नादिर सिक्कों का बक्स सिद्दीक आलम उर्दू से अनुवादः सबा आफ़रीन
08-Jun-2019 12:00 AM 4849

मैं एक लम्बे अर्से से उसकी तलाश में था। मैं अपना ज़्यादा वक़्त एक घाट से दूसरे घाट तक पैदल तय करने में बिताया करता। मेरे कुछ दोस्त लांच पर सवार जिसकी चिमनी से धुआँ निकल रहा होता, हमेशा दूसरे किनारे की ओर जा रहे होते। मैं उन्हें दूर से हाथ हिला कर अल-विदा कहता और वे बैंच पर बैठे या लोहे के रेलिंग के सामने खड़े होकर मेरी तरफ़ मायूसी से ताकत रहे होते। उन्हें इस बात की फि़क्र थी कि मैं कभी दूसरे किनारे पहुँच न पाऊँगा। उनकी सोच कुछ ग़लत भी न थी। अभी हाल में ही मैंने एक बे-तुका कारनामा अंजाम दिया था। मैंने एक मरते हुए बूढ़े को, जिसका इस ग्रह पर कहीं ठिकाना न था, अस्पताल पहुँचा कर उस के बाक़ी के दिनों में चन्द बेकार इज़ाफे़ किये थे। शायद यही वजह थी, मैं ख़ुद को समझाता, कि बूढ़े ने शुक्रिया अदा करने की ज़रूरत महसूस नहीं की थी।
मैं थक कर बस-स्टाॅप के साएबान के नीचे लोहे की कुर्सी पर बैठ गया जिस के पाये कांक्रीट की ज़मीन में धँसे हुए थे और अपनी नाक की सीध पर ताकने लगा। सामने की रोशन पटरियों पर जैसे एक ही ट्राम बार बार गुज़र रही थी। कभी कभी मुझे इस से दिलचस्पी भी हो जाती। मगर वह हर बार घण्टी बजा कर जा चुकी होती और मैं उसके पिछले भाग से लटकती रस्सी के सिवा कुछ न देख पाता।
उसे जब मैंने सोचा है, तो एक दिन उसे मेरे रूबरू आना ही है। और वह जैसे ही उपस्थित होगा मैं उसे मायूस नहीं करूँगा। मैं उसे अपना नादिर सिक्कों का बक्स तोहफ़े के तौर पर दे दूँगा।
ये नादिर सिक्कों का बक्स, अगर आपको इस से दिलचस्पी हो तो बता दूँ, उसे मेरे छोटे चाचा ने मुझे तोहफ़े में दिया था। वह उधेड़ उम्र के हो चुके थे मगर इन्होंने शादी नहीं की थी । उनका कमरा पुरानी किताबों कापियों, बन्द घडि़यों, कम्पास, तरह-तरह के आतशी शीशों, प्राचीनकाल के नक़्शें जो अपनी मोड़ने वाली जगहों पर टूटने लगे थे और दूसरे अलम-घलम वस्तुओं से अटा पड़ा था । घर के अफ़राद उनके कमरे में जाने से डरते थे। मुझे आज तक इस बात का इल्म नहीं हो सका कि ये बक्स इन्होंने मुझे क्यों दिया था? वह मेरी सालगिरह का दिन था न कोई त्यौहार का मौक़ा, न ही मैंने स्कूल या खेल के मैदान में कोई बड़ा कारनामा अंजाम दिया था। सिर्फ़ बक्स की कुंजी मेरे हाथ में थमाते वक़्त इन्होंने आँख मारी थी।
याद रखना, इस से ज़्यादा मैं तुम्हारे लिए कुछ नहीं कर सकता।
ये उनके पागलपन की शुरूआत थी।
अब उनको पागल हुए दो साल बीत गये थे। इसी दरम्यान मैंने वह बक्स कभी खोलने की कोशिश नहीं की। इस के उभरे हुए ढक्कन पर लाख का वार्निश चढ़ाया गया था जिसमें लम्बी चोंच वाले पंचमेल पक्षिओं की रंगीन तस्वीरें थीं और बाहरी दीवारों पर ख़ुशनुमा पत्तों वाले बेल बूटे उभारे गये थे। सिर्फ़ पेन्दा किसी भी तरह के रंग-ओ-रोग़न से खाली था। बक्स को हिलाने पर अन्दर से सिक्कों के खनकने की आवाज़ सुनायी देती। ऐसा लग रहा था जैसे बक्स की चमक पर गुज़रते वक़्त का ज़रा-सा भी निशान नहीं पड़ा हो। इस के साथ ये भी शामिल कर दूँ कि मैं दो साल के अन्दर अन्दर उसे अलमारी के भीतर कपड़ों की तह में रखकर पूरी तरह भूल चूका था। फिर जब हम लोग डीज़ल ट्रेन में बैठकर इस पहाड़ी शहर की तरफ़ रवाना हुए जहाँ के पागलखाने में वह रखे गये थे, मुझे उस की याद आयी और मैंने नादिर सिक्कों का बक्स अपने सूटकेस के अन्दर डाल लिया।
