मनुष्य का सांस्कृतिक मन नष्ट हो गया है-ऋत्विक घटक
12-Dec-2017 05:54 PM 5802

बांग्ला से अनुवाद : रामशंकर द्विवेदी

ऋत्विक घटक का जन्म 4 नवम्बर, 1925 को पूर्वी बंगाल के पावना जिले के नये भारंगा में हुआ था। पिता सुरेशचन्द्र की ख्याति विशिष्ट चल-चित्रकार के रूप में थी। राजशाही कॉलेज से अँग्रेज़ी ऑनर्स के साथ बी.ए. किया। विद्याथी जीवन से ही कथाकार के रूप में ख्यात थे। विमल राय के सहयोगी के रूप में सिनेमा जगत में प्रवेश। 1952 ई. में पहली निर्देशित फ़िल्म ‘नागरिक’। 1957 ईस्वी में ‘अजान्त्रिक’ के रिलीज़ होने के साथ ही एक सफल फ़िल्म निर्देशक के रूप में मान्य हुए। ऋत्विक दा की निर्देशित उल्लेखनीय फ़िल्में हैं : ‘वाडि थेके पालिये’ (घर से भागकर) 1958, ‘मेघे ढेका तारा’ (1959), ‘कोमल गन्धार’ (1960) और ‘सुबर्णरेखा’ (1962)। अपनी कहानी के आधार पर निर्मित अन्तिम फ़िल्म ‘जुक्ति, तक्को ओ गप्पो’। बांग्लादेश में निर्मित फ़िल्म ‘तिताश एकटेर नोदीर नाम’। जीवन के अन्तिम दौर में ‘ज्वाला’ नामक नाटक। कुछ दिनों पुणे के फ़िल्म संस्थान के अध्यक्ष भी रहे। भारत सरकार से ‘पद्मश्री’ अलंकरण। पुणे के फ़िल्म संस्थान में रहते हुए ऋत्विक दा ने मणि कौल, कुमार शहानी और जॉन अब्राहम जैसे विलक्षण फ़िल्मकारों को फ़िल्म कला में दीक्षित किया। आज ऋत्विक घटक और उनके ये विलक्षण शिष्य फ़िल्मकला के उत्कृष्टतम कलाकारों के रूप में सर्वमान्य हैं।
यहाँ चित्रनाट्य पत्रिका से ली गयी बातचीत के कुछ अंश प्रस्तुत किये जा रहे हैं। यहाँ हमने प्रश्नों को हटाकर केवल ऋत्विक दा की आवाज़ के उतार-चढ़ाव को ही संकलित किया है। उन दिनों ऋत्विक दा कलकत्ता के पार्क सर्कस अंचल के तपेदिक के अस्पताल में भर्ती थे। यह 1973 की बात है। - अनुवादक

मेरे सिनेमा के संसार में आने के कई कारण थे। मेरे दादा यानि मेरे मँझले भाई की मृत्यु हो गयी थी, वे इस देश के पहले टेलीविजन विशेषज्ञ थे। मँझले भाई ग्रेट ब्रिटेन में डाक्यूमेंट्री कैमरामेन के रूप में छह वर्ष काम करने के बाद 1935 में देश लौट आये थे और न्यू थियेटर्स में वे शामिल हो गये थे। सहगल, काननवाला की फ़िल्म ‘स्ट्रीटसिंगर’ में उन्होंने कैमरामेन के रूप में काम किया था, इस तरह की अन्य अनेक फ़िल्मों में उन्होंने काम किया था। मँझले दादा की वजह से मैंने बचपन से ही यह देखा है कि बरुआ साहब से लेकर विमल राय तक फ़िल्म से जुड़ी कई हस्तियाँ अक्सर मेरे घर आती-जाती रहती थीं। इसका परिणाम यह हुआ कि हमारे घर में उस ज़माने की शुरूआत से ही फ़िल्म की एक आबोहवा या परिवेश तैयार हो गया था और सभी लोग जिस तरह की फ़िल्में देखते हैं, मैं भी इनकी वैसी ही फ़िल्में देखा करता था। मुझमें एक विशेष उत्साह इसलिए था क्योंकि मैं इन्हें दादा के साथ अड्डा मारते हुए देखा करता था। एक दिन फ़िल्म जगत में जाऊँगा, यह बात उस समय नहीं सोची थी। अनेक तरह के काम किये हैं, घर से दो-तीन बार भागा भी हूँ। कानपुर की एक टेक्सटाइल मिल के बिल डिपार्टमेंट में काम भी किया है। उस वक़्त भी सिनेमा दिमाग़ में नहीं घुसा था। ज़बरदस्ती घर के लोग कानपुर से पकड़ कर ले गये, यह 42 की बात है। बीच में दो वर्ष पढ़ाई-लिखाई में गये। घर से जिन दिनों भागा था, उस समय मेरी उम्र चौदह थी। बाबा ने कहा था, मैट्रिक की परीक्षा देकर इंजीनियर-फिंजीनियर बना जाए, नहीं तो तुम मिस्त्री बनकर रह जाओगे। सहसा क्या हुआ कि पढ़ने-लिखने में मन लग गया और उसके बाद पढ़ाई-लिखाई की ओर ही मन टिक कर रह गया। बंगाली लड़के- लड़कियों की जो बँधी हुई जीवन दिशा है या फ्रांसीसियों के बारे में जैसा कि सुनने में आया है कि इन दोनों के भीतर जैसे ही कोई रचनात्मक प्रेरणा जागती है, सबसे पहले इनके भीतर से कविता निकलती है। इस प्रवृत्ति के अनुसार दो-चार अत्यन्त अभागी रचनाओं से मेरा कलात्मक प्रयास शुरू हुआ। उसके बाद मैंने देखा कि यह मुझसे न हो सकेगा। कविता के एक लाख मील लम्बे पथ पर मैं किसी भी दिन नहीं चल सकूँगा। उसके बाद हुआ क्या? मैं राजनीति में घुस पड़ा। 43-44-45 के ज़माने के बारे में जो जानते हैं, उन्हें पता है कि वह राजनीति की दृष्टि से तेज़ बदलाव का समय था।
