नेक्रोपोलिस महेश एलकुंचवार अनुवाद : गोरख थोरात
22-Mar-2023 12:00 AM 1432

‘टू जॉइन द मेजॉरिटी’ मुहावरा स्कूली जीवन में कभी याद किया था। उसका अर्थ है मरना। लेकिन दिमाग में कभी यह विचार नहीं आया कि इस मुहावरे का अर्थ यही क्यों है। क्योंकि वह इतना आर्केक और कालबाह्य हो गया था कि एक बार याद करने के बाद यह मुहावरा न कहीं मेरे पढ़ने आया और न ही उसका इस्तेमाल करने की मेरी इच्छा हुई। लिखित और मानक भाषा में, और ‘स्मॉल टॉक’ के समय ग़लती से भी कभी किसी ने उसका इस्तेमाल किया हो, मुझे याद नहीं। मृत्यु को मरना कहकर मुक्त होना और अपने-अपने काम में लग जाना, यही आज की अन्धी भागदौड़ करने वाली दुनिया का युगधर्म है। ऐसी दुनिया में साफ़-साफ़ और तड़क-भड़क होना ज़रूरी होती है, और इसलिए भाषा वैसी ही बनती है। ठिठकने, रेंगने के लिए समय ही नहीं है किसी के पास। इसलिए झट् से लेनदेन निबटकर ‘मूव ऑन’ कहते हुए अगले काम का मोर्चा सम्भालना पड़ता है। कुछ आलंकारिक भाषा में विस्तार से कहना-सुनना, उसके लिए ‘सम्प्रेषण कला’ का ‘सौन्दर्यानुभव’ प्राप्त करना निठल्ले या फुरसतवाले लोगों का विलास है। आज इसके लिए किसी के पास समय नहीं है। जो भी है वो संक्षेप में और साफ़-साफ़ कहो बाबा (और मुझे बख़्श दो), यही ज़रूरत है सभी की। इसलिए अभी की (कम से कम) अंग्रेज़ी भाषा स्पष्ट, अल्पाक्षरी और नो नॉनसेन्स बनती जा रही है। कम्प्यूटर के कारण इस संक्षिप्तीकरण को भी स्वीकृति ही मिल गयी है। इस भाषा का भी अपना एक सौन्दर्य है और वह कालानुरूप होने के कारण कम से कम मुझे तो बहुत आकर्षक लगता है। कोई भी यही सोचेगा कि अद्यतन भाषा का इस्तेमाल किया जाए। ऐसी भाषा चाहे नित्य नयी होती हो, लेकिन ऐसा भी नहीं कि उसका पुराना रूप नष्ट होता ही है। कहीं-कहीं वह अपेक्षित जगह पर टुकड़ों-टुकड़ों में, अचानक उजाले के रेले की तरह चमकती रहती है। अपने साथ-साथ दूसरे शब्दों को भी चमकाती है। नगरीय मानक मराठी का इस्तेमाल करने वालों को लगता है, ज्ञानेश्वरी के शब्द बहुत कुछ अनवट और दुर्बोध हैं। लेकिन इसके अनेक शब्द विदर्भ और मराठवाड़ा की ग्रामीण मराठी में अभी भी धड़ल्ले प्रचलित हैं और अपने मूल अर्थ से ज़रा भी दूर नहीं गये हैं। लगता है, बहुत सारे पुराने भाषारूप अब नष्ट हो गये हैं लेकिन यह बात उतनी सच नहीं है। पृथ्वी की सतह के नीचे ‘हाइबरनेशन’ के लिए चले गये प्राणियों की तरह ये भाषारूप भी खामोश पड़े होते हैं या क़ब्र के स्वप्नस्थ शरीरों की तरह मुक्ति के लिए प्रतीक्षारत होते हैं और समय आते ही सरसराकर ऊपर आकर अपने अनुभवों को यथार्थ वर्णनात्मकता प्राप्त कराते हैं, जो कई बार नयी भाषा के बस का काम नहीं होता।
मुझे अभी-अभी पाकिस्तान में ऐसा अनुभव आया। ‘टू ज्वाइन द मेजॉरिटी’ मुहावरा अपनी सभी दृष्टियों से जगमगाता हुआ अचानक ऊपर आया और मैंने देखा, अपना अचूक वर्णन कर उसने नये अर्थानुभवों के तरंगों की सिद्धि की है। यही तो भाषा का सामर्थ्य है। सच्चा जीवित शब्द सतही तौर पर एकार्थी हो, लेकिन यदि हमने उसका संवादी अनुभव किया है, वह जीवित हो उठता है। और ऐसा होने पर जिस तरह किसी चाँदी के घण्टे का अनुरणन काफ़ी देर तक गूँजता रहता है, उसी तरह वह शब्द अपने प्रयोग के साथ मन में गूँजता रहता है और बहुआयामी अनुभवों की छाया-परछाया का खेल मन में शुरू कर देता है।
‘कराची से दो-एक घण्टे के फासले पर ‘मकली’ में ‘मृतकों का गाँव’ है। चलें वो देखने?’ हमारे कराची के यजमानों ने पूछा। उनकी इच्छा थी कि हम उसे ज़रूर देखें। उन्होंने हमें उस गाँव पर उनकी लिखी एक सचित्र पुस्तक भी दिखायी। उस पुस्तक से समझ में आता था कि इसके बारे में उन्होंने काफ़ी अध्ययन कर रखा है। उन दिनों रमज़ान का महीना होने के कारण छुट्टियाँ थीं और कराची में सभी तरफ़ सन्नाटा था। कुछ और करना भी सम्भव नहीं था।
‘चलिए।’ हमने कहा और एक सुबह हम चल पड़े।
सिन्ध का काफ़ी बंजर इलाका देखते-देखते हम मकली पहुँचे। हमने तय किया था कि यह मृतकों का गाँव हम पैदल घूमकर देखेंगे। क़ब्रिस्तान में धूल उड़ाती, कर्कश आवाज़ करती मोटर गाड़ी ले जाना हमें ठीक नहीं लगा। एक जगह गाड़ियाँ पार्क कर हम उस गाँव में दाख़िल हुए। पहले गाँव के विस्तार का अंदाजा नहीं आया था। लेकिन भीतर दाखिल होने के बाद जब चलना शुरू किया, तब अंदाजा हो गया। छह चौरस मील का है वह शहर। चार-पाँच सदियों की क़ब्रों और मज़ारों से भरा। यहाँ क़ब्रों की रचना गाँव के घरों जैसी ही थी। भीतर चौड़ी सुन्दर सड़कें, कभी समानान्तर तो कभी एक दूसरे को काटती और कभी अचानक मुड़ती। सिन्ध की लाल मिट्टी से भरी सड़कें और उनकी दोनों तरफ बीच के खुले चौकोनों में सभी तरफ क़ब्रें ही क़ब्रें। विभिन्न आकारों की, विभिन्न ढाँचों की।
सुबह ढल चुकी थी और सूरज अब दोपहर की तैयारी कर रहा था। सिन्ध के उस ऊसर इलाके के ‘नेक्रोपोलिस’ में छाँव के लिए कोई पेड़ तो क्या, घास की हरी पत्ती भी कहीं नज़र नहीं आ रही थी। कहीं भी हरियाली नहीं थी। जो थी, सूखी, जली हुई-सी। लेकिन इसके बावजूद चलते-चलते और उस क़ब्रगाह से राह खेते समय एक अजीब नशा छा जाने की तरह हमारे पैर अपने आप आगे-आगे खींचे जा रहे थे। चमकीली धूप, छाँव का कहीं नामोनिशान नहीं। हवा भी पूरी तरह से रुकी हुई। क़ब्रों के जंगल में घूमने वाले हम चार लोग छोड़ दें, तो और कोई पन्दी-परेवा नहीं। अद्भुत खामोशी। वह खामोशी ऐसी आतंकित कर रही थी कि हम अनजाने में एक दूसरे से कानाफूसी में बातें करने लगे थे। फिर धीरे-धीरे हमारी बातें भी बन्द हो गयीं और हम चारों अपनी-अपनी राहों पर वहाँ भटकने लगे।
कितने प्रकार की, कितने आकारों की क़ब्रें। कहीं किसी भव्य मकानों जैसी, तो कहीं बस मानवीय देह समा जाने लायक आकारों की। छोटे-छोटे बच्चों की नन्हीं क़ब्रें। उनके सामने से पैर आगे बढ़ ही नहीं रहे थे। मुझे हमारे घर के इसी उम्र में गुज़रे एक बालक की याद आयी और पुराना ज़ख्म अचानक खुल गया। सोचा, वहाँ बैठ जाएँ और आहिस्ता से उन क़ब्रों पर हाथ फेरे। भीतर सो रहे होंगे शिशु। खेलते-खेलते चल बसे। उनके माथे पर घुँघराले, रेशमी झँडूले के बाल उग आये होंगे और अँगूठा मुँह में डाले, गाल पर फूल खिलाते हुए सो गये होंगे।
कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरे भीतर कुछ टूट गया है और इसीलिए ये क़ब्रें मुझे लाल-लाल नज़र आ रही हैं? खुद को सम्भालकर मैं दोबारा चलने लगा। लेकिन सभी तरफ वही ईंट जैसे लाल पत्थरों का रंग। कुछ क़ब्रों की भव्यता उन व्यक्तियों के मरने के बाद उन्हें इन्हीं लाल पत्थरों से चिरस्थायी बनाए हुए थी। कुछ जगहों पर क़ब्रों का पूरा समूह था और उसके इर्दगिर्द पथरीला परकोटा। कहीं-कहीं मृत्यु के बाद समूचा परिवार एक दूसरे के साथ वहाँ विश्राम कर रहा था। कहीं अकेली दुकेली सामान्य अनाथ क़ब्रें भी। कहीं अन्यों से अत्यधिक अमीर की तरह अलग शानदार और भव्य क़ब्रें। ऊपर नीला आसमान, इर्दगिर्द झिलमिलाती पीली धूप और लाल भूमि पर लाल पत्थरों की खामोशी में डूबी अनगिनत क़ब्रें।