पागलखाने के प्रांगण में जहाँ मुलाक़ातियों को मरीजों से मिलने की इजाज़त थी, उनकी अस्वभाविक तौर पर बढ़ी हुई दाढ़ी और गन्दे लिबास के बावजूद उन के लम्बे क़द और बाज की तरह तेज़ आँखों के सबब मुझे चचा को पहचानने में दुशवारी नहीं हुई। और जब कि लोहे के बन्द फाटक के पीछे खड़े दूसरे पागल शोर मचा रहे थे या रो रहे थे या हँस रहे थे (अगर ये उनका स्वाँग न था) वह मुलाक़ातियों के शैड के ऊँचे बरामदे पर हमारे बराबर बैठ गये और मेरे अब्बा से बातें करने लगे। बात करते करते इन्होंने मेरे सर पर हाथ रखकर मुझे दुआ दी और देर तक नादिर सिक्कों के बक्स की तरफ़ ताकते और मुस्कुराते रहे।
अब्बा से बात ख़त्म करने के बाद वह मेरी तरफ़ मुतवज्जा हुए ।
और सबकी तरह तुम भी तो मुझे पागल नहीं समझते होना? इन्होंने मेरा दाहिना कान ऐंठते हुए कहा जिसे अब्बा ने सुन लिया। वह जे़रे लब मुस्कुराये मगर चुप रहे।
नहीं, मैंने कहा। पागलखाने के दो कर्मचारी सतर्कता से हमारे सर पर नियुक्त थे।
लगता है तुम भी पागल हो गये हो, इन्होंने हँसते हुए कहा। अगर मैं पागल नहीं तो क्या मैं यहाँ भाड़ झोंकने के लिए रखा गया हूँ। और ये बक्स, इसे तुमने कभी खोलने की कोशिश नहीं की?
यह आपको कैसे पता?
क्योंकि मैंने तुम्हें ग़लत कुंजी दी थी। अब बताओ मैं पागल हूँ?
अब्बा ने मुझे उठने का इशारा किया, मगर इस से पहले ही चाचा मेरा दाहिना हाथ सख़्ती से थाम चुके थे।
तुम पढ़ाई में ध्यान नहीं लगाते और ग़लत-सलत चीज़ें सोचते रहते हो।
चाचू, मेरा हाथ दुख रहा है।
तुम सिर्फ़ मेरे बारे में सोचते रहते हो।
मुझे लगा मेरी कलाई की हड्डी टूट जाऐगी, मैं चींख पड़ा।
उन्हें दोनों कर्मचारयों ने बहुत मुश्किल से मुझसे अलग किया। नादिर सिक्कों का बक्स ज़मीन पर जा गिरा और इस की आवाज़ से अचानक चाचा की आँखें जैसे ख़ाब से जाग गयीं।
तुमने ये आवाज़ सुनी? दोनों कर्मचारियों के शिकंजों में फँसे वह मेरी तरफ़ बेबसी से ताक रहे थे। एक दिन तुम्हें इस के लिए अफ़सोस होगा।
चलो भी, अब्बा ने मेरे कान में सरगोशी की।
मैं ठीक हूँ। ठीक हूँ मैं। चचा ने दोनों मुलाजि़मों से ख़ुद को अलग किया, अपनी क़मीज़ का कालर ठीक किया और मेरे पास आये। इन्होंने मेरे दोनों गाल चूम कर उन्हें थपथपाया। वह जब सिर झुकाये हुए दोनों मुलाजि़मों के दरमयान चलते हुए लोहे के फाटक की तरफ़ वापिस जा रहे थे जहाँ पागलों का शोर और भी बढ़ गया था तो मेरी आँखों से आँसू टपक रहे थे।
उनका पागलपन कब ठीक होगा? बाहर आकर मैंने अब्बा से सिसकते हुए पूछा। नादिर सिक्कों के बक्स पर अब भी मेरी अँगलियाँ लरज़ रही थीं। ज़मीन पर गिरने के सबब उस के एक कोने का वार्निश दरक गया था।
वह कभी पागल नहीं हुए।
फिर आप लोगों ने उन्हें यहाँ क्यों डाला?
