12-Dec-2017 05:52 PM
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मरीना मेरा पहला प्यार
मरीना त्स्वेतायेवा रूस की एक महान कवयित्री हैं। ‘थीं’ शब्द का इस्तेमाल मैं जानबूझकर नहीं कर रही हूँ कि मैंने जिस मरीना को जाना है वो अपने समय और काल को पार करके मुझसे मिली थी। पहली ही मुलाकात में उससे हुई दोस्ती अब तक बनी हुई है। मेरी मरीना से दोस्ती करवायी थी, डॉ. वरयाम सिंह ने। उनकी पुस्तक ‘कुछ ख़त कुछ कविताएँ’ मैंने क़रीब 14 बरस की उम्र में पढ़ी थी। उस छोटी सी उम्र में मुझे क्या समझ में आया, क्या नहीं लेकिन कुछ तो था जिसने ज़िन्दगी को देखने का, रिश्तों को समझने का, भावनाओं को महसूस करने का ढब ही बदल दिया। ‘जीवन में मुझे मुलाकातें अच्छी नहीं लगतीं, माथे टकरा जाते हैं, जैसे दो दीवारें। इस तरह भीतर जाया नहीं जाता। मुलाकातें मेहराब होनी चाहिए। या किसी के विचार तो पसन्द हो सकते हैं पर उसके नाखूनों के आकार सहन नहीं भी हो सकता है। उसके स्पर्श का प्रत्युत्तर तो दिया जा सकता है पर उसके मूल्यवान भावों का नहीं। ये अलग-अलग क्षेत्र हैं। आत्मा आत्मा से प्रेम करती है, होंठ, होंठो से लेकिन अगर आप इन्हें मिलाने लगेंगे या मिलाने का प्रयास करेंगे, ईश्वर न करे आप सुखी नहीं होंगे।
ज़िन्दगी के प्रति प्रेम से भरी एक बच्ची किस तरह बड़े होते हुए चीज़ों को देखती है, महसूस करती है, रूस की क्रान्ति के दिन, पहले और दूसरे विश्व युद्ध का समय, पिता ईवान व्लादिरिमोविच इतिहासकार और रूस के संग्रहालय के संस्थापक। पिता की दूसरी पत्नी से जन्मी मरीना और अनास्तासिया दो बहनें। पिता की पहली पत्नी से जन्मे आन्द्रेई और वलेरिया के साथ उनके रिश्ते। माँ की उदासी, बीमारी, माँ की असमय मौत और इन सबके बीच मरीना का भटकता कवि मन। कमसिन उम्र का प्यार और विवाह। पति का व्हाइट आर्मी से जुड़ा होना, देश के बिगड़ते राजनैतिक हालात और जूझना आर्थिक हालात से भटकना दर-ब-दर। भूख से बचाने के लिए बेटी को अनाथालय में छोड़ने का निर्णय और उसकी मृत्यु। बेटी के अन्तिम संस्कार में शामिल न हो पाना क्योंकि दूसरी बेटी को तेज़ ज्वर। फिर देश से बाहर जाना...निर्वासन के अनुभव, पीड़ा, संघर्ष...आखिरी साँस तक ज़िन्दगी के लिए, प्रेम के लिए शिद्दत से महसूस करना और अन्त में छूट ही जाना सब कुछ...
मरीना ज़िन्दगी के प्रति आकण्ठ प्रेम से भरी थी। प्रेम ही उसके लिए ज़िन्दगी का दूसरा नाम था। उसे अपने लिखे में ही मुक्ति मिलती थी...ज़िन्दगी की कठोरतम परिस्थितियों में भी उसने लिखना नहीं छोड़ा...लिखना उसके लिए साँस लेने जैसा था...अपनी आखिरी साँस लेने से पहले भी वह लिख रही थी... डायरी लिखती थी, ख़त, कविताएँ, संस्मरण...उसे बहुत जल्दी किसी से भी प्रेम हो जाता था...लेकिन प्रेम के मायने उसके लिए दुनियावी मायनों से बहुत अलग थे...
डॉ. वरयाम सिंह ने मरीना से मुलाक़ात कराकर उससे मिलने, उसे जानने की प्यास को बढ़ा दिया था। कई बरस तक ‘कुछ ख़त कुछ कविताएँ’ ‘आयेंगे दिन कविताओं के’ और बाद में ‘बेसहारा समय में’ पढ़ती रही। (ये तीनों किताबें वरयाम जी के ही अनुवाद हैं) इस बीच कुछ संस्मरण लिखे मरीना पर जिसमें मैं उससे बातें करती थी, सवाल करती थी...इन्हीं सबके दौरान एक बार एक दोस्त ने कहा कि इतना ही प्यार है मरीना से तो मिल आओ न वरयाम जी से। वरयाम जी से मिलने की बात सुनते ही मेरी आँखें भर आयी थीं। आखिर वही तो थे जिन्होंने हाथ पकड़कर मरीना से दोस्ती करायी थी। 2009 में मैं जे.एन.यू. गयी। वो बहुत प्रेम से मिले, उन्होंने मेरे द्वारा मरीना पर लिखे छुटपुट संस्मरण पढ़े, मेरे और मरीना के प्रेम के क़िस्से सुने और कहा, ‘तुम करोगी मरीना पर काम’। ये उनका प्यार था कि उन्होंने मरीना पर रूसी भाषा वाली काफ़ी किताबें मुझे दीं। मेरे लिए रूसी भाषा की वो किताबें सिर्फ़ कुछ काले अक्षर भर थीं फिर भी उन अक्षरों को छूते हुए महसूस करना था, मरीना को उसकी भाषा में।
