मनुष्य एक शोध निबन्ध अमृता भारती
22-Mar-2023 12:00 AM 1439

Man is the individual human being and yet he is all mankind, the universal man acting in the individual as a human personality. He is all and yet he is himself and unique. He is what he is, but he is also the past of all that he was and the potentiality of all that he is not.
Sri Aurobindo


What a piece of work is a man! how noble in reason! how infinite in faculty! in form, in moving, how express and admirable! in action how like a god! the beauty of the world! the paragon of animals!
Shakespeare

मनुष्य

मनुष्य सुन्दर कृति है, देवों का आयतन।1
ईश्वर ने मनुष्य को अपनी ही प्रतिरूपता में बनाया।2
मनुष्य समस्त प्राणियों का मधु है।3
1. पुरुषो वाव सुकृतम्। ...आयतनं ...। ऐत.उप., 1.2.3
सुकृतं बत ते कृतम्। भा.पु., 3.20.51
पुरुषायतनं महत्। क्षुरिक उप., 10
अथालोच्य वपुर्ब्रह्मा कान्तमात्मीयमुत्तमम्। यो.वा., स्थि. प्र., 44.42
2. तादृग्रूपो हि पुरुषः। मुक्ति उप., 2.59
पुरुषाकृतित्वात् पुरुषः। शंकर भाष्य, बृहद. उप., 1.15.1
ओल्ड टेस्टामेण्ट, जेनोसिस, द न्यू वर्ल्ड ऑर्डर, 9
3. इदं मानुषं सर्वेषां भूतानां मधु।
अस्य मानुषस्य सर्वाणि भूतानि मधु।। बृहद. उप., 2.5.13

मनुष्य अपनी वास्तविक प्रकृति में आत्मा है।1
मनुष्य ईश्वर का अविनाशी अंश है।2
प्राण मनुष्य हैं।3
हे मानवजन, मैं तुम्हें एक रहस्यमय सत्य बताता हूँ-,
‘मनुष्यत्व से श्रेष्ठतर अन्य कुछ नहीं है।’4
कैसी कृति है यह मनुष्य? बुद्धि में कितना उदात्त! मनः शक्ति में कितना असीम! रूप में, संचरण में कितना अभिव्यक्त और प्रशंसनीय! कार्य में एक देवदूत के सदृश! ग्रहणशीलता में मानो ईश्वर! संसार का सौन्दर्य! समस्त जीवों का प्रतिमान!5
मनुष्य में या व्यक्ति-सत्ता में प्राण की स्थिति, शक्ति, क्रिया और परिणामों का विशद विवरण प्रस्तुत करने के लिए यह शोध अध्ययन है। मनुष्य अपने ही अनेक व्यक्तियों, आयामों एवं स्तरों में क्रियाशील एक व्यक्ति सत्ता है। वह पार्थिवता का सर्वोत्कृष्ट सुन्दरतम रूप है जो दिव्यता के प्रति उन्मुख और अग्रसर है।
श्री अरविन्द के शब्दों में- ‘‘इस भौतिक जगत् में मनुष्य परम ‘इच्छा शक्ति’ की सर्वोच्च अभिव्यक्ति है। जिस शक्ति ने लोकों का निर्माण किया, मनुष्य में वह उस ‘वस्तु’ तक पहुँच सकी, जिसे वह अभिव्यक्त करना चाहती थी। ...मनुष्य इस ग्रह पर सर्वोच्च सम्भव नाम या देवता है, एक सम्बुद्ध पार्थिव देवत्व।’’6
‘‘मनुष्य प्रकृति के संक्रमण-परिवर्तन का महान् अभिधान है, जिसमें वह अपने लक्ष्य के प्रति सचेतन होती है। उसमें वह खुली आँखों से अपने दिव्य प्रयोजन का साक्षात्कार करती है।’’7

1. श्री अरविन्द, दि सिन्थेसिस ऑफ़ योग, वाल्यू. 21, पृ. 598
2. ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। गीता, 15.7
जीवः शिवः शिवो जीवः।
स जीवः केवलः शिवः।। स्कन्द उप., 6
ईश्वर अंस जीव अबिनासी। तुलसी, रा.च.मा., उत्तर काण्ड
3. प्राणो मनुष्याः। बृहद. उप., 1.5.6
4. न हि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किचिंत्। वेदव्यास
5. शेक्सपियर, हैमलेट, अंक 2, दृश्य 2
6. श्री अरविन्द, दि उपनिषद्स, वाल्यू. 12, पृ. 176
7. वही, दि सुप्रामेण्टल मेनिफेस्टेशन, वाल्यू. 16, पृ. 279

‘‘मनुष्य अपनी सर्वोच्चता में अर्धदेव है। ...पर अब उसे पूर्ण देवत्व प्राप्त करना है। इसका अर्थ है कि उसके सामने विकास का महान् और दुष्कर श्रम है, पर साथ ही उसके समक्ष है उसकी जाति और उसकी विजय का भव्य किरीट।’’1
मनुष्य मनु-पुत्र है- मनुजातम्2 जो ईश्वर के अवतरण के लिए सबसे अधिक सक्षम है।
यह मनुष्य चिन्तक है- चिकित्वान्3, जो ज्ञान से अभिमन्त्रित है।
यह चिन्तनशील मनुष्य अपनी व्यक्ति-सीमा में उस असीम अनन्त सच्चिदानन्द का अन्वेषण कर रहा है। उसकी हर इच्छा, उत्कण्ठा, व्यग्रता उसी ‘परम’ के लिए है, लेकिन जो अज्ञात, अस्पष्ट और आच्छन्न होने के कारण अवरता में विचरण कर रही है। मनुष्य की यह व्यग्रता और अधीरता पशु और देव से भिन्न है- ‘‘पशु आवश्यकता की स्वल्पता से सन्तुष्ट हो जाता है। देवता अपने सौख्य, ऐश्वर्य से सन्तुष्ट हैं। पर मनुष्य तब तक विश्राम नहीं कर सकता, जब तक कि वह किसी उच्चतम श्रेयस् को प्राप्त न कर ले। वह प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ है क्योंकि वह अत्यन्त असन्तुष्ट और अधीर है, क्योंकि वह सीमाओं के दबाव को सबसे अधिक अनुभव करता है। शायद वह अकेला है जिसे दिव्य सत्ता किसी परोक्ष लक्ष्य के लिए ग्रहण करने योग्य समझती है।’’4
मनुष्य जब तक अपनी आत्मा के हंस को नहीं जान लेता, तब तक वह अकृतार्थ और असम्पूर्ण है। उससे संयुक्ति ही उसकी कृतार्थता है-
अकृतार्थो नरस्तावद्यावद्धंसं न विन्दति।
प्रणवेन समायुक्तं कृतार्थ इति निर्दिशेत्।।5
मनुष्य आत्मा की इस सुगन्ध के साथ ही इस पृथ्वी पर आता है, पर इसी की खोज में वह भटकता है और वह तब तक इस चक्र में घूमता रहता है जब तक कि इसे प्राप्त नहीं कर लेता-
तावद् भ्रमति संसारे यावत्तत्वं न विन्दति।6

1. वही, सोशल ऐण्ड पोलिटिकल थॉट, वाल्यू. 15, पृ. 220
2. ऋक्., 1.44.1
3. वही, 3.17.2
4. श्री अरविन्द, दि लाइफ डिवाइन, वाल्यू. 18, पृ. 46
5. स्वच्छन्द., 6.33
6. वही, 6.32

