20-Jun-2021 12:00 AM
1450
चली तो गयी थी-
सुना था
बाहर
सपनों को साकार किया जाता है।
चलती रही
चलते या
बार-बार रुकते हुए।
मेरी एक तस्वीर है
चाहती थी
उसका रूपांकन
चित्रांकन
चाहती थी
केवल एक प्रतिकृति।
चलते
या रुकते हुए
कितना समय बीत गया
क्या खोया
क्या पाया
बस इतना ही याद है
कुछ भी
अंकित न हो सका
जग की
पाषाणी मंुडेर पर।
रेत के दूहों पर
सब ढह जाता था
परिकल्पित न होता था
कोई चित्र।
शायद यही सम्भव था।
बीता है समय
बीतना ही होता है उसे।
निराश नहीं
जैसे गयी थी
वैसे ही लौट आयी हूँ।
अन्त में
अच्छा लगता है
जाना-पहचानापन-
वही घर है
बाहर द्वार बन्द है
अन्दर से सीढि़याँ गयी हैं
ऊपर की खिड़कियाँ खुली हैं।
अटारी से
नीचे के कक्ष में
मेरी
मौलिक वह तस्वीर है
उसकी न कोई प्रतिकृति है,
न प्रतिछवि
कहीं किसी दर्पण में वह
प्रतिबिम्बित न हो सकी-
अछूती और
अनपहचानी ही बनी रही
अभिव्यंजना के लिए हुए
मेरे इस निष्क्रमण में।
घर के बाहर
कोई पैड़ी नहीं है
आश्वस्त बैठी हूँ
अपनी भूमि के
उसी घास भरे टुकड़े पर।
दूर वे
गड्ढा खोद रहे हैं
उन्हें मेरी
एकमात्र इच्छा अनुकूल लगी-
मैंने मिट्टी चाही थी
आग नहीं।
वे
एक बहिष्कृत भू-भाग में
गाड़ने के लिए मुझे
गड्ढा खोद रहे हैं।
कितना निर्दोष होगा वह भू-खण्ड
न संचरण
न आवागमन
मानों मेरा अन्तःकरण-
खोद रहे हैं गड्ढा वे
दफ़न के लिए
उस अपवारित ज़मीन पर
वे
सदा के
बेगाने जन।
अप्पदीप
जो
बार-बार
खोकर मिल जाता
यह गृह
ग्राम
नदी-तट
सदा ही बंध्ाी रहती
यह नाव।
यह मेरा ध्ान है।
कभी ये हट जाते
नाम-रूप बदलकर
घट-बढ़कर
फिर मिल जाते
कुछ देर में
आश्वस्त हो मैं सोचती
सुरक्षित यह
मेरा ध्ान है।
किन्तु इस बार
मैं चली गयी थी
परले गाँव
वहाँ एक दीया देख
जो अकेला ही
पूरे गाँव को
उजियारा रखता है।
कुछ ही क्षणों का दौर था
लौटी जब
देखा यहाँ कुछ नहीं
न गृह
न ग्राम
न नदी-तट
न नाव ही
कहाँ गया सब
किससे पूछूँ
कोई बसीकत नहीं
सब सुनसान है
सिफऱ़् सन्नाटा है।
सोचा
परले गाँव ही चली जाऊँ
याद आया
वह चमत्कारी दीया।
किन्तु
यह तो आकस्मिक था
आकस्मिकता के पैर नहीं होते
स्वच्छन्द ही होते हैं
उसके क्षण।
दूर तक दृष्टि डाली
सब अदृश्यता के अन्दर है
परले गाँव का कहीं कोई चिन्ह नहीं।
मुझे लगा
सब भ्रम है-
वह परला गाँव भी
जो कुछ क्षणों का दर्शन था
और वह दीया भी
सिफऱ़् एक
पत्थर का फूल है
‘लाकूकेन’
या यह भी नहीं।
मन
एक और बड़ा सुनसान था-
क्या करूँ?
