मलिक मोहम्मद जायसी क्षितिमोहन सेन बांग्ला से अनुवादः महेन्द्र प्रसाद कुशवाहा एवं शान्तनु बनर्जी
20-Jun-2021 12:00 AM 1093

सृष्टि जहाँ आनन्द के लिए है, वहाँ कोई यह नहीं कह सकता कि सृष्टि एकमात्र हमारे लिए है या तुम्हारे लिए। तुम्हारी तरफ न देखने पर अगर मेरी सृष्टि का विकास न हो तो उस सृष्टि में तुम्हारा उतना ही हक़ है जितना मेरा। यदि प्रेम और आनन्द को बिलकुल छोड़कर सृष्टि सम्भव होता, तो सृष्टि का एकछत्र राज होता। लेकिन बिना आनन्द के सृष्टि कहाँ? ज़ोर-ज़बरदस्ती से काम करवाया जा सकता है, स्वार्थ की पूर्ति की जा सकती है, क्रान्ति हो सकती है, किन्तु सृष्टि नहीं हो सकती। जहाँ कहीं भी यथार्थ, सुन्दर और जीवन्त सृष्टि है, वहाँ देखा जा सकता है कि जैसे सृष्टि एक अनन्त पंखुड़ी वाला कमल है। अपने नाल पर स्थित वह कमल प्रकाश की तरफ देखते हुए, उसकी मदद से ही पंखुडि़यों को फैलाकर अपने भीतर में स्थित अमृतरस की मध्ाुर सुरभि को चारों दिशाओं में पूरी तरह से फैला देता है। विश्वदेवता के अनन्त मन्दिर के अन्दर जीवन्त और निस्तब्ध्ा ध्ाूपदानी के निःशब्द आरती की तरह वह कमल अपने आत्मिक आनन्द के सार के माध्यम से उस विराट अदृश्य देवता की पूजा और आरती करता चला आ रहा है। किन्तु यह जो कमल है, वह क्या सिफऱ् अपनी शक्ति से अपनी पंखुडि़यों के आवरण को खोल सकता है? प्राणलोक का स्पर्श न होने से वह बिलकुल ही शक्तिहीन है।
इसीलिए हमारे देश में जो अपने हाथ से सृष्टि करते हैं, उन्हें सृष्टि का पूरा श्रेय नहीं मिलता। बल्कि श्रेय पाने का हक़ भी उनको नहीं है। माँ के स्तन में जो दूध्ा उत्पन्न होता है, वह क्या माँ की अपनी इच्छा के अनुसार होता है? शिशु को यदि छोड़ दिया जाय, तब माँ के स्तन का वह स्तन्य संचार कहाँ चला जाता है? असली बछड़े के न रहने पर ग्वालों को नक़ली बछड़ा लाकर गाय के पास पकड़ना पड़ता है, नहीं तो स्तन की ध्ाारा किसी भी रूप में बहना नहीं चाहती। इसी तत्त्व को देखकर हमारे देश के आचार्यों ने कहा है कि सिफऱ् सृष्टा की अपनी शक्ति से सृष्टि सम्भव नहीं हो सकती, उसके हृदय में प्रेमानन्द की एक गहरे आकर्षण की ज़रुरत होती है, कपिल आदि आचार्यों ने ‘गोवत्सतर प्रवृत्ति न्यायेन’ के द्वारा सृष्टि की व्याख्या की है। अर्थात् बछड़े के लिए उस बछड़े को जन्म देने वाली गाय का थान जैसे अपने से भर उठता है-ठीक वैसे।
इसीलिए छात्रों को देखते हुए आचार्यों ने कहा है- हे सौम्य ! ये जो मेरे मन की नयी-नयी अनुभूतियाँ हैं, यह सिफऱ् मेरी नहीं हैं , क्योंकि तुम्हारे प्यासे चित्त को देखकर ये अनुभूतियाँ मुझे हुई हैं। इसलिए ये तुम्हारा भी है। चेतना के नये-नये और विविध्ा प्रकाश के मूल में जो आनन्द है, अध्यापन के द्वारा उसी आनन्द का ऋण वे चुकाते थे, तनख़्वाह मांगने का अध्ािकार उन्हें नहीं था। अगर वे उन प्यासे चित्त की तरफ न देखते तो कभी भी आचार्यों को उन अनुभूतियों की प्राप्ति नहीं होतीं। प्रकाश को छोड़कर कमल सिफऱ् अपनी शक्ति से अपने आवरण को भी खोल पाने में सक्षम नहीं होता। जिस प्रकार गर्भाशय में अवस्थित आनन्दमय चिन्मय कोष अपने आप गर्भावरण को भेदकर बाहर नहीं निकल सकता, उसी तरह अकेले आचार्य भी अक्षम होते हैं। और सृष्टि में जीवन की इतनी सी जो भूमिका है, वही जीवन की सार्थकता है , जीवन का गर्व है। वरना इस जटिल, विशाल विश्वसृष्टि की तरफ देखकर उसको अपनी क्षुद्रता में डूबकर खो जाने का अवकाश ढूंढ मरना होता । किन्तु वैसा तो नहीं है, वह जानता है कि इस विश्व-रचना में जितना हाथ विध्ााता का है, उतना ही हाथ उसका भी है। इसीलिए दादू ने कहा है-
