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मलयज के पत्र प्रेमलता वर्मा
SAMAS ADMIN
12-Dec-2017 12:00 AM
9981
मलयज के पाठकों और लेखक मित्रों के लिए इन पत्रों में काफ़ी कुछ जखीरा प्रस्तुत है। आलोचना और विश्लेषण भी है परिस्थितियों और व्यक्तियों का, मनोवैज्ञानिक धरातल पर मानवीय सहानुभूति और विवेक के साथ। मलयज बेहद संवेदनशील रहे और बेहद अकेले अपनी पीड़ा झेलते रहे पर आत्मदया से बराबर बचते रहे। इसके विपरीत वे आत्मालोचन में गहरे जाते थे। अपनी मनःस्थति को लेकर मलयज ने कई पेचीदे सवाल भी उठाये अपने ही ऊपर। वे अपनी कमियों से परिचित थे और उन्हें कह देने में ज़रा भी नहीं हिचके। मलयज प्रशंसा के प्यासे नहीं, बल्कि ‘आत्मसन्तोष’ -अपने लेखन के जरिए- चाहते थे। लेखन-श्रेष्ठ लिखना-उनका सबसे बड़ा (और एकमात्र भी शायद) सन्तोष रहा। वे एक सही अर्थों में सार्थक जीवन की तलाश में रहे। शोहरत की परवाह किये बगैर, चुपचाप अपने लहू की एक-एक बूँद को सार्थक रचना के लिये अर्पित करते जाना ही उनका प्रेय और श्रेय रहा इसके बावजूद। मलयज अपने जीवन से क्या यही चाहते थे तो गहरी उदासी से, शंका भरे सवाल ही क्यों उठाते कि- ‘रचना के इनेगिने क्षण और कुछ पुस्तकें क्या यही मेरी उपलब्धि है? क्या इन्ही के भरोसे जिया जा सकता है?’ उन्हे अपना किया अधूरा ही लगा और बराबर असन्तोष में रहे। उनको एक आम आदमी का चुटकी भर शान्त सुख भी (शायद) नहीं मिला। उनकी सौम्य खामोश मुद्रा में कहीं कोई चुनौती झनझनाती रहती थी, यह चुनौती उनकी अपने आप से ही थी। लगातार तनाव और पीड़ा उनके अन्तर को मथती रहती। एक चुभती हुई ख़लिश उनके अन्तर को अहरह कुदेरती रही- ‘लगता है मैंने अपने को प्राप्त नहीं किया है। मेरा बहुत बड़ा हिस्सा-जिसकी मुझे ख़बर ही नहीं-वह जैसे आइसबर्ग की तरह सतह के नीचे है। ...मगर यह विचार शीघ्र ही उड़ जाता है। क्योंकि अपने बारे में सोचना आत्मदया का शिकार होना है। मैं भरसक कोशिश करता हूँ कि आत्मदया से बचूँ।’ (12-11-75 का पत्र)
एक किस्म का युद्ध उनके भीतर अपने आप से चलता रहता था।
मलयज भारी क्राइसिस से गुज़र रहे थे- ‘कुछ लिख लेता हूँ तो लगता है, ज़िन्दगी से कुछ छीन लिया है। पर ज़्यादातर तो ज़िन्दगी मुझी से मेरा लेती जा रही है-मेरे दिन, रात, महीने और वर्ष।’
वे अपने व्यक्तिगत- पारिवारिक जीवन में कोई बदलाव न ला सके न ही उसकी सिवारेँ छाँट के हटा सके- यह पछतावा भी उनका गला घोंटने को तैयार रहता। उनके कमज़ोर तन में इतनी क़ूवत ही नहीं थी। न ही किसी और ने इस मामले में उनकी कोई एक भी समस्या सुलझानें में सहायता तो क्या ध्यान तक नहीं दिया। वे बेहद अकेले होते चले गये। उनको समझनेवाली एक मैं ही रह गयी थी। हममें संवाद था, भावनाओं, विचारों का आदान-प्रदान, ‘मैं तुमसे अपनी भावनाओं का आदान-प्रदान कर सकता हूँ। मेरी इन भावनाओं में तुम्हारे लिए कोई काम की बात हो तो हो, वरना अलग से कुछ कहना तो एक प्रकार से दूरी को निभाना है।’ अपने-अपने दिल की बात हम दोनों भाई-बहन ही एक दूसरे से कह लेते थे। हम भाई-बहन के साथ मित्र भी होते गये थे, विशेष कर मेरे विदेश प्रवास में। अपने सन 74 के एक पत्र में मलयज लिखते हैं, ‘अपने-अपने ढंग से शायद तुम और मैं दोनों ही एक नयी Identity की तलाश में हैं।’ शायद इसी बिन्दु पर वे मुझसे ज़्यादा से ज़्यादा जुड़ते गये। मुझसे, उनकी गहरी आकांक्षा कि मैं भारत आ जाऊँ उनके पास,( जैसा कि अपने सन 81 -82के पत्र में लिखते हैं, ‘प्रेमा तुम यहाँ आ जाओ तो सब ठीक हो जाएगा’) मैं अपनी जटिल परिस्थितियों के कारण पूरी करने में अक्षम थी। इसका मलाल मुझे शायद ताहम ज़िन्दगी बकोटता रहेगा... अपनी ज़िन्दगी के आख़िरी सालों में मलयज अपने को बहुत बेसहारा महसूस करने लगे थे। मगर उनके मन की पीड़ा को सहला देने, कुछ राहत देने वाला लम्हा आमतौर पर वही होता जब हाथ में क़लम क़ाग़ज पकड़ने को, अपना मानस केन्द्रित करने को कुछ एकान्त क्षण उनकी रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए हासिल हो जाते। उसके बाद वे दोबारा अपनी तनाव भरी व्यथा में वापस लौट जाते...
वे बड़ी भारी क्राइसिस से गुज़र रहे थे।
अपनी सन् 80 की पहली भारत वापसी में मुझे उनकी साँस उखड़ने का अहसास हो रहा था। उन साढ़े तीन महीने के मेरे भारत प्रवास में हम लगातार साथ-साथ एक शहर से दूसरे शहर की यात्रा करते और दिल्ली में भी कई स्थानों पर गये। मलयज भैया को इस दौरान कई बार बुख़ार नें चाँपा, खाँसी-जुक़ाम अलग से, पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। वे सारा समय मेरे साथ गुज़ारना चाहते थे। उन्हें सम्भवतः अहसास हो गया था कि उनके पास ज़्यादा समय नहीं बचा था। मैंने बड़ी शिद्दत से शमशेर जी से मलयज भैया की तेज़ी से बिगड़ती हालत पर ग़ौर करने और उनकी Care के लिए प्रार्थना सी की। मगर जो जवाब मिला उससे हताशा ही हुई... मुझे अर्जेन्टीना लौटना ही था,( अपनी 11 साल की बेटी को बोयनोस आइरेस में अपनी एक मित्र के पास छोड़ कर भारत गयी थी। फिर भारतीय दूतावास के अधिकारियों का मानवीय संवेदना से काम नहीं चलता कि वे मुझे ड़ेढ साल बाद फिर छुट्टी देते)। बहुत ही भारी मन से भैया से विदा लेना पड़ा...
इन पत्रों में बहुत कुछ वह है जो न तो उनकी डायरियों में है न ही उनके अन्य लेखन में।
अभी तक मैं मलयज के सन 70 के पत्रों से लेकर सन 77 तक के(भी कुछ) पत्र टाइप कर चुकी हूँ। कुछ पत्र खो गये हैं, कुछ समूचे और कुछ अधूरे ही मिले।
प्रेमलता वर्मा
सी, 12, मॉडल टाउन, दिल्ली-9
27-2-70
प्रिय प्रेमा,
इस बीच तुम्हारे दो पत्र मिले, उनके जवाब मैं जल्दी दूँगा। तुम्हारे पहले पत्र में तुम्हारी नौकरी मिल जाने की ख़बर से जी बहुत हल्का हुआ। अपने पैरों पर खड़ी हो। यह बहुत खुशी की बात है। तुम्हारे इसी एकमात्र पत्र का टोन मुझे प्रेरणापूर्ण और सुखद लगा। सच, बड़ा मज़ा आये यदि तुम्हें सान मार्को निश्वविद्यालय में ही नौकरी मिल जाय। पढ़ाने के काम में तुम्हारा शरीर तो ज़रूर थक जाता होगा, पर वक़्त खाली रहने से जो मानसिक थकान और टूटन होती है, नहीं होगी। अच्छा क्या वहाँ गर्मियों की छुट्टियाँ नहीं होतीं जैसे यहाँ होती हैं? उन दिनों तुम विश्राम करते हुए कुछ लिखने पढ़़ने का काम कर सकती हो। स्पेनिश तो तुम्हें अब अच्छी आ गयी होगी न, कुछ अनुवाद कर सकती हो। विशेषकर कविताओं के। यहाँ दिनमान1 में विदेशी कविताओं के अनुवाद छापने का एक सिलसिला सर्वेश्वर जी2 ने चालू किया है। यदि तुम आधुनिक स्पेनी कविताओं के कुछ हिन्दी अनुवाद भेज सको तो वे छप जाएँगे। पैसे भी ये लोग अच्छा देते हैं। दरअसल तुम्हें अपना लिखना नहीं बन्द करना चाहिए।
मैंने इधर फिर से पोलिश शुरू की है। अब किताबी पाठ पढ़़ने के बजाय कविताओं के सीधे मूल से अनुवाद करने के सहारे भाषा सीख रहा हूँ। इसमें होगा यह कि यदि किसी कविता का अनुवाद अच्छा हो गया, उसे दिनमान में छपा भी सकूँगा।
शमशेरजी से कुछ दिन हुए युनिवर्सिटी में मुलाकात हुई थी। ठीक हैं। डिक्शनरी के काम में जुटे हैं। सुरामा के अत्यधिक व्यस्त होने के कारण उनकी स्पेनिश-हिन्दी की आदान-प्रदात्मक पढ़़ाई का कार्यक्रम फिलहाल रुका हुआ है। अजय सिंह3 अब उनके साथ ही रहते हैं। पहले कभी उम्मीद करता था कि शायद शमशेरजी वह मकान छोड़कर कहीं नज़दीक आ जाएँगे या यहीं सब लोग एक किसी बड़े मकान में इकट्ठा रहेंगे, इसकी उम्मीद अब दिखायी नहीं देती क्योंकि शोभा अजय सिंह के बिना रह नहीं सकतीं, और अजय एक तो फ्री-लव के हिमायती हैं, दूसरे अभी किसी काम-धाम में नहीं जुटे हैं, अतः शोभा से उनकी शादी भी नहीं हो सकती। उनके घरवाले रुपए भेज देते हैं, कुछ वे पत्रकारिता से पैदा कर लेते हैं, और शमशेरजी और शोभा के साथ रहते हैं। शमशेरजी का हमारे यहाँ आना बहुत कम हो गया है। वे अपनी थकान का ज़िक्र करते हैं। पर मेरा ख्याल है उनका जी भी अब हमारे यहाँ नहीं लगता। शोभा जब यहाँ आती है- वहाँ खाने-पीने की दिक्कत झंझट से ऊब कर उसे यहाँ कभी-कभी आना ही पड़ता है- तब दो चार रोज़ बाद फिर वापस चली जाती है। मैंने तो एक तरह से अजयसिंह और शोभा के सम्बन्धों को लेकर मन को समझा लिया है (हालाँकि अजयसिंह से मेरी कोई बातचीत नहीं है), पर बाबूजी कुपित रहते हैं। समझ में नहीं आता क्या होगा। शोभा की ज़िन्दगी एक तरह की हिप्पी की ज़िन्दगी हो गयी है। और शोभा तथा अजयसिंह के साथ मुझे तो शमशेरजी भी एक हिप्पी ही मालूम पड़ते हैं। खैर।
तो.4 के बारे में तुमने जो कुछ लिखा भारत आने के सम्बन्ध में, मेरा ख्याल है वैसी कोई बात नहीं। माचवे जी से मैं कई बार मिला, टोह भी ली, तो. ने सिर्फ़ एक पिक्चर पोस्कार्ड उन्हें भेजा था जो शायद शिष्टाचार मात्र रहा होगा, वे स्वयं माचवे की टोह लेना चाहते हों कि तुम्हारे काण्ड के बारे में माचवे कितने पानी में हैं। माचवे का दिल तो. की तरफ से फिर गया है। अभी कल ही माचवे पूछ रहे थे कि प्रेमा, बेबी और डॉक्टर के साथ इकट्ठा रह रही है न, तो मैंने कहा कि प्रेमा के पत्रों से इस बारे में कुछ स्पष्ट नहीं होता, अतः हो सकता है कुछ गड़बड़ हो। मैंने इतना संकेत देना उचित समझा। उन्होंने कहा कि ऐसा बहुत मुमकिन है, तो. जिस तरह गया, उससे यह हो सकता है कि प्रेमा सुखी न हो।
आजकल माचवे जी का परिवार बहुत परेशान है। पारणेकर जी सख़्त बीमार हैं - मेडिकल इंस्टिट्यूट में भर्ती हैं । उनके पेट का ऑपरेशन हुआ है। कुछ कैन्सर का भी अंश है। कल मैं देखने गया था, काफ़ी कमज़ोर और गम्भीर रूप से बीमार लगे। देखो क्या होता है। आजकल दिन रात वे लोग अस्पताल में ही रहते हैं।
1. सातवें और आठवें दशक में प्रकाशित हिन्दी साप्ताहिक। पहले सम्पादक अज्ञेय थे जिन्होंने दिनमान की कल्पना की थी। फिर रघुवीर सहाय सम्पादक हुए।
2. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, हिन्दी के कवि-लेखक।
3. अजय सिंह- पत्रकार। मलयज की बहन शोभा के पति।
4. तो. किसी नाम का संक्षेप है।
मुन्ना तुम्हारे ख़त का बेसब्री से इन्तज़ार कर रहे हैं। वे चाहते हैं कि तुम उन्हें नये-नये टिकटवाला लिफ़ाफ़ा भेजो।
आजकल मुन्ना और बाबूजी इलाहाबाद गये हुए हैं। मनोज (शरद के छोटा भाई) की शादी है। मुन्ना वहाँ से लखनऊ चले जाएँगे और नीलू के साथ दिल्ली आएँगे। नीलू अपने बच्चे के साथ आएगी। अभी कुछ दिन हुए शरद एक इण्टरव्यू के सिलसिले में यहाँ आये थे। निर्मल एण्ड कम्पनी भी दिल्ली आने को उत्सुक हैं।
इधर घर के खर्च काफ़ी बढ़ गये हैं। बाबूजी ने नाज (सिनेमा) की नौकरी छोड़ दी है। ज़मीन बेच कर जो रुपया आया था वही खर्च हो रहा है। मेरी तनख्वाह से घर का खर्च चलना वैसे भी नामुमकिन है, फिर बाबूजी की खर्चीली आदतें वैसे बहुत कम हो गयीं हैं, पर फिर भी खर्च अधिक हो जाता है।
सरोज1 ठीक है। तुम्हारा पत्र न मिलने पर रूठती है।
शेष ठीक है। सुरामा के बारे मे जो तुमने लिखा वह Shocking है। मैंने तुम्हारे पत्र की बातें सबसे गुप्त रखीं हैं । पत्र पहले की तरह सरोज के नाम रजिस्ट्री से भेजा करो। C/0 Malayaj लिखने की कोई ज़रूरत नहीं।
पत्र जल्दी देना। सस्नेह तुम्हारा, मलयज
28-3-70
प्रिय प्रेमा,
कुछ दिन पहले मुन्ना के नाम तुम्हारा पत्र आया था। उसमें तुमने लिखा था कि तुमने मुझे कोई लम्बा पत्र भेजा है। वह ख़त मुझे आज तक नहीं मिला। लगता है रास्ते मे ही कहीं ग़ायब हो गया है। इस तरह के लम्बे पत्र तुम यदि भविष्य में रजिस्ट्री से भेजा करो तो उसके ग़ायब होने के अन्देशा नहीं रहेगा। मुझे बड़ा अफ़सोस हो रहा है कि तुम्हारा पत्र मुझे नहीं मिला। मैं बहुत दिन से तुम्हारे पत्र की प्रतीक्षा कर रहा था और सच पूछो तो उसी वजह से मैंने तुम्हें पत्र भी नहीं लिखा। यदि उस पत्र में तुमने कोई ख़ास बात लिखी हो तो उसे दुबारा लिख कर भेज सको तो अच्छा रहेगा।
1. सरोज- मलयज की पत्नी।
प्रेमा, तुम्हारे उस काम के बारे में मैंने पता किया तो मालूम हुआ कि श्यामलाल जी ने ‘दिनमान’ की नौकरी छोड़ दी है और कहीं दूसरी जगह चले गये हैं। शमशेर जी से भी इस बारे में बात की थी, उन्होंने सुझाव दिया कि प्रेमा को कानूनी कार्यवाई का सिलसिला शुरू कर जल्दीबाजी नहीं करनी चाहिए, बल्कि धैर्य से काम लेना चाहिए।
इस बार होली पर जब हम लोग इकट्ठा हुए -शमशेरजी और शोभा एक दिन पहले मॉडल टाउन आ गये थे-तो तुम्हारी बड़ी याद आयी। कई सालों में यह पहला मौका था जब होली पर माँ और बाबूजी हम लोगों के साथ थे। माँ कहती थीं कि प्रेमा को तो वहाँ पता भी न चला होगा कि होली कब पड़ रही है। शमशेरजी की तबियत सुस्त थी, पेट ख़राब था, इसलिए लगभग दिन भर पड़े रहे। शाम को माँ बाबूजी को छोड़ कर हम सभी लोग सर्वेश्वर जी के घर गये, कुछ देर बैठे रहे, गपशप की और क़रीब आठ बजे घर लौटे। सरोज की वजह से हम लोगों की होली मन गयी। उसी में होली मनाने का सबसे ज़्यादा चाव और उत्साह था। गुझिया, खुरमा वगैरह उसी ने बनाये। हम लोग सोच रहे थे कि पता नहीं इस समय लीमा में तुम क्या कर रही होगी। भारतीय दूतावास ने शायद कोई होली-उत्सव आयोजित किया हो।
होली के पहले 14 मार्च को मैं इलाहाबाद होते हुए सीधी (मध्यप्रदेश में एक छोटा-सा शहर) गया था वहाँ अशोक वाजपेयी कलेक्टर हैं। वहीं रमेशचन्द्र शाह और उनकी पत्नी ज्योत्सना मिलन भी रहते हैं। यहाँ से मैं, नामवर सिंह, नेमिचन्द जैन, भारत भूषण अग्रवाल और कमलेश गये थे। इलाहाबाद में नरेश मेहता, श्रीराम वर्मा, लक्ष्मीकान्त वर्मा, रविन्द्र कालिया और ममता कालिया। बनारस से धूमिल और काशीनाथ सिंह। पंचमढी से कोई जितेन्द्र कुमार आये थे। अच्छा जमावड़ा रहा, वहाँ एक अच्छे सर्किट हाउस मे ठहराया गया था। हम कलेक्टर साहब के मेहमान थे, अतः आवभगत खूब अच्छी हुई। खाने-पीने का इन्तज़ाम बहुत अच्छा था-सुबह शाम मुर्गी। सोने के लिए बढ़िया बिस्तर।
सर्किट हाउस एक छोटी-सी पहाड़ी पर स्थित है। वैसे तो चारों ओर ही पहाड़ियाँ हैं- पूरा इलाका पहाड़ी है- विन्ध्य की श्रेणियाँ। गर्मी खास नहीं थी, सुबह के समय बड़ा ताज़ा और सुहावना लगता था। हम लोग यहाँ तीन दिन रहे। अन्तिम दिन सैर सपाटे में गुज़रा। गोष्ठी भी जम कर हुई। बाहरी दर्शक या श्रोता कोई था नहीं। श्रोता हम सब इने गिने लेखक ही थे। सारी बातचीत टेप पर रिकार्ड कर ली गयी जिसका बाद में इस्तेमाल होगा। अभी पत्रिकाओं में इस गोष्ठी की रिपोर्ट नहीं छपी है, छपने पर भेजूँगा। इसमें मैंने भी एक पेपर पढ़़ा था जिस पर काफ़ी सरगर्मी रही। मामा1 ने भी एक पेपर पढ़़ा था। वे गोष्ठी के दूसरे दिन इलाहाबाद वापस चले गये। दूसरे दिन शाम को एक काव्य गोष्ठी भी हुई जो काफ़ी सफल रही। कुल मिला कर अपने ढंग का पहला आयोजन था। अशोक वाजपेयी का विचार है कि इस प्रकार के लेखक शिविर वे प्रति वर्ष आयोजित करेंगे। हम लोगों के आने जाने का किराया उन्होंने 150 रुपये दिये थे। लौटते समय इलाहाबाद में कुछ घण्टे रुकना हुआ । चूँकि बाबूजी भी इलाहाबाद में नहीं थे, अतः मकान में ताला पड़ा हुआ था। फलतः मैं कुछ देर दूधनाथ के यहाँ और कुछ देर सरोज के बाबूजी के यहाँ रहा। बड़ा अजीब लगा कि इलाहाबाद में होकर भी मैं घर के बाहर रहा। उस घर से जैसे नाता ही टूट गया हो। सब कुछ उखड़ा-उखड़ा। शिवकुटी लाल1 से सिर्फ़ पन्द्रह बीस मिनट के लिए मिलना हुआ। बड़े तडफड़ाये।
1. मामा, हिन्दी कवि श्रीराम वर्मा।
