02-Aug-2023 12:00 AM
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यह रिकार्ड उन इक्कीस टेलीग्रामों से मिला है जिसका पुलन्दा हवलदार को चूहों के मुहँ से खींचना पड़ा था। उन टेलीग्रामों को फ़ाईल में व्यवस्थित करते हुए हवलदार एक ऐसे मार्ग की ओर बढ़ा जिस पर विरले लोग ही भ्रमण कर सकते है - अब आप की बारी है, महाराज।
टेलीग्राम - 1
‘फ़ाइल के ऊपर रबर की मोहर लगती है, जिस पर लिखा है - ‘होटल जो पहले महल था अब जेल होगा’।
काल कोठरी में अन्धे की आँख की तरह की एक रेखाछिद्र था जिसमें से सन्तरी ने फ़ाइल इतने ज़ोर से फेंकी थी कि उसका गत्ता अँधेरे के उपरान्त काल को तीन भागों में बाँटते हुए ऐसे चीख-चिल्लाहट करने लगा जैसे बचपन में मोफ़ल्ली मदारी काग़ज़ को ब्लेड की तरह चला कर खीरे को काट देता था; स्थान एक ही था - काल खण्ड तीन। पहले काल में इमारत महल थी दूसरे में होटल और तीसरे में जेल। मैं एक ऐसे बन्दे को जानता हूँ जो इन तीनों कालों में यहाँ निवास करने को अभिशप्त हुआ। लेकिन मैं अपनी कहूँ तो मैंने इसे न तो महल में रूप में देखा न जेल; केवल होटल के रूप में भुगता जहाँ तीन मैले-कुचैले नौकर भटका करते थे। मालिक कभी-कभार आता था जो राजा के चचेरे भाई की तीसरी पंक्ति का होकर भी अब इस स्थान का प्रमुख दावेदार था। शायद थोड़ी चालाकी या केवल कोरी क़िस्मत से उसकी झोली में यह खण्डहर आन गिरा था। मंसूबे बड़े थे पर उससे उसने कमाना क्या; जेब से पूँजी लगा कर गिरती दीवारों को थामे था और डींग हाँकता हुआ कच्चे-पक्के व्यापार की कल्पना में डूबा रहता। जब भी कहीं से धन आता तो किसी दरवाज़े या दीवार पर थोड़ा बहुत रंग इत्यादि करवा देता। इस कारण होटल विचित्र रंग-बिरंगा खण्डहर था जहाँ जिज्ञासु लोग आते तो ज़रूर पर नौकरों के हाल देख कर दोपहर के भोजन के पहले ही कोई न कोई बहाना मार कर वहाँ से निकल जाते। रसोइया बारात में पीपनी बजाने का अतिरिक्त व्यवसाय करता था जिसे वह परत-टाइम कहता। उसका खाना मुझे बहुत अच्छा लगता पर चूँकि वे लोग बाहर से हमेशा गन्दे, मैले-कुचैले दीखते थे, कोई और उनके खाने का स्वाद न ले पाता था। मुझे ऐसी कोई समस्या नहीं थी। मैं हर इतवार वहाँ खाना खाने पहुँच जाता। मुझे पता था कि रसोइए की जिह्वा पर प्राचीन व्यंजनो की स्मृति वास करती थी जिसकी अभिव्यक्ति के लिए उसके पास अपना एक गुप्त शब्दकोश था जिसके पन्ने सूँघने से अर्थ उपलब्ध होता था। पर समस्या यह थी कि वह शब्दकोश को सूँघने की अनुमति किसी को नहीं देता था और न ही पन्नों की गन्ध के पीछे छुपे रहस्य को बताता था। बहुत आग्रह करने पर उसने एक बार मुझे इसके बारे में थोड़ी हड़बड़ी व घबराहट में थोड़ा-सा कुछ बताया - इतना ही प्रकाश मेरे लिए पर्याप्त था। उसने मेहमानों के भागने का कारण कुछ और बताया था, ‘होटल अभिशप्त है जब यह महल थी तो यहाँ का राजा ज़ालिम था, उसने कई पाप किये हैं। रात को आत्मा घूमती है; यहाँ कोई नहीं रह पाता; बेशक चौकीदार किसी तरह शराब पीकर डटा रहता है।’ महल पहाड़ की चोटी पर स्थित था जिसके चारों और घना जंगल था। जंगल में चन्दन के पेड़ थे जिन पर जहरीले नाग लिपटे रहते। गर्मियों में जंगल में आग लगती थी ; शाखाओं से झूलते सर्प आग में धधकते शब्दों की पीड़ में थे। उनसे छू कर आती हवा में ऐसी सुगन्ध एवं मीठे ज़हर का नशा होता जिसे सूँघ-सूँघ कर नौकरों को इस एकान्त की लत लग गयी थी। जब भी वे सौदा लेने शहर या अपने घर जाते, वहाँ के असहनीय शोर और कड़वी वायु से त्रस्त होकर शाम की बस से ही वापिस आ जाते। सोने की थाली में जीवन एक रोटी है, ऐसे विचार गढ़ कर वह कम पैसे और बिन ग्राहक के भी मालिक के वफ़ादार बने हुए थे। इच्छा के अभाव में उनका मन कृतज्ञता से भर गया था। कभी-कभी रात को सर्पों का भक्षण करने मोर आते थे; और उनके जवाब में कभी-कभी रसोइया अपनी पीपनी बजाता था। उसके संगीत की आवाज़ पाँच कोस दूर झील किनारे सुनायी देती थी। उस पीपनी की आवाज़ से आकाश शून्य से भर जाता था। उसके बीचों-बीच एक काला धब्बा था जिससे स्वर्ण धूल हर दिशा में बिखरती थी। महल का नक़्शा उसके मन के चक्रव्यूह जैसा था जो बजाने वाले के अंगूठे की लकीरों में नक़्श हो गया था। उस अँगूठे को दाब कर जब भी वह फूँक मारता, बड़े-बड़ों के दिल दहल जाते। स्वर्ण युक्त काले पाषाण की काया नक्षत्रों के वन में विचरती थी। उस वन में एक गहरी नीली झील थी जिसके किनारे सात बहरे गायकों की मूक बहन का घर था। वहाँ कभी-कभी उस पीपनी की आवाज़ पहुँच जाती थी। संयोग की बात है उस झील के किनारे ऊष्मा से त्रस्त दरख्त के पत्तों पर एक ऐसी चींटी का वास था जिसका हर क़दम उस वृक्ष के हर पत्ते पर अंकित था - इस विचरण की रेखाओं से जो नक्शा बना था; उससे पक्षियों को अपने अगले जन्म का रास्ता मिलता था। हे भगवान! पश्चिम से आते सपनों में उत्तर के यात्रियों की धूल थी। मालिक कभी-कभार चक्कर जो लगता तो उनको ज़रूर समझाता, ‘परम शक्ति का अनुभव निर्बल बनावें इसलिए खाट के नीचे ताँबे के बरतन में जल रख कर उसमें पाँच ग्रहों के वासने का संकल्प ले लो। अपने घर को गाँव से, गाँव को धरा से, धरा को ग्रह से तथा ग्रह को ब्रह्माण्ड से मुक्ति दिलवाने की युक्ति लगाएँगे।’ ऐसा कह कर वह रसोईये को पास बुलाता और कुछ देर उसकी पीपनी का मधुर संगीत सुनकर भावविभोर होकर आकाश पर चमकते चाँद की ओर देख के एक लम्बी साँस लेकर कहता, ‘चाँद और सूरज जीवन की माला के मनके हैं। इस माला को फेरते बदलते समय का ध्यान रखने के लिए रागों का आविष्कार किया गया है। ज़्यादातर राग पाँच स्वरों से बनते हैं। कभी-कभी बाकी बचे दो नाराज़ स्वर नक्षत्रों के जंगल मे रूठ कर चले जाते हैं जहाँ वह कर्ण पिशाच के काम आते हैं। कर्ण पिशाच ने काल का विनाश करने के लिए जिन दो-तारे का आविष्कार किया है, उसमें इन्हीं दो नाराज़ स्वरों का उपयोग होता है। दो-तारे की झंकार से ब्रह्माण्ड स्वर-मण्डल की भाँति हिल उठेगा। चाँद और सूरज छिटक कर पारिजात के फूलों की भाँति उन्हीं बहरे भाइयों की मूक बहन के महीन दुपट्टे में अटकेंगे है जो इन्हें बीनने भैरवी के वक्त आवेगी।’ मालिक भी अजीब था - उसकी आदतें हाथ के पसीने से छूटती थीं - आकांक्षाएँ माथे के पसीने से। उसकी आह से जो आकाश मे छेद हुआ, उसमें से मन की तीसरी धरती पर धूमकेतु धधकते हुए फूटते थे। क्रोध में जब दाँत भींचता तो सातवें मन के पर्वतों मे घर्षण होता। रोज़ इतने परिश्रम से वह थक कर जिस वट वृक्ष के नीचे विश्राम करता उसकी छाया शीत ऋतु की अमावस्या की रात से भी गहरी होती। उसकी श्वास-ध्वनि इतनी मोहक थी कि दूर वन से हिरण खींचे चले आते; उसकी प्यास इतनी महीन थी कि सहस्त्र पुष्पों की ओस से एक घूँट बनता। जिस वट वृक्ष के नीचे उसने शरण ली थी उसका इतिहास उससे झड़े पत्तों से बनी बही में था; जिसके अनुसार विपरीत कल्प में उस वट के गर्भ में उस क्षेत्र में बीतने वाली रात का निर्माण हुआ था। उसी पेड़ के तने में जो खोह था उसमें पक्षियों की जगह मृत्यु का वास था। उस मृत्यु के कान में लाल रत्न की बालियाँ थीं। आकाश की ओर जाती आत्माओं के मन पर कभी-कभी उन बालियों की कौंध पड़ती थी जिससे उनका शरीर सफ़ेद, मन लाल हो जाता। उसके कोट की जेब में एक काला छेद था जिसके रास्ते पाताल में खुलते थे। बीज वृक्ष का आकाश होकर दया से भर गया तो सीधी रीत के उस सिपाही ने मालिक के आदेश पर अपनी बन्दूक की गोली से आकाश का सात बार भेदन किया। हर एक भेदन पर एक मकड़ी नक्षत्र बुनती थी। उन नक्षत्रों के मानचित्र से ऐसे सूक्ष्म कोने प्रकट हुए जिससे होटल का अपना मूल स्वभाव प्रकट हुआ जो एक जेल का था।
टेलीग्राम - 2
शाम रात में बदलने वाली है। होटल/महल/जेल दूर से दिख रहा है। थोड़ी-थोड़ी देर में आगे से रेलगाड़ी निकलती रहती है। नक्षत्रों के तारों की टिमटिमाहट से रेलगाड़ी की खिड़कियाँ बनी थीं। सिल्वर नाइट्रेट की चाँदनी रात में महल दमकता था।
महल के सामने का आकाश गहरे नीले रंग का होता था जो आने वाली रात की कालिख से मिश्रित होकर कुछ पलों के लिए नीललोहित हो जाता। इस धूम्रवर्णीय क्षणों में एक छोटे से पुल के ऊपर से माँदे लाल रंग की पुरानी रेलगाड़ी गुज़रती थी। महल की बड़ी पहाड़ी के ठीक नीचे की छोटी पहाड़ी पर यह पुल स्थित था। पुल पर छोटे गेज की पटरियाँ बिछी थीं। ऊपर गुज़रती रेलगाड़ी के इंजन से निकलता काला धुआँ गोधूलि के साथ मिश्रित होकर धूसर आकृतियों का निर्माण करता था। विपरीत कालखण्ड की निवासी इन आकृतियों को धुएँ की दीवार से देखा तो जा सकता था पर छुआ नहीं। धुएँ के बीच से अवलोकित एक आकृति पतली मूँछ वाले दिवंगत कुँवर की थी जो इस रेलगाड़ी पर बैठ कर मूक-सिनेमा देखने लाहौर जाया करती थी। उसके पीछे एक छाते वाले की आकृति भी थी जिसे शायद हुक्म था कि थोड़ी-थोड़ी देर में छतरी घुमाता रहे। ऐसे घूमती छतरी की छाँव में राजा ट्रेन पर सवार होता था। लाहौर की रीगल सिनेमा में सिल्वर नाइट्रेट पर बनी मूक पिक्चरें उसके अतृप्त सपने बुनने लगी थीं। उसके महल पर कभी-कभार जो चाँदनी रात बिछती, वह इसी सिल्वर नाइट्रेट की बनी होती; जिसमें आग लगाना बहुत आसान था। पुल की ईंटें उसके अतृप्त सपने व पटरी उसकी अधूरे इच्छाओं से बनी थीं जो इतनी मज़बूत थीं कि आज तक खड़ी हैं।
टेलीग्राम - 3
खण्डहर के अन्दर का दृश्य। तीन बड़ी परछाइयाँ दीवार पर चल रही हैं - उनके स्रोत तीन आकृतियाँ कभी-कभार दिखती हैं।
चूँकि होटल के जेल बनने के बाद वहाँ कोई आना नहीं चाहता था, सरकार ने तय किया कि वहाँ काम करते नौकरों को वर्दी देकर सिपाही और मालिक को दरोग़ा बना दिया जाए। मालिक की एक ही शर्त थी कि यहाँ बिजली नहीं आएगी और वे अपनी दिनचर्या पहले की तरह ही जारी रखेंगें। रात के काम नौकर मशालों के रौशनी में कर लिया करेंगे। धूसर आकृतियों का स्रोत अगर धुआँ था तो खण्डहर की दीवारों पर मँडराने वाली इन गहरी काली परछाइयों का अग्नि। धीरे-धीरे परछाइयों के स्रोत स्थूल शरीर ग़ायब होने लगे। अन्ततः सारा काम-काज परछाइयों ने संभाल लिया; अब उनके मूल शरीर विरले ही दिखते थे। सरकारी निरीक्षक जब भी वहाँ आते; परछाइयों को काम करते देखते और उनको दिशा-निर्देश इत्यादि देकर चले जाते। अभी तक कोई क़ैदी नहीं आया था। एक बार एक निरीक्षक ने वहाँ कुछ दिन रह कर एक रिपोर्ट तैयार की थी जिसमें उसने लिखा था कि कोई दिखता नहीं है पर फिर भी सब काम समय पर हो जाते हैं। रिपोर्ट के परिशिष्ट भाग में उसने यह भी जोड़ा कि कई बार शरबत पीती हुई काली परछाई के पेट में लाल द्रव्य जाते हुए दीखता था। सिपाहियों की परछाइयों का समय जेल की देखभाल में गुज़रता था। दरोग़ा की परछाईं सिपाहियों से दूरी बना कर रखती थी तथा कभी-कभी ही दिखती थी। उसकी परछाई का ज़्यादातर समय आराम करने और ग्रामोफ़ोन सुनने में बीतता था। छत से झील के मनोहर दृश्य का अवलोकन करने दरोग़ा ने ख़ास कुर्सी बनवायी थी जिसकी मुट्ठें उग्र शेरों के जबड़ों से बनी थी। कुछ दिनों से ये शेर दरोग़ा के सपने में आने लगे थे जिनकी स्मृति को ग्रामोफ़ोन ने पकड़ लिया था। कुछ दिनों बाद दरोगा की परछाईं के साथ एक बड़े ग्रामोफ़ोन की परछाईं भी दिखने लगी थी। उन दिनों परछाइयों में कुछ खुसफुसाहट होने लगी थी। उनको एक टेलीग्राम आया था कि एक क़ैदी आने वाला है। उसको कहाँ और कैसे रखना है, उसकी समूची व्यवस्था करनी है। इस काम के वास्ते उन्होंने ड्रिल भी शुरू कर दी थी।
टेलीग्राम - 4
मैं यहाँ क्यों हूँ? मुझ से ग़लती कहाँ हो गयी? मेरी ग़लती? (वह यह वाक्य मन्त्र की तरह दोहराया जा रहा था); फुसफुसाहट। हम परछाइयों को पहले ऊपर से देखते हैं फिर नज़र बग़ल से फिसलती हुई जाती है।