मनुष्य के अन्दर समस्त सम्भावनाओं का निवास है। सारी स्वतन्त्रताएँ उसके पास हैं। उसके पास उत्थान के आकाश-शिखर हैं और पतन के अतल गर्त्त भी। उसके अन्दर पशु भी है और देव भी। वह इनके बीच निरन्तर संक्रमण कर रहा एक प्राणी है। सारी गौरव-गाथाएँ मनुष्य से जुड़ी हैं और अधःपतन की सारी खाइयाँ भी। फिर भी सर्वत्र वह मनुष्य है, मन और बुद्धि का अधिष्ठान। मननशील प्राणी-
ये विद्वांसस्ते मनवः।
जब ‘स्मृति’ मनुष्य को आहार, निद्रा, भय, मैथुन की सामान्यता के बावजूद पशु से अलग करती है, तब यह बुद्धि तत्त्व है जो उसके वैशिष्ट्य या पार्थक्य का कारण बनता है-
आहारनिद्रा भय मैथुनं च
सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम्।
बुद्धिर्हि तेषामधिको विशेषो
बुद्धेर्विहीनाः पशुभिः समानाः।।1
पर आहार, निद्रा, भय, मैथुन की यह समानता भी मनुष्य में विभिन्न आयाम ग्रहण करती है। वह इसमें भी सामान्य या सर्वसामान्य नहीं है। वह विचार, वचन और कर्म के द्वारा इनमें भी परिवर्तन उपस्थित करता है या उन्हें कृत, अकृत करता है। उसकी भावात्मक सत्ता, उसके भाव-संवेदन शारीरिक क्रियाओं में, जीवन के साधारण से साधारण कार्य में भी सौन्दर्य की अभिव्यंजना और अन्वेषणा करना चाहते हैं।
जब देवता उसकी रचना को ‘सुकृतम्’ कहते हैं तब यह उसका रूप, उसका शरीर भी है जो उसे अन्य पशु-प्राणियों से अलग करता है। उसमें मन है, अहंकार है, सर्वोपरि रूप से विकासशील चेतना है जो शरीर, मन, बुद्धि के रूपों में अपने को चरितार्थ करने का प्रयत्न कर रही है।
श्री अरविन्द मनुष्य में बुद्धि के वैशिष्ट्य को इन शब्दों में प्रकट करते हैं- ‘‘यह प्रज्ञात्मक शक्ति, मनुष्य की यह बुद्धि पूर्ण या ऐकान्तिक रूप से तर्कणायुक्त विचार या संकल्प से निर्मित नहीं है, बल्कि इसमें एक गहनतर, अन्तःप्रज्ञापूर्ण, अधिक उत्कृष्ट और शक्तिशाली प्रकाश और तेजोमयता निहित है। इसका स्वभाव है प्रकाश की ओर प्रेरित करना और यह प्रकाश न तो तर्क की शुष्क ज्योति है और न तो हृदय की आप्लावनयुक्त रोशनी। इसमें विद्युत् की दीप्ति और सूर्य की तेजस्विता है।’’2

1. हितोपदेश
2. श्री अरविन्द, सोशल ऐण्ड पोलिटिकल थॉट, वाल्यू., 15, पृ. 76-77

वनस्पति और पशु जगत् में, यहाँ तक कि खनिज जगत् में भी चीज़ें कार्यक्रम के अन्तर्गत हैं- योजनाबद्ध, एक निश्चय और निश्चिति के अन्दर; जबकि विकास और परिवर्तन वहाँ पर भी है, सिर्फ़ अभिज्ञा या उसकी संवेद्यता नहीं है। ...किन्तु मनुष्य में किसी भी निश्चय की कोई परिधि नहीं है। वह स्वीकार सकता है, नकार सकता है, क्रम के सोपानों में भेद उत्पन्न कर सकता है। वह प्रयोग और आविष्कार कर सकता है। संकल्प और विकल्प का चुनाव उसकी इच्छा पर निर्भर करता है। पृथ्वी उसके पैरों के नीचे है और अन्तरिक्ष उसके शीर्ष पर। संचरण की हर दिशा उसकी अपनी है, उड़ान का हर दिग्मण्डल उसका अपना।
यह सामर्थ्य केवल मनुष्य की ही है, यह स्वतन्त्रता। करने की, न करने की, अन्य प्रकार से करने की क्षमता-
कर्तुमकर्तुमन्यथा वा कर्तुं शक्यम्।1
मनुष्य स्वयं ही अपना निर्माता है, अपने भाग्य का निर्माता भी, क्योंकि भाग्य उसके कर्म के साथ संयुक्त है। मनुष्य की सत्ता, उसकी प्रकृति, जीवन की समस्त अवस्थाएँ, यहाँ तक कि घटनाएँ भी उसकी अपनी आन्तरिक एवं बाहरी क्रियाओं का परिणाम हैं।
मनुष्य विशिष्ट कर्म के साथ धरा पर आया है। यह कर्म यज्ञ है, जिसके साथ प्रजापति ने मनुष्य का सृजन किया है कि वह इससे देवताओं को तुष्ट करे, और देवता उसे तुष्टि प्रदान करें। पोषण और तोषण :
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेषवोऽस्त्विष्टकामधुक्।।2
यह यज्ञ ही कामधेनु है जो उसकी कामना को पूर्ण करती है, जिससे वह फल को दुह सकता है। यह यज्ञ विशिष्ट कर्म है, जो मनुष्य के साथ संयुक्त है। यह यज्ञ कर्म से उत्पन्न है- यज्ञः कर्मसमुद्भवः।3
‘‘यह मनुष्य है जो सचेतन रूप से ऊपर की ओर दृष्टि डालता है। उसके भीतर उसकी चेतना और भी उच्चतर शिखरों की ओर उठना चाहती है। ऊँची से ऊँची उत्तुंगताओं की ओर। महत्तर विस्तार को प्राप्त करना, अपनी निम्नतर प्रकृति को परिवर्तित-रूपान्तरित करना, यह एक ऐसा दबाव है, एक ऐसी स्वभाविक अन्तःप्रेरणा जो उसमें सदा विद्यमान रहती है। ...क्योंकि वह अन्य पार्थिव प्राणियों से भिन्न है और समर्थ है कि स्वयं को आत्मा के प्रति उद्घाटित कर

1. शंकराचार्य, ब्रह्मसूत्र भाष्य, 1.1.2.2
2. गीता, 3.10
3. शंकराचार्य, ब्रह्मसूत्र भाष्य, 1.1.2.2


सके, उसे प्राप्त कर सके। उसकी मानवीय प्रकृति है सचेतन विकास के द्वारा अपना अतिक्रमण करना, जो वह है उससे परे आरोहण करना। ...यह उसकी विकासशील प्रकृति का दबाव है, बाध्यता है कि वह अपने ऊर्ध्वीकरण के लिए संघर्ष करे और अपने आदर्श को मूर्तिमान करे।’’1
हर मनुष्य में अमरत्व की आकांक्षा है। सचेतन या अवचेतन रूप से उसमें मृत्यु का नकार और निषेध क्रियाशील है। अवर जीवों में अमृतत्व की जिज्ञासा या आकांक्षा नहीं है, पर मृत्यु से पलायन उनमें भी है। सामान्यतः मनुष्य भी सिर्फ़ मृत्यु से बचता है, वह अमरत्व की ओर अग्रसर नहीं होता, क्योंकि वह ‘अग्रसरता’ उसकी अन्तरात्मा के चुनाव और उस दिशा में उसकी यात्रा के साथ संयुक्त है। उसके अध्यवसाय के साथ। फिर भी वह इस दबाव से मुक्त नहीं है। यह अनेक रूपों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से बना रहता है। उसकी अन्तर-ज्योति आवरण के पीछे रहने पर भी उसे सूर्य-पथ पर लाने के लिए प्रयत्नशील रहती है। जीवन में चल रहा घटनाओं का क्रम, जन्म और मृत्यु के कोलाहलपूर्ण दृश्य, सारे ही द्वन्द्व-अन्तर्द्वन्द्व, प्रकाश और अन्धकार की छायाएँ, कलरव और क्रन्दन, सामंजस्य और विसंगति सबके बीच से गुजर रही है अन्तरात्मा की यह यात्रा कि मनुष्य का साक्षीभाव जागृत हो और वह इन आयासों से मुक्त हो सके।
मनुष्य में मुक्ति की आकांक्षा स्वभाविक है, मुमुक्षवः पुरुषाः।2 उसमें सन्धान की शक्ति है, सिर्फ़ उसे लक्ष्य का निर्धारण करना है और अपनी इस आकांक्षा को परिपूर्ण एवं परिशुद्ध बनाना है।
‘‘मैं ही ‘वह’ हूँ’’ -यही वह सत्य है जो मनुष्य की चेतना के शिखर पर चमकता है।
‘‘मनुष्य क्योंकि आत्म-चेतन प्राणी है, वह इस अभिज्ञा को उच्च स्तर तक विकसित करता है। वह भौतिक जगत् की सीमाओं में परिवर्धित हुए ज्ञान से या शक्ति से सन्तुष्ट नहीं हो सकता, क्योंकि ये भी सीमित और अनिश्चयात्मक हैं। वह अपने भीतर विद्यमान उस असीम अनन्त का अनुभव करता है, इसलिए वह उसे जानने और प्राप्त करने की आवश्यकता से पलायन नहीं कर सकता।’’3
‘‘वस्तुतः मनुष्य का ‘अज्ञान’ भी बहुमुखी है जो सम्पूर्ण को समाविष्ट करनेवाले ‘ज्ञान’ की प्राप्ति के लिए निरन्तर संघर्षशील है। यही मनुष्य की परिभाषा है।’’4
1. श्री अरविन्द, दि लाइफ डिवाइन, वाल्यू. 19, पृ. 716-717
2. मुक्ति उप., 1
3. श्री अरविन्द, सल्पिमेण्ट, वाल्यू., 27, पृ. 394
4. वही, पृ. 407

