नेमतख़ाना ख़ालिद जावेद उर्दू से अनुवादः महेश वर्मा
25-Oct-2020 12:00 AM 5714

मैं अपने बचपन को दुबारा इसलिए नहीं हासिल करना चाहता, कि उसे एक बार फिर से जीने लगूँ। मैं अब उस तक इसलिए रसाई हासिल करना चाहता हूँ कि उसे समझ सकूँ। जिस तरह ज़रा बड़े हो जाने पर बच्चे अपनी पुरानी गेंद को तोड़कर उस के अन्दर झाँकने की कोशिश करते हैं। पुराने खिलौनों को तोड़कर उस के अंजर पंजर एक करके रख देते हैं ताकि समझ सकें कि चाबी वाला बन्दर दूध की शीशी मुँह में किस तरह लेकर पीता था।
मेरा बचपन? वो कहाँ छिपा बैठा है?
मैंने अपनी उम्र रसीदा बदरंग खाल को बार-बार साठ की दहाई के मुहम्मद रफ़ी के फि़ल्मी गानों की नोकों से उधेड़ा और छीला। इब्ने सफ़ी के नाविलों की धारदार क़ैंची से बातिन के ये मोटे-मोटे बेरहम धागे और सुतलियाँ काट डाले। पुराने दोस्तों के साथ पुरानी बातें करता रहा और मेरे हाफि़ज़े को इन सबकी कुमक मिलते रहने के बावजूद, बचपन इस तरह न मिला जिस तरह मैं चाहता हूँ। हालाँकि, वो मेरे अन्दर ही कहीं है। खाल के नीचे, हड्डियों के गूदे में, कहीं चिपका हुआ, घर के किसी तारीक गोशे में पड़े प्लास्टिक की गेंद के एक टूटे हुए टुकड़े की तरह, अपने बचपन के इन टूटे हुए टुकड़ों पर जब तवज्जोह मर्कूज़ करते हुए ग़ौरो फि़क्र करता हूँ तो एक बात सामने ज़रूर आती है और वो ये कि आहिस्ता-आहिस्ता मेरे अन्दर एक किस्म की कीनापर्वरी पैदा होती जा रही थी। एक ख़तरनाक किस्म का कीना, जिसके अन्दर एक घटिया किस्म का तशद्दुद पोशीदा था। दूसरों को ईज़ा पहुँचाने की एक नाक़ाबिले फ़हम ख़्वाहिश अक्सर मेरे अन्दर पैदा होती रहती थी। मसलन बार-बार मेरा जी चाहता था कि अपने पास बैठे अफ़राद के जिस्म में कोई बारीक सी सूई चुभो दूँ, या खाना पकाते हुए किसी शख़्स के खाने में चुपके से थूक दूँ, और भी इसी किस्म की घटिया और ग़ैर अख़लाक़ी हरकतें करता फिरूँ।
मैं मिसाल के तौर पर एक वाकि़ए का जि़क्र करूँगा, कुछ दिनों से मैं देख रहा था कि सर्वत मिमानी और फि़रोज़ ख़ालू आपस में बहुत बेतकल्लुफ़ होते जा रहे हैं और मामूं और मिमानी के आपसी झगड़े ज़रूरत से ज़्यादा बढ़ते जा रहे हैं। यहाँ तक कि एक रात मामूं ने मिमानी को चप्पलों से मारा-पीटा भी। मुझे ख़ुशी हुई क्योंकि सर्वत मिमानी बेहद बद-दिमाग़ किस्म की औरत थीं। उनके कोई औलाद न थी मगर मैंने हमेशा ये महसूस किया कि वो मुझसे चिढ़ती थीं। इसकी कोई-न-कोई वजह ज़रूर होगी जिसका मुझे इल्म नहीं। इन्सान को वजहों के पीछे हाथ धोकर नहीं पड़ना चाहिए। बस तेल देखना चाहिए, और तेल की धार। अगरचे इस कारआमद उसूल पर मैं ख़ुद भी क़ायम न रह सका।
उस शाम बावर्चीख़ाने से उस मसाले की बू आ रही थी जिसके साथ मछली भूनी जाती है। मुझे मसाले वाली मछली बहुत पसन्द है मगर मेरी छठी हिस ने मुझे आगाह कर दिया था कि आज ये अच्छा शगुन नहीं है। कोई भी बुरा वाकि़या किसी के भी साथ पेश आ सकता है। मगर मैंने उस रात मछली ख़ूब मज़े ले-ले कर खाई। मछली सर्वत मिमानी ने पकाई, अगर अंजुम बाजी पकातीं तो लुत्फ़ दो-बाला हो जाता। रात का खाना साथ ख़ैरियत के खा लिया गया और कोई नाख़ुशगवार वाकि़आ या हादसा पेश नहीं आया। मेरी छठी हिस भी सो गयी।
वो शायद अप्रैल के शुरू के दिन थे। बाहर वाले दालान से मुल्हक़ एक आड़ में छोटा-सा बरामदा था जिसकी छत लकड़ी की कन्डियों और शहतीरों की थी। इन अतराफ़ में इन दिनों शहद की मक्खियाँ जगह-जगह अपने छत्ते बनाती फिरती थीं। बरामदे में एक शहतीर पर शहद की मक्खियों ने बहुत बड़ा-सा छत्ता बना रखा था। तेज़ कत्थई रंग का बेहद नफ़ासत और नाप तौल कर बनाया गया छत्ता जो कभी-कभी छत पर फ़ानूस की तरह लटका हुआ नज़र आता था । घर में किसी की हिम्मत न थी कि उसे छेड़े।
बरामदे के सामने बावर्चीख़ाने का उक़बी रौशन-दान खुलता था जिससे ये छत्ता साफ़ नज़र आता था। रात के तक़रीबन दो बज रहे थे और मुझे नींद नहीं आ रही थी। कुछ बेचैनी-सी थी। घर के तमाम अफ़राद इधर-उधर दुबके हुए सो रहे थे। मुझे कुछ मीठा खाने की ख़ाहिश हुई। रात में अक्सर मैं छिपकर मीठा खाता था जिसके लिए मुझे बावर्चीख़ाने में जाना पड़ता था। मैंने सोचा कि थोड़ी शक्कर ही फाँक लूं। अपने इरादे को अमली जामा पहनाते हुए मैं बिस्तर से उठता हूँ और बिल्ली की चाल चलते हुए बावर्चीख़ाने तक पहुँचता हूँ। बहुत आहिस्तगी और कमाल-ए-एहतियात से काम लेता हुआ में बावर्चीख़ाने का दरवाज़ा खोलता हूँ । अन्दर दाखि़ल होता हूँ। अँधेरे बावर्चीख़ाने में मछली की बसांध भरी हुई है। बग़ैर बत्ती जलाए, अंदाज़े से मैं शक्कर के डिब्बे तक पहुँचता हूँ। रौशन-दान में से पाम का एक बड़ा-सा पत्ता अन्दर को चला आया है जो अप्रैल की रात में चलने वाली ख़ुशगवार हवा में आहिस्ता-आहिस्ता लरज़ रहा है।
मैं शक्कर का डिब्बा खोलता हूँ, शक्कर को मुट्ठी में दबाए हुए उसे मुँह में डालने ही को होता हूँ कि एक अजीब-सी आहट सुनायी देती है।
मेरा कनकटा ख़रगोश?
लूसी या जैक?
कोई बिल्ली?
या वो स्याह नाग?
मैं ख़ौफ़ज़दा हो जाता हूँ। मेरी बन्द मुट्ठी खुल जाती है। सारी शक्कर अंधेरे में फ़र्श पर गिर जाती है।
मगर नहीं ये इन्सानी साँसें हैं और इन्सानी सरगोशियाँ।
कोई बरामदे में है।
मैं हिम्मत से काम लेता हूँ और एक बड़े-से पतीले पर पैर रखकर रोशन-दान से झाँकता हूँ। पाम का पत्ता मेरी आँखों और नाक पर चुभने लगता है। मेरे पूरे चेहरे पर सख़्त किस्म की खुजली होने लगती है जिसको बर्दाश्त करते हुए उचक कर मैं देखता हूँ।
मद्धम-सी चाँदनी में दो साए आपस में इस तरह गुथे हुए नज़र आए जैसे कुश्ती लड़ रहे हों। एक पल को उनके चेहरों पर ख़ास ज़ाविए से रोशनी पड़ती है। मैं उन्हें पहचान लेता हूँ।
वो सर्वत मिमानी और फ़ीरोज़ ख़ालू हैं।
मेरे अन्दर एक ज़बरदस्त किस्म की नफ़रत का भँवर पैदा हो गया। मेरे अन्दर कीना और ईष्र्या अपनी हदों को पार करने लगे। मैं सरापा तशद्दुद बन गया, मगर कुछ न कर पाने की सकत के एहसास ने मेरे पूरे जिस्म पर कपकपी तारी कर दी।
ठीक उसी वक़्त चाँदनी-रात में मुझे वो नज़र आया। वो छत्ता जो ठीक इन दोनों के सिरों पर ही लटक रहा था।
मैं काँपते हुए पैरों से पतीले से नीचे उतरा। तारीक बावर्चीख़ाने में अटकल से मिट्टी की उस हाँडी तक पहुँचा जिसमें नमक के डिब्बे पड़े हुए थे। मैंने नमक का एक बड़ा-सा ढेला हाथ में दबाया और दुबारा उस पतीले पर चढ़ गया। इस बार मैं काँप नहीं रहा था। हैरत-अंगेज़ तौर पर मैं ख़ुद को बहुत ताक़तवर महसूस कर रहा था।
दो तारीक साये दो जानवरों की मानिन्द एक-दूसरे से गुँथे हुए और लिपटे हुए हैं। मैं पाम के पत्ते को एक हाथ से थोड़ा-सा हटाता हूँ। शहद की मक्खियों के छत्ते पर अपना निशाना साधता हूँ। साँस रोककर अपने दाएँ हाथ में अपने जिस्म और रूह की तमाम ताक़त को मुंतकि़ल करता हूँ और फिर नमक का ढेला छत्ते पर ज़ोर से फेंककर मार देता हूँ। हल्की-सी आवाज़ आती है। जिसके बाद एक अजीब और पुर असरार-सी भनभनाहट गूँजती है। जैसे मौत ग़्ाुस्से में भरी सरगोशियाँ कर रही हो।
इन दोनों की हज़ यानी चीख़ों से सारा घर जाग जाता है। मक्खियाँ दोनों पर बुरी तरह चिमट गयी थीं। चाँदनी-रात में मक्खियों के साये भयानक तारीक धब्बों की तरह उड़ते और गर्दिश करते फिर रहे थे।
ग़ैज़-ओ-ग़ज़ब से भरी शहद की मक्खियाँ उनके कपड़ों में घुस गयी थीं। फ़ीरोज़ ख़ालू को मैंने भागते हुए ज़ीने की तरफ़ जाते देखा। वो छत पर दौड़ रहे थे, शायद मुंडेर से बराबर वाले घर या गली में छलांग लगाने के लिए। उनकी क़मीज़ और पतलून उनके काँधों पर थी। वो बार-बार अपने निचले हिस्से पर इधर-उधर हाथ मार रहे थे शायद उनके पोशीदा आज़ा को मक्खियों ने डंक मारे थे।