सिपाहियों की काली परछाइयाँ : एक आगे एक पीछे, बीच में क़ैदी की गहरी नीली। परछाइयों को ग़ौर से देखने से पता चल सकता है कि सिपाहियों के कपड़े पुराने व जहाँ-तहाँ से फटे हुए हैं। ज़ंजीर के घसीटने की आवाज़, क़ैदी की घबराहट एक मन्त्र-गान की-सी फुसफुसाहट थी। दीवार के पीछे दरोग़ा का कमरा था जहाँ अपनी कुर्सी पर बैठा वह ग्रामोफ़ोन पर पुराने रिकॉर्ड सुन रहा था। महल को जेल में बदलते समय उसे यह पुश्तैनी संग्रह खण्डहर के तहख़ाने में मिला था। अब वह हर एक रिकॉर्ड को ध्यान से सुन कर उसके विवरण एक बही में बड़े क़रीने से दर्ज कर रहा था। उसने क़ैदी के आने पर कोई ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। वह उससे मिलना तो छोड़ उसकी परछाईं तक को नहीं देखना चाहता था। उसने सिपाहियों को निर्देश दिया कि उसे अपने तौर पर संभाल लें और उसे परेशान न करें। लेकिन आज पहली बार कोठरी से निकले क़ैदी की फुसफुसाहट और कराहट इतनी करुण थी कि उसके पुराने रिकॉर्ड की ध्वनि से मिलकर एक ख़ास ध्वनि उत्पन्न करने लगी। इस ध्वनि ने दरोग़ा की चेतना को उस सतह पर पहुँचा दिया जिससे वह पूरी तरह अनभिज्ञ था। उसे ऐसे स्थानों के दर्शन हुए जिन्हें उसने जीवन में कभी देखा ही नहीं था। पहले उसने अपने-आप को फूलों की घाटी में पाया जहाँ की गन्ध इतनी मदहोश कर देने वाली थी कि मनुष्य खुले नेत्रों से एक-आध पल से अधिक उस जगह का अवलोकन न कर पाए। यह एक तरह से उस फूलों की घाटी का सुरक्षा-तन्त्र था जो किसी व्यक्ति के सशरीर वहाँ पहुँच जाने से सक्रिय हो जाता। घाटी उसे सुला कर उसको सपने में उसी की चेतना में वापिस ले जाती और वह उसी जगह पहुँच जाता जहाँ से वह आया था। बाद में उसे कुछ भी स्मरण नहीं रहता। इस कारण कोई भी कभी घाटी का ठीक-ठीक पता नहीं बता पाया था। चूँकि दरोग़ा यहाँ सशरीर नहीं बल्कि चेतना के मार्ग से आया था; घाटी उसे सुला नहीं पायी। उसने तो यहाँ कपट अवस्था में प्रवेश किया था- इस वजह से घाटी इसके सामने बेबस थी। दरोग़ा ने अपनी चेतना में ही घाटी के विभिन्न जगहों का मुआयना करना आरम्भ किया। थोड़ी देर चलने के बाद उसे एक पुल मिला जिसके चारों ओर पहाड़ थे। थोड़ा आगे कुछ भवन बने हुए थे। ऐसा प्रतीत होता था कि वहाँ कोई विश्वविद्यालय है; जहाँ पठन-पाठन चल रहा है। उसे वहाँ जाने की तीव्र इच्छा हुई पर बाहर खड़े द्वारपाल ने उसे रोक लिया। कुछ देर विश्राम करने के बाद उस द्वारपाल ने दरोग़ा से बेहद विनम्र रूप से कुछ प्रश्न पूछे (जिनके वह जवाब तो क्या देता उसे तो प्रश्न ही समझ में नहीं आये थे)। द्वारपाल ने उसे उतने ही विनम्र रूप से अन्दर जाने से मना कर दिया। इससे पहले कि दरोग़ा कुछ कहता उसको एक तेज़ झटका लगा और उसे लगा कि वह अपनी चेतना की उस सतह पर वापिस आ गया है जहाँ बैठा वह पुराना रिकॉर्ड सुन रहा था। परन्तु दरोग़ा अपनी मूल चेतना में वापिस नहीं आया था; बल्कि उसके ऊपर की एक महीन सतह पर ठहर गया था; जहाँ का दरवाज़ा खोलने पर उसे एक पेड़ दिखा जिस पर रहने वाले पक्षियों की चोंच में एक सुराख था। उस चोंच से गाना गाते वक़्त दो प्रकार के सुनाद उत्पन्न होते थे। एक ही समय में दो तरह के सन्देश प्रसारित करने में सक्षम ये पक्षी मनुष्य चेतना के विभिन्न हिस्सों से बात कर सकते थे। इस तरीके से उन्होंने दरोग़ा को कई सन्देश भेजे जिसमें से एक से दरोग़ा को ज्ञात हुआ कि उसका ख़ानदानी ग्रामोफ़ोन उसी पेड़ की लकड़ी से बना हुआ है व उसकी सुई इन्हीं पक्षियों के एक बुजु़र्ग की चोंच है। इसलिए जब भी उन्हें कोई सन्देश देना होता है तो वह इस ग्रामोफ़ोन से अपने-आप प्रसारित होने लगता है।
टेलीग्राम - 5
बाहर दोनों सिपाही क़ैदी को जेल के अन्दर डाल कर बाहर की बेंच पर आराम करने बैठते हैं। एक सिपाही की परछाईं उसका कहना मानने से इंकार कर देती है; वह बायाँ हाथ हिलाए तो परछाईं दायाँ; अगर वह दायाँ तो परछाईं बायाँ। गु़स्से में सिपाही परछाईं पर मशाल मारता है; इससे क़ैदी की परछाईं काल कोठरी के अन्दर एकदम बड़ी और फिर बहुत छोटी हो जाती है। कुछ देर बाद क़ैदी की हृदय विदारक चीख़ खण्डहर में गूँज उठती है, ‘मुझे यहाँ क्यों कब और कैसे लाया गया?’
एक पुराने जर्जर दफ़्तर के मटमैले पीले से कमरे में एक बूढ़ा क्लर्क खिड़की से सटा हुआ सुस्ता रहा है। बाहर बारिश हो रही है। पथरीले रास्ते पर पानी के छोटे-छोटे गड्ढे बन गये हैं जिनमें मेंढक कूद रहे हैं। इस माहौल में बूढ़ा अपनी उस ख़ास उनींदी अवस्था में एक कमज़ोर सृष्टि की रचना करता है। ग्रामोफ़ोन के अनुसार उसकी नींद गहरी होती तो शायद वह पक्की सृष्टि बना लेता। उसकी यह सृष्टि इतनी कमज़ोर है कि सड़क पर पड़े गड्डे में किसी शरारती बच्चे के कूदने से होने वाली छपाक् की आवाज़ से ही भंग हो जाए; और ऐसा ही हुआ भी। जैसे ही एक बच्चा गड्डे में कूदा; छपाक् की आवाज़ से बूढ़े की तन्द्रा टूटी और उसकी आत्मा गु़स्से में अन्दर से निकल कर अपने शरीर से तुरन्त वारंट टाइप करने माँग करने लगी। तब उस वृद्ध काया ने घबरा कर झटपट टाईपराइटर पर किसी की गिरफ़्तारी का वारंट मुद्रित कर दिया। वारंट टाईप होते ही वही बच्चा (जिससे उसकी तन्द्रा टूटी थी) उस वृद्ध काया से काग़ज़ लेकर बन्दरगाह की ओर गया जहाँ उसकी नाव प्रतीक्षा कर रही थी। कुछ लोग उसे उस वारंट के साथ नाव से रवाना करते हैं। जैसे ही नाव झील के किनारे पहुँचती है; साइकिल की घण्टी की आवाज़ आती है - एक आदमी वहाँ साइकल ले कर खड़ा है। बच्चे से वारंट लेकर यह आदमी पास की चौकी की ओर जाता है। साइकिल सवार के पैडल मारने से उसके साइकिल का डायनेमो चार्ज होकर झिलमिल प्रकाश उत्पन्न करता है जिसे दूर जंगल में बैठा दरोग़ा अपनी खिड़की से देख लेता है। वह साइकिल के प्रकाश की निश्चित झिलमिलाहट का अपनी कोड बुक से मिलान कर के उस वारंट में लिखे गुप्त सन्देश को पढ़ लेता है और ग्रामोफ़ोन द्वारा हेड्क्वॉर्टर में प्रसारित कर देता है। हेड्क्वॉर्टर में बैठा प्रमुख ग्रामोफ़ोन से आये कोड को पढ़ कर अपने साथियों को हाथ से तीन संकेत करता है। उसके बाद सब लोग जल्दी-जल्दी एक बड़ी सी गाड़ी में सवार होकर जंगल में गुम हो जाते हैं। घने जंगल के बाहरी छोर पर एक सुरंग दिखती है। उनकी गाड़ी उसमें तेज़ी से प्रविष्ट हो जाती है। सुरंग मीलों लम्बी है; जिसका दूसरा छोर एक शहर में खुलता है। बाहर निकलते ही उनकी गाड़ी शहर के यातायात में खो जाती है। शहर के पुराने हिस्से की एक छोटी गली में एक दुमंजिला इमारत है जिसके ऊपरी हिस्से में बत्ती बार-बार जल-बुझ रही है। अन्दर एक नौजवान लड़का सोया हुआ है। उसकी बन्द आँखों में अजीब-सी हलचल हो रही है जिससे प्रतीत होता है कि वह कोई ऐसा स्वप्न देख रहा है जिससे वह अत्यधिक विचलित