वरयाम जी ने जे.एन.यू. में मरीना पर सामग्री तलाशने में मदद की। मरीना को जितना जाना उतनी ही और जानने की इच्छा होती गयी। उसके और मेरे दरम्यान न सिर्फ़ सौ साल से अधिक का फ़ासला था बल्कि भाषाओं की दीवारें थीं। जानकारियाँ आधी-अधूरी ही मिलती रहीं। एक जगह से मिली जानकारी दूसरी जगह से मिली जानकारी से अलग होती तो मुश्किल और बढ़ जाती। ऐसे में मेरी सारी दुविधा को दूर किया मरीना ने ही...कि मैंने उस पर किताब नहीं उसके बारे में इकट्ठी की गयी जानकारियों पर आधारित कुछ संस्मरण लिखे...प्यार से..वो लगातार एक दोस्त की तरह इस पूरी यात्रा में मेरे पास रही, मेरे साथ रही...भाषा हमारे दरम्यान एक ही थी प्रेम की...तथ्य हो सकता है कुछ ऊपर नीचे हो गये हों लेकिन उसके भाव बचाये रखने का पूरा प्रयास किया है...उसे भाषा से पार जाकर, देश की सीमाओं से पार जाकर सुनने का, उसके लिखे को महसूस करने का प्रयास किया है...इसीलिए इसे नाम दिया है... ‘मरीना मेरा पहला प्यार’। उसके जीवन का जो टुकड़ा यहाँ दिया है, उसका सन्दर्भ इतना है कि रूस से निर्वासित होकर जब मरीना पराये देशों में भटक रही थी, ज़िन्दगी के टुकड़े समेट रही थी तो बीच में कुछ हिस्सा प्राग में भी बीता...ये प्राग में बीते उसके दिनों की झलक है। ये अंश संवाद प्रकाशन से प्रकाशित होकर जल्द आने वाली पुस्तक ‘मरीना त्स्वेतायेवा मेरा पहला प्यार’ से हैं।
- प्रतिभा कटियार
प्राग 1923-24
मैं लिखे बिना नहीं रह सकती- मरीना
सितम्बीर महीने के खुुशनुमा मौसम का पहला दिन था। मरीना खुश थी। उसने इस खुशी के बारे में लिखा, ‘सितम्बर की पहली तारीख़ को मैं प्राग जा रही हूँ। पहाड़ों पर मेरा एक घर है और सारा शहर मेरे कदमों के नीचे।’
ऐसे ही मरीना ने अपने स्वेद्सका स्ट्रीट स्थित कमरा नम्बर 1373 के बारे में भी लिखा जहाँ से शहर का बेहतरीन नज़ारा दिखायी देता था। प्राग जाने के बाद मरीना अपनी बेटी आल्या को मोरावस्का त्रिबोव के आवासीय स्कूल ले गयी। वहाँ वह कुछ दिनों तक स्कूल के पास ही कमरा लेकर रही। वह आल्या के स्कूल में घुल-मिल जाने का इन्तज़ार कर रही थी। साथ ही यह भी इन्तज़ार कर रही थी कि आल्या को भरोसा हो जाए कि माँ आसपास ही है। आल्या को स्कूल में हिलने-मिलने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगा। वह जल्दी ही स्कूल में बच्चों के साथ ख़ुश रहने लगी।
मरीना ने बाखरख को पत्र में लिखा,
‘आल्या स्कूल में अब ठीक से रहने लगी है। उसकी आँखें सितारों की तरह चमकती हैं। स्कूल के 500 बच्चों में वह बहुत जल्द ही ‘कहाँ से हो, कौन हो’ का यह कहकर उत्तर देती है कि ‘मैं आकाश का एक तारा हूँ’। वह बहुत सुन्दर और स्वच्छन्द विचारों की है, वह एक पल के लिए भी भ्रमित नहीं होती है। मुझे यक़ीन है कि स्कूल के सभी लोग उसे प्रेम करेंगे, क्योंकि उसे प्यार के सिवा किसी भी चीज़ की ज़रूरत नहीं है।’
इसी ख़त में मरीना ने आगे लिखा, ‘तुम्हें क्या यह पता है कि जब से मैंने जन्म लिया है, मैं बस मरना ही चाहती थी। मेरा बचपन बहुत कठिन और उदास रहा। कभी मुझे लगता है कि मैं किशोरावस्था से गुज़र रही अपनी बच्ची आल्या को समझ नहीं पाती हूँ। मुझमें सामर्थ्य ही नहीं है। लेकिन यह यक़ीन भी होता है कि वह मेरी अपेक्षा ज़्यादा ख़ुश रहेगी और बेहतर जीवन जियेगी। मैं ऐसा जीवन कभी अपने लिए नहीं चाहती थी, जैसा मेरा है। मेरे जीवन के ये दस साल जैसे मुझसे छीन लिये गये हों। यह विभाजन मुझे और भी युवा करेगा, ऐसा मान सकती हूँ। मैं पिछले दस वर्ष के अनुभवों को भूलकर अब अपना नया जीवन जीना शुरू करना चाहती हूँ।’
मोरावस्का त्रिबोव उस समय पूरी तरह से जर्मनी के क़ब्ज़े में था और मरीना को उसके जर्मनी में बीते बचपन के सालों की याद दिलाता था। यहाँ वह अपनी दैनिक चिन्ताओं से दूर गर्मियों के प्रेम को याद करती, साथ ही भविष्य की कल्पनाओं को बुनती। उसने अपनी उथल-पुथल को लेकर बाखरख को एक और पत्र लिखाः
‘मैंने जो साँस ली, त्रासदी की हवाओं से भरी थी। मेरे जीवन में कुछ भी अनापेक्षित नहीं था क्योंकि मैंने वह सब पहले से मान रखा था। लेकिन भीतर उठती कुछ तरंगों के बावजूद घटने से पहले या आखीर (भले ही वह एक जैसी चीज़ें हो) में एहसास हो जाता है। उत्तर देने के पहले कुछ देर इन्तज़ार करो, यहाँ उत्तर देने की ज़रूरत नहीं है, उत्तर अपने आप ही बाद में आ जाएगा। मैं ख़ुद से ही सारे पुलों को हवा में उड़ा देती हूँ और तुमसे भी वो आख़री वाला पुल खत्म कर देने के लिए कहती हूँ तो इसके कई अर्थ होते हैं। तुम पहले शख़्स होगे जो मुझे ब्रह्माण्ड से आवाज़ दोगे। ओह! लेकिन तुम्हारी उस आवाज़ का जवाब देना जैसे अपनी ही आवाज़ को जवाब देना है। तुम्हारी आवाज़ किसी स्पर्श-सी लगती है।
