22-Mar-2023 12:00 AM
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मेरी याददाश्त एक चमत्कार है। मुझे सब याद है बस शर्त यह है कि उसे मैंने देखा हो, शायद आँखों-देखी याददाश्त इसी को कहते हैं। हालाँकि कुछ ऐसा भी है, जो मुझे याद नहीं आता या उसे मैं शब्दों में नहीं ढाल सकता, जैसे मुझे एक अँधेरी दुनिया का भी एहसास है, जिसे आप यमलोक कह सकते हैं, हालाँकि मेरा ख़याल है कि यमलोक केवल एक भ्रम और कल्पना है।
तो मुझे इस भ्रम का भी एहसास है, अँधेरी दुनिया की परछाईयाँ, वहाँ की वस्तुएँ, जो चाक़ू की नोक पर कँपकँपाती हुई उन आकृतियों की तरह हैं, जो कभी नज़र नहीं आतीं। शायद इसलिए कि चाक़ू से केवल सफ़ेद काग़ज़ पर लकीरें डाली गयी हों?
और वहाँ के खाने, उनका खट्टा-मीठा और तीखा स्वाद। और उन खानों की सुगन्ध, मेरे पेट की आँतों को उलझन में डालती हैं, जिसके कारण मेरे दिमाग़ के बायें भाग में कुछ असमंजस जैसी स्थिति पैदा हो जाती है।
मैं कभी-कभी तंग आकर इस संकट से छुटकारा पाने की कोशिश करता हूँ मगर मेरी याददाश्त, वह मेरा वफ़ादार कुत्ता दबे-पाँव मेरे पीछे-पीछे चला आता है।
बचपन में अक्सर सड़कों पर चलते समय मुझे लगता था जैसे कोई कुत्ता मेरा पीछा कर रहा है, अब जाकर मेरी समझ में आया कि वह मेरी याददाश्त थी।
ख़ैर! अब तो बहुत सी बातें साफ़ हो चुकी हैं जैसे कि ज़िन्दगी में मौत की याद और मौत में ज़िन्दगी की याद इस तरह घुली मिली है जैसे भूने जाते हुए चिकन में मसाला।
वैसे भी ज़िन्दगी और मौत में कोई अन्तर तो होता नहीं। मौत का छीना हुआ ज़िन्दगी में हासिल हो जाता है और मौत के अंधेरे में खोई हुई वस्तुएँ मिल जाती हैं।
इसीलिए इस बात का कोई प्रभाव नहीं पड़ता कि आप ज़िन्दा इंसानों का ख़ून मुर्दों पर छिड़कते हैं या मुर्दों का ख़ून ज़िन्दा इंसानों पर। दोनों हालात में नतीजा एक ही निकलता है, अर्थात कुछ खोकर पा लेना या कुछ पाकर खो देना।
गणित का एक सामान्य विद्यार्थी भी इससे एक समीकरण बना सकता है। मगर इस समीकरण को हल करना या प्रमाणित करना बड़ा कठिन है। यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसका मुझे लगातार सामना है और शैतान की आँत की तरह यह समीकरण फैलता और लम्बा होता जा रहा है। इसका कारण जहाँ तक मैं समझता हूँ शायद यह है कि इस यात्रा में इंसान अपनी आत्मा के भूगोल से हाथ धो बैठता है। कम-से-कम मेरे साथ तो यही हुआ। मैंने बचपन की अपनी ख़ाकी पतलून में अपनी आत्मा के भूगोल वाला फटा-पुराना काग़ज़ सँभालकर रख लिया था, मगर उम्र के न जाने किस पड़ाव पर और पता नहीं कौन-सी बारिश में वह गल-सड़ गया। मैंने उसे गँवा दिया।
अपनी इस बेरहम याददाश्त, थका देने की हद तक उस वफ़ादार कुत्ते से पीछा छुड़ाने के लिए यह तरकीब भी सोची कि मैं मुड़कर ज़ल्दी से इस कुत्ते का पट्टा पकड़कर उसे उपन्यास के कुँए में धक्का दे दूँ अर्थात् अपनी याददाश्त को मैं उपन्यास के रूप में ढाल दूँ और अपनी जान छुड़ाऊँ।