दिल्ली में अब गर्मी पड़नी शुरू हो गयी है। पंखे चलने लगे। शमशेरजी जब से लाजपत नगर में रहने लगे हैं तब से काफ़ी कमज़ोर हो गये हैं। थके-थके से लगते हैं। शोभा की वजह से उनकी ज़िम्मेदारी काफ़ी बढ़ गयी है। मुझे तो लगता है कि उन्हें घर का भी कुछ काम करना पड़ता है। फिर लाजपत नगर से युनिवर्सिटी का बस का आना-जाना। खर्च ज़्यादा हो जाता है। घरबार की संभाल शोभा के वश की बात नहीं, फिर शमशेरजी की ज़्यादा खर्च करने की आदत। दूध भी वहाँ नहीं ले पाते। मैंने कहा कि कुछ दिन आप मेरे साथ ही रहिए, तबियत ठीक हो जाय तो चले जाइएगा। पर शमशेरजी को मेरे यहाँ वैसे ही लगता है जैसे मुझे इलाहाबाद लगने लगा है। एक रात से ज़्यादा रहना उन्हें असुविधाकारक लगने लगता है। शायद सरोज की वजह से संकोच करते हों। शोभा की तबियत भी कुछ खास नहीं दिखती। खानपान की अनियमितता का कुछ तो असर पड़ेगा ही। अपने शरीर का उसे ध्यान रहता नहीं। इधर काफ़ी अरसे से खाँसी भी चल रही है। मॉडल टाउन में वह दो दिन से ज़्यादा रह नहीं सकती-कारण अजय सिंह। अजय सिंह से मेरी मुलाकात नहीं हुई। शमशेरजी उनकी तारीफ़ करते हैं। भावुक भी हो जाते हैं। मैं चुप रहता हूँ, कुछ समझता हूँ, कुछ नहीं समझता। अजय सिंह ने पढ़़ाई छोड़ दी है और पत्रकारिता करना चाहते हैं, कोई नौकरी नहीं। दिल्ली में पत्रकारिता करके आजीविका चलाना लोहे के चने चबाने की तरह है, इतना अधिक कम्पटीशन है यहाँ। शोभा का भविष्य पता नहीं क्या है। बाबूजी, माँ ने तो उधर से सोचना ही बन्द कर दिया है। मैं कभी-कभी बेहद परेशान हो जाता हूँ। बस शमशेरजी आश्वस्त हैं कि सब ठीक चल रहा है। मुझे तो शमशेरजी के स्वास्थ को लेकर भी चिन्ता हो गयी है। शमशेर जी शारीरिक और मानसिक थकान की जिस स्थिति में हैं, उसमें तुम्हें कब चिट्ठी लिख पाएँगे, यह कहना मुश्किल है।
अच्छा शमशेरजी ने मुझे एक बात बतायी थी जो उन्हें सुरामा से मालूम हुई थी कि तुम एक परिवार में गवर्नेस की हैसियत से काम करती हो पर उसका पारिश्रमिक लेना नही चाहती। क्या यह सच है? ऐसा क्यों है? तुम यह जानती ही हो कि किसी प्रकार का काम हेठा नहीं, और उस काम के बदले मेहताना लेना भी अनुचित नहीं है। इससे तुम्हारी आर्थिक स्थिति बेहतर होगी, तुम आत्मनिर्भर हो सकोगी। पैसे होने से अपने स्वास्थ की बेहतर देखभाल भी कर सकोगी।
मुन्ना का इम्तहान आज खत्म हो रहा है। अब वह तुम्हें पत्र लिखेगा। माँ का एक पत्र तुम्हे भेज रहा हूँ। बाबूजी को भी कभी कभार पत्र लिख दिया करो। पत्र न लिख कर उनका मन ख़राब करने से क्या फ़ायदा - दो लाइन का ही सही। माँ और बाबूजी हमेशा तुम्हारे बारे में आशंकित रहते हैं। पत्र पाकर उनकी आशंका कुछ तो दूर होगी। बाबूजी आजकल इलाहाबाद गये हुए हैं, जल्दी लौट आएँगे। ज़मीन जो बेची है उसका रुपया वसूल करने गये हैं। महुई की काफ़ी ज़मीन बेच दी है। यहाँ तुम्हारी ज़मीन के बारे में अख़बारों में ख़बर निकला था कि ज़मीन खरीदने के दो साल के भीतर मकान न बनवा लेने पर सरकार उस पर कब्ज़ा कर लेगी। अतः उस ज़मीन की रजिस्ट्री करना ज़रूरी हो गया है। रजिस्ट्री मेरे नाम से करानी होगी। बाबूजी के लौटने पर यह सब कुछ हो सकेगा।
1. शिवकुटी लाल, हिन्दी कवि इलाहाबाद में रहते थे।
तुम्हारा हालचाल -तुम्हारा यह लम्बा पत्र खो जाने से -काफ़ी दिनों से नहीं मालूम हुआ। तुम्हारा स्वास्थ्य कैसा चल रहा है? कुछ काम-धाम लगा कि नहीं? स्पेनिश तो काफ़ी अच्छी आने लगी होगी। कुछ लिख लेती हो कि नहीं। कुछ कविताएँ भी ज़रूर लिखीं होंगी। तुम्हारे सेसर वाय्येखो के अनुवाद पर एक समीक्षा पैट्रियट में छपी थी जिसकी कटिंग अब भेज रहा हूँ। त्रिनेत्र जोशी1 अजय सिंह और मंगलेश डबराल2 के दोस्त हैं और शमशेरजी से अक्सर मिलते रहते हैं।
सर्वेश्वर का कविता संग्रह मैं तुम्हें नहीं भेज पाया। उसे कम खर्च से भेजने का एक तरीका सामने आया है। यह तरीका भारत भूषण अग्रवाल3 को मालूम है, उनसे मालूम करके शीध्र ही भेजूँगा। वैसे डाक से भेजने पर 25-30 रुपया डाक टिकट लग जाएगा। शायद पुस्तकें आदि भारतीय विदेश मन्त्रालय के द्वारा बाहर भेजी जा सकती है।
इस बीच तुम अपना हालचाल विस्तारपूर्वक लिख कर भेजो। रजिस्ट्री से - सरोज के नाम। मैं तुम्हारा हाल जानने को बहुत व्यग्र हूँ। शीघ्र लिखो।
बहुत बहुत स्नेह और प्यार सहित, मलयज
5-6-70
प्रिय प्रेमा,
तुमको 1 जून को ख़त लिख कर डाला ही था कि दूसरे दिन अख़बारों में पेरू के भयंकर भूकम्प की ख़बर पढ़़ी। अख़बारों मे साफ़़-साफ़ तो नहीं था पर इतना स्पष्ट संकेत ज़रूर था कि लीमा में भी कुछ झटके लगे हैं। फिर भी इतना संतोष था कि भूकम्प लीमा से 250 मील दूर आया है। पर आज लीमा में ज़ोरदार भूकम्प आने की ख़बर से मन बहुत उद्दिग्न हो उठा है। तुम्हारे लिए बड़ी चिन्ता हो गयी है। आज मैं तुम्हें तार देने जा रहा था फिर शमशेरजी के पास चला गया कि कल पेरुवियन एम्बेसी में जाकर तोर्रेस से मिलने पर शायद तुम्हारी खोज ख़बर मिल सके। अतः यह पत्र ही लिख रहा हूँ। भगवान से प्रार्थना है कि तुम स्वस्थ सकुशल सुरक्षित हो। घर भर के सभी लोग परेशान हैं। माँ खुद ही अख़बार पढ़ लेती हैं और रेडियो से भी ख़बर सुनती हैं।
अब तो जब तक तुम्हारा हालचाल कुशल समाचार नहीं मिल जाता तबियत को शान्ति नहीं मिलेगी। तो. शायद पेरू में नहीं हैं, अतः श्रुति सुरक्षित होगी यही एक अच्छी बात है। पर तुम्हारी कुशलता की चिन्ता हम लोगों को अधिक है। उम्मीद है कि यह पत्र पाने के पूर्व ही तुम्हारा कुशल समाचार हमें मिल जाएगा।
भगवान से प्रार्थनाओं और तुम्हारे लिए शुभकामनाओं के साथ, मलयज
1. त्रिनेत्र जोशी - हिन्दी लेखक और अनुवादक
2. मंगलेश डबराल - हिन्दी के कवि।
3. भारतभूषण अग्रवाल - हिन्दी लेखक, अपेक्षाकृत अल्प आयु में देहावसान।
12-7-70
प्रिय प्रेमा,
इस बार राखी में तुम्हारी बड़ी याद आयी। तुम्हारे यहाँ से चले जाने से सच पूछो तो मेरे लिए यह त्योहार ही व्यर्थ हो गया है। निर्मल1 की राखी केवल एक औपचारिकता रह गयी है। शोभा के लिए यह पहले ही अर्थहीन हो चुकी थी। नीलू के लिये यह एक तमाशा ही है। भावना कहीं भी नहीं। इस बार तुम्हें देने के लिये एक किताब बड़ी अच्छी पढ़़ी थी-Life with Picasso जो उसकी एक भूतपूर्व प्रेमिका2 ने लिखा है। तोर्रेस से मिलने पर यदि वे अनुकूल हुए तो उसे खरीद कर भेजूँगा।
राखी के दिन और भी कई बातें याद आती रहीं। जैसे जब मैं डिफेन्स कॉलोनी से तुम्हारे यहाँ से खाना खाकर मॉडल टाउन जाता था तो किंग्सवे कैम्प में उतर कर तुम्हें फ़ोन करता था - सम्राट होटल से, कि मैं कैम्प पहुँच गया हूँ और कभी-कभी मॉडल टाउन से। रात को बसें, खास कर जाड़े में, बड़ी सन्नाटी होती थीं और सर्दी में ठिठुरता हुआ मैं रास्ते भर तुम्हारे ही बारे में सोचता रहता था। तुम्हारा डिफेन्स कॉलोनी का जीवन मुझे हमेशा कोहरे से छाई हुई एक फीकी सुबह-सा लगता। ठहरा हुआ, पर प्रतिपल किसी ट्रेजेडी की आशंका से कम्पित जीवन। चलो यह अच्छा हुआ कि तुम्हें उस घुटन और ठहराव से मुक्ति मिली, हालाँकि बड़ी कीमत चुका कर। तुम्हारे बारे में जो चीज़ मुझे सदा प्रेरणा देती रही है वह यह कि ज़िन्दगी का रस खट्टा-मीठा पीते हुए भी तुमने ज़िन्दगी को जोंक की तरह पकड़े नहीं रखा-हमेशा अपने को मुक्त रखा। जो लोग ज़िन्दगी से जोंक की तरह चिपक जाते हैं वे एक बासी ढर्रे के ग़ुलाम होकर रह जाते हैं। तुमने इस माने में ज़िन्दगी को इतनी गम्भीरता से नहीं लिया कि सुख या दुःख की कैदी बन कर रह जातीं। तुमने सुख और दुःख को समान रूप से प्यार किया और वक़्त पड़ने पर दुत्कार भी दिया। ज़िन्दगी के साथ यह लचीला सम्बन्ध ही दरअसल व्यक्ति को नये-नये अनुभवों और संघर्षों के लिए ताज़ा रखता है। इधर तुम्हारे कुछ पत्रों में व्यक्त भावनाओं को पढ़़कर भी मेरी धारणा पुष्ट हुई है। निराशा और हताशा तुम्हें तोड़ नहीं सकतीं। तुम नृत्य में आनन्द ले सकती हो, दूसरे की बेवकूफ़ियों की आलोचना कर सकती हो और मौत के डर को बिना किसी फिलॉसफ़ी को नकार सकती हो-यह सब तुम्हारी उसी आन्तरिक शक्ति के परिचायक हैं जो परिस्थितियों के भीषण दबावों में झुक कर भी सिर उठा सकती है।
1. निर्मल - मलयज की बहन जो हिन्दी आलोचक और उपन्यासकार को ब्याही हैं।
2. फ्राँसुआ जिलो
14-7-70
भूकम्प पीडितों की राहत में आयोजित सांस्कृतिक कार्यक्रम का तुम्हारा वर्णन पढ़़कर मेरी धारणा और भी पुष्ट हो गयी कि तुम कठिन जीवन संघर्ष के बीच भी खुशी के कण बटोर सकती हो। तुम्हें अगर ऐसा महसूस होता हो कि भारत से पेरू आने का निश्चय कर तुमने अपनी बँधी हुई ज़िन्दगी को कोई नया मोड़ दिया है तो यह अहसास तुम्हें अपने नये जीवन के लिए प्रेरणा ही देगा।
एक सीमा के बाद लगता है कि हम किन्ही अदृश्य घेरेबन्दियों में घिरते जा रहे हैं और समय रहते उसे नहीं तोड़ा गया तो बहुत देर हो चुकी होगी। तुमने उस क्षण को पहचाना और अपने जीवन की दिशा को मोड़ने का फैसला किया, यह साहस की बात है। इस फैसले में तुमने लोकापवादों को ज़रा भी स्थान नहीं दिया, यह और भी साहस की बात है।
मेरी मंगल कामनाएँ सदा तुम्हारे साथ रहेंगी।
इन सब उद्विग्नकारी ख़बरों के साथ एक अच्छी ख़बर ये भी सुन लो-सरोज के पाँव भारी हो गये हैं, दो महीने का है। सरोज को कमला नगर की एक लेडी डॉक्टर की देखरेख में रख रहा हूँ। शुरू से ही सावधानी बरत रहा हूँ। सरोज के शरीर में खून की कमी है, अतः उसके लिए विशेष चिन्ता करनी पड़ती है। घर में किसी की देख रेख और सलाह के न रहने से यह सब काम भी मुझ जैसे नितान्त अव्यवहारिक आदमी को ही करना पड़ता है। माँ की हालत ऐसी नहीं है कि सरोज अपनी समस्या को उनके सामने रख सके। अतः डॉक्टर का ही बार-बार सहारा लेना पडता है जो काफ़ी खर्चीला है। सरोज को हार्मोन के इन्जेक्शन भी हर हफ़्ते लग रहे हैं। आराम करने को बताया है। ...रिश्तेदारों में कोई अपना नहीं । निर्मल भी यहाँ आराम करने ही आयीं थीं, नीलू दूर है, शोभा से कोई मतलब नहीं। तुम्हें शायद आश्चर्य होगा कि शमशेर जी को यहाँ आये नौ महीने हो गये हैं। दिल्ली शहर में परिवार के नाम पर हम सिर्फ़ पाँच आदमियों का परिवार है (मैं, सरोज, मुन्ना, बाबूजी, माँ) सरोज कभी-कभी इस हालत से नर्वस हो जाती है। खैर तुम्हारी मंगल कामनाएँ, सरोज के लिये तुम्हारा आशीर्वाद बहुत बड़ी शक्ति है। सब कुछ अच्छा ही होगा। इन छोटी मोटी परेशानियों के बीच ही तो जीवन चक्र चलता है। तुम्हारी स्थिति में तुम्हारे साहस और संघर्ष से प्रेरणा मिलती है।
अच्छा प्रेमा, अब बस करता हूँ। तुम अपना हालचाल विस्तार के साथ शीघ्र लिख भेजना।
(नोटः इस पत्र के बाद के कुछ हिस्से खो गये हैं, इसलिए टाइप नहीं हो सका।)
25-8-70
प्रिय प्रेमा,
पिछले दिनों तुम्हारे दो पत्र मिले। माँ बाबूजी तुम्हारा पत्र पाकर बहुत सन्तुष्ट हुए। बाबूजी ने तुम्हें एक पत्र भी भेजा है जो तुम्हें इस पत्र के मिलने के पहले मिल चुका होगा। तुम्हारी बीमारी की ख़बर मैंने माँ बाबूजी को नहीं बतायी, पर मैं उससे काफ़ी चिन्तित हो गया हूँ। तुम्हें इन दिनों इतना श्रम करना पड़ रहा है और खाने-पीने की व्यवस्था भी ठीक नहीं है, इससे बीमारी को मौका मिल गया। पर तुमने इलाज में ढिलाई नहीं की, यह सन्तोष की बात है। आशा है तुम अब पूरी तरह ठीक होगी। अब से कम से कम खाने पीने के मामले में कोताही मत करना। शरीर को मज़बूत रहना ही चाहिए। न हो मल्टी विटामिन की कोई टिकिया लेना शुरू कर दो। इससे काफ़ी फ़ायदा होगा, काफ़ी हद तक मालन्यूट्रिशन की समस्या इससे हल हो जाती है-यह मेरा अनुभव किया हुआ है।
तुम्हारा मैरिज सर्टिफ़िकेट कुछ दिन पहले ही मिल गया था, लेकिन एकाएक तबियत ख़राब हो जाने से न भेज सका। फिर भी सोचा कि बर्थ सर्टिफ़िकेट मिल जाने पर उसके साथ ही भेज दूँगा। बर्थ सर्टिफ़िकेट प्राप्त करने का काम शमशेरजी के हाथ में है चूँकि वे डिफेंस कॉलोनी के नज़दीक रहते हैं। एक बार बर्थ सर्टिफ़िकेट मिल भी गया था, पर भूल से उसमें श्रुति की जन्मतिथि ग़लत लिख गयी थी। उसे डॉक्टर कोहिली के पास भेज दिया ताकि वे सही तिथि वाला एक दूसरा सर्टिफ़िकेट डाक से शमशेरजी के पते पर लाजपत नगर भेज दें। साथ में टिकट लगा लिफ़ाफ़ा भी रख दिया था। इसको क़रीब तीन हफ़्ते हो गये। तबियत ख़राब होने की वजह से मैं शमशेरजी के पास जा न सका था कि सर्टिफ़िकेट आया या नहीं। तीन चार दिन हुए शमशेरजी के पास गया था कि या तो वे डिफेंस कॉलोनी क्लिनिक में जाकर कोहिली से मिलें या उनको रिमाइण्डर भेजें । चूँकि शमशेरजी शुरू से ही इस मामले से सम्बद्ध रहे, इसलिए इस काम को अन्तिम सफलता तक वही पहुँचाएँ, यही उचित लगता है। आज शाम को मैं फिर शमशेरजी से मिलूँगा। सर्टिफ़िकेट देर सबेर तो मिल ही जाएगा।
मैरिज सर्टिफ़िकेट की कई कॉपियाँ मैंने करा लीं हैं, उन पर शर्मा जी के दस्तखत करा लिया हैं। कुछ फ़ोटो भी हैं शादी के समय की। उनके पीछे भी शर्मा जी से हस्ताक्षर करवा लिये हैं। इन सबकी एक एक कॉपी मैंने अपने पास रख ली है। बाकी तुमको भेज रहा हूँ।
असल में सर्टिफ़िकेट के झंझटों में फँसा रहने के कारण ही मैं तुम्हारे दूसरे काम न कर सका। जैसे कि रिकार्ड भेजना और तोर्रेस से मिलना। अब मैं एक दो दिन में नेमिजी से मिलूँगा। अच्छा, उन्होंने यह पूछा था कि किस स्पीड पर गाने रिकार्ड करने हैं। यह बात इस पर निर्भर है कि तुम जिस टेपरिकार्डर से गाने सुनना चाहती हो ( या बजाना चाहती हो) वह किस स्पीड पर वर्क करता है। शायद तुम्हारे पास कोई टेपरिकार्डर होगा जिसकी मदद से तुम मेरे द्वारा भेजे गये टेप को प्ले करोगी-तो उसकी स्पीड क्या है? अच्छा, इस टेप के अलावा तुमने डिस्क रेकार्ड (जैसे कि तुम यहाँ से ले गयीं थीं) भेजने को कहा था- बेग़म अख़्तर की गजल आदि के। तो एक काम करो तुम, जितने डिस्क रिकार्ड तुम्हारे पास हैं उनके नम्बर लिख कर भेज दो। इससे दुबारा उन्हीं रिकार्डों को खरीदने में भूल नहीं हो पाएगी। क्योंकि मुझे यह याद नहीं है कि तुम्हारे पास कौन से रिकार्ड हैं। इसके अलावा यहाँ एक फ़िल्म ‘आराधना’ का लांग प्ले रेकार्ड मैं तुम्हारे पास भेजना चाहता था। यह नृत्य के कार्यक्रमों के तो काम शायद न आये। पर मनोरंजन के लिए अच्छा रिकार्ड है। सचिन देव की म्यूजिक है और यहाँ ये गाने काफ़ी लोकप्रिय भी हुए हैं-सुरूचिपूर्ण संगीत है जैसा कि बर्मन की विशेषता है। ये रिकार्ड मैं सीधे तोर्रेस को ही ले जाकर दे दूँगा। आशा है उनके पास इन्हें तुम्हारे पास भेजने की व्यवस्था होगी।
नेमि जी के यहाँ ही कत्थक पर किताब का भी पता चल जायेगा। किताब अँग्रेज़ी या हिन्दी जिसमें भी मिल सकेगी लेकर भेजूँगा। यह भी तोर्रेस के द्वारा ।
तुम्हारे मैरिज सर्टिफ़िकेट के लिए मैं शर्मा जी से मिलने दिनमान के दफ़़्तर में गया था। वहाँ रघुवीर सहाय तुम्हारी याद कर रहे थे, खासकर तुम्हारे आतिथ्य की। बात ही बात में उन्होंने बताया कि तो. का एक पत्र उनके पास भी ब्यूनोस आइरेस से आया था। उसका मतलब है तो. ने सबको टटोलने की कोशिश की और चाहा कि सबके मन में उनके प्रति सद्भावना बनी रहे । पर इसमें मेरा दृढ़ विचार है कि वे सफल नहीं हुए हैं। गुपचुप सारी बात लोगों को मालूम हो चुकी है। माचवे तो बहुत कटु हैं तो. के प्रति। मैरिज सर्टिफ़िकेट पर रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर आदि का हस्ताक्षर करवाना मैंने उचित नहीं समझा। क्योंकि सर्टिफ़िकेट श्यामलाल शर्मा दे रहे हैं। सहाय आदि नहीं। मेरा ख़्याल है कि कानूनी तौर पर शर्मा जी का प्रमाणपत्र ही काफ़ी है।
शमशेरजी से मैंने तो. को पत्र लिखने की बाबत बात की थी। वे तैयार हैं...
(अधूरा पत्र)
19-12-70.