सर्वत मिमानी बुरी तरह चीख़ें मार रही थीं और दीवानों की तरह ज़मीन पर लोटें लगा रही थीं। कभी वो उठकर खड़ी होतीं और बगुले की तरह चकराने लगतीं। उनके बाल खुलकर उन के घुटनों तक जा रहे थे। फिर ज़मीन पर गिरकर लोटें लगाने लगतीं। मैंने उन्हें अपना जंपर उतारते हुए देखा, उनकी ग़ैरमामूली तौर पर बड़ी और भारी-भारी लटकी हुई छातियों की परछाईयाँ कभी ज़मीन पर पड़तीं, कभी दीवार पर। उनके बाल खुल गए थे। उनका चेहरा उन में छिप गया। उनको देखकर लगता था जैसे वो कोई ख़ौफ़नाक तांडव नाच नाच रही हों। एक चुड़ैल, एक आसेब की मानिन्द। उनकी चीख़ें कभी भारी और तवील हो जातीं और कभी पतली, बारीक और मुख़्तसर। वो किसी ग़ैर इन्सानी शै में तब्दील हो चुकी थीं। थोड़ी देर बाद बिलकुल ख़ामोश होकर वो ज़मीन पर एक वज़नी दरख़्त की मानिन्द आ गिरीं। मुझे लगा कि वो मर गईं।
घर के तमाम अफ़राद ख़ौफ़-ज़दा से इधर-उधर खड़े या छिपे हुए थे।
आहिस्ता-आहिस्ता वो ख़ौफ़नाक भनभनाहट मद्धम पड़ती गयी। मक्खियों के साये सिमटने लगे। अप्रैल की हवा फिर चलती हुई महसूस हुई। सर्वत मिमानी अब तक़रीबन बिलकुल नंगी फ़र्श पर शायद बेहोश पड़ी थीं। घर के दूसरे लोग इधर को आने लगे। मेरा सारा जिस्म पसीने से भीग गया। दिल इस तरह धड़क रहा था कि मुझे महसूस हुआ कि मैं यहीं, उसी जगह, उसी बावर्चीख़ाने में मर जाऊँगा।
मगर नहीं, अचानक फिर एक मक्कार हिम्मत और चालाकी ने मुझे न जाने कहाँ से नमूदार होकर सहारा दिया । मैं तेज़ी से बावर्चीख़ाने से निकलकर बरामदे और आँगन में इकट्ठा दूसरे अफ़राद में जाकर घुल-मिल गया। इस अफ़रातफ़री में किसी ने भी मुझे वहाँ से निकलते नहीं देखा।
ये तो ख़ैर हुई कि छत्ता टूटकर नीचे नहीं गिरा था। नमक के ढेले से वो शायद सिफऱ् हिल कर रह गया होगा। इसी लिए मक्खियाँ अपना बदला लेने के बाद दुबारा छत्ते पर जाकर चिपक गईं थीं। नूरजहाँ ख़ाला ने सर्वत मिमानी के नंगे बदन पर अपना सूती दुपट्टा डाल दिया था। मगर दुपट्टा डालने से पहले मैंने उनके सीने की तरफ़ देखा था। वहाँ अब छातियाँ न थीं। वो सूजकर एक बहुत बड़े से थैले में बदल चुकी थीं। मुझे आटा लाने वाला थैला याद आ गया। तब उन्हें उठाकर अन्दर लाया गया। उनका पूरा चेहरा सूजकर कुप्पा हो गया था। आँखें नज़र ही न आती थीं। उनके होंठ किसी दरिन्दे की थूथनी की तरह नीचे लटक रहे थे। चेहरा इस क़दर लाल था जैसे कोई बड़ा-सा अंगारा, मुझे ये हरगिज़ इल्म न था कि शहद की मक्खियों के काटने से इस हद तक मुआमला बिगड़ जाएगा। कोई कह रहा था कि अगर फ़ौरन अस्पताल न ले जाया गया तो वो मर भी सकती थीं।
‘मर जाने दो, मर जाने दो उस कुतिया को।’ मामूं चीख़े। सबने झपटकर मामूं का मुँह बन्द कर दिया, मगर वो दुबारा पागलों की तरह चीख़ने लगे। ‘पूछो। पूछो उस छिनाल से, ये किस के साथ मुँह काला कर रही थी। कौन छत पर भागा था।’
अंजुम बाजी ने मेरा हाथ पकड़ा और कहा-
‘चलो गुड्डू मियाँ, तुम जाकर सो जाओ। मैं भी तुम्हारे साथ चलती हूँ।’ अंजुम बाजी मेरा हाथ पकड़कर मुझे अन्दर वाले दालान में ले आईं। उन्होंने प्यार से मुझे सो जाने के लिए कहा। मैंने उनका चेहरा देखा। वो बहुत उदास थीं। इतनी उदास कि उनके चेहरे की पाकीज़गी तक इस अफ़्सुर्दा रंग की ओट में कहीं गुम हो गयी थी।
और मैं सो गया। मैं बाक़ायदा सो गया। इतना बड़ा शैतानी कारनामा अंजाम देने के बाद मैं बेख़बर सो गया।
दूसरे दिन की सुबह ग़ैरमामूली तौर पर सूनी और ख़ामोश थी। पता चला कि सर्वत मिमानी बच तो गयी थीं मगर अब वो इस घर में नहीं थीं। मुझे यही बताया गया कि वो इलाज के लिए बांग्लादेश अपने मायके के कुछ रिश्तेदारों के यहाँ चली गयी थीं।
इसके बाद सर्वत मिमानी को मैंने कभी नहीं देखा। चन्द दिनों पहले कहीं से ये उड़ती-उड़ती ख़बर आयी थी कि पाकिस्तान में उनका इंतिक़ाल हो गया। वो शायद बांग्लादेश से पाकिस्तान मुंतकि़ल हो गयी थीं।
फ़ीरोज़ ख़ालू जो मुहल्ले में ही रहते थे और हमारे निस्बतन दूर के रिश्तेदार थे, उनका भी कोई पता न चला। वो तो इस तरह ग़ायब हुए जैसे उन्हें ज़मीन खा गयी हो। उनकी बीवी का इस वाक़ये से पहले ही इंतिक़ाल हो चुका था। और बच्चे अपनी ननिहाल में रहते थे।
जहाँ तक मामूं का सवाल है वो एक अर्से तक गुमसुम रहे। फिर उन्होंने अपने आपको मुक़द्दमों और कचहरी की दुनिया में पूरी तरह ग़कऱ् कर दिया।
ये सब मैंने बड़ी मुश्किल से याद करके लिखा है। और अब मुझे ये भी एहसास होता है कि वो सब जितना भयानक था, उतना ही मज़हकाख़ेज़ भी। यानी ये कि दो नफ़स जब जिन्सी अमल में मशग़्ाूल हों तो उनपर शहद की मक्खियों के डंगारे का हमला...! और फ़ीरोज़ ख़ालू के पोशीदा आज़ा पर ठीक उस वक़्त ऐसी मुसीबत जब वो आज़ा बज़ात-ए-ख़ुद दूसरे जहानों की सैर कर रहे हों। बहरहाल, मुज़हकाख़ेज़ी और भयानकपन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक के साथ दूसरी की मौजूदगी नागुज़ीर होती है। मिसाल के तौर पर आप भूत को ही ले लीजिए। वो डरावना और मसख़रा एक साथ है। बस बात ये है कि आप किस पहलू पर ज़ोर देते हैं। मेरे अन्दर उस ज़माने में दूसरे को ईज़ा पहुँचाने का ख़ब्त इस हद तक बढ़ चुका था कि किसी भी कि़स्म के एहसास-ए-जुर्म वग़ैरह से मेरा दूर का भी वास्ता न था और ज़मीर किस चिडि़या को कहते हैं, इसका कोई इल्म कम-अज़-कम उस ज़माने में होने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था। फिर ये भी है कि मैं अगर ये हरकत न करता तब भी कुछ-न-कुछ होकर रहता। एक ग़लत वक़्त और ग़लत दिन मसालेदार मछली का पकना गुल खिलाकर ही रहता। ये मेरा ईमान और ईक़ान है।
यक़ीनन ये कहा जा सकता है कि मेरे अन्दर मुज्रिमाना जरासीम बहुत बचपन से ही पल रहे थे। मगर एक ऐसा मुजरिम जिसकी सज़ा जिस अदालत में तै होना थी वो अभी पैदा नहीं हुई थी। लिहाज़ा, एक अर्से तक बल्कि शायद ताजि़न्दगी मैं इसी तरह छुट्टे बैल की तरह घूमता रहूँगा। और अपने ऊपर इसरार के इतने दुबैज़ और स्याह पर्दे डाले रखूँगा कि मेरा बातिनी वजूद अपने आप में एक इसरार, एक भेद, एक ख़ुफि़या रियाज़ी में बदल जाएगा।
और ये सब होने में बहुत देर नहीं है। अगर मैं नावेल लिखने के क़ाबिल होता तो मेरे मुखौटे फि़तरी तौर पर आहिस्ता-आहिस्ता सरककर नीचे गिरते जाते मगर मुक़द्दमों की अपीलें, अजऱ्दाश्तें और अदालतों में होने वाली बहसें, ये सब तो अपने आप में ख़ुद स्याह नक़ाबें हैं। हर वकील, हर गवाह और हर मुंसिफ़ एक नक़ाबपोश है।
मैं जो ये सब लिख रहा हूँ (लिख भी रहा हूँ या बड़बड़ा रहा हूँ?) तो ये भी एक अपील, एक अजऱ्दाश्त के सिवा कुछ भी नहीं। इसको किस अदालत में दाखि़ल करना है, ये अभी मुझे नहीं मालूम। बस मैं उसे हाथ में पकड़े-पकड़े भटक रहा हूँ। अपनी अदालत की तलाश में, जब भी मुझे मिल जाएगी, मैं वहाँ उसे दाखि़ल करके ख़ामोशी के साथ अपने सारे मुखौटे गिरा दूँगा। मैं वहाँ अदालत के सामने नंगा हो जाऊँगा। मैं ये जिस्म तक उतार कर फेंक दूँगा।
मई का तपता हुआ और लूओं के झक्कड़ों से हिलता और काँपता हुआ महीना आ पहुँचा। ये बड़ा शानदार और पुरवक़ार गर्मी का ज़माना था। हर शै तप रही थी। गर्मी हर शै को आग की मानिन्द जलाकर राख कर देने के दर पे थी। हर शै को पवित्र करने के लिए तैयार। यही काम तो आग करती है।
अंजुम बाजी की शादी की तैयारियाँ होने लगीं। तारीख़ भी मुक़र्रर हो गयी। शादी, बरसात का मौसम गुज़र जाने के बाद होना तय पाई थी मगर ये शादी आफ़ताब भाई के साथ नहीं हो रही थी जिसका मुझे अंदेशा था। शादी कहीं और हो रही थी और उनका होने वाला शौहर सऊदी अरब में मुलाज़मत करता था। मैंने ये वाज़ेह तौर पर महसूस किया कि अंजुम बाजी ज़्यादातर रोती रहती हैं और अपने ब्याह के कामों में रत्ती बराबर भी दिलचस्पी नहीं लेतीं। मुझे न जाने क्यों इससे बड़ी तमानियत सी महसूस होती।
एक दिन मैंने उनसे पूछा थाः
‘आप मुझे भूल तो नहीं जाएँगी?’