शास्त्रों में कथन है- मनुष्य ही शिव है, मनुष्य ही जीव है। विशुद्ध स्वभाव होने पर वह शिवात्मा है और संकुचित होने पर वह जीव है। वास्तव में जीव और शिव में कोई भेद नहीं है :
स तु विशुद्धस्वभावः शिवात्मा, मायापदे तु
संकुचितस्वभावः पशुः।1
जीवशिवयोः वास्तवो न कोऽपि भेदः।2
यह ‘स्वातन्त्र्य’ और ‘संकोच’ का भेद है जो इनमें पार्थक्य या दूरी या अन्य की तरह प्रतिभासित होता है।
श्री अरविन्द इस भेद को इन शब्दों में प्रकट करते हैं- ‘‘मनुष्य की निर्मिति ईश्वर की प्रतिरूपता में हुई, किन्तु उस दिव्य सत्ता और उसकी इस मानवीय प्रतिरूपता के बीच जो अन्तर है, वह यह है कि उस एक में जो असीम, स्वैच्छिक, पूर्ण, समन्वित, आत्म-अधिकृत है, इस दूसरे में वह सीमित, सापेक्ष, कठिन, असंगत, अपरूप संघर्षमय हो जाता है। ...पर इस अनवरत अपूर्णता में सदा ही पूर्णता के लिए एक आकांक्षा और अभीप्सा है। यह सीमित मनुष्य ‘असीम’ और ‘अनन्त’ के लिए लालायित और उत्कण्ठित है।’’3
शास्त्रों में अनेक स्थलों पर दो पुरुषों का दार्शनिक उल्लेख मिलता है। गीता में इस सत्य का प्रकाशन इन शब्दों में हुआ है- द्वौ इमौ पुरुषौ लोके4 -इस लोक में दो पुरुष हैं, एक जो क्षर है- नाशवान् और परिवर्तनशील, दूसरा वह जो अक्षर है, अनाशवान् और अपरिवर्तनशील। मनुष्य जो मर्त्य है, मरणशील, उसमें यह अमृत पुरुष निवास करता है।
इसे स्मृति इस प्रकार भी कहती है कि यह देह के मध्य रहकर भी देह से पृथक् है :
जीवात्मा कायमध्यस्थस्तत्रापि देहवर्जितः।5
एक वह है जो अनभिभूत, अप्रभावित के सदृश इस देह में संचरण करता है- अनभिभूत इव प्रतिशरीरेषु चरति।6 वह शुद्ध है, स्थिर है, अचल, अलेप्य, अव्यग्र, निस्पृह, प्रेक्षक की भाँति स्थित

1. ईश्वर प्रत्यभिज्ञा 11.11.3
2. वही, 4.1; शिवदृष्टि, प्प्. 34
3. श्री अरविन्द, दि सुप्रामेण्टल मेनिफेस्टेशन, वाल्यू. 16, पृ. 278-279
4. गीता, 15.16
5. बृहत्पराशरस्मृति, 317
6. मैत्रा. उप., 2.7

है।1 और एक वह दूसरा है जो अधः-ऊर्ध्व गति तथा द्वन्द्वों से अभिभूत होकर परिभ्रमण करता है- अस्ति खल्वन्योऽपरो ...2
अवांच्योर्ध्वा वा गतिर्द्वन्द्वैरभिभूयमानः परिभ्रमति।3
यह दूसरी सत्ता ही मनुष्य की संघर्षशील आत्मा है जो उस प्रेक्षक की भाँति स्थित, निस्पृह, अनभिभूत आत्मा की तरफ लौटना चाहती है।
ये दोनों पुरुष या दोनों आत्माएँ सयुजा हैं, सखा हैं, पर इनकी वृत्ति, इनका अनुभव अलग हैः
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते।
तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति।।4
ये दो सुन्दर पक्षियों की भाँति मानव-देह रूपी एक वृक्ष पर रहते हैं, पर एक फल को खाता है, दूसरा केवल देखता रहता है।
अन्यत्र इन्हें ब्रह्म के ही दो रूप कहा गया है।
वस्तुतः ये सारे कथन मनुष्य के भीतर निवास कर रही व्यापकता और विराटता का उद्घाटन करते हैं। ईश्वर ने उसे अपनी प्रतिरूपता में सम्भवतः इसीलिए निर्मित किया कि वह अपनी इस संरचना में अपना साक्षात्कार कर सके।
ऋषियों की ऋचाएँ, समस्त शास्त्र, संहिताएँ, स्मृतियाँ, पुराण हर रचना का आदि-अन्त वह ही है- एक आरम्भ जो पूर्णता में परिणत होता है। परा विद्या या अपरा विद्या का हर वातायन उसके लिए खुलता है। ज्ञान की हर ज्योति, मन की हर सम्भावना, हृदय का हर पटल, भाव की हर सुगन्ध सर्वत्र सबमें ही वह है।
‘‘संसार का सम्पूर्ण भौतिक भूतकाल मनुष्य में सार रूप से संचित है और ‘प्रकृति’ ने उसमें अपनी वैश्विक शक्तियों का निचोड़, निष्कर्ष प्रस्तुत किया है।’’5
मनुष्य अन्नमय पुरुष है, प्राणमय पुरुष है, मनोमय पुरुष है, विज्ञानमय पुरुष है और वह ही आनन्दमय पुरुष है।6
यह मनुष्य है, ऋषि मानव जो गान करता है :

1. वही।
2. वही, 3.2
3. वही, 3.1
4. मुण्डक उप., 3.1.1; श्वेता. उप., 4.6; ऋक्., 1.164.20
5. श्री अरविन्द, दि सुप्रामेण्टल मेनिफेस्टेशन, वाल्यू. 16, पृ. 268
6. तैत्ति. उप., ब्रह्मा. 1.2.3.4.5