मैं और उपन्यास? यह सोचकर मुझे हँसी आती है मगर यह सच है कि कभी-कभी मैं सोचता हूँ कि एक उपन्यास लिखूँ। मगर मैं उपन्यास तो उपन्यास एक छोटी-सी कहानी भी नहीं गढ़ सकता बल्कि में एक पैराग्राफ़ तक नहीं लिख सकता। इसका एक, बिल्कुल सामने का कारण तो यह है कि मेरे अन्दर दयनीय हद तक रचनात्मकता का अभाव है और दूसरा, शायद अधिक महत्वपूर्ण कारण यह है कि बचपन से ही मेरी व्याकरण पूरी तरह ठप है। मैं कालों में अन्तर नहीं कर सकता। हाल ही में गुज़रा भूतकाल और काफ़ी पहले गुज़र चुका भूतकाल मेरे लिए एक ही है बल्कि वर्तमान और अतीत तो मुझे अनुभव और संवेदना के स्तर पर एक-दूसरे के जुड़वाँ नज़र आते हैं। यही हाल भविष्य का है, भविष्य-काल मुझे गुज़रा हुआ ज़माना ही नज़र आता है। बचपन में परीक्षा में व्याकरण के पर्चे में बस रट-रटाकर काम चला लिया करता था। इसलिए अफ़सोस कि मैं केवल मुक़द्दमों की अपीलें और अर्ज़ियाँ आदि ही लिख सकता हूँ, और वहाँ भी अक्सर मुझसे गड़बड़ हो जाती है, जिसे मेरा मुंशी ठीक कर दिया करता है। इस सम्बन्ध में, मैं अगर इतना नाकारा और अयोग्य न होता तो मैं वास्तव में उपन्यास लिखता।
मेरा उपन्यास ही मेरा घर होता।
मेरा घर, मेरा घर।
क्या आपको पता है कि घर का सबसे ख़तरनाक हिस्सा कौन-सा होता है?
मेरी विडम्बना यह है कि मैं अपनी याददाश्त के क़दमों की चाप से भड़क-भड़ककर भाग रहा हूँ और उन शब्दों के साथ जी रहा हूँ जो अभी लिखे नहीं गये। उन शब्दों के शोर में इस तरह लापरवाही से हाथ पैर फेंककर चल रहा हूँ जैसे बहरा हूँ। मैं तो बस अपनी बीती, भूली-बिसरी यादों के अँधेरों में लड़खड़ा रहा हूँ।
जाए सबकुछ जहन्नुम में जाए।
मैं शब्दों की गु़लामी तो करने से रहा, जिस दुनिया में हर इंसान एक भयानक रहस्य की तरह दूसरे इंसान के जीवन पर छाया हुआ हो, उस दुनिया के बारे में और इंसानों के बारे में लिखना वैसे भी व्यर्थ ही होता।
हाँ मगर, इंसान की वास्तविकता के बारे में एक बात का मुझे बख़ूबी इल्म या एहसास है, बल्कि मैं उसे एहसास की सतह पर ही रखना चाहता हूँ क्योंकि एहसास जैसे ही इल्म बनता है, लोग इल्म को अपने दिमाग़ पर इस तरह बांध लेते हैं जैसे सूअर बाड़े में बँधा हो।
और वह एहसास यह है कि इंसान अपनी आँतों के अन्दर रहता है। इंसान के पोशीदा अंग तो केवल इंसानों के होने की सम्भावना, उनकी परछाइयों के ठिकाने हैं।
मानसिक रूप से और अपनी आत्मा के स्तर पर आदमी अपनी आँतों के अन्दर ही छिपा रहता है। अपनी बदनीयती, अपने चटोरेपन और अपनी भूख को, दूसरे के मुँह पर मारता हुआ, एक-दूसरे की भूख के तुच्छ लाल रंग से दूसरे का मुँह सना हुआ, यह ख़ून की होली है।
ख़ून?
ख़ून, जिसकी महक मेरे बचपन की ज्यॉमेट्री की क़िताब में बने एक-एक वृत्त, एक-एक त्रिकोण में और गणित की हर उस समस्या में एक ख़ुफ़िया गुनाह और बड़ी भारी भूल की तरह शामिल है जिसे मैं कभी हल नहीं कर सका।
और यह भी एक ख़ुफ़िया बात है कि इंसान की आँतें ही उसका घर है।
घर??