है। उसका मन जो भी दृश्य देख रहा है उसकी दो वास्तविकताएँ हैं। पहली यह कि नेत्र से अवाप्त दृश्य दिमाग़ में जाकर जो छवि बना रहे हैं, उनका कोई अस्तित्व नहीं है। तब नौजवान को शुद्ध होने का व्यसन हुआ था, जिस कारण वह एक बड़ी शक्ति के चंगुल में फँस गया जो अन्तर्जाल के माध्यम से निर्बल निर्मल मानस को काबू कर लेने में महारत हासिल कर चुकी थी। उससे उसका जब सम्पर्क होता है, वह अपनी अज्ञानता में ही पंचम वंश्श्रेणी युद्ध का हिस्सा बन जाता है। अब वह उनका दास था और बूढ़े की सृष्टि में उसका अपराध बहुत संगीन था। परन्तु तन्द्रा के उस भाग की पुलिस चौकी से उसके नाम का जो वारंट आया था, उसके लिए वह अभी तैयार नहीं था। उसने इसके बारे में कभी सोच ही नहीं था; व्यथित होकर वह खिड़की से बाहर सिर निकाल कर खूब चीख-चिल्लाहट करने लगा; लेकिन पुलिस वाले तो उसकी कोई बात सुनने को तैयार नहीं थे। उत्तर में उन्होंने पहले तो दूसरे मंजिल पर स्थित उसके कमरे में तेज़ प्रकाश मारा (जिससे नौजवान की परछाईं अन्दर इतनी बड़ी हो उठी कि एक भयंकर चीख़ के साथ वह अपने बिस्तर से दो बार उठा)। इसके बाद उसके कमरे में पुलिस के सायरन की आवाज़ और अँधेरे कमरे में तेज़ प्रकाश से बनी गहरी परछाईं गोल-गोल घूमती रही। पुलिस के दरवाज़ा तोड़ के अन्दर आने से पहले ही उसने अपना फ़ोन निकाला और जल्दी-जल्दी टाइप कर दिया - ‘पकड़ा गया, ख़बर फैला दो’। लेकिन उसको हैरत हुई जब बार-बार प्रयास करने पर भी वह अपने इस सन्देश को प्रसारित नहीं कर पा रहा था। अब अन्तर्जाल में मुद्रित उसका पहचान कोड उसके पारण शब्दों से मिलान नहीं कर पा रहा था। उस वक़्त उसको पता नहीं था कि उसके वारंट की ख़बर मिलते ही पंचम वंश्श्रेणी युद्ध के संचालकों ने उसके पारण शब्द बदल कर उसकी पहचान वाला एक नया बन्दा नियुक्त कर लिया है। तब उसको अहसास हुआ कि उसकी पहचान अमर है जबकि वह ख़ुद बन्दी हो चुका था। जब पुलिस वाले उसको पकड़ कर ले जा रहे थे, उसके मस्तिष्क में बचपन की एक याद कौंधती है। वह झील के किनारे आधा पानी में डूबा किताब पढ़ता था। एक खाली नाव पास में हिचकोले खाती थी। जेल की ओर ले जाते हुए उसकी आँखों पर पट्टी बाँध दी गयी थी। रास्ते में उसे बचपन की स्मृतियाँ लगातार आती रहीं। बचपन में कक्षा के दौरान वह अपनी अभ्यास-पुस्तिका में चौकोर छेद कर देता था जिसमें सफ़ेद तितली आकर बैठती थी। तितली के पंख सफ़ेद गुलाब की पंखुड़ियाँ थे। कॉपी का आवरण धीरे से बन्द करने और फिर अचानक खोल देने से असंख्य रंग-बिरंगी तितलियाँ अभ्यास-पुस्तिका से निकल कर सारी कक्षा में फैल जाती थीं।
टेलीग्राम - 6
दिन हो गया लगता है। रोशनदान से तेज़ रोशनी फ़र्श पर पहले गोल फिर चौकोर बिम्ब बनाती है।
सिपाहियों को लिखित निर्देश दिया गया था कि क़ैदी को समय-समय पर सैर करने, खाना खाने व आराम करने का समय दिया जाए। दोनों सिपाहियों ने रात में ही तय कर लिया था कि वे उसे सुबह कुछ समय के लिए दालान में छोड़ दिया करेंगे। महल के पीछे की एक छोटी नंगी पहाड़ी से सूरज निकलता था। उस दिन जब सूरज निकला तो चट् की आवाज़ के साथ कमल की पँखुड़ियों की तरह खुल गया। उसमें से चाँदी जैसा तेज़ प्रकाश वाला पक्षी निकला जिसकी उड़ान उसी दालान के ऊपर से थी। उसकी चमक से नीचे दालान में कुछ समय के लिए अष्टकोणीय आकार का प्रकाश पड़ने लगा। सिपाहियों ने तुरन्त तय किया कि क़ैदी की सैर के लिए यह उचित समय है। उन्होंने ज़ोर लगाया तो लोहद्वार भारी गर्जना से खुल गया। क़ैदी बड़ी मुश्किल से भारी भरकम ज़ंजीरों के साथ ही तेज़ प्रकाश में डूबी खाली दालान की ओर गया। सिपाही ख़ुद उस प्रकाश में जाने से डरते थे। वह तुरन्त भाग कर सीढ़ियाँ चढ़े और भूतपूर्व महल के ऊपर की ओर बने दो विपरीत कोनों पर स्थित गुम्बदों में घात लगाकर बैठ गये। उस ऊँचे स्थान से वे क़ैदी को तेज़ दूधिया प्रकाश में जंजीरों में जकड़े बमुश्किल टहलते देख पा रहे थे। आज पहला दिन था और उनके माथे पर चिन्ता की लकीरें थीं। दोनों बारी-बारी से कलाई पर बँधी अपनी घड़ियों को देख रहे थे। घड़ियाँ चूँकि पुरानी थीं, आवाज़ बहुत करती थीं। समस्त वातावरण में केवल उनकी टिक-टिक की आवाज़ गूँज रही थी। तेज़ रोशनी के नीचे क़ैदी की ज़ंजीरें के ज़मीन पर रगड़ खाने से भयानक आवाज़ हो रही थीं। प्रकाश की चमक इतनी तेज़ थी कि कुछ समय बाद उसकी परछाईं ज़मीन पर मुद्रित हो गयी। इस तरह क़ैदी की परछाईं हर रोज़ ज़मीन पर छप कर एक गोलाकार पैटर्न बनाने लगी। चौबीस दिनों बाद ऐसी चौबीस परछाइयाँ ज़मीन पर मुद्रित थीं। कई बार इस गोलाकार पैटर्न के आसपास एक निश्चित गति से चलने से परछाईं क़ैदी से स्वतन्त्र होकर खुद-ब-खुद चलने लगती थी। सिपाहियों का मानना था कि यह दिवंगत कुँवर की सिल्वर नाइट्रेट स्मृति है।
टेलीग्राम - 7
दरोग़ा ने इस सब पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। वह केवल अपनी दिनचर्या में दिलचस्पी रखता था; बन्दूक साफ़ करना, ग्रामोफ़ोन सुनना, व्यायाम करना, सलीक़े से वर्दी पहनना इत्यादि।
दरोग़ा के दफ्तर की खिड़की से दालान साफ़ दिखता था, पर उसने कभी बाहर झाँक कर क़ैदी को देखने का प्रयत्न नहीं किया। उस दिन वह अपनी बड़ी पगड़ी पहन कर बन्दूक़ साफ़ कर रहा था कि न जाने उसके मन में क्या आया कि उसने अचानक खिड़की खोल कर क़ैदी की ओर कुछ देर देखा; फिर अपनी बन्दूक से उसको निशाना बना कर उसका पीछा करने का खेल खेलना लगा। ऊपर बैठे सिपाहियों की घड़ियों की टिक-टिक की आवाज़ उस तक पहुँच रही थी। कुछ देर बाद उसने खेल-खेल में ट्रिगर दबा दिया - ज़ोर की आवाज़ हुई और क़ैदी गिर गया। उधर गोली लगते ही क़ैदी को लगा कि जैसे ठण्डी हवा उसके शरीर में प्रविष्ट हो गयी है। वह धड़ाम से नीचे गिरा और जैसी ही उसने अपनी आँखें मूँदी, उसे एक बरगद का पेड़ दिखा जिसका हर एक पत्ता अलग रंग का था। अचानक सब पत्ते उड़ कर दूसरे पेड़ पर बैठ गये और पहला पेड़ एकदम सूख गया। उसे आभास हुआ कि पेड़ तो पहले से ही सूखा हुआ था और वो पत्ते नहीं बल्कि रंग बिरंगे पक्षियों का एक झुण्ड था - यह जान कर वह बेहद उदास हो गया। उसने पेड़ के फिर से हरे होने की प्रार्थना की और अचानक आँखें खोल दीं। उसे सामने वही हरा-भरा पेड़ दिखा जिस पर वही पक्षी बैठे हैं। प्रकृति कितनी दयालु है, मन में यह ख़याल आते ही वह मुस्कुरा दिया। वह आज भी मरा नहीं - सुन्दर प्रकृति के दृश्य हर तरफ़। उसे लताओं व फूलों में प्राण होने के चिह्न देखते हैं; दूर से गाना सुनायी देता है। उसे लगा उसकी प्रार्थना मंज़ूर हो गयी है। अब शायद उसे रंग भी मिल ही जाएँगे। दरोग़ा अगले चौबीस दिनों में उसे चौबीस बार गोली मारने वाला था।