वो पहले तो कुछ नहीं बोलीं, फिर मेरी गोद में बैठे कनकटे ख़रगोश को उठाकर अपने सीने से लगा लिया और सिसकियाँ लेने लगीं।
‘आप मेरी वजह से रोती हैं न!’
अंजुम बाजी ने ख़रगोश ज़मीन पर उतार दिया और मुझे ख़ाली-ख़ाली बेगानी नज़रों से देखने लगीं।
जून का महीना आते-आते मैं कुछ और बड़ा हो गया। ऐसा ही होता है। आप किसी भी दिन बल्कि किसी भी लम्हे अचानक बड़े हो जाते हैं, तब्दील हो जाते हैं और आपको अपने बड़े हो जाने या बदल जाने का एहसास तक नहीं होता। तब्दीली का अमल इतना ही पुरअसरार है जितना कि ज़मीन का गर्दिश करना, जिसका इन्सान को पता तक नहीं चलता।
मैं कुछ और बड़ा हो गया या मेरे जिस्म में एक-आध इंच उम्र और बढ़ गयी। इन दिनों मुझे जानवरों से बहुत लगाव हो गया था। सुंबुल तोता और कनकटा ख़रगोश तो थे ही। हमारे घर में कहीं से गिलहरी के दो बच्चे आ गए थे। मैंने जि़द करके उन्हें तक़रीबन पाल ही लिया। मैं उनको जूते के डिब्बे में रूई भरकर रखता था जिससे कि वो उनका घोंसला बन जाये। छोटी-सी तामचीनी की कटोरी में दूध देता था और जो कुछ भी, दाना दुनका वो खाते थे। नूरजहाँ ख़ाला ने उन के नाम भी रख दिए थे। लूसी और जैक। मगर जब वो बड़े हुए तो इन्सानों से ख़ासा हिल जाने के बावजूद उन्होंने आम के दरख़्त के एक खोके में अपना बाक़ायदा घोंसला बना लिया। रात में वो वहाँ सोते थे और दिन में सारे घर बल्कि बिस्तरों तक पर घूमा करते थे।
जून के आखि़र में जब हल्की-हल्की बारिश शुरू हुई तो दोनों को एक अजीब मश्ग़ला हाथ आ गया। बारिश की बूँदें जैसे ही टीन पर गिरतीं वो दासे पर से उछलकर अपनी ख़ूबसूरत दुमें सर पर रखकर भागते हुए दरख़्त के खोके में घुस जाते और फिर वहाँ से अपना मुँह बाहर निकालकर बारिश देखा करते।
वैसे अभी माॅनसून नहीं आया था और उमस का ये आलम था कि सारा बदन गीला और चिकना हो गया था। अब कह सकता हूँ कि वो इन्सानी इर्तिक़ा के इब्तिदाई पड़ाव का तज़ुर्बा था। मुझे अपनी खाल मछली की खाल की तरह लगती थी। पसीना सूखता ही न था। जो शख़्स भी क़रीब से गुज़रता, तो पसीने की बदबू से नाक सड़ाकर रख देता। ज़्यादा-तर अफ़राद दालानों से निकलकर रात में आँगन में ही सोया करते।
ऐसी ही उमस भरी एक शाम का जि़क्र है। मैं छत से पतंग उड़ाकर नीचे आया। बावर्चीख़ाने में एक खट्टी-मीठी-सी ख़ुशबू जो मुझे बदबू महसूस हुई, आ रही थी। मैं अन्दर गया।
नूरजहाँ ख़ाला चूल्हे के सामने बैठी थीं और एक हाँडी में बार-बार कफ़गीर चला रही थीं।
‘क्या पक रहा है?’
‘आम रस।’ नूरजहाँ ख़ाला ने इसी तरह कफ़गीर चलाते-चलाते जवाब दिया। उनके कपड़ों से पसीने और आम की मिली-जुली बू ने मेरा जी मचलाकर रख दिया। मुझे न आम पसन्द है और न इससे बनी कोई दूसरी शै।
मैं जैसे ही वापिस जाने के लिए मुड़ा, मुझे महसूस हुआ कि मेरे पाँव डगमगा रहे हैं। दोनों वक़्त मिल रहे थे, आसमान पर एक पीला-सा ग़ुबार था, जैसे आँधी आते-आते रह गयी हो। नहीं, ठीक नहीं है। आम रस आज नहीं पकता तो अच्छा था। मैं धीरे-से बड़बड़ाया। मेरी वो मनहूस छठी हिस शायद जागने वाली थी। मगर फिर मैंने ख़ुद ही अपनी तवज्जोह ज़बरदस्ती कहीं और मर्कूज़ कर दी। मैंने लूसी और जैक को चुमकारकर ज़ोर-ज़ोर-से आवाज़ें देना शुरू कर दी।
दोनों अपनी दुमें सर पर उठाए दौड़े चले आए। मैं थोड़ी देर तक उनसे खेलता रहा। फिर जैक कुछ सूँघता हुआ बावर्चीख़ाने में चला गया और लूसी छोटे चचा के पलंग के पाए पर चढ़ने-उतरने लगी।
रात हो गई, लालटेन जल गयी। मुझे भूख लगने लगी। खाना तो पहले ही तैयार हो चुका था। बस आम रस का इंतिज़ार था। वो भी अब पक गया था।
मैं बावर्चीख़ाने में देख रहा था कि नूरजहाँ ख़ाला ने आम रस की हाँडी को चूल्हे से उतार लिया है।
जैक उनके पास ही अपने अगले दो पंजों में कुछ दबाए कुतर रहा था। नूरजहाँ ख़ाला ने चूल्हे में से सुलगती हुई लकड़ी निकाली और वहीं बैठे-बैठे लोटे से पानी डालकर उसे बुझा दिया।
जलती-सुलगती लकड़ी पर जैसे ही पानी गिरा, सन-सन की एक तेज़ आवाज़ बावर्चीख़ाने में गूँजी। इन्सान इस आवाज़ से सदियों से मानूस हैं मगर बेज़बान जानवर नहीं। जैक इस (भयानक आवाज़?) आवाज़ से बुरी तरह ख़ौफ़-ज़दा होकर हवासबाख़ता होते हुए ज़ोर-से उछला और चूल्हे में जा गिरा। चूल्हे में ताज़ा-ताज़ा भोभल थी जिसकी तह में अँगारे दहक रहे थे।
वो चीं चीं की बड़ी दर्दनाक आवाज़ें थीं। सब चूल्हे की तरफ़ दौड़े, मैं ज़ोर-ज़ोर-से रोने लगा।
छोटे चचा ने उसे किसी तरह चूल्हे से बाहर निकाला। जैक चीं चीं करता हुआ, लड़खड़ाता, डगमगाता हुआ, फ़र्श पर इधर-उधर चक्कर लगा रहा था। उसके नन्हे-नन्हे पैर पूरी तरह जल गए थे और क़साई की दूकान पर रखे छीछड़ों की मानिन्द नज़र आ रहे थे। उसकी जिल्द पर से सफ़ेद धारियाँ ग़ायब थीं। उसकी दुम जलकर टूट गयी थी। और वो एक गिलहरी न होकर एक बदनुमा, ख़ारिश-ज़दा और गंदा, दुम कटा चूहा नज़र आ रहा था। थोड़ी देर तक वो इसी तरह उछलता-कूदता रहा, फिर ख़ामोश और निढाल होकर फ़र्श पर पड़ गया। छोटे चचा ने उसे हाथ से छुआ, मैंने देखा, उसकी आँखें ग़ायब थीं। सर की जली हुई खाल आगे को लटक रही थी।
‘दूध लाओ, दूध।’ अंजुम बाजी ने किसी से कहा, मगर नहीं, सब बेकार था। जैक ने इससे पहले ही दम तोड़ दिया।
बावर्चीख़ाने में सन्नाटा हो गया। उस रात किसी ने खाना नहीं खाया। मैं तमाम रात पलंग पर लेटे-लेटे रोता रहा। लूसी पता नहीं कहाँ थी।
कोई मेरे पास आने की या दिलासा देने की हिम्मत न कर सका। मगर शायद आधी रात रही होगी जब मेरा ख़रगोश आकर मेरे पैरों के पास बैठ गया। वो अपनी थूथनी मेरे पांव से रगड़ रहा था। पता नहीं कब मुझे नींद आ गयी।
सुबह मैं देर से उठा। छोटे चचा ने मुझे बताया कि लूसी भी मर गयी।
फ़ज्र की नमाज़ के बाद जब छोटे चचा मस्जिद से लौट रहे थे तो उनकी नज़र बे-ख़याली में बिजली के खम्बे की तरफ़ उठ गयी। उन्होंने देखा, ऊपर बिजली के खम्बे से होकर जहाँ बहुत-से तार जाते हैं, वहाँ इन बिजली के तारों में वो झूल रही थी, मुर्दा और अकड़ी हुई।
इस बार मैं रोया नहीं, बस ख़ामोशी-से ज़ीने की सीढि़याँ चढ़ता हुआ छत पर चला गया।
मुझे नहीं मालूम कि जानवर ख़ुदकुशी करते हैं या नहीं। मगर आज इस बात पर मुझे पूरा यक़ीन है कि लूसी ने ख़ुदकुशी की थी।
इस वाक़ये के बाद मैं अपनी इस ख़तरनाक सलाहियत से बेहद ख़ौफ़ज़दा और सरासीमा रहने लगा। मैं ख़ुदा से दुआ मांगता कि वो मुझसे ये सलाहियत, ये पुरअसरार हिस छीन ले। मैंने काफ़ी अर्से तक बावर्चीख़ाने की जानिब रुख भी न किया। मैं इसके क़रीब से भी गुज़रता तो नाक बन्द करके कि कहीं कोई ख़ुशबू न आ जाए और फिर कोई हादिसा, कोई बुरा वाकि़आ न रूनुमा हो जाए। मगर अब मुझे ये अपना बचपना और हिमाक़त ही नज़र आते हैं। अब तो ये मेरे लिए बहुत आम-सी और फि़त्री बात हो चुकी है। जैसे कोई पैदाइशी बहरा, गूँगा या अंधा हो, बिलकुल इस तरह ये ज़ाइद और ख़ौफ़नाक छठी हिस मेरे वजूद का वो पैदाइशी ऐब या महरूमी बन चुकी है जो अब मेरी आदत में शुमार है और जिसके साथ, बग़ैर किसी परेशानी या मुश्किल के, इत्मीनान के साथ मैंने जीना सीख लिया है। बल्कि सच्ची बात तो ये है कि इस मनहूस और काली सलाहियत ने मेरे अन्दर की कमीनगी और कीनापर्वरी को भी सहारा देकर उसे और ज़्यादा मज़बूत बना दिया है।