प्रिय प्रेमा,
तुम्हारा लम्बा लिफ़ाफ़ा मिला। पढ़़कर न पूछो कितनी खुशी हुई-सच, इतना बड़़ा-सा दिल हो गया कि बाहर आने-आने को होने लगा। काश कि तुम ऐसे ही पत्र रोज़-रोज़ लिखो। पहले तो यह महसूस कर खुशी हुई कि -कैसे कहूँ, समझ लो कि ऐसा लगा जैसे तुम्हारे दिल पर बोझ इस समय नहीं है, जैसे तुम रंगीन हवा में तिरती हुई चिट्ठी लिख रही हो...शायद तुम्हारा उस दिन ऐसा मूड था भी। सो उसकी छूत मुझे भी लगी और दो- तीन दिन वैसा ही रंगीन हल्कापन महसूस करता रहा, दूसरे यह देख कर खुशी हुई कि तुम्हारी अभिव्यक्ति बहुत सधी और प्रवाहपूर्ण हो गयी है अपने पूरे साहित्यिक स्वाद के साथ। उसके कुछ टुकड़े तो वाकई पत्र-शैली के अत्यन्त सुन्दर नमूने ही बन गये हैं अनजाने में। खासकर वियत्रिस वाला प्रसंग तो अपने आप में एक रोचक स्केच है।उस चरित्र विशेष का खाका तुमने भीतर-बाहर से बड़े रंगारंग रूप में रखा है और उसे पढ़़ने के बाद ऐसा लगता है जैसे वियत्रिस मेरी भी उतनी ही परिचित है जितनी कि तुम्हारी। मेरा ख्याल है उस जैसे तुम्हें और भी रोचक व्यक्तित्व मिले होंगे वहाँ। कुछ की झलकियाँ तो तुम दे चुकी हो अपने पूर्व-पत्रों में, पर बियत्रिस जैसा सर्वागंणीय कोई नहीं है। ...भई, अपना दूसरा वह लम्बा पत्र जल्दी भेजो अगर अब तक न भेजा हो ।
तुम्हें एक अच्छी ख़बर यह देना चाहता था की मैंने मैरिज सर्टिफ़िकेट के बारे में आखिर सर्वेश्वर जी से बात की। वे इसमे मदद देने को सहज तैयार मिले-सोचो ज़रा, मैं कितने संकोच में पहले पड़ा था। उन्होंने आश्वस्त किया कि वे किसी परिचित मित्रवत, डिपुटी कमिश्नर से श्यामलाल शर्मा का प्रमाणपत्र प्रमाणित करवा देंगे। श्यामलाल जी भी भलेमानस हैं, हर सम्भव सहायता के लिए- मसलन, मैजिस्ट्रेट आदि के पास जाने के लिए तैयार हैं, जब भी आवश्यकता पड़े। सो तुम्हारे काम हो जाने की मुझे काफ़ी आशा हो गयी है, सन्तोष तब मानूँ जब काम पूरा हो जाय। अभी मैं और सर्वेश्वर जी एक काम में संग्राम रूप से मशगूल हैं, उसके ख़तम होते ही, जो जल्द हो जाएगा, मैं सर्वेश्वर को कहूँगा।
तो वह काम जानती हो क्या है? हमने शमशेरजी की षष्टिपूर्ति मनाने का एक कार्यक्रम बनाया है। एक पुस्तक राधाकृष्ण प्रकाशन की ओर से प्रकाशित की जा रही है 3 जनवरी को- जिसका सारा सम्पादन कार्य मैं और सर्वेश्वर कर रहे हैं। पुस्तक में शमशेरजी पर लिखे समीक्षात्मक लेख, उनकी कुछ चुनी हुई कविताएँ तथा उनकी डायरी के कुछ अंश रहेंगे। शमशेरजी के ही बनाये कुछ स्केच ओर उनका एक बहुत कलात्मक फ़ोटो। पुस्तक कोई एक सौ साठ पृष्ट की होगी। उसकी छपाई शुरू हो गयी है। 3 को तैयार हो जाएगी। उसी दिन मार्डन स्कूल में एक अनौपचारिक किस्म का समारोह होगा। शमशेरजी की कविताओं का ओम शिवपुरी तथा अन्य रंगकर्मी पाठ करेंगे, शमशेरजी से खुद काव्य पाठ का आग्रह किया जाएगा। और स्नेह-मिलन लेखकों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों का कॉफी, नमकीन और मिठाईयों से स्वागत। बस। न कोई सभापति, न लेक्चर- संस्मरण, न कोई औपचारिकता। पुस्तक भी उसी समय शमशेरजी को भेंट कर दी जाएगी। शमशेरजी का सम्मान करने का यह छोटा-सा आयोजन होगा। पर शायद बड़े-बड़े भारी भरकम समारोहों से अधिक सार्थक और महत्वपूर्ण।
दिनमान के 3 जनवरी के अंक में मुखपृष्ठ पर शमशेरजी का चित्र छापेगा। अन्दर विशिष्ट सामग्री रहेगी, जिसे मैं तैयार कर रहा हूँ। आजकल दम मारने की फुरसत नहीं। दफ़़्तर-दिनमान कार्यालय-युनिवर्सिटी, कभी-कभी लाजपत नगर।
इसी बीच एक और काम होने जा रहा है, वह है मेरी कविताओं के एक संचयन का प्रकाशन। प्रकाशन मैं खुद ही कर रहा हूँ अन्ततः। इलाहाबाद से, क्योंकि वहाँ खर्च कम पड़ेगा वह भी जनवरी के पहले हफ़़्ते या दूसरे हफ़़्ते तक प्रकाशित हो जाएगी। उसके लिए कवर डिजायन का काम मैंने विजय सोनी को सौंपा है जो कि पिछले हफ़़्ते पोलैण्ड से दाढी-मूँछ बढ़ाकर एक रोगी हिप्पी की शक्ल में भारत वापस आये हैं।
गर्मी में तुम्हारे गद्य में से चुनाव कर एक किताब बनाने का विचार है -शमशेरजी और मेरी एक योजना के तहत।
शमशेरजी पर एक विशेषांक भी मुझे निकालना है। कई लोगों से बात हो चुकी है। इसी सिलसिले में मैंने तुमसे लिखने का प्रस्ताव रखा था। अगर बहुत मुश्किल हो तो रहने दो। मैं नहीं चाहता कि तुम अपने ऊपर कोई अतिरिक्त तनाव भरा इमोशनल दबाव डालो। सेहत तुम्हारी वैसे भी बहुत आदर्श नहीं है। पर तुम अपने पेरू के अनुभव- राजनैतिक गतिविधियाँ, सांस्कृतिक हरकतों और सबसे बढ़कर वहाँ के औसत जीवन के क्रियाकलापों को बराबर भेजती रहो।
और हाँ, यदि फुर्सत मिले कभी तो अपनी कविताएँ भी भेजना। पढ़़ने की बहुत इच्छा है।
और अपनी कोई बड़ी-सी फ़ोटो भेजो न, ताकि उसे अपनी मेज़ पर रख सकूँ।
घर के समाचार ठीक हैं। माँ भगवान चक में हैं, मज़े में हैं। बाबूजी उन्हें लिवाने के लिए कल इलाहाबाद चले गये। मुन्ना पढ़़ने में मस्त है, सरोज यथावत।
तुमने शोभा-अजय सिंह के बारे में जो लिखा उसके बारे में अपनी प्रतिक्रिया फिर कभी लिखूँगा। पर तुम्हारी राय पढ़़कर मन को एक प्रकार का थिराव मिला। अब मैं सचमुच कोशिश करूँगा कि उन लोगों की तरफ से परेशान न होऊँ।
शमशेरजी आजकल यहीं हैं। तुम्हारे पत्र का रोचक अंश उनको सुना दिया था। पत्र-शैली से वे भी मुग्ध हुए। इधर उनका स्वास्थ्य बेहतर है।
अग्नेष्का इलाहाबाद में हमारे साथ थीं, पर चार दिन में लौट आयीं थीं। इलाहाबाद का इस बार का मेरा प्रवास ज़्यादातर भागदौड़ का ही रहा। शमशेरजी के मकान से उनके कुछ क़ाग़जात लाया हूँ---लेखकों द्वारा लिखी गयी चिट्ठियाँ, कुछ बड़ी मज़ेदार हैं और महत्वपूर्ण भी। आराम बिल्कुल नहीं कर पाया। तीन दिन के लिए कोपागँज भी गया था। वहाँ आराम था पर बोरियत भी।
स्वास्थ्य मेरा पता नहीं कैसा है, कामों के सिलसिले में-और चूँकि सभी काम मन माफ़िक हैं -वह थकान और सुस्ती दूर हो गयी। खुद पर आश्चर्य होता है कभी-कभी। तुम चिन्ता न करना।
नया साल शुरू हो रहा है। हर साल की तरह अपने हाथ से बनाकर समय पर तुम्हें कुछ न भेज पाऊँगा। अतः अभी से मेरी शुभकामनाएँ लो-खूब खुश रहो, सफलता पाओ, स्वस्थ्य रहो।
मुन्ना तुम्हें अक्सर याद करता है। तुम्हारे पत्र ने उसे मोह लिया है। जब भी तुम्हारा लिफ़ाफ़ा आता है पूछता है दीदी ने मेरे लिए भी कुछ भेजा है?
तुमने नया वर्ष कैसे गुज़ारा-यानि नये वर्ष का दिन-खासकर बियत्रिस के सानिद्ध में, सविस्तार लिखना।
बहुत बहुत स्नेह के साथ, मलयज
12 जुलाई, 71
प्रिय प्रेमा,
तुम्हारी 1 जुलाई वाली चिट्ठी मिली। इसमें तुमने मेरे पत्र पाने का उल्लेख नहीं किया है, इससे लगता है कि तुम्हें नहीं मिले। एक पत्र तो मैंने जब तुम लीमा से चल रहीं थीं तभी मरसेनारो रिकार्दो के पते पर भेजा था। दूसरा तुम्हारे अर्जेन्टीना के पते पर-मार्ता मायोरानो वाले पते पर। लगता है दोनों में कोई तुम्हें नहीं मिला, जो कि आश्चर्य की बात है। लीमा वाला ख़त तुम्हें उसलिए नहीं मिला होगा क्योंकि तुम तब तक चिले होते हुए अर्जेन्टीना के लिए चल चुकी थी। पर उन लोगों को तुमने अपना नया पता दिया होगा तो उन लोगों ने वह ख़त तुम्हें रिडाइरेक्ट क्यों नहीं किया? तुम उन लोगों को लिखकर मेरे ख़त के बाबत मालूम करो- वह रजिस्ट्री से भेजा गया था।
लीमा और अर्जेन्टीना वाले दोनों ही पत्रों में यहाँ के जिलाधीश के नाम से तुम्हारी ओर से लिखे गये एक प्रार्थनापत्र का मसौदा भेजा था-तुम्हारा मैरिज सर्टिफ़िकेट प्राप्त करने के लिए। साथ में विस्तार से सारी बातें भी कि कैसे क्या करना होगा। इस पत्र के साथ उस प्रार्थनापत्र की एक कॉपी और भेज रहा हूँ। शायद अर्जेन्टीना वाला पत्र भी तुम्हें न मिला हो । अतः सारी बातें तिबारा लिख रहा हूँ।
सर्वेश्वर जी से बात हुई थी। वे मैरिज सर्टिफ़िकेट दिलवा देंगें। तुम्हारी ओर से जिलाधीश के नाम एक प्रार्थनापत्र आना चाहिए। तुम जो मसौदा मैं भेज रहा हूँ उसे टाइप करवा के दो कापियों पर अपने हस्ताक्षर कर (प्रेमलता तोला) मेरे पास भेज दो। पर उसे पहला देख लो कि जो मसौदा मैंने बनाया है वह तुम्हारी ज़रूरत के मुताबिक है कि नहीं। मैं चाहता हूँ कि यह काम एक बार में ही हो जाए और दुबारा उसमें कष्ट न करना पड़े। इसमें शायद तुम्हे कुछ कानूनी सलाह मशवरे की ज़रूरत पड़े, तो तुम वहाँ के किसी वकील से पूछ कर ले सकती हो। वह अगर कोई परिवर्तन मसौदे मे बताये तो कर लेना। प्रार्थनापत्र के ऊपर अपना अर्जेन्टीना का पता भी दे देना जिससे यहाँ के अधिकारी मैरिज सर्टिफ़िकेट सीधे तुम्हारे पास डाक से भेजना चाहें तो भेज दें।
सर्वेश्वर एक महीने से छुट्टी पर हैं। 15 जुलाई को ज्वाइन करेंगे। मेरी उनसे काफ़ी बातचीत हुई है। काम हो जाएगा, तुम आश्वस्त रहो और निराशा को अपने मन से निकाल दो। तुम्हें निराश और उदास देखकर मेरा मन डूबने लगता है। तुम यह सोचना भी छोड़ दो कि तुम्हे मनोचिकित्सक की ज़रूरत है। यह बीमारी पश्चिमी देशों के लोगों को ही है। न्यूरोसिस तुम्हे नहीं है। तुम्हारा मन रुग्ण नहीं है। परिस्थतियोंवश निराशा उत्पन्न होती है वह तुम्हारे स्वभाव का स्थायी गुण नहीं है। तुम उस घोर अनास्था का शिकार नहीं हो- उस परम्पराहीनता की जिसके पश्चिमी देशों के युवक, युवती शिकार हैं। इसलिए तुम अपने दिल से यह विचार कतई निकाल दो कि तुम्हें किसी मनोचिकित्सक की ज़रूरत है। तुम खुद प्रबुद्ध हो और अपनी परेशानियों-उलझनों के कारणों को समझ सकती हो और यथाशक्ति उन्हें दूर कर सकती हो।
डा0 सरदेसाई के यहाँ से अब तुम कहाँ हो, लिखना और यह मार्ता मायोरानो कौन हैं जिनके पते पर यह पत्र तुम्हें भेज रहा हूँ। सरदेसाई साहब भारत में क्या करते हैं, या करेंगे और उनका निवास स्थान कहाँ है- दिल्ली ही में न? अभी तक वे हमारे यहाँ नहीं आये। इन्तज़ार है। तो. के सम्बन्ध में कानूनी कार्यवाई करने की वे तुम्हें क्या सलाह देते हैं-कभी बातचीत की?
शोभा के पुत्री होने का समाचार मैं तुम्हें अपने अर्जेन्टीना वाले पत्र में दे चुका हूँ। जून के तीसरे हफ़़्ते में शोभा के एक पुत्री हुई है। अब दोनों घर (लाजपत नगर) आ गये हैं। सकुशल स्वस्थ्य हैं। सरोज, मुन्ना, बाबूजी माँ और मैं -सब वहाँ गये थे। सरोज तो बाद में 3 दिन तक वहाँ रही थी। बच्ची के लिए कपड़े सिल दिये। कल शोभा के लिए साड़ी खरीदी है। सरोज का तो मन होता है कि शोभा की मदद करे, उसका काम सम्भाल लें पर उसके जाने से बाबूजी को विशेष कष्ट हो जाता है खाने-पीने का।
लाजपत नगर वाले घर में काफ़ी भीडभाड़ रहती है। शमशेरजी के वहाँ रहने से कोई न कोई आता ही रहता है, कभी-कभी दो चार दिन रह भी जाता है। अजय सिंह की मित्र मण्डली भी कम नहीं। घर की व्यवस्था पूरे तौर पर लस्टमपस्टम है। शोभा कभी -कभी चिढ़ती है। पर कुल मिलाकर उसने भी इस माहौल को स्वीकार कर लिया है। घर का खर्च शमशेरजी और अजय सिंह की लेखकीय आमदनी से चलता है। आर्थिक स्थति भी लस्टमपस्चम ही है। हम लोग भी कोई मदद नहीं कर पाते। बाबूजी का काम अभी नहीं बना।
तुमको आश्चर्य होगा कि माँ अब किताब पढ़़ने की बड़ी शौकीन हो गयी हैं। दिन भर उपन्यास चाटा करती हैं, शब्दशः चाटा करती हैं। उनका हर समय सोना, लेटे रहना बहुत कम हो गया है। पढ़़ने की स्पीड भी काफ़ी तेज़ है-बाबूजी से भी ज़्यादा। मैं अपने दफ़़्तर की लाइब्रेरी से पहले सरोज और बाबूजी के लिए उपन्यास लाया करता था, अब से माँ के लिये भी लाना पड़ेगा। अभी तो बाबूजी के पास रखे गुलशन नन्दा वे पढ़़ रहीं हैं। है न मजेदार बात! मेरे अर्जेन्टीना वाले पत्र में एक छोटा-सा पत्र माँ का भी था जो उन्होंने तुम्हें लिखा था। उन्हें चिट्ठी लिखो तो वे खुश होंगीं। माँ को लेकर तुम उदास न हो।
अपने अगले पत्र में मैं तुम्हें मुन्ना की एक फ़ोटो भेजूँगा, देखना कि तुम्हारा मुन्ना कितना बड़ा हाे गया है। पतला-दुबला तो वैसे ही है, पर लम्बा क़रीब-क़रीब मेरे बराबर हो गया है। छुट्टियों में कुछ दिन के लिये इलाहाबाद गया था। अब 15 को उसका स्कूल खुल रहा है। इस साल वह 10वें में गया है। तुम्हारा पत्र आने पर उसे भी उत्सुकता रहती है कि उसके नाम भी कोई चिट्ठी होगी और लिफ़ाफ़े पर टिकटों की भी उसे तलाश रहती है। तुमने अर्जेन्टीना पहुँचकर अपनी कविताएँ भेजने को कहा था। उनका इन्तज़ार है। अभी तो तुम्हारी सारी कोशिश नौकरी पाने की है पर काम लग जाने पर कुछ लिखने- पढ़़ने का सिलसिला कायम करना।
श्रुति का हाल लिखना। क्या उसकी कोई फ़ोटो भेजना तुम्हारे लिए सम्भव होगा?
शेष सब ठीक है।
पत्र शीघ्र देना। विशेषकर यह कि मेरे दोनों पत्र तुम्हें मिले कि नहीं।
16 जुलाई को तुम्हारे जन्मदिन की याद आ रही है। तुम खूब स्वस्थ्य रहो, खूब शक्तिशाली और खुश। यही प्रार्थना है और यही कामना-आशीर्वाद है।
सस्नेह, मलयज
पुनश्चः 17-7-71
प्रेमा, पत्र लिखकर इसे पोस्ट नहीं कर पाया। इधर क़रीब एक हफ़़्ते से सर्दी-खाँसी में पड़ा रहा अब ठीक हूँ और आज ही दफ़़्तर जा रहा हूँ। इस बीच डा0 सरदेसाई का इन्तज़ार था । तुमने लिखा था कि वे भारत आने पर मुझसे मिलेंगे। क्या वे अभी वहीं हैं?
शेष समाचार ठीक है।
सस्नेह, तुम्हारा, मलयज
1-9-71
प्रिय प्रेमा,
तुम्हारी दोनों चिट्ठियाँ मिलीं। मैं तीनों ही प्रमाणपत्र प्राप्त करने की कोशिश करूँगा। मैंने अपने पिछले पत्र में ( मार्ता के पते पर भेजे गये) तुमसे एक और प्रार्थना पत्र टाइप करवाकर भेजने को लिखा था, जिस पर तुम्हारा पता और दिनांक लिखे हों। लगता है तुम भूल गयी हो। पर मैंने पुरानावाला प्रार्थनापत्र ही सर्वेश्वर जी को दे दिया है। उन्होंने कहा कि इसी से काम चलाने की कोशिश करेंगे। फिर भी एहतियातन तुम एक और प्रार्थनापत्र अपना वर्तमान पता और तारीख़ डालकर भेज दो। मैंने सर्वेश्वरजी को तुम्हारा अर्जेन्टीना के घरवाला पता दे दिया है, कार्लोस लेन्तनर वाला नहीं। ताकि उन लोगोंके दिमाग़ में कोई शक न पैदा हो।
तुम्हारे बर्थ सर्टिफ़िकेट के लिए 6 सितम्बर को बाबूजी खुद इलाहाबाद जा रहे हैं। और जैसा तुम चाहती हो उसी प्रकार का सर्टिफ़िकेट वे प्राप्त कर लेंगे चाहे नगरपालिकाओं का कुछ ‘सत्कार’ ही क्यों न करना पड़े।
श्रुति की बर्थ सर्टिफ़िकेट के लिए यहाँ की नयी दिल्ली नगरपालिका में प्रयत्न करूँगा। मैं वैसे समझता था कि तुम्हें जो सर्टिफ़िकेट लीमा में डॉक्टर हैबिच से मिला था, जिसका तुमने पत्र में ज़िक्र भी किया था, उससे काम चल जाएगा। क्या वह काम का नहीं है? आख़िर वह तो पेरू एम्बेसी के ही एक आदमी का सर्टिफ़िकेट है। मैं यह सब इसलिए पूछ रहा हूँ क्योंकि यहाँ की म्यूनिसिपैलिटी की दफ़़्तरशाही से मैं थोड़ा घबराता हूँ-यह इलाहाबाद से भिन्न है जहाँ जान-पहचान के कुछ व्यक्ति निकल ही आते हैं और उनमें थोड़ी ‘मानवीयता’ भी है। फिर भी पूरी कोशिश करूँगा।
इन सब बातों के बारे में शीघ्र ही तुम्हें पत्र भेजूँगा।
अगर इन तमाम प्रमाणपत्रों पर पेरू और अर्जेन्टीना एम्बेसी की मुहर लगवानी ज़रूरी हो तो तुम तोर्रेस साहब को एक पत्र पहले भेज देना कि मैं(मलयज) शीघ्र ही उनसे मिलूँगा इस सम्बन्ध में और वे मेरी पूरी मदद करें।
दो-तीन दिन हुए शमशेरजी से मेरी भेंट हुई थी। मैंने तो. को लिखे तुम्हारे पत्र और तो. के तुमको लिखे पत्र उनसे माँगे, जो उन्होंने दे देने को कहा है। पर क्या इन पत्रों का कोई उपयोग हो सकेगा? क्या मैं इन पत्रों का मूल भेजूँ या उसकी प्रतिलिपि बनाकर?