क्या आप जानते हैं कि घर की सबसे ख़तरनाक जगह कौन-सी है?
याद रखिये, बावर्चीख़ाना एक ख़तरनाक और भयानक जगह का नाम है।
बावर्चीख़ाना एक ख़तरनाक जगह है।
हमारा घर कोठी की तरह था, जिसमें दो दालान थे। एक अन्दरूनी और दूसरा बाहरी। बाहरी दालान से लगा हुआ बरामदा था, जिसमें टीन पड़ा था। उसके सामने एक लम्बा-चौड़ा कच्चा आँगन जिसमें आम का पेड़ लगा था। बाहरी दालान से मिली हुई दोनों दिशाओं में कोठरियाँ थीं, एक कोठरी में बक्स ही बक्स रखे हुए थे। न जाने कौन-कौन से ज़मानों के बक्स और एक कोठरी में क़िताबें, जो अधिकतर पुरानी और ख़स्ता हालत में थीं।
बरामदे के टीन को लकड़ी के थमों और दासे के सहारे रोका गया था, दासे में जगह-जगह लोहे के हुक जड़े थे, जिनमें लालटेन जलती रहती थी। टीन के पूर्वी भाग में मुर्गियों का दड़बा और कबूतरों की काबुक थी। मुर्गियों के दड़बे से मिली हुई सीढ़ी थी। छत पर कोई इमारत नहीं थी। केवल मुण्डेरें थीं, जिन पर दिन में कौवे, फ़ाख़ताएँ और जंगली कबूतर मटरगश्ती करते रहते थे और रात में आवारा बिल्लियाँ, यह अलग बात है कि हमारे घर में भी कई पालतू बिल्लियाँ थीं।
आँगन में दोनों दिशाओं में छोटे-छोटे पौधे लगे हुए थे और एक नारंगी का पेड़ भी था।
छतें सब लकड़ी की कड़ियों की थीं और ख़स्ता-हाल हो रही थीं, बारिश के दिनों में जगह-जगह से टपकती थीं। कड़ियों में छिपकलियों और चमगादड़ों ने भी अपने ठिकाने बना लिए थे।
आँगन के पूर्वी भाग में हत्थे वाला नल लगा था, जिसके नीचे एक छोटा-सा हौज़ था। यहाँ कपड़े और बर्तन धुलते रहते और गर्मियों के रूखे मौसम में ततैया इकट्ठा रहतीं।
इस नल के सामने बिल्कुल नाक की सीध में वो था।
वो यानी बावर्चीख़ाना।
बावर्चीख़ाने की कड़ियों की छत, कम-से-कम जब से मैंने देखा, धुएँ से काली ही देखी। इन कड़ियों में लटकते हुए मकड़ियों के जाले भी धुएँ से काले हो गए थे और उन पर धूल और मिट्टी की मोटी तह जम गयी थी। जब कभी (ऐसा कभी सालों बाद होता था) उन्हें बाँस के डण्डे से साफ़ किया जाता, वो फ़र्श पर काले कपड़े की पतली और बारीक धज्जियों की तरह नीचे गिरती। बावर्चीख़ाने की मकड़ियाँ और छिपकलियाँ भी, वहाँ अधिकतर समय बितानेवाली औरतों की तरह काली पड़ गयी थीं और शायद इसी कारण से वास्तविकता से कुछ अधिक ज़हरीली नज़र आती थीं।
हर तरफ़ की दीवार काली थी और हर कोना काला था। मगर इस कालेपन से वहाँ एक जाने-पहचाने और अपनेपन का एहसास क़ायम था। कभी-कभार जब बावर्चीख़ाने में चूने से पुताई करवाई जाती तो भी यह कालापन, सफ़ेद चूने के पीछे से झाँकता ही रहता और जल्द ही इस पर्दे से निकलकर बाहर आ जाता।
बावर्चीख़ाने का फ़र्श खड़ंजे का था और जगह-जगह से उधड़ रहा था, उसमें बड़ी-बड़ी दरारें थीं, जिनमें चींटियाँ और कनखजूरे रहते थे और कभी-कभी साँप के छोटे-छोटे बच्चे भी रेंगते हुए उन्हीं दरारों में गुम हो जाते थे।