‘सुखि मसितल सुरति मति’
अर्थात् हे चित्रकार, ये जो विश्वचित्र तुमने बनाया है, उसमें जितना श्रेय तुम्हारा है, उतना ही श्रेय मेरा भी है। तुम्हारे सारे रंग सूखे पड़े थे, मेरे प्रेम के नीर में घोलकर ही तुम अपनी तूलिका को चला पाये हो। अकेले तुम्हारी शक्ति-सूखी शक्ति-मेरे प्रेम में भीगकर ही सजीव हुई है।
इसीलिए कबीर ने कहा है-
‘तुम हम दो तुम्ब बिच सुर बाजे ताजा ताजा।’
अर्थात, तुम और मै दोनों सृष्टिवीणा के दो तुम्ब हैं। तुम्हारे और हमारे इस तुम्ब के बीच में जो मिलन-तंत्री है, उसी में तो हर पल नये-नये जीवन्त सुर अंकित हो रहा है। यह जो विविध्ा रूपी विश्वसृष्टि है, वही इस द्वैत वीणा के मिलन-तंत्री में झंकृत होने वाला प्रेमानन्द राग है। तुम्ब युग्म में से एक को छोड़ देने से जिस प्रकार नये-नये संगीत जन्म देने वाला तार निराश्रय हो जाता है, उसी तरह तुम और मैं- इस युग्म के किसी एक को भी छोड़ देने पर प्रतिपल नया प्राण झंकार उत्पन्न करने वाला विविध्ारूपी विश्वसृष्टि का सावित्री मिलन-तंत्री निराश्रय हो जाता है।
इस सार्थकता के चलते पूरे विश्व के जीव को आनन्द की अनुभूति होती है। उसे लगता है कि एक तरह से ये सारा विश्व उनका ही है। हमें छोड़कर यह एक क्षण भी खड़ा नहीं रह सकता। जहाँ तक जीव की दृष्टि जाती है, वहाँ तक वह अपने ह्रदय के आँचल में निःसंकोच रूप से बांध्ा लेता है। जो कुछ भी उसके श्रवण, घ्राण, शरीर को छूता है, उसी से उसका अन्तर्मन नाच उठता है। इसीलिए माँ का स्तन देखकर बच्चा सोचता है- यह तो मेरा ही ध्ान है, इसलिए वह स्तन उसके लिए अमृत समान होता है। शिशु जिस समय स्तन पान करता है, वह उस समय यह नहीं सोचता कि अपने से अलग कोई कृत्रिम चीज का वह पान कर रहा है, वह सोचता है कि वह अपने ही अमृत का पान कर रहा है।
किन्तु इतना बड़ा जो अध्ािकार है, वह भी जीव भूल जाता है। वह अपने-आप को अलग मानता है, नाना प्रकार के झूठे उपाध्ाियों के द्वारा अपने को विशिष्ट समझता है, इसीलिए इतना बड़ा अध्ािकार वह खो बैठता है। जिस ज्ञान वृक्ष का फल खाकर मानव को स्वर्ग खोना पड़ा, वह ज्ञान सच्चा नहीं, वह यही मिथ्या ज्ञान है। अलग करके जानना, विशिष्ट करके आंकना ही मिथ्या ज्ञान है। इसी से पैराडाइज़ लाॅस्ट होता है। जब मिथ्या असुर सिहांसन पर बैठता है, तब स्वर्ग खोना पड़ता है। उसके बाद इस पैराडाइज़ को रिगेन (पुनः प्राप्त) करता है साध्ाक और कवि। वे लोग जब मनुष्यों के कान में सुना देते हैं, हे अमृत पुत्रो तुम लोग सुनो- मैंने उस सत्य को देखा है-तब सभी आत्मविश्वास से भर उठते हैं। अज्ञान के तिमिर में अन्ध्ो नयन को ज्ञानांजन शलाका के द्वारा वे खोलते हैं इसीलिए हम उन्हें गुरु कहते हैं। ये सब गौरव जो गुरु हमें प्रदान करते हैं, उसका क्या कोई मूल्य हो सकता है?