यहाँ हम ये क्या कर रहे हैं? अचानक यह प्रश्न मेरे मन में कौंध गया। तनिक झेंप-सी हुई। हम किसी का एकान्त नष्ट कर रहे हैं। उनके ‘प्राइवेट स्पेस’ का अतिक्रमण कर रहे हैं। मन में गुनाह करने जैसा महसूस होने लगा। कानाफूसी ही सही, लेकिन यहाँ हम बड़बड़ा रहे हैं और यह अदब नहीं है। मुझे लगा, यहाँ के ‘सेक्रेड साइलेंस’ को तोड़ना धर्मबाह्य है और मैंने अरशद के कानों में वैसा कहा भी। ‘ऐसी कोई बात नहीं जी।’ किसी ने हौले से लेकिन साफ़-साफ़ मेरे कानों में कहा। मैंने चौंककर इधर-उधर देखा। अरशद के अलावा वहाँ और कोई नहीं था। मैंने उससे पूछा, ‘क्या कहा?’ वह बोला, ‘कुछ भी तो नहीं। क्यों क्या हुआ?’ मैंने बस गर्दन हिलायी और चलने लगा। कुछ वहम हो गया होगा और क्या। अरशद हल्का-सा मुस्कुराया और बोला, ‘कुछ लोगों को किस्म-किस्म के वहम होते हैं यहाँ!’ फिर मेरी पीठ पर धौल जमाता हुआ बोला, ‘चलो भी। इतना सुपरस्टिशस मत बनो।’ हम चुपचाप चलने लगे। हमारी बातें वैसे भी खोई हुई थीं इस वक़्त। लेकिन सचमुच मुझसे कोई बोला था, ‘ऐसी कोई बात नहीं जी।’ बहुत साफ़ और खनकती आवाज़ थी। मेरे दाहिने कान के पास। इतने पास कि मुझे लगा, बोलने वाले की साँसें भी मेरे कानों को छूकर गुज़री हैं। कोई दोस्त कोई ख़ास राज की बात कानों में कह दें, ऐसी आत्मीय आवाज़ में कही गयी थी वह बात।
मैंने अरशद का साथ छोड़ दिया। अब हम सभी इधर-उधर बिखर गये थे। मैं भी उनसे अलग होकर अकेला भटकने लगा। लेकिन मुझे न कोई नज़र आ रहा था और न ही किसी की आहट कानों पर आ रही थी। इसलिए मैं रुक गया। मुझे चारों ओर से क़ब्रों ने घेरा हुआ था। कदम थक चुके थे। प्यास से गला सूख रहा था। कमीज़ पसीने से भीग चुकी थी और देह चिपचिपी हो गयी थी। सोचा, कहीं ठहर जाए, बैठ जाएँ आराम के लिए। वहीं एक भव्य क़ब्र की घनी छाया दूसरी क़ब्र पर पड़ रही थी। उस छाया में उस छोटी क़ब्र से पीठ सटाये मैं ज़मीन पर बैठ गया।
अचानक ठण्डी हवा का झोंका आया। वाह! कैसा सुकून! मैंने आँखें मूँद लीं। फिर एक और झोंका आया ठण्डी हवा का और देह को तरोताज़ा कर गया। मन को अच्छा लगा। फिर थोड़ी-थोड़ी देर बाद हवा की लहरें देह से गुज़रने लगीं, मानो कोई हवा का पंखा चला रहा हो। कौन इतने प्यार से पंखा झल रहा है? यहाँ तक कि पंखे की आवाजें भी आ रही हैं। उस हवा में खस की खुशबू और ठण्डक भी है। भिवा ही होगा। ऐसी हवा बस वही करता था मुझे। लेकिन वो तो मर चुका है न? कभी का चल बसा है? यहाँ कैसे आएगा? उसका चले जाना पता चला था, वो भी उसके गुज़र जाने के कई साल बाद। पारवा के किसी आदमी से अचानक मुलाक़ात हुई इसलिए पूछताछ की। इधर-इधर की अन्य अनेक छोटी-मोटी ख़बरों की तरह ये भी एक ख़बर। (असल में, पारवा की कोई भी ख़बर मेरे लिए छोटी नहीं होती।) बाबू बोला, ‘भिवा, वो तो कब का चल बसा।’ फिर वह कुछ और सुनाने लगा। लेकिन उधर मेरा ध्यान ही नहीं था। भिवा के जाने की बात सुनकर मेरे भीतर अचानक कुछ हिल-सा उठा था। भिवा हमारा घरेलू नौकर था, मेरे बचपन से। मैं अविश्वास में बुदबुदाया, ‘गुज़र गया?’ बाबू बोला, ‘कब का...। देहात में पचास-पचपन की उम्र यानी बुढ़ापा। उतना तो वह हो ही गया था। चला गया।’ उसी पल मेरा बचपन खत्म हो गया। मेरा पूरा बचपन उसी ने तो अपने दो हाथों पर तौला था। मैं हमेशा उसके पीछे-पीछे, उसकी गोद में या कन्धे पर और वह भी मुझे हमेशा गोद में उठाये रहता था। मेरे पैरों में मिट्टी न लगे इसलिए उठा लेता था। उसका बेटा, जनार्दन नाम था उसका, आराम से नीचे मिट्टी में खेलता रहता, लेकिन मैं वैसा करने लगूँ तो ये मुझे उठा लेता था। ऊपर से कहता, ‘इस तरह मिट्टी में खेलना नहीं चाहिए हम जैसों को।’ मैं चिढ़कर उसे मारता, नोंचता, लेकिन मेरी मार से बचता हुआ वह कहता, ‘इस तरह मारना नहीं चाहिए हम जैसों ने।’ एक बार इसी तरह कुछ हो गया था। गुस्सा हुआ होगा या किसी ने मेरा कुछ छीन लिया होगा। ऐसे अवसर पर भिवा ही होता था मेरा। उसके गले लगकर मैं ज़ोर-ज़ोर रोने लगा। वह अपने हाथों से मेरी आँखें और मुँह पोंछने लगा और मुझे कसकर अपने सीने से लगा लिया। तब सूँघा था मैंने उसके देह का पसीना और बीड़ी मिश्रित गन्ध। मैं ज़ोर से साँसें भरकर उस गन्ध को बिल्कुल सीने में भर लेता था। धीरे-धीरे मेरा रोना रुक जाने पर वह मुझे कहानी सुनाने लगा। इतनी मज़ेदार थी कहानी कि मैं रोना ही भूल गया। आँखें फाड़े उसे सुनता और बीच-बीच में रोने की याद आने पर रो उठता। फिर वह रोना भी थम गया। भिवा मुझे अमरूद के बगीचे में ले गया और उसने मुझे मेरे मनचाहे अमरूद पेड़ की फुनगी से तोड़कर दिये। उसने मुझे मोरों का झुण्ड दिखाया, जो बगीचे के किनारे आया था। उनमें से एक मोर ने झट से अपने पंख फैलाए, तब तो मैं ‘भिवा भिवा’ करता हुआ नाचने लगा। फिर हम दोनों नाली के पानी में पैर भिगोते हुए घूमते रहे, क्यों भिवा? और बाद में हमने मोरपंख जमा किये थे। वो कहाँ रखे थे तुमने?
‘नन्हे ने अपने बैग में रखे थे न?’
मुझे अचानक भिवा के पसीने और बीड़ी की मिश्रित वही तेज गन्ध महसूस हुई और मैंने झट से आँखें खोलीं।
‘बड़ा हो गया है हमारा नन्हा। लेकिन अभी भी मिट्टी में बैठता है, देखो।’ भिवा बोला।
मैं इस कदर निश्चिन्त हुआ कि एकदम क़ब्र से टेककर आराम से बैठ गया। पैर आगे फैला दिये और कहा, ‘मुझे लगा ही था। इतनी ठण्डी हवा, मतलब भिवा ही है।’
बाद में उससे पूछा, ‘अभी तुम ही पंखा झल कर रहे थे न मुझे? ज़रा आँख लग गयी थी। कितनी अच्छी लग रही थी वह ठण्डी ठण्डी हवा! सोचा तू ही होगा। एक बार बिच्छू ने काट लिया था मुझे, बचपन में, याद है? मैं रात भर तड़पता रहा। सारा घर सो गया, लेकिन रात भर मेरे पास बैठकर तू पंखा झलता रहा, मेरी फूली उँगली पर बार-बार फूँक मारता रहा।’
भिवा बस हँस दिया और अपनी नम आँखों से मेरी तरफ देखता रहा।
मैंने ही बचपन की अपनी झूठमूठ की शिकायत वाली आवाज़ में पूछा, ‘कहाँ थे तुम इतने दिन? अभी मैंने सुना कि पारवा में न वह अमरूद का बगीचा बचा है और न इधर-उधर खुले में भटकने वाले मोर, और न ही नाली में कल कल बहता पानी।’
‘कहाँ जाऊँगा? जहाँ हमारा नन्हा, वहाँ भिवा!’ भिवा बोला।
मैं अचानक शर्मिन्दा-सा हुआ। उम्र के पाँचवें साल पारवा छूट जाने के बाद भूल ही गया था मैं उसे। एक बार यवतमाल में पाठशाला जा रहा था। रास्ते में अचानक दिखा भिवा। किसी काम से शहर आया होगा। मैं नौ-दस साल का था तब। मुझे देखते ही भिवा ने हाथ की गठरी ज़मीन पर फेंकी और बोला, ‘अरे, मेरा नन्हा!’ मुझे पाठशाला पहुँचने की ज़ल्दी थी। मैंने बिना रुके बस हाथ हिलाया और उसकी तरफ देखकर बिना कुछ कहे आगे बढ़ गया। थोड़ा दूर जाने के बाद महसूस हुआ, कुछ ग़लत हुआ है। रुका और दूर से मुड़कर पीछे देखा। वह ज्यों का त्यों वहीं खड़ा था, मेरी तरफ नज़रें गड़ाये। लेकिन उसकी आँखें ऐसी क्यों लग रही थीं, मानों कलेजे में तीर धँसा हो। फिर भी मैं स्कूल की तरफ दौड़ता हुआ गया और भुला दी उसकी वह नज़र। और अब साठ साल बाद वह दोबारा वैसा ही दिखाई दिया। वही आँखें। मैंने उससे कहा, ‘कुऽछ भी बदलाव नहीं हुआ भिवा तुममें!’ फिर मन ही मन कहा, ‘बीते पचास सालों में दो-तीन बार ऐसी नौबत आयी है भिवा, जब कोई नहीं था मेरे पास मेरा अपना। तुम पास होते तो तुम्हारे खुरदरे हाथों में चेहरा छुपाकर रो लेता। तुमसे कैसी शर्म।’ लेकिन मैंने कुछ नहीं कहा और उठा। मेरे उठते ही भिवा तुरन्त मेरे कपड़े में चिपकी धूल अपने हाथों से साफ़ करने लगा। मुझे हँसी आयी। मैंने अपने आप से कहा, भिवा यानी भिवा है हमारा! फिर ज़ोर से कहा, ‘चलो मोर देखेंगे।’ फिर मैंने मुड़कर देखा, लेकिन वहाँ कोई और ही था। मैंने कहा, ‘यह क्या? भिवा कहाँ गया?’