बावर्चीख़ाने की छत के मध्य में एक कड़ी में चालीस वाट का बल्ब, बिजली के तार की एक डोरी से लटकता रहता था। उस ज़माने में हमारे छोटे से शहर में बिजली आ गई थी। मगर बिजली अधिकतर ग़ायब रहती थी इसलिए बावर्चीख़ाने के दरवाज़े की चौखट के ऊपर भी एक लालटेन हमेशा लटकी रहती थी। मुझे याद है कि यह लालटेन अधिकतर भड़कती रहती थी। इसमें कोई ख़राबी थी। यह मिट्टी के तेल की अधिक मात्रा को सहन नहीं कर पाती थी। अक्सर इसकी चिमनी एक छनाके के साथ फट जाया करती थी मगर पता नहीं क्यों, बार-बार चिमनी को बदलते रहने के बावजूद, कभी भी इस लालटेन को बदला नहीं गया, जिसके पेंदे में ही कोई ख़राबी थी या जिसका अपनी ही बत्ती से कोई झगड़ा था।
बिजली का तार लाल रंग का था, मगर बाद में,वह भी काला पड़ गया था और उसपर न जाने क्यों मक्खियाँ चिपकी रहती थीं। बावर्चीख़ाने की दक्षिणी दीवार पर रौशन-दान था। जो पाम के एक पेड़ की ओर खुलता था, कभी-कभी जब पाम के पत्ते पुराने हो जाते तो रौशन-दान से बावर्चीख़ाने के अन्दर झाँकने लगते बल्कि शायद अन्दर प्रवेश करने का प्रयास करते। पाम के ये पत्ते भी ख़ूब थे, टीन से टपकती हुई बारिश भी पाम के ऊपर से गुज़रती और बूँदें यहाँ अलग अन्दाज़ से गूँजतीं। बे-जान धातुटीन और एक सजीव वस्तु पत्तों में संगीत का एक मुक़ाबला होता, एक उदास जुगलबन्दी। पाम के ये पत्ते जब बहुत बड़े हो जाते तो उन्हें आरी से काट दिया जाता और घर से बाहर फेंक दिया जाता, जहाँ मोहल्ले के बच्चों के एक हाथ रोचक कार्य आ जाता। वे इस मोटे, तर और हरे-भरे क़ालीन जैसे पत्ते पर बैठ जाया करते और दूसरे बच्चे डण्डी से पकड़कर उस लम्बे-चौड़े पत्ते को सड़क पर घसीटते फिरते।
मुझे अफ़सोस है कि मैं कभी पत्ते पर नहीं बैठ सका। दरअसल मेरी याददाश्त में पाम के पेड़ और बावर्चीख़ाने का आपस में इस तरह घालमेल है कि एक के बारे में बात करना दूसरे के बिना अगर असम्भव नहीं तो अधूरा और अतृप्त अवश्य है।
दूसरी ओर की दीवार में ईंटों की एक जाली लगी थी, जो ज़ीने की ओर खुलती थी। ज़ीने की चौथी सीढ़ी पर बैठकर बावर्चीख़ाने का दृश्य एक काली तस्वीर की तरह नज़र आता था, जिसके मध्य में एक लाल दहकता हुआ धब्बा था।
यह चूल्हा था, पिंडोल से पुता हुआ, जिसके पिछले भाग में ओनला था। एक खाना पक जाने के बाद उसकी हाँडी ओनले पर रख दी जाती, ताकि गर्म रहे। लकड़ियाँ अगर सूखी होतीं तो चूल्हे में धड़ा-धड़ जलतीं और अगर गीली होतीं तो सारा बावर्चीख़ाना धुएँ से भर जाता। चूल्हे के सामने बैठीं हुई औरतों की आँखों से लगातार पानी या आँसू बहते रहते। जो बावर्चीख़ाने के कालेपन में गीलापन भी पैदा कर देते थे। खाना पक जाने के बाद चूल्हे में भूभल बची रहती। एक स्लेटी रंग की राख जिसको कुरेदने पर शोले निकलते थे, अक्सर रात को दूध का बर्तन गर्म करने के लिए भूभल पर ही रख दिया जाता था।