उस समय फ़ासीवाद विरोधी आन्दोलन होने के साथ-साथ जापानी आक्रमण, ब्रितानियों का पलायन, अपने यहाँ वही युद्ध-बम-टम, ऐसी एक के बाद एक बड़ी जल्दी कई घटनाएँ घट गयीं। चालीस-इकतालीस में हम लोगों का शान्त, निस्तरंग जीवन था कि सहसा चवालीस-पैंतालीस में एक के बाद एक कई घटनाएँ घट गयीं। चावलों के दाम बढ़ गये, अकाल फैल गया, एक के बाद एक कई बदलावों ने मनुष्य की विचारधारा को बड़ा धक्का दिया।
उस समय मैं मार्क्सवादी राजनीति की ओर झुक गया था। सिर्फ़ झुका ही नहीं था, सक्रिय कार्यकर्त्ता बन गया था, हाँ, कार्ड होल्डर नहीं था पर आत्मीयतापूर्ण सहानुभूति रखने वाला अवश्य था। उसी समय लिखने की भी शुरुआत की थी। कहानी लिखने की उत्कट इच्छा उत्पन्न हो गयी थी पर कविता लिखने का वही धुँधला प्रयास फिर मन में उत्पन्न नहीं हुआ। उस छोटी उम्र में चारों ओर जो सब अन्याय, अत्याचार आदि देख रहा था, उसका एक राजनैतिक प्राणी के रूप में मुखर विरोध करने ही कहानी लिखने की प्रबल इच्छा पैदा हो गयी थी। कहानी मैं कोई बहुत ख़राब नहीं लिखता था। मुझे आज भी याद है मेरी और समरेश की पहली छपी हुई कहानी ‘अग्रणी’ पत्रिका में निकली थी, उसके बाद सजनी बाबू की पत्रिका ‘शनिवारेर चिठि’ में, ‘गल्प भारती’ में जिसके एडीटर उस समय नरेन्द्र कृष्ण बाबू थे, ‘देश’ पत्रिका में भी कुछ कहानियाँ छपीं, इस प्रकार कुल मिलाकर मेरी पचास कहानियाँ प्रकाशित थीं। इसी दौरान मैंने एक पत्रिका निकाली थी, जो लगभग मार्क्सवादी विचारधारा की थी। इसी दूरदराज़ के शहर में रहकर मैं उस समय राजशाही शहर में तीसरे साल में पढ़ रहा था। दूरदराज़ के शहर में छपने वाली पत्रिका उस समय एक दुर्लभ घटना थी, कई महीने वह पत्रिका चलती रही, सब कुछ अपने रुपये-पैसे से चलने वाला मामला था। हाँ, जैसा कि नियम है इस तरह की पत्रिकाओं का, यह भी कुछ समय बाद बन्द हो गयी। उसके बाद ऐसा लगा कि कहानी लिखना नाकाफ़ी है, फिर कहानी कितने लोगों को स्पन्दित करती है और अगर करती है तो बहुत गहरायी में जाकर और वहाँ तक पहुँचने में लम्बा समय लगाती है। मेरा उत्तेजक रक्त तुरन्त प्रतिक्रिया चाहता है। उसी समय ‘नवान्न’ थियेटर की स्थापना हुई। ‘नवान्न’ ने मेरे पूरे जीवन की धारा पलट दी।
जननाट्य संघ से मैं उस समय नहीं जुड़ा था। फिर भी उसी के आसपास घूमता रहता था, शम्भुदा, विजनबाबू, सुधी बाबू, दिगिन बाबू, गंगादा, गोपाल हलदार मोशाई, मानिक बाबू, ताराशंकर दा आदि हरेक से मेरी जान-पहचान थी। जननाट्य संघ उस समय कोई अलग से संस्था नहीं थी, प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन का ही एक भाग थी। ताराशंकर दा उसके अध्यक्ष थे। इन सभी के साथ मेरा परिचय संवाद था। मेरे बड़े भाई ‘कल्लोल’ युग के प्रसिद्ध कवि थे युवनांश्व ‘मनीष घटक’। उसी वजह से साहित्यिक जगत के साथ हमारे परिवार का योगायोग था। सिनेजगत के लोगों को जिस तरह पहचानता था, ठीक वैसे ही इन लोगों को भी। और ‘नवान्न’ एकाएक मेरे पीछे पड़ गया था। सबसे पहले विजन बाबू ने ‘आगुन’ (चिंगारी, आग) की रचना की, बाद में इसी को बढ़ाकर ‘जवानबन्दी’ एकांकी की। और ‘जवानबन्दी’ की सफलता के बाद इसी को बढ़ाकर पूर्ण नाटक ‘नवान्न’ की रचना और उसका मंचन किया गया। ‘नवान्न’ ने मेरे सोचने के ढंग को बदल दिया, मैं नाटक की ओर झुकता ही चला गया। ‘इप्टा’ का सदस्य हो गया। बाद में ‘नवान्न’ को उन्नीस सौ सैंतालीस के अन्तिम चरण में जब फिर से खेला गया, उसमें मैंने अभिनय भी किया था। उसके बाद मैं पूरी तरह जननाट्य संघ के केन्द्रीय दल का नेता भी हो गया था। नाटककार के रूप में इप्टा के लिए मैंने नाटक लिखे थे। नाटक की प्रतिक्रिया तत्काल होने की वजह से नाटक मुझे बहुत अच्छे लगने लगे थे। फिर कुछ दिन बाद क्या हुआ कि नाटक भी मुझे नाकाफ़ी लगने लगे, मन में आया कि नाटक का प्रभाव भी सीमित होता है। नाटक मुश्किल से चार-पाँच हज़ार लोगों के बीच की घटना होता है। हम लोग जब मैदान में नाटक खेला करते थे, चार-पाँच हज़ार लोग इकट्ठे हुआ करते थे, नाटक से उनको एक साथ सम्बोधित कर दिया जाता था। उसी समय सिनेमा का विचार आया, सिनेमा लाखों लोगों को एक साथ एक ही बार में पूरी तरह अपने प्रभाव में ले सकता है। इस तरह मैं सिनेमा में आया न कि फ़िल्म बनाऊँगा यह सोचकर। कल अगर सिनेमा से भी अच्छा माध्यम निकल आता है, तो सिनेमा को भी छोड़कर चला जाऊँगा। मेरा फ़िल्मों से कोई प्रेम नहीं है।
हाँ, अपना वक्तव्य प्रकाशित करने के माध्यम के रूप में, एक हथियार के रूप में....