और फिर बारिश आ गयी। वो तो उमस और हब्स के रेशों में पहले ही से पोशीदा थी। एक रात जब मैंने अपनी कलाइयों और चेहरे को उंगलियों से छुआ, तब ही मुझे महसूस हो गया कि वो आ पहुँची है।
रात के तक़रीबन तीन बजे होंगे। जब बादलों की ज़बरदस्त गरज और चमक के साथ पानी बरसने लगा। साथ में बारिश की अज़ली रफ़ीक़ हवा भी आयी। उमस की दीवार टूटकर गिर गयी और मैं बाहरी दालान में टीन से लगे दासे से लगकर खड़ा हो गया। बराबर में सुंबुल का पिंजरा लटक रहा था। हवा के तेज़ झोंके में दासे में लटकी हुई लालटेन भक्-से बुझ गयी। सारा घर तारीक हो गया। एक-बार बहुत ज़ोर-से बिजली चमकी तो मैंने देखा कि तोते ने अपने परों में मुँह छिपा लिया है।
अँधेरे में, बारिश के भयानक शोर में मुझे भी डर लगने लगा। छतों के परनालो से ज़बरदस्त आवाज़ पैदा करता हुआ पानी बह रहा था।
बारिश के शोर में अचानक मैंने एक मुख़्तलिफ़ और पुरअसरार आवाज़ सुनी। एक अजीब-सी सरसराहाट और फुंकार ज़ीने के क़रीब बने मुगिऱ्यों के दड़बे की तरफ़ से आती हुई महसूस हुई। फिर बावर्चीख़ाने के दरवाज़े पर, फिर आम के दरख़्त के क़रीब और फिर मादूम हो गयी। ये बारिश की आवाज़ हरगिज़ न थी। बारिश का ज़ोर बढ़ता जा रहा था। मुझे सर्दी और ख़ौफ़, दोनों महसूस हुए। मैं जल्दी से अन्दर जाकर अपने पलंग पर लेट गया और चादर में मुँह ढाँपते ही मुझे गहरी नींद आ गयी।
सुबह जब मेरी आँख खुली तो बारिश हो रही थी। घर में कुछ हलचल-सी महसूस हुई। मालूम हुआ कि दड़बे में बन्द सारी मुर्गि़याँ मर गयी हैं।
अच्छन दादी ने बताया कि रात नाग का गुज़र इधर से हुआ था। वो इतना ज़हरीला है कि उसकी फुंकार से ही मुर्गि़याँ और कबूतर मुर्दा हो जाते हैं। उन्होंने ये भी बताया कि ये साँप इस घर का बहुत पुराना मकीन है, जब ये घर बन रहा था तब ही से, ये उसकी बुनियादों में रेंगता और सरसराता हुआ देखा गया था। उसके असर से जानवर तो कई बार मर चुके हैं मगर किसी इन्सान को इस नाग ने कभी नहीं डसा।
अच्छन दादी यूं तो गप मारने में मशहूर थीं मगर उनकी इस बात की ताईद घर के दूसरे अफ़राद ने भी की। अगर रात का वक़्त होता तो मुझे बहुत डर लगता मगर उस वक़्त तो मुझे इस नाग को देखने का तजस्सुस पैदा हो गया। रात और दिन का यही तो फ़कऱ् है। इन्सान रोज़ एक दोहरी जि़न्दगी जीता है। दिन में कुछ और रात में कुछ बल्कि एक दूसरी जि़न्दगी। ज़मीन की गर्दिश कोई मामूली वाकि़आ नहीं, उसे हमेशा याद रखना चाहिए। इस अमल को फ़रामोश करना हमेशा ख़तरनाक नताइज का मुअज़्िज़ब हुआ करता है।
‘आपने नाग को देखा है?’ मैंने अच्छन दादी से पूछा था। ‘हाँ, कई बार। जब मैं तेरह साल की थी और इस के बाद भी कई बार। उसके ऊपर ये बड़े बड़े बाल हैं। वो बहुत पुराना है और बिलकुल काला। ऐसा काला कि उसके आगे चिराग़ नहीं जल सकता।’ अच्छन दादी ने झुरझुरी लेते हुए जवाब दिया।
‘वो अक्सर बावर्चीख़ाने की कोठरी में भी दिखाई दिया है।’ नूरजहाँ ख़ाला ने कहा था। मगर इस पुरअसरार साँप को देखने की आरज़्ाू मेरे दिल में ही रह गयी। मैं जब तक अपने घर में रहा, मुझे वो कभी नज़र न आ सका। मगर अब मुझे उसे न देख पाने का कोई मलाल या अफ़सोस नहीं है क्योंकि मुझे मालूम है कि मेरे दिल में भी एक इतना ही ज़हरीला, इतना ही काला और इतना ही उम्र रसीदा एक नाग कुंडली मारे बैठा है। मैं ये जो अपनी याददाश्तें लिख रहा हूँ या सुना रहा हूँ, ये अपने दिल के इस स्याह नाग को पिटारी में बिठाकर उसके सामने बीन बजाकर तमाशा दिखाने के ही मुतरादिफ़ है। ये हिम्मत और जान जोखम का काम है, मैं तो ख़ैर अपनी अदालत को ढूंढ़ रहा हूँ या अदालत मुझे शिकारी कुत्ते की तरह सूंघती फिर रही है, मगर तुम सब क्या कर रहे हो?
मैंने तो अपना कोबरा दिखा दिया। ये रहा मेरा नाग, मगर तुम भी तो अपने-अपने नाग, अपने-अपने कोबरे दिखाओ। नेक दिल और शरीफ़ इन्सानो!
इस वक़्त मेरी याददाश्त को बहुत ज़्यादा मेहनत करना या भटकना नहीं पड़ रहा है। बारिश की याद, मेरे हाफि़ज़े को इस तरह अपने साथ लिए-लिए चल रही है जैसे बादल पानी को लेकर चलता है। बारिश कितनी भी अँधेरी हो, वो याददाश्त के लिए एक कभी न मिटने वाले उजाले की मानिन्द होती है। अब कुछ देर तक मैं जो भी लिखूँगा वो तहरीर क़लम की स्याही के ज़रिये नहीं बल्कि टीन पर टप-टप गिरती हुई बारिश के ज़रीये ख़ुदबख़ुद वजूद में आ जाएगी। बारिश की धुंध और उसकी बूँदें, उसकी बौछार और झावट और स्याह बादलों से मढ़ा हुआ आसमान, ये सब मेरे काग़ज़-क़लम हैं। बारिश ही वो लफ़्ज़ है जिसके सहारे में बग़ैर लुक्नत के, अपनी फ़र्राटेदार ज़बान में उस सीलन ज़दा और भीगे हुए ज़माने को हिफ़्ज़ कर सकता हूँ।
फिर वो रुकी नहीं। वो होती ही रही। किसी भी दिन का आसमान बादलों से ख़ाली न रहा। कभी मूसलाधार बारिश होती और कभी-कभी हल्की पड़ जाती। मगर फुहार बराबर पड़ती रही। दस दिन गुज़र गए। नदियाँ ख़तरे के निशान के ऊपर बहने लगीं। बांध खोल दिए गए और पानी ने आस-पास के इलाक़ों को डुबोकर रख दिया।
बाढ़ आ गई, इस बाढ़ में इन्सानों के साथ उनके मवेशी भी बह गए। शहर की सड़कों पर घुटनों-घुटनों पानी था। मुहल्ले के कई घरों की छतें और दीवारें गिर गईं। लोग इन गिरती हुई छतों और दीवारों के नीचे दब-दब कर मर गए। मगर बारिश न रुकी।
हमारा घर काफ़ी पुख़्ता और मज़बूत था, मगर उसकी दीवारों में जगह-जगह दरारें पड़ गईं और दालानों और कोठरियों की छतें बुरी तरह टपकने लगीं। पलंग, बिस्तर, संदूक़, मेज़, कुर्सियाँ, सब पानी से तरबतर हो गए। बावर्चीख़ाने का तो सबसे बुरा हाल था। उसकी छत से तो पानी तक़रीबन उसी तरह नीचे आ रहा था जैसे आँगन में। चूल्हा ठंडा पड़ गया। खाना दालान में अँगीठी रखकर पकाया जाने लगा।
बावर्चीख़ाने के बर्तन, तेल, घी, अनाज और मसाले-सब पानी में डूबे पड़े थे।
एक दिन घर के कच्चे आँगन में भी घुटनों-घुटनों पानी भर गया। सड़कों की नालियाँ बन्द थीं और पानी की निकासी का कोई रास्ता न था। बावर्चीख़ाना क्योंकि आँगन की सतह से बिलकुल मिला हुआ था इसलिए वहाँ भी पानी आ गया। बावर्चीख़ाने के बर्तन उसी पानी में बह-बहकर आँगन में तैरने लगे। देगचियाँ, पतीले, तसले, चमचे, कफ़गीर, पतीलियाँ और तवे, सब आँगन में बहते चले जा रहे थे। वो घर की नाली से बाहर निकल जाना चाहते थे।