इसी तरह के एक गुरु की कथा मैं आज आप लोगों के सामने प्रस्तुत करना चाहता हूँ। ये कवि थे, इसलिए गुरु थे ये साध्ाक थे, इसलिए गुरु थे। इनके पास न हिन्दू था, न मुसलमान था। इनके सामने सारे बाध्ााओं को तोड़कर, सारे मिथ्या उपाध्ाियों से परे मनुष्य का सत्य विराजमान था। अपने जिस महान अध्ािकार से वंचित होकर मानव दीन-दुःखी की तरह भटक रहा है, उस अध्ािकार का रत्न मुकुट उसके सर पर पहनाकर उन्होंने मानव को सम्राट बना दिया था।
इनका नाम मलिक मुहम्मद है। मिर्जापुर में एक बार भारी बरसात के समय इनके द्वारा रचित एक-दो गाना अमेठी के एक साध्ाु से सुना था। कई भक्तों के गानों के साथ इनका भी गाना सुना था। उन गानों में इस प्रकार की गंभीरता और प्रत्यक्ष अनुभूति का भाव था कि मैं उसपर मुग्ध्ा हो गया था। विशेष आश्चर्य की बात ये है कि यह भक्त कवि मुसलमान है, हिन्दू ध्ार्म उन्होंने स्वीकार नहीं किया था, फिर भी उनकी पहुँच भारतीय ब्रह्म विद्या और योगशास्त्र के हृदय तक है। और क्या श्रद्धा है उनकी, कितनी श्रद्धा के साथ उन्होंने शास्त्र के विविध्ा विचारों को भिन्न-भिन्न रूपों में ग्रहण किया है ! मन में एक विस्मय का भाव जगा था। किन्तु बाद में लगा इसमें आश्चर्य होने की कोई बात नहीं है, बल्कि यही ज़्यादा स्वाभाविक है। सृष्टि के मामले में सिफऱ् तत्त्वों के आध्ाार पर सृष्टि नहीं हो सकती, सिफऱ् अपने से आनन्द की प्राप्ति नहीं हो सकती। किसी विशेष ध्ार्म के सौन्दर्य की अनुभूति के लिए ध्ार्मभेद की ज़रूरत है। इसमें कोई संदेह नहीं कि ध्ार्म अपने पर आश्रित लोगों को ध्ाीरे-ध्ाीरे बढ़ने में मदद करता है, किन्तु बाहरी चित्त के संस्पर्श से वह उसके बहुविध्ा, निगूढ़ और विविध्ा सौन्दर्य को नाना लीलाओं में तरंगित कर प्रत्यक्ष कर सकता है। गोवत्सतर प्रवृत्ति की तरह उसके अन्दर से इस प्रकार की गहरी सौन्दर्यध्ाारा उत्सर्जित हो उठती है, जो उसके स्वयं के वश की नहीं होती। जिस ध्ार्म में मनुष्य जन्म लेता है और जिस ध्ार्म में वह डूबा रहता है, उस ध्ार्म के प्रत्येक क़ायदे-क़ानून में बाहरी लोगों की तुलना में ज्यादा अभ्यस्त होने के बावजूद वह उस ध्ार्म के माध्ाुर्यरस का पान करने का हर समय अध्ािकारी नहीं होता, बल्कि बाहर से आने पर जो अपूर्व आस्वादन किया जा सकता है, वह उसमें जन्म लेकर, उसके भीतर रहकर कर पाना कठिन होता है। कुछ हद तक निर्जीव की तरह, कुछ हद तक निश्चेष्ट की तरह, अन्ध्ो रूप में संस्कार को मानकर, जड़ की तरह मतों को ग्रहण कर, अनुगत रूप से आचरणों का निर्वाह कर , बिना किसी तरह के प्रश्न उठाये आराम से दिन व्यतीत किया जा सकता है। किन्तु यदि उसे बाहर से देखा जाय तो उस ध्ार्म का प्रत्येक मत, प्रत्येक आचार देखने वाले के मन को आकर्षित करता है, और मन सजीव होकर देख पाता है, इसीलिए सत्य का आस्वादन कर पाता है। यही कारण है कि हमारे देश के साध्ान-शास्त्र में बारी-बारी से सारे ध्ार्मों को छोड़कर सिफऱ् परब्रम्ह पर ही आश्रित होने का उपदेश दिया गया है। परब्रम्ह में अवस्थित होकर देखने पर ही समस्त आचार और अनुष्ठान के माध्ाुर्य की प्राप्ति होती है। आचार और संस्कार बाहरी चीजें हैं, इसीलिए ये परध्ार्म हैं। इस परध्ार्म को त्याग कर स्वध्ार्म को ग्रहण करना ही होगा। परमात्मा पर आश्रित होना ही स्वध्ार्म है। परमात्मा से ज्यादा ‘स्व’ और क्या हो सकता है?