तुमने वकील से मिलने की बात लिखी थी। तुम्हारी क्या बातें हुईं? उन्होंने क्या आश्वासन दिया? जो लोग तुम्हारी सहायता कर रहे हैं, वह किस प्रकार की सहायता देंगे? तुम्हारे लिए अपने दिमाग़ में यह सब अच्छी तरह जान लेना बहुत ज़रूरी है क्योंकि मुकदमा लम्बा खिंच सकता है, उसमें पैसा लगता है और सहायता करनेवाला दोस्त केवल भावुकता के स्तर पर ही दोस्त न हो। लेन्तनर साहब तुम्हारी सहायता एक मानवीय सौहार्दपूर्ण व्यवहार के अलावा किस रूप में करेंगे? तुम्हारा केस मजबूत है, पर तो. के पक्ष में एक बात यह है कि उनके तालुकात या प्रभाव वहाँ काफ़ी होंगे।
मैं तुम्हें हतोत्साह नहीं कर रहा हूँ। सिर्फ़ यह सब कह रहा हूँ कि तुम अपने दोस्तों सहायकों को व्यवहारिक स्तर पर परख कर ही कोई कदम उठाओ। तुम्हारे इतने सारे मित्रों से दक्षिण अमरीकी के चरित्र के बारे में थोड़ा बहुत अहसास मुझे हुआ है, और वह यह है कि दिल का अच्छा होते हुए भी वह कुछ ढुलमुल किस्म का प्राणी है- कभी अच्छा, कभी बुरा, अनस्थिर, वचन देने में शेर, पर काम करने में पीछे। हद दर्ज़े के इमोशनल इसी प्रकार के होते हैं अगर इमोशन के साथ बुद्धि-विवेक का आधार न हो।
पर अपने भावात्मक स्वभाव के बावजूद ओर जल्दीबाजी के बावजूद मैं महसूस करता हूँ कि तुम दक्षिण अमरीकी लोगों को अपने अनुभव से ज़्यादा गहरायी से जान गयी होगी और कम से कम दो-चार सच्चे मित्रों की परख तो तुम्हें हो ही गयी होगी। असल में प्रेमा, मुझे लगता है लोगों पर विश्वास करने का और धोखा खाने का संस्कार हम लोगों का पुश्तैनी गुण रहा है। बाबूजी ने कितने लोगों का विश्वास किया और धोखा खाया। मुझे भी धोखे कम नहीं मिले। तुम्हारा भी वही हाल है। इसी से जब कोई सच्चा मित्र बनने का विश्वास जगाता है तो एक बार, चाहे एक क्षण को ही क्यों न हो, मन काँप जाता है। इस धोखा खाते जाने के अनुभव ने ही मुझे कुछ शक्की बना दिया है। अपने लोगों से ही कितना धोखा मिला। पर दूसरों पर विश्वास करना भी एक मानवीय कमज़ोरी है, जो बड़ी प्यारी कमज़ोरी है, और जिससे कोई नहीं छूट सकता।
बाबूजी फ़िल्म का जो काम करने जा रहे थे, उसमें अन्ततः सफलता मिलनी शुरू हो गयी है। बाबूजी ने एक फ़िल्म वितरण के लिए ली थी, वह 2 सितम्बर से यू.पी के कई सिनेमाओं में लग रही है। बाबूजी आजकल खुश हैं, उन्हें भरोसा हो गया है कि हम लोगों के दिन फिरेंगें। तुम्हारी ग्रेटर कैलाश वाली ज़मीन पर कर्ज़ा लिया गया था, उसे चुकता कर के ज़मीन वापस ले लेंगे। ज़मीन के दाम इधर कुछ घट गये हैं, अतः बेचने से कुछ खास लाभ नहीं होगा। दूसरे अगर फ़िल्म से खूब रुपया मिल गया तो उसे बेचने की ज़रूरत भी नहीं पड़ेगी। बाबूजी ने इधर बहुत दौड़-धूप की। पर उसका परिणाम अब अच्छा निकलनेवाला है । इससे तुम्हारी चिन्ता भी दूर होगी।
एक खुशी की ख़बर हैः इस वर्ष के अन्त तक तुम बुआ बननेवाली हो।
बोर्खेस के बारे में मैं तुमको लिखनेवाला था, यह अच्छा हुआ कि तुम उसकी कविता का अनुवाद करके भेज रही हो। उस कविता को दिनमान में दे दूँगा। तुम्हारी कविता भी वहाँ छप सकती है। तुम्हें अब सचमुच लिखना चाहिए। तुम वहाँ के प्रसिद्ध कवियों से मिलो और उनसे इण्टरव्यू लो। इण्टरव्यू दो प्रकार का हो सकता है। एक तो वह जिसमें तुम्हें उनकी कृतियों की थोड़ी जानकारी हो और तुम उनसे उसकी रचना-प्रक्रिया आदि बातचीत करो। दूसरा वह जिसमें तुम दक्षिण अमरीका की साहित्यिक गतिविधियों के बारे में उनसे प्रश्न करो। या फिर साहित्य पर सामान्य ढंग की बातचीत, विश्व प्रश्नों पर उनके विचार, वर्तमान कविता के बारे में उनकी राय, उनकी पीढ़ी और पूर्व पीढ़ी के फ़र्क और समस्याओं पर प्रश्न, विधाओं के बारे में प्रश्न, मसलन कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक और कविताओं की भाषा का सवाल जैसा कि हिन्दी में है। कुछ समस्याएँ जो हमारे यहाँ हैं (मसलन भाषा की तलाश, मानव मूल्यों की खोज, व्यक्ति का निर्वासन आदि) उसके साथ वहाँ की समस्याओं से तुलनात्मक खोज और उस पर विचार । अनेक बातें हैं जिन पर बातचीत हो सकती है। एक मतलब का सवाल यह हो सकता है कि पूरे दक्षिण अमरीकी देशों की क्या सर्जनात्मक समस्याएँ हैं और क्या वे वही हैं जो अर्जेन्टीना की हैं- या उनसे अलग अगर अर्जेन्टीना के कवियों-लेखकों की अपनी कुछ विशेष सर्जनात्मक समस्याएँ हैं तो क्या हैं और उन्हें कैसे हल कर रहे हैं। इस प्रश्न से ही बातचीत शुरू की जा सकती है। एक बार बातचीत चल निकलने पर सवाल अपने आप सूझने लगते हैं। बने बनाए सवालों को लेकर किया गया इण्टरव्यू अधिक काम लायक नहीं होता। इण्टरव्यू के बजाय बातचीत ज़्यादा बेहतर होगा। साहित्य पर बातचीत की जा सकती है और साहित्येतर बातों पर भी। पर उन्हें सावधानी से याद करते चलना तथा नोट करते चलना और बातचीत समाप्त होने पर ज़्यादा देर किये बिना उसे लिख लेना अत्यावश्यक है। देर करने पर स्मृति बासी पड़ जाती है।
ये इण्टरव्यू दिनमान में छप सकते हैं। दरअसल इन लोगों को तो ऐसे नये विषयों पर लिखी सामग्री की हरदम ज़रूरत रहती है। तुम्हारे पाँच-छः इण्टरव्यू टाइप बातचीत छप जाएँ तो हिन्दी जगत में एक बार फिर तुम्हारा नाम गूँज जाए। लेकिन इसके लिए तुम्हें थोड़ा श्रम करना पड़ेगा। इन बातचीतों को तुम वहाँ के अख़बारों में छपा सकती हो।
शेष समाचार ठीक है। माँ अच्छी हैं। किताबों का पढ़़ना वैसे ही जारी है। सरोज और मुन्ना मज़े में हैं।
पत्र शीध्र लिखूँगा। इस बीच अपने प्रार्थनापत्र की एक और कॉपी जैसा मैंने कहा टाइप करवा कर भेज दो।
सस्नेह, मलयज
28-11-71
प्रिय प्रेमा,
तुम्हारी सान्तियागो से लिखी हुई चिट्ठी मिली। तुम्हें जल्दी चिट्ठी नहीं लिख पाया। सच पूछो तो इधर एक महीने से चिट्ठी लिखने लायक मानसिक फ़ुर्सत ही नहीं मिलती। सरोज कोपागंज गयी हुई हैं, अभी वहीं हैं। उनके बाबूजी उन्हें दिल्ली पहुँचाने वाले थे, अभी परसों वहाँ से तार आया है कि वे बीमार पड़ गये।, अतः सरोज को कोपागंज तब तक रहना पड़ेगा जब तक उनके बाबूजी अच्छे नहीं हो जाते। हम लोगों में कोई कोपागंज सरोज को लिवाने नहीं जा सकता- छुट्टी और पैसा, दोनों की समस्या है। ऐसी हालत में दफ़़्तर से लौटने के बाद किचन की फ़िक्र पहले सताती है। वैसे मुख्य भार तो बाबूजी सम्भालते हैं। वे भी शाम को लौटकर थके हुए ही होते हैं, पर किचन का काम तत्परता से सम्भालते हैं। बाबूजी काफ़ी बूढ़े लगने लगे हैं, कमज़ोर भी, उन्हें देखकर एक अजब तरह की तरलता मन में उपजती है जो सिर्फ़ दया नहीं, तरस भी नहीं है। एक अजीब तरह का भाव -जैसे वे और हम दोनों ही किसी बड़ी शक्ति के आगे निरुपाय हो गये हों और एक दूसरे के प्रति सहज सहानुभूति में खिंच आये हों। बाबूजी कुल मिलाकर जीवन में असफल रहे। पहले उनकी असफलता को लेकर क्रोध उपजता था क्योंकि उनकी असफलता को मैं उनकी गैर-ज़िम्मेदारी मानता था - उनकी अपने प्रति और अपनी सन्तानों के प्रति। पर अब उनकी असफलता में एक ऐसे इंसान की विफलता देखता हूँ जो बुनियादी तौर पर भावुक और आदर्शवादी हैं, ‘मिसफिट’ है। ऐसे इंसान की तस्वीर कुल मिलाकर एक औसत हिन्दुस्तानी आदमी की तस्वीर है। क्या इस तस्वीर से मैं क्रोध कर सकता हूँ? क्योंकि मैं कहीं न कहीं मैं खुद भी इसी तस्वीर का एक जुज हूँ । मैं बाबूजी के कार्यों और फैसलों से हर समय सहमत नहीं होता, पर पता नहीं क्यों उनके प्रति मेरी श्रद्धा बढ़ती जाती है। एक असम्पृक्त श्रद्धा। इसकी वजह शायद यह है कि अब मैं उनको बराबरी के दर्जे़ से देखता हूँ। उनकी कमज़ोरियाँ समझता हूँ, उन्हें एक वयस्क सहानुभूति दे सकता हूँ। पहले मैं उन्हें हर सन्तान की तरह एक हीरो के रूप में देखता था, एक महान आदर्श के रूप में, और जब बाबूजी के कार्यों द्वारा, उनकी कमज़ोरियों द्वारा उस हीरो रूप पर चोट पहुँचती थी, मैं कुण्ठित होता था, और बाबूजी को इसका दोषी ठहराता था। यह प्रक्रिया शायद पिता और सन्तान के सम्बन्ध में हमेशा घटित होती है। कुछ लोग आजीवन इसी प्रक्रिया के चक्र में रह जाते हैं, वे वयस्क नहीं होते, पिता-सन्तान का वह पूज्य-पूजित वाला सम्बन्ध उनके अन्तश्चेतना में एक फ़िक्सेशन बन जाता है जिससे वे उबर नहीं पाते। वे तमाम उम्र पिता को अपने निर्णयों के कटघरे में खड़ा किये रहते हैं। पर अब मैं समझ गया हूँ कि यह पिता के प्रति सरासर अन्याय है। यह स्थिति निश्चय ही बहुत आदर्श स्थिति हो अगर पिता अपने सन्तानों के उस हीरो-भाव की ज़िन्दगी भर रक्षा करते आएँ। इसके लिए शायद महामानव बनने की ज़रूरत होती है। पर हर पिता महामानव नहीं बन सकता। उसमें महामानव बनने के बीज नहीं होते। उसे एक न एक दिन हीरो-मिथ तोड़ना ही पड़ता है। शुरू में शायद इस हीरो-मिथ का बने रहना ज़रूरी होता है, पर आगे चलकर इसे बनाये रखना बहुत मुश्किल हो जाता है। कुछ सन्तानें वयस्क होने पर यह जान जाती हैं कि यह मिथ वास्तव में मिथ ही है, सच्चाई नहीं। पर ज़्यादातर इस मिथ के प्रभामण्डल से नहीं उबर पातीं। उस न उबर पाने में उनका एक स्वार्थ भी रहता है। वे अपने जीवन की असमर्थताओं-असफलताओं का सारा दोष उस मिथ पर डालकर एक प्रकार से तनाव-मुक्त होने का अनुभव पाती हैं।
वह मिथ (यानी पिता का हीरो बने रहना) उनके लिए एक ढाल होता है जिससे वे अपने असुरक्षा-भाव को छिपाती रहती हैं।
मैंने यह मिथ उसी वक़्त से तोड़ना शुरू कर दिया था जब मैं अपने इलाज के सिलसिले में वेलूर गया था बाबूजी के साथ। उसी वक़्त उस मिथ को एक ज़बरजस्त झटका लगा था। फिर उस मिथ के टूटने में कई साल लगे। अभी भी वह पूरी तरह टूट गया है, कह नहीं सकता। लेकिन इतना अवश्य है कि अब बाबूजी को मैं ज़्यादा वयस्क-दृष्टि से देखने लगा हूँ। वे मुझसे सहारे की आशा करना लगे हैं, महज इसलिए नहीं कि वे मेरे पिता हैं और पिता को पुत्र से सहारा माँगने लेने का पारम्परिक अधिकार है, बल्कि उसलिए कि वे मुझे बराबर का समझने लगे हैं। इसलिए कि मैं उनकी कमज़ोरियों को, असफलताओं को मानवीय धरातल पर समझ सकूँगा और अपनी सहानुभूति दे सकूँगा।
लेकिन मेरे यह सब लिखने का क्या सन्दर्भ है? कोई नहीं, वैसे ही रौ में लिखता चला गया। पर इससे एक बात स्पष्ट हो जाती है कि एक आम हिन्दुस्तानी की भाव-चेतना कई स्तरों पर काम करती है, कई स्तरों पर चलती है। इसलिए एक आम हिन्दुस्तानी संसार का एक जटिल प्राणी माना जाता है। इसलिए बाहर वाले के लिए हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानी हमेशा से एक पेचीदा उलझा हुआ मसला रहे हैं। बड़े से बड़ा विद्वान यह दावा नहीं पर सकता कि उसने हिन्दुस्तानी मन को समझ लिया है। इस मन में हज़ारों साल की संस्कृति के अवशेष चेतना के न जाने कितने स्तरों पर तैरते रहते हैं- वह संस्कृति जो खुद अपने आप में एक भानुमती का पिटारा है। संस्कृति के ये अवशेष जीवित और मृत दोनों हैं संगत और असंगत, सार्थक और निरर्थक। पर पता नहीं किस क्षण में चेतना के किस बिन्दु पर कौन से तत्व किस वजह से ऊपर आयें, यह नहीं कहा जा सकता। इसलिए हिन्दुस्तानी मन बड़ा Unpredictable होता है। उस मन पर कितना दबाव है, कितना बोझ- जीवित और मृत संस्कृतियों का। इनका जितना हिस्सा ऊपर है उससे कहीं ज़्यादा मन के भीतर के भी भीतर। इसका कोई ओर छोर नहीं। फिर इस मन के चारों ओर पश्चिमी जगत की विचारधाराएँ, क्रान्तियाँ और जीवन-दर्शन हैं जो उसे प्रभावित करते हैं, उससे टकराते हैं, जूझते हैं। इससे बात और पेचीदा हो जाती है। यानी, न आज के हिन्दुस्तानी आदमी की व्याख्या पुरातन संस्कृति के अवशेषों के प्रकाश में की जा सकती है न आज के आधुनिक पश्चिमी विचारधाराओं के प्रकाश में। दोनों ही आज के हिन्दुस्तानी मन की व्याख्या में कहीं अधूरे पड़ जाते हैं।
एक बात मेरे दिमाग़ में आती है कि एक आम हिन्दुस्तानी बावजूद लाख पश्चिमी प्रभावों के पूरी तरह व्यक्तिवादी हो ही नहीं सकता। उसके संस्कार इतने गहरे हैं कि वह कहीं न कहीं समाज से, समाज के विधि-निषेधों से बँधा हुआ रहता है। यहाँ की संस्कृति ‘समूह’ को लेकर चली है-बहुजन हिताय-‘व्यक्ति’ को लेकर नहीं। ‘व्यक्ति’ की प्रधानता तब होती है जब सृष्टि में द्वन्द्व की कल्पना की जाय, जैसा पश्चिमी जीवन दर्शन में है। यहाँ ‘अद्वन्द्व’ की स्थिति है, अतः व्यक्ति की अलग से कोई सत्ता नहीं है। यह तो भारतीय मनीषा का बुनियादी चित्र है। पर यह चित्र खण्डित है। तमाम तरह के विदेशी प्रभाव भारतीय मन पर पड़ते हैं। खासकर पश्चिमी जीवन-दर्शन एवं संस्कृति का प्रभाव। इन प्रभावों ने व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों को पनपने का अवसर दिया। खासकर आधुनिक विज्ञान ने। यही द्वन्द्व की शुरूआत थी। पर भारतीय मनीषा ने इस द्वन्द्व को स्वीकार करने के बजाय एक समझौतावादी रुख अपनाया-‘समूह’ भी, ’व्यक्ति’ भी। और यहीं से पाखण्ड की शुरूआत होती है। इसलिए आज का आम हिन्दुस्तानी सबसे ज़्यादा पाखण्डी व्यक्ति है। वह अपने प्राचीन बुनियादी रूप को भी बनाये रखना चाहता है और नये आधुनिकतावादी रूप को भी चाहता है। इसलिए यहाँ के तथाकथित हिप्पी भी महादकियानूस टाइप हैं, तथाकथित आधुनिकतावादी पोंगापन्थी। हमें एक नये प्रकार का संघटन चाहिए (समन्वय नहीं) जिसमें भारतीय अद्वन्द्व भी हो और पश्चिमी द्वन्द्व भी। ‘अद्वन्द्व’ हमारा सांस्कृतिक आधार है और द्वन्द्व हमारे समय की अनिवार्यता। दोनों की अलग-अलग खिचड़ी पकाने से कुछ नहीं होगा। हम अपने हज़ारों साल की संस्कृति और उसके अवशेषों को चाह कर भी त्याग नहीं सकेंगे, और हम साथ ही आज के युग की चुनौतियों से भी कतरा कर निकल नहीं सकेंगे। अभी तक हमने समझौते ही किये, समन्वय ही किया, यानी कुल मिलाकर घोटाला ही किया। पर उस नये संघटन के लायक फिलहाल न तो मानसिक ऊर्जा हममें दिखायी देती है, न विश्लेषण-शक्ति जो तमाम समझौतापरक पाखण्डों को खण्ड-खण्ड कर सके।
विदेश में जब एक हिन्दुस्तानी कुछ साल रह लेता है, उसके मन से एक बोझ, एक दबाव कम होने लगता है। जैसे हवा में खूब ऊँचे जाकर भार हल्का हो जाता है। यह दबाव, यह बोझ क्या है? वही विधि-निषेधों का बोझ जो हमारे सांस्कृतिक मन का अंग बन चुके हैं। वही हमारे नया संघटन न बन पाने की विवशता का तनावजन्य दबाव। वही एक ओर प्राचीनता और दूसरी ओर आधुनिकता की परस्पर टक्कर का दबाव। इन दबावों से विदेश में रहता हुआ हिन्दुस्तानी-मन अपने को हल्का कर लेता है। समय के साथ-साथ यह दबाव और भी हल्का होता है। जैसे पृथ्वी की कक्षा के बाहर गुरुत्वाकर्षण कम होता जाता है, वैसे ही। शुरू में एक नास्टैलिजिया होता है, बाद में एक विवश स्वीकार। व्यक्ति धीरे-धीरे इतिहास-मुक्त होने लगता है। जिन जातियों के मन में इतिहास की कोई स्मृति नहीं, वे और भी जल्दी भार-मुक्त हो जाते हैं। जैसे विश्व के अनेक देशों में बसे हुए पंजाबी। पंजाबियों के सामने इतिहास-मुक्त होने जैसी जद्दोजहद नहीं होती जैसे कि मिसाल के लिए उत्तर भारत के एक आदमी के सामने।
इतिहास मुक्त होकर शायद दुनिया को देखने की एक नयी दृष्टि मिलती हो, मिलती ही होगी। आज दुनिया में हर कहीं इतिहास-मुक्त होने की चेष्टाएँ हो रहीं हैं। पश्चिम में इतिहास-मुक्त होने का मतलब है दो-दो महायुद्धों के इतिहास से मुक्त होना। भारत जैसे देशों में इसका मतलब है, आज की दुनिया की चुनौती झेल सकने में बाधक बन रहे सांस्कृतिक पिटारे के बोझ से मुक्त होना। पश्चिम के जन पूर्व में, भारत में आ रहे हैं। पूर्व के भारत के लोग पश्चिम में जा रहे हैं। एक अति आधुनिकता से संत्रस्त है, दूसरा अति प्राचीनता से। किसका यह इलाज क्या सही है, कौन जानता है। क्योंकि दोनों ही तरफ ‘वन वे ट्रैफ़िक’ है।
लेकिन मैं तो बड़ी गम्भीर चर्चा के पचड़े में पड गया। यह कुछ ख्याल एकाएक तुम्हारा ख़त पढ़़कर दिमाग़ में आये। बिना किसी सिलसिले के ।
सच, मुझे बड़ी राहत महसूस हो रही है कि तुम जीवन के सच्चे अविरोध सौन्दर्य का आस्वाद ले पा रही हो। कि तुम्हारा रस सूखा नहीं है। कि संघर्ष में रहकर भी तुम जीवन की सार्थकता का सम्बल पकड़े हुए हो। जिस तरह भी तुम्हारे जीवन का सौन्दर्य विकसित हो, तुम्हारा जीवन सुन्दर और सार्थक लगे, वह मेरे हृदय को शान्ति देगा। जिन सीमाओं और उलझनों से एक हिन्दुस्तानी मन बँधकर अक्सर दब्बू और स्वार्थी और क्रूर बन जाता है, सौभाग्य से तुम उनसे बहुत दूर हो। ऐसा मैं तुम्हें पहले भी पाता था। वहाँ के उदार व्यक्तिवाद में तुम्हें अपनी सहज प्रवृत्तियों का समर्थन मिला होगा। पर बीज तो तुममें यहीं था, वहाँ शायद उसका अंकुरण ही हुआ है।
यह पत्र मैं कई दिनों से लिख रहा हूँ। बीच-बीच में कई बाधाएँ आती रही हैं। अभी सरोज कोपागँज से अपने बाबूजी के साथ आ गयी हैं। स्वास्थ्य ठीक है। बस कुछ मौसमी ज़ुक़ाम वगैरह है। पिताजी उनके अभी यहीं हैं। कल रुक जाएँगे। सरोज इलाहाबाद से मेरी किताब भी लेती आयी है। तुम्हें शीघ्र भेजूँगा। एक कॉपी अग्नेष्का को भी भेजनी है।
शमशेरजी अभी भी दुर्ग में अपने भाई के पास हैं-स्वास्थ्य लाभ कर रहे हैं। मेरी चिट्ठी का उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। शायद शोभा के पास चिट्ठी आयी है। अजय सिंह एक अख़बार में साढ़े चार सौ की नौकरी कर रहे हैं। शोभा को मॉडल टाऊन आये महीने भर से ज़्यादा हो गया।
पता नहीं रघुवीर सहाय ने तुमको दिनमान के संवाददाता सम्बन्धी पत्र लिखकर भेजा कि नहीं। मैं काफ़ी दिन से उनसे नहीं मिला। तुम्हारे काम के सिलसिले में उनसे और अन्य लोगों से मिलूँगा। शीघ्र ही। तुम अब बोयनोस आइरेस तो आ गयी होगी। मुकदमे का क्या हो रहा है? क्या वहाँ अदालत में भी हड़ताल होती है? और क्या मैरिज सर्टिफ़िकेट के बतौर मुकदमा चलाया जा सकता है?
तुमने अपनी कविताएँ अभी तक नहीं भेजीं?
और तुम्हारा स्वास्थ्य अब कैसा है? चिले की यात्रा प्रेरक और स्वास्थ्यप्रद रही होगी। वहाँ कुछ लिखा हो तोे भेजना। कार्लोस को मेरा हार्दिक अभिवादन देना। जेनीना को भी।
पत्र देना.