प्रिय, मुझे लगता है मैं इस जीवन के लिए नहीं बनी हूँ। मेरे पास बस वह आग है! मैं दस अलग-अलग सम्बन्ध एक साथ बनाकर रख सकती हूँ और सबको गहराई से यह यकीन भी दिला सकती हूँ कि केवल तुम ही मेरे जीवन में हो। लेकिन मैं अपना सर अपने धड़ से थोड़ा भी घुमाना बर्दाश्त नहीं कर सकती। मैं दर्द में हूँ! क्या तुम समझ सकते हो? मैं ज़िन्दा चमड़ी हूँ और तुम कवच से ढँ़के हो। तुम्हारे पास जो है वह कला, समाज, दोस्ती, मनोरंजन, परिवार, ज़िम्मेदारी है, जबकि मैं एक दिल के सिवा कुछ नहीं हूँ। सब कुछ दूर है, जैसे कि मेरी चमड़ी जिसमें ज़िन्दा माँस है और आग। मैं पागल हूँ। मैं किसी भी परिस्थिति के लिए उपयुक्त नहीं हूँ यहाँ तक कि मेरी सबसे सरल कविताओं के लिए भी नहीं! मैं जी नहीं सकती। मेरे पास ऐसा कुछ नहीं जो सबके पास है, मैं केवल सपने में जीवित रह सकती हूँ।’
इस पत्र के मिलने के दो दिन बाद 20 सितम्बर को बाखरख को मरीना का एक और पत्र मिला जो काफ़ी उलझा हुआ और ज़ेहनी उथल-पुथल से भरा हुआ था।
‘मेरे मित्र,
तुम अपना पूरा साहस जुटाओ और मुझे सुनो। कुछ ख़त्म हो गया है, कुछ जो बहुत गहरा था, लेकिन बात इतनी ही नहीं है। आगे सुनो। मैं किसी दूसरे आदमी से प्यार करती हूँ। कोई इतना सामान्य, स्वाभाविक और ईमानदारी से नहीं कह सकता। क्या मैं तुम्हारे प्रेम में बँधी हुई हूँ? नहीं, तुम नहीं बदले हो और न मैं बदली हूँ। केवल एक चीज़ बदली है वह है, तुम्हारे प्रति दर्द से भरा मेरा एकाग्रचित्त। तुम इस बन्धन में नहीं हो कि मेरे लिए रहो, मैं तुम्हारे रहने के लिए बाधित हूँ। मेरा समय तुम्हारे लिए ख़त्म हो गया है। मेरा अनन्तकाल तुम्हारे लिए रहेगा। ओह, इस बात को छोड़ो! मेरे जुनून के अलावा अभी भी कुछ जगह बची है। मेरी तुमसे मुलाक़ातें इस जगह में हैं। ये कैसे हो गया? ओह दोस्त ये कैसे हो सकता है? मैं जल्दबाज़ी में यहाँ पहँुची हूँ। मुझे बड़े-बड़े शब्द सुनायी देते हैं, यहाँ कुछ भी ऐसा नहीं जो सामान्य हो। मुझे जीवन में पहली बार ऐसा सुनायी दे रहा है, इससे क्या हासिल होगा यह मुझे नहीं मालूम है। मुझे यह मालूम है कि मैं बहुत दर्द में हूँ। मैं यह सब झेलने जा रही हूँ।’
मरीना के प्रेम का यह नया हीरो कॉन्स्तान्तिन रोझेविच था, जो प्राग की रूसीयन कॉलोनी से था। एक पूर्व व्हाइट आर्मी का अधिकारी, वह अब एक शोध छात्र था और उसके पति सेर्गेई एफ्रोन का दोस्त।
इरमा कुरदोवा के अनुसार मरीना और रोझेविच के बीच के इस तूफ़ानी प्रेम ने मरीना के अन्दर संशय पैदा कर दिया था। उसके अन्दर तिरस्कार की भावना भर दी थी। वह सम्बन्ध कुछ ही हफ़्ते चल पाया। 27 सितम्बर को अपने जन्मदिन पर मरीना ने अपनी मशहूर कविताओं में से एक लिखी, जो ‘नाइट ऑफ प्राग’ से प्रभावित थी। वह इस योद्धा से ख़ासा प्रभावित रहती थी।
कुछ ही सप्ताह के इस सम्बन्ध में मरीना काफ़ी उथल-पुथल से गुज़रती रही। आखिर उसने सम्बन्ध विच्छेद कर लिया। उसने बाखरख को लिखा ‘मैं उसके साथ ख़ुश रहना चाहती थी, मैं उससे एक बच्चा चाहती थी लेकिन अब केवल यादें बाकी हैं।’
अपनी कविता ‘पोयम ऑफ़ माउण्टेन’ और ‘पोयम ऑफ़ द एण्ड’ में उसने अपने बिछड़ने के बारे में विस्तार से लिखा। ‘पोयम ऑफ द एण्ड’ में एक औरत के मातम की कहानी है जो आँसुओं में बह गयी थी।
ये दोनों लम्बी कविताएँ मरीना के दो सबसे अच्छे कामों में से मानी जाती हैं। उसका कथ्य समसामयिक औरतों के अलौकिक प्रेम पर आधारित था। आज हम उस काम के सर्वश्रेष्ठ होने को स्वीकार करते हैं और उसकी सराहना करते हैं। हालाँकि जब वह लिखी गयी थी, अधिकतर रूसी लेखकों को अलंकृत, वास्तविक भावों ने नाराज़गी से भर दिया था। सबने मरीना के इस साहित्यिक इज़हार और नयी तरह की लय की भर्त्सना की थी।
इन सब घटनाओं के बावजूद मरीना का जीवन चलता रहा। लेखक और रूसी साहित्य से जुड़े लोग अक्सर प्राग में इकट्ठे होते। मक्सिम गोर्की के यहाँ से गुज़रते हुए 4 नवम्बर से 6 दिसम्बर 1922 के बीच व्लादिस्लाव खोदस्येविच और नीना बेरबेरोवा भी वहाँ रुके। मरीना अक्सर उन्हें देखती थी, लेकिन उनके बीच घनिष्ठ मित्रता का सम्बन्ध नहीं बन पाया था। व्लदीमीर नबोकोव 1923 में प्राग के पहाड़ों और तेज़ सर्द हवाओं के बीच मरीना के साथ की चहलकदमी को याद करते हैं।
ऐसा लगता था कि आन्द्रेई ब्येली भी चेकस्लोवाकिया में जमने का विचार बना रहे थे। सोवियत यूनियन के लिए निकलते हुए उन्होंने मरीना से चेकस्लोवाकिया में प्रवेश करने की अनुमति के लिए मदद माँगी थी।
प्योदोर स्तेपुन प्राग में अक्सर अतिथि के तौर पर आते थे। वह जर्मनी में रहते थे और व्याख्यान देने यहाँ आये थे। उसने मरीना को साहित्य आलोचक के रूप में काम करने की सलाह दी थी। ‘वह मुझे आलोचक बनाना चाहते थे, लेकिन मैंने मना कर दिया मैं आलोचक नहीं, बल्कि एक समर्थक हूँ।’ 10 अप्रैल 1924 को उसने गुल को लिखे एक पत्र में लिखा था।
