मैं सितार में ख्याल गाता हूँ - मिथलेश शरण चौबे
25-Jun-2020 12:00 AM 1628
मैं सितार में ख्याल गाता हूँ
मिथलेश शरण चौबे
 
              पर मैं तो
              कलावन्त हूँ नहीं, शिष्य, साधक हूँ –
              जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी
                          असाध्य वीणा : अज्ञेय
 
 
            स्वर और शब्द विनय चाहते हैं | जिस कोटि की विनम्रता होती है इनका सन्धान उसी गहनता तक पहुँचता है | साहित्य और कलाओं में विनयभाव सिर्फ़ आत्मसाक्षात्कार करने के लिए ही ज़रूरी नहीं है वरन उसे रचने का पात्रतेय गुण भी है | रचने तक ही नहीं बल्कि आस्वाद तक इसका विस्तार है | रसिक में इसका होना, हम भी अनुभव कर सकते हैं | भारतीय शास्त्रीय संगीतकारों की समृद्ध परम्परा जिन अद्वितीय कलावन्तों से बनती है, उनमें सितारवादक उस्ताद विलायत खां एक मुख्य उपस्थिति हैं | कोई भी कलावन्त किन्हीं भिन्नताओं से ही अद्वितीय बनता है | कई घरानों के बहुत सारे कलावन्तों में विलायत खां की अग्रगण्यता की कई ख़ास वजहें हैं | किसी कलावन्त की कला प्रस्तुतियों को देख-सुनकर ही उसके कला समर्पण की सघनता को पूरी तरह समझना मुश्किल है | जीवन में रिश्तों व घटनाओं के राग-रंग, रियाज़ का नैरन्तर्य और एकाग्रता, उस कला में अपने निजी प्रयोग, कला परम्परा से जुड़ाव, कला से प्रेम आदि ऐसी ज़रूरी बातें होती हैं जिनसे कलावन्त की साधना को समझा जा सकता है | किसी की महानता उसके तय प्रारूपों में सार्वजनिक प्राकट्य से कहीं स्पष्ट और ज़्यादा असलियत में उसकी साधारण चेष्टाओं से चरितार्थ होती है | इसे हम कोमल गांधार क़िताब से जान सकते हैं जोकि ख्यातिलब्ध सितारवाज़ विलायत खां की आत्मकथा है | लेखक-संगीतविद शंकरलाल भट्टाचार्य द्वारा मूलतः बांग्ला भाषा में इस आत्मकथा के लिए लिखे वार्तालेख और तीन संगीत पारखियों के निबन्धों को शामिल कर यह क़िताब निर्मित है | हिन्दी में इसे वरिष्ठ साहित्यकार और मशहूर अनुवादक रामशंकर द्विवेदी ने अनुदित किया है |

 

            पाँच-छह बरस की उम्र से सितार बजाने वाले विलायत खां जब आठ बरस के थे, तब वर्ष  1936 में पहली बार स्टेज पर प्रस्तुति दी | उनके बाबा इमदाद खां, पिता इनायत खां दोनों ही अपने समय के प्रतिष्ठित संगीतकार रहे हैं | अल्पायु में पिता की मृत्यु के बाद बाबा के भाई वाजिद खां साहब तथा नाना बन्दे हुसैन खां व मामा जिन्दे हुसैन खां से उन्होंने तालीम हासिल की | पर विलायत खां को उनकी माँ बसीरन बीबी ने सबसे ज़्यादा मार्गदर्शित किया जबकि वे स्वयं सितार नहीं बजाती थीं | वादक के स्वाभाविक गायन प्रेम की तरह विलायत खां को भी गाने का बहुत शौक था | उनकी प्रतिभा को बारीकी से समझने व उसकी वास्तविक सामर्थ्य की बढ़त के अभिप्रायों को समझने वाली उनकी माँ ने ही उनसे गाना छोड़ने के लिए कहा | गाने की गहरी इच्छा के चलते उन्होंने तय किया कि ‘सितार बजाऊँगा किन्तु उसे गाने की तरह बजाऊँगा |’ गायन सिर्फ़ उनकी इच्छा में ही नहीं था बल्कि बन्दिश को शास्त्रीय संगीत की मूल आत्मा मानने वाले खां साहब की मान्यता है ‘जब तक एक तन्त्रकार(तार वादक) अच्छी तरह से गाना नहीं सीखता है, तब तक वह पूर्ण तार वाद्य बजाने वाला नहीं हो सकता है |’ उन्होंने खुद को सितार में गायकी के अंग का पूर्ण प्रतिफल माना है |