स्नेह सहित, मलयज
17-1-72
प्रिय प्रेमा,
तुम्हें चिट्ठी कई दिनों से लिखने की सोच रहा था। इधर क़रीब दस दिनों से खाँसी-बुख़ार में पड़ा हूँ। ख़त लिखने को यह पुराना लिफ़ाफ़ा मिल गया है जो माँ के पास कब का पड़ा था। माँ ने बहुत पहले तुमको ख़त लिखना शुरू किया था, पूरा करके भेज न सकीं। पर यहाँ उन्होंने जो कुछ लिखा है, वह उनका तुम्हारे प्रति सनातन भाव है, यही सोचकर मैंने इन पंक्तियों को ज्यों का त्यों रहने दिया।
प्रेमा, इधर बीमारी के दौरान तुम्हारी याद बराबर आती रही। इसी बीच एक दिन डा0 प्रेमशंकर के एक रिश्तेदार तुम्हारी चीज़़ें लेकर यहाँ आये। तुम्हारे पत्र वाला लिफ़ाफ़ा खुला हुआ था और उन्होंने बजाय दस डालर के, रुपयों में भुगतान किया। सरकारी रेट से 72 रुपए और कुछ पैसे। कहने लगे कि डालर भारत में लाना ग़ैरकानूनी था, अतः डॉक्टर प्रेमशंकर ने उसे बम्बई में एक्सचेंज करवा लिया। रशीद भी दिखायी- पचास डालर की। खैर। एक सीप का छोटा-सा खिलौना भी दिया। बस। मेरी तबियत बिल्कुल ठीक न थी, बुख़ार में तप रहा था। ऐसे में ही वे सज्जन आये। मैं ख़ातिर भला क्या करता। वे लौटने की जल्दी में थे। उन्होंने तुम्हारा पत्र भी खोल कर, लगता था, पढ़़ लिया था।
तुम्हारी पहले भेजी और ये दो कविताएँ भी पढ़़ीं, यानी बुख़ार का दौरान ही पढ़़ीं। उसके बाद से नहीं देखीं। तबियत स्थिर होने पर उसके बारे में विस्तार से लिखूँगा। तुम्हारी एन्थोलोजी के लिए मेरे दिमाग़ में विद्यानिवास मिश्र द्वारा सम्पादित हिन्दी कविताओं के अँग्रेज़ी अनुवाद की एक अन्थोलोजी है। उसी से कुछ कविताएँ छाँटकर तुम्हें भेजूँगा। तबियत ज़रा ठीक हो ले।
प्रेमा, तुम्हारे काम की मुझे बड़ी चिन्ता है, और उस सम्बन्ध में अपने कर्तव्य को जानता हूँ। तुमने जितने प्रकार के सर्टिफ़िकेट चाहे हैं, सबके लिए कोशिश करूँगा। तुम्हारा बर्थ सर्टिफ़िकेट बिना इलाहाबाद गये नहीं मिल सकता। इधर बाबूजी इलाहाबाद जा नहीं पा रहे हैं। एक तो उनकी तबियत काफ़ी दिनों से ठीक नहीं चल रही है। दूसरे इधर आर्थिक कष्ट बहुत बढ़ गया है। उनकी एक पैसे की आमदनी नहीं हो रही है। मेरे वेतन से जिस-किस तरह घर का खर्च चल रहा है। सरोज वैसे तो ठीक है। पर उसका पेट कुछ निकल आया है। कभी-कभी थोड़ा दर्द भी रहता है।
कुछ दिन हुए- बल्कि उसी दिन जिस दिन तुम्हारा पत्र मिला था-मालवीय जी1 का पत्र आया। उनके पत्र की बातों से मुझे बुरा लगा। मैंने अभी उनको जवाब नहीं लिखा।
आजकल तबियत खिन्न और उदास रहती है। सब कुछ बड़ा असुरक्षित लगता है। यहाँ कोई अपना नहीं लगता। लगता है कि अगर कोई मुसीबत आयी तो दुःख दर्द बटाने कोई नहीं आएगा। बहुत पहले शमशेरजी के रूप में एक ऐसे आत्मीय व्यक्ति की कल्पना करता था। पर शोभा प्रकरण के कारण शमशेरजी हम लोगों से बड़ी दूर चले गये हैं-मानसिक और भावात्मक रूप से। सरोज को यहाँ आये दो महीने हो गये, शमशेरजी भी अपने भाई के यहाँ से लौट आये क़रीब ड़ेढ महीने पहले। इतना सब हो गया। बाबूजी की बीमारी की ख़बर उन्हें मिली थी। पर एक बार भी यहाँ देखने नहीं आये। बल्कि मैं और सरोज ही उनके यहाँ मिलने गये थे।
प्रेमा, तुमने लिखा था कि मैं निराश-हताश हो गया हूँ। ऐसी बात नहीं है। पर जीवन में कभी निराशा-उदासी के क्षण भी आते हैं। तुम्हारे पत्र का विस्तृत जवाब लिखने का यह अवसर नहीं है। तबियत ठीक हो जाने पर लिखूँगा। आज सुबह से ही पता नहीं क्यों फुलझड़ी देवी की बेतरह याद आ रही है। तुम्हें उनकी याद है न? वही जो बात बात पर हँस पड़ती थीं?
भारत-पाक युद्ध समाप्त होने की ख़बर तो तुम्हे मिली होगी। अब शान्ति है। बांग्लादेश भी बन गया। सब ख़बरें मिलीं होंगी। भारत-पाक युद्ध में विजय उसी आम औसत हिन्दुस्तानी की हुई है जिसके बारे में मैंने तुम्हें लिखा था। यह औसत हिन्दुस्तानी सिर्फ़ भारत का मध्यवर्ग नहीं है। यह भारतीय चरित्र की एक इकाई का प्रतिनिधित्व करता है। यह इकाई किसान में भी है, क्लर्क में भी और उच्च वर्ग में भी।
मुझे बराबर अफ़सोस हो रहा है कि मैंने यह पत्र मैंने तुम्हें पहले ही क्यों न लिख दिया। तुम इन्तज़ार कर रही होगी।
उम्मीद है कि दो-चार दिन के बाद दफ़़्तर जाने लगूँगा। तभी तुम्हें पत्र लिखूँगा। इस बीच अपने कुशल समाचार से सूचित करना।
स्नेह सहित, मलयज
1. मालवीय जी - सम्भवतः लक्ष्मीधर मालवीय। हिन्दी लेखक और अनुवादक, जापान में रहते हैं।
3-2-72
प्रिय प्रेमा
मेरा पिछला पत्र जो मैंने बीमारी के दौरान तुम्हें भेजा था, मिला होगा। कुछ ऐसा संयोग देखो कि यह पत्र लिखते समय भी मैं बीमार हूँ-वही बीमारी, खाँसी-बुख़ार। असल में पिछली बार दफ़़्तर जाने के समय मुझे खाँसी-बुख़ार तो नहीं रह गया था, पर शरीर में शक्ति की कमी रह गयी थी। अतः चार-पाँच दिन दफ़़्तर जाने के बाद फिर पड़ गया। पर इस बार जल्दी सम्भल जाऊँगा। क्योंकि झटका ज़रा हल्का ही लगा है।
पिछला ख़त तुम्हे भेज देने के बाद दूसरे ही दिन तुम्हारा खुशख़बरी वाला ख़त मिला। तुम्हारा ख़त पढ़़ कर और श्रुति की फ़ोटो देखकर सच इतनी खुशी हुई जितनी कि बहुत दिनों से नहीं हुई । मुकदमें में तुम्हारी आरम्भिक विजय से मन और भी बड़ा हो गया। सच की विजय होगी और ज़रूर होगी, तुम्हारी तपस्या व्यर्थ कैसे जा सकती है। श्रुति की फ़ोटो देखते-देखते जी नहीं भरता, तरह-तरह के ख्याल आते हैं। सोचता, यही वह श्रुति है जिसे गोद में लेकर मैं खिलाया करता था, प्यार करता था। अब कितनी बड़ी लगती है। बिल्कुल तुम्हारी शकल पर गयी है। तुम्हारी एक बचपन की (तुम शायद 5 साल की रही होगी) फ़ोटो की मुझे अच्छी तरह याद है, तुम हूबहू श्रुति जैसी ही लगती थीं।
मेरे पत्र में कुछ निराशा की बातें थीं। शायद वह बीमारी से उपजी कमज़ोरी के कारण था। दिन भर बदली के मौसम में घर में पड़े-पड़े बीमार रहना, ऊपर से पारिवारिक चिन्ताएँ आदमी को कुछ हद तक निराशा के मूड में ला दें तो क्या आश्चर्य। आज दिल काफ़ी हल्का महसूस हो रहा है। अभी पाव भर गंड़ेरियाँ चूसीं हैं, बड़ी अच्छी लगीं। अभी-अभी आल्मारी से तुम्हारे क़ाग़जातों का पुलिन्दा भी निकाला। तुम्हारे कैरेक्टर सर्टिफ़िकेट के लिए एक मजमून भी बनाया है। उस पर प्रभाकर माचवे के हस्ताक्षर करवाऊँगा। एक सर्टिफ़िकेट फ़ारूक़ी साहब1 से भी लूँगा-। बकरीद के दिन उनके यहाँ शमशेरजी के साथ गया था तो बातों बातों में उनसे इसकी चर्चा की थी। उन दोनों से काम चल जाएगा न?
अच्छा सुनो, श्यामलाल के सर्टिफ़िकेट जब तुम पेरू में थीं तब मैंने तुम्हें उसकी दो कॉपियाँ भेजी थीं। शादी के फ़ोटो भी भेजे थे जिसके पीछे श्यामलाल की तस्दीक थी। तुम शायद भूल गयीं। श्यामलाल का दूसरा सर्टिफ़िकेट लेकर उस पर अर्जेन्टीनी एम्बेसी की मुहर लगवाने का काम मुझे करना है, पर फ़ोटो क़रीब-क़रीब सभी मैं तुम्हें भेज चुका था। वैसे दो एक फ़ोटो मेरे पास अभी भी हैं। पर क्या उस पर भी अर्जेन्टीना एम्बेसी की मुहर लगवानी पड़ेगी? फ़ोटो को अटैस्ट करवाना उन्हें भी अजीब लगेगा, शायद कुछ गडबड़ी का भी सन्देह हो। खैर।
1. फ़ारुक़ी साहब, शायद उर्दू और देश के महान उपन्यासकार और आलोचक। उन दिनों वे शायद दिल्ली में रहे होंगे। वे भारत के पोस्ट मास्टर जनरल पद से सेवानिवृत्त हुए हैं। फ़ारुक़ी साहब के उपन्यास-अंश और उनसे लम्बी बातचीत ‘समास-15’ में प्रकाशित हुई है।
शमशेरजी बकरीद मिलने के सिलसिले में यहाँ आये थे। याने अपने मुस्लिम दोस्तों से। लगे हाथों हमारे यहाँ भी ठहर गये। उन्हीं के साथ फ़ारूक़ी साहब के यहाँ गये थे। शमशेर जी को तुम्हारा ख़त पढ़़ कर सुनाया, श्रुति की फ़ोटो दिखायी। खुश हुए। तुम्हें आशीर्वाद भेजने को कहा है। कहते थे कि पिछले साल मेरी तबियत बहुत गिरी-गिरी सी रही थी। शारीरिक और मानसिक दृष्टि, दोनों से, कुछ उत्साह नहीं रहा था। अब भाई के इलाज से हालत काफ़ी बेहतर है, आराम करने से तबियत की गिरावट रुकी है। उनका कहना एक दृष्टि से सही है। तबियत की गिरावट में वे भावात्मक दृष्टि से अशक्त हो जाते हैं। तम्हें ख़त लिखने को कह रहे थे। देखो कब लिखते हैं।
शोभा अभी 15 दिन रह कर परसों लाजपत नगर गयी हैं। उसकी बच्ची स्वस्थ्य, सुन्दर है। अजय सिंह भी कभी- कभी आते थे। उनसे मुख्तर सी साहब सलामत हो जाती है। एक पिता और पति की जिम्मेदारी यथाशक्ति निभा रहे हैं।
माँ बाबूजी पूर्ववत हैं। माँ तुम्हारी याद करती हैं। मुन्ना मज़े में हैं।
पत्र विस्तार से तुम्हें शीघ्र ही लिखूँगा। कल से दफ़़्तर जाऊँगा।
सस्नेह, मलयज
14-3-72
प्रिय प्रेमा,
मेरा 2 मार्च का भेजा हुआ लिफ़ाफ़ा मय तु्म्हारे शादी सर्टिफ़िकेट के मिला होगा। कल शाम 6 मार्च का भेजा तुम्हारा ख़त मिला। तुम्हें काम नहीं मिला इससे बड़ी चिन्ता हो गयी है। तुम्हारे पिछले पत्र से मैं उत्साहित हो गया था पर लगता है यह सब दिवास्वप्न था। भारतीय दूतावासों के बारे में यहाँ जो धारणा है कि वे लोग ज़्यादातर स्नॉब और निठल्ले होते हैं, वह सही है। विदेशों में बाँटी गयी एक तरह की जागीरें हैं वे सब। खैर हमें हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। कोशिश करते रहने से हो सकता है सफलता मिल जाए। पर हाँ, एक बात मैं कहूँगा कि शुरू में ही किसी से बहुत ज़्यादा आशा नहीं बाँध लेनी चाहिए।
...बाबूजी एक हफ़़्ते हुए इलाहाबाद चले गये हैं पुलिस सर्टिफ़िकेट के लिए। वहाँ से सर्टिफ़िकेट मिल जाने के बाद वे लखनऊ उसे प्रान्तीय सरकार से जजमेज करवाने जाएँगे।... उन्हें मैंने तुम्हारा K.P. College वाला प्रमाणपत्र, माचवे का प्रमाणपत्र आदि दे दिया है। तुम्हारा भेजा लीमा का रेसिडेन्शियल वीज़ा वाला फ़ोटो-पत्र भेज रहा हूँ। इलाहाबाद से, मुझे ऐसा लगता है Premlata Verma के नाम से ही सर्टिफ़िकेट मिल सकेगा पर जैसा कि तुमने कार्लोस की बात लिखी है कि इससे ही काम चल जायेगा। दिल्ली में भी अगर सर्टिफ़िकेट मिल सकेगा तो लेने की कोशिश करूँगा, पर अभी तक जिन लोगों के माध्यम से किसी काम के सफल होने का भरोसा रखता था, वे बेकार सिद्ध हुए। अतः दिल्ली जैसे शहर में बिना रसूख़ के वह मिल सकेगा, इसमें मुझे सन्देह है। पर कोशिश तो करूँगा ही।
....पुलिस सर्टिफ़िकेट की माँग शाण्डिल्य साहब ने कहीं कोई बहानेबाज़ी के ख्याल से तो नहीं की?। ....दिल्ली से तुम्हें पासपोर्ट इशू कराने का मतलब ही है कि तुम्हारा चरित्र पुलिस की दृष्टि में निर्दोष है। खैर बाबूजी इलाहाबाद से मुझे आशा है कि काम करके ही लौटेगें।... यदि बोयनोसारेस के डॉक्टर यह सिद्ध कर दें कि श्रुति को कोई बीमारी नहीं है तो तो. के झूठे-मूठे तर्क जज कैसे मान लेगा- आखिर तो. के पास क्या सबूत है कि श्रुति को ‘रिकेटी’ हो गयी थी? वह मात्र एक आरोप है। हर अ-सिद्ध किये आरोप को झूठा सिद्ध करने की कोई ज़रूरत नहीं होनी चाहिए। ख़ैर यह तो मेरा विचार है, जो मुकदमें की आवश्यकता को देखते हुए झूठा भी हो सकता है।
शमशेरजी से आज शाम मिलूँगा। उनके बुढापे पर मुझे तरस भी आता है, साथ ही उनकी निष्क्रियता के पीछे एक क्रूरता भी दिखायी देती है जिससे मन क्षुब्ध भी होता है। तुम्हारे ख़त से निश्चय ही उन्हें चोट लगेगी। उन्हें चोट पहुँचाने का विचार मन को क्लेश भी देता है- आखिर बूढे़ आदमी हैं, निष्क्रियता शरीर धर्म है उनका। ...वे कमला रत्नम से मिलनेवाले थे.... कमला रत्नम शमशेरजी को सम्मान की दृष्टि से देखती हैं, एक बार किसी गोष्ठी में तुम्हारे बारे में चर्चा भी हुई। पर शमशेर जी अपने आलस्य में उनसे नहीं मिल पाये। डा. माचवे जी, जब से अकादमी से सचिव बने हैं तब से बड़े Conformist हो गये हैं, यानी रिस्क लेने से डरते हैं। अपनी बनी बनायी प्रतिष्ठा पर आँच नहीं आने देना चाहते। आदमी अच्छे होते हुए भी हमारी क्या मदद कर सकेंगे। वे दूसरे की पूरी बात भी तो नहीं सुनते। खैर उनसे मिलूँगा। तुम, कोर्ट में तो. ने जो बयान दिया था वह, और अपना उत्तर अँग्रेज़ी नें भेज सको तो मुझे तोला काण्ड पर कुछ लिखने में मदद मिलेगी। यह काम जानता हूँ श्रमसाध्य है- अनुवाद का काम। धीरे-धीरे चुनिन्दे अंश ही भेजो।
मेरे पास कई चीज़़ें हैं तुम्हें भेजने को पर पास में पैसा न होने से तुम्हें भेज नहीं पाता... जितनी जल्दी हो सकेगा भेजूँगा। तुम्हारे इंश्यूरेंस के क़ाग़ज मिल गये हैं। वे मेरे पास हैं।
ग़रीबी और परेशानी के बीच रह कर संघर्ष करना है तो हमें धीरज नहीं त्यागना होगा। अनावश्यक रूप सेे घबराना भी नहीं होगा। मैं भारतीय दूत को पत्र लिखूँगा।...
कार्लोस को इस बार मैं पत्र नहीं लिख सका, क्षमा करना। उनसे तथा कार्लोस की पत्नी जेनीना से मेरा सप्रेम अभिवादन कहना। जेनीना जी को परीक्षा की सफलता के लिए मेरी शुभ कामनाएँ। गुस्से के आवेग में (जो कि लैटिन अमरीकी चरित्र का खास अंश लगता है) काम न बिगड़ने पाये, इतना ख्याल रखना होगा। हाँ, तुम्हारी वकील ने तोला काण्ड के बारे जो कहा है वह अब कैसे सम्भव होगा-वह भी बिना नाम के? विजय का पता होता तो हो गया होता। दिनमान में शायद हो सके पर वह हिन्दी में है।
पाठक ने ICCR की नौकरी छोड़ दी है निराश होकर। बम्बई में ही शायद हैं, पता नहीं मालूम।
सस्नेह, मलयज
(नोटः इस पत्र के बहुत से अंश मैंने छोड़ दिया है जो मुकदमें सम्बन्धी फॉर्मल पत्रों को लेकर थे)
2 अक्तूबर, 72
प्रिय प्रेमा,
क़रीब महीना भर हो गया तुम्हारा पत्र पाये। तुम्हारे ख़त का जवाब मुझे जल्दी देना था क्योंकि तुमने कुछ चीज़़ों के बारे में पूछा था। इधर मुझको ऐसा भी लगता है जैसे तुमने उसके बाद कोई ख़त मुझे भेजा है जो डाक में गायब हो गया। चिट्ठियाँ कभी-कभी यहाँ गायब हो जाती हैं- नीचे वाले पड़ोसी के बच्चे कौतुकवश दूसरों की चिटठियाँ, पत्र-पत्रिकाएँ उठा लेते हैं और उनके माँ-बाप ने नहीं देखा तो फाड़ कर फेंक देते हैं। तुम्हारे भेजे पत्रों का विशेष धारीदार लिफ़ाफ़ा ज़रूर उनका ध्यान आकर्षित करता होगा। ऐसा मैं सोचता हूँ। एक-दो बार ऐसी घटना हो चुकी है। अतः जब तुम मुझे पत्र में कुछ ख़ास लिख कर भेज रही हो तो उसे रजिस्ट्री करा देना ही बेहतर होगा। जिस पत्र में तुमने श्रुति के बनाये स्केच भेजने की बात लिखी थी, वह मुझे आज तक नहीं मिली। शक होता है कि कहीं उसका भी वही हश्र न हुआ हो।
फिर मुझे यह भी लगता है कि कहीं तुम्हारी तबियत न ख़राब हो गयी हो। आजकल तो वहाँ सर्दी भी खूब पड़ने लगी होगी। अतः इस पत्र के पाते ही अपना कुशल समाचार-चाहे एक छोटे पत्र की शक्ल में क्यों न हो- भेज देना।
इस पत्र के पहले मैंने तुम्हें एक लिफ़ाफ़ा भेजा था, जिसमें घर के लोगों की फ़ोटुएँ भेजीं थीं-तुम्हें मिला होगा। लिखना।
एक दिन मैंने बक्से से तुम्हारे सब पत्र निकाले और उन्हें तारीख़वार क्रम से लगा कर बण्डल बनाया। उनमें लैटिन अमेरीका के जन-जीवन, व्यक्ति और राजनीति के बारे में बहुत-सी उपयोगी सामग्री है, एक तरह के निजी दस्तावेज़ के रूप में। उन्हें उतार कर एक क्रम देकर मैं किसी पत्रिका में छपाने की सोच रहा हूँ। दिनमान में छपाना अब मुश्किल हो गया है क्योंकि जब से सर्वेश्वर जी ने मेरी किताब की बड़ी निन्दात्मक रिव्यू छापी, मेरे उनके सम्बम्ध बिगड़ गये हैं। मैं सर्वेश्वर जी से क़रीब 10 महीने से नहीं मिला, न दिनमान के दफ़़्तर गया। सर्वेश्वर जी दिनमान में साहित्य सम्बन्धी सामग्री के इन्चार्ज हैं। चूँकि वे मुझसे खार खाये बैठे हैं (उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे का मामला है) इसलिए उनके रहते दिनमान में कुछ भी छपा पाना मुश्किल नज़र आता है। मैंने कुछ दिन पहले तुम्हारा लिखा बोर्खेस वाला संक्षिप्त लेख और अनुदित कविताएँ रघुवीर सहाय के पास दिनमान में प्रकाशनार्थ भेजे थे। क़रीब हफ़़्ते भर से ऊपर हो गये। कोई जवाब हाँ-ना का नहीं मिला। रघुवीर सहाय हालाँकि सर्वेश्वर के गुट में नहीं हैं और मैं नहीं समझता कि मेरे विरुद्ध उनके मन में कोई भावना है, पर दफ़़्तर में रह कर साथियों से बिगाड़ करना शायद वे भी न चाहते हों। इसका हालाँकि पहले भी मुझे अनुभव हो चुका है। मैंने तुम्हारी रचना भेजते समय र. सहाय को लिखा था कि मैं उनसे दिनमान के बाहर कहीं मिलना चाहता हूँ। ख्याल था कि वहीं उनसे मिल कर तुम्हारे बारे में, विशेषकर तुम्हारे समय-समय पर भेजे वृत्तान्तों को दिनमान में छपाने के बारे में बात करूँगा। साथ ही यह भी सोचा था कि तुम अगर प्रधानमन्त्री को पत्र लिखो तो वह उन्हें मिल सकेगा या नहीं, या क्या बातें लिखनी चाहिए-तुम्हारी पृष्टभूमि बता कर-मैं यह भी सहाय से पूछना चाहता था। ये लोग प्रभावशाली पत्रकार हैं और इस विषय में राय दे सकते हैं। पर उधर से कोई जवाब अभी तक नहीं आया। शुक्रवार को दिनमान में र. सहाय को फ़ोन करूँगा। प्रधानमन्त्री के पास रोज़ हज़ारों पत्र आते हैं, वे सब उनके पास तक नहीं पहुँचते। उनका एक प्रधानमन्त्री सचिवालय है, वही उन्हें निपटाता है। फिर तुम जो शिकायतें करने जा रही हो, उनके सम्बन्ध उस व्यवस्था से हैं जिसका स्वयं प्रधानमन्त्री भी एक अंग हैं। ब्यूरोक्रेसी के ख़िलाफ़ कोई शिकायत भला ब्यूरोक्रेट कैसे बर्दास्त कर सकते हैं। ऐसी शिकायतें प्रधानमन्त्री तक पहुँच ही नहीं पातीं-निचले बाबू-अधिकारियों की फ़ाइलों में ही खो जाती हैं। हाँ, तुम्हारा केस यहाँ का कोई प्रभावशाली व्यक्ति उठाये और प्रधानमन्त्री के कानों तक सीधे बात पहुँचे तो इसका असर हो सकता है। लेकिन ऐसा प्रभावशाली व्यक्ति है कौन जो तुम्हारा केस ले? मेरी किसी ऐसे व्यक्ति तक पहुँच नहीं। जिन लोगों को जानता हूँ, वे झूठी सहानुभूति का मुखौटा लगाये लोग हैं। अतः मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि इस विषय में तुम्हें क्या सलाह दूँ। तुम्हारे अर्जेन्टीनी मित्र शायद भारत की समाजिक-राजनैतिक सडाँध को जानते नहीं, उनके सामने इन्दिरा गाँधी की वही तस्वीर है जो देश के बाहर प्रचारित-प्रसारित की गयी है। लेकिन जहाँ का सारा तन्त्र सड़ा हो, वहाँ एक व्यक्ति क्या कर सकता है?