टेलीग्राम - 8
दरअसल दरोग़ा ने ग्रामोफ़ोन चला दिया है। 1920-30 के दुर्लभ गानों के साथ खण्डहर की खाली जगहों में तेज़ी से काई जमने लगती है। दरोग़ा ग्रामोफ़ोन के इतिहास पर पुस्तक लिखने का निर्णय करता है।
काई के फैलने से बेख़बर खण्डहर के रिक्त स्थानों में दोनों फटेहाल सिपाही मँडरा रहे हैं। दरअसल वे लोग दरोग़ा के नाश्ते का इन्तजाम कर रहे हैं। ‘यह कैसी आदत है?’, पहला सिपाही दूसरे को कहता है, ‘मालिक महल की सबसे ऊँची और ख़तरनाक जगह के एकदम किनारे पर बैठ कर नाश्ता क्यों करते हैं? अगर एक क़दम भी फिसला तो नीचे खाई में गिर कर मृत्यु निश्चित।’ खाना मेज़ पर लगा कर सिपाही डर कर दरोग़ा से दूर खड़े हो जाते हैं और बड़ी चिन्ता से उसे खाना खाते देखते हैं। दरोग़ा को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है। वह ख़ूब मज़े में है। उसने उस ख़तरनाक ऊँची जगह पर बड़े सलीक़े से मेज़ सजा रखा है। तेज़ हवा चल रही है। दरोग़ा पूरी तमीज़ से फिरंगी शैली में नाश्ता करता है। कुछ देर बाद दोनों सिपाही झिझकते हुए उसके पास आते हैं और कहते हैं कि क़ैदी को यहाँ आये कितना ही अरसा बीत गया है। वह प्रतिदिन मिन्नतें करता है। समय का हिसाब रखने के लिए कुछ माँग रहा है; किताब या फिर कोई रंग। दरोग़ा कुछ जवाब नहीं देता और खाना खाता रहता है; तभी अचानक एक पक्षी कहीं से उड़ कर आता है और उसके हाथ से निवाला छीन लेता है। अचानक हुए इस हमले से सिपाही घबरा जाते हैं। दरोग़ा का चम्मच नीचे खाई में गिर जाता है और फिर गिरता ही रहता है। दरोग़ा के हँसने की आवाज़ समस्त घाटी में गूँज उठती है।
टेलीग्राम - 9
बड़ा कमरा। दरोग़ा दोपहर को आराम कर रहा है। ऊपर हाथ से चलने वाला पंखा कार्यरत है। बाहर दोनों सिपाही बैठे पंखे की रस्सी खींच रहे हैं।
बंगला अंग्रेज़ों के ज़माने का था; उसका निर्माण भी उसे शैली में किया गया था। दरोग़ा का शयन कक्ष बंगले के पीछे की तरफ था। उसके चारों ओर रंग-बिरंगे शीशे लगे हुए थे। काँच से छन कर आने वाला प्रकाश वहाँ सोने वाले के सिर के आस-पास सुनहरी आभा निर्मित करता था। चूँकि शयन कक्ष बंगले के पीछे थाऔर सिपाहियों को प्रमुख बरामदे में बैठना होता था, इस कारण पंखा झलने के लिए एक लम्बी रस्सी उपयोग में लायी गयी थी। यह रस्सी कई कमरों व बरामदों में से गुज़र कर दरोग़ा के कमरे तक पहुँचती थी; दरोग़ा ने दिमाग़ लगा कर इस क्रिया से कई और काम लेने आरम्भ कर दिये थे - मसलन पहली रस्सी खींचने पर पहले घण्टी बजती थी फिर लकड़ी की कोयल गाती थी और दूसरी से लकड़ी की मैना। इन दो यान्त्रिक पक्षियों के चहचहाने से क़ैदी को पता चल जाता था कि दरोग़ा सो रहा है। बाहर रस्सी खींचते हुए सिपाहियों के लिए यह दुर्लभ फ़ुर्सत के क्षण होते थे। वह दोनों साथ बैठ फुसफुसा कर वार्तालाप करते थेः
‘अब हम और क्या कर सकते हैं? जो है सो है’, पहला फुसफुसाता है।
‘दरोग़ा साहब बिजली का पंखा क्यों नहीं लगा लेते?’, दूसरा पूछता है।
‘उनका मानना है कि इंसानी ऊर्जा से चलते हुए पंखे की वायु पोषक होती है।’
‘अब आगे क्या होगा? हमें तो अपनी ड्यूटी देनी हैं। इसका केस तो और चलेगा। कल पेशी है।’
‘कहीं पहले वाला हिसाब न हो।’
‘मतलब?’
‘यह उस दिन की बात है जब तुम शहर सामान लाने गये थे। दरोग़ा ने आदेश दिया था कि आज मैं अकेला ही क़ैदी को लेकर कचहरी जाऊँ। उस दिन पता नहीं क्यों क़ैदी को स्वतः ही आभास हुआ कि आज उसको सज़ा सुनायी जाएगी तो वो डर कर भाग गया और दौड़ कर सामने वाले बरगद के पेड़ पर चढ़ गया। मैं भाग कर दरोग़ा के पास गया और वे अपनी बन्दूक ले कर आ गये। हम पेड़ के नीचे खड़े उसके उतरने की प्रतीक्षा करते रहे। वह दो दिन नीचे नहीं आया। मैंने कचहरी में बरगद में गोली चलाने की अर्जी दी जिसे मंजूर होने मे दो दिन और गुज़र गये। तब तक हमने पेड़ के नीचे पहरा जारी रखा। खाट डाल ली। खाना भी वहीं बनाया। मैंने दरोग़ा को संगीत भी सुनाया। जिस दिन अनुमति आयी, हमने ताबड़तोड़ कई गोलियाँ बरगद पर चलायीं पर अचरज यह हुआ कि वहाँ तो क़ैदी का नामोनिशान नहीं था। मुझे याद है कुण्ड में उस दिन प्रकाशपुंज खिला था। होता यूँ है कि कुण्ड में प्रकाश की गेंद तैरती है फिर हवा में उड़ जाती है। एक सफ़ेद गाय इस गेंद को ऊपर जाते हुए देख रही थी। उसके शरीर पर तरह-तरह के संकेत चिह्न उभर आये थे। दरोग़ा इन संकेत चिह्नों को देख कर ख़ुशी से नाचने लगे थे। उनका मानना था कि फूलों की घाटी के द्वारपाल ने उनसे यही प्रश्न तो पूछे थे इसलिए अगर गाय के शरीर पर उभर आये इन संकेत चिह्नों को पढ़ लिया जाए तो द्वारपाल उनको उस भवन में प्रवेश की अनुमति दे देगा। उन्होंने तुरन्त अन्दर से अपना कैमरा लाये और गाय के संकेत चिह्नों के साथ कई फ़ोटो ले लिये। अब वे हर रोज़ सुबह उठ करके स्नान के बाद इन संकेत चिह्नों पर ध्यान लगाते हैं’
ऐसे कहने की बाद पहला एकदम चुप हो गया; दूसरा भी इस घटना पर विचार कर रहा था - हर ओर सन्नाटा सा छा गया। समस्त वातावरण में केवल रस्सा खींचने की आवाज़; यान्त्रिक चिड़ियों का गाना और दरोगा के खर्राटे सुनायी पड़ रहे थे।
कुछ देर बाद दूसरे ने बोलना आरम्भ किया :
‘उस दिन दरोग़ा ने मुझे सामान लाने शहर भेजा था। यहाँ से सड़क तक पहुँचने के लिए तक़रीबन पाँच मील चल कर जाना पड़ता है इसलिए मैं तड़के ही निकल गया था। पता नहीं उस दिन क्यों मेरे मन में एक अजीब-सा डर घर कर गया था। मुझे हर चीज़ से डर लगने लगा था। मेरा डर इतना बढ़ गया कि मैंने कन्धे से बन्दूक उतारी, उसका ताला खोला और उसके घोड़े पर उंगली रख कर चलने लगा।’