हमारे घर में गोबर के उपलों का चलन नहीं था। गोबर के उपलों का अपेक्षाकृत ग़रीब और निचले वर्गों में उपयोग किया जाता था। मगर मुझे जलते और सुलगते हुए उपलों पर बनी चाय बहुत पसन्द थी। इस चाय में दूध की ख़ुश्बू बहुत शुद्ध और ममता से भरी हुई महसूस होती थी।
मैंने ऐसी चाय कई बार पी है।
हाँ मगर हमारे यहाँ बुरादे की अँगीठी अवश्य थी, हर पन्द्रह दिन बाद एक आदमी ठेले पर बुरादे की बोरी रखे हुए प्रकट होता और बोरी को अपनी कमर पर लादकर लगभग दोहरा होते हुए उसे बावर्चीख़ाने की अँधेरी कोठरी में ले जाकर पटक देता।
उस अँगीठी में बुरादे को बहुत ठूँस-ठूँसकर भरना होता जो एक कठिन और तिकड़मी काम था। अन्यथा अँगीठी अच्छी तरह नहीं सुलग पाती थी।
चूल्हे से दो हाथ की दूरी पर दाईं ओर, दीवार पर ईंटों की एक अलमारी थी, जिसमें रोज़मर्रा के बर्तन और मसाले आदि रखे हुए थे। अक्सर यहाँ प्याज़ सड़ती रहती थी, फ़र्श पर एक ओर आटा गूँधने का पीतल का तसला, काले रंग का बड़ा और भारी तवा जो मुझे काले सूरज की तरह दिखायी देता था और जिस पर बड़ी-बड़ी गेहूँ की चपातियाँ पकती थीं। उन दिनों छोटे-छोटे फुल्कों का चलन नहीं था बल्कि उन्हें बहुत गिरी हुई नज़रों से देखा जाता था।
तवे के साथ ही इधर-उधर चिमटा और फुँकनी भी पड़े रहते। दोनों काले रंग के थे और हिंसक मालूम पड़ते थे। फ़र्श पर ढेर सारी, ऊँची-नीची, लकड़ी की पटलियाँ थीं, जिन पर बैठकर महिलाएँ काम करतीं और जाड़े के दिनों में सब लोग उन्हीं पटलियों पर बैठकर चूल्हे के आगे खाना खाते।
शबे-बरात के दूसरे दिन सुबह तो देखने का नज़ारा होता। घर का हर व्यक्ति, नाश्ते के समय, बावर्चीख़ाने में आकर पटलियों पर बैठ जाता और रात के बासी हलवे को चूल्हे पर गर्म करके ताम चीनी की प्लेटों में बासी रोटी के साथ खाता।
मैं यह बताना भूल गया कि बावर्चीख़ाने के अन्दर एक ओर, अँधेरी कोठरी थी, जिसमें अधिकतर अनाज, गल्ला, घी, तेल आदि भरे होते थे। इसमें बिजली का बल्ब नहीं था और दिन में भी यहाँ लालटेन या मिट्टी के तेल की डिबिया लेकर जाना पड़ता था।
बावर्चीख़ाने में हर तरफ़ एक बिखराव था। वह अराजकता का नज़ारा पेश करता था। जबकि देखा जाए तो खाना पकाने में सहायक वस्तुएँ या उपकरण आदि बहुत कम थे। केवल तवा, फुँकनी, चिमटा, पत्थर की सिल, ओखली और कुछ छोटे-बड़े चमचों या करछुल आदि से ही काम चला लिया जाता था। गर्म बर्तन को उठाने के लिए कपड़े का प्रयोग किया जाता था, जिसे साफ़ी कहा जाता। हालाँकि वह चिकनाई और स्याही से इस तरह सना होता कि औरतों की उंगलियाँ उससे चिपक जातीं। वैसे तो अनुभवी या मंझी हुई औरतें बिना साफ़ी के ही गर्म से गर्म बर्तन को चूल्हे से उठा लेतीं, उनके हाथों की खाल सुन्न हो चुकी थी।