इसे अगर आप राजनैतिक बात कहते हैं, तब इसका अर्थ यह है कि आप एक निरर्थक बात कह रहे हैं। राजनीति जीवन का विराट अंश है, राजनीति के बिना कुछ भी नहीं होता है, हर मनुष्य राजनीति करता है, जो कहता है कि मैं राजनीति नहीं करता, वह भी करता है। अराजनैतिक जैसी कोई बात ही नहीं है। आप हर समय या तो पक्ष या विपक्ष के हिस्से होते हैं, इसलिए वे सब बातें छोड़ ही दीजिए, उन सब बातों की चर्चा करने पर अन्य तर्क-वितर्क में जाना पड़ेगा। मैं उस समय भी सोचता था और आज भी सोच रहा हूँ, राजनीति के साथ-साथ दर्शन, भारतीय इतिहास, परम्परा आदि के सन्दर्भ में नयी फ़िल्मों के मामले में अगर विचार किया जाए, वे भारत के प्राचीन जीवन और विराटता की बुरी तरह उपेक्षा करती हैं। इन सबके बारे में अगर पढ़ा-लिखा जाए तो ये उसे प्रगतिशीलता के विरूद्ध मानती हैं। मैं मोटे रूप में इन्हीं सबको लेकर फ़िल्म बनाता जा रहा हूँ और जब तक जीवित रहूँगा, यही सब करता जाऊँगा। कल अथवा आज से दस बरस बाद सिनेमा से बढ़कर अगर कोई अच्छा माध्यम निकल आया और अगर मैं दस वर्ष और जीवित रहा तो सिनेमा को लात मारकर, वहाँ चला जाऊँगा। सिनेमा के प्रेम में महाशय मैं नहीं पड़ा हूँ।
लोग जब फ़िल्म बनाते हैं, तब अगर उन्हें फ़िल्में बनाना अच्छा न लगे तो नहीं बनाएँगे, मैं तो नहीं बनाता। जिस विषय को लेकर मैं फ़िल्म बनाने की सोच रहा हूँ, अगर मुझे वह अच्छा न लगे, उस पर फ़िल्म बनाना कैसे सम्भव है। फ़िल्म निर्मित करने की, शारीरिक परिश्रम करने की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण दिशा होती है, अमानवीय परिश्रम नाम का भी एक व्यापार होता है किन्तु खटने का मतलब सांघातिक रूप से खटना। फिर इसका एक आर्थिक पक्ष भी है। इतना कष्ट सहकर धन इकट्ठा किया फिर एक उन्मादग्रस्त व्यक्ति की तरह खटते हुए एक फ़िल्म बनायी। उस फ़िल्म का विषय अगर मुझे पसन्द न आया होता तो कुछ करने की प्रेरणा कहाँ से मिलती? मनुष्य खटता है यानि एक तरह का खटना रचनात्मक खटना होता है और क्या कहा जाए, पसन्द होने के कारण ही वह खटता रहता है। केवल पैसा मिलेगा अथवा नाम होगा सिर्फ़ इस वजह से खटता होगा, ऐसा मुझे नहीं लगता। जो सहज रूप से समझते हैं मैं उनकी बात नहीं कर रहा हूँ, अधिकांश मनुष्यों की बात नहीं कह रहा हूँ। मुट्ठी भर वे लोग जो फ़िल्मों को गम्भीरता से लेते हैं, मैं उन्हीं की बात कह रहा हूँ।
‘नागरिक’ फ़िल्म की चर्चा करने से कोई लाभ नहीं है। ‘नागरिक’ फ़िल्म मोटे रूप में एक सामूहिक प्रयास था, किसी ने पैसा वगैरह नहीं लिया था, लेबोरेटरी ने भी नहीं, यहाँ तक कि जो raw film stock होता है, जो आसानी से नहीं मिलता है, वह भी मुझे बिना पैसे के मिल गया था। इसके अलावा फ़िल्म बनाने में जो सामान्य खर्च होता है, वह मैंने अपने इकट्ठे किये पैसे से किया था, किन्तु हमलोग इतने मूर्ख थे कि फ़िल्म के अन्तिम दौर में, व्यवसायगत मामले में, एक धोखेबाज व्यक्ति के चंगुल में पड़ गये, फिर सारी चीज़ें नष्ट हो गयीं, हम लोगों के दिल टूट गये। उस फ़िल्म के रिलीज होने की कभी कोई सम्भावना नहीं है, यह देखकर हम लोगों ने यह मान ही लिया कि लोग उस फ़िल्म को कभी देख नहीं पाएँगे।
फ़िल्म पूरी हुई, सेंसर से गुज़री, यह एक ट्रेजेडी है, एक इतिहास है, इसके पर्त-दर-पर्त कई अध्याय हैं। पर उन सब बातों को अब रहने दो, मोटी बात यह है कि अच्छी तरह जूते खाने से मेरा फ़िल्मी कैरियर आरम्भ हुआ। पेट पर अच्छी तरह मार पड़ी थी। बाबा के मर जाने के बाद जो थोड़ी-बहुत पूँजी पड़ी हुई थी, वह सब यह फ़िल्म बनाने में चली गयी।
इसके अलावा इस फ़िल्म में हम लोगों ने राजनैतिक दृष्टि से कुछ करने और कुछ कहने की एकप्राण से चेष्टा की थी। मेरे एक मित्र ने जो देश के बहुत बड़े फ़िल्म निर्देशक थे- इस फ़िल्म को देखकर मुझसे कहा था, आपकी यह फ़िल्म बेहद राजनैतिक है। हम लोगों की भी वही धारणा थी। उस समय वी.टी.आर. का ज़माना था, यानि वामपन्थ में कम्युनिस्ट पार्टी घुस गयी थी, आजकल की बहुत कुछ नक्सलवादी राजनीति जैसा मत।
वह, बहुत कुछ तेलंगाना आन्दोलन का समय था। उन्नीस सौ इक्यावन में उसकी पटकथा लिखी, पूरा वर्ष लग गया, थोड़ा-थोड़ा पैसा आता-जाता था और थोड़ा-थोड़ा काम होता जाता था। उन्नीस सौ बावन में वह फ़िल्म समाप्त हुई, सेंसर में भी पास हो गयी। मेरे मित्र ने ठीक ही कहा था, वह फ़िल्म पूरी तरह राजनीतिक थी। उस फ़िल्म को देखकर लोग सोचते थे कि ऋत्विक घटक राजनीति के लिए फ़िल्म बनाते हैं। उस फ़िल्म में बड़े मुखर रूप में राजनीति थी भी। उसमें बचपने से भरा हुआ उत्साह और भावोच्छ्वास भी था। फिर भी शायद उसमें कोई चीज़ थी, जिसका मुझे पता नहीं था। खैर, उस फ़िल्म को ‘रिकवर’ करने का अब कोई उपाय नहीं है। उस समय उस फ़िल्म के प्रिण्ट नाइट्रेट पर बनते थे, अगर उन्हें अच्छी तरह सुरक्षित न रखा जाय, वे कुछ दिन ताले में बन्द रखने से चिपक जाते हैं। अब वे सारी फ़िल्में एकदम अस्त-व्यस्त हो गयी हैं।
उसके बाद छप्पन में ‘अजान्त्रिक’, रिलीज हुई। फिर एक के बाद एक कई वर्ष लगातार फ़िल्में बनायीं। अगर उसे अच्छा न लगे, क्या मनुष्य कोई काम करता है? ‘सुबर्णरेखा’ तक मैंने जितनी फ़िल्में बनायीं, सबमें मुझे खूब आनन्द मिला। अपनी कौन-सी फ़िल्म मुझे सबसे अच्छी लगती है और कौन सबसे बुरी, कृपाकर इस तरह का प्रश्न मुझसे न पूछें क्योंकि उस प्रश्न का उत्तर जो भी निर्देशक देगा, उससे भूल होने की ही सम्भावना सबसे अधिक है।