पहाड़ों के घर में मरीना के जीवन के कुछ शान्तिपूर्ण ख़ुशनुमा दिन गुज़रे। पड़ोस में सोशल रेवोल्यूशनरी पार्टी के पूर्व अध्यक्ष विक्टर चेर्नोव से अलग हुई ओल्गा चेर्नोवा अपनी 15 वर्षीया पुत्री अरिदाना के साथ रहती थी। उसने अपनी तीन पुत्रियों के साथ लुब्यंका में कुछ सप्ताह गुज़ारे। उन दिनों आल्या मात्र 10 वर्ष की थी। आद्या और आल्या बहुत जल्दी दोस्त बन गये थे। ओल्गा बताती हैं कि कैसे उसके उस नये फ़्लैट में आने के बाद एक युवा महिला उससे मिलने के लिए आती है और कहती है कि ‘मैं आपकी पड़ोसी मरीना त्स्वेतायेवा हूँ और मैं आपसे कुछ छुरी-काँटे उधार माँगने आयी हूँ। हमारे घर कुछ मेहमान आ रहे हैं और हमारे पास पर्याप्त चीज़ें नहीं हैं।’ ओल्गा के पास उसे देने के लिए कुछ नहीं था, उसने उसे छुरी देने का प्रस्ताव रखा जो कि उसकी पड़ोसी ने बड़े ही उत्साह से ले ली थी। इस बातचीत के बाद उनकी दोस्ती मजबूत होती गयी। वे घण्टों यादगार कविताएँ पढ़तीं। ओल्गा चेर्नोवा मरीना के साथ बिताये रोचक लम्हों के बारे में बताती हैं।
‘मैंने बहुत जल्द ही उसकी सुबह उठकर लिखने की आदत को जान लिया। धरती की कोई शक्ति और कोई भी हालात उसे काम करने से नहीं रोक सकते थे।’
मरीना ने कहा कि ‘मैं और मेरा जीवन मेरी कला है, वह जिसने अभी तक अपने को स्थापित नहीं किया है, वह अभी भी भविष्य में है। मैं अपनी कविताओं को नहीं छोड़ सकती।’
मरीना बहुत अच्छी तरह से समझती थी कि आल्या का जीवन बिलकुल आसान नहीं है। उसने ओल्गा चेर्नोवा को बताया,
‘आद्या 15 साल की उम्र में पूरी रात बैठकर दूसरी लड़कियों की गुड़ियों के लिए काम करती है और आल्या 10 वर्ष की उम्र में अपना सारा दिन झाड़ू और कूड़ेदान के बीच दौड़ कर बिताती है जबकि इस उम्र के बच्चे मुक्त सुनहरी सुबह को जम्हाई लेते हुए जीते हैं। आल्या की पढ़ाई केवल साल भर ही हो सकी।’
1924 की गर्मियों में अपनी लम्बी कविता को ख़त्म करने के बाद मरीना दोबारा पुराने छूटे हुए कामों को पूरा करने में लग गयी। इस दौरान उसने कुछ नाटकों पर काम किया।
1923 के वसन्त में मरीना ने कई अन्य विषय एवं रूपांकन पर काम किया। बच्चों के लिए यूनानी कथाओं से ली गयी कहानियों और नाटक। 1923 की घटनाओं के बाद मरीना ने इस तरीके के लिए बिलकुल नयी समझ बना ली थी।
1924 में मरीना का परिवार प्राग के दूसरे गाँव विज्नोरी चला गया था, जो बहुत कम मनोरम उपनगर था। चेर्नोव की माँ और पुत्री पेरिस चले गये। जहाँ ओल्गा येलिस्येनेवा की जुड़वांँ पुत्री पहले से ही रह रही थी।
मरीना परिवार एक छत के नीचे रह ज़रूर रहा था लेकिन उनके बीच के संवाद लगातार कम होते जा रहे थे। सेर्गेई अपनी पढ़ाई पर ध्यान देता और शहर में होने वाली सांस्कृतिक गतिविधियों में भाग लेता। वह वामपन्थी छात्रों के लिए एक पत्र प्रकाशित करवाने में हिस्सा लेता था। प्योदोर बुल्गाकोव के साथ मिलकर उसने ‘द आर्क’ को सम्पादित किया, इसमें मरीना का भी सहयोग रहा। इसी दौरान मरीना की कविता ‘पोयम ऑफ द एण्ड’ पहली बार प्रकाशित हुई। इसके साथ ही सेर्गेई प्राग में ‘यूनियन ऑफ़ राइटर्स’ के प्रबन्धन का सदस्य हो गया। उसने बड़े ही उत्साह से थिएटर में अपने को रमाये रखा। वह प्राग के लिए अलस्सुबह निकलता और देर रात लौटता। मरीना और उसके जैसी कई प्रवासियों की पत्नियाँ उस छोटे से फ़्लैट में लेखन से पैसे कमाने की कोशिश करते। ‘फ्रीडम ऑफ रशिया’ से मिले धन से वह अपने परिवार की दैनिक ज़रूरतों को पूरा करती जो की उसके कमाई का मुख्य स्रोत था। उसकी दूसरी आय का स्रोत चेक सरकार से मिलने वाला वजीफ़ा था। विज्नोरी में मरीना लम्बी दूरी तक टहल नहीं सकती थी जैसे वह मोक्रोप्सी में जंगलों और पहाड़ों पर जाया करती थी। यह कमी मरीना को अन्दर ही अन्दर काफ़ी उलझाव की ओर धकेल रही थी, क्योंकि मरीना जैसे व्यक्ति के लिए तमाम उलझनों की राहत प्रकृति के पास ही थी। कुछ देर को ही सही, लेकिन प्रकृति के सानिध्य में थोड़ी देर टहलने जाना उसे बचाये रखने में कारगर भूमिका अदा करता था। बहरहाल, जीवन कब एक जैसा चला है, और कब वह रहनुमा होकर आया है। मरीना को मालूम था कि उसे विज्नोरी में कम-से-कम एक साल रहना है।