बार-बार पूछने पर लगा
यह प्रश्न भी
शायद एक छोटा-सा दीया है
इसमें चिन्ता है, विचार है
विचार में जिज्ञासा है
जो सदा
खोज के लिए प्रेरित करती है
और घुमा-फिराकर हमें
खड़ा कर देती है
हमारे पास ही।
आत्मान्वेषण ही उपाय है-
उसने
दूर जाकर कहा-
जो खो गया
चला गया
लौटा नहीं इस बार
वह ध्ान नहीं था।
तो ध्ान क्या है?
आत्मध्ान।
वह चिरन्तन है
और प्राप्रव्य है।
चिरन्तन को पाना क्या?
‘अनुभवगम्यता’
इसका नित्य बना रहता आनन्द ही
‘प्राप्ति’ है।
अब प्रश्न में प्रकाश था।
परला गाँव
कहीं ‘अन्तर-साम्राज्य’ तो नहीं,
जिसके क्षण भर के दौर ने
बाहर सब सुनसान कर दिया?
और वह दीया
‘अप्पदीप’ तो नहीं?
प्रश्न में
उत्तर की दीप्ति थी
विमर्श ने विचार निर्मल कर दिया था।
खुल गये थे
मन के सोपान
सरल हो गये थे
आत्म-यात्री के चरण।
स्वप्रारोपण
ऊपर स्वप्न था
और नीचे थी
यह ज़मीन।
नभोनील यह स्वप्न-
कपिल ध्ारा का आकांक्षी था
इसका मन।
कठिन तप के बाद
आकाशों को पार कर आया
अजात शिशु था यह
मेरे मनोराग का,
जन्मोत्सुक
एक विकल्प
मेरी कामना का।
किन्तु क्यों यह
बीच में ही
मेरे मस्तक के मेघों में
मोरपंख-सा
अढक गया,
माथे के क्षितिज पर
तारक की अटलता से
टंक गया !
क्या इसे अभिप्रेत नहीं है-
नित्य आवागमन से
मेरे पैरों के नीचे की
उध्ाड़ी हुई यह ज़मीन...
मेरा ही अंश यह
चाहता था
जीवन की नाटिका से दूर
एक ऐसा
अज्ञात कच्चा कोमल
भूमि-खण्ड
जहाँ मैं इसकी पूर्णता का
रोपण कर सकूँ।
यह स्वप्न
अपनी सुन्दरता का
स्वयं द्रष्टा था
साक्षी था
अपनी एकलता का भी।
यह चाहता था
वह भू-तल
जैसे सुदूरता में रहता है
मेरा अन्तस्तल।
यह स्वप्न का स्वप्न था-
मैं चल रही थी
मानों अपनी ही खोज में।
जीवन में होकर भी
जीवन से अलग यह यात्रा थी।
नीचे की ध्ारती पर
पगतलियों को मिलता अविराम
कठोरता का स्पर्श
पाश्र्व की पटरियाँ भी
कंकरीली पथरीली थीं
चलना तो था ही
अन्वेषण की प्रेरणा अथक थी।
पथ दीर्घ था
काल ने आहट की
तो मैं रुक गयी-
समीप ही था
मृत्यु-तट।
हृदय ने अनुभव किया
सुखदायी संवरण।
किन्तु सामने था
एक छोटा-सा अन्तराल
अटक गये दिग्-काल।
यह था
एक दिव्य ‘कृषक’ का
खलिहान
वह
स्वप्नों की फ़सल बोता था
ध्ारा और आकाश के
स्वप्नों की
समवेत फ़सल।
वह स्वयं भी सपनों का चितेरा था।
मेरा स्वप्न
सहज ही नीचे उतर आया
हाथों में
मैंने उसकी
पंखिलता को दुलराया
और रोप दिया
दिव्य ‘कृषक’ की
नीचे बिछी
दृष्टि की
नम मृदुल परतों में।
काली पहाड़ी पर
छत की
क्षितिज-सी बंकिम
मुंडेर पर
बैठी हूँ
परछाईयाँ आलोकित हैं।
सामने
काली पहाड़ी है-
