"मंच रज़ा का है और बात हुसैन की" - आशीष पाठक
19-Aug-2020 12:00 AM 11185
इंसानी इतिहास में यह बात उभर कर आती है कि किसी एक व्यक्ति ने कुछ कहा और उस वक़्त के सारे संस्थानों से उसे ताउम्र जूझना पड़ा। खतरा पहले भी जान का था, खतरा आज भी जान का ही है। आप उतनी ताकत से कहते है जितनी आपकी ज़रूरत होती है। जितनी जिम्मेदारी आप उस समय महसूस कर रहे होते हैं। सूचनाएं इतनी अधिक है हवा में कि हम चलते कम और सूचनाओं से टकराते अधिक है।ये सूचनाएं छनकर लेखक के अकेलेपन को घेर लेती है ,वो अपने विवेक से एक-एक अक्षर की पड़ताल करता है,घंटो उस पर सोचता है फिर किसी असीम बेचैनी के पलों में कलम उठाता है, चित्र बनाता है, नाटक लिखता है और एक रचनात्मक योगदान देता है।लिखने वाले का अकेलापन संसार में किसी निर्जन टापू सा होता है, उस जगह वो किसी को बर्दाश्त नहीं कर पाता।उसकी बेचैनी का स्तर उसके अकेले वक़्त का समानुपाती होता है, वो ख़ुद को, इस वक़्त को अपनी पूरी जिम्मेवारी से लयबद्ध कर रहा होता है। ऐसे सन्नाटे में जब नारे गूंज उठते है तो वो चौंकता है, उसके दरवाज़े पर कुछ लोग हैं, जिनकी भावनाएं आहत हुई हैं! वो सोचता है मैं तो अपनी भावनाएं दर्ज कर रहा था, ये कब हुआ? कहना कभी आसान नही था, आज भी नही है, खतरे पहले भी थे, आज भी हैं।
"अब कोई खतरा नहीं,
अब सबको सबसे खतरा है"
पहले दुश्मन की साफ पहचान थी, अब संख्या इस कदर बढ़ गयी है कि वो आपका दूधवाला, पेपरवाला, कोई गहरा दोस्त या सगा संबंधी भी हो सकता है जो आवारा भीड़ में सबसे आगे खड़ा है। हम रंगमंच में / कला में देखने-सुनने सोचने और महसूस करने का अभ्यास करते हैं और पाते हैं कि निरंतर अभ्यास से इसे बेहतर किया जा सकता है। ऐसा लगता है कि विकास के इस पायदान पर इंसान खूब सुन रहा है, खूब बोल रहा है, खूब सोच रहा है, वो ऐसा बताता भी है कि वो खूब महसूस भी कर रहा है। मैं अपने कला जीवन के अनुभव से कह सकता हूँ कि संवेदनशीलता तेज़ी से घट रही है। खाना खाते हुए आप आठ-दस हत्याएं, पाँच - छः बलात्कार और दो बड़े घोटालों के साथ दस आंदोलनों के प्रस्ताव भी चबा जाते हो, सोने के पहले क्राइम पेट्रोल का चूर्ण भी फांक लेते हो, आपको कुछ नही होता ।महसूस होना कम हुआ है (किया गया है)। अभिनेता के सुनने, देखने और सोचने की कमी से अक्सर वो वह नहीं महसूस कर पाता जिसे उसे करना चाहिए कई बार तो वो सर्ववर्जित 'अति अभिनय' कर बैठता है, सिर्फ ये बताने के लिए की वो सुन रहा था, सोच रहा था, देख रहा था, उसने महसूस कर लिया है, लेकिन पकड़ा जाता है। मेरा पाला अक्सर दोनों ही प्रकार के अभिनेताओं से पड़ता है, जिसमें से ये ओवराक्टिंग वाला असहनीय हो जाता है।
जो दिख रहा है
वैसा लिख
जो लिख रहा है
वैसा दिख....