शायद इस लिए कि इस पागल दुनिया के अन्दर तुम्हारे चाचा के लिए यही सबसे सुरक्षित जगह है।
मैंने अब्बा की तरफ़ देखा और जाने क्यों मुझे ऐसा लगा जैसे अभी थोड़ी देर पहले के चाचा हजामत बना कर साफ़ सुथरे कपड़े पहन कर हमारे साथ बाहर निकल आये थे।
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एक ट्राम मेरे सामने आकर रुकी है और मैंने इस से एक भारी भरकम लड़की को हाँफ़ते-काँपते बाहर आते देखा है। लड़की को मेरी नज़रें नहीं भातीं। मेरी मसें भीग चुकी हैं। मुझे अपनी आँखों का ख्याल रखना चाहिए। मैं सिर झुका लेता हूँ। इस के बाद भी देर तक ट्राम खड़ी रहती है, फिर एक धचके के साथ कंडक्टर की घण्टी का इन्तज़ार किये बग़ैर चल पड़ती है। मैं उठकर पटरियाँ पार करके नीचे अपने मुहल्ले की तरफ़ चल पड़ता हूँ जिसके मटियाले आसमान पर उड़ते चील और कौव्वों के बीच एक दुमदार पतंग अपना रास्ता भूल चुकी है।
गुज़श्ता दस साल के अन्दर अन्दर हमारा पुराना पुश्तैनी मकान चारों तरफ़ से अवैध तौर पर बनायी गयी इमारतों से घिर गया था जिनमें अजीब तरह के अकथनीय लोग आ गये थे। एक चिलमधारी फ़क़ीर भी था जिसने हमारी दहलीज़ को स्थायी रूप से अपना ठिकाना बना लिया था। उसके वजूद से हर समय भंग की बू आती रहती और अब तो वह ख़ुद को इस घर का ही एक सदस्य समझने लगा था । उसने अपनी बीड़ी सुलगाते सुलगाते झाइयों से भरा चेहरा मेरी तरफ़ उठाया।
बब्वा का काॅलेज फिर खुल गवा।
मैं इस के जुमले पर चैंक पड़ा। काॅलेज! अभी तो मैंने दसवीं का इम्तिहान ही पास किया है, शायद मेरे क़द के सबब से वह मुझे काॅलेज का विद्यार्थी समझने लगा है। घर के अन्दर छोटे चाचा के बन्द कमरे के सामने से गुज़रते-गुज़रते में ठिठक गया। आज इस कमरे का दरवाज़ा खुला हुआ था। अन्दर रोशनी हो रही थी। मुझे अन्दर किसी आदमी के होने की आहट का एहसास हुआ और मेरा दिल धक से रह गया।
हातिम है। माँ ने पान चबाते चबाते कहा। तुम्हारे चाचों के अलीगढ़ के ज़माने का साथी । इस से मिलने आया है। काॅलेज के दिनों में कई बार आ चुका है। उस वक़्त तुम बहुत छोटे थे। शायद ही तुम्हें याद हो।
जाने क्यों मुझे उन के कमरे में जाने की हिम्मत नहीं होती। मेरा एक खुद का कमरा था जिसके क़द-ए-आदम दरीचे पर कबूतर अपनी चोंच और पंजों से यलग़ार किया करते। इस के बन्द शीशों पर आप किसी भी वक़्त उनके परों को मचलते देख सकते हैं। किताबें कोने की मेज़ पर फेंककर मैं बिस्तर पर जूतों समेत पीठ के बल लेट गया और दसों अँगुलियाँ गर्दन के पीछे उलझा कर छत की तरफ़ ताकने लगा जिसकी कडि़यों से लिपटे झोल और मकड़ी के जाले बरसों से साफ़ नहीं किये गये थे। पड़ोस के किसी घर से कील ठोंकने की आवाज़ आ रही थी। मेरी खिड़की से दो हाथ के फ़ासले पर एक नयी इमारत की निचली मंजि़ल की एक खिड़की खुलती थी जिससे हर दूसरे-तीसरे दिन और कभी कभी तो दिन के वक़्त भी, एक मर्द और औरत के ज़ोर ज़ोर से साँसें लेने, कराहने, चूडि़यों के टूटने और आपस में सरगोशियाँ करने की आवाज़ें सुनायी देतीं ।
शट अप! मैं खिड़की पर बैठे कबूतरों को (कभी कभी फ़जऱ्ी कबूतरों को) उड़ाता। मुलाइबत की आवाज़ बन्द हो जाती। फिर कम से कम सरगोशियों और आहों में ये काम अपने अंजाम को पहुँचता और कमरे के ग़ुस्ल-ख़ाने में पानी का शोर जाग उठता।
माँ...एक दिन मैंने कहा था। ...मुझे चाचू का कमरा चाहिए। ये कमरा मुझे अच्छा नहीं लगता।
वो कमरा तुम्हारे लिए ठीक नहीं, माँ कहती, फिर अपनी बात में एक झूठ का इज़ाफ़ा करती। और फिर तुम्हारे चाचू किसी भी दिन ठीक हो जाएँगे। फिर तुम्हें ये कमरा छोड़ना होगा।
छोड़ दूँगा, मैं कहता। मैंने कब चाचू के कमरे में सारी उम्र गुज़ारनी है।