पूरा घर बारिश रुकने की दुआएँ मांगने लगा। आँगन में चलना दुश्वार हो गया। लोग फिसल-फिसलकर गिरने लगे। पाख़ाने और दरवाज़े तक जाने के लिए चंद ईंटें रख दी गईं थीं जो अब पानी में पूरी तरह डूब चुकी थीं और नज़र न आ रही थीं। नारंगी के एक छोटे-से दरख़्त में अच्छन दादी ने एक सफ़ेद पुजऱ्े पर ‘क क क’ लिखकर लटका दिया। आँगन में पानी और काई के सिवा और कुछ न था। जब वो ये सफ़ेद पुजऱ्ा दरख़्त में लटकाकर जल्दी-जल्दी दालान की जानिब वापिस आ रही थीं, तब ही काई में उनका पैर फिसल गया। वो चारों ख़ाने चित्त गिरीं। वो काई और कीचड़ में लथ-पथ थीं। उनके कूल्हे की हड्डी टूट चुकी थी। (इस के बाद वो जब तक जिईं, साहिब फि़राश ही रहीं और मुझे हमेशा काई में लिथड़ी हुई महसूस हुईं) घर में नालियों से बह-बहकर हशरात-उल-अजऱ् चले आए। मेंढ़क और कछुवे, कनखजूरे और कान सलाइयाँ। केंचुए और साँप के छोटे-छोटे बच्चे भी। हद तो ये थी कि एक दिन छोटी-छोटी मछलियाँ भी। पूरा घर काई की बसांध से भर गया और उसकी हर दीवार हरी और काली नज़र आने लगी। अन्दर की दीवारों पर सीलन और पानी ने आकर सारी क़लई नेस्त-ओ-नाबूद कर दी। गारा और चूना जगह-जगह से फूल कर नीचे गिरने लगा। वहाँ तरह-तरह के धब्बे और शक्लें सी बनती नज़र आने लगीं। भयानक और बोलती हुई सूरतों, ख़ुदरौ घास और पौधों ने दीवारों की मुंडेरों पर फैलना शुरू कर दिया। आसमान फट गया था और शायद ज़मीन भी जल्द ही पैरों के नीचे से फिसलकर ग़ायब हो जाने वाली थी। तूफ़ानी बारिश में, मैं अपने कनकटे ख़रगोश के साथ दालान, कभी कोठरी और कभी दासे के क़रीब दुबका रहता और बारिश देखता रहता। जब कभी बिजली ज़ोर-से कड़कती तो नूरजहाँ ख़ाला के मुँह से बेइख़्ितयार निकलता या अल्लाह ख़ैर।
रात में इस बारिश की आवाज़ महीब और पुरअसरार हो जाती। टीन पर गिरती हुई बारिश अब मुझे उस मातमी बाजे की याद दिलाती जो मुहर्रम के दिनों में तख़्तों के साथ बजाया जाता है।
बारिश की ये आवाज़ आहिस्ता-आहिस्ता सन्नाटे में बदलती जाती थी। जैसे कोई उदास और मातमी मौसीक़ी आखि़र में ख़ामोशी या एक गहरी चुप में जाकर खो जाती है। अब मेरे कान इस बारिश की आवाज़ के आदी हो चुके थे। इसलिए मेरे लिए अब रात के सन्नाटे और बारिश में कोई फ़कऱ् नहीं रहा। मुझे नींद आने लगी, उन रातों में, मुझ पर जल्द ही नींद का ग़लबा हो जाता और मैं गहरी नींद सोने लगा। न सिफऱ् सोने लगा बल्कि ख़ाब भी देखने लगा। ऐसे ख़ाब जिन्हें मैं आज तक नहीं भूला।
कुछ बीमारियाँ, आदतें, इज़्ितरारी अमल या रद्दे अमल वग़ैरह विरसे में मिल जाते हैं। हमारे घर के तक़रीबन तमाम अफ़राद की अक्सर सोते में अपने ही दाँतों से ज़बान कट जाती थी। जैसे वो एक लज़्ज़त आगीं या वहशत-अंगेज़ ख़ाब देखते थे। वो सुबह को आँखें मलते हुए उठते और उनके मुँह से ठोढ़ी की तरफ़ बहती हुई एक ख़ून की लकीर होती।
अब तक मैं बचा हुआ था। सोते में, मेरी ज़बान दाँतों के दरम्यान कभी नहीं आयी थी मगर इस दफ़ा बारिश और सैलाब की इन पुरअसरार रातों में, जब में बहुत गहिरी नींद सोने लगा और ख़्वाब देखने लगा तो सुबह को जागने पर मेरे मुँह से भी ख़ून की पतली सी लकीर ठोढ़ी पर बहती नज़र आने लगी। मैं उसे अक्सर शहादत की उंगली से पोंछ दिया करता।
इन ख़ाबों में हमेशा एक लड़की होती या ये कि लड़की न होकर वो बारिश थी जिसने ख़ाब का चोला पहन लिया था। हर बार के ख़ाब में उस की सूरत मुख़्तलिफ़ होती मगर मेरे अन्दर, ज़ीरीं सतह पर ये एहसास हमेशा मौजूद रहता कि वो एक ही लड़की है। वही एक वजूद जो हर ख़ाब में आता है। मैं लाख कोशिश कर लूँ मगर उसका हुलिया लफ़्ज़ों में नहीं बयान कर सकता। कभी लगता कि वो चेहरा दुनिया के हर इन्सान से मिलता-जुलता है। और कभी ये महसूस होता कि वो चेहरा किसी से भी मुशाबहत नहीं रखता। कुछ शक्लें, कुछ सूरतें ऐसी होती हैं जो आँखों की गिरफ़्त में नहीं आतीं। वो आँखों से होकर निकल जाती हैं। और फिर ख़ु़ुशबू बनकर रूह में उतर जाती हैं, ये और बात है कि हर ख़ुशबू आपको महज़ मसर्रत ही नहीं फ़राहम करती, वो कभी-कभी बल्कि अक्सर बेहद अफ़्सुर्दा भी कर देती है।
वो अपनी हथेली आगे बढ़ाती है। कलाइयों तक उसके हाथों में मेहँदी लगी हुई है। मैं ग़ौर से देखता हूँ, गोरी, उजली साफ़, नाज़्ाुक सी हथेली पर एक सूखा शामी कबाब रखा हुआ है।
‘लो, खा लो।’
मैं एहतियात के साथ शामी कबाब उठाता हूँ। शामी कबाब बफऱ् की तरह ठंडा और उदास है। मैं शामी कबाब का एक टुकड़ा दाँतों से काटता हूँ।
मन्न व सल्वा शरमाकर एक कोने में छिप जाता है। लड़की भी अचानक गुम हो जाती है।
मेरी आँख खुल जाती है। बारिश हुए जा रही है।
‘गुड्डू मियाँ! तुम्हें खाने में सबसे ज़्यादा क्या पसन्द है?’ लड़की पूछती है। इस बार उसकी कलाइयों में सब्ज़ चूडि़याँ हैं। चूडि़याँ उसकी खनकदार आवाज़-से ख़ुद भी खनकने लगतीं हैं।
‘कोरमा।’ मैं जवाब देता हूँ।
और?’
‘पुलाव।’
‘और?’
‘अरहर की दाल।’
‘और?’
‘और... और...’ मैं ज़हन पर ज़ोर देता हूँ। फिर जोश भरे लहज़े में कहता हूँ। ‘और सबसे ज़्यादा तो गुर्दा कलेजी।’
‘गुर्दा कलेजी?’
‘हाँ! वो मुझे बहुत-बहुत पसन्द है।’
‘तुम्हें गुर्दे कलेजी इतने पसन्द हैं?’ लड़की की आवाज़ रुँध जाती है।
‘हाँ! मगर हमारे यहाँ बहुत कम पकते हैं। सिर्फ़ बक़र ईद में।’
मैं अफ़्सुर्दगी के साथ कहता हूँ।
‘तुम्हें गुर्दे कलेजी इतने पसन्द हैं तो मेरे निकालकर खा लो।’
मैं उसे टुकुर-टुकुर देखता रहता हूँ।
‘हाँ निकाल लो, मेरे दोनों गुर्दे और मेरी कलेजी।’ वो पुर-ख़ुलूस लहज़े में कहती है।
मैं बावर्चीख़ाने में जानवर ज़बह करने वाली छुरी लेने के लिए चला जाता हूँ।
मेरी आँख खुल गयी। सुबह हो गयी है। बारिश हुए जा रही है। मुँह से ठोढ़ी तक ख़ून लगा हुआ है। मेरी ज़बान में बहुत तकलीफ़ हो रही है। ज़बान दाँतों के दरम्यान आकर बुरी तरह कट गयी है। मैंने सोचा कि मेरे दाँत नुकीले भी तो बहुत होते जा रहे हैं।
ख़ाबों का ये सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक बारिश होती रही। फिर एक दिन पानी बरसना बन्द हो गया। आखि़र-ए-कार बारिश रुक गयी। हर बारिश को बहरहाल एक-न-एक दिन रुकना ही होता है। इस तवील तरीन भयानक बारिश को भी थककर रुकना ही पड़ा था जो लाखों बरस तक इस कुर-ए-अजऱ् पर होती रही थी।
धूप निकल आयी। सूरज ने बादलों की स्याह निक़ाब, अपने चेहरे से नोचकर फेंक दी। हर शै अब सूखने लगी। घर, दीवारें, छत, कपड़े-सब गर्म होने लगे। मगर ये एक सीलन ज़दा तमाज़त थी। बारिश के बाद सारे शहर में बुख़ार की वबा फैल गयी। खाने सड़ने लगे। खाना, बावर्चीख़ाना हो, या कोई और जगह, हर जगह सड़ रहा था। और सड़े हुए खाने की बू हर जगह से आ रही थी। ये बुख़ार आँतों और पेट में ख़तरनाक जरासीम पैदा होने से आता था। हमारे घर में भी हर किसी का पेट ख़राब था। सब उल्टियाँ कर रहे थे और एक-दूसरे को, चिड़चिड़ाते हुए, तक़रीबन खा जाने के लिए दौड़ते थे। सबकी आँतों में मरोड़ थी। अंजुम बाजी तक की आँतों में (मुझे इस बार उनके पेट में आँतें होने के एहसास से इतना सदमा नहीं पहुँचा)। इन दिनों घर में सिफऱ् मूंग की दाल की खिचड़ी पकती थी और सारा घर उसे दही के साथ दोनों वक़्त खाता था। मैंने इतने बड़े देगचे में इतनी ज़्यादा खिचड़ी पकती कभी नहीं देखी थी।
मैं भी खिचड़ी ही खाता रहता, मगर मेरा पेट ख़राब नहीं हुआ। न तो मेरी आँतों में मरोड़ हुई और न ही मुझे कोई उल्टी हुई।
दरअसल, हैज़ा फैल गया था। बरसात के बाद, इन दिनों ये बीमारी आम थी, लेकिन इस बार उसने वबा की सूरत इख़तियार कर ली। लोग क़ै और दस्तों से मरने लगे। हमारे मुहल्ले में ही कई मौतें हुईं। घर के पास ही डाॅक्टर इक़बाल का मतब था। डाॅक्टर इक़बाल एक नीम हकीम था और उसके पास बाक़ायदा कोई मेडिकल डिग्री नहीं थी मगर उस के मतब पर मरीज़ों का मेला लग गया। मतब एक पतली-सी गली में था। ये पूरी गली हैजे़ के मरीज़ों से और पेशाब-पाख़ाने की नागवार बदबुओं से भरी रहती थी। मरीज़ एक के ऊपर एक लदे-से रहते और अक्सर अपनी-अपनी उल्टियाँ और क़ै बर्दाश्त न करते हुए, एक-दूसरे की पीठ पर ही कर देते और फिर आपस में मारपीट की नौबत आ जाती। अगरचे मारपीट हो न पाती क्योंकि वो सब लगातार दस्तों, उल्टियों, बुख़ार और कुछ न खाने-पीने की वजह से इंतिहाई लाचार और कमज़ोर हो चुके थे। उनकी खाल, गोश्त और हड्डियों में पानी की बूँद तक न बची थी। कई मरीज़ों ने डाॅक्टर इक़बाल के मतब के सामने, इसी गली में नालियों में गिरकर दम तोड़ दिया।