फिर भी तुम जिस हालत में हो, उसमें देख कर मुझे तकलीफ़ होती है। तकलीफ़ इसलिए कि मैं कुछ नहीं कर सकता। पिछले दो सालों में मुझे यहाँ के लोगों के जितने अन्दरूनी घिनौने चेहरे देखने को मिले, उससे किसी की सदाशयता पर विश्वास नहीं रह गया। हर कहीं क्षुद्रता और नीचता दिखायी दी।
मोतीलाल बनारसीदास का पता इस प्रकार हैः-
मोतीलाल बनारसीदास
पुस्तक-विक्रेता, प्रकाशक
40 यू.ए. बंगलो रोड, जवाहर नगर, दिल्ली-7
उर्दू ग्रामर की किताब मैंने फ़रीदी साहब से मँगवाई है, उनके लाते ही भेज दूँगा। दामोदर सातवलेकर की ‘संस्कृत स्वयं शिक्षक’ दो भागों में, एक नयी पुस्तक, राजपाल एण्ड सन्स से निकली है, उसे भी उर्दू की किताब के साथ भेजूँगा। तुम कहो तो तुम्हारे पास ‘सारिका’ (कहानियों की पत्रिका) सालाना ग्राहक के रूप में भिजवाने का प्रबन्ध करूँ। उसका सालाना चन्दा 18 रुपए है पानी के जहाज से भेजने का। मतलब पहला अंक तुम्हें ग्राहक बनने के तीन महीने बाद मिलेगा। लेकिन मैं यह प्रबन्ध अगले महीने ही कर पाऊँगा।
बाबूजी के एक दोस्त बम्बई से हमारे यहाँ कुछ दिन रहे। काफ़ी घनिष्टता हो गयी। तो वे मुन्ना वगैरह को बम्बई आने का निमन्त्रण दे गये। मुन्ना के उत्साह का कोई ठिकाना नहीं। मेरा कोई खास मन नहीं। पर मुन्ना और सरोज की ज़िद देखकर ऐसा लगता है कि दशहरे की छुट्टियाँ बम्बई में ही कटेंगी। यानी 14 अक्तूबर को शायद हम बम्बई के लिये रवाना हों और यहाँ से 29 को दिल्ली को लौटें। किराये का प्रबन्ध बाबूजी ने किसी तरह कर दिया है। शेष खर्च मेरे जिम्मे।
बाबूजी का एक बड़ा कर्ज़ उम्मीद है नवम्बर तक खत्म हो जायेगा। उसके बाद बाबूजी अपनी फ़िल्म खुद चला सकेंगे, अभी तो वह कर्ज़दार के पास बम्धक पड़ी है और उससे होनेवाली सारी आमदनी कर्ज़ चुकाने में चली जाती है। अगले साल मार्च-अप्रैल तक जाकर स्थिति में कुछ सुधार की आशा है।
दूधनाथ सिंह अजकल यहाँ आये हुए हैं। उनकी निराला पर एक मोटी किताब नीलाभ प्रकाशन ने छापी है, उसे ही बाँटने और यहाँ के प्रकाशकों को अपनी नयी किताब देने-दिलाने के सिलसिले में आये हैं। निर्मल और दूधनाथ की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी हो गयी है, निर्मल रेडियो में जमी हुईं हैं। लिखने का पूरा समय दूधनाथ के पास है क्योंकि साल में क़रीब 8 महीने युनिवर्सिटी कभी हड़ताल, तो कभी उपद्रव से बन्द ही रहती है। इलाहाबाद के लेखकों में छोटे-मोटे महन्त की हैसियत हो गयी है दूधनाथ की। निर्मल इलाहाबाद में बोर हो रही हैं, अतः जाड़े में दिल्ली आने का प्रोग्राम है।
शमशेरजी से क़रीब तीन महीने से मुलाकात नहीं हुई। शोभा भी तब से यहाँ नहीं आयी। कल बाबूजी माँ उनके यहाँ गये थे। शोभा और उसकी बच्ची बीमार थीं। अजय सिंह 20-25 दिन से अपने गाँव गये हुए हैं। पैसे की तंगी है। शमशेरजी की ही तनख़्वाह से काम चलता है। इन दिनों दिनमान में शमशेरजी उर्दू-परिचय की एक सीरीज चला रहे हैं जो बारह किस्तों में छपेगी।
माँ को इन दिनों उपन्यास पढ़़ने का चस्का पड गया है। देर रात तक पढ़ती रहती हैं। उनका इलाज अब मैं सरकारी डिस्पेन्सरी से ही करवा रहा हूँ।
मुन्ना का इस साल हायर सेकेण्ड्री का आखिरी साल है। उसके भविष्य की मुझे चिन्ता है। स्वास्थ्य उसका वैसे ही है- बदन पर माँस चढ़ता ही नहीं।
तो यह घर का हालचाल है।
मेरी लिखायी बहुत कम हो गयी है। पढ़ाई अलबत्ता कर लेता हूँ। जो भी मिल जाय पढ़ लेता हूँ। इधर दोस्तोएवस्की के दो बड़े उपन्यास पढ़े। तोल्सताय का ‘वार एण्ड पीस’ पढ़ा। और मार्क्स की रचनाएँ भी पढ़ रहा हूँ। मेरी किताब पर कोई विशेष समीक्षा नहीं प्रकाशित हुई। समीक्षा के लिए भेजी भी देर से ही थी।
इस पत्र के साथ थोड़ा भीमसेनी काजल भेज रहा हूँ। लिखना कि सही सलामत अच्छी तरह मिल गया।
अपना पूरा हाल अविलम्ब लिख भेजो ।
बहुत स्नेह सहित, मलयज
12-12-72
प्रिय प्रेमा,
तुम्हारी चिट्ठी मिली थी। पेरोन के आने के बाद तुम्हारी राजनीतिक रिपोर्ट भी। दिनमान का वह अंक जिसमें बोर्खेस के बारे में तुम्हारा लेख छपा है, आशा है तु्म्हें मिल गया होगा। तुमने उसके मिलने की सूचना नहीं दी।
रघुवीर सहाय को मैंने तुम्हारे पत्रों से किया हुआ एक संकलित अंश दिया था, कोई तीन हफ़्ते हो गये। उन्होंने कहा था कि वे उसे पढ़ कर मुझे पत्र लिखेंगे। उनका कोई पत्र अभी तक नहीं मिला। दो-एक बार फ़ोन करने पर भी नहीं मिले। शायद छुट्टी पर हैं। अतः अभी पत्रों के प्रकाशन का कोई निश्चय नहीं हुआ।
तुम जिस ढंग की राजनीतिक रिपोर्ट भेजने के लिए परेशान हो रही हो, उस ढंग की चीज़ें शायद दिनमान जैसी पत्रिका के लिए उपयुक्त न हो। एक तो वे हर हफ़्ते लैटिन अमेरीका के एक दूर दराज के देश पर इतने पृष्ट व्यय न करना चाहें, क्योंकि विदेशी समाचारों से प्रभाव ले दिनमान में देशी समाचारों को तरजीह दी जाती है। दूसरे राजनीतिक ढंग की रिपोर्टें दिनमान के सम्पादकगण विदेशी पत्रिकाओं, जैसे टाइम, न्यूजवीक आदि को पढ़ कर अपने मतलब की निकाल लेते हैं। तुमने जो ख़बरें पेरोन के बारे में भेजी हैं, वे कमोवेश टाइम में छप चुकी हैं। टाइम यहाँ पहले पहुँचता है, तुम्हारी रिपोर्ट एक हफ़्ते बाद, यदि भेजने में तुम ज़रा भी देर न करो तो। तीसरे- र.सहाय राजनीतिक रिपोर्टें की बनिस्बत ऐसी रिपोर्टे पसन्द करेंगे जो वहाँ के जन जीवन, समाजिक ढाँचे आदि के बारे में हों। खासतौर से ऐसी रिपोर्टे जो एक कवि-दृष्टि से महत्वपूर्ण ह्यूमन डॉक्युमेंट के तौर पर लिखी गयी हों। वे शायद कुछ सांस्कृतिक साहित्यिक ढंग की चीज़ें, कुछ कवियों, लेखकों की रचनाओं के बारे में या उनकी कृतियों के अनुवाद (खासकर कविताओं के) चाहें। अतः तुम राजनीतिक तर्ज की रिपोर्ट भेजने के लिए भागदौड़ मत करो। वैसे वहाँ की राजनैतिक घटनाओं का अध्ययन अपने ज्ञानवर्धन के लिये तुम कर सकती हो, जितना तुम्हें समय मिले।
मैं पत्र विस्तार से बाद में लिखूँगा। माँ, बाबूजी, सरोज के पत्र जा रहे हैं। घर का बना काजल भी। तुम्हारे लिये कत्थक नृत्य पर एक किताब भी खरीद ली है। कल अलग रजिस्टर्ड डाक से भेज रहा हूँ-By air mail-
आज निर्मल बच्चों के साथ इलाहाबाद से यहाँ आ रहीं हैं। 20-25 दिन ठहरेंगी।
तुम्हारा क्या हालचाल है-मकान मिला कि नहीं? मुकदमे के बारे में जो संकेत तुमने अपने पिछले पत्र में दिया, उससे तबियत चिन्तित है। लिखना क्या हुआ? श्रुति और तुम्हारी फ़ोटुएँ मिल गयी थीं। इस पत्र में एक फ़ोटो भी है जो बम्बई में खींची गयी थी।
शेष हालचाल ठीक है। मुन्ना का इम्तहान होनेवाला है, इसलिए वह पत्र नहीं लिख रहा। अपना विस्तृत समाचार भेजो।
(सन 1972 के अनेक पत्र टाइप नहीं किये, मुकदमे और फार्मल कार्यवाही सम्बन्धी होने के कारण)
16-1-73
प्रिय प्रेमा,
तुम्हारी 13-14 दिसम्बर की लिखी चिट्ठी मिली थी। इससे पहले मैंनें तुम्हें एक लिफ़ाफ़ा भेजा था जिसमें घर का बना काजल, मेरी, सरोज की एक फ़ोटो, माँ-बाबूजी के लिखे पत्र थे। मैंने वह पत्र भेजने के बाद कत्थक नृत्य पर एक किताब भी रजिस्टर्ड पोस्ट से भेजी थी। वह भी मिल गयी होगी। तुम अपना हालचाल फ़ौरन लिख के भेजो। लगभग एक महीने हो गये तुम्हारा समाचार मिले।
मुझे लगता है प्रेमा, कि जिन्हें अपना कहा जाता उनमें भी आपस में एक दूसरे के प्रति समझ न हो तो वे पराये जैसे हो जाते हैं। एक गीली भावुकता से सम्बन्ध नहीं बनते, उसके लिए समझ भी ज़रूरी है। मुझे नहीं लगता कि निर्मल में मेरे प्रति या घर के किसी प्राणी के प्रति कोई समझ रह गयी है। हाँ, बहन होने के नाते एक अधिकार ज़रूर है। और मुझे भाई का रोल पूरा ही करना पड़ा। पर तुम जानती हो कि मैं अभिनय करने में कितना कच्चा हूँ। तुमने एक बार सीख दी थी कि कभी-कभी मैं अभिनय से पेश आऊँ, पर मुझसे अभिनय हो नहीं पाता (हालाँकि यह तुमने ही कहा था कि सभ्यता-संस्कृति एक हद तक हमें Hypocrite भी बना देती है- वजहें भिन्न हो सकती हैं... साथ में यह भी तो जोड़ा था कि तुम खुद अभिनय नहीं कर पाती हो, चेष्टा करो भी तो)। शायद मैं जो दे सकता था, मैंने दिया। पर मुझे यह नहीं महसूस हुआ कि मैं निर्मल का भाई बन कर कुछ पा रहा हूँ। देने के साथ क्या पाना ज़रूरी नहीं है? सम्बन्धों में सही संवाद (डायलॉग) की स्थिति में, मैं समझता हूँ, देना-पाना साथ-साथ चलता है। पाने के इस भाव की पूर्ति न होने का कारण ही मुझे लगता है कि निर्मल पर मेरा अब कोई अधिकार नहीं रहा, मैं चाहूँ तो उसे न डाँट सकता हूँ न गुस्सा कर सकता हूँ। क्योंकि जानता हूँ कि उस डाँट और गुस्से को समझा ही नहीं जाएगा। न ही मैं उससे दिल की कोई बात कर सकता हूँ। अब हम दोनों ही वयस्क हो गये हैं, और वयस्क हो जाने पर आपस में दिल की बात कही जा सकती है, पर वैसा कोई आधार मैं निर्मल के साथ नहीं देख सका। दरअसल मुझे निर्मल पर तरस आता है, सच्चा तरस। उसके व्यक्तित्व में कोई सम्भावना विकसित ही नहीं हुई। इसके व्यक्तित्व का विकास हुआ ही नहीं, वह अपनी छोटी-सी दुनिया में कैद हो गयी। और यहीं मुझे उसके पति महोदय पर गुस्सा आता है। इस आदमी ने कभी निर्मल के व्यक्तित्व को पनपने नहीं दिया। ...उसने निर्मल को एक बुर्जुवा सुरंग में बन्दी बना दिया।
पर शायद मैं दूसरों की ज़िन्दगी में बहुत ज़्यादा दखलअंदाजी करने लगा हूँ। शायद यह मेरे आलोचनात्मक मष्तिष्क की मजबूरी है। खैर जो बातें मेरे दिमाग़ में आती हैं, मैं तुम्हें लिखता जा रहा हूँ।
तुम्हारा यह पत्र बहुत उदासी से भरा था, बहुत भावपूर्ण था। तुमने जो उस पागल बुढ़िया और बिल्लियों वाले घर का चित्र खींचा है, वह बहुत सटीक और रोचक है। मैं तो कहूँगा कि बजाय राजनीतिक रिपोर्ट के तुम उस प्रकार के जन-जीवन के अनुभव-चित्र भेजा करो तो ज़्यादा अच्छा हो। मैं चाहता हूँ कि तुम मुझे बराबर कुछ न कुछ लिखती रहो-कुछ भेजना है उस भाव से आक्रान्त होकर नहीं-बस सहज रूप से।...सुख या दुःख में मैं भी हमेशा तुम्हारी भावना के तार से जुड़ा रहूँगा।
बिना किसी विगलित भाव के, मुझे ऐसा लगता है कि मैं भी तुम्हारी तरह बहुत अकेला पड़ गया हूँ। तुम परिवारहीन हो और मैं परिवार में हूँ। पर तात्विक दृष्टि से मेरे अकेलेपन और तुम्हारे अकेलेपन में कोई अन्तर नहीं है। तुम्हारे चारों तरफ एक बिना पहचाने चेहरों की भीड़ है और मेरे चारों तरफ, जाना-पहचाने चेहरों की भीड़। पर उस भीड़ के अकेलेपन में कोई फ़र्क नहीं।
...आजकल घर में सिर्फ़ चार जने हैं। माँ ठीक-ठाक हैं। उपन्यास पढ़ती हैं। रात को हीटर के सामने चारों जनें बैठ कर नयी-पुरानी बातें करते हैं। कभी रात को बड़ी देर हो जाती है। माँ तुम्हें बराबर याद करती हैं। तुम्हारी चिट्ठी आने में जब भी देर होती है तो मुझसे पूछने लगती हैं। यहीं एक मजेदार बात याद आ रही है। निर्मल यहाँ अक्सर सरोज से पूछती रहती थीं कि ‘क्या मुझे माँ याद करती रहती थीं?’ सरोज मुस्करा कर रह जाती थीं। ज़ाहिर है इसका मतलब क्या है। जब कि तुम्हारे बारे में माँ निर्मल के सामने ही अक्सर चर्चा करती रहती थीं।
(अधूरा पत्र)
13-3-73
प्रिय प्रेमा,
तुम्हारा पत्र कल मिला। श्रुति की अकेली वाली फ़ोटो बहुत अच्छी आयी है, भावपूर्ण । श्रुति के चित्र इस बार ज़्यादा मेच्योर लगे।
......