सारा जग सोया है।
पीछे दृष्टि डालती हूँ ः
सुबह तो
अपनी तरह ही हुई थी
चिडि़या चहकी थीं
कलियाँ महकी थीं
घास पर चमक रहे थे
ओस-कण
जैसे अभी चलकर गयी हो
कोई परी किरण।
किन्तु पूरा दिन
ध्ाूप भरा कोलाहल था।
न कहीं
नदी-तट की शान्ति थी
न कदम्बों से आता
कोई सुरीला स्वर-
सब जगह
भीड़भरी अस्फुट आवाजे़ं थीं।
रुदन या हास
समय का परिहास
कहीं न थी सार्थकता
नहीं था सत्य का आभास।
खाई में चल रही थीं
छायाएँ
कर्म जैसे अविद्या था
ज्ञान की कोई परत नहीं।
इन्द्रियों पर
इन्द्रियों का आक्रमण
भयावह था जागरण
जन-जीवन।
इस परकीय
अपहृत रोशनी की चमक में
टूट रहा था दिन
उसकी संकीर्णता जलसा थी।
यहाँ भी कहीं
एक गोपन
निश्चल नीरवता थी
शान्त कोई सोया था
योगी
या अन्तर्मन।
छत की
क्षितिज-सी बंकिम
मुंडेर पर
बैठी हूँ-
आकाश में
न इस ओर दिन है
न उस ओर रात।
सामने
काली पहाड़ी पर
महानिशा का राज्य है
सारा जग सोया है।
केवल आलोकित है
एक गुहा
योगी की
या अन्तर्मन की-
दीपक की लौ में
नित्य जागरण है।
मेरी वास्तविक सामान्यता
प्रतिपल की परीक्षा
अब जीवन थी-
मैं भागना चाहती थी
पलायन करना चाहती थी
परीक्षक की
सदा बनी रहनेवाली
भेदक दृष्टि से-
इस खोजबत्ती से
जो मृगयाकुक्कुर की तरह
मेरा पीछा करती थी-
या मेरे कपड़े उतारना चाहती थी
कि मैं निरावरण
उसके सम्मुख हो सकूँ।
यह तीक्ष्ण प्रकाश,
इसका संकेन्द्रण
मेरे अन्दर सुरंग बनाता था,
गर्भगृहों में जाता था,
ऊपर के उन तलों को झकझोरता था
जो सोये हुए थे-
मैं
प्रतिपल के इस दबाव से
भागना चाहती थी
कि सामान्य रह सकूँ
और अपने जीवन की साँसों की
आवा जाही में जी सकूँ-
मैंने चाहा था
अपने प्रिय
पुरातन मित्र
अँध्ोरे की पीठ की टेक ले
सो जाना-
हर क्षण रोशन रहना
जाग्रत रहना
यह तो तपी सलाख़ है।
कुछ समय बाद
उस दृष्टि के नीचे ही
उस प्रकाश में
मैं सो गयी
और जाग गयी
खोजबत्ती
मेरी अन्तर-दीवट का ही
दीया थी-
जागने पर अनुभव की
इसकी
मृदुल स्निग्ध्ा भास्वरता-
मैं
सामान्य जीवन चाहती थी-
यही थी मेरी
वास्तविक सामान्यता।
चलो मन उस डाल पर
पटरियाँ तो
खुली ही मिलीं सदा
रेलगाड़ी की तरह
दौड़ता रहा
मन
जाता रहा
इस डिब्बे से उस डिब्बे में
निर्लक्ष्य होकर भी
मानो वह एक यात्री हो।
आगे नहीं
पीछे ही कुछ डिब्बे हैं
बीच में रास्ता है।
जाना
कभी वहीं रह जाना
या लौट आना-
बहुत समय से यही क्रम है।
किन्तु यह कथा एक दिन की हैः
वह गया
उस डिब्बे में दो-तीन जन थे
पहचान कर भी
अनजान-से बैठे हुए
असबाब कुछ नहीं
केवल एक पोटली-
मन के सरोकार को देख
वह खुल गयी
आगे भी ऐसा ही हुआ