वह दूसरा व्यक्ति बोला, ‘भिवा? कौन भिवा? मैं द्जामी हूँ न!’
मैंने हँसकर कहा, ‘वाह वाह! तू द्जामी और मैं रैंबो! बढ़िया!’
द्जामी बोला, ‘तुम मोर ढूँढ़ रहे हो। रैंबो सूर्यमण्डल से आँखें भिड़ाये न जाने क्या ढूँढ़ता रहता था? टूटे पैर की हालत में पालकी में डालकर उसे मुझसे दूर किया, तब से उसे ढूँढ़ता हुआ मारा-मारा घूम रहा हूँ मैं।’
मैंने उसकी आँखों में देखा। वे ठेठ भिवा की आँखों की तरह दिखायी दे रही थीं। मैंने कहा, ‘अच्छा अच्छा! चलो, मोर ढूँढ़ेंगे।’
चलते-चलते एक विशाल क़ब्र के पास मुझे मोर जैसा कुछ दिखायी दिया। मैंने वहीं रुककर देखा, लेकिन वहाँ मोर वगैरह कुछ नहीं था। लेकिन वह क़ब्र अपने आप में डूब जाने जैसी लग रही थी। अन्य क़ब्रों की तरह उसमें कलाकारी भी नहीं थी। ग़ज़ब की यानी ग़ज़ब की सादगी भरी थी। भव्य और सादगी भरी। अमीर खाँ साहब का गाना लग रहा था। विशाल खम्भों पर बनी शानदार खाली दालानों वाली क़ब्र। सीने में साँस भर लेने की तरह अवकाश को अपने भीतर समा लेने वाली। विरागी, अलंकार विहीन, संयमी। सप्रयोजन सादा और अलंकार विहीन लगती है यह क़ब्र। क्यों भला? कोई साधु, सन्त-पीर था क्या? लेकिन होता तो यकीनन भीतर की मज़ार पर कोई चादर ओढ़ी हुई नज़र आती। अन्य दो चार सूफ़ी सन्तों के मज़ारों पर देखी है न हरी चादरें अभी-अभी? फिर? राजा या नवाब की भी नहीं होगी। उसका ठाठबाट तो और ज़्यादा होता है। पूछने के लिए मुड़कर देखा तो वहाँ न द्जामी था और न ही भिवा। देखा? अब कहाँ ढूँढ़ें इसे? अभी-अभी मिला और फिर से चकमा दे गया। मैंने उसे पुकारा, सिनेमा जैसा गाना भी गाया, ‘तुम्हें कहाँ ढूँढ़ूँ रे, तुम्हें कहाँ ढूँढ़ूँऽऽ।’ लेकिन हवा के साथ दूर उड़ गया वह गाना। ख़ैर जाने दो, लेकिन कहीं न कहीं तो उसके बीज पड़े होंगे। फिर कुछ दिनों के बाद वे अंकुरित होंगे, उगेंगे, लहलहाएँगे और तुरन्त उसमें लग जाएँगे रसीले गाने ही गाने। कहीं न कहीं होगा भिवा भी और तोड़ लेगा वे गाने। लेकिन दूसरे भी तो तोड़ेंगे न वे गाने। तोड़िए, तोड़िए। चाहे जितने तोड़िए। मुझे एकदम से उदार और सुन्दर लगने लगा। मुझे ज़िन्दगी में पहली बार मोर दिखाया था भिवा ने। उसके पंख लाकर दिये थे। काफ़ी दिन तक थे वे मेरे पास। फिर खो गये। उसकी याद आये तो ‘मनमोऽऽर किसने जादू डाला मनमोऽऽर’, सुरैया की तरह गाने की इच्छा होती। कैसी स्त्री थी न वह! कैसी आवाज़ थी न उसकी? हमेशा गहने वगैरह पहनकर तारारीऽरारारी रारारी। बिल्कुल क्रिसमस ट्री। लेकिन गहने खिल उठते थे उसकी देह पर। और निवृत्त हो गयी अचानक। अदृश्य हो गयी शान से। अचानक पर्दा गिर गया। एकदम परदानशीं। पीछे बस केवड़े की खुशबू। सब कुछ चुटकी बजाते ही एक पल में छोड़ देना मतलब... बहुत धैर्य, बहुत आत्मविश्वास होगा बाबा उसमें।
‘ऐसी कोई बात नहीं जी!’ फिर से किसी ने कहा। लेकिन इस बार मैं दहल गया। यक़ीनन यह वहम नहीं था। कहीं न कहीं मैंने बिल्कुल सच्ची-सच्ची की आवाज़ सुनी थी! मैं हड़बड़ाकर इधर-उधर देखने लगा। उस मौन भव्य क़ब्र के इर्दगिर्द सूखी घास खड़ी थी और वहीं से आयी थी वह आवाज़। मैं थोड़ा आगे बढ़ रहा था, तभी देखा कि एक स्त्री उस घास से चलती हुई मेरी तरफ आ रही है। मँझोली उम्र, नौ गजी साड़ी, खानदानी। मुझे देखकर अपने दाहिने कन्धे पर पल्लू ओढ़ लिया उसने और बोली, ‘काफी शाम हो गयी है अब। आप जैसों को बहुत देर रुकना नहीं चाहिए यहाँ। दियाबत्ती की बेला तक अपने-अपने घर में होना चाहिए हमें।’
मैंने देखा, शाम सचमुच ढलने लगी थी। धूप फीकी हो गयी थी और क़ब्रों की छायाएँ रात के अंधेरे में विसर्जन के लिए स्तब्धता से प्रतीक्षा कर रही थीं। वह स्त्री बोली, ‘वो क्या गाना गाया था अभी आपने, मोर का? बहुत अच्छा था, देवरजी। लेकिन सिनेमा का लगा। मैंने कभी नहीं सुने ऐसे गाने।’
पास की जगह तनिक साफ़ कर वह खम्भे से टिककर खड़ी हुई और बोली, ‘अब समझ गये न आप कि सब कुछ छोड़ देने के लिए कितने धैर्य और आत्मविश्वास की ज़रूरत होती है? लेकिन हमेशा ऐसा ही नहीं होता। कई बार आपसे छीना भी जाता है सब कुछ। कभी लोग छीन लेते हैं, तो कभी किस्मत।’ फिर थोड़ा रुककर वह बोली, ‘गानों की बुआई करने की इच्छा होना, अच्छी बात है। लेकिन वे उगने चाहिए। उग जाए तो टिकने चाहिए। मेरे उगे भी और नष्ट भी हो गये। अब उनका नामोनिशान नहीं रहा। मैं घूम-घूमकर ढूँढ़ती रहती हूँ उन्हें। ठीक वैसे जैसे अभी आप भिवा को ढूँढ़ रहे थे।’
वह काफ़ी देर तक स्तब्ध रही। मैं चुप। आहिस्ता से यहाँ से चले जाएँ या रुकें, मैं असमंजस में था। उस स्त्री ने मुझे ‘देवरजी’ क्यों कहा? मेरी परिचित भी नहीं थी वह, लेकिन पुरानी परिचित होने जैसी क्यों लग रही थी मुझे? उसकी जैसी सहनशील आँखें पहले भी कहीं मैंने देखी थीं।
‘बताती हूँ।’ नज़रें ऊपर उठाती हुई वह बोली। वे आँखें खामोश लेकिन स्थिर (धीरगम्भीर) थीं। मन को मारकर जी रही एक तपस्विनी गृहस्थ स्त्री की आँखें थीं वे। फिर क्षितिज की तरफ नज़रें मोड़कर अपने आप से बात करने की तरह वह बोली,
‘बचपन से ही मुझ पर गाने का भूत सवार था। पिताजी गायन मास्टर थे। पहले उन्होंने सिखाया। फिर बोले, बेटा मेरे पास का गाना खत्म हो गया। फिर उन्होंने मुझे एक प्रतिष्ठित गायिका के पास सीखने के लिए भेज दिया। वहाँ न जाने कितने सालों तक वह खानदानी गाना मेरे कण्ठ में बसा रहा था। अन्य औरतें गले में गहने पहनती हैं न, वैसे मैं गाना। यह राग, वह राग।’ पल भर के लिए वह रुकी और बोली, ‘फिर शादी हो गयी मेरी। पति का कोयले का टाल था। पहली ही रात में कमरे में तानपुरा देखकर पतिराज बोले, ‘इस घर में रहना है तो तानपुरा या मैं, दोनों में से किसी एक को चुन लो!’ मैंने तानपुरे पर गिलाफ चढ़ाया और जोत दिया खुद को पकाने, परोसने, जूठा-करकट साफ़ करने काम में। फिर भी शान्ति नहीं थी घर में। बच्चा जो नहीं था। सभी ने मानो बहिष्कार कर दिया मेरा। एक बार एक स्वामीजी पधारे थे गाँव में। इन्होंने उनके चरणों पर डाल दिया मुझे। ‘कृपा करें महाराज!, स्वामीजी ने मेरी तरफ़ देखा भी नहीं। इतना ही बोले, अजी, इन्हें गाने दीजिए। कृपा हो जाएगी।’ घर आकर बारह सालों बाद तानपुरा निकाला गिलाफ़ से। नौ ही महीनों में पलना चलने लगा घर में।’ फिर कुछ देर रुककर उसने स्थिरता से मेरी तरफ देखा। ‘मेरा गाना और मेरा बच्चा साथ-साथ बड़े हो रहे थे। एक दिन वह तैरने के लिए गया और लौटा ही नहीं। कौन-सा वर्ज्य स्वर लगाया था मैंने गाते समय!’
उसकी बातें सुनकर मैं दहल गया। उसकी तरफ देखने के लिए धीरज जुटाना पड़ा। लेकिन वह प्रसन्नता से हँसती हुई बोली, ‘इसीलिए मैंने कहा कि हमारे तय करने से कुछ नहीं होता।’
‘लेकिन क्या आपने गाना छोड़ दिया उसके बाद?’