 

          बारह-तेरह घण्टे प्रतिदिन रियाज़ करने वाले खां साहब सितार के निर्विकार प्रेमी रहे हैं, ताउम्र सितार उनकी देह और आत्मा का अंग बना रहा | सितार के बिना एक दिन भी जीवन की कल्पना उनके लिए असम्भव थी | उनकी बहुत सी उक्तियाँ नए कलावन्तों के लिए नज़ीर बन सकती हैं | जैसे प्रदर्शनों, उपलब्धियों और सम्मानों के प्रति चिन्तित कलावन्तों के लिए  :
 
                 ‘पहले अपने को तो खोज कर बाहर कर लो | तुम पहले अपने को प्राप्त करो, दुनिया तुम्हें अपने आप खोज लेगी |’  
                 ‘मुझे नहीं मालूम कि मुझे क्या मिलेगा, मुझे सिर्फ़ यह मालूम है कि मुझे क्या देना होगा |’
                                            
            अतीत गौरव के स्वरों में डूबे विलायत खां साहब ; बिस्मिल्लाह खां, अली अकबर खां, पण्डित रविशंकर और स्वयं को बीसवीं शताब्दी के श्रेष्ठ वाद्यकार मानते हुए भी गायन व वादन के समस्त गुणीजनों में बड़े गुलाम अली खां को सबसे ऊपर रखते हैं | शास्त्रीय कलावन्त अपने घरानों की मुक्तकण्ठ प्रशंसा करते अघाते नहीं हैं | खां साहब के कृतज्ञता बोध का दायरा अत्यन्त उदार है, उसमें पूर्वज सितारवादक ही नहीं गायन व वादन के अनेक श्रेष्ठ साधकों का स्मरण है | जैसे फ़ैयाज खां साहब का गाना, खासतौर पर उनका गौंड़ मल्हार व राग दरबारी उनमें विषाद व आनन्द के नशे की तरह बसा रहा | अन्य वाद्यकारों मसलन तबला में शामता प्रसाद, किशन महाराज, अनोखेलाल, करामत खां, अल्लारक्खा खां, कण्ठे महाराज, अहमद जान थिरकवा, जाकिर हुसैन को उनके निजी व अद्वितीय वैशिष्ट्य के साथ स्मृत करते हैं | यह स्मरण तब और दिलचस्प हो जाता है जब खां साहब बड़े गुलाम अली खां का मालकौंस, अब्दुल करीम खां की भैरवी की अद्वितीयता का बखान करते हैं | इसी क्रम में वे ठुमरी के इन कलावन्तों पर मुग्ध होते हैं : फ़ैयाज खां, बिस्मिल्लाह खां, सिद्धेश्वरी देवी, अब्दुल करीम खां, इनायत खां, बड़ी मोती बीबी, रसूलन बाई, बड़े गुलाम अली खां साहब, बरकत अली खां साहब | यह स्मरण और कृतज्ञता और भी ऊँचाई तक पहुँचती है जब विलायत खां जिन्होंने एक जोड़ी तार निकाल कर सितार को बदल, विलायतखानी सितार आविष्कृत किया ; अपने नए काम और महान कलावन्त होने को ठेलकर, अपने वादन को अमर संगीतकारों का स्मरण कर बजाने का प्रयास कहते हैं | उन्होंने रवीन्द्रनाथ ठाकुर को जिस आसक्त आत्मीय ऊष्मा व अपार आस्था के साथ याद किया है, वह विलायत खां की शख्सियत में शामिल अन्य कलावन्तों के प्रति आदर का चरम स्वरूप है : ‘दुनिया में कुछ चीज़ें इतनी अच्छी होती हैं, जिनकी प्रशंसा करने की स्थिति में भी हम नहीं आ पायेंगे |’ 

 

           उनकी स्मृति के हवाले यह भी उल्लेखनीय है कि सभी बड़े कलावन्त, बड़े मनुष्य भी थे | व्यवहार और बातचीत के ढंग में मिठास और आत्मीयता, उत्साहित करने की हरसम्भव चेष्टा, खुद को मामूली बता पुरखों की कला साधना का आदर, रसिकों के प्रति आत्मीयतापूर्ण रिश्ते और इन्सानियत के धर्म का निर्वाह उनके कलाधर्म के आगे हमेशा रहा | खुद विलायत खां साहब के लिए अपने समय के कलावन्तों का ‘सुपर ह्यूमेन’ भाव असह्य था | नामवर होते ही अभिजात्य हो जाने को वे कलावन्तों का सबसे बड़ा दोष मानते हैं | फ़्यूजन के बारे में उनका विचार है कि ‘हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत में से आदमी निकल नहीं सकता | जो उसमें घुसा है तो फ़्यूजन नहीं करेगा |’