मैं वह हूँ, जो विश्व-वृक्ष का संचलन करता है। मेरी महिमा पर्वत-स्कन्धों के सदृश उच्च है। सूर्य में अमृत के समान मैं ऊर्ध्व और पवित्र हूँ। मैं महान् चिन्तक हूँ और अमृत से सिक्त हूँ:
अहं वृक्षस्य रेरिवा। कीर्तिः पृष्ठं गिरेरिव। ऊर्ध्वपवित्रोवाजिनीव
स्वमृतमस्मि। द्रविणं सवर्चसम्। सुमेधा अमृतोक्षितः।1
यह मनुष्य है जो प्रार्थना करता है :
स मेन्द्रो मेधया स्पृणोतु। अमृतस्य देव धारणोभूयासम्।
शरीरं मे विचर्षणम्। जिह्वा मे मधुमत्तमा। कर्णाभ्यां भूरि विश्रुवम्।2
इन्द्र मुझे मेधा से शक्तिशाली बनाए। मैं अमृत को धारण करूँ। मेरा शरीर कर्म के लिए स्फूर्तिमय हो। मेरी जिह्वा मधुमयी हो। मेरे कर्ण बहुलता से सुन्दर श्रवण करें।
यह मनुष्य श्रोत्रिय है, श्रेष्ठ है और अपने जीवन का और अपनी समस्त दैहिक-मानसिक शक्तियों का उत्कृष्टतम उपयोग करने का आकांक्षी है। उसमें समस्त इन्द्रियों की सक्षमता के साथ दीर्घजीवन की अभीप्सा है : जीवेम शरदः शतम्।3 आदि
आनन्द-मीमांसा में श्रेष्ठ मनुष्य के आनन्द को इन शब्दों में अभिव्यक्त किया गया है :
युवा स्यात्साधुयुवाध्यायकः। आशिष्ठो दृढिष्ठो बलिष्ठः।
तस्येयं पृथिवी सर्वा वित्तस्य पूर्णा स्यात्। स एको मानुष आनन्दः।4
मनुष्य युवा हो, सुन्दर श्रेष्ठ हो, अध्ययनशील अथवा श्रोत्रिय हो। आशावान् और सुन्दर आचरण वाला हो, उसका हृदय दृढ़ स्थिर हो और शरीर बलवान् हो। और समस्त धनधान्य से पूर्ण पृथ्वी उसकी हो। यह एक मनुष्य का आनन्द है।
वेद-उपनिषदों में सर्वत्र मनुष्य के जन्म-जीवन और धर्म के साथ पृथ्वी की विपुल सम्पदाओं का स्वीकार है। सुन्दर श्रीमय जीवन, उच्च अभीप्साओं से भरा हुआ, लक्ष्य की ओर आरूढ़ और त्यागमय।
सम्पदाओं के स्वीकार के साथ ये वचन भी हैं : त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्य स्विद्धनम्।5 त्यागपूर्वक विषयों का भोग करो, अन्य किसी के भी धन का लोभ मत करो।

1. वही, शिक्षा., 10
2. वही, 4
3. ऋक्., 7.66.16; अथर्व., 19.67.2
4. तैत्ति. उप. ब्रह्मा., 8; बृहद. उप., 4.3.33
5. ईश उप., 1

मनुष्य को धन से तृप्त नहीं किया जा सकता- न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यः।1 उसके साथ दान शब्द जुड़ा हुआ है- देनेवाले मनुष्य की सब प्रशंसा करते हैं- ददतो मनुष्याः प्रशंसन्ति।2
मनुष्य के अन्दर प्रश्न है- क्या मैं धन-सम्पदाओं को लेकर अमृतत्व की प्राप्ति कर सकता हूँ? मैत्रेयी याज्ञवल्क्य से पूछती है :
यन्नु म इयं भगोः सर्वा पृथिवी वित्तेन पूर्णा स्यात्कथं तेनामृता स्याम?3
ऋषि का स्पष्ट उत्तर है- न इति। धन से अमृतत्व की आशा नहीं की जा सकती :
अमृतत्वस्य तु न आशास्ति वित्तेन इति।4
बाहर जो कुछ भी है- सारे सम्बन्ध, धन-सम्पदाएँ, देव और भूतवर्ग, ये सब मनुष्य को इस आत्मा की प्रियता के लिए ही प्रिय हैं, उनकी प्रियता के लिए नहीं- न वा अरे सर्वस्य कामाय सर्वं प्रियं भवति आत्मनस्तु कामाय सर्वं प्रियं भवति।5
मनुष्य सर्वत्र इसी प्रिय की खोज कर रहा है, क्योंकि ये लोक, ये देवगण, ये प्राणी और यह सब जो कुछ भी है, सब आत्मा है :
इमे लोका इमे देवा इमानि भूतानीदं सर्वं यदयमात्मा।6
‘‘अन्तरतम सत्य में यह अन्तरात्मा ही उसकी केन्द्रीय सत्ता है।’’7
मनुष्य एक व्यक्ति सत्ता है, और यह आत्मा उसकी व्यक्ति अन्तरात्मा है। परमात्मा का अंश होकर भी यह उससे पृथक् एक विकासशील एवं संघर्षशील आत्मा है। यही वह सद्वस्तु है, वह दिव्य जोत, जो मानव-अस्तित्व के समग्र विकास एवं उसकी सांगोपांग पूर्णता के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रहती है और मनुष्य को अपनी उपस्थिति के द्वारा सचेतन विकास के लिए बाध्य करती है।
भागवत चेतना सर्वत्र विद्यमान है, हर प्राणी में, पर मनुष्य में यह स्वरूप ग्रहण करती है। श्री अरविन्द ने इसे ‘चैत्य पुरुष’ (साइकिक बीइंग) संज्ञा से अभिहित किया है। ‘‘यह वह सत्ता है

1. छान्दो. उप., 1.27
2. बृहद. उप., 3.8.9
3. वही, 2.4.2
4. बृहद. उप., 2.4.2
5. वही, 2.4.5
6. वही, 2.4.6
7. श्री अरविन्द, दि लाइफ़ डिवाइन, वाल्यू. 19, पृ. 898

जो मनुष्य के शरीर, प्राण और मन को अपने यन्त्रों के रूप में प्रयोग करती है। जो उनकी अधिष्ठाता है, जन्मान्तरों में जीवन के अनुभवों को वहन करती एक मृत्यरहित आत्मा। यह वह आत्मा है जो अनुभव के तारतम्यों को संयुक्त करती है और जन्मान्तरों में विकसित होती चलती है। यह स्थिर अमर तत्त्व जो मनुष्य में विकसित होता है, पुरुष है। वास्तव में यही मनुष्य है।’’1
मनुष्य में दिव्य चेतना का संकेन्द्रण है।
यह चैत्य सत्ता देही है, जो जीर्ण शरीरों को छोड़कर नये शरीरों को धारण करती है- जन्म से जन्म का एक यात्री :
तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि
अन्यानि संयाति नवानि देही।2
वस्तुतः यह व्यक्तिक दिव्य सत्ता है, जो हर मनुष्य में विद्यमान है।
डॉ. राधाकृष्णन ने अन्य प्रकार से व्यक्ति आत्माओं का उल्लेख किया है। उनके शब्द हैं- ‘‘व्यक्ति आत्माएँ अनन्त हैं जो प्राणियों को अनुप्राणित करती हैं और अपनी प्रकृति में शुद्ध, शाश्वत और निर्विकार हैं। किन्तु संसार से सम्बद्ध होकर ये सुख और दुःख का अनुभव करने लगती हैं तथा संसृष्टि-क्रम में असंख्य मूर्तिमान् रूपों को धारण करती हैं।’’3
श्री अरविन्द ने मनुष्य में विद्यमान ‘चैत्य पुरुष’ के विषय में अत्यन्त विशद चिन्तन प्रस्तुत किया है। उनका कथन है- ‘‘यह ‘चैत्य सत्ता’ परमेश्वर की ज्योति है जो हमारे भीतर सदा प्रकाशित रहती है। हमारी बाह्य प्रकृति को आवृत कर रही किसी भी गहन अचेतनता के बावजूद यह सदा प्रज्वलित रहती है। परम दिव्य सत्ता से उद्भूत यह जोत ‘अज्ञान’ में निवास कर रही एक ऐसी प्रकाशमान सत्ता है जो उसमें तब तक विकसित होती रहती है जब तक कि यह उसे ‘ज्ञान’ की दिशा में अग्रसर न कर दे। यह एक छुपा हुआ ‘साक्षी’ है, एक गुप्त ‘पथप्रदर्शक’। यह हमारे जन्म-जन्मान्तरों में विद्यमान अविनश्वर सत्ता है, परम दिव्य सत्ता का अविनाशी अंश। यह अन्तरतम सत्ता बाहर एक ऐसे चैत्य व्यक्तित्व का निर्माण करती है जो परिवर्तित होता है, विकसित होता है, एक जीवन से दूसरे जीवन में प्रगति करता है। क्योंकि यह एक यात्री है- जन्म और मरण के बीच चल रहा एक यात्री।4’’

1. एम.पी. पण्डित, दि कन्सेप्ट ऑफ़ मैन इन श्री अरविन्द, पृ. 7
2. गीता, 2.22
3. राधाकृष्णन’स् इण्डियन फ़िलॉसफ़ी, प्प्, पृ. 342
4. श्री अरविन्द, दि लाइफ़ डिवाइन, वॉल्यू 18, पृ. 225