‘ज़िन्दा थी तब छोड़ दिया। लेकिन अब मृत्यु के बाद एक ही राग गा सकती हूँ, अखण्ड।’
क्या कहें इस स्त्री को? साहसी? संयमी? समझदार? मुझे उस स्त्री का देवरजी कहकर पुकारना याद आया और अचानक मैं होश में आया। उस स्त्री की आँखें बिल्कुल मेरी भाभी की आँखों जैसी थीं। आवाज़ भी कोमल, साफ़ और दृढ़। भाभी जैसी। और गज़ब की गम्भीरता और शान्ति। आतंकित करने वाली शान्ति। उस शान्ति के सामने मुझे अपना बौनापन महसूस होने लगा। जैसे ही मुझे भाभी की याद आती है, मुझे महसूस हो ही जाता है ये बौनापन। कितना अन्याय हुआ उन पर हम सबके स्वभाव के कारण। कितनी बातें छोड़ दीं उन्होंने अपना मन मारकर? पढ़ने का कितना चाव था आपको तड़के पाँच बजे से रात के ग्यारह बजे तक पैरों में गिरगिरी बँधी होने की तरह पूरे बाड़े में घूमकर सारा रामरगाड़ा उलीचती थीं। काहे की पुस्तक और काहे की क़िताब? एक बार आपका पैर जल गया। आपने बिस्तर पकड़ लिया। आपने हँसकर मेरे कानों में कहा, ‘अब महीना दो महीना खूब पढूँगी।’ मैंने भी तत्परता से आपको कोई क़िताब लाकर दी। पैरों का जख़्म भूलकर आप खो गयीं उस पुस्तक में। बूढ़ी बुआ ने नाराज़गी से कानाफूसी शुरू की, लेकिन आपको सुनायी नहीं दी। ‘घर में इतने सारे बड़े लोग और बहू खटिया तोड़ती हुई क़िताब पढ़ रही है!’ वह कानाफूसी सुनकर माई हड़बड़ाई। तभी क्रुद्ध हो भाई भीतर आया और आपके हाथ से पुस्तक छीनता हुआ बोला, ‘बहुत हो गया पढ़ना, विदुषी!’ बुआ का गुस्सा वह आप पर क्यों उतार रहा था? और मैं क्यों खड़ा नहीं हुआ उस समय आपके पक्ष में? लेकिन आपने शान्ति से क़िताब बन्द कर नीचे रख दी। पूरी ज़िन्दगी में दोबारा कभी नहीं खोली! आपके जाने के बाद आपका भाई बता रहा था, ‘दीदी बहुत तेज़ थी पढ़ाई में। हमेशा अव्वल आती थी। सावरकरजी का ‘कमला’ पूरा कण्ठस्थ था उसे। उसके निबन्ध पूरी पाठशाला में पढ़कर सुनाये जाते थे।’ यह सुनते समय महसूस हो रहा था, मानो हर वाक्य के साथ कोई हमारे गाल पर थप्पड़ जड़ रहा है। डॉक्टर ने कहा कि आपके हृदय का ऑपरेशन करना पड़ेगा, लेकिन तब भी आपका चेहरा इसी तरह शान्त, स्थिर। डॉक्टर ने मुझे खूब डाँटा, ‘क्या कर रहे थे इतने दिन? शी इज कम्पलीटली वॉर्नआउट, फिजिकली एंड मेंटली। शी मे नॉट सरवाइव दिस।’ वे शब्द कड़कड़ाते हुए टूट पड़े मन पर और लगा ये क्या कर डाला हमने इस महान स्त्री का। चली ही गयीं फिर आप। यह सब याद कर मैं एकदम से नीचे बैठ गया। इर्दगिर्द घना अंधेरा होने के बावजूद शर्म से दोनों हाथों में चेहरा छुपा लिया।
‘बहुत हुआ। चलिए, अब भोजन कर लीजिए। मेरा भी होना है अभी।’ भाभीजी बोलीं। मुझे साफ़-साफ़ सुनायी दिया था न! इतनी-सी बात से नाराज़ होकर मैं बिना भोजन के कसमसाता लेटा रहता था। सारे घर का भोजन होने के बाद निश्चिन्त होकर भाभी दोपहर में मेरे पास आकर मुझे मनाती थीं। मैं भी झट् से उठता और रसोईघर में दोनों भोजन करते। ऐसा उबाल आता मन में खुशी का कि कुछ पूछिए मत। बिल्कुल खटाल ज्वार!
उसी खुशी की गन्ध आयी थी न अब? रात घनी हो गयी थी और हवा प्रौढ़ता से बह रही थी। और यक़ीनन उसमें भी थी एक गन्ध। वह खुशबू मन को चिताने वाली, गात्रों को दीप्त करने वाली नहीं थी बल्कि मालती की फुलवारी से आने वाली शालीन, सुशील और मर्यादाशील थी। कहाँ से आती है ये हवा? ठण्डक भी कितनी बढ़ गयी है अचानक? उस पार सिन्धु नदी है न कुछ मील दूरी पर, वहीं से आती होगी ये सदियों की संस्कृति की, इतिहास की महक। पाँच सदियों की क़ब्रें हैं यहाँ। उनमें सोते हुए को लोरी सुनाने के लिए ही मानो आयी है शीतल, खुशबूदार हवा। धीमी-धीमी हवा चली, हवा चली, चली-चली-चली। और ऊपर चाँदनी से लबालब भरा आसमान। और चन्द्रकला एक बड़ी क़ब्र की मीनार पर झुकी हुई। साँस ही रुक गयी देखिए। या अल्लाह! ये कैसी तेरी मेहरबानी! सहसा मन किया कि घुटने टेककर नमाज़ पढ़ें। या ख़ुदा, कितने बन्दों को तुमने मुआफ़ किया, मेरे अपराध मुआफ़ किये। ऊपर से यह कितना बड़ा आनन्द मेरे दिल में भर दिया, भगवन्! कितना उल्लास!
इर्द-गिर्द की सैकड़ों क़ब्रों की सोती हुई आत्माओं को भी तो मिला होगा न यह आनन्दोल्लास? क्यों न इन्हीं के बीच रह जाएँ। मैं खोजने लगा कोई खुली, खाली जगह क़ब्र के लिए। मिस्टर ग्रेवडिगर फ्रॉम हैम्लेट, कहाँ हैं आप? स्टेज पर जाकर यूँ ही फ़िलॉसॅफ़िकल भाषण देकर तालियाँ पिटवाने का काम मत कीजिए। मुझे दीजिए कोई क़ब्र खोदकर। फिर मैं आराम से लेट जाऊँगा उसके भीतर। आराऽम! हैल रे गबरू! कैसा बढ़िया लगता होगा, नहीं! भीतर हम अपने ही हाथ का तकिया बनाकर आराम से लेटे हैं और ऊपर खचाखच भरी चाँदनी, कभी ख़त्म न होने वाली रात। वाह! वाह! ये हवा ये रात ये चाँदनी-चाँदनी-चाँदनी। अरे, मैं तो गाने लगा क़ब्रगाह में घूमते-घूमते। हमारे बारे में कभी कोई पूछेगा न कि आजकल कहाँ होते हो, दिखायी नहीं दिये कई दिनों से, तो ‘पाकीज़ा’ के क़ब्रिस्थान से उठकर मीनाकुमारी भारी आवाज़ में उनसे कहेगी, ‘आजकल उन्होंने क़ब्रस्तान को मकाँ बनाया हुआ है।’ मुझे यह उत्तर बहुत दर्दभरा और इम्प्रेसिव लग रहा था। तभी किसी ने धप्प से धौल जमाई मेरी पीठ पर। मैंने चौंककर देखा तो मीनाकुमारी। मैंने कहा, ‘अरी, ये क्या महाजबीन! मैं डर गया न।’ उसने बिना इस बात की परवाह किये कि उसके पान से रंगे दाँत दिख रहे हैं, बढ़िया-सी हँस दी। मैं भी हँस दिया। फिर हाथों में हाथ डाले उस क़ब्रिस्तान में मजे में हम घूमने लगे। मैंने कहा, ‘गाएँ क्या हम वह ‘कितना हँसी है मौसम, कितना हँसी सफ़र है?’ इस पर नाक सिकोड़ती हुई वह बोली, ‘नहीं, दिलिपिया का गाना नहीं चाहिए। शूटिंग के वक़्त सत्रह बार थप्पड़ मारा था ज़ालिम ने।’ हाऊ मीन न! बिल्कुल कॅड यानी कॅड यानी लो लेवल का। ग़ज़ब। उस गाने से मन निकालकर सोच ही रहा था कि क्या गाएँ, तभी माहजबीन बोली,
‘इससे अच्छा वन्दे मातरम गाओ।’
‘बड़ी चालाक हो!’ मैंने कहा, ‘यहाँ पाकिस्तान में?’
वह बढ़िया सी हँस दी।
‘गिरफ़्तार कर लेंगे न!’ मैंने आगे कहा, ‘ज़िन्दा गाड़ देंगे मुझे।’
‘पागल हो तुम। यहाँ नहीं होता हिन्दुस्तान-पाकिस्तान का कुछ। गाओ।’
इस पर मैंने बस ‘ना बाबा’ कहा। उसने मुझ पर चुटकी वारी और मेरी तरफ देखकर बोली, ‘कायर! बुझदिल! आया बड़ा क़ब्र में छलाँग लगाने वाला! क्या कहता था,
‘आई लव्ह्ड ऑफ़ेलिया
फॉट्टी थाउजे़न्ड ब्रदर्स कुड नॉट
विद ऑल देअर क्वांटिटी ऑफ़ लव
मेकअप माय सन।’
मैंने घबराकर देखा और कहा, ‘अरे ऑफ़ेलिया? माहजबीन कहाँ गयी फिर?’