ये था इन्सान की आँतों का तमाशा जिसे सबने खुली आँखों से देखा। ये थी मुँह चलाए जाने की सज़ा। इन्सान का जुर्म और उसकी सज़ा, दोनों ही उसकी तामीर में मुज़्िमर हैं।
इसलिए मैंने कहीं कहा था कि इन्सान अपनी आँतों में रहता है।
फिर आहिस्ता-आहिस्ता ये वबा भी कम होने लगी क्योंकि ज़मीन ने गर्दिश करना तो छोड़ा नहीं था। सितंबर के आखि़री दिन आ पहुँचे और वो हवाएँ चलने लगीं जिनसे तेज़ धूप भी हार जाती है, वो धुली धुलाई और पाकीज़ा धूप थी। नीला आसमान पहले से ज़्यादा नीला नज़र आने लगा और दोपहर में तेज़ हवा के झक्कड़ जैसे धूप और आसमान, दोनों को अपने साथ उड़ाए ले जाते थे, मौसम ने करवट ली थी। हैजे़ के जरासीम कमज़ोर पड़ने लगे।
ये हवाएँ बारिश के रुख़सत हो जाने का एक जश्न मना रही थीं या नौहा, ये तो मेरी समझ में आज तक न आ सका, हालाँकि मैं हर साल बारिश के बाद चलने वाली इन हवाओं से दो चार होता हूँ मगर अब ये भी है कि जश्न और नौहा कौन-सी दो मुख़्तलिफ़ बातें हैं, जिस तरह जि़न्दगी और मौत दो मुख़्तलिफ़ चीज़ें नहीं हैं।
वो ख़ौफ़नाक बारिश तो चली गयी थी मगर मैं पहले से कुछ ज़्यादा बड़ा और शायद ज़्यादा ख़तरनाक हो गया था। मेरे गालों और ठोढ़ी पर हल्का-हल्का-सा रोआँ-सा उग आया था। मुझे अब उस मेहरबान लड़की वाले ख़ाब बिलकुल नहीं आते थे, न ही दाँतों के दरम्यान आकर ज़बान कटती थी। मेरे इम्तिहान क़रीब आ रहे थे। मुझे रातों को जाग-जाग कर पढ़ना था। इसलिए मैंने उन ख़ाबों को बाएँ तरफ़, अपने दिल के क़रीब, अपनी क़मीज़ की ऊपरी जेब में रख लिया है जिसे जब चाहे निकालकर देखा जा सकता है। मैं अपने ख़ाबों को देखने के लिए नींद का मुहताज नहीं था।
मैं देर रात तक जाग-जाग कर पढ़ता। ज़्यादातर रियाज़ी के सवाल हल करता क्योंकि हाई स्कूल में, इस मज़्मून से सबसे ज़्यादा मुझे डर लगता था। बहुत-से सवालों को मैं हल नहीं कर पाता था। तब उनके जवाब, किताब के आखि़र में देखकर मैं उलटे-सीधे, ऊटपटांग तरीक़े से फ़ाॅर्मूले का ग़लत इस्तेमाल करते हुए नीचे लिख दिया करता था। ज़ाहिर था कि मेरी रियाज़ी चैपट हुई जा रही थी। और सबसे ज़्यादा तो अलजबरा और ज्योमेट्री जहाँ सब कुछ पहले से ही फ़जऱ् कर लिया जाता था। यहाँ सब कुछ एक तुकबन्दी थी। एक अंधा रास्ता, कुछ मानकर चलो और एक ऊटपटांग, मगर अपने ही बनाए हुए रास्ते पर चलकर उसे साबित कर दो। (दुनिया के वजूद को भी ऐसे ही साबित किया गया और ऐसे ही सराब मानकर उसका न होना भी साबित कर दिया गया) अक़्ल-ओ-दानिश और मंतिक़ की ये ख़ुद-ग़रज़ मक्कारियाँ अब तो मेरे सामने पूरी तरह अयाँ हो चुकी हैं। मगर उन दिनों हिसाब का मज़मून मुझे बुरी तरह थकाकर रख देता था और मैं तंग आकर सवाल को हल किए बग़ैर उसका जवाब देखकर वहीं लिख दिया करता था और ये बात भी आज तक मेरे लिए नाक़ाबिल फ़हम बल्कि मज़हकाख़ेज़ है कि अगर किसी सवाल या मसले का जवाब कहीं लिखा हुआ है या किसी ने उसे हल कर रखा है और उस पर उसे यक़ीन भी है तो फिर दूसरों को उलझाने और परेशान करने से क्या फ़ायदा?
मगर इस रियाज़ी से अलग एक दूसरी रियाज़ी भी थी। एक मुह्लिक और पुर असरार रियाज़ी जिसका इल्म मेरे इलावा किसी को नहीं था। सिर्फ़ मेरे पास ही उसके ख़तरनाक फ़ाॅर्मूले थे। उसकी कोई किताब न थी जिसके आखि़री औराक़ पलटकर मैं सवालों के हल ढूंढ़ लेता, मगर मैं हल से लाइल्म रहते हुए भी हल की नौईयत से वाकि़फ़ था और जानता था कि वो कितने आदाद के दरम्यान कहीं होगा। कम नहस से ज़्यादा नहस के दरम्यान।
यक़ीनन अब ये एक घटिया हथियार था जो मेरे हाथ लग गया था और मैं उस पर कभी कभी फ़ख्र भी करता। घटिया बातों पर फ़ख्र करने वालों में, दुनिया में अकेला मैं ही तो नहीं हूँ। कितने आमिल, तांत्रिक, ज्योतिषी, कि़स्मत का हाल बताने वाले और छिछोरे, सियासतदां और कारोबारी लोग आखि़र घटिया बातों पर ही तो फ़ख्र महसूस करते हैं।
इस ख़तरनाक मज़मून का एक सवाल मैंने जल्द ही फिर हल किया।
मेरे छह माही इम्तिहान ख़त्म हो गए थे। मैंने फिर से जासूसी नाॅवल पढ़ना शुरू कर दिए और ज़्यादा-से-ज़्यादा वक़्त अंजुम आपा के घर गुज़ारने लगा। अंजुम आपा एक साँवले बल्कि पक्के रंग की लड़की थीं। मगर उनका मुँह, हाथ पैरों की बनिस्बत काफ़ी साफ़ रंगत लिए हुए था जो एक अजीब बात थी। उनका क़द ठिगना था और चेहरा बिलकुल गोल था। किसी चपाती की तरह जिस पर चेचक के जा-बजा निशानात थे। बिलकुल चपाती पर लगी हुई चपतियों की मानिन्द। उस चेहरे को देखकर मुझे हमेशा भूख लगने लगती थी और मेरी आँतें कड़कड़ाने लगती थीं। वो चेहरा मुझे हमेशा अपना-अपना-सा लगता था। जैसे अपने घर में खाना खाते वक़्त, रोटी की डलिया में रखी चपाती अपनी-अपनी-सी लगती है। अंजुम आपा मुझसे बहुत ख़ुलूस से पेश आतीं, कभी-कभी तो मुझे लगता जैसे वो मुझे अंजुम बाजी से भी ज़्यादा चाहती हैं।
बरसात के बाद उनका बावर्चीख़ाना बहुत ख़स्ता-हाल हो गया था। वो कच्चिया ईंटों का बना था और दीवारों पर हर तरफ़ जंगली घास उग आयी थी। अक्टूबर का महीना था जिसमें धूप बहुत तेज़ और चमकदार होती है और शाम को कुछ धुंध-सी फैलने लगती है।
मैं अंजुम आपा से एक जासूसी नाॅवल के मुजरिम के बारे में बातें कर रहा था कि मुझे उन के बावर्चीख़ाने से कुछ तले जाने की ख़ुशबू आयी। मेरे नथुने महककर रह गए। दोपहर थी और मुझे ज़ोरों की भूख पहले से ही लग रही थी। मैंने नाक के नथुने फुलाकर ख़ुशबू को सूँघा।
अंजुम आपा हँसने लगीं।
‘अम्मां दाल भरे पराठे तल रही हैं।’ एक पराठा खाकर जाना।
‘पराठे! दाल भरे पराठे।’ मैंने दुहराया।
‘हाँ!’
ठीक उसी वक़्त मेरे दिल पर जैसे एक सुई-सी चुभी, एक गीली-गीली, पानी से तर सुई जिसकी ठंडी चुभन अब मेरे बाएँ कांधे तक रेंग आयी। मैं ख़ौफ़-ज़दा-सा हो गया। इस ख़तरनाक और पोशीदा रियाज़ी का एक सवाल मेरे सामने था। और में इसके हल की हदूद का तअय्युन करने के लिए एक मुख़्तलिफ़ शख़्िसयत में तब्दील हो चुका था।
‘नहीं, अब मैं जाऊँगा।’ मैं उठ कर खड़ा हो गया।
‘क्यों? क्या ग़रीबों के घर खाना नहीं खा सकते?’
‘ये बात नहीं अंजुम आपा, मगर मुझे बाज़ार से सौदा लाना है।’
मैंने बहाना किया और कल फिर आने का वादा करते हुए उनके घर से बाहर आ गया। मेरी भूख जैसे बिलकुल मर गयी थी। दाल भरे पराठे। दाल भरे पराठे। मेरा ज़हन लगातार यही गर्दान किए जा रहा था।
मैं अभी बस इन क़ब्रों तक ही पहुँचा होऊँगा कि मैंने अपने पीछे एक ज़ोर की धमक सुनी। एक ऐसी धमक जिसके साथ-साथ एक पुरअसरार-सी सनसनाहट भी शामिल थी। मैं वापिस मुड़ा। उधर शोर बुलंद हो रहा था।
‘दीवार गिर गई, दीवार गिर गयी।’ कोई चीख़ रहा था।
‘किस की दीवार गिर गई?’