उसने लिखा, ‘मुझे लगता है कि मैं एक छोटे-से बक्से में बिना हवा के रहती हूँ, मैं इस तथ्य से कभी छुप नहीं सकती थी कि यह जीवन नहीं हो सकता, प्रकृति बहुत आवश्यक है।’ जीवन में लोग भले ही कम हों प्रकृति का सानिध्य कम नहीं होना चाहिए, ऐसा मरीना महसूस करती थी। वह कहती, ‘लोगों का आना-जाना मुझे कम ही राहत दे पाता था। थोड़ी देर अच्छा लगता फिर वही चूल्हा, अवन, बर्तन धोना, ख़ाना बनाना। आप कुछ भी सही नहीं कर सकते, फिर सब ख़राब होता चला जाता है, सब कुछ जल जाता है, बाद में किसी तरह से कुछ कविताएँ पढ़ने का समय मिल पाता। शाम होते ही लोग ट्रेन के बारे में पूछने लगते। इसके आलावा मैं लोगों के साथ सहज नहीं हो पाती। मुझे लोगों की ज़रूरत नहीं है, लेकिन एक आदमी कुछ बातचीत करने को और थोड़ी-सी मदद, भले ही वह किसी एक शाम के लिए हो, बस इतनी ज़रूरत महसूस होती है।’
मरीना की परेशानियों और उसकी उलझी हुई मनोवृत्ति का कारण केवल उसकी भावनाएँ नहीं थीं। वह तीसरी सन्तान की माँ बनने वाली थी, यह भी एक कारण था। उसने लिखा था कि उसने अपने पति से वादा किया था, उसे पुत्र देने का। वह पूरी तरह से आश्वस्त थी कि इस बार उसे लड़का ही होगा। वह घर पर ही रहकर बच्चे के लिए स्कार्फ़ बुनती और बहुत कम लिख पाती। जब साहित्यिक संसार ने अचानक उसका रुख किया, जब अन्ना तेस्कोवा ने उसे ‘समाज’ पर लेक्चर देने के लिए आमन्त्रित किया तो पहली प्रतिक्रिया में उसने मना कर दिया। लेकिन उसने अन्ना को विज्नोरी घूमने के लिए न्योता ज़रूर दिया।
‘मैं आज एक अधेड़ उम्र की उत्साह से भरी चेक महिला का इन्तज़ार कर रही थी जिसने मुझे चार्ल्स यूनिवर्सिटी में 7 मई 1925 को शाम 7 बजे लेक्चर देने के लिए बुलाया था, मैंने उन्हें अपने गर्भ के 7 महीने के बारे में बता दिया था और उस तारीख़ और घण्टे के बारे में भी जो फरवरी 1825 में पड़ने वाली थी।’
यह पक्का नहीं है कि जनवरी और फरवरी के बीच अन्ना तेस्कोवा मरीना के पास विज्नोरी में मिलने आयी थी। लेकिन मरीना के द्वारा चार्ल्स यूनिवर्सिटी में दिये जाने वाले लेक्चर से सम्बन्धित पत्र से ऐसा लगता है कि उस अधेड़ उम्र की उत्साहित चेक महिला के साथ पत्राचार मरीना के सोवियत यूनियन के जाने के बाद ही बन्द हुआ। उस दिन के बाद से वह चेक महिला, जो मरीना से कई साल बड़ी थी, सावधानीपूर्वक लेखकों की दुनिया में उतर गयी। वह जानती थी कैसे किसी को चतुराई और सहजता से प्रोत्साहित करना है। हालाँकि सहानुभूति, मातृत्व की चिन्ताओं और लगाव से भरे तेस्कोवा के पत्रों ने मरीना को समस्याओं और आपदाओं से जूझने में मदद की।
अन्ना तेस्कोवा को लिखे पत्र में मरीना ने एम.एल. का ज़िक्र किया। मरीना के द्वारा चेर्नोवा को लिखे पत्रों से अन्दाजा लगाना कठिन नहीं है कि यह वही व्यक्ति है जिसका ज़िक्र पत्रों में था, जिनमें उसने ‘डियर वन’ का सम्बोधन किया था, मरीना के लिए यह सम्बोधन साधारण नहीं था। वह मार्क स्लोनिम था। रोझेविच से सम्बन्ध ख़त्म होने के बाद मरीना ख़ासतौर से चाहती थी कि उसे कोई ऐसा दोस्ताना कन्धा मिले, जिस पर सर रखकर वह रो सके और अपने आपको भूल सके। स्लोनिम में शायद उसे यह सम्भावना दिखी होगी हालाँकि इस सम्बन्ध की उम्र बहुत छोटी रही।
स्लोनिम कहते हैं, सबसे पहले तो उसने मेरे आसपास अपनी कल्पनाओं के भ्रम बो दिये। वह मुझे किसी आध्यात्मिक अवतार के रूप में देखने लगी। उसके लिए मुझे जानने, मेरे व्यक्तिगत जीवन के बारे में जानने, मेरी पसन्द, नापसन्द, मेरी चाहत, मेरी बुरी आदतों का कोई अर्थ नहीं था। वह इस बारे में न जानती थी, न जानना चाहती थी। वह अपने कल्पना लोक में रहती। उस कल्पनालोक में ख़ुद को बादलों के पार तक ऊँचाईयों पर ले जाती, वह कुछ समय के लिए उड़ती और फिर हक़ीक़त की धरती पर आ जाती जिसमें उसके भीतर कुछ टूट चुका होता था। उसे चोट लगती, दर्द होता। मरीना सबसे पहले, परस्पर समर्पण को अपने बेहद नज़दीक लाने की माँग करती, फिर वह पूर्ण सन्तुष्टि के बिन्दु तक पहुँचना चाहती। उसका प्रेम अन्य किसी भी चीज़ से जुड़ा न रहे। वह जिसे चाहती उसे अपने पास ले आती, लेकिन किसी कमज़ोर आदमी को नहीं, बल्कि मज़बूत आदमी को। कमज़ोर आदमी को वह तिरस्कृत कर देती।’
स्लोनिम हाड़ माँस का सामान्य व्यक्ति था। कल्पना लोक का हीरो नहीं। इसलिए यह सम्बन्ध टूटना ही था।
उसने ओल्गा चेर्नोवा को 10 मई 1922 को लिखा :
‘बहुत से लोगों में, बहुत सालों से, वह मेरा सबसे घनिष्ठ था। ओह! प्रेम के टूटने से बड़ा कोई दुख इस धरती पर कोई और भी है क्या?’