लेकिन बाहर से देखने की भी एक समस्या है। वह है श्रद्धा का अभाव। श्रद्धा का अभाव यदि रहता है , तब वह ध्ार्म में अवस्थित अलग-अलग क्रिया-कर्म, आचार-अनुष्ठान आदि को ही देखता है, इन सब के भीतर में सबको मिलाकर जो गंभीरता है, वह उसको नहीं समझ पाता है। चादर के ऊपर नक्काशी कर बनाये गये फूल के उल्टे(दूसरे) हिस्से को जो देखता है, उसको सिफऱ् सिलाई का ध्ाागा ही ध्ाागा दिखाई देता है जो सीध्ाा देखता है वह देखता है- कितने फूल, कितने चित्र और कितने सौन्दर्य ! उसी तरह यथार्थ को पकड़कर देखने के लिए एक बड़प्पन चाहिए, वही बड़प्पन इस साध्ाक कवि के पास था। ऐसा लगता है, इसे ही हृदयंगम कर मलिक मुहम्मद ने लिखा है-
भंवर आइ बनखंड सौं
लेइ कँवल रस बास।
दादुर बास न पारइ
भलहि जो आछहि पास।
अनुवाद ः- वनभूमि से जो भौंरा आया, उसे कमल रस की सुगंध्ा मिली। बहुत निकट रहने वाले मेंढक को थोड़ा-सी भी गंध्ा नहीं मिली!
इस महापुरुष के पूर्व और एक महात्मा अनासक्त रूप से ध्ार्म के मर्म तक पहुंचे थे। वे हैं भक्त कबीर। कबीर की आध्यात्मिक दृष्टि और संगीत से मलिक पूरी तरह से प्रभावित हुए थे। समस्त हिन्दू पुराण आदि में उनका एकांत सहज प्रवेश था। योग शास्त्र को वे पूरी तरह से जानते थे। फिर भी हमेशा मुसलमान समाज के लोग उनको मुसलमान समाज का ही एक पीर कहकर गहरा सम्मान करते आये है।
हिन्दी साहित्य में मलिक मुहम्मद का योगदान अतुलनीय है। सुप्रसिद्ध ‘पदुमावती’ (पद्मावती)उनकी ही रचना है। पंडित प्रवर ग्रियर्सन लिखते हैं, एक तो काव्य रूप में यह अति चमत्कारी ग्रन्थ है। दूसरा, भारतीय ग्रंथों में से इस तरह का मौलिक ग्रन्थ मुश्किल से दो-चार और होंगे जिसके नायक राम या कृष्ण नहीं हैं, उनमें से ही एक यह भी है। ग्रन्थ के रूप में यह आद्यांत उदार है। यहाँ वह उदारता इतनी उच्च कोटि की है कि ऐसी उदारता की आशा सिफऱ् कबीर या तुलसी से ही की जा सकती है। और इस काव्य में वर्णित विषय को बाद में प्राच्य भूमि के नाना ग्रंथों में भी विषय बनाया गया है। फारसी भाषा के कवि हुसे गजनवी ने ‘किस्सा-ए-पद्मावत’ नामक एक काव्य की रचना की है। 1652 ई0 में रायगोविन्द मुंशी ने फारसी में ‘तुक्फात उल-कुलूब’ नामक ग्रन्थ की जो रचना की है, उसका भी वर्णित विषय यही है। मीर जि़याउद्दीन इशरत और गुलाम अली इशरत इन दो मुसलमान पंडितों ने मिलकर इसका एक उर्दू अनुवाद किया है। मलिक मुहम्मद का ग्रन्थ 1540 ई० में लिखा गया है।
मलिक मुहम्मद इतने उच्च कोटि के कवि हैं, वह इस ग्रन्थ से प्रमाणित हो जाता है। कह सकते हैं हिंदी भाषा में इसके पहले ऐसा यथार्थ काव्य नहीं रचा गया है। मलिक मुहम्मद को पीर मानकर मुसलमानों ने अत्यंत यत्नपूर्वक और विशुद्ध रूप से उनके ग्रन्थ की रक्षा की है। इसीलिए इसमें अत्यंत प्राचीन हिन्दू का एक अक्षत नमूना मिलता है।
इस कवि के ‘अखरावट’ नामक रचना को पढ़ने पर यह पता चलता है कि हिन्दू ध्ार्म के रहस्य में उनकी कितनी पैठ थी।