नहीं, वो कमरा तुम्हारे लिए ठीक नहीं, इस में अरमान की बहुत सारी क़ीमती किताबें और कापियाँ रखी हैं, तुम्हारे अब्बा इजाज़त नहीं देंगे। माँ तहक्कुमाना लहजे में अपना आखि़री फ़ैसला सुनाती और मैं सोचता, एक दिन में नादिर सिक्कों के बक्से के साथ इस घर से हमेशा हमेशा के लिए चला जाऊँगा।
मैं इस तरह क्यों इस बक्स के बारे में सोचता, मैं बता नहीं सकता। लेकिन जब भी मैं किसी घाट पर अकेला होता तो दरिया के मटियाले पानी की तरफ़ ताकते ताकते मैं इस अनजाने मुल्क में पहुँच जाता जहाँ मैं ये बक्स खोलने वाला था और उन नादिर सिक्कों के सबब वो मुल्क एक जादूई मुल्क में बदल जाता जहाँ चिडि़याँ मशीनी थीं और इंसान के जिस्मों पर पानी नहीं ठहरते और सुन्दर राजकुमारियाँ अपने आर-पार नज़र आने वाले लिबासों में अपने गुलाबी-जामुनी निपल के साथ दरिया के किनारे की क़द-ए-आदम घास के जंगल में भाग रही होतीं। चाचू जो इस मुल्क के बादशाह थे, जो अपनी एक अँगुली के एक इशारे पर सल्तनतों को तबाह कर सकते थे और आसमान से पानी बरसाने पर क़ादिर थे, मेरे लिए उनके दरबार में एक ख़ास जगह मख़सूस थी जहाँ सतूनों पर आग उगलने वाले साँप लहराते रहते।
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हातिम मेरे चाचा की उम्र के ही एक दूसरे आदमी थे जिनके सर के सामने के सारे बाल उड़ चुके थे। इन्होंने लिनन की पतलून पर एक डेनिम का जैकेट चढ़ा रखा था जिस के बटन उनकी भारी भरकम तोंद को सम्भाल नहीं पा रहे थे। अपने छोटे छोटे हाथ-पाँव के सबब वो बिलकुल ही मज़हकाख़ेज़ नज़र आ रहे थे।
ये बाल मैंने किताबों की नज़र कर दिये हैं। इन्होंने खाने की मेज़ पर मुझे बताया। और अगर आज तुम्हारे चाचा पागलखाने में हैं तो इस में हैरत की कोई बात नहीं। हम में से सबसे कम पागल को हम पागलख़ाना भेजते हैं।
वो वही बात कह रहा था जो मेरे बाप कहा करता। मगर वो मेरे चाचू के दोस्त थे तो इतने दिनों तक इन्होंने उनकी ख़बर क्यों नहीं ली ?
मैंने एक दूसरे मुल्क में रूपा मछलियों से भरे एक टापू समूह में पनाह ले रखी थी जहाँ सूरज तक को झाँकने की इजाज़त न थी। इन्होंने गोश्त के एक कम गले टुकड़े को चबाये बग़ैर हलक़ से नीचे ढकेलने की कोशिश की जिसके नतीजे में उनकी आँखों से पानी निकल आया और उन्हें पानी के घूँट का सहारा लेना पड़ा। मेरे बारे में कहने के लिए और भी बहुत सारी बातें हैं। इन्होंने दोनों गाल पर बह आये आँसू को रूमाल से साफ़ करते हुए कहा। मिसाल के तौर पर मैं शर्त लगाने के लिए तैयार हूँ कि मैं बहुत दिनों तक जि़न्दा रहने वाला हूँ और एक अन्धे की मौत मरूँगा।
मुझे उनकी इस अजीब-ओ-ग़रीब गुफ़्तगु पर हैरत न हुई बल्कि मुझे पूरा यक़ीन हो गया कि वो मेरे चाचू के क़रीबी दोस्त थे। बाद में जब हम चाचा के कमरे में अकेले हुए तो इन्होंने बिस्तर पर लेटे लेटे मेरी तरफ़ देखा (इन्होंने अपने जैकेट के सारे बटन खोल दिए थे) और कहा।
तुम सोच रहे होगे मैं कहाँ से टपक पड़ा।
हाँ।
और ये भी सोच रहे होगे कि इस नादिर सिक्कों के बक्से के बारे में मैं जानता भी हूँ या नहीं।
मैंने चैंक कर उनकी तरफ़ देखा।
ये बक्स काॅलेज के दिनों में भी अरमान की सबसे क़ीमती चीज़ों में शामिल था। इन्होंने मुस्कुरा कर कहा। इस के सबब हम लोग उस का मज़ाक़ भी उड़ाया करते मगर हम में से किसी को बक्स खोलने या उस के अन्दर झाँकने की इजाज़त न थी।
मैं ऐसे किसी बक्से के बारे में नहीं जानता। मैंने झूठ कहा।
बेकार है। तुम्हारे चाचू ने मुझे ख़त में सब कुछ बता दिया था। वो मुझे अहमक़ समझता था, इस लिए मुझसे कुछ भी छुपाता न था। घबराओ मत, मैं वो बक्स लेने नहीं आया हूँ। गरचे इसे हासिल कर के मुझे कम ख़ुशी न होगी। तुम ख़ुश-कि़स्मत हो और तुम्हारे चाचा ने ज़रूर तुम्हारे अन्दर कुछ देखा होगा कि इन्होंने बक्स तुम्हारे हवाले किया। तुमने उसे खोल कर देखा तो होगा?