 

            विलायत खां की भोजन के प्रति आस्था संगीत से कम नहीं रही | उन्होंने खुलकर और विस्तार से अपनी व अन्य कलावन्तों की रसोई का ज़िक्र भी किया है और अच्छे गायन या वादन के लिए अच्छे भोजन की महत्ता पर जोर दिया है | आमतौर पर अपनी जीवन शैली के उन पक्षों को नज़रन्दाज़ करने का चलन है जिनका अपने कलाकर्म से सीधा रिश्ता नहीं बनता | अपने पहनावे के प्रति सजगता, इत्र, हीरे तथा कार प्रेम से लेकर कलकत्ता शहर से लगाव का बखान खां साहब ने मुखरता से किया है | अपने असंतोष और संगीत में विलाप को भी दुहराया है तो सितार बनाने वाले कारीगरों भिकिराम और हीरेन को उनकी कुशलता के लिए याद किया है | कलावन्तों में अस्वीकार और प्रतिरोध  के अभाव के बरअक्स विलायत खां के जीवन में ऐसे वाकये अनेक बार घटित हुए हैं | आकाशवाणी ने जब कलावन्तों की श्रेणी बनाने के लिए पण्डित ओंकारनाथ ठाकुर, केशरबाई जैसे बुजुर्ग गायकों को भी स्वर परीक्षण की प्रक्रिया से गुज़रना तय किया तब विलायत खां ने इस कदर विरोध किया कि इस प्रकिया के स्थगित न होने पर, पचास के दशक से ताउम्र आकाशवाणी के लिए प्रस्तुति ही नहीं दी | पद्मश्री और पद्मविभूषण सम्मानों को, इनका निर्णय करने वालों में कला की समझ नहीं होने की वजह बताकर अस्वीकार कर दिया |  

 

            क़िताब में विलायत खां पर एकाग्र तीन निबन्ध भी शामिल हैं जिनसे विलायत खां के सितार के गुण और उनकी शख्सियत पर विचार किया गया है | संगीत पारखी नीलाक्ष दत्त का मानना है कि सितार पर ठुमरी का काम उनसे अच्छा और कोई उतनी खूबी का नहीं कर पाता | आशीष चट्टोपाध्याय उनमें किराना व आगरा घरानों की क्रमशः सुर की कलाकारी तथा सुघड़ व सुषमापूर्ण बढ़त और गम्भीर गमक की उपस्थिति पाते हैं | कवि जय गोस्वामी ने संगीत के व्याकरण को जाने बिना विलायत खां के सितार वादन से अपने प्रेम का भावुक बखान किया है |

 

             विलायत खां स्वयं को अतीत व भविष्य का सन्धिकर्ता मानते हैं, उन्हें जो पुरखों से मिला है उसे अपनी साधना व अध्यवसाय से अगली पीढ़ी को सौपने का काम, उनकी दृष्टि में उनके होने की अर्थवत्ता है | विनम्रता और कृतज्ञता से विरत होती जा रही कला व साहित्य की दुनिया को उत्कृष्ट व महान होने के लिए इन्हीं गुणों की ओर लौटना होगा, विलायत खां की आत्मकथा में यह पुकार एक टेक की तरह प्रवाहित है | इस आत्मकथा को एक कलावन्त के उदात्त होने के अर्थ में तथा रियाज़ के जुनून, नए की ललक, पुरखों के श्रेष्ठ गुणों को आत्मसात कर, कला को जीवन के ऊपर स्थापित करने की जिजीविषा तथा अपनी कला के समक्ष स्वयं को तिरोहित कर प्रतिष्ठा अर्जित करने की नज़ीर बतौर भी पढ़ा जा सकता है |

 

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क़िताब             :  कोमल गांधार ( विलायत खां की आत्मकथा )
अनुलेखन व सम्पादन :  शंकरलाल भट्टाचार्य
बांग्ला से अनुवाद    :   डॉ रामशंकर द्विवेदी
प्रकाशक            :  रज़ा पुस्तकमाला, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली
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