सब जगह होती
एक छोटी-सी दुःखद कथा
मन उसे विस्तार देकर
उसकी त्रासदी को
और अध्ािक त्रासद कर देता-
पुरातन दुःख को
नया कर देता।
ऐसे ही एक डिब्बे में
उसे मिले
बहुत पहले खोये हुए
अपने जन
कष्टकर था अन्त।
आगे जाकर वह देखता है
दो तरुण दम्पती
सुन्दर और शालीन
दो अलग बेंच पर बैठे हुए।
वे सहृदय हैं
वात्सल्यमय
अलग रखना चाहते हैं
मन को
दुःख से-
उसके पूर्वज हैं।
किन्तु
पोटली में संवाद है
यों भी मन जानता है
उनकी कथा
महामारी का आतंक
असमय मृत्यु
ऐसे ही चले गये थे
दो बच्चों को अनाथ कर
वे अदेखे
अपने जन।
अगले डिब्बे में थे
कुछ समय पहले गये
एक वयोवृद्ध पुरुष-
सम्बन्ध्ाी नहीं
पर आत्मीय थे
वे जानते थे,
मन की संलग्न प्रकृति को
जो सदा आहत रखती है
और तोड़ती हुई चलती है।
उनकी पोटली में
दुःख नहीं, संवाद नहीं,
संवेदन था
संवेदनशीलता और आशीष।
मन द्रवित
कुछ क्षण रुका रहा-
अब आखि़री डिब्बा था।
उसने देखा
कोने में एक लड़की बैठी है
वेशभूषा अभिजात है
हाथ में छोटी-सी थैली है-
किन्तु उसके चेहरे पर
उदासी है
निराशा की छाया है
जैसे कोई
काली बदरी ठहर गयी है।
मन प्रश्न नहीं करता
अनमना-सा लौट आता है
अपने डिब्बे में-
खिड़की पर बैठ देखता है
दौड़ते हुए
दृश्यों को-
सब पीछे की ओर भाग रहे हैं
अतीत की ओर
किन्तु वह लड़की!
वह तो अतीत नहीं
‘वर्तमान’ है
कितने समय से उससे
संवाद नहीं रहा।
मन
मानो स्वयं
एक खोयी हुई चीज़ है।
मन थक गया है
रुक जाना चाहता है
किसी असमय में।
गाड़ी की गति ध्ाीमी होने लगी है
पहियों की आवाज़ भी सरक रही है
लगता है कोई प्लेटफ़ार्म आया है
शायद आखि़री स्टेशन है,
‘टर्मिनस’।
उसने पास ही महसूस किया
उस लड़की को
उसके स्पर्श को
युगों बाद सुनी उसने
उसकी आवाज़
ध्ाीरे से बोली वह
उतरो, चलो मन
चलो मन, उस डाल पर
जहाँ रहता है
तुम्हारा वह दूसरा
अन्तद्र्रष्टा साक्षी
प्रकाशित मन-
तुम्हारे सदृश है वह
सखा तुम्हारा है!
उससे वार्तालाप करो
वह जानता है
अन्तर-पथ।
वह ले जायेगा तुम्हें
जहाँ
नील-वन के
चन्द्र-सरोवर में
रहता है
स्वर्ण पंख
तुम्हारी आत्मा का राजहंस-
चलो मन, उस डाल पर।
प्रतिभासित अन्तर्बिम्ब
मन
बहता हुआ आकाश है
वह व्याप्त है
फिर भी मैं उसे
स्पर्श नहीं कर सकती
उसकी अनुभवगम्यता को।
न वहाँ मेघ हैं
न सूर्य-चन्द्र
न तारक ही
न वायु की
चंचल कोई तरंग।
नक्षत्र गंगा का
उद्भासित पथ भी वहाँ नहीं है
न कोई उच्छलता
न उद्वेग
न तटवर्ती जलावर्तन
पूर्ण अस्त को प्राप्त थी
हर घटना
हर आवागमन
कुछ क्षणों को
बहते आकाश के इस दर्पण में
प्रतिभासित हुआ था
मेरा अन्तर्बिम्ब।