नहीं।
हैरत है। शायद तुम्हारे अन्दर इस तरह की चीज़ों के लिए कोई तजस्सुस नहीं है। वो बक्स लाओ। उसे खोल कर देखते हैं।
इस की कुंजी मेरे पास नहीं है। चाचू ने ग़लत कुंजी मुझे दी थी। इस बार मैं सच कह रहा था क्योंकि पागलखाने से वापसी के बाद मैंने उसे खोलने की कोशिश की थी।
मैं जानता हूँ। हातिम ने मुस्कुरा कर कहा। लेकिन तुमने कभी सही कुंजी ढ़ूँढ़ने की कोशिश क्यों नहीं की?
मुझे कुछ ही दिन पहले उस का पता चला ।
तो इन्होंने अपना चरमी सूटकेस खोला, इस से एक छोटी सी हैंड बैग बरामद की और इस के साईड चैन से पीतल की एक मुजव्वफ़ कुंजी निकाल कर मेरी तरफ़ बढ़ा दिया। ये रही सही कुंजी। तुम्हारे चाचा ने ख़त के साथ लिफ़ाफ़े में उसे डाल कर भेजा था। ख़ुशकि़समती से उसे रास्ते में किसी ने नहीं खोला और ये लिफ़ाफ़ा कुंजी के साथ सफ़र करता हुआ सात-समुन्दर पार से बग़ैर धूप वाले मलिक तक पहुँच गया।
जब ये बक्स आपके पास न था तो इन्होंने ये कुंजी आपको क्यों भेजी? मैंने कुंजी को थाम कर कहा। कुंजी थामते हुए जाने क्यों मुझे लग रहा था मैं उसे पहले भी देख चुका था।
ये तो वही बता सकता है। इन्होंने लापरवाही से कहा। अब तो सिर्फ़ यही कहा जा सकता है कि शायद इस ने ऐसा इसलिए किया था ताकि सही वक़्त पर सही कुंजी तुम्हें मिल जाये।
कुंजी थाम कर में उनकी तरफ़ गू-मगू की कैफि़यत में ताक रहा था जब इन्होंने कहा, मैं जानता हूँ ये तुम्हारा निजी मुआमला है उसी लिए मैं उसे मेरे सामने खोलने पर इसरार नहीं करूँगा, बल्कि बेहतर होगा अगर तुम मेरे जाने के बाद बक्स को खोल कर देखो।
दूसरे दिन मेरी आँख खुलने से पहले ही फ़ज्र की नमाज़ पढ़ कर वो जा चुके थे। मैंने नादिर सिक्कों का बक्स निकाल कर खिड़की पर रखा जिस पर फि़लहाल कोई कबूतर न था। पड़ोस की खिड़की भी ख़ामोश थी। मैंने कुंजी को बुक्स के कलीदी सुराख़ में डाल कर उसे खोलने की कोशिश की। बक्स ने खुलने से इन्कार कर दिया।
मेरा शुबह सही निकला। ये पहली कुंजी की काॅपी ही थी।
मुझे इस गंजे, मकड़ी की तोंद वाले स्काॅलर की अहमक़ाना मुस्कुराहट दिखायी दे रही थी जो उस वक़्त ट्रेन की खिड़की के सामने बैठा अपनी मिशन पूरी करने की तश्फ़ी के साथ बर्दवान के लहलहाते खेतों की तरफ़ ताक रहा होगा। या फिर कौन जाने, चाचू नहीं चाहते थे कि ये बक्स कभी खुले।
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और तब मुझे मेरा आदमी अचानक नज़र आ गया। वो एक लाँज में खड़ा मुसाफि़रों को जादू दिखा रहा था। पहले तो उसने मुँह खोलकर एक चैड़े फल वाला लानबा तेज़ चाक़ू उस के मूठ तक अपने हलक़ के रास्ते पेट के अन्दर डाल लिया और दोनों हाथ आसमान की तरफ़ उठाकर लाँज के एक किनारे से दूसरे किनारे तक चलता फिरा, फिर उसने इंसानों के सर के आकार की ज़ंजीर की कड़ी अपनी स्याह थैली से जिस पर इंसानी हड्डियों और खोपडि़यों की तस्वीरें बनी थीं, बरामद किये और बड़े ही हैरत-अंगेज़ तरीक़े से उन्हें एक दूसरे के अन्दर नत्थी करने लगा जब कि हलक़ों को एक दूसरे के अन्दर दाख़ल करने का कोई रास्ता न था, जिसकी तसदीक़ कई तमाशबीन हाथ से छू कर कर चुके थे। तमाशा दिखा कर जब वो मेरे पास आया तो मैं देर तक उसे देखता रह गया। यहाँ तक कि उसने अपनी बोसीदा गोल्फ कैप सर पर सीधी कर के मुस्कुराने की कोशिश की और जब कि लाँज के दूसरी तरफ़ के घाट पर पहुँचने ही वाला था और नसफ़ से ज़्यादा मुसाफि़र बेंचों से उठ चुके थे, वो एक ख़ाली बैंच पर बैठ कर खैनी बनाने लगा और पानी पर थूकने लगा।