तभी दूसरे सिपाही के मस्तिष्क में यह दृश्य चलना शुरू हो जाता है :
उसका साथी सिपाही अकेला चल रहा है। आवाज़ दो लोगों के चलने की है। वह उसके कान को बहुत नज़दीक से देख पा रहा है। सब ओर सन्नाटा - दूर-दूर तक कोई और नहीं। पहला सिपाही अचानक रुकता है; और ध्यान लगा कर आवाज़ सुनता है। उसको लगता है कि उसके रुकते ही कोई और भी रुका है - किसी के रुकने की आवाज़, उसके रुकते ही एक-क़दम दो-क़दम उसके बाद अचानक ठिठकना! उसकी घबराहट बढ़ती जाती है। वह घबरा कर चारों ओर देखता है। आसपास क्या; दूर-दूर तक कोई नहीं; पक्षी, जानवर भी नहीं। फिर भी उसका डर बढ़ता जाता है - उसको लगता है वह किसी की गरम साँसे अपनी गर्दन पर महसूस कर पा रहा है - अचानक पीछे मुड़ता है - कोई भी नहीं ! अब उससे रहा नहीं जाता है - बदहवास होकर वह हर और गोलियाँ चलाने लगता है। उन गोलियों की आवाज़ समस्त घाटी में गूँज कर उसके पास वापिस आती हैं।’
गोलियों की आवाज़ से दूसरे सिपाही की तन्द्रा टूट जाती है। रस्सी खींचता हुआ पहला सिपाही बोल रहा हैः
‘गोलियों के आवाज़ से और तो कुछ नहीं हुआ पर पास के कुण्ड में कमल की कलियाँ चट-चट की आवाज़ करते हुए तुरन्त ही फूल बन गयीं। कमल ठीक वैसे ही खिले थे जैसे सुबह का सिन्दूरी सूरज; जिसमें से निकले दिव्य पक्षी के चाँदनी प्रकाश से क़ैदी की परछाईं दालान की जमीन पर मुद्रित होती थी।’
टेलीग्राम - 10
ठीक वैसे ही कमल क़ैदी की कोठरी की दीवार पर खिले हुए हैं। ऐसा लगता है दरोग़ा ने उसे रंग दे दिये हैं।
सिपाही अभी भी पंखे की रस्सी खींच रहे हैं। पहला कहता है, ‘दरोग़ा ने क़ैदी को रंग देने का फ़ैसला किया तो उसने मुझे बुला कर सब प्रबन्ध करने को कहा। मैं जेल के प्रांगण में खिले तरह-तरह के फूल और वनस्पतियाँ ले आया; उनसे रंग निकालने की विधि दरोग़ा ने मुझे बहुत ध्यान से सिखायी। उसके बाद मैंने नाना प्रकार के रंगों के अर्क अपनी रसोई में बनाये। उसके बाद मैं रंग लेकर दरोग़ा के पास गया तो उन्होंने मुझे सब रंगों को एक गोल मेज़ पर क़रीने से सजाने को कहा। उसके बाद वह मेज़ के किनारे गोल-गोल घूम कर एक-एक रंग उठाते और उसके पीछे छिपे सिद्धान्त पर बात करते। फिर उन्होंने मुझे हर रंग के पीछे छिपे सिद्धान्त व रहस्य को विस्तार से बताया और उन्हें क़ैदी को पहुँचने को कहा। कुछ दिन तो मुझे काली स्याही से बने बादल, गुलाब के रंग से बने रक्तरंजित पक्षी, नीली स्याही से बना आकाश व नदी हर ओर दिखने लगे। धीरे-धीरे मैं वनस्पतियों के असली रूपों को भूल कर उनके रंगों से उत्पन्न हुए नवीन उपक्रमों से जानने लगा।
टेलीग्राम - 11
विचारों के बिम्ब जगत में विरचित होते हैं। अब दिन और रात रंगों से बनते हैं।
क़ैदी कोठरी की दीवार पर विहंगम भूदृश्य बनाता है। सिपाही दरोगा को रिपोर्ट करता है कि ऐसा प्रतीत होता है क़ैदी ने चित्र बनाना कभी सीखा नहीं है - चित्र ऐसे हैं जैसे किसी छोटे बच्चे ने बनाये हों। क़ैदी के बचपन की एक घटना दीवार पर सक्रिय हो जाती है। प्रकृति और बचपन की कथाएँ उन दिनों स्वप्न में प्रकाश व ध्वनि के मेल से आती थीं। दृश्यों को केवल आँखों से ग्रहण करना उसने अभी सीखा नहीं था। पुस्तकें पढ़ते हुए गाँव के बच्चे चौथे व पाँचवें आयाम में प्रवेश करते हुए ऐसे उन्मुक्त स्थान का आविष्कार करते थे जिससे उनकी रहस्यमय दुनिया बड़ी जटिल परन्तु मज़ेदार होती थी। गाँव का एक-एक बच्चा ऐसे कई सौ स्थानों के मालिक थे, जिन्हें वे जेब में लेकर घूमते थे। दोपहर में जब सब सो जाते, यह बच्चे गली में बैठ कर जेब से इन स्थानों को ताश के पत्तों की तरह निकाल कर उनसे खेलते थे - कुछ पुराने स्थान हार जाते, कुछ नये जीत लेते जिन्हें वह जेबों में भर कर घर वापिस ले आते। इतने में दूसरा सिपाही भाग कर दरोग़ा को बताता है कि कहीं से एक सफ़ेद घोड़ा भागता हुआ आया है। तीनों तुरन्त बाहर जाकर उस घोड़े को देखते हैं - घोड़ा इतना सफ़ेद था कि उसके शरीर से सूर्य की किरणें टकरा कर आँखों को चुधियाँ रही थीं - कुछ क्षणों तक वे कुछ भी नहीं देख पाये। थोड़ी देर में जब प्रकाश थोड़ा मद्धम पड़ा तो उसके शरीर पर पहले सिंदूरी रंग के हाथों के निशान फिर प्राचीन गणित की इबारतें उभर आयीं। ये इबारतें उन प्रश्नों के उत्तर थे जिनके संकेत गाय के शरीर पर उभरे थे।
टेलीग्राम - 12
फिर से शाम का समय है। पुल के ऊपर से रेलगाड़ी निकलती है। नीचे खड़े निरीक्षक ने ऊपर देखा तो दूर नीले खण्डहर नज़र आये।
अभी जेल तक सड़क नहीं बनी थी। ऊपर पहुँचने का रास्ता दुर्गम व टेढ़ा-मेढ़ा था। एक घण्टे की मेहनत के बाद ऊपर पहुँचते ही उसको महल के गुम्बद दिखायी देने लगे थे। थोड़ा आगे बड़ा फाटक था। उसे पार करते ही उसको लाल ईंटों की एक ऊँची दीवार दिखी जिसके ऊपर दोनों सिपाहियों की बड़ी-बड़ी परछाईयाँ थी। संगीत की हल्की-हल्की आवाज़ आ रही थी। दूर छत पर दरोग़ा की छोटी सी धुँधली आकृति दिख रही थी जिसके सामने एक नर्तकी नाच रही थी। उसने हाँफ़ते हुए सिपाहियों की परछाइयों तरफ़ देखा, उन्होंने उसे पास बैठने को कहा। एक परछाईं पानी लेने चली गयी दूसरी उसके समीप बैठ कर कथा सुनाने लगी :
‘यह जेल पहले होटल था और उससे पहले महल। महल के आखि़री दिनों में यहाँ रहती रानी बूढ़ी होकर अन्धी हो गयी थी। उसके नौकर उसकी खाट को ऐसे हिलाते थे जैसे कि वो रेलगाड़ी हो।’ ऐसा कह कर परछाईं मुड़ती है - अँधेरा हो चुका है - तभी कोठरी का एक कोना प्रकाशित हो उठता है। वहाँ एक खाट दिखती है। उसके नीचे एक लोहे का सन्दूक है। खाट पर एक बूढ़ी औरत लेटी हुई है। उसके आस-पास चार पाँच नौकर प्रकट होते हैं। वह मुँह से रेलगाड़ी की आवाज़ निकाल कर उसे चार धाम की यात्रा पर ले जाने का उपक्रम करते हैं। हर स्टेशन पर रेलगाड़ी रोक कर किसी धाम का नाम बताते है और दान-दक्षिणा, चढ़ावा इत्यादि के नाम पर उससे पैसे माँगते हैं। बूढ़ी रानी सन्दूक से कुछ पैसे निकाल कर उन्हें देती है और माथा टेकती है। फिर से नौकर मुँह से रेलगाड़ी की आवाज़ निकालते हैं और खाट हिलाना शुरू कर देते हैं। यह दृश्य जैसे आया था वैसे ही ग़ायब हो जाता है। कोठरी में वापस अँधेरा छा जाता है।