देश का विभाजन ही मेरी दृष्टि में सारी समस्याओं का केन्द्र बिन्दु है क्योंकि मैंने इसे सचेत भाव से देखना चाहा है।
बंगाल के विभाजन की घटना ने हमारे आर्थिक, राजनैतिक जीवन को तहस-नहस कर दिया था। आज की जो सारी अर्थनीति चकनाचूर हो गयी है, उसका मूलभूत तथ्य था, बंग-भंग। बांग्ला विभाजन को मैं किसी भी तरह स्वीकार नहीं कर सका और तीन फ़िल्मों में मैंने यह बात ही कहना चाही है। इच्छा न रहने पर भी यह हो गयी फ़िल्म त्रयी- ‘मेघे ढाका तारा’, ‘कोमल गान्धार’ और ‘सुबर्णरेखा’। जब मैंने ‘मेघे ढाका तारा’ बनाना प्रारम्भ किया, मैंने उसमें राजनैतिक सामंजस्य और मिलने की बात नहीं कही है, आज भी उस मिलन के बारे में नहीं सोचता। कारण इतिहास में जो एकबार घट गया, वह सदा के लिए घट गया है। उसे बदलना बहुत मुश्किल है। फिर वह मेरा काम भी नहीं है। सांस्कृतिक मिलाप के पथ पर जो बाधा, जो व्यवधान आता है, जिसमें राजनीति, अर्थनीति सभी आकर विरोध में खड़े हो जाते हैं, उसी ने मुझे गम्भीर और तीव्र व्यथा पहुँचायी थी। इसी सांस्कृतिक मिलन की बात ‘कोमल गान्धार’ में स्पष्ट रूप से कही गयी है, ‘मेघे ढाका तारा’ और ‘सुबर्णरेखा’ में भी यही बात कही गयी है। इस समय अवश्य आर्थिक समस्याओं की अनेक झँझटें खड़ी हो गयी हैं किन्तु अगर इन पर अच्छी तरह से आप विचार करें तो अनेक आर्थिक समस्याओं की उलझन के मूल में यही देश-विभाजन है। एक ही लम्हे में दो टुकड़े कर दिये इस देश के। एक ही बार में ‘छगन-मगन’ खेल गये नेता लोग। इस विषय में मुझे और कुछ नहीं कहना है।
‘सुबर्णरेखा’ के बाद लम्बे समय तक फीचर फ़िल्में न करने का एक कारण मेरा बोहेमियन जीवन है। मैंने अपनी फ़िल्में देखी हैं, ‘अजान्त्रिक’ से लेकर ‘सुबर्णरेखा’ तक पाँचों फ़िल्में, वे जब रिलीज़ हुईं तो एक भी नहीं चली, एकदम चली ही नहीं। कई वर्ष बीतने के बाद जब लोगों को होश आया, उन्होंने उन फ़िल्मों को थोड़ा-बहुत देखा। सिर्फ़ एक फ़िल्म ‘मेघे ढाका तारा’ को थोड़े पैसों का मुँह देखने को मिला था। पूरा पैसा लग गया ‘कोमल गान्धार’ फ़िल्म बनाने में। ‘कोमल गान्धार’ में मेरा सर्वस्व डूब गया। इसका प्रोड्यूसर भी मैं ही था। इसके बाद यह देखने को मिला कि जो फ़िल्म प्रोड्यूसर फ़िल्मों के लिए पैसा दे सकते थे, उन्होंने मुझे विषवत त्याग दिया, क्योंकि मैं ऐसा डॉयरेक्टर था जो फ़्लॉप फ़िल्में बनाता था। इतना पैसा खर्च करने के बाद फ़िल्म रिलीज़ होती थी, इतना खटने के बाद यह पता नहीं था कि फ़िल्म सफल होगी या नहीं, मुद्दे की बात यह थी कि पैसा मुझे नहीं मिलता था। इसलिए मुझे कोई भी घास नहीं डालता था। उसी समय पूना के फ़िल्म संस्थान में नौकरी करने का मुझे अवसर मिल गया। इन सात वर्षों में मैंने फ़िल्में नहीं बनायीं, यह किसी निश्चित कार्य-कारण परम्परा के कारण नहीं, बहुत कुछ आकस्मिक घटनाक्रम के कारण था, क्योंकि पूना की मेरी नौकरी अधिक दिन रही नहीं, मुश्किल से दो बरस, चाकरी भी नहीं कर सकता था, की भी नहीं, अर्थात यह सोचता था कि फिर से जाकर भिक्षावृत्ति करूँगा, कैसा अपने आपको एक भिखारी के रूप में सोचता था, मैं अपनी इस स्थिति को स्वीकार नहीं कर पाता था।
पूना की नौकरी का युग मेरे सबसे अधिक आनन्द मुखर युगों में से एक है। वहाँ पर नये लड़के-लड़कियाँ आशाएँ लेकर, अनेक तरह की उत्कट भाव-भंगिमाएँ व शैतानियाँ लेकर आते हैं, यहाँ शैतानियों का अर्थ है कि यह जो नया मास्टर आया है, इसे छकाने के लिए इसके पीछे पड़ना होगा। उनके बीच में जाकर मैं छपाक् से कूद पड़ा। उनके दिल को जीतना, उन्हें यह समझाना कि जो अन्य तरह की फ़िल्म होती है, इसका जो आनन्द होता है, उसे ठीक तरह से समझाया नहीं जा सकता है। अन्य तरह का आनन्द जिसका सृजन अनेक लड़के-लड़कियों ने किया था। मेरे छात्रों का दल पूरे भारत वर्ष में फैल गया। किसी ने नाम कमाया और कोई नाम नहीं कमा सका, कोई खड़ा हो गया और कोई धारा में बह गया।
मणि कौल मेरे छात्र हैं। बहुत प्रिय और निकटतम छात्र- मणि, कुमार शाहनी का एक ही बैच था। के.टी. जॉन, के.टी. जॉन आजकल केरल में हैं। शत्रुघ्न सिन्हा, रेहाना सुल्ताना, के.के. महाजन, उसके बाद ध्रुव ज्योति ये सब हमारे छात्र हैं। दिल्ली में जाकर देखा ध्वनि अभियन्ता और कैमरा मैन के रूप में मेरे छात्र भर्ती हैं। यह सब देखकर अद्भुत आनन्द का अनुभव होता है। एक गुरू का आनन्द इसमें है कि मैंने जिन्हें पढ़ाया-सिखाया, उन्होंने प्रतिष्ठा प्राप्त कर ली है, अपने-अपने क्षेत्र में जो सफल हैं, उसमें थोड़ा-बहुत मेरा भी अवदान है, यह सोचकर अच्छे या बुरे रूप में गर्व का अनुभव करता हूँ।