जेटी से लगते ही लाँज देखते देखते मुसाफि़रों से ख़ाली हो गया था। सिर्फ़ हम दोनों अलग अलग जगह बैठे एक दूसरे को ताकते रहे। लाँज के बैंच एक-बार फिर मुसाफि़रों से भरने लगे थे जब वो मुस्कुराया और उठ कर मेरे पास चला आया। हम एक साथ लाँज से बाहर आए थे।
कोई ख़ास बात? उसने अपने नीचे के होंठ कर बाहर खींच क्रास पर खैनी रखते हुए कहा।
मेरे पास एक बक्स है, मैंने कहा।
बहुत ख़ूब।
इस पर एक ताला पड़ा है जो नहीं खुलता।
तो उसे किसी ताला खोलने वाले को दिखाओ।
मैं चाहता हूँ कि मेरा बक्स ताला के बग़ैर खुल जाये। और तुम ये काम कर सकते हो।
तुम्हें लगता है मैं सच-मुच का जादूगर हूँ और जादू नाम की एक चीज़ भी है दुनिया में। वो हिंसा और इस के खैनी ख़ूर्दा स्याह दाँत नुमायाँ हो गये। ये दुनिया भी अजीब है। हम दूसरों के बारे में क्या कुछ सोच लेते हैं। कोई पर्दे के पीछे झाँकने की मेहनत ही नहीं करता। फिर भी कोशिश की जा सकती है। तुम वो बक्स यहाँ ले क्यों नहीं आते। तुम मुझे आसानी से ढूँढ सकते हो। मैं तुम्हें किसी न किसी जेटी पर या लाँज के अन्दर तमाशा दिखाता नज़र आऊँगा।
कल काॅलेज के बाद ठीक तीन बजे में बक्स के साथ चाँदपाल घाट पर तुम्हारा इन्तिज़ार करूँगा।
दूसरे दिन चाँदपाल घाट की सुनसान जेटी की सीढ़ी पर बैठ कर, जहाँ तेज़ हवा चल रही थी, (वो मुक़र्ररा वक़्त से तक़रीबन आधे घण्टे बाद नमूदार हुआ था) उसने बक्स पर अँगुलियाँ फेरीं, उसे उलट-पलट कर, हिला डुलाकर देखा, अपने कान से लगा कर अन्दर सुनने की कोशिश की, देर तक उस के किलीद के सुराख़ के अन्दर झाँकता रहा और आख़री-ए-कार थक कर उस के क़ब्ज़ों को ढ़ूँढ़ने लगा जो उसे नज़र नहीं आये। वो नज़र आते भी कैसे। वो तो बक्स के अन्दर की तरफ़ बने हुए थे। थक कर उसने मेरी तरफ़ देखा।
ये एक ग़ैरमामूली बक्स है। उसने दोनों कुंजियों को एक दूसरे से मिला कर देखते हुए कहा। तुम उसे किसी ताला वाले से ही खुलवा सकते हो, या फिर उस बक्स को तोड़ क्यों नहीं डालते? तुम्हें इस से ख़ूबसूरत बक्स बाज़ार में मिल जाएँगे।
तो वो लोहे के हलक़ों वाला तमाशा एक फ़रेब था। मुझे पहले ही जान लेना चाहिए था। तुम मेरे आदमी नहीं हो। मैंने उस से बक्स वापिस लेते हुए कहा।
वो आँखों का फ़रेब तो था, लेकिन तुम इतनी जल्द फ़ैसला न करो। हो सकता है मैं वाक़ई तुम्हारा आदमी निकलूँ।
नहीं, तुम मेरे आदमी नहीं हो सकते। मैंने उस की तरफ़ पीठ घुमाते हुए कहा। तुम्हें दो वक़्त की रोटी से फ़ुर्सत नहीं। जब कि मैं जिसे ढूँढ रहा हूँ, उस के पास वक़्त ही वक़्त है।