सत्प्रेम ‘अग्नि’ के रूप में इसका इस प्रकार चित्रण करते हैं- ‘‘यह अग्नि ही उद्घाटक कुंजी है, क्योंकि यह परम ‘शक्ति’ से उत्पन्न है जो विश्व को प्रदीप्त या प्रज्वलित करती है। ...यह नये विश्व की अग्नि है, जो मनुष्य के हृदय में जल रही है, जो सोये हुए प्राणियों में जागती है (य एष सुप्तेषु जागर्ति, कठ उप., 2.2.8)। और यह तब तक विश्राम नहीं लेगी जब तक कि हर चीज़ अपने पूर्ण सत्य में प्रतिष्ठित न हो जाए और यह संसार अपने उस आनन्द में, जिससे यह जन्मा है और जिसके लिए यह विद्यमान है।1’’
वैदिक ऋचा अन्तर में विद्यमान इस प्रज्वलित प्रकाश को सम्बोधित कर कहती है- ‘‘तुम्हारी शक्ति की प्रज्वलित किरणें हर ओर प्रसृत हों, तुमने मनुष्य को परम अमरत्व में प्रतिष्ठित किया है।’’2 ‘‘तुम अपनी महिमा से मनुष्यों को प्रकाशमय करते हो- महिम्ना विभावा सूनृतावान् वैश्वानरः अग्निः।3
‘‘धूमरहित अग्नि के सदृश यह पुरुष भूत और भविष्य का ईश है, यह ही आज है और यह ही कल भी रहेगा।’’4
यह ‘अन्तरात्मा पुरुष’ सदा मनुष्यों के हृदय में निवास करता है- ‘सदा जनानां हृदये सन्निविष्टः।’5
‘‘एक ऋषि, एक शक्तिशाली सर्जक हमारे भीतर है।’’6
‘‘मनुष्य की अपूर्णता प्रकृति का अन्तिम शब्द नहीं है, वैसे ही उसकी पूर्णता भी उसकी आत्मा का अन्तिम शिखर नहीं है।’’7
सत्प्रेम कहते हैं- ‘‘यह बिन्दु भविष्य में सन्निहित है जो अभी हमारे मन के लिए अग्राह्य है। पर वह ‘भविष्य’ हमारे अस्तित्व की गहराई में विकसित हो रहा है, जैसे सारी पत्तियाँ झर जाने के बाद गुलमोहर का फूल विकसित होता है।’’8
मनु ने सर्वत्र विद्यमान ‘अन्तःसंज्ञा’9 का उल्लेख किया है। इसे उद्धृत करते हुए एम.पी. पण्डित का कथन है- ‘‘यह संज्ञा या चेतना सर्वत्र है। दिव्य अग्नि का स्फुलिंग, यह दिव्य अंश
1. सत्प्रेम, ऑन दि वे टु सुपरमैनहुड, पृ. 79
2. ऋक्., 1.97.5
3. वही, 1.59.7
4. कठ उप., 2.1.13
5. श्वेता. उप., 3.13; महानारा. उप., 16.3
6. श्री अरविन्द, सावित्री, वाल्यू. 28, पृ. 370
7. वही, दि लाइफ़ डिवाइन, वाल्यू. 19, पृ. 763
8. सत्प्रेम, ऑन दि वे टु सुपरमैनहुड, पृ. 13-14
9. मनुस्मृति, 1.49
सर्वत्र है। स्थावर जगत् में, पशुओं में भी यह है। यह वहाँ मूर्त नहीं हुआ है बल्कि एक संकेन्द्रण के सदृश है। मनुष्य इस दिव्य अंश के साथ जन्म लेता है। पर मनुष्य के विकसित होने पर यह दिव्य अंश एक सत्ता बन जाता है और यही सत्ता उसके भीतर चैत्य पुरुष का रूप ले लेती है। यह चैत्य पुरुष हृदय केन्द्र में है- वक्ष के मध्य भावात्मक केन्द्र के पीछे इसकी स्थिति है। वहीं से यह प्रभावित करता है, अन्तःप्रेरित करता है और मनुष्य के ऊर्ध्वगामी संचलन को क्रियान्वित करता है। अनेक क्रियाओं के द्वारा, गति-संचलन के द्वारा यह चैत्य पुरुष मनुष्य पर दबाव डालता है कि अहम् के विरूपित आवरण से मुक्ति पा ली जाए, स्वयं को उन्नत और विस्तृत किया जाए। वस्तुतः यह चैत्य पुरुष ही है जो समस्त ईश्वरोन्मुखी क्रियाओं के मूल में है।’’1
‘‘मनुष्य की प्रकृति को चैत्य के साँचे में ढलना है। ...व्यक्ति में प्रकाशमान इस दिव्य व्यक्ति सत्ता को चरितार्थ, प्रत्यक्ष संसिद्ध करना है।’’2
जब श्रुति कहती है, वह महान् देव मर्त्यों में प्रविष्ट हुआ- महो देवो मर्त्यां आविवेश3 तब ये मर्थ्य मनुष्य हैं और यह देव चेतना का साक्षात् रूप है।
मनुष्य की व्यक्ति-सत्ता के विषय में श्री अरविन्द के शब्द हैं- ‘‘हर मनुष्य की अपनी निजी व्यक्तिगत प्रकृति है, जो उस परम दिव्य प्रकृति से उत्पन्न है और उसके किसी एक तत्त्व को प्रतिभासित करती है।’’4
गीता में मनुष्य को, उसकी श्रद्धा को सत्त्वानुरूप कहा गया है- अर्थात् उसकी प्रकृति के अनुरूप। मनुष्य इसी श्रद्धा से निर्मित है और इसी श्रद्धा में निवास करता है। जैसी जिसकी श्रद्धा है, वही वह हो जाता है :
सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।
श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।5
यह श्लोक भी मनुष्य की विशिष्ट प्रकृति का, उसकी पृथक् व्यक्ति सत्ता का निरूपण करता है। यह सत्त्वानुरूपा श्रद्धा एक मनुष्य को दूसरे से अन्यता या व्यक्तिगत वैशिष्ट्य प्रदान करती है और उसके आन्तरिक एवं बाहरी कार्यकलापों का निश्चय करती है।
1. एम.पी. पण्डित, दि कन्सेप्ट ऑफ़ मैन इन श्री अरविन्द, पृ. 63
2. एम.पी. पण्डित, दि कन्सेप्ट ऑफ़ मैन इन श्री अरविन्द, पृ. 65
3. महानारा. उप., 10.1
4. श्री अरविन्द, सोशल ऐण्ड पोलिटिकल थॉट, वाल्यू. 15, पृ. 117
5. गीता, 17.3