उसके बाद नौकरी छोड़ दी और कलकत्ता चला आया। लोगों से भीख नहीं मागूँगा, यही निश्चय कर चल रहा था। इसी बीच मेरा पीना बुरी तरह बढ़ गया था। बार-बार बीमार होने लगा। आप लोग वे सब बातें जानते हैं, पागलों के क़ैदखाने को भी जानते हैं। बीच-बीच में अवसर मिलने पर फ़िल्म भी बनाता था, प्रचण्ड असुविधाओं के होते हुए भी, कोई पैसा नहीं देना चाहता था, वृत्तचित्रों का काम भी नहीं मिल रहा था। इस तरह अनेक बाधाएँ थीं। इस बीच कौन-सी फ़िल्म बिना पैसे के और कौन-सी फ़िल्म अच्छी तरह बनायी। हाँ, इन्हें अच्छी तरह बनाने की चेष्टा ज़रूर की थी। उनमें पश्चिम बंगाल सरकार की ओर से बनायी पुरुलिया के ‘छाउ’ नृत्य नामक फ़िल्म ऐसी है जो लोगों के देखने योग्य है। ‘मेरे लेनिन’, एक रिपोतार्ज किस्म की फ़िल्म है जिसे समेट कर एक कहानी का रूप देने की चेष्टा की गयी है। वह फ़िल्म बुरी तो नहीं बनी थी। इसके अलावा पूना में छात्रों के साथ एक छोटी-सी फ़िल्म खींची थी। ‘राँदेवू’ छात्रों के साथ बनायी गयी मेरी फ़िल्म और इसके अलावा ‘फीयर’, मुझे लगता है ये फ़िल्में खराब नहीं बनी थीं।
दर्शकों में निश्चय ही परिवर्तन आ गया है। अच्छी फ़िल्म देखने के प्रति उनका आग्रह बढ़ गया है, विशेष रूप से कम उम्र के लड़कों में अच्छी फ़िल्म देखने के लिए एक अद्भुत खिंचाव पैदा हो गया है। यह हमारे लिए कैसा आनन्द है। इस प्रसंग में पूरी तरह एक व्यक्तिगत अनुभव की बात यहाँ बता रहा हूँ। पन्द्रह अगस्त को लाइट हॉउस में मेरी ‘सुबर्णरेखा’ फ़िल्म दिखायी गयी, मुझे पता चला कि वहाँ एक रुपये की टिकिट सात रुपये ब्लैक में बिकी और अधिकांश युवा दर्शक थे, जिन्हें फ़िल्म अच्छी लगी थी वे लोग दल-के-दल देखने आये। यहाँ पर बैठे-बैठे मैं अनुभव कर पा रहा हूँ कि दर्शक इसी तरह से तैयार होते हैं। इसके पीछे दो-तीन निर्देशकों का अवदान है- दो-तीन क्यों कहूँ, सिर्फ़ दो लोगों का : एक मृणाल सेन और दूसरे सत्यजित राय। इन लोगों ने बांग्ला फ़िल्मों में भारी उलट-फेर कर दिया। आशा है, ये लोग भविष्य में और भी बदलाव कर देंगे।
फ़िल्में मैं बहुत कम देखता हूँ। सत्यजित बाबू अथवा मृणालसेन की ही फ़िल्में मैंने कम देखी हैं, शेष लोगों की फ़िल्में मैंने देखी ही नहीं हैं। मेरी स्त्री या और कोई जब देखकर आता है, उसके बारे में गपशप कर उसकी मुख्य थीम बताता है, इस पर मैं कहता हूँ ठीक है, ठीक है। क्या होगा वह सब देखकर। तुम लोग फ़िल्म देखते हो तो पता है, क्या होता है, अगर अच्छी लगी तो अच्छी है, मज़ा अाया, खराब लगी तो कहने लगते हो खराब है, सिनेमाघर से निकल कर कहते हो, अरे कुछ भी नहीं। मैं अगर फ़िल्म देखने जाता हूँ तो एक छात्र बन जाता हूँ, इस शॉट के बाद यह शॉट क्यों काट दिया? यहाँ पर क्यों काट दिया, यह क्यों किया, वह क्या किया, मेरा मन निरन्तर काम करता रहता है। यदि पूरी तरह से फ़िल्म आकर्षित न कर पाये जैसा कि एक दिन ‘पथेर पांचाली’ ने किया था तो फिर सिर्फ़ फ़िल्म के व्याकरण की ओर मन चला जाता है, परिणाम यह होता है कि फ़िल्म से फिर कोई आनन्द नहीं मिलता है।
‘जुक्ति, तक्को ओ गप्पो’ की और दस-बारह दिन की शूटिंग बची है, फिर जहाँ-तहाँ काटा-कूटी, एक-डेढ़ महीने का काम शेष है। दो तिहाई फ़िल्म बन चुकी है।
जिस समय इसकी पटकथा लिखी जा रही थी, उस दौरान दोनों बंगाल की घटनाएँ आ गयी थी, उस समय मैं हाल ही में उस बंगाल में जाकर आँखों से थोड़ा वहाँ का हाल देखकर लौटा था।
‘दुर्वारि गति पùा’ फ़िल्म में ज़रूर कुछ ला नहीं सका था, वह बनायी नहीं जा सकी, सम्भव भी नहीं था, सिर्फ़ वहाँ के दृश्य आँखों से देख भर आया था। मन में इसी तरह का एक अर्ध रोमाण्टिक प्रेम, इसके बाद ताज़ा-ताज़ा जब यह सब देखकर आया था, इसी इकहत्तर के जून महीने में इस फ़िल्म की स्क्रिप्ट लिखने बैठा- इसीलिए इन दोनों बंगालों का स्पर्श इस फ़िल्म में है। फिर भी तिहत्तर के अन्तिम भाग में जाकर या चहत्तर में यह फ़िल्म रिलीज होती है, इकहत्तर की विचारधारा जिससे पुरानी न हो जाए, उस वजह से उसमें कुछ रद्दो-बदल की ज़रूरत तो है ही, वह उसमें कर दिया है। फ़िल्म जब तक समाप्त नहीं होती है, तब तक इस सम्बन्ध में किसी मन्तव्य का कोई अर्थ नहीं है, पहले फ़िल्म शेष हो जाने दो, उसके बाद ....
इस फ़िल्म के माध्यम से मैं कहना कुछ भी नहीं चाहता हूँ, कहना क्या चाहता हूँ इसे आप फ़िल्म देखकर समझ जाएँगे, उसका खुलासा करने में कोई मज़ा नहीं है। बल्कि कह देने से मज़ा नष्ट हो जाता है। आप लोग अपनी तरह से उसे समझ जाएँगे। रवि ठाकुर की कविता पढ़ कर रवि ठाकुर ने जो सोचकर कविता लिखी थी, उस बारे में तो आप सोचते नहीं है, आप तो अपने रस के द्वारा उसका कुछ अर्थ निकाल लेते हैं।
यह फ़िल्म आत्मकथा मूलक-फूलक कुछ नहीं है। इन दिनों मेरे जीवन में जो कुछ घट गया था, इसी इकहत्तर वर्ष में, वही इस फ़िल्म का शुरूआती बिन्दु है और इस उत्तेजनापूर्ण अवस्था में, इकहत्तर के प्रारम्भ में कलकत्ते के चबूतरे पर बैठकर कलकत्ता को ही बड़ी तन्मयता के साथ देखा गया था। सच हो या झूठ मेरा चूँकि एक स्टेट्स है, इसीलिए बड़े लोगों में घुसकर उनकी प्रतिक्रियाएँ क्या है, उन्हें मैंने देखा है, इसीलिए मैंने समाज के प्रत्येक स्तर को काटकर देखना और दिखाने का प्रयास किया है, उस समय सारे मनुष्य किस तरह की प्रतिक्रिया कर रहे थे, साल के अन्त में दिया जाने वाला पूरे साल का विवरण देने जैसा। प्रारम्भ का बिन्दु अर्थात् मेरे जीवन की कुछ घटनाओं द्वारा प्रारम्भ।