‘ननरी, ननरी,’ ऑफ़ेलिया बोली। पानी से निथर रही थी वह। उसका सफ़ेद डायफ़ेनस गाउन उसकी देह से जगह-जगह चिपका हुआ था और उसके बालों से पानी निथर रहा था।
उसने ‘आओ मेरे पास’ कहा और तरबतर मुझे आग़ोश में भर लिया। मेरी देह भी ठण्डे पानी से भीग गयी और ठहरे हुए पानी की काई और हायसिंथ की तेज़ बदबू आयी। बाड़ी की बावड़ी में तैरने के लिए जाता था बचपन में। रामचन्द्र सुतार का भाई भानु चार-एक साल बड़ा, वह भी आता था मेरे साथ। एक बार इसी तरह तैरने के बाद बावड़ी के पास झोपड़ी में मैं अपनी देह सुखा रहा था। तभी भानुदास निथरता हुआ वहाँ आया। उसकी आँखें खून उतर आने की तरह लाल हो गयी थीं। उसने गीले बदन मुझ पर झपट्टा मारा और मुझे आग़ोश में कस लिया। छोड़ने के लिए राजी ही नहीं था। उस वक़्त भी इसी तरह ठहरे हुए पानी की काई की बदबू महसूस हुई थी मुझे। मैंने मुड़कर ऑफ़ेलिया से कहा,
‘तुम केवड़े का इत्र क्यों नहीं लगाती? सुरैया के चले जाने के बाद भी उसकी महक महकती रहती थी। अरी, उसका नाम भी लेता तो भी आ जाती थी वह खुशबू!’ और उसके हाथ के कंगनों की आवाज़ें।
कुल मिलाकर कान में कैसे-कैसे नाद, कैसे-कैसे गन्ध सोते रहते हैं। एक-एक प्रसंग से एक-एक उफनकर आते हैं। लेकिन इस वक़्त जो आ रही थी, वह खुशबू मेरे लिए बिल्कुल भी परिचित नहीं थी। ऐसी अनोखी थी कि पहचानी भी नहीं जा रही थी। क्या ताज़बाबा के मज़ार के गुलाबों के हारों के अम्बार की है ये गन्ध? या पड़ोसी वैद्यजी के फ़ाटक पर जूही की है, जिसके नीचे रोज़ सुबह माणिक फूल तोड़ा करती थी? या महादेव के मन्दिर के पीछे निर्माल्य के ढेर की है? महालक्ष्मियों की मूर्तियों के पूजन के फूलों की सजावट की महक तो नहीं? या विवाह के पण्डाल में गिरगिरी-सी घूम रही पुष्पी, जिसने मेरे पास आकर मेरे गाल पर यूँ ही चोटी से हल्का-सा आघात किया था, कहीं उसमें गूँथे मोगरे के गज़रे की तो नहीं? दादा जब सन्दूक खोलते थे, तब भीतर की कस्तूरी फन फैलाए-सी आक्रामकता के साथ खुशबू की फूत्कार फेंकती थी, कहीं वही तो नहीं? लेकिन कहाँ, किसी भी महकते माहौल से इस खुशबू का रिश्ता नहीं जुड़ रहा। किसी के गुज़र जाने के बाद कमरे में अगरबत्तियों की गड्डी जलाकर रखते हैं, कहीं वो तो नहीं ये गन्ध? लेकिन नहीं, कुछ अलग ही है यह खुशबू। कम से कम इस दुनिया में मैंने कभी भी महसूस नहीं किया इसे इससे पहले।
मैंने बिल्कुल डिटेक्टिव की तरह आसपास देखा और अचानक चौंक गया। माना कि डिटेक्टिव चौंकते नहीं हैं, लेकिन मुझे दिखायी दिया; छोटी-बड़ी सभी क़ब्रों से हरी-भरी लताएँ उगी हैं और सरसराती हुई आसमान में चली गयी हैं। इतनी ऊँची कि उनकी फुनगियाँ दिखायी भी नहीं दे रही थीं। उन सभी लताओं में जगह-जगह लाल-लाल चेरी जैसे फलों के घौद लगे हुए हैं। मुझे अचानक भूख लग गयी। कराची में सुबह थोड़ा नाश्ता किया था, उसके बाद पेट में कुछ नहीं गया था। खाएँ वे फल? निमन्त्रण ही दे रहे थे वे भूखे आदमी को! अस्सू, मैं और तानी हाथ भर जबान बाहर निकालकर एक दूसरे को दिखाते थे कि जामुन खाकर जबान ज़्यादा जामुनी हो गयी है। एक बार तो, ‘तुम्हारे जामुन ज़्यादा जामुनी है मेरे जामुन से’ कहा और तानी के मुँह से जामुन छीनकर न जाने कितनी देर मैं उसे चुभलाता रहा। ये चेरी भी ऐसी ही होंगी। मैंने उन फलों की ओर हाथ बढ़ाया ही था कि अचानक किसी ने टोका, ‘नहीं जी, वे जग जाएँगे।’ मैंने झट् से हाथ पीछे खींच लिया, बिजली का करण्ट लग जाने जैसे। चलो भाई वापिस। हमेशा कोई न कोई मिलता ही रहा है यहाँ। मैं अपने आप से बुदबुदाता हुआ पीछे मुड़ा, लेकिन दिशा ही समझ में नहीं आ रही थी। कहाँ से भीतर आया था और कहाँ से बाहर जाना है? आधी रात का अँधेरा। लो अब! तभी देखा कि उस पार खुली जगह पर सूखी पत्तियों का ढेर गलीचे की तरह फैला हुआ है और उस गलीचे के बीचोबीच पीतल का नक़्क़ाशीदार पलंग है, जिसकी सफ़ेद रेशमी शैया पर एक गज़ब की सुन्दरी शृँगार करती हुई बैठी है। मेरे तो होश ही उड़ गए! हाँ! लेकिन परिचित लग रही थी वह कुछ-कुछ। अच्छा, कहाँ देखा था उसे? रान्देव्हू या कफ़परेड में शोभा डे के घर की पार्टी में? उसी वर्ग की लग रही थी। देखता ही रहा, देखता रहा और अचानक बोल उठा, ‘अरे, ये तो मन्दाकिनी है! वाह वाह। बहुत बढ़िया। तभी तो।’ मैंने आगे बढ़कर हँसते-हँसते कहा, ‘क्यों री! डरा ही दिया था तूने तो मुझे!’ और मैं पलंग के किनारे बैठ गया। हाथ में पकड़े चाँदी के आईने में देखकर लिपस्टिक लगाते-लगाते मन्दी बोली, ‘बस बस। सोचा, पहचानेगा भी या नहीं!’
‘अरे वाह! तुम्हें कैसे भूलूँगा?’ मैंने कहा।
‘क्या भरोसा!’ मन्दाकिनी बोली। फिर कानों में हीरे की बालियाँ लटकाती हुई बोली, ‘अब ज़रा अलग लग रही हूँ न! इसलिए सोचा।’
‘कुछ भी। तुम्हारी हल्की-हल्की-सी मुस्कान बिल्कुल पहले जैसी ही है तुम्हारे चेहरे पर!’
असल में वह अलग दिख रही थी। मन्दाकिनी भैंगी थी और इसकी आँखें तो विशाल, निर्दोष, सुन्दर और निपट काली हैं। और आँखों के सफ़ेद कोने में गुलाबी छटा। पिघल रही थी उसकी आँखें बिल्कुल।
‘हाँ।’ उँगलियों से बालों को घुँघराले बनाती और उन्हें माथे पर लाती हुई वह बोली, ‘हल्की मुस्कान! लेकिन मेरी आँखें?’
‘तू तो तू ही रहेगी न। ऐसे थोड़ी बदल जाते हैं अपने लोग!’
मन्दाकिनी ने लम्बी साँस छोड़ी और उँगलियों के नाखून निहारती हुई बोली, ‘उस समय करता कभी इस तरह बात तो?’
मेरी कनपटी गरमाने लगी उसकी बातें सुनकर। ऐसा शर्मिन्दा हुआ कि चूर-चूर होकर क़ब्रों के नीचे वितल सुतल पाताल के भी नीचे चले जाएँ, हमेशा के लिए।
मन्दाकिनी हँसती हुई आगे बोली, ‘मैं तुम्हें जो दिखायी दे रही हूँ, वह तुम्हारे मन की मन्दाकिनी नहीं है। वह मेरे मन की है। कैसी लगती हूँ, बताओ।’
वह ऐसी थी कि वर्णन करने के लिए शब्द बौने पड़ जाते। बाप रे, क्या यही है वह? उसके भैंगेपन का उसकी पीठ पीछे कितना मज़ाक़ उड़ाता था मैं। कभी-कभी तो उसे सुनायी दे, ऐसे अन्दाज में भी। ‘उत्तर-दक्षिण पूर्व-पश्चिम, आँखें मेरी रिमझिम रिमझिम।’ इस तरह ज़ोर से गाकर भी। लेकिन ये? चेहरे पर हमेशा धीमी मुस्कान। वाह।
एक बार पाठशाला में इसी तरह उसे चिढ़ा रहा था। तभी वहाँ से वर्गणे मास्साब गुज़र रहे थे, जो बच्चों को पीटने के मामले में खबीस ही थे। उन्होंने सुना। वे मेरी गर्दन पकड़कर खींचते हुए स्टाफ़रूम ले गये और सामने खड़ा कर बोले, ‘वो अपने माँ-बाप के कलेजे का टुकड़ा है। जब उन्हें पता चलेगा कि तुम इस तरह उसका मज़ाक उड़ाते हो, सोचो कैसा लगेगा उन्हें? व्हाई डू यू हिट पीपल वेयर दे आर मोस्ट वल्नरेबल?’ मैंने ऊपर देखा, उनकी आँखों में आँसू थे। मैं इस तरह स्याह पड़ गया कि लीथ नदी में कई बार डुबकियाँ लगाने के बावजूद भी यह सब न भूल सकूँ। या गंगा में डुबकियाँ लगाकर भी मेरे पाप नहीं धुलेंगे सौ जन्मों तक। वर्गणे मास्साब की आँखों का पानी था ही ऐसा पावरफुल। ऐसी शर्म महसूस हुई कि इस चेहरे को अब किसी लावारिस मुफ़लिस क़ब्र में छिपाना होगा। अब दुबारा जागृति हुई। हीरों का हार पहनी मन्दाकिनी खुद को व्यग्रता से निहार रही थी। क्या इसे याद होगा वो सब कुछ? मुझे साफ़-साफ़ महसूस हुआ कि ‘सी यांडर माय डिस्पेयर’ कहकर उसने मेरा सिर काटकर हेब्रस नदी में फेंक दिया है।
‘मैं जानती थी कि तुम मुझे क्या कहते हो। क्या मैं इतनी बेवकूफ़ थी कि यह तक न जान पाती? तुम ही नहीं, तुम्हारी देखा देखी अन्य लड़के भी मुझे न जाने क्या-क्या कहकर चिढ़ाते थे। तुम लोगों को लगता था, मैं भैंगी हूँ इसलिए सारी दुनिया मुझे वैसी ही दिखायी देती होगी, यानी उत्तर-दक्षिण?’ वह हँसी और आगे बोली, ‘लेकिन एक बात आप लोग कभी समझ नहीं पाये कि मेरा भैंगापन मेरा एसेट बन गया था। इसी कारण मुझे दुनिया अलग, ज़्यादा सही और ज़्यादा सच्ची दिखायी देती थी। जो तुम नहीं देख पाते थे, मुझे वह सही-सही दिखायी देता था। असल बात, तुम सभी असल में क्या हो, मुझसे कितने छोटे हो, सब दिखता था मुझे। हालाँकि मैंने कभी किसी को बताया नहीं। ज़रूरत भी क्या थी? लेकिन एक भैंगे व्यक्ति की बात को कौन सच मानता? दूसरी बात, मैं अपनी वनअपमेनशिप क्यों छोड़ दूँ? मुझे तुमसे ज़्यादा असलियत पता चली है, यह सोचकर मुझे कितना स्ट्रांग, कितना कॉन्फिडेण्ट लगता, क्या बताऊँ? आप लोगों की मूर्खता पर हँसी आती थी मुझे। वह दिखता था मेरे चेहरे पर, जिसे तुमने अभी ‘हमेशा की हल्की-सी मुस्कान’ कहा।’
मन्दाकिनी ने अपने बाल खुले छोड़ दिये। वे धूप के धुएँ से महक रहे थे। उस महक को सीने में भरते समय अचानक मुझे ख़याल आया कि मुझे उसके प्रति बेतहाशा आकर्षण हो रहा था। जागृतावस्था में उसका मज़ाक उड़ाकर मैं हमेशा उसे ठुकराता आया हूँ, लेकिन वह हमेशा मेरे सपनों में आकर मेरी रातें तृप्त कर जाती थी। जाग जाने पर मुझे आश्चर्य होता कि कैसे आती है यह मेरे सपने में? कुबूल ही नहीं करता था न मैं कभी कि पसन्द है वह, चाहे भैंगी हो। कुछ तो है उसमें जो दूसरी लड़कियों में नहीं है। लेकिन उसके साथ काई की गन्ध कैसे आती है सपने में भी?