जेटी से बाहर आकर दरिया के किनारे चलते चलते मैंने देखा, एक लाँज मुसाफि़रों को लेकर बहुत ही ख़तरनाक हद तक एक तरफ़ झुका हुआ जीटी से वापिस लौट रहा था जिसके अन्दर वो मुसाफि़रों की भीड़ में खड़ा एक जि़न्दा साँप निगलने का तमाशा पेश कर रहा था । उस के बाद भी हमारी कई मुलाक़ातें हुईं। फिर एक दिन वो और दिखायी न दिया। शायद लोग रोज़ रोज़ एक ही तमाशा देखते देखते ऊब गये थे या शायद एक ही तरह के लोगों को देखते देखते वो बोर हो गया था।
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हमें ख़बर मिली है कि चाचा पर पागलपन का शदीद दौरा पड़ने लगा है और उन्हें बिजली के काफ़ी होलनाक झटके दिये जा रहे हैं। एक-बार मैं भी बड़े चचा के साथ उन्हें देखने गया। उन्हें एक कमरे में, जिसकी दीवारों पर गद्दे चस्पाँ थे, ज़ंजीर से जकड़ कर रखा गया था। इन्होंने एक दूसरे पागल का दाहिना कान नसफ़ चबा डाला था। उन्हें हमारी मौजूदगी पर हैरत हुई। वो जब दरवाज़े की सलाख़ों के पास आये तो मुस्कुरा रहे थे।
तुम ठीक तो हो? बड़े चचा ने डुबडुबायी आँखों से कहा।
बिलकुल चंगा, सर। वो हँसे। हमने देखा, उनके सामने के दो दाँत ग़ायब थे और कनपटी पर किसी गहरी चोट के सबब उनकी दाहिनी आँख बायी आँख के मुक़ाबले में कुछ छोटी हो गयी थी। और तुम? इन्होंने अपने हथकड़ी से जकड़े हुए हाथों को उठा कर मेरी तरफ़ इशारा किया। हातिम कह रहा था। तुम वाक़ई एक अलग किस्म के लड़के हो।
वो यहाँ आये थे? मैंने पूछा और दरवाज़े की मोटी सलाख़ों के अन्दर हाथ बढ़ा कर चाचू का हाथ थामने की कोशिश की, मगर पागलखाने के मुलाजि़म ने मुझे रोक लिया।
हाँ, और उसने अपने गंजे सर पर तबला बजाने की इजाज़त भी दी थी। वो दोबारा हँसे। इस से बड़ा गधा मैंने जि़न्दगी-भर नहीं देखा। ख़ैर, अब वो अपनी बोसीदा किताबों की दुनिया में जा चुका है।
इसके बाद शायद चाचू के सब्र का पैमाना लबरेज़ हो गया। वो एक दिन पागलखाने से भाग निकले और इस से मुल्हिक़ एक रिहायशी बंगला की दीवार पर लगाये गये बिजली के हिफ़ाज़ती तारों में उनकी अध-जली लाश उलझी हुई मिली। लाश बुरी तरह विकृत हो चुकी थी। उन्हें पागलखाने के क़ब्रिस्तान में ही दफ़ना दिया गया। मुझे तक इस में शामिल होने की इजाज़त न मिली जिससे मुझे पता चला कि लाश कुछ ज़रूरत से ज़्यादा विकृत हो चुकी थी।
चाचू के इन्तिक़ाल के बाद में वो बक्स अलमारी के बहुत अन्दर रखकर भूल गया। मैंने शहर को नये सिरे से दरयाफ़्त करने की कोशिश की, नये नये रास्ते अपनाए जहाँ लोगों के चेहरे बिलकुल अजनबी और हैरत-अंगेज़ थे, ऐसी गलियाँ देखें जहाँ हर दूसरी गली में एक नया चांद चमक उठता, ऐसी शाहराहों से गुज़रा जिन पर मिलों चलकर भी लोग ख़ुद को पहली जगह पर ही पाते । मैंने एक ग़मगीं मगर कम सुख़न आदमी का देर तक पीछा किया और आख़रि-ए-कार उसे अपनी कहानी सुनाने पर मजबूर कर दिया और ये कहानी भी कितनी दर्दनाक थी जैसे शहर का चमकीला आसमान अचानक मनहूस कव्वों से ढँक जाये, जैसे एक पु सुकून रात फ़सादियों के शोर से जाग उठे, जैसे दरख़्तों से पत्ते दाइमी तौर पर झड़ ने लगीं, जैसे दूर ख़ला में चमकते सितारों से राख का गिरना शुरू हो जाये, जैसे रास्तों पर चलने वाले राहगीर फ़रेब साबित हों और फ़ना और बक़ा के सारे मफ़ाहीम बदल कर रह जाएँ।