फ़िल्म का नाम है ‘जुक्ति, तक्को ओ गप्पो’ अगर कहानी न हो तो लोगों को फ़िल्म अच्छी नहीं लगती है, इसीलिए इसमें एक गप्प दे रहा हूँ, असल में यह है युक्ति और तर्क, यह पूरी तरह राजनैतिक फ़िल्म है। युक्ति, तर्क के बाद सिद्धान्त का जो प्रश्न है- वह सिद्धान्त कौन है? उसे दर्शकों के ऊपर छोड़ दिया है या नहीं, इसे आप लोग देखेंगे, मैं इन सब बातों के बीच में नहीं हूँ। मुख्य मुद्दा यह है कि राजनैतिक, आर्थिक पृष्ठभूमि उस समय जैसी थी, वह जिस प्रकार शहर के व्यक्ति को आघात पहुँचा रही थी। इस फ़िल्म में सिर्फ़ शहर का ही मनुष्य नहीं है, मैं इसमें ग्रामीण बांग्ला में भी गया हूँ, वह सब मैंने अपनी अनभिज्ञता से देखा है। इस दृष्टि से इस फ़िल्म को कुछ व्यक्तिगत तथा आत्मचरित मूलक कहा जा सकता है। फिर भी आत्मकथात्मक जिस तरह की फ़िल्मों को कहा जाता है, उस तरह की यह फ़िल्म नहीं है। जो देखा, जो समझ में आया और जो अनुभव से प्राप्त किया है, उसे कहने की चेष्टा मैंने की है। पहले फ़िल्म चलने दीजिए, फिर तर्क-वितर्क करना अच्छा रहेगा।
‘तिताश’ फ़िल्म की शूटिंग बहुत पहले शुरू हो गयी थी किन्तु बात पक्की हुई पहले ‘जुक्ति, तक्को’ की। सरकारी मामला था, फ़िल्म एफ.एफ.सी. के रुपयों से बननी थी, इसलिए इसे प्राप्त करने में दो-चार माह लग गये, उसी दरमयान तिताश के लोग आ गये, मैंने रुपये ले जाकर उस फ़िल्म का काम शुरू कर दिया।
इन दोनों बंगालों को मिलाकर बांग्लादेश के बारे में मेरी जो धारणा थी, यह तीस वर्ष पुरानी है, इसे मैं नहीं जानता था। मेरे कैशोर्य और यौवन का पहला दौर पूर्वी बंगाल में ही बीता है। वहाँ बिताया जीवन, उसकी स्मृतियाँ, वही नोस्टेल्जिया, जन्मभूमि प्रेम मुझे उन्मत्त की तरह खींचकर ले गया तिताश को लेकर फ़िल्म बनाने की ओर। ‘तिताश’ उपन्यास में चित्रित समय चालीस-पचास वर्ष पुराना है, उसके पहले का जो मेरा जाना-पहचाना है, भीषण रूप से परिचित, तिताश उपन्यास की सारी बातें छोड़ भी दी जाएँ, उसके महत्व को नज़रन्दाज़ भी कर दिया जाए तो भी यह मामला मुझे तीव्र रूप से अपनी ओर खींचता है। फलस्वरूप ‘तिताश’ फ़िल्म एक श्रृद्धाजंलि जैसी है। उन जीवन स्मृतियों के प्रति जिन्हें मैं पीछे छोड़ आया हूँ। इस फ़िल्म में किसी तरह की राजनीतिक किच-किच नहीं है, मेरी अपनी धारणा है कि यह उपन्यास महाकाव्यात्मक है, इस फ़िल्म में मैंने उपन्यास के इसी शिल्प को फ़िल्माने का प्रयास किया है। मेरे बचपन के दिनों की बहुत-सी घटनाएँ तिताश के साथ जुड़ी हुई हैं। बहुत कुछ मैंने अपनी आँखों से देखा है, यह जो मैंने कहा है यह तीस वर्ष के बीच में व्यवधान है, एकदम खाली, रिक्त, यह तो ऐसा है जैसे मैं तीस वर्ष पहले के पूर्वी बंगाल में लौट गया हूँ। इक्कीस फरवरी को मुझे, सत्यजित बाबू और कुछ अन्य लोगों को राज्य अतिथि के रूप में ढाका ले जाया गया था। हवाई ज़हाज़ से हम लोग जा रहे थे, मेरे पास सत्यजित बाबू बैठे हुए थे, जब हम लोग पùा नदी पार कर रहे थे, मैं फफक-फफक कर बुरी तरह रो पड़ा। उस बांग्लादेश को आप लोगों ने नहीं देखा है, वही प्रचुर समृद्धि और सौन्दर्य से भरा जीवन, वह सुन्दर जीवन, मैं मानो उसी जीवन-पथ पर चला जा रहा हूँ। उसी जीवन के बीच में... आज भी मानो सब कुछ वैसा का वैसा ही है, घड़ी के काँटे मानो इस बीच में चले ही न हों। इसी भोलेपन से भरी मूर्खता, इसी शिशु सुलभ मन को लेकर तिताश फ़िल्म है।
फ़िल्म बनाते-बनाते यह महसूस किया कि उस अतीत का अब वहाँ छींटा भी नहीं रहा है, रह भी नहीं सकता था। इतिहास भयंकर रूप से निष्ठुर होता है। पहले का अब कुछ भी नहीं है। सब विलीन हो गया है। इस फ़िल्म की स्क्रिप्ट लिखने से लेकर आधी शूटिंग तक मैं मनुष्य के सम्पर्क में प्रायः नहीं आया। ढाका में तो मैं रहता नहीं था, यहाँ से ढाका को छूकर लौट जाता था, ब्राह्मण वाडिया नहीं तो कुमिल्ला, नहीं तो अस्थिघाट, पावना, नारायणगंज, वैद्यों का बाज़ार इन्हीं सब स्थानों पर। क्योंकि फ़िल्म तो गाँव-गंज और नदी को लेकर थी इसलिए समय-समय पर गाँव में रहना पड़ा, ढाका में एक दिन आराम कर चला जाता था, किसी से भेंट नहीं करता था, किसी से घुलता-मिलता नहीं था, उन लोगों की क्या राजनीति चल रही है अथवा नहीं चल रही है उस ओर ताक कर भी नहीं देखता था, यहाँ तक कि अखबार पढ़ना भी सदा नहीं होता था इसलिए आधी फ़िल्म बनाने तक, आजकल बांग्लादेश का जो चेहरा है उससे पूरी तरह कटा हुआ था, यानि अपने आपको सबसे काटकर रखा हुआ था। उसके बाद ढाका जाकर कई दिन रहा, फ़िल्म को सेट करने के लिए। तब धीरे-धीरे यह देखा कि सारी चीज़ें समाप्त हो चुकी हैं, अब वे किसी दिन लौटकर नहीं आएँगी, मेरे लिए यह अत्यन्त दुःखद चीज़ थी किन्तु दुःख करने से क्या होगा, बेटा मर जाने पर लोग शोक करते हैं, दुःख मनाते हैं किन्तु यह तो न टलने वाली घटना होती है।
मनुष्य के सोचने का ढंग बदल गया है, मनुष्य का मन बदल गया है, मनुष्य की आत्मा ही बदल गयी है। कौड़ी-रुपये की समस्या, खाने-पीने की समस्या, ग़रीबी वहाँ भी है। चोरी-छिछोरी, बदमाशी वहाँ भी है, यहाँ भी है। यहाँ पर चोरी-छिछोरी, बदमाशी तथा बम आदि को लेकर होती है। इस मामले में वहाँ एक सुविधा हो गयी है, याहिया खाँ की सेनाएँ प्रचुर मात्रा में हथियार छोड़ गयी हैं। पर दोनों जगह समस्या एक ही है, मनुष्यों का सांस्कृतिक मन नष्ट हो गया है। अतीत के साथ नाल-नाड़ी का सम्बन्ध पूरी तरह कट चुका है। हाँ आशा की बात यह ज़रूर है कि कुछ तरुण लड़के अभी-अभी विश्वविद्यालय में भर्ती हुए हैं या वहाँ से निकले हैं अथवा निकलने वाले हैं, ऐसे सब लड़कों में एक प्रचण्ड बोध, गहन सजगता का भाव आ गया है, अपनी परम्परा और ऐतिह्य के प्रति। उन्हीं का भरोसा है, वहाँ पर जो कुछ भी अच्छा है, वह सब इन्हीं की देन है, इन्हीं का योगदान।