हाँ, जनवरी में लिखी तुम्हारी चिट्ठी मिल गयी थी। इस बार चिट्ठी में अपने लिए कुछ न पाकर माँ को थोड़ी निराशा हुई। वे तुम्हारी चिट्ठी की उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा करती रहती हैं। इस चिट्ठी में उनके लिए कुछ ख़ास न था। उन्हें विश्वास नहीं होता इतनी लम्बी चिट्ठी में तुम्हारा हालचाल विस्तार से नहीं लिखा है। एक बात प्रेमा, मैंने महसूस किया है कि जब बाबूजी यहाँ नहीं होते, माँ थोड़ा अधिक नर्मल हो जाती हैं मानसिक रूप से। वैसे बाबूजी की अनुपस्थिति को वे भीतर ही भीतर बराबर महसूस करती रहती हैं, शायद एक तनाव के रूप में।
16-3-73
प्रेमा,
यह पत्र पूरा नहीं कर पाया। इस बीच एक और चिट्ठी मिली। बाबूजी भी एक दिन पहले बम्बई से आ गये थे। श्रुति की अकेली समुद्र में लाइफबेल्ट वाली फ़ोटो बड़ी प्यारी आयी है। एक वह जिसमें तुम श्रुति को लेकर शायद किचन में खड़ी हो, वह बहुत अच्छी है-भावांकन की दृष्टि से, प्रकाश अलबत्ता उसमें अच्छा नहीं है। अगर उसमें लाइट एंड शेड का कन्ट्रास्ट होता तो बहुत अच्छी फ़ोटो होती। तैराकी की पोशाक वाली तुम्हारी फ़ोटो धुँधली आयी है। लगता है फ़ोटो खींचनेवोला नौसिखिया है। सरोज बहुत खुश हैं कि उनके अलबम के लिए इतनी तस्वीरें फिर हो गयीं।
तुम्हारी चिट्ठी नीलू के पास पोस्ट कर दी है। उसका पता तुम नोट कर लोः श्रीमती नीलिमा घोष, द्वारा श्री शरद घोष, बैंक ऑफ़ बड़ौदा, टांडा, जिला रामपुर (उत्तर प्रदेश,) भारत। नीलू को मैंने एक छोटा-सा पत्र लिख दिया है।
सरोज की तबियत अब तक ठीक चल रही है। कमज़ोरी उसे महसूस होती है। खान-पान ठीक है। मतलब क़रीब आधा लीटर दूध, एक अण्डा, एक अमरूद, एक केला प्रतिदिन और विटामिन तथा आयरन की कैप्सूल। हफ़्ते में एक बार हारमोन का इंजेक्शन लगता है जो गर्भ की सुरक्षा के लिए है। चार महीने पूरे होने पर लेडी डॉक्टर को दिखाना है, ऐसा ही डॉक्टर ने बताया। यानी 8 मार्च के बाद। सरोज कभी-कभी घबराती है, पहले वाली दुर्घटना की स्मृति से वह मुक्त नहीं हो पायी है। मैं पूरी सावधानी बरत रहा हूँ, उसे बस वगैरह चढ़ने नहीं देता, भारी काम भी मना कर दिया है।
जयपुर की मेरी यात्रा बड़ी ताजगीपूर्ण रही। बहुत दिनों से मैं एक बदलाव चाह रहा था। वहाँ की सभी दर्शनीय जगहें और चीज़ें देखीं। वहाँ का ऐतिहासिक आमेर महल बहुत आकर्षक है। जयपुर के राजस्थानी लोग मुझे बहुत भाये, बड़े सीधे सादे, ज़िन्दादिल और भले। सहायता करने को हमेशा तत्पर। जयपुर में मैं क़रीब पाँच दिन रहा, वहाँ से कानपुर गया, वहाँ भी दो दिन रहा रास्ते में कुछ घण्टे आगरे भी रहा पर आगरा बड़ा सूना लगा। ताजमहल एक बार झाँक आया। कानपुर में दफ़्तर की तरफ से एक कान्फ्रेन्स में गया था। बाहर घूमने के मौका, समय कम मिला। पर सच पूछो तो वहाँ कुछ था भी नहीं देखने को। कानपुर जयपुर का पूरा कन्ट्रास्ट है। कुल मिलाकर यह हफ़्ते-दस दिन का सफ़र अच्छा रहा, मैं कई स्तरों पर साधारण जनता के सम्पर्क में आया, और मुझे लगा कि मेरे देश में अब भी बहुत जान है। यहाँ की समाजिक सडाँध के बावजूद, यहाँ की अज्ञानता और रूढ़ियों और दकियानूसी के बावजूद यहाँ की ग़रीब जनता में बहुत अमृत है जो शहरों में इकट्ठा हो गयी ज़हर की तमाम गाँठों को धो सकता है। मुझे सहसा यह अहसास हुआ कि हम जैसे लोगों का जीवन उस नकली मध्यवर्गीय घुटन के माहौल में नहीं, बल्कि यहाँ की जनता की संघर्षशील चेतना में है। यहाँ कोई बनावट नहीं, कोई छद्म नहीं, यहाँ बेअख़्तियार निकली हुई गाली की तरह सब कुछ नंगा, बेलौस और शुद्ध है। ऐसा मुझे थोड़ी देर को लगा और मुझे यह भी लगा कि इस अहसास के सहारे बड़े से बड़े मुखौटाधारी समाज का मुकाबला किया जा सकता है, उसके खोखलेपन पर थू की जा सकती है।
तुम्हारे पहले वाले पत्र की कई बातें दिमाग़ में हैं जिनका मैं विस्तार से उत्तर देना चाहता था। इस वक़्त शायद न लिख पाऊँ। तुमने अपने बारे में जो निर्णय लिया है, जो तुम करना चाहती हो, उसके बारे में मैं सोचता रहा हूँ। तुमने कितना कुछ सहा है फिर भी अपनी जिजीविषा को नष्ट नहीं होने दिया है, यह मैं जानता हूँ। तुम्हारा जीवन-अनुभव भी हम सबके मुक़ाबले ज़्यादा यथार्थ और विविध रहा है और तुम्हारी दृष्टि भी संस्कार-मुक्त कुछ ज़्यादा ही रही है। मैं तुमसे सिर्फ़ इतना कहूँगा कि कोई निर्णय ऐसा मत लेना जिससे तुम्हारे व्यक्तित्व की मूल प्रतिज्ञा -तुम्हारा स्वतन्त्र तेजस्वी रूप -खण्डित हो। तुममें मैं कभी-कभी एक Bravado के लक्षण देखता हूँ जो एक तरह का सेन्टीमेन्टल रुझान ही है, अतिसाहसिकता, जीवन को मात्र प्रयोग या एक्स्पेरिमेंट की वस्तु समझना भी एक सेन्टीमेन्टल दृष्टिकोण ही है। जीवन का कोई भी कर्म और उस कर्म के पहले का संकल्प अपने आप में अकेला या क्षणबद्ध नहीं होता, बल्कि वह पीछे गुज़र गये और आनेवाले क्षणों की एक पूरी श्रृँखला को प्रभावित करता है। इसलिए मनुष्य समय बीतने के साथ परिपक्व होता जाता है। क्यों? क्योंकि वह विगत क्षण के बीच प्रवाहित समय धारा में बहते वर्तमान की वास्तविक स्थिति का मूल्यांकन भर कर सकता है। तुमने एक प्रयोग यहाँ अपने जीवन के साथ किया था। मुझे याद आता है जब मैं इलाहाबाद में था तब तुमने कुछ इसी आशय का पत्र मुझे दिल्ली से लिखा था। उसी समय तुम तो. के परिचय में आयी थीं। मैं तुम्हारे उस समय के निर्णय से इस समय के निर्णय की तुलना नहीं करता क्योंकि तुम अब काफ़ी परिपक्व हो गयी हो। पर मुझे यह भी लगता है कि वहाँ के जीवन-मूल्यों का खिंचाव तुम पर ज़बर्दस्त पड़ा है। तुम्हारी एकाकी और संघर्षशील स्थिति, तुम्हारे कटु अनुभव और आत्मीयता के परिवेश से दूरी इसमें सहायक हुए हैं। फिर भी मुझे यह भी नहीं लगता कि तुम पूरी तरह भारतीय संस्कारों से मुक्त हो पायी हो। तुम वैचारिक रूप से भारतीय संस्कार के पिछड़ेपन के विरुद्ध हो, पर भावात्मक रूप से अब भी कहीं न कहीं उससे जुड़ी हुई हो। इसका एक सीधा कारण यह है कि वहाँ तुम्हें शायद एक भी व्यक्ति नहीं मिला। वहाँ के लोगों के प्रति आकर्षित हुई हो, प्रभावित हुई हो, पर भावना से तुम वहाँ पूरी तरह सुरक्षित महसूस नहीं करतीं। इस समस्या के हल के लिए तुम कभी-कभी एक युनिवर्सल मैन की कल्पना करती हो। एक ऐसे आदमी की जो देश की सीमाओं से परे हो, आधुनिक हो। इस कल्पना को तुम अपने लिए महसूस कर-कर के सच बना लेना चाहती हो। पर एक गाँठ फिर भी रह जाती है। मनुष्य किसी आइडिया को नहीं, हाड़-माँस के यथार्थ मनुष्य को अपना आपा देना चाहता है। और युनिवर्सल मैन की कल्पना महज एक आइडिया ही है। तो इस तरह भी अपनी समस्या का हल न पाकर तुम फिर Bravado का रुख अख्तियार करती हो, फक्कड़पन और साहसिकता की तरफ झुकती हो। जब कि खुद जानता हूँ कि तुम्हारे भीतर सौ फीसदी एक सीधी सादी घरेलू किस्म की नारी छिपी हुई है जो एक घर चाहती है और घर की सुरक्षा। हर नार्मल औरत की यही शक्ल होती है और मैं तुम्हें नार्मल ही पाता हूँ तुम्हारी तमाम मनोवैज्ञानिक उलझनों और समस्याओं के बावजूद। जो चीज़ मुझे तुम्हारे प्रति आश्वस्त करती रही है, और अब भी आश्वस्त हूँ, वह है तुम्हारा तेजस्वी व्यक्तित्व जो बहुत जल्दी झूठ को झूठ कर के जान लेता है। तुम ज़्यादा देर तक अपने को -चाह कर भी- भुलावे में नहीं रख सकतीं। कोई भी नार्मल स्त्री नहीं रख सकती। और एक बात बताऊँ प्रेमा, हमारे भारतीय समाज के मूल्य, हमारे समाज के तमाम पिछड़ेपन और ढोंगीपन के बावजूद, मूल में पाश्चात्य समाज के मूल्यों के प्रभाव से ज़्यादा स्वस्थ हैं। मैं इस पर बल देकर कहूँगा, हमारे यहाँ के जीवन मूल्य ज़्यादा स्वस्थ हैं, अभी भी। यह बात मैं किसी पूर्वग्रह से नहीं कह रहा हूँ, न इसमें अपने देश की अन्ध भक्ति छिपी है। मुझे अपने देश की कमियों का ज्ञान है, जितना भी इस ज्ञान को प्राप्त करने की शक्ति मुझमें है। पर थोड़ी-सी झलक जो कभी-कभी मुझे यहाँ की साधारण जनता की मिल जाती है, उससे मुझे यही लगता है। कि पिछड़े, ग़रीब होते हुए भी हमारे यहाँ सम्भावना है। हमारे यहाँ ‘समाज’ है। पश्चिम की तरह हम व्यक्ति में नहीं बदल गये हैं। व्यक्ति जो समाज से कट कर अन्ततः अकेला है, और उसकी तमाम भौतिक उपलब्धियाँ एक तरह का हिरोइक्स, एक तरह की साहसिक मुद्राएँ अपने खण्डित अस्तित्व को छिपाने के लिए हैं। फिर भी हम पश्चिम की तरफ आकर्षित होते हैं। और मैं जानता हूँ कि यह आकर्षण सतही नहीं है, इसके पीछे कोई गहरे कारण हैं। मैं इन कारणों का विश्लेषण अभी नहीं कर पाया हूँ।
तो - मैं न जाने क्या-क्या लिख गया। क्या मैंने कोई साफ़़ बात तुमसे कही है? शायद नहीं। मैं कह भी क्या सकता हूँ। तुमसे सिर्फ़ अपनी भावनाओं का अदान-प्रदान भर कर सकता हूँ ।मेरी इन भावनाओं में ही तुम्हारे लिए कोई बात हो तो हो, वरना अलग से कुछ कहना तो एक प्रकार की दूरी को निभाना है।
तुमने इस बार भी अपना लिखा गद्य नहीं भेजा, मैं उत्सुकतापूर्वक प्रतीक्षा कर रहा हूँ।
दिनमान में अभी तुम्हारी सामग्री नहीं छपी, मुझे लगता है कि शायद वे न छापें। आखिर को रघुवीर सहाय बुजदिल ही निकले।
तुम्हे टेलिफ़ोन ऑपरेटर वाली नौकरी मिल गयी कि नहीं, लिखना। यहाँ का शेष समाचार ठीक है। माँ सकुशल हैं। मुन्ना पढ़ने में मस्त। इस पत्र के साथ धूमिल की एक लम्बी कविता भेज रहा हूँ । लिखना कैसी लगी।
श्रुति को प्यार।
23-5-73
प्रिय प्रेमा,
कल तुम्हारी चिट्ठी मिली। कल ही मैं कोपागंज से लौटा हूँ। 8 मई को मैं दिल्ली से गया था, इलाहाबाद दो दिन रहा, फिर कोपागंज। लौटते समय भी दो दिन इलाहाबाद रहा साथ में मुन्ना थे, सरोज यहीं रही। डॉक्टर की हिदायत थी कि सरोज के लिए यात्रा ठीक नहीं। तुमको याद होगा, मैंने लिखा था कि कोपागंज में मेरे साले की शादी थी। शादी ठीक-ठाक सम्पन्न हो गयी। मैं वहीं से तुम्हें पत्र लिखना चाह रहा था, यह एरोग्राम साथ ले गया था, पर पता ठीक-ठीक याद नहीं रहा था, दूसरे शादी के घर में फुर्सत और एकान्त कम ही मिलता है। साले साहब की बीबी एम.ए. पास हैं, देखने-सुनने में ठीक-ठाक, लम्बी, स्वस्थ, आजमगढ़ शहर की रहनेवाली। आजमगढ़ में ही मामा श्रीराम से भेंट हुई। वे वहाँ के एक कॉलेज में प्राध्यापक हैं, मामी और तीन बच्चों के साथ रहते हैं। कस्बई जीवन से पीड़ित, दुःखी और कुण्ठित हैं। बाद में एक दिन कोपागंज भी मिलने आये थे। काफ़ी बातें हुईं।
कोपागंज में इस बार बड़ा अच्छा लगा। चारों तरफ स्नेहपूर्ण वातावरण। साले, सालियाँ, सास ससुर सब हाथों हाथ लेने को तैयार। सच, बड़ा सुरक्षित और महफ़ूज अनुभव किया अपने को। दिल्ली के तनाव और भागदौड़ बिल्कुल भूल गये थे। दिन को गर्मी से थोड़ी तकलीफ़ होती थी, पर रातें बड़ी मोहक होती थीं। छोटा-सा घर है, पर व्यवस्था ठीक-ठाक थी। मुन्ना का मन भी खूब रमा। नयी दुलहन से उनकी खूब गपशप हुई।
इलाहाबाद में तबियत ख़ास जमी नहीं। अब इलाहाबाद में पता नहीं क्यों तबियत जमती नहीं। दूधनाथ ने अपना घर ठीक-ठाक करा लिया है। निर्मल सुविधाओं का ध्यान तो रखती थीं। पर मन जमता न था। निर्मल के दोनों बच्चे बड़े प्यारे हैं। मुन्ना से खूब हिले हैं। मुन्ना का इतना जल्दी चले जाना उन्हें अच्छा नहीं लगा।
अब दिल्ली आ गये हैं। कल से दफ़्तर का क्रम चालू हो जाएगा। आज मेरी 17 दिन की छुट्टी समाप्त होती है। सरोज सकुशल है। आज ही लेडी डॉक्टर के पास गये थे। बच्चे का विकास ठीक चल रहा है। अगस्त के प्रथम सप्ताह में डिलेवरी होने की आशा है। कोपागंज से सरोज की माँ आने को कह रही थीं। और कौन भला आ सकता है ऐसे समय। निर्मल के अपने बच्चे-घर की समस्या है। शोभा की अपनी अलग समस्या। नीलू तो बच्ची ही है। तुम्हारा न रहना ऐसे में बड़ा खटकता है, मुझको भी, सरोज को भी।
तुम्हारी चिट्ठियाँ मैंने शमशेर जी से ले ली हैं। उन्हें पैकेट में रख लिया है। कल दफ़्तर से रजिस्ट्री कर दूँगा।
दिनमान का तुम्हारे लेख का पैसा उन लोगों ने अभी तक नहीं भेजा। पता नहीं क्या मंशा है र.स. की। पत्रों का जो अंश दिया था उसके बारे में भी वे चुप हैं।
तुमने जो ग्यारह डालर के नोट मेरे पास भेजे थे, वे मेरे पास अब तक सुरक्षित रखे हैं। मैंने उन्हे भुनाया नहीं। तुम्हारी और चीज़ों की तरह वे भी मेरे पास स्मृति स्वरूप रखे हैं।
प्रेमा, सच मानो यह जान कर मुझे बहुत राहत ओर सुख मिला कि तुम्हारी आर्थिक स्थिति पहले से बेहतर है। तुम अब खुल कर खर्च कर सकती हो। हम लोगों का काम भी किसी न किसी तरह चल रहा है। तुम चिन्ता न करना।
मुन्ना इस सत्र से विश्वविद्यालय में प्रवेश करेगा। हायर सेकेण्ड्री का रिजल्ट जून में आ जाएगा। फिर विश्वविद्यालय में एडमिशन की भागदौड शुरू होगी। मुन्ना साइन्स लेकर चल रहा है।
माँ बाबूजी ठीक-ठाक हैं। माँ तुम्हारी चिट्ठियों के लिए पूर्ववत् उत्सुक रहती हैं। नीलू की चिट्ठी इधर काफ़ी दिनों से नहीं आयी। प्रेमा, तुम शोभा के प्रति कुछ निर्मम हो उठी हो। मुझे तो उस पर दया आती है। मैंने उसका किया सब कुछ भुला दिया है, क्षमा कर दिया है। अब मेरे मन में उसके लिए न कोई ग्लानि है न रोष, न नाराज़गी। महीने दो महीने पर कभी वह आ जाती है तो ठीक-ठाक व्यवहार कर लेता हूँ। सच पूछो तो मैं तुम्हारे सुझाव पर चल रहा हूँ। तुम भी उसे क्षमा कर दो।
तारा की मूर्ति वहाँ नहीं देखी मैंनें। मेरा ख्याल है वह मूर्ति डॉक्टर अपने साथ ही लेकर भागे थे। तुम्हारी कोई भी चीज़ जो लाजपत नगर में है, वापस माँगना मेरे लिए बहुत दुष्कर कार्य है। वैसे तारा की मूर्ति मैंने वहाँ कभी नहीं देखी।
तुमने जो फ़ोटो भेजने को लिखा है वह लगता है भूल गयीं। फ़ोटो भेजो और अपनी रचनाएँ भी।
सरोज तुम्हें याद करती है। सस्नेह, मलयज
2-7-73.
प्रिय प्रेमा,
तुम्हारा एक पत्र मई में आया था, उसके बाद से तुम्हारा कोई ख़त नहीं मिला। मैंने कोपागंज से लौट कर तुमको एक ख़त और डॉक्टर के खतों का बण्डल रजिस्टर्ड डाक से तुम्हें भेजा था, उसको भी महीने भर हो गये। इस बीच तुम्हारा कोई पत्र न पाकर बहुत चिन्तित हूँ। कृपया इस पत्र को पाते ही फौरन अपना हालचाल लिख भेजो। कल माँ भी पूछ रहीं थीं कि प्रेमा की चिट्ठी आयी कि नहीं।
मैं आशा करता हूँ कि तुम्हारी तबियत ठीक होगी। इस नयी नौकरी में काम का बोझ भी पहले से शायद कम होगा न? तुमने अपनी छुट्टियाँ ली कि नहीं? कहीं गयी थीं छुट्टियों में या वहीं रहीं? अपना और श्रुति का पूरा हालचाल लिखना। मुकदमे की कार्यवाई का भी विवरण देना।
कोपागंज से लौटने के बाद मैं दिल्ली की गर्मी से ही परेशान रहा, अब उमस के कारण यह गर्मी और भी असह्य होती जाती है। न दफ़्तर में चैन न घर में।
मुन्ना हायर सेकेण्ड्री की परीक्षा सेकेण्ड डिविजन में पास हो गये। पर नम्बर उनके आशा के विपरीत कम आये- क़रीब 50 प्रतिशत। अतः युनिवर्सिटी में साइंस के किसी सब्जेक्ट में आनर्स में उन्हें दाखिला नहीं मिल सकता। मुन्ना आनर्स लेकर पढ़ना चाहते थे। अब उन्हें साइंस का कोई जनरल ग्रुप लेना पड़ेगा। युनिवर्सिटी में रजिस्ट्रेशन करा दिया है। दाखिले के लिए अभी असली दौड़-भाग बाकी है। यहाँ युनिवर्सिटी में प्रवेश पाना भी एक समस्या है। हम चाहते हैं कि युनिवर्सिटी के कैम्पस कॉलेज में से किसी एक में मुन्ना का हो जाये तो घर के नज़दीक रहेगा। पर इन कॉलेजों में प्रवेश मेरिट के आधार पर होता है और मेरिटवान लड़कों की यहाँ कमी नहीं है। अजित कुमार से कहा है, देखो शायद उनके कॉलेज में हो जाय। बाबूजी आजकल बम्बई गये हुए हैं, अपने कारोबार के सिलसिले में । उनके कारोबार का कोई आर्थिक परिणाम तो आ नहीं रहा, पर बाबूजी आशा किये जाते हैं।
सरोज का यह आठवाँ चल रहा है। 8 जुलाई को नवाँ शुरू होगा। सुस्ती आ गयी है और उठने-बैठने में थोड़ी तकलीफ़ होती है। फिर भी घर के कामकाज कर ही लेती हैं। लेडी डॉक्टर को हर पन्द्रह दिन पर दिखाने ले जाता हूँ। इस बार प्राइवेट नर्सिंग होम में ही व्यवस्था कर रहा हूँ। उसमें क़रीब 700 रूपए का खर्च आएगा। हालाँकि यह खर्च निकालना बड़ा मुश्किल लग रहा है, पर पिछले अनुभव को देखते हुए कोई खतरा मोल लेना नहीं चाहता। नवें महीने के आखिरी दिनों में सरोज की माँ को बुलवाना पड़ेगा। और दूसरा कोई देखने भालनेवाला है ही कौन?