लेकिन इन सब चीज़ों से आख़रि-ए-कार मैं थक गया। अब मेरे पैरों में इतनी ताकत न थी कि दो क़दम भी चल पाता। मैं किसी खम्बे से टेक लगा कर अपनी आँखों को ख़ुशक रखने की कोशिश करता तो आसमान से बारिश की बूँदें लगातार गिरती चली जातीं जब कि इस वक़्त बादलों का नाम-ओ-निशान न होता और मैं इस पुरअसरार बारिश में शराबोर छतरी बर्दार लोगों के बीच एक नाबूद हस्ती की तरह चलता चला जाता। और ऐसी ही एक पुरअसरार बारिश के दिन, बक्स को बग़ल में दबाये, मैं एक सरकारी बस के पायदान से एक बड़ी सड़क पर उतर आया जिस पर आज़ादी का शानदार जश्न मनाया जाता था और दरिया की तरफ़ चल पड़ा।
बारिश और कुहासे के सबब दरिया नज़र नहीं आ रहा था। मैं न नज़र आने वाले दरिया के किनारे तारकोल की सड़क पर चलता रहा और चलते चलते एक घाट पर पहुँच गया जिसके वसीअ-ओ-अरीज़ ज़ीने पर दरिया का पानी बहुत ऊपर तक आ गया था और धुएँ की तरह मचल रहा था। मैं इस की आखि़री सीढ़ी पर खड़ा दरिया के दूसरे किनारे ताक रहा था जो कुहासे में ग़कऱ्-ए-दरिया का हिस्सा ही नज़र आ रहा था । जाने कितना वक़्त गुज़र गया जब मुझे अपनी बग़ल में दबे हुए बक्स का एहसास हुआ और मैं उसे अपने दोनों हाथों से थाम कर सीढ़ी पर बैठ गया। बक्स के नीचे मचलते पानी की तरफ़ ताकते हुए मुझे ऐसा महसूस हो रहा था जैसे लहरें इंसानी अँगुलियों की शक्लें लेकर बक्स को गिरिफ़्त में लेना चाह रही हों। मैंने बक्स को पानी के हवाले कर दिया। नादिर सिक्कों का बक्स पहले तो पूरी तरह अन्दर डूब गया और अभी मैं सोच ही रहा था कि शायद अब वो दिखायी न दे जब अचानक ग़ोता खा कर बाहर निकल आया। वो एक मौज की ज़द में आकर सीढ़ी से टकराया और पलट कर जेटी से लौटते किसी मुसाफि़रों से भरे लाँज की तरह एक तरफ़ झुका हुआ घाट से दूर जाने लगा।
बारिश और कुहासे में पानी पर वो किसी ताबूत की मानिन्द नज़र आ रहा था।
मैंने चाचू और हातिम की दी हुई दोनों कुंजियाँ पानी में फेंक दें।
इस रात मैंने ख्वाब में देखा बक्स बहते बहते जादूई मुल्क में पहुँच गया था जहाँ की चिडि़याँ मशीनी थीं और इंसानी जिस्मों पर पानी नहीं ठहरते और सुन्दर राजकुमारियाँ अपने आर-पार नज़र आने वाले लिबासों में अपने गुलाबी-जामुनी निपल के साथ दरिया किनारे उगी हुई क़द-ए-आदम घास के जंगल में भाग रही थीं और चाचू जो इस मलिक के बादशाह थे, जो अपनी अँगुली के इशारे पर सल्तनतों को तबाह कर सकते थे और आसमान से पानी बरसाने पर क़ादिर थे, उनके दरबार में मेरे लिए एक ख़ास जगह मख़सूस थी जहाँ सतूनों पर आग उगलने वाले साँप लहराते रहते। उसने तुम्हें बताया तो होगा । लेकिन मैं तुम्हें यकीन दिलाता हूँ कि मरने के बाद उस के नथनों से बड़ी भारी तादाद में रूपा मछलियाँ बरामद होंगी और वो सारी की सारी बहुत ही जय्यद और दानिश्वर मछलियाँ होंगी।

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