यह फ़िल्म बनाते समय वैसा कोई हस्तक्षेप नहीं हुआ। आर्थिक दृष्टि से जब जो मैंने माँगा, इन लोगों ने दिया। अचरज भरी घटना, एक तरह की शिक्षा ही मिली, कहा जा सकता है। कलकत्ता की इस लालची जगह पर रहकर मेरी एक धारणा बन गयी थी कि फ़िल्म बनाने के मामले में पैसा ही एकमात्र समस्या होती है, पैसे की समस्या सुलझा ली जाए तो फिर फ़िल्म के मामले में निश्चिन्त हुआ जा सकता है। पहली बार मुझे यह अनुभव हुआ कि सिर्फ़ पैसा होने से ही फ़िल्म नहीं बनायी जा सकती। वहाँ पर यन्त्र आदि उपकरणों, फ़िल्म का अभाव इस तरह की कितनी असुविधाएँ हैं, टेक्नीशियन के अलावा कितना कष्ट है, इसे कोई समझेगा नहीं, जो कार्यकर्त्ता हैं, वही इसे समझ सकते हैं। असुविधा यहाँ भी है। मैंने कलकत्ता, बॉम्बे, पूना सभी जगह फ़िल्में बनायी हैं, क्या असुविधाएँ हैं, इसे मैं जानता हूँ किन्तु सारी असुविधाएँ वहाँ सौ गुना बढ़-चढ़कर हैं। यन्त्र चाहिए, यन्त्र नहीं हैं; एडिटिंग रूम चाहिए, नहीं है, मिल भी नहीं सकता है। ऐसी बढ़िया, चमकदार, सुन्दर मशीनें हैं वहाँ पर, जिन्हें मैंने अपने बाप के जन्म में भी नहीं देखीं, कैमरे के जो लेन्स हैं वहाँ, उन्हें भी मैंने अपने बाप के जन्म में नहीं देखा, किन्तु ग़लत ढंग से उपयोग की वजह से ऐसा काण्ड हो गया है कि अब उनका सही ढंग से प्रयोग ही नहीं किया जा सकता है। परिणाम यह हुआ हर दिन प्रचण्ड विपदा और असुविधाओं का सामना हम लोगों को करना पड़ा।
वहाँ फ़िल्म प्रोडक्शन के अन्यान्य कुशल कारीगरों, कलाकारों, शिल्पियों ने प्राण-पण से सहयोग किया। अपनी तरफ से उन लोगों में से हरेक ने जो सम्भव था, वह सब किया। फ़िल्म प्रोड्यूसर भी युवा था, बहुत बड़े आदमी का लड़का, इन सब कामों में वह कभी घुसा नहीं। फ़िल्म के सम्बन्ध में उसकी धारणा थी कि ऋत्विक दा एक फ़िल्म बनाएँगे, पूरी होने के बाद वातानुकूलित हॉल में बैठकर देखूँगा। फ़िल्म बनाने का अर्थ है एक वर्ष का घोर परिश्रम, यह उसकी धारणा में था ही नहीं। रुपया दे दिया है, ऋत्विक दा फ़िल्म बनाएँगे, फ़िल्म रिलीज होने के बाद हॉल में बैठकर फ़िल्म देखूँगा। पैसा मिला, न मिला, पानी में बह गया, फ़िल्म चले, न चले इससे कुछ बनता-बिगड़ता नहीं, फ़िल्म अच्छी बननी चाहिए। ऐसा युवक मुझे पहले नहीं मिला था। कुशल कलाकारों, शिल्पियों सभी ने कोशिश की, सभी ने खूब मेहनत की, सभी जगह कुछ-न-कुछ दुष्टबुद्धि के लोग होते हैं, वहाँ भी थे।
मेरे इस फ़िल्म बनाने के मामले में पूर्वी बंगाल के लोगों ने मुझसे कहा था कि भारत से सिर्फ़ आप आएँगे। मैंने कहा, एक असिस्टेण्ट डाइरेक्टर भी है। उन लोगों का कहना था, वह नहीं चल पाएगा। मैंने कहा- ठीक है, मैं वही करूँगा। इसका फल यह हुआ कि मुझे बहुत असुविधा हुई। धीरे-धीरे वहाँ के युवकों को तैयार कर मैंने उस असुविधा से मुक्ति पायी। कुछ लड़के बहुत अच्छे थे, उन्होंने जी तोड़ मेहनत की थी, खूब सहयोग किया था। कुछ लड़कों ने सहयोग नहीं भी किया था। अख़बार वालों ने पहले मुझे अच्छी नज़र से नहीं देखा। शुरूआत में संगठित होकर मेरे बारे में विरूप मन्तव्य प्रकाशित किया था। इस फ़िल्म में दस-बारह महिलाओं की लगातार भूमिकाएँ थीं, इन महिलाओं के सामने शराब पीने को लेकर भयंकर बातें उठ सकती थीं। पर मेरे हावभाव, चलना-फिरना, उठना-बैठना, फ़िल्म बनाना, मेरा ढंग, कार्य प्रणाली- सब कुछ उन लोगों ने देखी थी। वे समझ गये कि शराब पीना ही सब कुछ नहीं है। उसके बाद शूटिंग के समय कोई गड़बड़ नहीं होती है तब मेरे सम्बन्ध में उन लोगों की धारणा बदल गयी और विरोध के बदले एक प्रीतिकर सम्बन्ध बन गया। अख़बार वालों के साथ भी। वहाँ की फ़िल्म के लोगों ने भी कुल मिलाकर मुझे स्वीकार कर लिया गया।
मैं अन्तिम रूप से इस फ़िल्म में काट-छाँट नहीं कर सका, फ़िल्म कैसी बनी मैं नहीं जानता, मैंने देखी नहीं है। कई लोगों का कहना है फ़िल्म का सम्पादन खराब हुआ है। अखबारों में निकली दो-चार समीक्षाएँ पढ़ी हैं, पक्ष में हैं और बड़ी भाव विगलित भाषा में प्रशंसा है।
एडीटिंग के सम्बन्ध में मैं बतला आया था। किन्तु उससे क्या होता है। फ़िल्म निर्देशक किसी की कहानी खरीदता है, फिर किसी से पटकथा लिखाता है, स्वयं निर्देशन देता है और निर्देशक का अर्थ होता है कि वह ज़मीन पर खड़ा रहता है, स्टार्ट तथा कट करता है। कैमरामेन कैमरे को तैयार रखता है, संगीत निर्देशक, संगीत सहायक ये सब काम करते हैं, एडीटर एडिट करता है, हम लोग स्रष्टा हैं, चित्रस्रष्टा। फ़िल्म पहले इंच से लेकर अन्तिम फ्रेम तक मेरी सन्तान होती है। अपनी सन्तान से जिस तरह प्रेम करते हैं, फ़िल्म को मैं वैसे ही प्यार करता हूँ, इसलिए उसे काटा नहीं, काटकर यह नहीं देखा कि कैसी बनी है और क्या परिणाम हुआ है, अख़बार में पढ़ा है अथवा अन्य लोगों से सुना है कि उसकी एडीटिंग खराब हुई है। जो लोग आलोचना कर रहे हैं उन्हें भी मैं खूब जानता हूँ। वे शायद, थोड़ी गड़बड़ी देखकर उसे विराट रूप दे रहे हैं, जनता की प्रतिक्रिया शुरूआत में धमाकेदार थी, ऋत्विक घटक की फ़िल्म जैसी बन सकती है, यथारीति वैसी ही बनी है, दस आना, छह आना खाली है, एकदम फ़्लॉप, शिक्षित लोग फ़िल्म देख रहे हैं, किन्तु रुपया नहीं आ रहा है। यह एक तरह से बँधा व्यापार है।