मगर में अच्छी तरह जानता था कि किसकी दीवार गिरी है।
मैं भागता हुआ अंजुम आपा के मकान पर पहुँचा। वहाँ भीड़ लग गयी थी।
अंजुम आपा के ख़स्ता और बोसीदा हाल बावर्चीख़ाने की दीवार गिर गयी थी। और उनकी माँ इससे दबकर मर गयी थीं।
मैंने ख़ुद अपनी आँखों से देखा।
गिरी हुई दीवार के मलबे और बरसों पुरानी कच्ची ईंटों और ख़ुद रौ जंगली घास के नीचे वो साकित व जामिद पड़ी हुई थीं। उनके सारे जिस्म को मलबे ने ढँक लिया था। सिफऱ् उनका मुँह बाहर था। उनके सर से ख़ून बह रहा था।
दीवार के मलबे के नीचे ही शायद ईंटों का चूल्हा भी दबा पड़ा था जिसकी आग बुझकर मिट्टी, गारे और ख़ुद रौ घास पौदों में दफ़्न हो गयी थी।
‘इन दिनों ही तो मकान गिरते हैं। बरसात के बाद की धूप में ही दीवारें अपनी जगह छोड़ती हैं।’ कोई कह रहा था।
मगर मुझे अच्छी तरह इल्म था कि दीवार क्यों गिरी है। दूध में पड़ी एक ज़हरीली छिपकली ने मुझे तिगनी का नाच नचाकर रख दिया था। अंजुम आपा ग़श खाकर गिर पड़ी थीं। बावर्चीख़ाने की उसी दीवार की तरह। घर में भीड़ बढ़ती चली गयी। सारा मुहल्ला इकट्ठा हो गया।
बावर्चीख़ाने में दाल भरे पराठे मुझे नज़र नहीं आए। मगर उनकी ख़ुशबू अब दूर-दूर तक फैल रही थी। यहाँ तक कि जब में अपने घर पहुँचा तो वहाँ भी हवा के ज़ोर पर दाल भरे पराठों की ख़ुशबू इधर-उधर रेंगती महसूस हुई।
मैं परेशान, सरासीमा और एक बेवजह के एहसास-ए-जुर्म से मग़्लूब होकर तोते के पिंजरे के पास जाकर खड़ा हो गया। मेरा कनकटा ख़रगोश आकर मेरी पतलून के पायंचे पर मुँह रगड़ने लगा।
काश में वहाँ आज उस वक़्त न जाता। मैंने पशेमान होकर सोचा।
‘गुड्डू मियाँ आ गए.... गुड्डू मियाँ आ गए....’ः तोता ज़हरख़ंदा लहज़े में बोला।
उन्हीं दिनों नूरजहाँ ख़ाला की रिश्ते की एक भतीजी जो एक क़रीबी तहसील में रहती थी, शहर में इलाज कराने के लिए आयी। वो हमारे घर ही ठहरी, उसका नाम अंजुम बानो था।
वो अपने भाई के साथ आयी थी जो क़स्बे से रसाविल की हाँडी भी साथ लाया था। मिट्टी की हाँडी जिस पर लाल काग़ज़ मढ़ा हुआ था। इन दिनों ये रिवायत थी कि हमारे घर से जब कोई किसी रिश्तेदार के यहाँ दूर गांव या क़स्बे जाता तो रसाविल की हाँडी लेकर ज़रूर जाता और जो रिश्तेदार हमारे यहाँ आते वो भी रसाविल की हाँडी लेकर आते। ये हाँडी अपनी बनावट और हैअत के एतबार से हमेशा मुझे पुरअसरार ही नज़र आयी। अगरचे रसाविल मैं भी बहुत शौक़ से खाता था।
अंजुम बानो उम्र में मेरे बराबर थी। उसके जिस्म में ख़ून की कमी थी। वो ज़र्द रंग की थी। मुम्किन है कि उसकी रंगत पहले गोरी रही हो मगर अब उसकी तमाम खाल ज़र्द थी। उसकी पीली रंगत का मुवाज़ना अंजुम बाजी की रंगत से नहीं किया जा सकता था जो कि उन्हें फि़त्रत की तरफ़ से दिया गया एक ख़ूबसूरत और पाकीज़ा तोहफ़ा था। उसकी आँखें बड़ी-बड़ी और ख़ाली-ख़ाली-सी थीं जिसकी पुतलियों में सिफऱ् पीला रंग लगा हुआ था। जब वो मुस्कुराती तो उसकी पुतलियों का ये पीला रंग हल्की-सी सुखऱ्ी में तब्दील होता नज़र आता मगर फ़ौरन ही मादूम हो जाता।
दुपट्टे में उसके सीने का उभार बहुत ग़ौर से देखने के बाद ही महसूस होता वर्ना वो सिर्फ़ एक सपाट सीना था। मेरी उम्र अब इतनी हो गयी थी कि मैं औरत के तईं ख़ास जिन्सी दिलचस्पी भी ले सकता था। और यक़ीनन मुझे अंजुम बानो से एक ख़ालिस जिन्सी दिलचस्पी पैदा हो गयी। मुमकिन था कि आगे चलकर इसमें मुहब्बत का असर भी शामिल हो जाता क्योंकि मुहब्बत और जिन्स एक दूसरे के इस तरह पीछे लगे रहते हैं जैसे उमस के पहले बारिश या हब्स के पीछे पीली आंधी। मगर ऐसा न हो सका, उसकी वजूहात तब तो नहीं मगर अब मैं थोड़ा-थोड़ा समझ सकता हूँ।
अंजुम बानो की आँखों में भी एक प्यास थी। एक सख़्त जिन्सी प्यास जो किसी भी जवान लड़की, जो बीमार रहती हो, मैं ग़ैरमामूली तौर पर पाई जाती है। सिफऱ् एक हफ़्ते के अन्दर-अन्दर हम दोनों ने एक-दूसरे की आँतों... माफ़ कीजिएगा, आँखों को मुकम्मल तौर पर पढ़ लिया।
एक सुनसान-सी दोपहर में, मैं चुपके-से उठकर बावर्चीख़ाने में आ गया। वो बाहरी दालान में बैठी मसूर की दाल बीन रही थी।
बावर्चीख़ाने में आकर मैंने उसे इशारा किया। वो पहले तो ख़ामोशी से दाल बीनती रही फिर एक चैकन्नी बिल्ली की तरह उसने इधर-उधर देखा। और दाल की सैनी लिए-लिए, दबे-पाँव, बिल्ली की चाल चलती हुई बावर्चीख़ाने में आ गयी।
मैं उसे अन्दर कोठरी में ले गया जहाँ रोशनदान से छन-छनकर दोपहर के सूरज की रोशनी अन्दर आ रही थी। मुझे कोई पहल नहीं करनी पड़ी, वो तो आते ही मुझसे बुरी तरह लिपट गयी और मुझे दीवाना-वार चूमने लगी। उसकी साँसों से आम के अचार की बू आ रही थी। मैंने उसके पिस्तानों की तरफ़ हाथ बढ़ाया तो वहाँ कुछ भी न था या अगर था तो मेरी उँगलीयों को महसूस न हो सका।
मगर वो बिलकुल ही होश खो बैठी। उसने मेरा एक हाथ पकड़कर अपने सीने पर ज़ोर-से चिपका लिया। इससे कोई फ़कऱ् नहीं पड़ता कि किसी औरत के पिस्तान बाहर को उभरे हुए या बड़े-बड़े हैं या नहीं। शायद जिस तरह कुछ इन्सानों के एक-आध दाँत मसूड़ों के अन्दर ही रहते हैं और जि़न्दगी-भर बाहर नहीं निकलते, इसी तरह कुछ औरतों के पिस्तान सीने की नामालूम, पुर असरार गहराइयों में छुपे रहते हैं और मर्द के हाथ लगने से बाहर आने के लिए तड़प उठते हैं।
वो बुरी तरह तड़प रही थी। उसकी साँसें बहुत तेज़ हो गईं। उसकी धौंकनी-सी चलने लगी। लगा कि जैसे उसके फेफड़े फटने वाले हैं। आम के अचार की बू बढ़ती गयी। मुझे आम की बू या ख़ुश्बू से नफ़रत थी जो आज तक क़ायम है। मैं बदमज़ा होने लगा। और फिर धीरे-धीरे ख़ौफ़ज़दा भी।
उसके पीले चेहरे पर रोशनदान से आती हुई धूप की किरण पड़ रही थी। मुझे अचानक उसका पीला चेहरा और पीला जिस्म बहुत पाकीज़ा नज़र आया।
ये जिस्म बीमार था, इस जिस्म में ख़ून नहीं बनता था। आदमी के जिस्म में ज़्यादा ख़ून होना हवस की निशानी है और भद्दा भी।
मगर अंजुम बानो की हवस उसकी रूह में पोशीदा थी और इस भयानक हवस और वहशत का साथ देने में उसका बीमार, ख़ून की कमी का मारा हुआ, यकऱ्ान-ज़दा जिस्म साथ नहीं दे सकता था। इसलिए वो जिस्म एक खिज़ां रसीदा पत्ते की तरह लरज़ने और काँपने लगा। अंजुम बानो की रूह की प्यास न जाने कितनी सदियों की प्यास थी और ये प्यास इसलिए बेक़ाबू थी कि अंजुम बानो का जिस्म बहुत बीमार था। रूह जिस्म पर अपनी वहशत, अपनी ख़ाहिश और अपनी हवस के वार-पे-वार लगाती जा रही थी। वो इस कमज़ोर, बीमार मगर पाकीज़ा जिस्म के टुकड़े-टुकड़े कर हलाक कर देने के दर पे थी।
मैं अंजुम बानो से दूर हट गया। वो मेरी तरफ़ बढ़ी। मैंने उसे झटक दिया। उसकी बड़ी-बड़ी ख़ाली आँखों में अंडे की-सी ज़र्दी आकर बैठ गयी। ऐसा लगा जैसे उसे मिर्गी का दौरा पड़ने वाला हो। वो धम-से ज़मीन पर बैठ गयी। उसके दाँत भिंचने लगे और पूरा जिस्म अकड़ने लगा। उसका पीला जिस्म अचानक नाक़ाबिल-ए-यक़ीनी तौर पर स्याह पड़ने लगा। अंजुम बानो पीली से काली हो गयी। मेरे सामने, हाँ बिलकुल मेरी आँखों के सामने।
मगर मैं वाज़हे तौर पर कह सकता हूँ कि वो एक मुक़द्दस स्याही थी। हवस ज़दा रूह ने पाकीज़ा जिस्म से बदला लिया था। मगर जिस्म ने भी रूह के आगे हथियार नहीं डाले थे। मैं थोड़ी देर तक, डरा-डरा उसे यूँ ही देखता रहा फिर जल्दी-से बावर्चीख़ाने से बाहर निकल गया।
अंजुम बानो तीन दिन और हमारे घर में रही मगर न मैंने उसकी जानिब देखा और न उसने मेरी तरफ़ नज़र उठाई। तीन दिन बाद उसका भाई आकर उसे वापिस ले गया। मगर इस बार भी वो लाल काग़ज़ मढ़ी रसाविल की हाँडी लाना नहीं भूला था। डाॅक्टरों ने उसका मजऱ् लाइलाज बताया था। उसे एक बहुत ख़तरनाक बीमारी थी। उसका जिस्म ख़ून बनाता ही नहीं था, सिवाए इसके कि उसे ख़ून चढ़ाया जाता रहे और कोई चारा न था।
क्या किसी ने भी उस पर ग़ौर किया कि महज़ रूह की पाकीज़गी के डंके पीटते रहने से ही कुछ नहीं होता? असल मसला तो जिस्म का है, जिस्म की पाकीज़गी ही असल शै है। इन्सान को चाहिए कि शुऊर बिज्ज़ात की बात तो बहुत हो चुकी, अब ज़रा बदनाम-ए-ज़माना माद्दे की बात भी हो जाये। माद्दे को भी उसका जायज़ हक़ दिया जाये। आखि़र कब तक रूह अपने आमाल की सज़ा जिस्म को देती रहेगी।