माँ ठीक-ठाक हैं। इधर उनका पढ़ना कम हो गया है। चुपचाप पड़ी रहती हैं।
इधर कई एक हफ़्ते से मेरे यहाँ मेरे एक लेखक दोस्त ठहरे हुए थे- श्री रमेशचन्द्र शाह। उनकी वजह से बड़ा अच्छा रहा। भले आदमी हैं, कुशाग्र बुद्धि के और साहित्य की गम्भीर समझ रखनेवाले।
शमशेरजी, शोभा, अजय सिंह और उनकी पुत्री सकुशल हैं। शमशेरजी की भाभी बीमार हैं, सो वे उनके यहाँ गये हुए हैं।
नीलू की काफ़ी दिनों से चिट्ठी नहीं आयी। शरद का ट्रान्सफर अब आगरे हो गया है। टाँडा से निजात मिली।
दिनमान और रघुवीर सहाय की खोज ख़बर लेना मैंने बन्द कर दिया है। तुम्हारे पहलेवाले प्रकाशित लेख का पारिश्रमिक भी अभी तक र.स.ने नहीं भिजवाया।
तुमने अपना लिखा अब तक कुछ नहीं भेजा, न कविताएँ, न कहानी, न गद्य। तुम अब चिट्ठियाँ भी संक्षिप्त भेजती हो।
शेष ठीक है। फ़ौरन लिखो। रजिस्टर्ड डाक से। बग़ैर रजिस्ट्री के डाक खो जाने का डर इधर बढ़ गया है। मुझे तो लगता है कि कहीं तुम्हारी भेजी कोई चिट्ठी गायब तो नहीं हो गयी।
श्रुति को प्यार । फ़ोटो भेजना।
पुनश्चः मेरे आलोचनात्मक लेखों की एक किताब छपने का सिलसिला कुछ बनता नज़र आ रहा है। देखो।
6-8-73
प्रिय प्रेमा,
तुम्हारे दो-तीन पत्र इधर मिले। एक वह जो तुमने श्री धानसिंह के हाथ भेजा था, एक वह जो श्रीमती मोहिनी बजाज के द्वारा, और एक वह जिसमें तुमने श्रुति की बनायी तस्वीरें भेजी हैं। श्री धनसिंह ने 20 डालर दे दिये थे और आज मैं श्रीमती बजाज से जा कर पार्सल ले आया। यह दफ़्तर से लिख रहा हूँ, पार्सल खोल कर देखने का मौका नहीं मिला, पर ऊपर से देखने पर लगता है कि तुम्हारे नन्हे मेहमान उसे पाकर बड़े खुश होंगे (अभी तशरीफ नहीं लाये हैं)।
धानसिंह भारत आते ही पंजाब चले गये थे, अतः मेरे यहाँ देर से आये। यहाँ बहन-बहनोई शायद रहते हैं, उनका पता मैंने ले लिया है। वे दो-तीन महीने में जायेंगे। वैसे कह रहे थे कि कोई निश्चित नहीं है। वे साड़ी-ब्लाउज ले जाने को राज़ी हो गये हैं, हल्की-फुल्की।
श्रीमती बजाज से थोड़ी-सी बातें हुई। तुम्हारे बारे में, तुम्हारे संघर्ष के बारे में बताया।
तुम्हारी छुट्टियाँ खत्म हो गयीं होंगी। श्रुति के स्केच पहले से जटिल और मेच्योर लगते हैं। उसकी सब तस्वीरें मैंने इकट्ठी कर रखी हैं।
तुम्हारे स्वास्थ्य को लेकर मुझे चिन्ता बराबर बनी रहती है। तुम्हारा स्वास्थ्य ही तुम्हारा एकमात्र साथी वहाँ है। सारे तनाव तुम्हें शरीर से ही झेलने हैं । तुम्हें भरसक अपना स्वास्थ्य ठीक रखना चाहिए ।
सरोज की तबियत इधर खास ठीक नहीं है, काम-धाम नहीं हो पाता, शरीर गर्भ के बोझ से काफ़ी भारी हो गया है। फिर भी वह चारपाई पर नहीं पड़ी रहती, चलना फिरना, छोटे मोटे काम करना जारी है। आजकल सरोज की माँ आ गयी हैं। वे ही चौका सम्भालती हैं। सरोज को राहत है। सरोज का नवाँ महीना 8 अगस्त को पूरा हो जायेगा। पता नहीं प्रसव कब होगा। डॉक्टर ने सम्भावित तिथि 15 अगस्त दी है। एक प्रकार का मानसिक तनाव तो है ही। क्योंकि मेरे ओर बाबूजी के दफ़्तर तथा मुन्ना के युनिवर्सिटी चले जाने के बाद घर पर कोई पुरुष नहीं। दर्द आने पर थोड़ी समस्या तेज़ हो जाएगी। खैर, ईश्वर चाहेगा तो सब ठीक हो जायेगा। हो सकता है यह पत्र जब तक तुम्हें मिले तब तक तुम्हारे नये मेहमान तशरीफ़ ला चुके हों। माँ बाबूजी ठीक हैं। माँ ने तुमको एक चिट्ठी लिख छोड़ी है, जो मैं तुम्हे अगले पत्र के साथ भेजूँगा।
मुन्ना का प्रवेश करोड़ीमल कॉलेज में हो गया है। अब वे विधिवत युनिवर्सिटी छात्र बन गये। स्वास्थ्य उसका बहुत अच्छा नहीं है। मुझे खुद फील होता है। इस उम्र में उसे जितना मिलना चाहिये, नहीं मिल पाता। फिर वह खाने-पीने में नखरीला पहले से ही है।
नीलू आजकल आगरे में ही है। शरद का आगरे तबादला हो गया। शोभा-अजय सिंह की ख़बर दो महीने से नहीं मिली। शमशेरजी भी पता नहीं कैसे हैं।
तुम अपनी कविता ज़रूर भेजो। और भी गद्य जो लिखा हो भेजो।
मामा श्रीराम ने कुछ दिन पहले तुम्हारा पता माँगा था, उनका एक कविता-संग्रह छपा है, वह तुम्हें भेजना चाहते हैं। पता नहीं भेजा कि नहीं। उधर अर्से से उनका पत्र नहीं आया। माचवे जी से मिले मुद्दत हो गयी। इन लोगों से मिलने की अब कोई भीतरी प्रेरणा नहीं होती। पता नहीं क्यों। लगता है सब झूठे पड़ चुके हैं। चाहे पुरानी पीढ़ी हो या नयी पीढ़ी।
इधर लेखन भी मेरा क़रीब एक साल से ठप्प है। कुछ लिखा ही नहीं जा रहा है। बेचैनी होती है, पर ज़बरजस्त प्रेरणा नहीं। घर में एकान्त नहीं मिल पाता। चिन्तन करने के लिए, आत्मस्थ होने के लिए कहीं बाहर जाकर कुछ दिन रहना चाहता हूँ पर कहाँ? कुछ समझ में नहीं आता। पिछले दिनों रमेशचन्द्र शाह जब मेरे यहाँ आकर हफ़्ते दस दिन रहे तो लगता है एक बार फिर साहित्य के केन्द्र में आ रहा हूँ । पर उनके जाने के बाद वह केन्द्र दूर होता गया। अब नये ‘मेहमान’ सम्बन्धी तनाव है-प्रैक्टिकल तनाव। शायद यह स्वाभाविक है।
तुम अपना समाचार लिखना। 18 अगस्त को रक्षाबन्धन है। तब तक यह पत्र तुम्हें मिल जाएगा। 21 अगस्त को कृष्ण जन्माष्टमी है। सस्नेह, मलयज
21-10-73
प्रिय प्रेमा,
जो ख़त 3 अक्तूबर को खत्म कर भेजा था वह मेरे सामने है। इसके पहले तुम्हें एक लिफ़ाफ़ा भेज चुका हूँ। तुम्हारे सारे ख़त मुझे मिल गये थे।
...मैं तुम्हें जज नहीं कर सकता। मेरे पास तुम्हे जज करने का कोई प्रतिमान नहीं है। तुम्हारी यन्त्रणा, और संघर्ष का जो बिन्दु है उस पर मैंने अपने को कभी तुमसे अलग, सुरक्षित और तटस्थ महसूस नहीं किया। तब भला मैं तुम्हे कैसे जज कर सकता हूँ। अगर मैंने पहले कभी इस तरह का अहसास तुम्हे दिया हो तो वैसा पत्र-लेखन की आसावधानी या जल्दीबाजी के कारण हुआ है, मेरी नियत कभी वैसी नहीं रही। तुम्हारा पत्र पढ़ कर बहुत उदास हो गया हूँ- इस पीड़ा को दूसरा कोई नहीं समझ सकता। इस पीड़ा को मैं किसी से शेयर भी नहीं कर सकता। तुम्हारा एक वाक्य कि ‘मेरा कोई भविष्य नहीं’ मुझे भीतर तक चीर गया। मैं कैसे कहूँ कि यह तुम्हारी घोर निराशा और हताशा के क्षण में जन्मा वाक्य है। आखिर अपने पूरे भविष्य को आदमी क्षण में कैसे देख सकता है। क्या वर्तमान में UNPREDICTABLE कुछ भी नहीं? ऐसा कोई छिपा तत्व है जो हमें आगे चकित कर दे? यह अन्धा आशावाद नहीं है,चमत्कार में विश्वास करने जैसा नहीं, यह शायद ह्यूमन ड़ेस्टिनी का ही एक छुपा सत्य है-कि भविष्य के लिये कुछ अपरिभाषित घटे। पर तुम्हारी उदासी कभी-कभी मेरे विश्वास को डिगा देती है। अपनी सृष्टि अपनी बाहों में झुलाने का सुख भी इस उदासी को दूर नहीं कर पाता।
पता नहीं यह क्या बात है कि मन अनेक आशंकाओं में डूबा रहता है, भीतर शान्ति जैसे खण्ड-खण्ड हो गयी लगती है। फलस्वरूप मनःस्थिति किसी वस्तु पर स्थिर नहीं रहती, लगता है उस वस्तु को पकड़ते ही वह झूठी सिद्ध हो जाएगी। उस मनःस्थिति में आदमी और चीज़ें दोनों ही असत्य मालूम पड़ने लगती हैं। मैं अपने दिल से पूछता हूँ, यहाँ इस दिल्ली में है कोई ऐसा व्यक्ति जो मेरी परेशानी को समझ सके? मेरी सत्ता को समझ सके?-उत्तर एक नकार में मिलता है।
इलाहाबाद में एक शिवकुटी लाल हैं जिनसे मुझे निःस्वार्थ लगाव मिला है। पर उनकी अपनी बहुत-सी समस्याएँ हैं, संघर्ष हंै। बस और कोई नहीं।
बाहर एक अकेली तुम ।
और तुम भी किन बवण्डरों में चोट खाती चक्कर लगाती हुई!
अगर मैं तुम्हें जज करूँ तो अपने को भी जज करना होगा। मैंने तुमसे बहुत कम सहा है, झेला है, फिर उस ‘थोड़े’ से कहीं ‘बहुत’ जज किया जा सकता है क्या? सारी मान्यताएँ और सिद्धान्त एक व्यक्ति के जीवित संघर्ष के आगे छोटे हैं, अधूरे हैं।
उधर मैंने नेरूदा की कुछ कविताएँ पढ़ी हैं। नेरूदा को गम्भीरता से पढ़ने का यह मेरा पहला ही अवसर था। मैं उसे एक रोमाटिंक कवि भर समझता था, पर जो कविताएँ मैने इधर पढ़ी हैं, उनमें आग है। यहाँ पूँजीवादी प्रकाशकों की कृपा से नेरूदा की शुरू की ही कविताएँ -जो प्रेम कविताएँ हैं और बहुत रोमाटिंक-उपलब्ध हो जाती हैं। नेरूदा की सशक्त कविताओं का अँग्रेज़ी अनुवाद बहुत अल्प हुआ है, जो हुआ है, वह भी उपलब्ध नहीं है। मैं नेरूदा की कुछ और कविताएँ पढ़ना चाहता हूँ, पर यहाँ मिलती नहीं। तुम तो मूल स्पेनी में पढ़ लेती होगी, अतः गहरायी से समझा होगा। लैटिन अमरीकी देशों में अनेक कवि हैं जो नेरूदा की परम्परा में क्रान्तिकारी कविताएँ लिख रहे हैं। चिले में ही निकानोर पार्रा नाम के प्रसिद्ध कवि हैं । काश तुम्हें इतनी मानसिक फुर्सत और इत्मिनान होता कि इन कवियों के बारे में मूल स्पेनी पढ़ कर कुछ लिख सकतीं।
तुमने फ़िल्मों के नाम पूछे हैं। फ़िल्में तो इधर कई अच्छी बनी हैं जैसे -मायादर्पण (निर्मल वर्मा की कहानी पर आधारित), अभिमान, आनन्द आदि।
6-1-74
प्रिय प्रेमा,
नया वर्ष तुम्हारे लिए शुभ हो, तुम्हे अपने संघर्ष में सफलता मिले। स्वस्थ्य रहो। क्रिसमस की छुट्टी के दिन और नये साल के दिन भी हम सब लोग तुम्हारी बड़ी याद करते रहे। क्रिसमस के दिन शमशेरजी भी रात को यहीं रहे। वे भी तुम्हें याद कर रहे थे।
मैंने क़रीब 12 दिन पहले तुम्हें ख़त भेजा था, आशा है तुम्हे मिल गया होगा। इस बार पत्र भेजने में तुम बड़ी देर कर रही हो-क़रीब दो महीने हो रहे हैं तुम्हारा पत्र आये। तबियत बहुत चिन्तित है। तुम इस पत्र को पाते ही फौरन अपना हालचाल लिखो।
यहाँ लिखने के लिये कुछ विशेष समाचार नहीं है। मन सिर्फ़ तुम्हारा समाचार जानने के लिए लगा हुआ है।
सर्दी अब कम हो चली है। बिटिया स्वस्थ है।... सरोज का पेट थोड़ा निकल आया है, कमर भी चौड़ी हो गयी है। तुमसे इन्हें कम करने का उपाय पूछ रही है।
मैंने तुम्हें लिखा था शायद, विष्णुचन्द्र शर्मा की पत्रिका ‘सर्वनाम’ बन्द हो गयी। तुम्हारे नेरूदा के अनुवाद शमशेरजी ने देखे थे। उनका विचार है कि ये अनुवाद बोर्खेस वाले अनुवाद से कम अच्छे हैं। मैंने ये अनुवाद अभी नहीं देखे।
यहाँ अज्ञेय जी के सम्पादन में ‘प्रतीक’ मासिक पत्रिका का प्रकाशन शुरू हो गया है। शीघ्र ही एक और आलोचनात्मक मासिक का प्रकाशन होने वाला है-योजना बन गयी है-इसमें मैं भी सम्बद्ध हूँ एक सक्रिय लेखक के रूप में। विधिवत इसका सम्पादन नेमिचंद्र जैन और विष्णु खरे करेंगे और आठ उसके नियमित लेखक होंगे प्रति माह। इसमें मैं भी एक हूँ। प्रकाशन सामूहिक सहयोग के आधार पर होगा-पैसा ये आठों लोग देंगे प्रति माह पचास रुपए। मेरे लिए यह शर्त कुछ अधिक भारी पड़ रही है। ये आठ लेखक हैं- नेमिचन्द्र जैन, अशोक वाजपेयी, मलयज, श्रीकान्त वर्मा, रमेशचन्द्र शाह, कमलेश, विजय मोहन सिंह और विष्णु खरे।
मेरी आलोचना की किताब के लिये अभी कोई प्रकाशक नहीं मिला है।
शोभा अभी ससुराल में ही हैं। ......
नीलू की एक चिट्ठी आयी थी। ठीक है। ......
शेष ठीक है। विस्तृत समाचार तुम्हारा पत्र आने पर। पत्र फौरन भेजो। चाहे संक्षिप्त--सा ही।
( नोटः इस पत्र के कुछ हिस्से नहीं टाइप किये पाठक के लिए गैरज़रूरी मान कर- प्रेमा)
23-1-74
प्रिय प्रेमा,
आशा है मेरा पत्र तुम्हें मिला होगा।... तुम कुशल से हो, यह जान कर दिल को बड़ी तसल्ली मिली। इस बीच मैं मीना बत्रा के लौटने की प्रतीक्षा करता रहा-सोचा पहले उनसे मिल लूँ तब तुम्हें पत्र लिखूँ। आज उनसे मुलाकात हुई... उन्होंने तुम्हारी सब चीज़ें दीं। रुपया आज उनके पास नहीं था-क्योंकि मैं बिना फ़ोन किये उनके घर पहुँच गया था। अतः सोमवार को उनके यहाँ फिर जाना है। लड़की देखने-सुनने में अच्छी और कायदे की लगी। ज़्यादतर तुम्हारे बारे में बातें होती रहीं। मैं कोई 15 मिनट वहाँ रहा, अगली बार जाऊँगा तो उसे निमन्त्रित करूँगा-ताकि सरोज से उसे मिला सकँू। वहाँ से लौट कर उसी वक़्त इंस्टिट्यूट में जाकर तुम्हारा टेप सुना। लगा कितने दिनों वर्षों बाद तुम्हारी आवाज़़ सुन रहा हूँ-थोड़ी बदली हुई आवाज़ ज़रूर है, पर तुम्हारे बोलने का ढंग, खास अपना ढंग, साहित्यिक भाषा के बावजूद, पहचान में आया और भीतर से उस पहचान की निकटता पाकर तबियत भरी-भरी सी हो गयी। तुमने क्या पहले से लिख कर टेप किया है-कविताओं के पहले का कथन? कविताएँ ज़्यादातर लम्बी हैं और उन्हें कई बार सुनना होगा तभी उनके बारे में कुछ स्पष्ट कह सकूँगा। तुम्हारी कविताओं पर वैसे भी-अब-जल्दी से राय नहीं दी जा सकती। मेरा ध्यान बारबार तुम्हारी कविताओं से उठ कर तुम्हारी आवाज़ पर चला जाता था -तुम्हारे शब्दोँ से ज़्यादा तुम्हारी आवाज़ कहती-सी लगती थी। बहरहाल, उन पर विस्तार से फिर लिखूँगा।
हाँ, श्रुति की पेंटिंग देख कर दंग रह गया हूँ। यह लडकी तो बॉर्न जीनियस लगती है। रंगों के मिश्रण का उसका सहज ज्ञान और बोध बहुत अर्थपूर्ण है। उसने क़ाग़ज को बीच से मोड़ कर जो दुहरा पैटर्न बुना है उससे उसकी नयी कल्पनाशीलता झलकती है। मैं इसे दूसरे चित्रकारों को दिखाने का प्रयत्न करुँगा। छः साल की लड़की के बनाये चित्र पर देखते हैं वे क्या कहते हैं।
श्रुति की फ़ोटो बड़ी प्यारी है, पर तकनीक की दृष्टि से चित्र अच्छा नहीं आया है। तुम लगता है अपने कैमरे का सही इस्तेमाल नहीं कर पा रही हो। जो नेगेटिव तुमने भेजे हैं उनमें से ज़्यादातर लगता है, ख़राब हो गये हैं। उनमें जो अच्छी होंगी उनकी कॉपियाँ तु्म्हें भेजूँगा।
अच्छा, मजे़ की बात यह है कि कल रात श्री एलावादी अपनी पत्नी सहित यहाँ आये। सरोज तो खाना बनाने में लगी रही, पर मैंने उन लोगों को चाय पिलायी और बातचीत की। उन्होंने तुम्हारी दी हुई ‘मातृे’ दी और श्रुति के चित्र भी। ‘माते’ तो वाकई बड़ी आकर्षक और अनोखी वस्तु है पर उस पर चाँदी-सोने जैसा काम तो नहीं लगता-कलई किया हुआ टिन लगता है।
अब कुछ समाचार शोभा के पुत्र हुआ है-दो महीने हो गये। मैंने तुम्हें इसकी सूचना दी थी। शोभा अपनी सास के यहाँ बिहार में ही हैं। उन लोगों ने शोभा को स्वीकार कर लिया है और पुत्र होने के बाद से तो मान-दुलार भी होना लगा है। यह वास्तव में सन्तोष की बात है।
अभी कल इलाहाबाद से दूधनाथ ने लिखा है कि निर्मल को 11 जनवरी को लड़का पैदा हुआ, पर दुर्भाग्य से 36 घण्टों बाद ही जाता रहा, लिखा है ऐसा डॉक्टरों की भूल से हुआ। निर्मल बीमार है। काफ़ी शॉक लगा।
नीलू की चिट्ठी आयी, सकुशल है।
तुम्हारी अनुदित कविताएँ मैं ‘आलोचना’ पत्रिका में देने की सोच रहा हूँ। इन कविताओं की भाषा में मुझे कुछ सुधार करना पड़ेगा। लगता है तुमने शाब्दिक अनुवाद पर बल दिया है, इससे अभिव्यक्ति हिन्दी पाठकों के लिए अटपटी हो गयी है। पर तुम्हें उन कवियों के बारे में छोटी-छोटी टिप्पणी भी देनी है जिससे कवियों के जीवन और कृतित्व पर भी थोड़ा प्रकाश हो-मतलब उनका जन्मवर्ष और प्रकाशित प्रमुख कृतियाँ, आदि। तुमने यह नोट भेजने को लिखा भी है। तुम यथाशीघ्र उसे भेज दो तो मैं इसे उतार कर ‘आलोचना’ में दे दूँ। साथ ही एक बात औरः राजनीतिक कविताओं के अलावा भी अगर तुमने कोई अनुवाद इन कवियों के या अन्य कवियों के किये हों तो उन्हें भी भेजना। राजनीतिक कविता, अनुवाद में प्रायः सपाट हो जाती है, उसका व्यंग अनुवाद में सटीक नहीं उभरता। ऐसा ही ‘जनवरी की गर्मी में पक्षियों का मरना’ शीर्षक कविता में हुआ है। दूसरी बातः अनुवाद करते समय भरसक तुम्हें हिन्दी बोलचाल की भाषा इस्तेमाल करनी चाहिये जो कि आज युवा कविता में पायी जाती है। अनुवाद में संस्कृत के शब्दों को रखना एक ऐसा आसान प्रलोभन या विवशता है कि उससे बचना ही बेहतर। एक तो अनुदित कविता अपने भिन्न बोध और संवेदना के काल से ही थोड़ी दूर होती है, फिर संस्कृत शब्दों से वह और भी दूर पड़ जाती है। मुझे ऐसा लगता है कि इन अनुवादों पर तुम्हें और मेहनत करनी चाहिये- जैसे तुमने ‘बाय्येखो’ या ‘बोर्खेस’ पर की है। वैसे लैटिन अमरीकी कविता अनुवाद के लिये कठिन है, यह मैं मानता हूँ। अपने भिन्न मिजाज के कारण। तीसरी बात निकारागुआ की कविता में यह अग्निष्टिका शब्द क्या है-इसके क्या मानी हैं? यह मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आया-क्या कोई ऐसा आसान शब्द नहीं है? वैसे मुझे यह कविता अच्छी लगी। चौथी बात कविता उतार कर भेजते समय तुम उन्हें एक बार ध्यान से पढ़ कर चेक कर लिया करो। पाँचवीं बात क्लाउदियो मुरीलो की कविता ‘अपने देश के प्रति विलाप’ में दूसरे पैरे के अन्त में आता है ‘ज्योतिमण्डित आकाशों’ यह ऊपर की पंक्ति के सन्दर्भ में कुछ विचित्र लगता है वाक्य-रचना की दृष्टि से, खास कर ‘आकाशों’ का इस्तेमाल। इसे क्या सुधार सकती हो?
मैं आज एक ट्रेनिंग में हूँ-दफ़्तर की तरफ से। उसी के सिलसिले में 19 फरवरी को यू.पी. के चुनावों के अध्ययन के लिए आजमगढ़ जा रहा हूँ - पाँच दिन के लिये। हाँ, याद आया, मामा श्रीराम वर्मा के 7 जनवरी को लड़का पैदा हुआ है- उनके अब तीन लड़के और एक लड़की हो गये। भगवानचक की परम्परा अच्छी तरह निभा रहे हैं। वैसे इधर उन्होंने एक अच्छी कहानी लिखी है जो पुरस्कृत हुई है।
मैंने अपने आलोचनात्मक लेखों की एक किताब तैयार कर ली है जिसे प्रकाशक अक्तूबर-नवम्बर में छापने को कह रहा है। एक मासिक पत्रिका की भी योजना है पर शायद, उसके बारे में तुम्हे पिछले पत्र में लिख चुका हूँ।
कुछ दिन पहले माचवे जी मिले थे। तुमने कोई पत्र स्पेनिश किताब के बारे में उन्हें लिखा था इसकी चर्चा कर रहे थे। कैसी किताब है जो तुम शायद वहाँ के हिन्दी सीखनेवालों के लिये तैयार कर रही हो?
शेष हाल ठीक-ठाक है। बच्ची सकुशल है, स्वस्थ है, खूब हँसती है, अब तो बिस्तर पर पलटनिया खा कर उलट जाती है। ज़रा-सा पुचकार दो तो मुस्करा देती है। रोती भी नहीं। पेट भरा हो तो अपने में मगन रहती है। इसकी कुछ फ़ोटो ली है, तुम्हें भेजूँगा। इसका नाम अभी तक तय नहीं किया। पुकारने के लिए वैसे एक नाम-यामा- सोच रहा हूँ-कैसा रहेगा? और बाकायदा नाम कोई नहीं सूझा-बस दिमाग़़ में एक नाम अटका हुआ है ‘स्तुति’- लिखना कैसा लगता है तुम्हे। कोई और नाम सुझाओ- मेरी तो बुद्धि ही कुन्द हो गयी है इस मामले में। माँ तुम्हारी चिट्ठी आने की ख़बर से सब कुछ जानने को उत्सुक हो जाती हैं। और जब मैं कहता हूँ कि सब ठीक-ठाक है तो इतने से उन्हें सन्तोष नहीं होता। बाबूजी भी कुशल से हैं। मुन्ना बड़े खुश हैं। चिट्ठी लिखने में वह आलसी हो गया है पर भीतर ही भीतर सब महसूस करता है।
देखो, इस छोटे से पत्र में कितनी ख़बरें लिख दीं। तुम्हें यह पत्र मिल गया, इसकी सूचना देना और कविता, नोट आदि शीघ्र भेजना।
सस्नेह,
तुम्हारा मलयज
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हमारी कथा विजया राय बांग्ला से अनुवाद - रामशंकर द्विवेदी
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