इस फ़िल्म में समकालीन जीवन का कोई न कोई संकेत है। न चुनी हुई कहानी का हूबहू अनुसरण किया है। यह सम्भव नहीं था। अद्वैत बाबू (अद्वैतमल्ल वर्मन) की कहानी का सहारा लिया है, ऐसा कहा जा सकता है। यह फ़िल्म मुझे बहुत आनन्ददायी लगी है। उसके यहाँ आने की बात चल रही है, अगर आती है तो मैं फिर से उसमें काट-छाँट करूँगा। उसे सम्पादित करूँगा और उसकी फिर से रिकार्डिंग कर डालूँगा। तब आप देखेंगे कि शिशु जैसे सरल मन से यह फ़िल्म बनायी गयी है। अद्वैत बाबू के लिए जो स्वाभाविक था, वहीं उन्होंने किया है। उन्होंने इस कहानी का अन्त एक ऐसे पतन में किया है कि सबकुछ नष्ट होकर चूर-चूर हुआ जा रहा है। उस स्थान पर मैंने अपने राजनैतिक विचार को व्यक्त किया है। उसकी जगह मैंने नये जीवन का संकेत देकर फ़िल्म का अन्त किया है, इसे मार्क्सवाद कहा जा सकता है, मानवतावाद कहा जा सकता है, राजनीति कहा जा सकता है और नहीं भी कहा जा सकता है।
फ़िल्म सोसायटी आन्दोलन की भूमिका निश्चय ही अच्छी है, फिर अच्छी और बुरी दोनों है। फ़िल्म सोसायटी आन्दोलन की वजह से इस देश के लोग देश और विदेश की बहुत-सी फ़िल्मों को देख पा रहे हैं। इस सोसायटी में बहुत से विचारशील लोग, छात्र, युवक तथा अन्य तरह के लोग भी हैं। लोग इन सब फ़िल्मों को देख रहे हैं, उनकी समझ में आ रहा है कि फ़िल्में कोई फेंकने योग्य मामला नहीं है। साहित्य की अपेक्षा फ़िल्मों के माध्यम से बहुत कुछ कहा जा सकता है और फ़िल्म शिल्पियों ने कहा भी है। इसके फलस्वरूप लोगों में फ़िल्मों के प्रति नया बोध जाग रहा है, धीरे-धीरे उनकी रुचि में बदलाव आ रहा है। इससे उत्साहित होकर फ़िल्म बनाने का हमारा साहस बढ़ रहा है और इसके पहले जिन तरुण श्रोताओं की बात मैंने कही थी, उनमें फ़िल्मों के प्रति जो प्रबल आग्रह पैदा हो गया है। उस मामले में फ़िल्म सोसायटी आन्दोलन का योगदान बहुत बड़ा है। उस दृष्टि से इसको स्वीकार करना चाहिए। इसकी खराब बात यह हुई कि सेंसरशिप उठ जाने से कुछ अयोग्य और छù लोगों की भीड़ इसमें लग गयी है। मैं विशेष रूप से फ़िल्में नहीं देखता हूँ, फिर भी इन सब फ़िल्मों में जो लोग सहायक होते हैं, उनसे सुना है कि इन फ़िल्मों को देखने के लिए जो भीड़ लगाते हैं, वे लोग कलात्मक फ़िल्में नहीं चाहते। फिर भी इससे बचा नहीं जा सकता है, अच्छे के साथ कुछ खराब फ़िल्में रहेंगी ही।
कलकत्ते में तीन तरह के फ़िल्म समीक्षक है। एक हैं तथाकथित राष्ट्रीय अखबारों के, इनके फ़िल्म समीक्षक जिन्हें मोटा-खोटा वेतन मिलता है, और एक होते हैं हर बात का ग़लत अर्थ लगाने वाले पत्रकार, तड़क-भड़क वाली खबरों के प्रति इनका उत्साह रहता है, अधिकांश अभिनेता-अभिनेत्रियों से सम्बन्धित समाचार देते रहते हैं और तीसरी श्रेणी के वे पत्रकार होते हैं, जो फ़िल्म सोसायटी के आसपास के ही होते हैं, जो पत्र-पत्रिकाएँ निकालते हैं, फ़िल्मों को गम्भीरता से लेने का प्रयास करते हैं। इनमें दो गु्रप होते हैं, इनके बारे में कुछ कहने से लाभ नहीं है। छोटी-छोटी अनेक पत्रिकाएँ निकलती हैं, सुना है इनमें बीच-बीच में मेरे लेख भी निकलते रहते हैं, मुझसे लेख ले भी जाते हैं। पर सच कहने में कोई हर्जा नहीं है, मैं पत्रिकाएँ अधिक पढ़ता नहीं हूँ। वैसे भी मैं बहुत अधिक पढ़ता नहीं हूँ। फिर भी अपने सीमित अनुभव से मैं कह सकता हूँ कि इन सब पत्रिकाओं की भूमिका अत्यन्त प्रगतिशील है। बीच-बीच में कई रचनाएँ देखता हूँ जिनमें कच्चे तारूण्य का भावोत्च्छास रहता है। मेरा कहना है फिर वह चाहे ग़लत हो या ठीक, इस तरह का बचपना कुछ बच्चों में रहता ही है। ये लोग अत्यन्त सहज स्थिति में हैं, इसलिए यह स्वाभाविक है। फिर युवावस्था का यही लक्षण, यही धर्म होता है। समय-समय पर अच्छी रचनाएँ भी नज़र आती हैं। बहुत गम्भीर लेख। देश-विदेश की अच्छी-अच्छी विभिन्न तस्वीरें, अच्छी फ़िल्में, फ़िल्म जगत् के विभिन्न शिल्पी फ़िल्म के क्षेत्र में जो सब प्रयोग-परीक्षण कर रहे हैं, उनके साथ फ़िल्म सोसायटी से जुड़े लोगों का परिचय भी वे कराते जा रहे हैं। इन सबको लेकर लेख, फ़िल्मों की आलोचना, विद्वानों के मतों के उद्धरण देना, इन सबको मिलाकर एक पाठक वर्ग तैयार हो रहा है, वे समझ जाते हैं कि कौन फ़िल्म ठीक हैं, कौन ग़लत है, कौन असली है और कौन नकली है। इस दृष्टि से फ़िल्म सोसायटी का निश्चय ही एक अवदान है।
बीमारी से अच्छे हो जाने के बाद मैं ‘जुक्ति, तक्को ओ गप्पो’ को समाप्त करूँगा और ‘तिताश’ की एडीटिंग करूँगा।
अन्य फ़िल्में बनाने के बारे में एकदम तो कुछ सोच नहीं रहा हूँ। फिर भी फ़िल्में तो बनती रहेंगी। बनाते जाना होगा क्योंकि पेट को तो दाना-पानी देते रहना होगा। फ़िल्में बनाने के अलावा और मैं कौन-सा काम जानता हूँ। उम्र भी तो मेरी पचास के लगभग पहुँच रही है।
(यह लेख चित्रवीक्षण से ऋत्विक घटक बातचीत के आधार पर तैयार किया गया है)

© 2025 - All Rights Reserved - The Raza Foundation | Hosted by SysNano Infotech | Version Yellow Loop 24.12.01 | Structured Data Test | ^