मन्दाकिनी ओठों ही ओठों में मुस्कुराती हुई मेरी तरफ देख रही थी। फिर अचानक पास आकर उसने मुझपर अपना केशपाश फैला दिया। मुझ पर तो नशा ही छा गया किसी जहरीले नाग से काटे जाने का। उसमें से जैसे-तैसे अपना चेहरा बाहर निकाल मैं ‘प्राणवायु-प्राणवायु’ चिल्लाने लगा। वह बहुत यानी बहुत हँसी। इतना हँसी कि वह हँसी उससे से रोकी नहीं जा रही थी। आखिरकार उसने मुझसे पूछा, ‘अब बताओ, जिसने तुम्हें बालों में ढँका, वह मन्दाकिनी तुम्हारे मन की थी या मेरे मन की?’ लेकिन मुझे लगा, अभी भी उसी को मुझसे ज़्यादा पता है। और न चाहते हुए भी मैं ज़रा नर्वस हो गया।
उसने हाथों से बाल पकड़े और उँगलियों की विलक्षण सम्मोहक हलचलों से उनका जूड़ा बाँध दिया।
अभी-अभी रोका था न मैंने तुम्हें, वो लाल फल तोड़ने के लिए! अरे, वो लाल-लाल फल लगी सारी लताएँ क़ब्रों में सोते मनुष्यों की बन्द आँखों के सपनों से निकली हैं। स्वप्नलताएँ कहते हैं उन्हें, और ये स्वप्नफल। उन्हें खाने का अधिकार तुम्हें नहीं है मित्र! उन लोगों की कभी न टूटने वाली बिल्कुल अखण्ड नींद, और इसी तरह कभी खत्म न होने वाले सपने आते हैं। ये लताएँ बढ़ते-बढ़ते आसमान में ग़ायब हो जाती हैं। उन फलों के बीज यहीं गिरते हैं ज़मीन पर। कुछ को ले जाती है हवा पराई भूमि पर बहाकर। कभी-कभी तो ये बीज ज़िन्दा मनुष्य के मन में भी गिर जाते हैं।’
यह सुनकर कि बन्द आँखों से सपनों की लताएँ निकलती हैं, मुझे माई की याद हो आयी। एक शाम जब वह चली गयी, भाभीजी ने अपनी हथेली से हौले से उसकी आँखें ढँकनी चाही, लेकिन आखिरकार उसने हमेशा के लिए आँखें मूँद लीं। लेकिन दूसरे दिन, उसकी अरथी उठाते समय देखा, उसकी आँखें खुली थीं। और उनमें ज़िन्दा, असहाय दुःख जम जाने जैसा लग रहा था। वे आँखें अब हमारी तरफ नहीं देख रही थीं। उनका हमसे, हमारे परिवेश से कोई रिश्ता नहीं बचा था। वे आँखें सीधे आकाश में नज़रें गड़ाए, कहीं भी सिर टिकाने के लिए जगह न होने के कारण ‘क्यों भला?’ बस यही एक प्रश्न पूछती-सी नज़र आ रही थीं। ज़िन्दगी भर उसने जो खुद्दारी नहीं दिखायी थी, मृत्यु के बाद वह इस तरह दगा देकर उसकी आँखों में आ बैठी? उसकी आँखें खुली थीं, यानी वह चिरनिद्रा भी उसे नसीब नहीं हुई और वे सपने भी। उसकी आँखें किसी बेवजह सजा पाए बेकसूर बच्चे की आँखों जैसी क्यों दिख रही थीं? हमें भी बताया न जाए, ऐसा कौन-सा दुःख था उनमें? हम बौने पड़ गये, शायद कुपुत्र बन गये। इतनी सारी कमाई के साथ जियो अब खुशी से! अब इस जीवन में इससे बड़ा अपराध हमारे हाथों नहीं होगा। अब दूसरा दुःख देखना ही न पड़े। इससे भी बडा दुःख यह था कि हम माँ का दुःख कभी समझ ही नहीं पाए। बढ़िया। अच्छा ही लगा मुझे। एकदम से मुक्त होने जैसा। अब चाहे जो हो, चाहे जो विपरीत, दुखदायी कुछ भी। नथिंग कैन बी एज़ बैड एज़ दिस। व्हाट रिलीफ़, मॅन!
इस नयी आज़ादी से उल्लसित होकर मैंने अपने आप को सम्भाला और मन्दाकिनी की तरफ देखा। उसका श्रृंगार खत्म हो गया था और वह मलमल के तकिए पर कोहनियों के बल क्लियोपैट्रा स्टाइल में लेटी थी। किसी महारानी की ठसक में बोली, ‘जब एक बार मालूम हो गया कि किसी के मर्म पर प्रहार करने वाले लोग अत्यन्त दुर्बल होते हैं, फिर हमारी दुर्बलता ही ताक़त बन जाती है। यही कहती हूँ मैं हमेशा इन दोनों से।’
मैंने देखा, उसके पलंग के पास ज़मीन पर दो अद्भुत सुन्दर युवक बैठे थे, छोटे बच्चों जैसे आज्ञाकारी। एक ने अपने दाहिने पैर की एड़ी हथेली से ढँक रखी थी और दूसरे ने अपनी पुष्ट जंघाओं पर उत्तरीय डाल रखा था। मैंने पहचाना। एकिलिस और दुर्योधन। फिर कुछ बोलना चाहिए इसलिए मैंने भोलेपन से (मैं पहले से ही टैक्टलेस हूँ) कहा, ‘दुर्योधन हैं न आप? बिना मुकुट के पहचान ही नहीं पाया मैं आपको।’
‘उस चोपड़ा का सीरियल देखकर आप लोग न जाने क्या-क्या धारणा बना लेते हैं हमारे बारे में!’’ परेशान होकर दुर्योधन बोला। ‘उठते-बैठते कोई पहनेगा ऐसा किलो भर सोने का मुकुट? भीम ने मस्तक पर लात मारी, तभी उड़ गया होगा वह कहीं।’
‘मेरा कवच कहाँ रखा है, बस ये मत पूछो अब।’ एकिलिस बोला।
‘इसकी एड़ी कमज़ोर, इसकी जंघा कमज़ोर, सभी यही कहते हैं।’ मन्दाकिनी इतिहास अनुसन्धाता, साइकाट्रिस्ट और दार्शनिक, तीनों भूमिकाएँ आत्मविश्वास के साथ निभाती हुई बात करने लगी, ‘लेकिन दरअसल ऐसा नहीं है। ये कमज़ोर बन गये कहो, या इनकी माँओं ने इन्हें कमज़ोर बनाया कहो। अकिलिस की माँ समुद्र कन्या थी। इसकी एड़ी कमज़ोर रह गयी उसके कारण। दुर्योधन के बारे में तो जानते ही हो तुम। लेकिन गान्धारी भी क्या करती? जब यह पता चला कि उसका होने वाला पति अन्धा है, उसके साथ धोखा हुआ है, उसके भीतर कुछ जल गया हमेशा के लिए। उस राख भरी कोख से इसका और इसके भाइयों का जन्म हुआ। लेकिन कम से कम एक बार उनकी तरफ देखने के लिए आँखों की पट्टी हटाई जाए, इतना भी हरापन गान्धारी के मन में नहीं बचा था। और जब देखा, तब तक देर हो चुकी थी!’
‘ऐसा ही नहीं है। थेटीस ने दो बार कवच दिया एकिलिस को। मेरी माँ न्यायप्रिय थी, लेकिन जब मेरा ही आचरण ग़लत था, तो वह भी क्या करती!’ दुर्योधन बोला।
‘मुझे तो कभी-कभी लगता है,’ एकिलिस बोला, ‘युलिसिस खेती में नमक की बुआई बन्द नहीं करता तो मैं युद्ध में नहीं खींचा जाता।’
‘युद्ध हमारी नियति थी, कर्तव्य था और धर्म भी। इस हो-हल्ले में कितनी ही स्त्रियाँ हमारी ज़िन्दगी में आयीं-गयीं, लेकिन हमारी माँओं की जगह वे कभी नहीं ले सकीं। तुम्हारी माँ तो हमेशा समुद्र तल में ही रही। और मुझे लगता था, कम से कम एक बार ही सही, मैं अपनी माँ की आँखें देखूँ। उसने पट्टी उतारकर देखा भी एक बार मेरी तरफ, लेकिन तभी मैंने ही शर्म से आँखें मूँद लीं। हमारी आँखों की मुलाक़ात कभी हुई ही नहीं!’