बर्तनों में अधिकतर की तो पॉलिश उतर गयी थी। देगचियाँ, हाण्डियाँ, पतीले आदि की पॉलिश मैंने हमेशा उतरी हुई ही देखी। जहाँ तक खाना-खाने के बर्तनों का प्रश्न है, बावर्चीख़ाने में तामचीनी की प्लेटें ही थीं और चाय पीने के मग भी तामचीनी ही के थे। अच्छे और ढँग के बर्तन, दालान में एक अलमारी के अन्दर में रखे थे, जो मेहमानों की दावत आदि में ही बाहर निकाले जाते और धोकर तुरन्त दोबारा अपनी जगह पर रख दिए जाते।
दावतों और त्यौहारों आदि के अवसर पर तो बावर्चीख़ाने का यह कुप्रबन्धन और भी बढ़ जाता। विशेष रूप से ईद के अवसर पर जब चीनी के प्यालों में सेवइयाँ रखी जातीं और खड़ंजे का फ़र्श इन प्यालों से ढँक जाता, जिसको फलाँग-फलाँगकर और अपने ग़रारों या शलवारों के पायचों को उठा-उठाकर महिलाएँ बदहवास सी, बावर्चीख़ाने में इधर-उधर भागा करतीं और अक्सर एक-दूसरे से टकरा जातीं।
क्या कभी इस बात पर गम्भीरता से विचार किया गया है कि बावर्चीख़ाने के लगभग सभी उपकरणों और वस्तुओं में, कुछ विशेष अवसरों पर एक ख़तरनाक हथियार बन जाने की सम्भावनाएँ छिपी हैं। चाहे वह तरकारी काटने वाली छुरी हो, तवा हो, चिमटा हो, फुँकनी हो, जलती हुई लकड़ी हो, चूल्हे में धड़ाधड़ जलती हुई आग हो, मसाला पीसने वाली सिल हो, पिसी हुई मिर्चें या भभकती हुई भूभल हो या फिर मिट्टी का तेल ही क्यों न हो। घर के किसी और भाग में इतनी अधिक मात्रा में ऐसी वस्तुएँ नहीं थीं। यहाँ तक कि बाहरी दालान की दीवार पर कील में टंगी बन्दूक़ भी इन वस्तुओं के आगे तुच्छ और कमज़ोर नज़र आती थी।
घर के किसी भी हिस्से में इतने ख़तरनाक बहरूपिये नहीं पाये जाते जितने कि रसोई में और घर के किसी भी और स्थान पर महिलाएँ इतनी क्रोधित, उग्र, ईर्ष्या से भरी हुईं, हिंसक और छोटी सोच की नहीं होतीं जितनी कि बावर्चीख़ाने में।
बावर्चीख़ाना चाहे घर के किसी भाग में हो या किसी भी दिशा या दशा पर बना हो, चाहे वास्तु-शास्त्र वालों से कितनी ही सहायता क्यों न ले ली जाए, वहाँ के लड़ाई झगड़े ख़त्म नहीं होते। बावर्चीख़ाना एक युद्ध-स्थल है और पूरे घर, पूरे ख़ानदान बल्कि मानव-जाति के भाग्य का फ़ैसला इसी छोटे से और देखने में साफ़-सुथरे और पवित्र स्थान से ही होता है। अदालत यहीं लगती है, मुक़द्दमा यहीं चलाया जाता है। पूरा घर अपनी मौन आँखों से यह तमाशा देखता है जब तक कि आखि़रकार वह खण्डहर न बन जाए। इंसानी आँतों की भूख और दो जून की रोटी में एक रहस्यमय और भयानक लालसा छिपी रहती है। यह लालसा केवल स्याही और ख़ून की तरफ़ बढ़ती है। आखि़रकार बस एक अश्लील और मुगालते से भरा लालच और लोभ बच जाता है। जिसके नशे में काली-पीली और गोरी महिलाओं को गर्म बर्तनों को अपने सुन्न हाथों से उठाते रहने की लत लग जाती है और बावर्चीख़ाने के बर्तनों से वे वही बर्ताव करने लगती हैं, जो वे अपने मर्दों से करती हैं। उनके मर्द धीरे-धीरे छोटे-बड़े बर्तनों में परिवर्तित होने लगते हैं। बावर्चीख़ाने में वे बेहद प्रबल और स्वार्थी हो जाती हैं। उनके शरीर की खाल सुन्न हो जाती है। महिलाएँ बावर्चीख़ाने के बर्तनों के साथ सम्भोग करती हैं।