इस स्वीकरोक्ति के पीछे, मरीना की प्रतिक्रिया को हम समझ सकते हैं कि जब उसने यह पाया कि उन दोनों के बीच साहित्यिक और निजी आदर्श का सामंजस्य वैसा नहीं बन पाया जैसा उसने सपनों में देखा था, उसे दुख होना ही था।
19 नवम्बर को मरीना ने अपनी मशहूर कविता ‘एन अटैंम्ट एट जेलेसी’ लिखी।
इस कविता को लेकर साहित्य जगत में काफ़ी खुसुर-पुसुर हुई कि आखिर यह कविता किसको सम्बोधित है।
स्लोनिम ने इस कविता पर सावधानी से लिखा :
‘1924 की आखीर से, 1925 की शुरुआत तक हमारे सम्बन्धों में मनमुटाव रहा, जब यह समझ में आने लगा कि हमारे बीच साहित्यिक और निजी रिश्तों में वैसी समरसता नहीं बची जिसे उसने अपने कल्पनालोक में गढ़ा था। हाँ, सामान्य तौर पर हमारी साहित्यिक रचनाशीलता और कविताओं में एकमत था, उसके हर प्रयास और सहनशीलता के बावजूद मेरे विचार मेरे मूल्यांकन को मरीना के सामने झुकना पड़ा। जैसा कि मैं व्यंग्यात्मक ढंग से कहता हूँ कि वह मेरे साथ असन्तुष्ट एवं भ्रम महसूस करती थी।’
इन सब के बावजूद स्लोनिम मरीना के लिए जीवन के आखिरी समय तक ईमानदार रहा और उसके बाद उसने उसकी यादों को दोबारा संजोना शुरू किया। मरने से थोड़ा पहले मरीना ने यह माना कि ‘एन अटैंम्ट एट जेलेसी’ उसके लिए नहीं लिखी थी।
पुत्र का जन्म, कविताएँ
(फरवरी से अक्तूबर 1925)
आह! उस रोज़ कैसी तूफानी बर्फ़ीली हवाएँ चल रही थीं। वह 1 फरवरी 1925 का दिन था। तय तारीख़ से ठीक 15 दिन पहले मरीना ने पुत्र को जन्म दिया। बच्चे का जन्म काफ़ी मुश्किल हालात में हुआ। प्रसव के बाद मरीना का स्वास्थ्य ज़्यादा ही बिगड़ गया। डॉक्टरों ने उसे काफ़ी मशक़्कत से बचाया। पुत्र की भी साँस नहीं चल रही थी। डॉक्टरों की काफ़ी कोशिशों के बाद माँ और बेटे का स्वास्थ्य सामान्य हुआ।
एक तरफ मरीना पुत्र के जन्म से खूब उल्लसित थी लेकिन दूसरी तरफ जीवन में एक बार फिर घिर आये उलझाव उसे खूब परेशान कर रहे थे। कविताएँ फिर उससे दूर होने लगी थीं। मरीना का आधा वक़्त बच्चे की देखभाल में जाता और आधा घर के कामकाज में। वह सुख और उदासी के बीच उलझ चुकी थी। अगर उसने घर और बच्चे की चिन्ताओं और ज़िम्मेदारी को जीवन की व्यावहारिकता समझकर अपना लिया होता तो सम्भवतः कुछ आसानी होती, लेकिन कविताओं से दूरी, रचनात्मक प्रक्रिया से दूरी मरीना को झुँझलाहट से भर रही थी। जीवन की व्यावहारिकता के बारे में उसकी कम समझ ने हालात को और जटिल बना दिया था।
बच्चे को उसका पूरा समय चाहिए ही था। बच्चा उसके अस्तित्व का केन्द्र बन गया था। मरीना ने सारा संचित प्रेम अपने बच्चे को समर्पित कर दिया था। वह संचित प्रेम जिसे न तो उसका पति और न ही उसके प्रेमी ही सहेज सके।
मरीना ने अन्ना तेस्कोवा को बच्चे के जन्म की सूचना सबसे पहले दी। उसने उसे ख़त में बच्चे के जन्म और उसके बाद घिर आयी कठिनाइयों के बारे में लिखा --
‘किसी नौकरानी को ढूँढना असम्भव है, पहले तो कोई उपलब्ध ही नहीं हैं और जो हैं भी वह काफ़ी पैसे माँगती हैं, जिसे वहन कर पाना हमारे लिए सम्भव नहीं। सेर्गेई की परीक्षाएँ सर पर हैं, वह सारा दिन लाइब्रेरी में रहता है। पूरा घर नन्ही आल्या पर निर्भर हो गया है। मेरा स्वास्थ्य भी साथ नहीं दे रहा। मैं शिकायत नहीं कर रही हूँ, लेकिन सामान्य तौर पर तुलना कर रही हूँ। ऐसा मानती हूँ, यह समय भी बीत जाएगा।’
और उसके बाद उसने लिखा -
‘एक विनम्र निवेदन करना था, क्या कोई है, जो मुझे एक पोशाक दे सके? पूरी सर्दियों में मैंने केवल एक ही ऊनी कपड़ा पहना है, जो अब कई जगह से फटने लगा है। मुझे अच्छे कपड़े की ज़रूरत नहीं है, मैं कहीं आती-जाती ही नहीं इसलिए घर में पहनने को कुछ एकदम साधारण-सा भी चलेगा, क्योंकि नया ख़रीदना या सिलवाना मेरे लिए सम्भव नहीं है।’
‘कल दाई के तीन बार आने के 100 क्रेन (फ्रेंच करेंसी) ख़र्च हो गये, अगले दस दिन को कामवाली के लिए 120-150 क्रेन चाहिए। बच्चों की जमापूँजी है 100 क्रेन और फिर दवाइयों और अस्पताल के लिए पैसों की ज़रूरत होती है। ऐसे में अपने लिए कपड़े के बारे में सोचना असम्भव है! लेकिन मैं अपने बच्चे के लिए साफ़ रहना चाहती हूँ, इसलिए एक जोड़ी कपड़ा अगर मिल सकता तो मदद हो जाती।’
मरीना शिद्दत से अपने बच्चे को बोरिस के नाम से पुकारना चाहती थी। वह ऐसा बोरिस पास्तेर्नाक के सम्मान में करना चाहती थी। उसने पति से कई घण्टों इसके लिए ख़ुशामद की, लेकिन वह नहीं माना और बच्चे का नाम जेर्जेई पड़ा। जिसे मरीना ने मानते हुए ओल्गा को लिखा, ‘लिहाजा बच्चा जेर्जेई है न कि बोरिस। बोरिस अब भी मुझमें बचा हुआ है। उसी तरह जैसे मेरे सपने और मेरा जुनून। बोरिस मेरा हक़ है। क्या ये पागलपन है? मैं बोरिस पास्तेर्नाक को जीना चाहती थी। बोरिस का और मेरा साथ न होना एक त्रासदी है। प्रेम से जीवन को न बना पाना भी कम दर्दनाक नहीं। मैं बोरिस पास्तेर्नाक के साथ जी नहीं पायी, लेकिन मैं उससे एक बच्चा चाहती थी ताकि उस बच्चे में हमारा प्यार बचा रहे।’
बोरिस मरीना की दुनिया में एक रोशन व्यक्ति की तरह था। उस दुनिया के सपने उसकी कविता ‘माय बो टू रशियन आई’ में दीखते हैं, जिसमें मरीना ने बोरिस के समय के बारे में लिखा था। वह ऑफ़्टर रशिया के अध्याय में ख़त्म होता है।