संविधान बोलने की आज़ादी का अबाध अधिकार हमको देता है, ये हमे अधिक ज़िम्मेवार भी बनाता है। इस असंवेदनशील समय में रामचंद्र गुहा बोलने की आज़ादी के 8 ख़तरे बताते हैं, ये जानलेवा खतरे हैं। वो बेचैनी जो लिखने और चित्र बनाने पर मजबूर कर देती है, वो भी जानलेवा है। यही रचनाकार का संघर्ष पहले भी रहा है और उसी मात्रा में आज भी बना हुआ है। राजेश जोशी की कविता "मारे जाएंगे" में मुझे अब 'जो नही रचेंगे, मारे जाएंगे' भी सुनाई देता है।
"सुंघाई नही दे रही मुझे दवा की गंध,
कहीं पास में खिल रहे होंगे कार्निशन्स।
यह इस तरह है:गिरफ्तार हो जाना अलग बात है,
खास बात है आत्मसमर्पण न करना"-नाज़िम हिकमत
 
कभी भी स्पिनोज़ा को दरकिनार करके कोई आवारा भीड़ आप तक पहुच सकती है। ब्रिटिश कानून का कोई बचा रह गया अनुच्छेद आपके ख़िलाफ़ काम में लाया जा सकता है। महीने भर के काम काज के बीच अदालत में पेश होने की तारीख़ सबसे पहले याद रखनी पड़ सकती है। एक सिपाही को संविधान की याद दिलाकर चार जूते खाने पड़ सकते हैं। आपके काम को तो पहले भी लोग लाल, पीला, गुलाबी चश्मा लगाकर देख रहे थे, अपनी पसंद का उठाकर बाकी कूड़े में फेंक रहे थे। अब बदले वक़्त में वो खुद आपको उठाकर कूड़ेदान में फेंक सकते हैं या बिना 'छुए' कूड़ा साबित कर सकते हैं, कमर्शियल मीडिया के लिए ये एक दिन का भी काम नहीं। खतरा बढ़ गया है सिर्फ लेखक/ कलाकार के लिए नहीं। इस असंवेदनशील समय में इंसान खुद एक सूचना बन गया है, जैसे ही कोई कहता है "सूचना देते रहिएगा" मुझे लगता है वो मुझे जानना नही चाहता, सिर्फ सूचना चाहता है, वो मुझे सिर्फ सूचना मान रहा है। हमे तेज़ी से एक ऐसे समाज के विषय में सोचना चाहिए बल्कि उसके निर्माण की प्रक्रिया में जुट जाना चाहिए जिसमें लोग बेहतर सुनते, देखते, सोचते और महसूस करते हो। जिनके लिए इस सूचना क्रांति के दौर में भी इंसान सूचना मात्र ना रह जाये। यह काम हमारे पहले से होता आ रहा है, हम पूरी जिम्मेदारी से इसे अपना काम मानते हैं और सिर्फ और आज़ाद ही नही संवेदनशील समाज की कल्पना करते हैं। इसके लिए काम करते हैं, ख़तरे उठाते हैं।
जनपद का कवि त्रिलोचन रचते हैं,उसमें लोहा मुक्तिबोध भरते हैं -
"अगर मेरी कविताएं पसंद नहीं
उन्हें जला दो,
अगर उसका लोहा पसंद नहीं
उसे गला दो,
अगर उसकी आग बुरी लगती है
दबा डालो,
इस तरह बला टालो
लेकिन याद रखना,
यह लोहा खेतों में तीखे तलवारों का जंगल बन सकेगा 
मेरे नाम से नहीं, किसी और के नाम से सही,
और यह आग बार बार चूल्हे में सपनो सी जगेगी 
सिगड़ी में ख़यालो सी भड़केगी,
दिल में दमकेगी,
मेरे नाम से नहीं किसी और नाम से सही
लेकिन मैं वहाँ रहूँगा
तुम्हारे सपनो में आऊँगा
सताऊँगा
खिलखिलाऊँगा
खड़ा रहूँगा
तुम्हारी छाती पर अड़ा रहूँगा"-मुक्तिबोध
-आशीष पाठक
© 2025 - All Rights Reserved - The Raza Foundation | Hosted by SysNano Infotech | Version Yellow Loop 24.12.01 | Structured Data Test | ^