ये कवि मुसलमान साध्ाक मुहीउद्दीन के शिष्य थे। मुहीउद्दीन के गुरु शेख बुरहान बुंदेलखंड के काल्पी में रहते थे। प्रसिद्धि है कि बुरहान एक सौ वर्ष तक जीवित थे। 1562 ई में बुरहान परलोक सिध्ाारे।
मलिक मुहम्मद ने चिश्तीया निजामिया संप्रदाय के निकट शिष्यत्व ग्रहण किया था। इस संप्रदाय के आदि साध्ाक का नाम निज़ामुद्दीन था। 1325 ई० में निज़ामुद्दीन परलोक सिध्ाारे। मलिक मुहम्मद ने अपने ग्रन्थ में अपने गुरुओं की परंपरा के बारे में जो लिखा है, उसे ही उद्धृत करता हूँ-
गुरु मोहदी खेवक मैं सेवा। चलै उताइल जिहकर खेवा। 1।
अगुवा भएऊ सेख बुरहानू। पंथ लाई जेहिं दीन्ह गिआनू। 2।
अलहदाद भल तेहिकर गुरु। दीन दुनिअ रोसन सुरखुरू। 3।
सैयद महम्मद के ओइ चेला। सिद्ध पुरुष संगम जेहि खेला। 4।
दानियाल गुरु पंख लखाए। हजरति ख्वाज खिजिर तेई पाए। 5।
भए परसन ओहि हजरति ख्वाजे। लइ मेरए जहं सैयद राजे। 6।
वहि सौं मैं पाई जब करनी। उघरी जीभ कथा कबि बरनी। 7।
ओइ सो गुरु हौं चेला नीति बिनबौं भा चेर।
वोहि हुति देखई पावौं दरस गोसाईं केर। 1।। 20।।
अनुवादः कर्णध्ाार गुरु मुहीउद्दीन का मैं सेवक हूँ, उनकी नाव बहुत तेज गति की है। उनसे पहले आये थे शेख बुरहान। उन्होंने मुहीउद्दीन को सत्य के पथ पर लाकर ज्ञान दिया है। उनके भी गुरु थे अलहदाद, सांसारिक जीवन एवं ध्ार्म दोनों के लिए जो प्रकाशस्वरुप और सर्वजन प्रिय थे। वे सैयद मुहम्मद के शिष्य थे। सिद्ध पुरुषों के संगम में उन्होंने क्रीडा की थी। दानियाल के गुरु थे हजरत ख्वाज। दानियाल के साथ-साथ सैयद मुहम्मद पर खुश होकर हजरत ख्वाज ने सैयद मुहम्मद की भेंट सैयद राज़ी हमीद शाह से करवाया था। इस तरह की गुरु परंपरा से ध्ानी गुरु से मैंने हर तरह की योग्यता प्राप्त की है। तब मेरी जुबान खुल गयी। मैंने कवि होकर कथा-वर्णन करना शुरू कर दिया। वे मेरे गुरु हैं और मैं उनका दास होकर नित्य मैं उनकी स्तुति करता हूँ। उनकी कृपा से ही तो मैंने परब्रह्म का दर्शन पाया है।
मलिक मुहम्मद के कवित्व-गुण के लिए स्वयं शेरशाह ने भी उनका बहुत सम्मान किया है। फिर भी इस तापस कवि ने बावले की तरह दरिद्र रूप से अपने दिन व्यतीत किये। यदि वे चाहते तो वे सुख-संपत्ति के साथ अपना दिन बिता सकते थे, लेकिन इस साध्ाक-तापस के भाग्य में यह सुख नहीं लिखा था। वे सम्मान और संपत्ति के प्रलोभन को अग्नि की तरह बचाकर चले हैं। कहा जाता है कि एक बार सम्राट शेरशाह ने उनको आदरपूर्वक अपनी सभा में रहने का अनुरोध्ा किया। उनको मलिक ने कहा था, हे महाराज ! आपके साथ हमारा रहना कैसे हो सकता है? आप सम्राट हैं, मैं कवि हूँ। आप राजा हैं, आप दिन के उज्जवल प्रकाश की तरह भास्वर होकर समस्त कर्म क्षेत्रों को सम्मिलित कर, सारे मनुष्यों को मिलाकर अपना राजसिक रूप सबकी आँखों के सामने उद्भासित कर देते हैं। मैं कवि, रात के अन्ध्ाकार की तरह ध्ारती के सारे विक्षोभ को शांत कर, लाभ-हानि के मंथन से उत्पन्न ध्ाूलि को ढँक कर, तिमिर ध्ाारा से सबका