मुझे तुम्हारा हाथ चाहिए जिसे
थामकर मैं दूसरी दुनिया को जी सकूँ।
ओह! विडम्बना।
मेरे तो दोनों हाथ ख़ाली ही नहीं।
जून 1925 को फ़ादर सेर्गेई ने विज्नोरी में जेर्जेई का बैपटिज़्म किया। उसके बाद जेर्जेई का घर में पुकारने का नाम मूर पड़ गया।
मूर के जन्म के बाद मरीना के लिए टहलना भी मुमकिन नहीं बचा था, जो वह बहुत पसन्द करती थी। विज्नोरी गाँव की गन्दी सड़कों पर बच्चा गाड़ी को चलाने में बहुत दिक़्कतें आती थीं। जब गर्मी होने लगी, मरीना घण्टों उस गर्म घर में रहती। वो घर जो लगभग कूड़े के ढेर पर था। जब मूर गाड़ी में रहता, मरीना लिखने का प्रयास करती। ‘द पाइड पीपर’ गीतकाव्य, जो व्यंग्यात्मक शैली में था, का अधिकतर भाग मरीना ने उसी दौरान बच्चे को गाड़ी में सुलाकर लिखा, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह उसके द्वारा किये गये बेहतरीन काम में से एक था।
‘द पाइड पीपर’ जल्द ही टुकड़ों में ‘फ्रीडम ऑफ रशिया’ में प्रकाशित होने लगी, जिससे उस अख़बार में पूरे साल के लिए लेखन-सामग्री की व्यवस्था हो गयी।
इस व्यंग्यात्मक गीतकाव्य का विचार 1923 के पतझड़ के दिनों में मरीना को सबसे पहले आया था जब वह मोरावस्का में रहती थी। मरीना के लिए वह छोटा-सा शहर आदर्श रूप में रहा। इस कविता में जानी-मानी किम्वदन्ती पर दोबारा से काम किया गया था, जिसमें शहर के समृद्ध लोगों से प्रतिशोध लिया जाता है, जिन्होंने उनके साथ बुरा बर्ताव किया था। आत्मसन्तुष्ट पूँजीपतियों में बैर और नफ़रत की भावनाएँ इसके अन्दर दिखती थीं।
1925 के ईस्टर पर सेर्गेई ने नाटक को बेहद सफलता के साथ किया, जिसको स्टूडेंट थिएटर, प्राग में प्रस्तुत किया गया था। इस अवसर पर मरीना अपने बच्चे को जन्म देने के बाद पहली बार प्राग गयी थी।
इस बीच उनके जीवन में एक और समस्या आ गयी। सेर्गेई की छात्रवृत्ति जारी नहीं रह पायी, इसके साथ ही उसका पुराना मर्ज फिर से उभरने लगा जिसके चलते उसे रूसी संस्था जेमगोर द्वारा चलाये जा रहे अस्पताल में भर्ती होना पड़ा। मरीना के इस समय में लिखे गये पत्रों से यह साफ़ हो गया था कि वह यह सब बहुत ज़्यादा सोचने लगी थी कि कैसे वह अपने परिवार के हालात को बेहतर रख पाए। अक्सर पेरिस चले जाने का ज़िक्र होता रहा। चेकोस्लोवाकिया में मरीना भयंकर ग़रीबी से जूझ रही थी। हालाँकि उस दौरान पेरिस में ज़्यादातर शरणार्थियों के सामने ज़िन्दगी मुसीबतों का पहाड़ ही बनी हुई थी।
गर्मियों में मरीना को पता चला कि वालेरी ब्रयूसोव (रूस के कवि) की मास्को में मौत हो गयी है। उस वक़्त वह ‘द पाइड पीपर’ पर काम कर रही थी। उसका काम ख़ुद-ब-ख़ुद बीच में ही रुक गया। उसने ब्रयूसोव से सम्बन्धित संस्मरण को दोबारा लिखना शुरू किया। एक गहरे विचारशील लेखक का चित्रण उसके छोटे से रेखांकन में उभरकर आया था।
ब्रयूसोव पर आलेख ‘अ हीरो ऑफ़ लेबर’ में कम्युनिस्ट विरोधी कई खुले अंश थे। लेखक ने अपनी राजनैतिक धारणा को छुपाने की कोई कोशिश नहीं की। उसका काम अभी तक सोवियत रूस में प्रकाशित होने के लिए पड़ा था, उसने जो भी लिखा, उसके बारे में कहा जा सकता है कि वह कूटनीतिक नहीं था। प्रायः यही वजह थी कि गोर्की ‘अ हीरो ऑफ़ लेबर’ से हैरत में पड़ गये। 20 दिसम्बर 1925 को खोदेस्विच को लिखे अपने पत्र में गोर्की के पास इस आलेख के लिए सकारात्मक कहने के लिए कुछ भी नहीं था। चूँकि सोवियत रूस में गोर्की के शब्दों में इतना वज़न था कि मरीना को एक नया और शक्तिशाली विरोधी गोर्की के रूप में मिल गया।
मामला यहीं ख़त्म नहीं हुआ, मरीना के खुलेपन और अव्यवहारिक तौर पर ग़ुस्सा करने के लक्षणों ने कई प्रवासियों को उसके विरोध में लाकर खड़ा कर दिया। थोड़े दिन बाद उसके चेकोस्लोवाकिया जाने के बाद 5 अक्तूबर 1925 में पेरिस के अख़बार ‘द रेनेसाँ’ में पत्रकार एन. ए. त्सयुरिकोव का एक लेख सामने आया। अधिकृत एमिग्री बिजनेस ने सेर्गेई के समाचार-पत्र ‘इन वन्स ओन वे’ में सोवियत रूस को लेकर टिप्पणी पर कड़ा विरोध किया। जिसके जवाब में मरीना ने ‘द रेनेसाँ’ में खुला पत्र लिखा। निश्चित रूप से प्रवासियों ने उसे नहीं सराहा। वह पत्र ‘इन वन्स ओन वे’ के द्वारा भेजे गये सवालों के जवाब में था। प्रवासी लेखकों से प्रश्न ‘तुम सोवियत रूस के बारे में क्या सोचते हो और वहाँ लौटने की क्या सम्भावना है’ के उत्तर में वह कहती है :
‘किसी की मातृभूमि किसी प्रान्त के आपातकाल पर निर्भर नहीं होती, बल्कि उसकी यादें ही उसकी अचल सम्पत्ति होती हैं। जिसने रूस की कल्पना अपने को बाहर रखकर की है, वही वहाँ रहने से डरेगा या रूस को भूलेगा। जो रूस को अपने अन्दर रखता है, वह जीवन भर रूस को जियेगा। गीतकार, महाकाव्यकार, कथाकार जो अपनी कला की प्रवृत्ति से दूरदर्शी होते हैं, वे सम्पूर्ण रूस को बेहतर तरीके से देख सकते हैं। तब, जब सन्देह की आग में वर्तमान जल रहा हो। इसके अलावा एक लेखक के लिए किसी ऐसी जगह पर रहना बेहतर है जहाँ वह कम-से-कम लिखने से न रोका जाए। ‘लेकिन वे रूस में ज़रूर लिखेंगे!’ हाँ, सेंसरशिप की काट-छाँट हो, जहाँ साहित्यिक आक्षेप हों और जहाँ तथाकथित सोवियत लेखकों की शूरता पर केवल आश्चर्यचकित ही हुआ जाता हो, वह किसी जेल के रास्ते पर पड़े हुए पत्थरों के बीच उगने वाली घास की तरह लिखते हैं न कि सबके लिए। मैं रूस वापस जाऊँगी, लेकिन किसी बीते हुए कल के निशान की तरह नहीं।’