‘‘हमारी आत्माओं की जो प्रकृति है, हमारी आकांक्षाएँ जिस ओर उन्मुख हैं, हम, हममें से हर कोई वही हो जाता है’’ -प्लेटो के इस कथन को हम ‘सत्त्वानुरूपा’ शब्द से समझ सकते हैं।
सारी संहिताएँ, सारे शास्त्र उतनी ही व्यापक विविधता के साथ मनुष्य का विधि-विधान प्रस्तुत करते हैं। हिन्दू धर्म-ग्रन्थ हर मनुष्य की इसी विशिष्टता को ध्यान में रखकर अनेक विकल्पों के साथ नियमों का विधान करते हैं। वर्णाश्रम-व्यवस्था के मूल में इसी सत्त्वानुरूपता को लक्ष्य किया जा सकता है। अपनी प्रकृति के अनुसार, स्वभावगत निष्ठा से मनुष्य वर्णाश्रम चुनकर धर्म का अनुष्ठान और ईश्वर का आराधना करता है :
वर्णाश्रमेषु ये धर्माः शास्त्रोक्ता ...तेषु तिष्ठन् नरो विष्णुमाराधयति ...।1
मनुष्य की इस विशिष्टता का कथन पुराण इस प्रकार भी करते हैं कि भागवत सत्ता ने विभिन्नता के विनियोग से नाना रूपों में स्वयं का सृजन किया :
इन्द्रियार्थेषु भूतेषु शरीरेषु च स प्रभुः।
नानात्वां विनियोगश्च ...व्यसृजत स्वयं।।2
मनुष्य या मनुष्य की अवधारणा पर विचार करते समय नर-नारायण की परिकल्पना पर कुछ शब्द महत्वपूर्ण हो सकते हैं। नर और नारायण वस्तुतः एक ही सत्त्व के दो भाग हैं- नारायणो नरश्चैव सत्त्वमेकं द्विधा कृतम्।
पुराणों में इन्हें धर्मदेव के दो पुत्रों के रूप में स्वीकार किया गया है। ये दोनों ही वैखानस तपस्वी थे और महाविष्णु के अवतार भी।
विष्णु पुराण की व्याख्या इस प्रकार है :
आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः।
अयनं तस्य ताः पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः।।3
इसी श्लोक की व्याख्या में यह कथन भी उद्धृत है :
नरतीति नरः प्रोक्तः परमात्मा सनातनः।
भागवत पुराण नर-नारायण को धर्मकला सर्ग में भगवान का चतुर्थ प्राकट्य स्वीकार करता हैः
तुर्ये धर्मकलासर्गे नरनारायणावृषी।4
महाभारत इस युगल मूर्ति का इस प्रकार अभिनन्दन करता है :
1. वि.पु., 3.8.19
2. वि.पु., 1.5.61
3. वही, 1.4.6
4. भा. पु., 3.9

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।1
‘स्मृति’ में नारायण को जगत् के बीज पुरुष के रूप में स्वीकार किया गया है :
पुरुषो यो जगद्वीजमृषिर्नारायणः स्मृतः।2
नर और नारायण उपनिषद् के द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया ...3 कथन की साकार अभिव्यंजना है।
श्री अरविन्द के शब्दों में- ‘‘नर-नारायण की परिकल्पना मनुष्य में ईश्वर की और ईश्वर में मनुष्य के सम्बन्ध की अभिव्यंजक है। नर मानवी आत्मा है और नारायण दिव्य आत्मा है जो मनुष्य में सर्वदा एक गुह्य मार्गदर्शक, सखा और सहायक के रूप में उपस्थित है।’’4
अवतार का प्रयोजन भी मनुष्य के साथ संयुक्त है। मनुष्य अपने अन्धकार में भी विशिष्ट है, अपने मोह में, अपने अज्ञान में।
यह मनुष्य है जो अपने अन्दर संहत हुई धर्म की ग्लानि से और अधर्म के परिवर्धन से भागवत सत्ता को आत्म-सृजन के लिए बाध्य करता है :
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।5
और यह भी मनुष्य ही है जिसकी साधुता की रक्षा के लिए भागवत सत्ता अवतरण के लिए विवश हो जाती है- परित्राणाय साधूनां ...।6
मानुष रूप में- मानुषं रूपं7 और मानुषी देह के आश्रय से- मानुषीं तनुमाश्रितम्8 प्रकट हुआ यह जन्म दिव्य है और उस दिव्य सत्ता का हर कर्म भी दिव्य है- जन्म कर्म च मे दिव्यं ...।9
मानव-देह में विद्यमान भागवत सत्ता स्वयं एक प्रतिमान है मनुष्य के लिए- एक संचरणशील प्रकाश-स्तम्भ और आलोकित पथ एवं लक्ष्य भी।
1. महा., आदि पर्व, अ.1
2. बृहत्पराशरस्मृति, 4.122
3. मुण्डक, 3.1.1
4. श्री अरविन्द, एस्सेज ऑन दि गीता, वाल्यू. 13, पृ. 11
5. गीता, 4.7
6. वही, 4.8
7. वही, 11.51
8. वही, 9.11
9. वही, 4.9

-दुर्लभो मानुषो देहः सर्वदेहेषु सर्वदा-1
मनुष्यत्व दुर्लभ है। दुर्लभता से प्राप्त है इसीलिए शास्त्र मनुष्य को चेतावनी देते हैं- धर्मं कुरुत मा चिरम्।2 वह पुरुषार्थ से जुड़ा है- स्तूयते पुरुषार्थं च।3 यह उसके जन्म और जीवन का प्रयोजन है।
मनुष्य का वैशिष्ट्य उसे न केवल पृथ्वी के अवर जीवों से पृथक् करता है बल्कि देवासुरों की तुलना में भी उसे विशिष्ट स्थान प्रदान करता है। एक ओर यह कथन है- प्राणी कदाचित् ही पुण्य-संचय के कारण मनुष्यत्व प्राप्त करता है- कदाचिल्लभते जन्तुर्मानुष्यं पुण्य संचयात्।4 तो साथ ही ये वचन भी हैं कि देव-असुरों में भी मनुष्यत्व अत्यन्त दुर्लभ है- देवासुराणां सर्वेषां मानुष्यमतिदुर्लभम्।
मनुष्य सब जीवों में उच्चतम है, उसके बाद ही अन्य पशुओं का स्थान है- तावान्वै पुरुषो यः परार्ध्यः पशूनां य सर्वेऽनुपशवः।5
दुर्लभं प्राप्य मानुष्यं6, मानुषं दुर्लभं प्राप्य7, मानुष्यं प्राप्यते पुण्य गौरवात् सर्वस्य मूलं मानुष्यं आदि कथनों से शास्त्र मनुष्य के वैशिष्ट्य को प्रकट करते हैं, क्योंकि यह वैशिष्ट्य अभिप्राययुक्त है, क्योंकि धर्म से प्राप्त यह मनुष्यत्व सब पुरुषार्थों, सब प्राप्तियों का साधक है- धर्ममूलेन मानुष्यं लब्ध्वा सर्वार्थसाधकम्।
देवलोकों में दिव्य भोगों को भोगकर मनुष्य शेष पुण्य से शुभदर्शी मानवत्व को प्राप्त करता हैः
उषित्वा तत्र कल्पान्तं भुक्त्वा भोगानमानुषान्।
प्राप्नोति पुण्यशेषेण मानुष्यं पुण्यदर्शनम्।।8
शास्त्रों में, पुराणों में विशेष रूप से वर्णित ये वक्तव्य कहीं मनुष्यत्व की विशेषता प्रकट करने के लिए हैं, कहीं उसकी क्षमता और शक्ति के प्रदर्शन के लिए और कहीं ये मनुष्य के लिए उसके मनुष्यत्व की चेतावनी हैं, जो उसे उसके जन्म और जीवन के प्रति सचेतन करती हैं।
1. विश्वसारतन्त्र, द्वितीय पटल
2. विष्णुस्मृति, अ. 22
3. चूलिका उप., 4
4. वि.पु., 2.3.23
5. शत. ब्रा., 3.8.4.1
6. वराह उप., 2.5
7. गरुड़ पु., 14.79
8. वही, 14.84

तन्त्रागम में भी ‘मानुष्य’ को दुर्लभ कहा गया है, जो सहस्त्रों-सहस्त्र जन्मों के पश्चात् पुण्य के संचय से प्राप्त होता है :
अत्र जन्मसहस्त्रेषु सहस्त्रैरपि पार्वति।
कदाचिल्लभते जन्तुर्मानुष्यं पुण्यसंचयात्।।1
मनुष्य के अतिरिक्त अन्य कोई भी प्राणी तत्वज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता :
न मानुष्यं विनान्यत्र तत्त्वज्ञानन्तु लभ्यते।2
यह दुर्लभ मनुष्यत्व मोक्ष का सोपानभूत है :
सोपानभूतं मोक्षस्य मानुष्यं प्राप्य दुर्लभम्।3
इसीलिए देवता और पितर भी मनुष्य-जन्म की इच्छा करते हैं :
देवता पितरः सर्वे वांछन्ति जन्म मानुषम्।4
मनुष्यों को रक्षक कहा गया है- मनुष्याः ते गोप्तारः।5
वेद की अनेक ऋचाओं में ‘मनुष्वद्’ शब्द अत्यन्त सुन्दर सार रूप में प्रयुक्त हुआ है- ‘कहीं मनु और कहीं मनुष्य’ के रूप में। जहाँ ये दोनों शब्द आये हैं, वहाँ मनु का कथन मानव-जाति के आदि पुरुष और मार्गदर्शक के लिए है, अन्यत्र ये दोनों शब्द समानार्थक हैं :
मनुष्वदग्न आहुत6
मनुष्वदङ्गिरसस्तमः7
वरुण हवामहे मनुष्वद्8
मनुष्वदग्निं मनुना समिद्ध9

