ऐसा लगता है कि लेखक निराला के जीवन और कृतित्व की एक से एक बारीक घटना को सम्मुख रख कर मूल्यांकित कर रहा है। स्मरण रहे कि गंगाप्रसाद पांडेय जी और धर्मवीर भारती की मैत्री सुविदित रही है। उनके योग्य पुत्र रामजी पाण्डेय महादेवी वर्मा के स्नेहभाजन रहे हैं तथा उन्हें भी संस्मरण विधा में महारत हासिल थी।

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पुस्तक का प्रकाशन  रज़ा फाउंडेशन एवं राजकमल प्रकाशन ने संयुक्त रूप से किया है। 
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