अभिषेक करवाकर, ग्रह-चन्द्र-नक्षत्र से विभूषित असीमता को उस तिमिर कमल के ऊपर मातृ रूप में विराजमान करवा देता हूँ। आप राजा हैं, विश्व को पीछे रखकर खुद सारे नियमों के ऊपर बैठना चाहते हैं, और मैं कवि, अपने को छिपाकर अनन्त देवता को सबके सामने उन्मुक्त कर देना चाहता हूँ। संसार रूपी बांस के हर छिद्र को ढंककर आप उसे अपने हाथ की लाठी बनाना चाहते हैं, और मैं, उसके सारे छिद्रों को स्वीकार कर उसे अपनी बंसी बनाकर उसके अन्तर के सुर को बाहर निकालता हूँ।
स्पष्ट है कि दिल्ली के राजसभा में उनका रहना नहीं हो पाया। इस कवि की एक आँख खराब हो गई थी। किन्तु इनके रचना की ख्याति को सुनकर भोजपुर के राजा जगतदेव ने इन्हें आमंत्रित किया था। जगत देव उन दिनों एक पराक्रमी राजा थे। बक्सर के जिस युद्ध में शेरशाह ने हुमायूँ को पराजित किया था, उस युद्ध में जगतदेव शेरशाह के साथ मुग़लों के विरुद्ध लड़े थे। 1527 ई. में सत्ता पर आसीन होकर 1573 ई. तक वे भोजपुर और गाजीपुर राज्य के शासक रहे। ऐसा माना जाता है कि निमंत्रण की रक्षा के लिए जब उनकी सभा में मलिक मुहम्मद उपस्थित हुए, तब राजा उनकी एक खराब आँख को देखकर अपने सभासदों के साथ हँसे थे। राजा का विश्वास था कि ऐसा कवि न जाने कितना सुन्दर होगा। वे दीन वेशध्ाारी एक आँख वाले फ़क़ीर निकलेंगे, इसकी कल्पना उन्होंने नहीं की थी। इसीलिए जब राजा उन पर हँसे, तो सभा के मध्य में खड़े होकर अत्यंत शांत स्वर में उन्होंने राजा से पूछा-
मोहि हँससि कि हँससि कुँहारहि।
अर्थात ये जो आप हँस रहे हैं, वह क्या मुझे देखकर या फिर जिस निर्माता ने मुझे गढ़ा है उस पर।
अर्थात यदि आप मुझे देखकर हँसे हैं तो आपको समझना चाहिए कि मेरा रूप मेरे वश में नहीं था। यह उसी शिल्पी का किया-ध्ारा है जो किसी भी बाहरी नियम-क़ानून से बंध्ाा नहीं होता। और उसके तरफ देखकर यदि आप हँसे तो आप जैसे मूढ़ व्यक्ति को बोलने के लिए कुछ नहीं बचता। ख़ैर, जो भी हो, इस जगतदेव के साथ अन्ततः उनकी गहरी मित्रता हुई और बहुत बार जगतदेव ने काव्यालोचन के लिए उनको आमंत्रित किया।
मलिक मुहम्मद अतिशय मित्रानुरागी व्यक्ति थे। मित्रों के प्रति उनका कैसा गहरा अनुराग था, यह उनके काव्यों में कई जगह दिखाई पड़ता है। इन मित्रों के चुनाव में भी उनके भीतर जाति या ध्ार्म का भेद नहीं था। हिन्दू और मुसलमान- इन दोनों ध्ार्मों के लोगों के साथ उनका सच्चा प्रेम था। मनुष्य को जो मनुष्य मानकर समादर करता है, उनको ध्ार्मभेद कभी भ्रमित नहीं कर सकता।
उनके चार मित्रों का परिचय उनकी ‘पद्मावत’ में ही मिलता है। उनका परिचय उनकी पुस्तक से ही देखिये-
चारि मीत कबि मुहमद पाए। जोरि मिताई सरि पहुँचाए। 1।
यूसुफ मलिक पंडित और ग्यानी। पहिलै भेद बात रहि जानी। 2।
पुनि सलार कांदन मति माहाँ। खाँडै दान उभै निति बाहाँ। 3।
मियां सलाने सिंघ अपारू। बीर खेत रन खरग जुझारू। 4।
शेख बड़े बड़ सिद्ध बखाना। कई अदेस सिद्धन्ह बड़ माना। 5।