1. कुलार्णव तन्त्र, 1.15
2. वही, 1.17
3. कुलार्णव तन्त्र, 1.16
4. विश्वसारतन्त्र, द्वितीय पटल
5. तैत्ति. सं., 4.4.5.1
6. ऋक्., 8.4.3.1
7. वही, 8.43.27
8. वही, 8.27.7
9. वही, 7.2.3

जो अग्नि मनु ने प्रज्वलित की थी, वह अब मनुष्यों के द्वारा प्रज्वलित हो रही है।
मनुष्य में विद्यमान दिव्य गुणों को सूर्य की रश्मियों का सादृश्य दिया गया है- सप्त रश्मय ...मनुष्वद्दैव्यम्।1
मनुष्य इन गुणों के रूप में दैवी सम्पद2 का अधिष्ठान है।
यह मनुष्य ही है, जो इस भूमि पर वेदी का निर्माण करता है और यज्ञ का विस्तार करता हैः
यस्यां वेदिं परिगृह्णति भूम्यां यस्यां यज्ञं तन्वते विश्वकर्माणः।3
मनुष्य की सम्भावनाएँ अनन्त हैं। उसकी सम्पूर्ण प्रकृति ही यह है कि वह जो है, वह उससे अधिक होना चाहता है। उसे किसी एक बिन्दु में स्थायी रूप से अवरुद्ध नहीं किया जा सकता और न तो उसे किसी विचार या ढाँचे में सीमित किया जा सकता है।
श्री अरविन्द के शब्दों में- ‘‘मनुष्य को मृत्यु और विभाजन से प्रारम्भ करना है और एकत्व एवं अमरत्व तक पहुँचना है। उसे व्यक्ति सत्ता में विश्व सत्ता को और सापेक्ष में निरपेक्ष को संसिद्ध करना है। वह वस्तुपरक अनेकता में आत्म-चेतन हो रहा ब्रह्मन् है। ब्रह्माण्ड में वह ‘अहम्’ है, जो सर्व और सवा्रतीत के रूप में स्वयं को सिद्ध कर रहा है।’’4
तत्त्वमसि का ‘त्वम्’ और अहं ब्रह्मास्मि का ‘अहम्’ मनुष्य है। ये मनुष्य-सन्तानें हैं, जो अमृतपुत्र हैं- अमृतस्य पुत्राः।’
यह मनुष्य है, जो गर्व से मस्तक उन्नत कर कहता है- मैं पृथ्वी का पुत्र हूँ- पुत्रो अहं पृथिव्याः।5
मनुष्य के पास ‘देव’ की प्रतिरूपता में मिला शरीर है, जीवन तत्त्व प्राण है और सर्वोपरि रूप से मिला मन है। मनुष्य मन है, मनु, विचारक और चिन्तक और उसका सब कुछ इसी मन से संचालित है, दुर्बोध मन की जटिलता से। ‘‘मनुष्य क्या है? एक अज और अविनाशी आत्मा, जिसने अपने ही तत्त्वों से निर्मित एक मन में और शरीर में अपना आवास बनाया है।’’6
‘‘मनुष्य एक ‘मानसिक’ सत्ता है, मनोमय पुरुष, जो एक प्राणमय शरीर में प्रविष्ट हो गया है और जो उसे अनन्त मन के योग्य बनाना चाहता है, अनन्त मानसिकता में ढालना चाहता है ताकि यह अभिव्यक्त सच्चिदानन्द का पूर्ण यन्त्र, पीठिका और मन्दिर हो सके।’’7
1. वही, 2.5.2
2. गीता, 16.1-3
3. अथर्व., 12.1.13
4. श्री अरविन्द, दि उपनिषद्स, वाल्यू. 12, पृ. 104
5. अथर्व., 12.1.12
6. श्री अरविन्द, दि सुप्रामेण्टल मेनिफेस्टेशन, वाल्यू. 16, पृ. 383
7. वही, दि उपनिषद्स, वाल्यू. 12, पृ. 516
और मनुष्य उस बिन्दु पर पहुँच गया है, समय के उस मर्मस्थल पर, जहाँ अब उसे कुछ और होना है, मन से परे, मानसिकता से परे।
अतिमानव की अवधारणा ‘महाप्रकृति’ के विकास-क्रम का अब अगला चरण है, जो अनेक रूपों में घटित हो रहा है, गूढ़ और गुप्त रूप से, और जो भविष्य के किसी भी क्षण में प्रत्यक्ष आकार ले सकता है।
‘अतिमानव’ श्री अरविन्द का अन्तर्दर्शन है, उनकी ऋषि आत्मा का साक्षात्कार, जिसे इस धरा पर नयी मानव-जाति के रूप में आकार लेना है। यह मनुष्य की अगली सम्भवता है, जिसकी तैयारी उसकी विज्ञानमयी आत्मा कर रही है।
‘सुपरमैन’, ‘सुपरमाइण्ड’, ‘सुप्रामेण्टल’- श्री अरविन्द के ये सभी शब्द ‘नये मनुष्य’ के लिए और ‘नयी मानव जाति’ के लिए हैं, जिसे अभी आविर्भूत होना है।
मनुष्य के अध्ययन के सन्दर्भ में ‘अतिमानव’ का उल्लेख न केवल प्रासंगिक है, बल्कि यह योगियों, ज्ञानियों, मुमुक्षुओं और भक्तों के लिए एक ऐसे सत्य का उद्घाटन है, जो उनकी दिशा के सूर्य को इस जगत् से पराङ्मुख होने से बचा सकता है और ‘अज्ञान’ या अँधेरे के हर पटल को उसमें अन्तर्निहित रश्मियों से प्रकाशमान कर सकता है।
मनुष्य और पृथ्वी के विकास-क्रम में अतिमानस सृष्टि का आविर्भाव अगली उपलब्धि है। अपने इस आत्मदर्शन और चिन्तन को श्री अरविन्द ने भौतिक जगत् के मापदण्डों और आत्मा के अतिसूक्ष्म प्रतिमानों के साथ अंकित और क्रियान्वित किया है। यह अन्तर्दर्शन उतना सत्य है जितना हमारा यह मानव-अस्तित्व। हमारी सत्ता अभी आवरणों और मलकोशों के अन्दर है। हमारे जन्म में रुदन है, जीवन में संघर्ष और मृत्यु में पराजय। पर अब इस शाश्वत क्रम को टूटना है, क्योंकि मनुष्य के अन्दर उस बीज को बो दिया गया है, दिव्य मानवता के उस भविष्य को, जो इस पृथ्वी के हिरण्मय पटल पर संचरण करेगा।
श्री अरविन्द के शब्दों में ‘‘अतिमानस ही अतिमानव है। गुह्यज्ञानमय अतिमानवत्व पार्थिव प्रकृति के द्वारा लिया जानेवाला अगला विशिष्ट और विजयी विकासमान चरण है। पृथ्वी के विकास में यह अगली आगमनशील उपलब्धि है। यह अपरिहार्य है क्योंकि यह एक साथ अन्तर ‘आत्मा’ का इच्छित संकल्प और ‘प्रकृति’ की प्रक्रिया का युक्तियुक्त तर्क है। स्थावर, पशु-जगत् में मनुष्य का आविर्भाव आगामी दिव्य प्रकाश की पहली झलक थी, भौतिक में जन्म ले रहे देवत्व की प्रथम प्रतिश्रुति। मानव जगत् में अतिमानव का आगमन इस दिव्य प्रतिश्रुति की पूर्णता होगी। भौतिक चेतना में हमारा मन श्रृंखलाबद्ध दास की भाँति कार्य करता है। अब उसमें से शक्ति, आनन्द और ज्ञान का सूर्य-बिम्ब प्रकट हो रहा है। अतिमानस उस देदीप्यमान ज्योति का साकार विग्रह होगा।’’1
1. श्री अरविन्द, दि आवर ऑफ़ गॉड, वाल्यू. 17, पृ. 7
‘‘मनुष्य की महानता इसमें नहीं है कि वह क्या है, बल्कि इसमें है जिसे वह सम्भव कर दिखाता है। उसकी महिमा यह है कि वह ऐसी शिल्पशाला है जिसमें दिव्य ‘शिल्पी’ अतिमानवतत्व को निर्मित कर रहा है। मनुष्य को एक और भी बड़ी महानता के लिए स्वीकार किया गया है और वह यह है कि उसे अवर जीवों से अलग माना गया है और वह आंशिक रूप में स्वयं इस दिव्य परिवर्तन का शिल्पकार है। उसकी सचेतन स्वीकृति, उसकी समर्पित इच्छा और सहभागिता आवश्यक है कि उसमें वह महिमा अवतरित हो सके, जो उसका स्थान ले सके। अतिमानस के रचनाकार के प्रति उसकी अभीप्सा पृथ्वी की पुकार है।’’1
अतिमानव विज्ञानमय पुरुष है, विज्ञान जो सत्य चेतना है- उसका एक प्राणवन्त सत्ता के रूप में प्रकाशन अतिमानवत्व का निरूपण है।
सत्प्रेम के शब्दों में-
‘‘कठिनाई यह नहीं है कि नये पथ की खोज करनी है, बल्कि जो हमारी दृष्टि को बाधित कर रहा है, उसे हटाना, स्वच्छ करना है। मार्ग नया है, पूर्णतया नया, मनुष्यों ने इसे कभी देखा नहीं है और न तो कभी आत्मा के अखाड़ेबाज मल्लों ने इस पर संचरण किया है, फिर भी लाखों साधारण लोग प्रतिदिन इस पर चल रहे हैं, उस निधि, उस धनागार से अनजान, जिसे वे छू रहे हैं।’’2
‘‘मनुष्य अनजाने, अनचाहे ही अतिमानव के योग को कर रहा है। हम किसी मत या परिकल्पना को प्रस्तुत नहीं कर रहे हैं बल्कि यह एक विकासशील यथार्थ है, मानसिक चेतना ने उसके अर्थ को ग्रहण कर लिया है और अब इसने हमें अप्रतिरुद्धता के साथ उस बिन्दु तक पहुँचा दिया है कि हमें सम्पूर्ण रूप से किसी और चीज़ में घटित होना है।’’3
यह सत्ता का सत्य है- अमर, अनन्त और अभेद्य।
‘‘यह तब तक विराम नहीं लेगा जब तक कि यह सम्पूर्ण पृथ्वी और इसके प्राणी इसकी प्रतिरूपता ग्रहण न कर लें। ...यह नया प्राणी, एक दूसरे ही सार सत्त्व से बना यह ‘नया मनुष्य’ ‘सत्य’ की भाँति ही अमर, प्रकाशमान और भारहीन होगा।’’4
हम जिस विशिष्ट बिन्दु और जिस क्षण में खड़े हैं, सत्प्रेम का कथन है- ‘‘सारी पृथ्वियाँ और सारी आकाशगंगाएँ इस मूलभूत बिन्दु से गुज़र रही हैं। हमें केवल अपने मस्तिष्क और केवल