ये शब्द उन सबके लिए थे जो बिना किसी शर्त के रूस लौटना चाहते थे, ये उसके पति के लिए भी थे। जो कुछ मरीना ने राष्ट्रीयता के लिए कहा था, वह प्रवासी लोगों की राय से मेल नहीं खाता था। मरीना रूसी लेखक नहीं, लेखक होना चाहती थी, दो साल के बाद उसने रिल्के को जर्मन में लिखे पत्र में कहा :
‘कविता लिखना अपनी अन्दर की भाषा को बाहर की भाषा में अनुदित करने जैसा है। चाहे वह फ्रांसीसी हो, जर्मन या रूसी। कोई भी भाषा किसी की मातृभाषा नहीं हो सकती। उसको लिखना मतलब उसके स्वर बदल देना। इसलिए मुझे समझ में नहीं आता क्योंकि लोग किसी को फ्रांसीसी कवि या रूसी कवि कहते हैं। मैं रूसी कवि नहीं हूँ, मैं कवि हूँ। मैं हैरान हो जाती हूँ जब लोग मुझे वैसा समझते हैं और मेरे साथ वैसा बर्ताव करते हैं। मेरे हिसाब से कोई कवि होता है न कि फ्रांसीसी या रूसी कवि।’
सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि मरीना के उन कथनों से उनकी ख्याति प्राग में उनके हमवतनों के बीच बढ़ी नहीं थी। जितना वह रूस लौटने की बात करते उतनी ही उनमें अपनी मातृभूमि के लिए उदासी भर जाती। 1925 की गर्मियों में मरीना का विज्नोरी में बिताये गए सर्दियों के मौसम का डर अक्सर दीखता था। वह लिखती है :
‘मैं यहाँ सर्दियों के बारे में ज़्यादा नहीं सोचना चाहती हूँ। यह हमारे सबके लिए जानलेवा हो सकता है। आल्या धीरे-धीरे बड़ी हो रही है। मैं उसके बुरे वक़्त को सोचने के लिए कम ही हिम्मत जुटा पाती हूँ।’
ओल्गा चेर्नोवा उसकी एक सच्ची और वफ़ादार मित्र थी। उसने मरीना को पेरिस में अपना फ़्लैट साझा करने के लिए निमन्त्रण दिया था। पहले वह केवल साहित्यिक शामें गुज़ारने के लिए था, लेकिन बाद में मरीना की कमज़ोर आर्थिक स्थिति को देखते हुए वहीं रहने का निमन्त्रण हो गया। तेस्कोवा को लिखे पत्र में वह लिखती है :
‘मेरे पास एक प्रश्न और सहायता है तुमसे माँगने के लिए, क्या तुम मुझे अपने साथ अपने घर में कुछ समय के लिए रख सकती हो क्योंकि या तो मैं तीन महीने में वापस चली जाऊँगी या फिर मैं पेरिस में बस जाऊँगी (जिसके लिए मैं आशंकित हूँ)। मेरा विदेश का पासपोर्ट कुछ दिनों में तैयार हो जाएगा, स्लोनिम ने वीसा का प्रबन्ध करने का वादा किया है, लेकिन फिलहाल मेरे पास धन नहीं है। मैं आल्या और मूर के साथ जाऊँगी। मुझे नहीं मालूम मैं अपने बेटे का पेट कैसे भरूँगी। उसको दिन में चार वक़्त का खाना चाहिए और हर दिन उसको गर्म रखने की ज़रूरत है। कैसे ये सब होगा? स्पिरिट वाला चूल्हा भी जलाना मुश्किल होगा। मेरे जाने के बारे में किसी को न बताना। सम्भवतः मैं वापस न आ सकूँ और अगर मैं वापस आती हूँ तो मुझे प्राग के किसी बाहरी किनारे पर बसने के लिए मदद करना। यह मेरे लिए अच्छा रहेगा कि मैं तुमसे दूर न रहूँ। हम कुछ चहलक़दमी करके घूम सकते हैं। शहर के बाहर हमारे लिए ज़रूरत से ज़्यादा उबाऊ हो सकता है (यहाँ बहुत सारे काम हैं और सब कुछ बहुत ख़र्चीला भी)।
पेरिस के बारे में मरीना कहती है :
‘मैं सिर्फ़ पेरिस नहीं जा रही हूँ, मैं सामान्य तौर पर दूर जाना चाहती हूँ, कहीं जाना बहुत ज़रूरी हो गया है और पेरिस इसलिए, क्योंकि उन्होंने मुझे कुछ पढ़ने (धनार्जन सहित) की व्यवस्था का वादा किया है और वहाँ मेरे दोस्त भी हैं।’
स्लोनिम इस सन्दर्भ में लिखते हैं, ‘मुझे कम ही विश्वास था कि मरीना फ्राँस में अपनी सभी परियोजनाओं का ख़याल रख पाएगी। लेकिन मैं उससे बहस नहीं करना चाहता था। उसके वहाँ पहुँचने पर उसको बहुत-सी स्वाभाविक और आर्थिक परेशानियों ने घेर लिया, उसने मेरी मदद माँगी। मैं फ्रांस के राजदूत को जानता था और मैंने सेर्गेई को वीज़ा दिलवाया।’ उस समय स्लोनिम को चेक वीजा लेने और ‘फ्रीडम ऑफ रशिया’ से अग्रिम धनराशि को सुरक्षित करने के लिए ज़रूरी था। 31 अक्तूबर 1925 में अपने पति को फिलहाल प्राग में छोड़ मरीना आल्या और मूर के साथ पेरिस में रहने लगी।
मरीना का यहाँ से जाना उसके चार सालों का ख़त्म होना था। वह शायद आशंकित थी कि वह उसके जीवन के सबसे कमाऊ दिन थे। उसने यहाँ से जाने को सबसे ज़्यादा महसूस किया था, लेकिन इस समय ने उसको निराश भी किया। उसने लिखा :
‘प्राग वह शहर है जहाँ केवल आत्माएँ मायने रखती हैं। मैं मास्को के बाद सबसे पहले प्राग से प्रेम करती हूँ, किसी और वजह से नहीं, बल्कि मेरे ख़ुद के उससे रिश्ते की वजह से। मैं सोचती हूँ कि पेरिस से मैं प्राग के बारे में लिखूँगी। उसके आभार के लिए नहीं बल्कि इसलिए क्योंकि उसका मुझ पर असर है।’
वह फिर से प्राग की उस रात को याद करती है, जिस शहर को उसने अपने जीवन के एक अवतार या प्रतिरूप के रूप में देखा था, वह कहती है, ‘यह शहर मेरे लिए भक्ति का परिचायक है।’
(शीघ्र प्रकाश्य पुस्तक ‘मरीना त्स्वेतायेवामेरा पहला प्यार’ से कुछ अंश)