टेलीग्राम - 13
ऊपर नाच जारी है। दरोग़ा के चश्मे में भयानक छवियाँ उभरती हैं। लड़की के चेहरे पर सूखे वृक्ष की टहनियों के अक्स छा जाते हैं। उसकी चीख़ से दूर खड़ा निरीक्षक भी सिहर उठता है। उसकी छवियाँ टूटे काँच पर बिखर जाती हैं।
सिपाहियों की परछाईयाँ मशालें लेकर निरीक्षक को क़ैदी से मिलवाने ले जाती हैं। निरीक्षक अपने साथ टॉर्च लाया है। वह तेज़ रोशनी पहले क़ैदी के चेहरे पर फिर उसके चित्रों पर मारता है। वह उसके चित्रों का बड़े ध्यान से अध्ययन करता है तथा उनके सारे विवरण अपनी नोटबुक में बारीकी से दर्ज करता है। इस दौरान क़ैदी की परछाईं उससे लगातार समय पूछती रहती है और रंगों की माँग करती रहती है। निरीक्षक उसकी इस माँग को अनदेखा करता हुआ अपने काम में लगा हुआ है। थोड़ी देर में क़ैदी की आवाज़़ हद से बढ़ जाती है। उसका विलाप इतना कर्कश व करुणा से भरा हुआ है कि निरीक्षक की रूह काँपने लगती है। विलाप सुन सिपाहियों की परछाईयाँ भाग कर वहाँ आती हैं और चिल्ला कर उसको कहती हैं कि उसका कचहरी में नम्बर आ ही गया है; अब और रंगों का क्या करेगा। फिर दोनों परछाईयाँ उसके चित्र पर हँसती हैं। निरीक्षक उनको हँसते देख ख़ुद भी हँसने लगता है। हँसते-हँसते निरीक्षक अपना स्थूल रूप खोने लगता है और उसे अभी यह मालूम नहीं है कि अन्ततः वह भी परछाईं बनकर यहाँ भटकने को अभिशप्त है।
टेलीग्राम - 14
कचहरी के रास्ते में एक पेड़। उसकी शाखा पर लगे छत्ते में मूल-स्थान का संकल्प।
कचहरी जाते हुए क़ैदी एक ऐसे संसार का संकल्प करने लगा जिसमें वह आज़ाद था। उसकी यह कल्पना रास्ते में पड़ने वाले एक पेड़ की डाल पर मधुमक्खी के छत्ते के रूप में चिपक गयी। जैसे-जैसे वह कचहरी जाता यह छत्ता बढ़ता रहता। कुछ दिनों बाद उसका संकल्प उसके वर्तमान संसार से बड़ा हो गया और वह अपनी कल्पना में वर्तमान से स्वतन्त्र होकर उस छत्ते में आराम से रहने लगा। उसे वर्तमान संसार की घुटन से आज़ादी मिल चुकी थी। अब वह ख़ुशी-ख़ुशी कचहरी जाता और सब यातनाएँ सहता क्योंकि उसको पता चल गया था कि उसका ज़्यादातर समय अब उस वैकल्पिक संसार में व्यतीत होता है; यह तो केवल एक सपना मात्र है। इस नये संसार में मिली स्वतन्त्रता से प्रेरित होकर उसने उस वाहन का आविष्कार करना शुरू कर दिया जिस पर सवार होके आप चेतना के सभी आयामों के चक्कर काट कर मूल आयाम में वापिस लौट आते हैं। इस वाहन के आधुनिकतम संस्करण में आप इच्छा अनुसार इसके मूल आयाम को बदल भी सकते थे। उसकी योजना यह थी कि कुछ समय में जो नया संसार उनसे कल्पित किया है, उसको ही मूल स्थान बना देगा।
टेलीग्राम - 15
कचहरी तरह-तरह के टाइपराइटरों से बनी थी; जिन पर हमेशा काग़ज़ लगे रहते थे। कुर्सियों पर कभी कोई बैठा नहीं मिलता था; ऐसा लगता था कि अभी-अभी कोई वहाँ से उठ कर गया है।
उनके बीच में से निकलते हुए क़ैदी को उन काग़ज़ों को छूने से डर लग रहा था। उसे डर था कि कहीं उसके कपड़ों पर उनकी स्याही न लग जाए। जो संसार उसने कल्पित कर लिया था, उसमें ऐसी अशुद्धता की गुंजाइश नहीं थी। उसके बाहर जाते ही अन्दर से टाइप करने की आवाज़ आने लगती थी। कई टाइपराइटर एक साथ काम करते हुए ऐसे आवाज़ करते थे जैसे पुल पर से रेलगाड़ी निकल रही हो।
टेलीग्राम - 16
शाम को रेलगाड़ी एक बार फिर से महल के सामने से निकलती है। भाप इंजन के इतिहास के पन्ने उसकी खिड़कियों पर एक फ़्लिप पुस्तक की भाँति गतिमान होते हैं।
दरोग़ा अपने दफ़्तर में बैठा हुआ खिड़की से रेलगाड़ी को जाते देख रहा था। अनगिनत छवियाँ उसके मन पटल पर उभरती हैं, इससे प्रेरित होकर वह ऐसी कविता गुनगुनताता है जिसके शब्द ध्वनि से न बन कर चित्रों से बने हुए हैं। बाद में वह लालटेन की रोशनी में इन चित्रों को शब्दों में बदलता है - उसकी कविता के शब्द अपनी मूल अवस्था में जाकर समस्त वातावरण में गूँजते हैं। दरोग़ा स्याही-पेन से लिख रहा है। स्याही काग़ज़ पर फैल कर नीचे दोनों सिपाहियों की परछाइयाँ बन जाती है। मेज़ से टपकती स्याही से पेन के इतिहास के रेखाचित्र बन जाते हैं।
टेलीग्राम - 17
कै़दी अपने चित्र में कुछ आखि़री सुधार कर रहा है। सिपाहियों की परछाईयाँ उसका चित्र ध्यान से देख कर बाहर आ जाती हैं और धीमी आवाज़ में बहस करने लगती हैं।
उनका मानना यह है कि बेशक क़ैदी को चित्र बनाना नहीं आता है परन्तु उसने अपने पूरे प्रयास से एक बच्चे की भाँति सुन्दर चित्र बनाने की कोशिश की है जिसमें फूल, घाटी, नदी और उसमें से गुज़रती एक छोटी ट्रेन है। चूँकि रंग पेड़-पौधों से आये हैं, चित्रित फूलों में खुशबू है और नदी में बहता पानी। लेकिन बीच मन में आती रेल का रंग क्या होगा? उसने अभी तक उसमें तो रंग भरा नहीं। यह सवाल पूछने जब वह वापस अन्दर जाते हैं तो क़ैदी उनसे जंग से रंग बनाने को कहता है। इस उहापोह व विश्लेषण में क़ैदी को काम करते हुए रात से सुबह हो जाती है।
टेलीग्राम - 18
सुबह का सुन्दर वातावरण। पक्षी, पानी इत्यादि। क़ैदी की कोठरी का दरवाज़ा खुलता है।
उस दिन कोठरी का लौह द्वार खुला तो खुला ही रह गया। उसकी परछाईं ज़मीन पर मुद्रित होकर अटक गयी थी। सूरज की किरणें रौशनदान से छन कर ज़मीन पर नाना प्रकार के नमूने बना रही थीं। जहाँ-जहाँ धूप पड़ रही थी वहाँ धुआँ निकल रहा था। क़ैदी आज अपना सपना अधूरा छोड़ कर तड़के ही उठ गया था। वह चित्र को जितना जल्दी हो सके पूरा करना चाहता था ताकि आराम से मर सके।। तभी सिपाहियों की परछाइयाँ शरीर समेत वापिस आयीं और उसे बताया कि आज आख़िरी तारीख़ है। उधर क़ैदी अपना सपना पूरा करना चाहता था। उसे लगता था कि वह बेशक आजकल अपने वैकल्पिक संसार में मज़े से रह रहा है, परन्तु यह अवस्था अस्थायी है। उसने पेड़ पर जिस संसार का संकल्प किया है वह तब तक अधूरा है जब तक वह उसे अपने सपने में भी पूर्ण रूप से कल्पित न कर ले। अगर वह इसमें विफल रहा तो उसकी आत्मा का वहाँ स्थायी स्थानान्तरण नहीं हो पाएगा। लेकिन सपना था कि पूरा होने का नाम ही नहीं ले रहा था। व्यथित हो क़ैदी पहली बार रोया। सिपाहियों को लगा क़ैदी मृत्यु भय से रो रहा है। उनका दिल पसीजा। क़ैदी ने भी सपना पूरा करने के लिए और समय माँगा और उनसे कहा कि उसका चित्र पूरा हो गया है, बस रेलगाड़ी को आखिरी लाल रंग लगाना है। वह उनसे और लाल रंग की माँग करते हुए कहता है कि उसे पूरा किये बिना वह कहीं नहीं जाना चाहेगा क्योंकि उसे शक है कि उसे यहाँ वापिस नहीं लाया जाएगा। वह दोहराता है कि अगर रंग नहीं मिल रहा है तो किसी पुराने लोहे के औज़ार को ढूँढ ले और उस पर लगी जंग को एकत्र कर ले आएँ, शायद उससे वह अपनी रेलगाड़ी की तस्वीर पूरी कर पाये। सिपाही एक बार आखिरी कोशिश करने की बात करके वहाँ से जाते है; इस बार वह कोठरी का द्वार बन्द नहीं करते। उन्हें पता था कि उसकी परछाईं ज़मीन पर इतनी सख़्ती से मुद्रित है कि क़ैदी उससे बाहर नहीं जा पाएगा।