चारिउ चतुरदसौ गुन पढ़े। औ संग जोग गोसाईं गढ़े। 6।
बिरिख जो आछाहे चन्दन पासा। चन्दन होहिं बेध्ाि तेहि बासा। 7।

मुहम्मद चारिउ मीत मिलि भए जो एकइ चित्त।
एहि जग साथ जो निबहा ओहि जग बिछुरहि कित्त। 1। 22 ।।
अर्थात कवि मुहम्मद को चार मित्रों का साथ मिला, और उनके प्रेम के योग से उन्होंने उनकी समकक्षता को प्राप्त किया। प्रथम मित्र युसूफ़ मलिक ऐसे पंडित और ज्ञानी थे कि सुनते ही सारी बातों का सार ग्रहण कर लेते थे। द्वितीय मित्र महामति सालार कादिम। तीसरे मित्र थे सलोने मियाँ, जो दूसरे वीरों में से सिंह की तरह थे। चैथे मित्र शेख बडे महान सिद्ध पुरुष के रूप में ख्यात थे। उनके उपदेशों का पालन कर सिद्ध पुरुष भी अपने को ध्ान्य महसूस करते हैं। ये चार मित्र चैदह विद्या के पंडित थे। चार वेद, छः वेदांत, मीमांसा, न्याय, ध्ार्मशास्त्र- यही चैदह विद्या है। ईश्वर ने इन चारों की सृष्टि एक तरह से की है , मैं जो इनके समान बन पाया हूँ उसका कारण है कि अगर कोई वृक्ष चन्दन के पास रहता है तो वह भी चन्दन की खुसबू से बिद्ध होकर चन्दन वृक्ष में ही परिणत हो जाता है। मैं मुहम्मद इन चारों मित्रों से मिलकर एक हो गया। इस जगत में यदि उन लोगों के साथ रहा ,तो परलोक में अलग होने की संभावना कहाँ है?
इन मित्रों में जिनका नाम मियाँ सलोने सिंह है, वे हिन्दू थे। मियाँ देखकर कोई यह न समझे कि वे मुसलमान थे। प्राचीनकाल में मुसलमान दोस्तों ने हिन्दू दोस्तों को इस तरह की उपाध्ाि दी है एवं मुसलमानों ने भी आदरपूर्वक हिन्दुओं की उपाध्ाि ग्रहण की है। अभी भी नागर कोट, कांगड़ा आदि इलाके में मियाँ होशियार सिंह जैसे उच्च पदों पर आसीन हिन्दू हैं। चाम्बा के हिन्दू राजाओं की उपाध्ाि मियाँ है।
उल्लिखित चार दोस्तों में से युसूफ़ मलिक और मियाँ सलोने सिंह जगतदेव के सभासद थे।
किन्तु कुछ वर्षों बाद जो इनके मित्र हुए थे, वे राजा जगत देव की सभा के कथावाचक पंडित थे। उनका नाम था गंध्ार्व राज। गंध्ार्व राज संगीत के मूर्त रूप थे। गायक दोस्त के संगीत को सुनकर कवि कई बार पूरी तरह से आत्मविभोर हुए थे। कवि ने इस गायक बन्ध्ाु के सुर से अनुप्रेरित होकर कितने गानों की रचना की है, कितने भजन, कितने गीत एक साथ गाकर दोनों परितृप्त हुए थे।
मलिक इस गायक दोस्त से इतने अनुरक्त थे कि मृत्यु के समय उनको आशीर्वाद देते हुए यह भविष्यवाणी करके गए थे कि यह संगीतकला उनके बंश में हमेशा अचल रहेगी। प्रेम के चिह्न के रूप में वे अपने वंशगत उपाध्ाि ‘मलिक’ अपने मित्र को दान करके गए थे। उसी समय से गन्ध्ार्वराज के वंशज पंडित ‘मलिक’ के नाम से जाने और माने जाते आ रहे हैं। गन्ध्ार्वराज के वंशज अभी बलिया जिला के हल्दी और रायपुर तालुक में रहते हैं।
अभी भी ये लोग कथावाचक ही हैं और अभी भी इस वंश के प्रत्येक स्त्री-पुरुष में संगीत विद्या सुप्रतिष्ठित है।
मलिक युसूफ़ और मियाँ सलोने गोरखपुर के निवासी थे। एक बार इनके इलाके के आम में एक प्रकार का विषाक्त कीड़ा लग गया था। उसके ही विष से इन दोनों की मृत्यु हुई।