एकिलिस झल्लाकर बोला, ‘और कर्ण! क्या वह नहीं था हमारे जैसा?’
दुर्योधन की आँखें अचानक नम हुईं। बिल्कुल भीगे हुए सुर में बोला, ‘इसीलिए तो इतने प्राणप्रिय मित्र बन गये थे हम!’
एकिलिस खिन्न हुआ। उदास होकर बोला, ‘हम रणभूमि में अकेले-अकेले लड़-कटकर मर गए। हमारे आसपास हमारा अपना कोई नहीं था। कितना विलाप किया होगा हमारी माँओं ने, जब उन्हें यह पता चला होगा!’
‘क्या पता!’ दुर्योधन बोला, ‘भीम ने धोखे से मेरी जंघाएँ तोड़ दीं, लेकिन तब भी मैं धर्म के अनुसार ही लड़ा, इसकी मुझे खुशी थी। मैं समझ रहा था कि मेरी एक-दो ही घड़ियाँ बची हैं। इर्दगिर्द पाण्डव घेरा बनाकर खड़े थे, मेरी मौत की प्रतीक्षा में। ऊपर गिद्ध मँडराने लगे थे। मेरी आँखें मुँदने लगी थीं। सबकुछ पीछे छूट चुका था। भाईबन्द, घृणा-द्वेष, युद्ध, रिश्तेदार। माता गान्धारी भी। बस एक ही प्रबल इच्छा थी। उस घेरे के बाहर कृष्ण दूर अकेले खड़े थे, एक बार उनके मुकुट के मोरपंख की आँख जी भरकर देखूँ। मैं लड़खड़ाता हुआ कुहनियों के सहारे उठने लगा ताकि मोरपंख की आँख दिखायी दे। लेकिन तभी लात मारी थी भीम ने मेरे माथे पर।’
भीषण खामोशी फैल गयी। पल भर बाद मन्दाकिनी ने अपनी सिरहाने के नीचे से एक मोरपंख निकाला और उसे दुर्योधन को देते हुए बोली, ‘लो।’ फिर मेरी तरफ हाथ से इशारा किया। बोली, ‘अरे इसी ने दिया था मुझे एक बार।’
अब मुझे याद आया। भिवा ने बहुत सारे मोरपंख दिये थे मुझे, जो मैंने इसी तरह कहाँ-कहाँ बाँट डाले थे। और मन्दाकिनी भी गजब है। सम्भालकर रखे उसने मोरपंख। मेरे पास उसकी जैसी स्ट्रेन्थ नहीं है, फिर चेहरे पर उसके जैसी हल्की मुस्कान कहाँ से आएगी? वह शूर है। मतलब जब हम मरेंगे, तब ऐसे सुखद सपने देखते हुए, अखण्ड देखते हुए। चिरनिद्रा है ही नहीं मेरी किस्मत में? एक सपना चाहिए बाबा। भारतीय दर्शन कहता है कि आख़िरी पल में मन में जो भावना होती है, उसी का कन्टिन्यूएशन होता है हमारा अगला जन्म। मेरा तो पुनर्जन्म पर विश्वास नहीं है। लेकिन मृत्यु के बाद खत्म न होने वाला सपना देखते हुए पड़े रहना भी गजब है। अत्यन्त तार्किक। हमें अतार्किक लगेगा, लेकिन मृतकों का तर्कशास्त्र भी अलग नहीं होगा क्या? यहाँ के प्रमाण वहाँ कैसे चलेंगे? ऐसा प्रदेश जहाँ बुद्धि नहीं पहुँचती। वहाँ तर्कशास्त्र नहीं। वह काला समुद्र कैसा खौलता रहता है। वहाँ ऐसा यूज़लेस टूटा चप्पू ले जाने से क्या मतलब?
ये हादसे तो नहीं? फिर अखण्ड बहने वाली मेरी निरी काली लीथ कहाँ गयी? उस पार सिन्धु। ज़िन्दा लोगों की संस्कृति वहाँ उदित हुई। फली-फूली। और ये लीथ! एकदम आर्ष। जीवन के साथ जन्मी। इसके किनारे मृतकों की स्वप्नसंस्कृति फूल-फल रही है, अनादि काल से। अपने आप से ‘ढूँढ़िए उस नदी को टूरिस्ट महाराज’ कहते हुए मैं उस क़ब्र से चलने लगा।
आधी रात ज्वर की तरह चढ़ी थी। बिल्कुल घनी और गहरी। क़ब्र में खोये शवों की साँसें अब बढ़ गयी थीं और उनकी बढ़ती आवाज़ें बिल्कुल साफ़-साफ़ सुनायी दे रही थीं। उन आवाज़ों से धीरे-धीरे एक गरजने वाला तूफ़ान तैयार होने लगा था। मुझे लग ही रहा था कि उस तूफ़ान में अब हम घिर जाएँगे। तभी उस आवाज़ की घनता को किसी तेज़ हथियार से काटने की तरह एक और साफ़-साफ़ आवाज़ सुनायी देने लगी। मैं अपनी जगह पर हतबुद्धि-सा खड़ा रहा। किस दुनिया की है यह आवाज़? आवाज़ थी एक स्त्री की। यक़ीनन। लेकिन ऐसी कैसी है ये आवाज़? ये रोना है या गाना? सुरीली है या बेसुरी? कुछ समझ में नहीं आ रहा था। वो आवाज़ यकीनन मेरी ही दिशा में अधिकाधिक क़रीब आने लगी। मैं सावधानी से खड़ा हो गया। ऐसी आवाज़ इससे पहले मैंने कभी नहीं सुनी थी और ऐसा गाना तो कभी मेरी कल्पना में भी नहीं आया था। उस गाने में शब्द नहीं थे। बस सुर या बेसुर?
धीरे-धीरे मुझे दिखायी देने लगा कि क़ब्रों से राह खेते हुए कोई मेरी ही तरफ आ रहा है। उसने गाना रोका नहीं था। वह स्त्री थी। फिर मुझे देखकर मुझसे हाथ भर के फासले पर आकर ठिठककर रुक गयी। वह नग्न थी। उसकी देहकान्ति केवड़े जैसी थी। उसकी देह पर हीरे की कनी की तरह आकाश की चाँदनी का दमकता चूरा जगह-जगह फैला था। उसकी आँखें विशाल और निर्विकार थीं। उसके ओंठ गीले और भड़कीले लाल थे, मानो अभी-अभी रक्त पीकर आयी हो। उससे कुछ खून जैसी बूँदें बीच-बीच में उसके वक्ष पर टपक रही थीं। उस खून से गीले हुए वक्ष पर दो रक्तकमल खिल उठे थे और उसके सुडौल, सुघड़ हाथों की लम्बी उँगलियों से केवड़े के पराग कण चिपके हुए थे। उसकी सुदीर्घ पीन जंघाओं से दो भुजंग लिपटे हुए थे और योनि पर भड़कीला लाल तेजस्वी माणिक ऐसे जगमगा रहा था, मानो कोई नागमणि हो।
मेरे पास आने पर वह रुकी और अपना गाना भी रोक दिया। काफ़ी देर तक हम दोनों एक दूसरे की तरफ देखते रहे। अभिमन्त्रित अदृश्य पाश में होने की तरह मैं स्तब्ध खड़ा रहा। मन एक साथ कुतूहल, भय और घृणा से भर गया। लेकिन मेरे ध्यान में आया, इन सबसे एक प्रबल अनिवार आकर्षण धीरे-धीरे मेरे मन पर क़ाबिज़ होने लगा है। यह शक्ति उसके अद्भुत रूप की थी या उसकी देह से आने वाली मादक और निषिद्ध गन्ध की? वह गन्ध सदियों से पगी होने की तरह पुरानी थी, लेकिन उसमें प्राचीनता का आह्वान था।
‘मैंने सोचा तुम डर जाओगे।’ आख़िरकार वह स्त्री बोली।
मन उसकी देह की गन्ध को सूँघने से मना कर रहा था, फिर भी मैंने सीना भरकर उसे सूँघा और कहा, ‘घबराने की क्या बात है?’
अचानक वह हँसी। उसके चेहरे से चाँदनी झरने लगी।
‘तुम जहाँ से आये हो, वहाँ सभी डरते हैं मुझसे। घबराते हैं, गुस्सा करते हैं। घबराते हैं इसलिए गुस्सा करते हैं।’ रूखाई से हक़ीकत सुनाने की तरह वह बोल रही थी।
मुझसे रहा नहीं गया और भीतर से किसी ने धकेलने की तरह मैंने कहा, ‘आप अतीव सुन्दर हैं!’
‘अच्छा? पहली बार सुना ये मैंने अपने बारे में।’
‘आपका गाना भी दुनिया से अलग है और अत्यन्त सुन्दर भी। लेकिन आपने गाना क्यों रोका?’
वह दुबारा गाने लगी और क़ब्र से निकली लताएँ जाने-अनजाने उसकी तरफ झुकने लगीं। कैसा था वह गाना! ऐसी निर्विकार आँखों वाला व्यक्ति, ऐसा ख़ून के फ़व्वारे छूटने के जैसा कैसे गा सकता है?
कुछ देर बाद रुकी और बोली, ‘यह किसी और से मत कहिए। वरना मेरी तरह आपको भी वे गाँव से बाहर निकाल देंगे, हमेशा के लिए।
‘उन्होंने आपको गाँव से बाहर निकाल दिया?’
उसने अपनी बारीक़ कोमल उँगलियों की हथेलियों में अपना चेहरा छिपा लिया। मुझे अनिवार मोह हुआ कि उसके हाथ हटाएँ और उसकी उँगलियों से चिपके परागकण अपनी ज़बान की नोक से चुग लें। मेरा आवेश जानकर उसकी जंघाओं के नाग बेचैन हुए और वहीं के वहीं बिलबिलाने लगे। सब कुछ भाँप जाने की तरह वह बोली,
‘ऐसा कुछ मत कीजिएगा। मेरी उँगलियों से चिपके ये परागकण जहरीले हैं। उसके केवल स्पर्श से भी आप हरे-नीले पड़ जाएँगे।’ फिर थोड़ा रुककर बोली, ‘लेकिन आप यहाँ आए कैसे? और यहाँ कर क्या रहे हैं?’