टेलीग्राम - 19
दरोग़ा झील के किनारे खड़ा पुराने कैमरे से तरह-तरह की काँच पट्टिकाओं पर छवियाँ उतार रहा था।
जैसी ही सिपाही दरोग़ा के पास हाँफ़ते हुए पहुँचे; वह झील के किनारे लगाये काले तम्बू के अन्दर जाकर अभी-अभी तैयार की काँच पट्टिका को टब में डाल चुका था। जैसे-जैसे फ़ोटो पेपर पर झील की छवि उभरती है; वैसे-वैसे ही बाहर असली झील सूखती जाती है। बाहर झील के किनारे खड़े सिपाही यह देखते हैं। कुछ ही क्षणों में झील पूरी तरह से सूख जाती है और उसके अन्दर मछलियाँ तड़पने लगती हैं। इस दौरान तम्बू के अन्दर से दरोगा की अजीबोगरीब आवाज़ें आने लगीं। सिपाहियों को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। उनको आभास हुआ कि शायद वह फ़ोटोग्राफ़ी के इतिहास और कला पर अजीबोग़रीब ज्ञान दे रहा है। बहुत समय बीत गया और सिपाही बाहर प्रतीक्षा करते रहे। अन्ततः दरोग़ा देर शाम बाहर आया और दूर दिख रहे अपने जेल के खण्डहर के तरह-तरह के कोणों से चित्र लेने लगा। सिपाही थोड़े घबराए हुए से यह प्रक्रिया देख रहे थे। दरोग़ा उनसे कोई बात नहीं करता है, उनकी तरफ एक नज़र मारकर अन्दर तम्बू में चला जाता है। उसके पीछे-पीछे सिपाही भी तम्बू के अन्दर आ जाते हैं और उससे खण्डहर की फ़ोटो विकसित न करने की गुज़ारिश करते हैं। वे कहते हैं कि उनको डर है कि कहीं झील की भाँति उनका खण्डहर भी ग़ायब न हो जाये। उनकी बात न मानकर दरोग़ा ज़बरदस्ती टब में काँच पट्टिका डाल कर फ़ोटो विकसित करने लगता है। सिपाही घबरा कर दरोग़ा के हाथ पकड़ लेते हैं और ज़ोर-ज़बरदस्ती करने लगते हैं। तीनों लोग गुत्थम-गुत्था हो जाते हैं। उतनी देर में टब में डूबे फ़ोटो-पेपर पर खण्डहर की तस्वीर धीरे-धीरे उभरने लगती है और पहाड़ी के ऊपर से खण्डहर भी धीरे-धीरे ग़ायब होने लगता है। दरोगा ठहाके लगता हुआ बताता है कि यह महल जो पहले होटल था और अब जेल है, वह ईंटों से नहीं बल्कि छन्दों से बना हुआ है। कभी दरार पड़ने पर छत टपकने लगती है तो उन दरारों को भरने के लिए उसे नित नये छन्दों का निर्माण करना पड़ता है। इसलिए वह रोज़ कविता लिखता है। इस तरह उसने दो सौ चालीस वर्णों से कई नये छन्द बनाये हैं। ऐसे-ऐसे छन्द जो पिंगलाचार्य के बाद किसी ने सुने भी नहीं थे। हलायुध के त्रिकोण से जो पैटर्न बनते, वे इसकी डिजिटल सुरक्षा के आधार थे। हाल में उसने अपने महल की छत की मरम्मत इस एक व्यवस्था से की थी :
1 1
1 2 1
1 3 3 1
1 4 6 4 1
1 5 10 10 5 1
बेशक पहाड़ी पर अब खण्डहर नहीं दिख रहा है पर वह वहीं है। बस अब उन्हें उसके अन्दर जाने के लिए छन्दों से बनी कुंजी की आवश्यकता होगी। यह सब बातें बता कर वह सिपाहियों को निर्देश देता है क़ैदी को फूलों के लाल रंग से ही रेलगाड़ी रंगने को कहो। रंग देते हुए दरोग़ा के हाथों पर अनेकों संकेत उत्पन्न होते हैं जो सिपाहियों को अन्दर प्रवेश करने के पारण शब्द थे।
टेलीग्राम - 20
दोनों सिपाही भाग कर उस अदृश्य जेल के अन्दर जाते हैं। पारण शब्दों का उच्चारण करते ही वह उसके अन्दर आसानी से प्रवेश कर गये। अन्दर आने पर सब पहले जैसा ही है। वे दोनों कै़दी का हाल जानने को उत्सुक थे।
इस सब से बेख़बर क़ैदी अपनी कोठरी में बिलकुल वैसी ही अवस्था में था जैसा वह उसे छोड़ कर गये थे। सिपाहियों को आता देख कर वह बेहद प्रसन्न हुआ। क़ैदी को फूलों से बने रंग देकर दोनों सिपाही उसकी कोठरी के बाहर इन्तज़ार करने का निर्णय करते हैं और अपनी-अपनी घड़ियों की तरफ देखने लगते हैं। उनकी टिक-टिक की आवाज़ से पूरा स्थान अलग-अलग समय के डिब्बों मे बँट जाता है। हर डिब्बे का समय दूसरे से विपरीत। कहीं दिन है तो कहीं रात। कहीं बारिश हो रही है तो कहीं धूप निकली हुई है। कहीं वसन्त ऋतु है तो कहीं शीत। सिपाहियों की घड़ियों की टिक-टिक की लय में ही क़ैदी रेलगाड़ी में फूलों का मद्धम लाल रंग भरता है जबकि उसका मानना था कि जंग का रंग ही शायद बेहतर होता। रेलगाड़ी पर फूलों का लाल रंग लगाने से रेलगाड़ी से अद्भुत ख़ुशबू आने लगती है। कुछ क्षणों के उपरान्त इंजन से आवाज़ निकलने लगती है और चिमनी से धुआँ। उस धुएँ में एक बार फिर दिवंगत कुँवर की आकृति दिखती है जो शायद लाहौर मूक सिनेमा देखने जाना चाहती है। कुछ देर बाद राजा की आकृति के पीछे उसके सेवक की आकृति भी दिखना शुरू हो जाती है जो बड़ी तेज़ी से गोल-गोल छाता घुमा रही है। कोठरी से जब धुआँ आता है तो सिपाही भाग कर तेज़ी से कोठरी का दरवाज़ा खोल कर उसके अन्दर आ जाते हैं। उन्हें कुछ समझ में नहीं आ रहा है। उन्हें धुएँ में दिवंगत कुँवर की जो आकृति दिखती है उसकी शक्ल क़ैदी से मिलती है। सिपाहियों को आते देख राजा और उसके सेवक की आकृतियाँ रेलगाड़ी में तुरन्त सवार हो जाती हैं और उसे चलने का इशारा करती हैं। देखते ही देखते उनकी रेलगाड़ी रंग-बिरंगे फूलों से भरी घाटी में छुक-छुक करती हुई आँख से ओझल हो जाती है। दोनों सिपाही वहाँ ठगे से खड़े रहे जाते हैं। उनकी परछाइयाँ उनका साथ छोड़ देती हैं। कहते हैं उनकी बाकी उम्र अपनी परछाइयों के बिन गुज़री।
टेलीग्राम - 21
रेलगाड़ी खण्डहर के आगे के पुल से गुज़रती है। दरोग़ा नाव में बैठा ग्रामोफ़ोन पर एक भूला -बिसरा गाना सुनता हुआ दूर जा रहा है।
उसे उम्मीद है कि अब उसे फूलों की घाटी में स्थित भवन में प्रवेश मिल ही जाएगा।