अमेठी के राजा निःसंतान थे। कहा जाता है कि मलिक के आशीर्वाद से ही उनको संतान की प्राप्ति हुई थी। इसीलिए कवि की मृत्यु के बाद अमेठी में उनको समाध्ाि दी गयी। अभी भी उनकी समाध्ाि स्थल पर उपस्थित होकर भक्तगण पुष्प-चन्दन से उन्हें अभिषित करते हैं। अभी भी बहुत लोग श्रद्धा से वहाँ भजन-साध्ाना करते हैं।
उनकी रचनाओं में उनके बारे में बहुत अध्ािक जानकारी नहीं मिलती क्योंकि वे कवि थे। उन दिनों के सुख-दुःख के कितने गीत उन्होंने गाये है, उनके संगीत में शाश्वत वस्तु कितनी तरह से मूर्तिमान हुई हैं, उनके छंदों में कितनी चंचल, क्षणभंगुर सुषमा नित्य प्रतिष्ठित हुई है, किन्तु अपने बारे में जहाँ तक संभव हुआ छुपा कर रखा है।
उन दिनों का कितना दैन्य, कितना वैभव, कितनी तपस्या, कितना विलास उनके गीतों में झंकृत हुआ है। जो कुछ भी उन्होंने देखा है, उनके भीतर के गंभीर सौन्दर्य को छंद और सुर के माध्यम से हमारे अन्तर के लीला मन्दिर में आमंत्रित कर उन्होंने उपस्थित किया है। फिर भी उनके गीतों को देखकर उनके अपने सुख-दुःख के बारे में जानना संभव नहीं है। कमलकोश के सुगंध्ा के बीच कीचड़ या गंदे पानी को कौन और कब देख पाया है?
वे स्वयं अपने संगीत को सुनकर अपने मुग्ध्ा होकर बावले की तरह घूमते-फिरते रहे हैं, मानो कोई अदृश्य पुरुष उनके भीतर उनके दुर्बोध्ा सभी गानों को झंकृत कर दिया हो।
उन्होंने स्वयं गाया है- जिस तरह ब्रम्हा अपने नाभि-कमल की ओर निहारकर स्वयं मुग्ध्ा हैं उसी तरह मैं भी।
किस तरह विष्णु के व्याप्त रूप ने मेरे इस नाभिकमल नाल के संकीर्ण पथ के माध्यम से इतना सुन्दर अभिनव जन्म लिया है? अपने नाभि के गंध्ा से चंचल कस्तूरी मृग के समान मैं भी उद्भ्रांत हूँ। पर्वत के झरने की तरह अपने वेग से मैं पूरी तरह से चूर हूँ !
वे स्वयं यह नहीं समझा पाये हैं कि संगीत उनके लिए क्या है? इसलिए एक और हिंदी कवि के एक गीत को देकर आज के वक्तव्य का उपसंहार करता हूँ।
मेरी शक्ति का अतीत मेरा गीत है। हजार लाख प्रयत्न के बावजूद जिसे छिपा नहीं पाया, मेरे जीवन को जलाकर वही वज्र के समान सुर और छंद के रूप में ज्वलित हुआ है। हे मेरी काया, हे मेरी जन्मसंगति और संस्कार, किस तरह से तुम उस बज्राग्नि को पहचानोगे? किस तरह से उस अग्नि को बांध्ाकर रखोगे? समिध्ाा की तरह जलकर तुमलोग सार्थक हो जाओ, इसी में तुम्हारी जीत है। अरे मेरी शक्ति के अतिरिक्त गीत, तुम किस हाथ के झंकार से मेरी सारी शिरा, ध्ामनी तंत्रों के मंथन से उत्पन्न अमृत हो? तुम मेरी साँस हो, तुम स्वाध्ाीन हो। यदि तुम्हें मेरे अध्ाीन किया जाता, तब मेरे प्राण, मेरे प्राणों का प्राण कैसे बचता?
मैं तो तुम्हारा दास हूँ। तुम मेरी काया हो। तुम मेरे प्राण हो। सब कुछ मेरे तुम हो।
। बुध्ावार, 8 सावन, 1912 को शान्तिनिकेतन के अध्यापक सम्मेलन में पठित आलेख ।

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