मैंने हँसकर मज़ाक़ में कहा, ‘कोई क़ब्र ढूँढ रहा हूँ, खाली!’
‘समय आने पर मिल जाएगी। ज़ल्दी क्या है? लेकिन मेरी किस्मत में तो वो भी नहीं है।’
मुझे असमंजस में देखकर वह बोली, ‘अजी, मैं ज़िन्दा हूँ! उतनी ही ज़िन्दा हूँ, जितने कि आप। शायद ज़्यादा ज़िन्दा। और हमेशा।’
‘हमेशा ज़िन्दा? क्या मतलब?’
‘मतलब, मुझे मृत्यु है नहीं?’
‘फिर आप यहाँ क्या कर रही हैं?’ मैंने पूछा।
‘क्या करूँगी? आप लोगों ने मुझे निष्कासित किया। तड़ीपार कर दिया। आप अनेक, मैं अकेली। आपके लिए मृत्यु प्राप्य है और बाद में कभी खत्म न होने वाले सुन्दर सपने देखते हुए आप अपनी-अपनी क़ब्रों में चिरविश्राम करने वाले हैं। लेकिन मेरी क़िस्मत में यह भी नहीं है। मैं ज़िन्दा ही इन क़ब्रों में भटकती रहूँगी हमेशा!’
‘आपको डर नहीं लगता यहाँ?’
‘कैसा डर? बल्कि सुकून मिलता है। आसपास नगर, महानगर हैं, भीड़भाड़ से भरे। उसके बीचोंबीच क़ब्रिस्तान, तूफ़ान की आँख की तरह।’
मेरे भीतर कुछ हिलने जैसा हुआ। आगे झुककर मैंने उससे पूछा, ‘जब आपका घरबार नहीं है, कोई क़ब्र भी नहीं है, फिर आप रहती कैसे हैं? क्या खाती-पीती हैं?’
‘कभी भूख सही नहीं गयी तो गाँव की सरहद के पास जाकर खड़ी हो जाती हूँ, उम्मीद से। वो भी एकाध बार, कई दिनों बाद। लेकिन मुझे देखते ही औरतें अपने बच्चों को झट् से उठाकर पल्लू में छिपा लेती हैं और घर में जाकर जल्दबाज़ी में किवाड़ बन्द करती हैं। पुरुष मुँह से लगी हुक्के की नली अलग कर तुच्छता से थूकते हैं और कटिवस्त्र में हाथ डालकर शिश्न सहलाने लगते हैं। कभी कोई तरस खाकर, दया दिखाकर एकाध निवाला सरहद के पास लाकर रख देता है और यह देखकर कि आसपास कोई देख नहीं रहा है, ज़ल्दी-ज़ल्दी चला जाता है। वही निवाला खाकर दिन गुज़ारती रहती हूँ मैं। जैसे-तैसे। कुछ न मिले तो यहाँ आकर इन लताओं में लगे लाल फल खाती हूँ। फल खूब हैं यहाँ और उनमें अधूरे सपनों की मधुरता भी है। मेरी भूख-प्यास मिट जाती है इससे। सुखी हूँ मैं।’
वह हँसी। फिर एक बार चाँदनी का रेला उसके मुख से झर गया। मुझसे रहा नहीं गया इसलिए आखिरकार पूछा,
‘लेकिन आप हैं कौन? आपका नाम क्या है? गाँव से क्यों निष्कासित किया गया आपको?’
‘मैं नहीं जानती कि मैं कौन हूँ। और वैसे भी, हमें कहाँ पता होता है? लोग ही बताते हैं कि आप ये हैं और आप वो हैं। वैसे उन्होंने मुझे बताया कि मैं एक वर्ज्य स्वर हूँ। कुछ लोगों ने तो बताया कि वर्ज्य नहीं, निषिद्ध स्वर हूँ मैं। वे मुझसे बोले कि मैं भूप में मध्यम हूँ और दरबारी में निषाद। उनका कहना था कि यह नियम के विपरीत है, प्रकृति विरोधी। और उन्होंने कहा कि मैं उनके बीच रहूँगी तो मेरी वजह से उनका ईश्वरीय, विशुद्ध संगीत अपवित्र हो जाएगा, नापाक हो जाएगा। मेरे कुछ कहने से पहले ही उन्होंने पत्थर मारकर मुझे गाँव से बाहर निकाल दिया। फिर मैं सीधे यहाँ चली आयी। यहाँ ग़ज़ब शान्ति है। यहाँ सारे वर्ज्य स्वर लगाकर मैंने कुछ अनवट राग बनाये हैं, जिन्हें दिल खोलकर गा सकती हूँ मैं यहाँ।’
और उसने अपनी ठाय लय में आलापी शुरू की। वह आलापी जैसी-जैसी घनी होती गयी वैसी-वैसी दूर क्षितिज पर प्रकाश की रेखा उभरी। गाने के साथ-साथ सारा क्षितिज फिर से उजला होने लगा और बाद में वह प्रकाश उन्माद से ऊपर आसमान में उछलने लगा। मैं सन्न होकर देखता ही रह गया। फिर उसने गाना रोका और बोली,
‘देखा न? मेरा यह राग सुनकर गाँव-गाँव के उत्सुकता के दिए कैसे अचानक वासना की तरह सुलग उठे हैं? लेकिन इसे वे स्वीकार नहीं करेंगे। उनकी उत्सुकता में धैर्य की रीढ़ नहीं है। और वह नहीं है इसलिए एक भी अनवट राग वे कभी गा नहीं सकेंगे, मेरा गाना गाना तो बहुत दूर की बात है। वे वही बासी गाना गाते रहेंगे और उसी को अभिजात, विशुद्ध संगीत कहेंगे। ख़ैर, अब मैं चलती हूँ। लेकिन एक बात ध्यान में रखिए, मेरा घर-गाँव-क़ब्र हो या न हो, लेकिन मैं वह गा सकती हूँ, जो गाना चाहती हूँ। क़ब्रिस्तान में तो क़ब्रिस्तान में। और वैसे भी, इतनी आज़ादी किसे मिलती है?’
वह जाने के लिए मुड़ी तब उसके ज़मीन पर लोट रहे बालों में मुझे कुछ हिलता हुआ नज़र आया। मैंने साँसें रोककर कहा,
‘मेडुसा!’
‘नहीं, मैं मेड्यूसा नहीं। उसकी नज़र पड़ते ही लोग अचल शिला में तब्दील होते हैं। मेरी इच्छा है कि मेरे कारण किसी का ऐसा हश्र न हो, किसी का विनाश न हो, सभी खुशी-खुशी रहे। इसलिए मैंने अपनी आँखों से बाहर देखने वाली वह दृष्टि ही निकाल फेंकी है। जिन्होंने मेरा निष्कासन किया, उनके साथ अच्छा बर्ताव करना, बस यही सज़ा मैं उन्हें देना चाहती हूँ!’
वह मुड़ी और क़ब्रों से राह खेती हुई क्षितिज की तरफ चल पड़ी। उसके जाने के साथ-साथ वहाँ का उजाला भी धीमा होते-होते नष्ट हो गया। घनतिमिर जिसे कहते हैं, वैसा ही अँधेरा था अब। चन्द्रकला पूरी तरह से झुक चुकी थी। आसपास की साँसें रुक-रुककर क़ब्रों में लौट आयी थीं और क़ब्रिस्तान फिर एक बार अविचल, प्रगाढ़ शान्ति में खो गया था।
मुझे अचानक थकावट महसूस हुई। बिल्कुल थकान। पैर निढ़ाल-से हो गये। इस आधी रात को, इस घने अँधेरे से, इस ख़ामोशी से चले जाना होगा। लौटने की राह मिलेगी? और वह हमारी मनचाही होगी? यहाँ शान्त, सुरक्षित लगता था, माँ के गर्भ में होने की तरह। दोबारा उस ज़िन्दगी के, रिश्तों के, सुख-दुखों के कोलाहल में चले जाएँगे? लेकिन माँ के गर्भ में दोबारा लौटना यानी नये जन्म की निश्चितता। फिर सम्बन्धों की बुनावट के साथ दुःख-क्षोभ की बुनावट को भी बढ़ाते जाना। ‘जो मन का अंकुर उपजे’ की स्थिति कब आएगी? मृत्यु के बाद भी वह आएगी, लग नहीं रहा था। आसपास सरसराने वाली लताएँ देखकर यह पता चल ही रहा था। मृत्यु के भी अंकुर फूट जाते तो? मतलब, क्या मृत्यु भी अन्तिम अवस्था नहीं है?
चकराना मुझे अपनी नियति ही लगती है। मेरी ही नहीं, सारे प्राणी-मात्रों की। इस चकराने से निजात मिलनी चाहिए। मन में अंकुर फूटते हैं, उसी से यह जीने-मरने की जटिलता उत्पन्न होती नज़र आती है। जन्म और मृत्यु, ऐसा कुछ होता भी है? या ये भी मन की ही नित्य की बातें हैं? क्या परेशानी है। इस मन का ही विच्छेद कर डालना चाहिए। बेक़ाबू अन्धी ऊर्जा से गोलाकार चकराने का स्वभाव है इसका। चक्रवात की तरह यह तूफ़ान पागलपन से गोल-गोल घुमाता रहता है और मेरी धज्जियाँ उड़ाता रहता है। इस चक्रवाती तूफ़ान के भीतर इसकी आँख ज़रूर होगी। इसका एपीसेन्टर, और वहाँ होगी किसी से भी भंग न होने वाली सार्वभौम, जागरूक और दक्ष शान्ति। वहाँ जाएं और उस शान्ति में ही पद्मासन लगाकर बैठ जाएँ हमेशा के लिए। बस।
यह कल्पना मुझे बहुत अच्छी लगी और पद्मासन लगाने के लिए मैंने पैर ऊपर उठाए। लेकिन उनमें हरकत ही नहीं हो रही थी। क्या हुआ, देखने के लिए मैं नीचे झुका। मेरे दोनों पैरों के इर्द-गिर्द उन हरी लताओं ने जकड़बन्दी का घेरा कस दिया था और वे धीमी लेकिन निश्चित गति से ऊपर-ऊपर चढ़ने लगी थीं।

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