1. श्री अरविन्द, दि आवर ऑफ़ गॉड, वाल्यू. 17, पृ. 9
2. सत्प्रेम, ऑन दि वे टु सुपरमैनहुड, पृ. 32
3. वही, पृ. 142-143
4. वही, पृ. 164

अपने हृदय में नहीं, इस वैशिष्ट्य को अपने शरीर में अनुभव करना है। तब यह चमत्कार पूर्ण हो जाएगा और ‘आत्मा’ के शिखरों पर चमकता वह शाश्वत कमल हमारे भौतिक तत्त्व और समय के हर क्षण में प्रकाशमान होगा।’’1
‘‘अतिमानवत्व की उपदेशणा प्रगतिशील मानव-जाति के लिए एक उदात्त आदर्श प्रदान करती है। ...यह एक पुकार है मनुष्य के लिए, वह करने के लिए, जिसे पृथ्वी के इतिहास में न अन्य किसी जाति ने कभी किया है और न जिसकी अभीप्सा की है- स्वयं को सचेतन रूप से अगले श्रेष्ठतर ‘प्रकार’ में विकसित करना।’’2
श्री अरविन्द वैदिक ऋषियों को उद्धृत करते हैं जो मनुष्य की इस सम्भावना में विश्वास करते थे और इसे उसकी दिव्य नियति के रूप में स्वीकार करते थे।
‘अतिमानवतत्व सबका एक सुनिश्चित, दिव्य और सामंजस्यपूर्ण पूर्णत्व है जो मनुष्य में मुख्य और सारभूत रूप से है।’’3
दूर, पार कहीं कुछ है, जिसे मनुष्य को होना है।
‘‘इस भौतिक जगत् में जीवन गुप्त था, तब जीवन प्रकट हुआ। जीवन में मन प्रच्छन्न था, तब मन प्रत्यक्ष हुआ। इसी प्रकार वस्तुओं की इसी प्रकृति में गुप्त अतिमानस से प्रत्यक्ष अतिमानस को आविर्भूत होना है।’’4
‘‘मनुष्य की वर्तमान स्थिति और दिव्य स्थिति के बीच ‘विज्ञान’ कड़ी है, एक द्वार जहाँ से मनुष्य दिव्य मानवता में प्रवेश कर सकता है।’’5
मनुष्य एक पिण्ड और यह ब्रह्माण्ड- इनका सत्य वह ‘पथ’ है जो सूर्य-रश्मियों की तरह फैला हुआ है। सामंजस्यपूर्ण एकत्व और संयुक्तीकरण योग की परिभाषा है। जो अन्तःचेतना में गुप्त है, उसे प्रकाशित करना, जो ऊर्ध्व में स्थित है, उसकी ज्योतिर्मय सत्यता में जीना, जीना सिखाना योगशक्ति का कार्य है, हो सकता है, यदि हम योग को इसके पूर्णत्व में ग्रहण कर सकें। प्राण, समष्टि और व्यष्टि, योग एवं जीवन का आधार है। मनुष्य भूमिका है- पीठिका, अतः उसकी बहुमुखी सत्ता के आयामों और उसकी सम्भावनाओं को रेखांकित करना इस अध्ययन की प्रस्तावना या प्राक्कथन है। मनुष्य एक विराट् पट्ट या पटल है, जिसके संस्तरों में प्राण के आयामों को न केवल शास्त्रीय बल्कि शास्त्रों में निहित वैज्ञानिक दृष्टि से, विज्ञानमयता से विश्लेषित होना है।
1. वही, पृ. 97
2. श्री अरविन्द, दि सुप्रामेण्टल मेनिफ़ेस्टेशन, वाल्यू. 16, पृ. 275
3. वही, पृ. 278
4. वही, दि लाइफ़ डिवाइन, वाल्यू. 19, पृ. 269
5. वही, दि आवर ऑफ़ गॉड, वाल्यू. 17, पृ. 64
मनुष्य की सम्भावनाएँ अनन्त हैं। वह प्रतिपल विकसित हो रहा प्राणी है। सजग, सचेतन, विराटतर हो रहे दिगन्तों की ओर, ऊर्ध्वतर और सूक्ष्मतर ज्योतिर्मय आकाशों की ओर अग्रसर।
मनुष्य की सम्भावनीयता के विषय में मेवलाना जलालुद्दीन रूमी की सूफी सूक्ति से हम इस प्रकरण को विराम देते हैं :
मैं खनिजत्व में मर गया और वनस्पति बन गया।
और फिर मैं वनस्पति में से मरकर पशु बन गया।
मैं पशुत्व में से मर गया और मनुष्य बन गया।
तो मृत्यु से लुप्त होने से डरना क्यों?
अगली बार मैं मरूँगा
तब देवदूतों के समान पंख लेकर आऊँगा
उसके बाद देवदूतों से भी ऊपर उड़ता हुआ मैं
तुम जिसकी कल्पना न कर पाओगे
‘वह’ बन जाऊँगा।

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