रूह ने क्या सोचा है कि अगर कभी जिस्म उसके अहकाम की तामील करने और उसकी ग़्ाुलामी करने से इन्कार कर दे तो? तो फिर शायद दुनिया की तारीख़ दूसरी तरह से लिखी जाएगी।
एक अर्से बाद मैंने सुना कि अंजुम बानो का इंतिक़ाल हो गया। वो जब तक जिं़दा रही, उसके जिस्म में लगातार ख़ून चढ़ाया जाता रहा। मगर फिर उसके जिस्म ने दूसरों का ख़ून भी क़बूल करने से इन्कार कर दिया। जब भी उसे ख़ून की बोतल चढ़ाई जाती तो उसके बाद उसकी नाक, कानों और मुँह से ख़ून बाहर आने लगता। मरने से एक माह पहले अंजुम बानो ने खाना-पीना बिलकुल छोड़ दिया था। उसकी आँतें बिलकुल साफ़ और पाक थीं और पुरानी आलूदगी, बदनीयती, चटोरेपन और भूख के हर निशान से आरी थीं।
आखि़र अंजुम बानो के जिस्म की पाकीज़गी ने सबको हरा कर रख दिया।
अफ़्सुर्दा कर देने के लिए इन्सान के पास कितनी बातें, कितनी यादें होती हैं और ख़ुश होने के लिए बहुत कम। माज़ी का मुआमला भी अजीब है। माज़ी की मसर्रतों और ख़ु़ुशियों को भी अगर याद करें तो वो भी एक उदासी और अफ़्सुर्दगी में ही बदल जाती हैं। गुज़रा हुआ वक़्त हूबहू सामने नहीं आता, वो एक प्रेत की ख़ौफ़नाक शक्ल में सामने आता है। मुर्दा बन्दर के पंजे या हड्डी की तरह।
अक्टूबर का महीना भी गुज़र गया और नवम्बर का महीना आ पहुँचा। नवम्बर का महीना दरअसल कोई महीना ही नहीं। उसका अपना कोई मौसम ही नहीं। ये एक ज़वालपज़ीर महीना है। अँधेरी ढलान पर बे जान चट्टानों की तरह लुढ़कते हुए, नवम्बर के ये दिन, रातों के हाथ मज़बूत करते हुए। आने वाले सर्द, गाढ़े, हवाओं के शोर से लदे फंदे, दिसम्बर के अँधेरों के इंतिज़ार में पहले से ही सफ़ें बाँधे, सैल्यूट करते हुए, नवम्बर के ये दिन जो साल के बारह महीनों में कहीं अपनी कोई इन्फि़रादी या बावक़ार छाप नहीं छोड़ते। मौसम के एतबार से, ये मामूली, हक़ीर दिन, गिरते हुए, जल्दी-से ग़ायब होते हुए। उनकी छाप सिफऱ् उन बद-नसीबों पर ही पड़ती है जिनके सीने पर नवंबर का कोई लुढ़कता हुआ पत्थर आकर ठहर गया हो।
रूह के पागलपन की सज़ा जिस्म को झेलना पड़ती है।
उन्हीं दिनों एक पागल बन्दरिया ने हमारा घर देख लिया। वो बन्दरिया हर वक़त हैज़-से होती रहती थी और जब मौक़ा मिलता, किसी-न-किसी को काट खाती। उस ज़माने में मुझे ये नहीं मालूम था कि बन्दरियों को भी हैज़ होता है, मगर जब मैंने उस बन्दरिया की दुम पर ख़ून के धब्बे देखे तो मैं समझ गया। आखि़र साइन्स के मुताबिक़ बन्दर ही तो इन्सानों के आबा-ओ-अजदाद हैं। उन्हीं हैवानों की सारी लानतें, इन्सान भी भुगत रहे हैं।
रात को सोते वक़्त, हर शख़्स को ख़ौफ़ था कि कहीं सोते में बन्दरिया न आकर काट ले। मुहल्ले में बहुत-से लोगों को उसने सोते में काट लिया था।
दिन में वो, छतों और मुंडेरों पर इधर-उधर कूदती-फाँदती और भटकती फिरती और रात में पता नहीं कहाँ दुबककर बसेरा करती।
मैंने उसे देखा था, वो एक क़वि उल जुस्सा बन्दरिया थी जिसकी आँखों में पागलपन और एक बेक़ाबू और बेतुका गु़स्सा भरा रहता था। उसे कोई बीमारी थी। वो शायद हमेशा हैज़-से होती रहती थी। ये कोई ऐसी हैरानकुन बात नहीं। जिस्म के अन्दर हज़ारहा पुरअसरार पहलू होते हैं। उस पागल बन्दरिया की वजह से जाड़े के ये शुरुआती दिन बड़ी दहशत में गुज़र रहे थे, मगर एक दिन ये मसला हल हो गया। वो सामने वाले घर की तीन मंजि़ला इमारत की छत पर कूदते-कूदते अचानक टप-से सड़क पर गिर पड़ी। सारा मुहल्ला उसे देखने भागा। मैं भी गया।
वो सड़क पर मुर्दा पड़ी थी। उसके मुँह में डबल-रोटी का एक टुकड़ा फँसा हुआ था। उसके जिस्म का निचला हिस्सा ख़ून से सना हुआ था। उसकी आँखें खुली हुई थीं जिनमें वही पागल ग़ुस्सा लगातार अब आसमान की तरफ़ ताके जा रहा था। शाम हो रही थी, मग़रिब की अज़ान होने लगी। मैंने सोचा क्या बन्दरिया ने भी ख़ुदकुशी की है। लूसी की तरह? मुमकिन है कि ऐसा ही हो या न हो। बढ़ती हुई तारीकी ने सड़क पर पड़ी बदनसीब बन्दरिया की लाश को ढँक दिया।
नवम्बर के आखि़री दिन थे या फिर दिसम्बर की शुरुआत। मुझे कुछ ठीक से याद नहीं आ रहा है। बहरहाल, ज़माना यही था जब नयाज़ों और शादी ब्याहों का दौर आ पहुँचा। इन दिनों मैंने जितनी दावतें खाईं, उनका शुमार नहीं किया जा सकता। मैं चूँकि अब भी घर में सबसे छोटा था बल्कि बच्चा ही तसव्वुर किया जाता था इसलिए घर का हर फ़र्द दावत में मुझे ज़रूर साथ ले जाता था। चाहे वो मुहल्ले की कोई शादी हो या फिर रिश्तेदारों के यहाँ। वो एक अजीब मंज़र होता। उस ज़माने में शादी हाॅल या होटलों का रिवाज न था। मुहल्ले का कोई एक निस्बतन बड़ा मकान ले लिया जाता। उसके आँगन या दालान में लकड़ी की तीन-चार मेज़ें मिलाकर लगा दी जातीं, इन मेज़ों पर काले मैल और सालन और चिकनाई की मोटी-मोटी तहें जमी होतीं। मेज़पोश अगर होते तो सालन के पीले-पीले धब्बों से बिलकुल रंगे हुए और पानी से तर भी। मेज़ों के दोनों जानिब क़तार से लोहे की बदरंग और बेहद तकलीफ़देह कुर्सियाँ लगाई जातीं, मेज़ें और कुर्सियाँ, दोनों ऊपर-नीचे हिलती रहती थीं।
लोग अपनी बारी का इंतिज़ार अलग बैठकर कम करते, वो कुर्सियों के पीछे इस तरह खड़े रहते जैसे कुर्सी ग़ायब न हो जाये। वो खाने वालों का हर हर निवाला गिनते और बेचैनी के साथ कभी एक पाँव पर ज़ोर देकर टेढ़े हो जाते तो कभी दूसरे पैर पर। खाने वाले ख़ुद बहुत जल्दी जल्दी खाते। अक्सर बग़ैर चबाए ही निवाला मुँह में रखकर निगल जाते, वो मरभुक्खों की तरह खाने पर टूटते थे।
खाने में बहुत ज़्यादा अश्या नहीं होती थीं। ज़्यादातर क़ोरमा रोटी (जिसे वो लोग गोश्त रोटी कहते थे) वर्ना अगर साहिब हैसियत लोग होते थे तो पुलाव और ज़रदा भी, हमारे अतराफ़ में बिरयानी का रिवाज नहीं था, हालाँकि आजकल तो पुलाव को भी बिरयानी ही कहा जाता है।
रोटियाँ ख़मीरी और तन्दूरी हुआ करतीं। इन रोटियों का हुजम बहुत बड़ा होता, तक़रीबन एक थाली जितना।
खाना ला-लाकर रखने वाले बहुत शोर मचाते, इधर-उधर से एक-दूसरे को आवाज़ लगाते और बेहद हवासबाख़्ता नज़र आते। अक्सर क़ोरमे का डोंगा किसी खाने वाले के सर पर भी छलक जाता, एक हाय-तौबा मची रहती।
डोंगा जैसे ही मेज़ पर रखा जाता, लोग उसमें से बेहतर बोटियाँ और तरी यानी रोग़न निकालने के लिए एक साथ झपटते। कभी-कभी डोंगा मेज़ पर ही पलट जाता, मगर खाने वालों को उसकी मुतलक़ परवाह न होती। कोई किसी को नहीं पूछता, सबको अपनी-अपनी आँतों की फि़क्र होती। ये ऐसी ही नफ़्सी नफ़्सी का मंज़र होता जो शायद मैदान-ए-हश्र में भी न दिखाई दे।
मेज़ों के पास एलुमीनियम के टब रखे रहते जिसमें झूठी रकाबियाँ पड़ी रहतीं। रकाबियाँ या तो एलुमीनियम की होतीं या फिर सफ़ेद ताम चीनी की। उन्हीं टबों में बोटियाँ, हड्डियाँ और रोटियों के पानी से तर फूले हुए, टुकड़े भी भरे रहते जिन पर मक्खियाँ-ही-मक्खियाँ भिनभिनाती रहतीं।
उस किस्म के एक-दूसरे टब में पीने का पानी भरा रहता। अगर गर्मियों के दिन होते तो टब पर लकड़ी का एक तख़्ता रखकर उस पर बफऱ् की सिल्लियाँ जमा दी जातीं। बफऱ् पिघल-पिघलकर पानी में गिरता रहता और उसे ठण्डा करता रहता। इसी टब में एलुमीनियम के जग डाल-डालकर पानी भरकर मेज़ों पर रख दिया जाता। बमुश्किल दो-तीन गिलास (वो भी एलुमीनियम के ही होते) मेज़ पर रखे होते या इधर-उधर लुढ़कते फिरते।
खाने वाले, खाना ख़ूब बर्बाद करते। रकाबियों में ढेर-सा सालन, हड्डियाँ और चिकनी बोटियाँ निकालते और नाक तक खाना ठूँस लेने के बाद ऐसे ही छोड़कर उठ जाते। वो उस बेहंगम अंदाज़ से उठते कि कुर्सियाँ उलटते-उलटते बचतीं और मेज़ें इतने ज़ोर-से हिलतीं कि पानी से भरे जग उलट जाते।
रोटियाँ भी ख़ूब बर्बाद होतीं, बल्कि उनकी तो बेहद बेहुरमती भी की जाती। मैं क़समिया कहता हूँ कि मैंने कई बारिश हज़रात को अपनी सफ़ेद दाढ़ी पर लगे हुए शोरबे और मसाले को रोटियों के टुकड़े से साफ़ करते देखा है। बिलकुल उस तरह जैसे आजकल लोग नैपकिन का इस्तेमाल करते हैं। रोटियाँ हाथ पोंछने, मुँह, होंठ और ठोढ़ी साफ़ करने और मिर्च की ज़्यादती के सबब नाक से निकलते पानी को साफ़ करने के लिए और शोरबे में भीगी दाढि़याँ पोंछने के लिए एक बेहतरीन और मुफ़्त के रूमाल का काम अंजाम देती थीं।
उस हंगामे और शोर पर तो यह था कि लाउड-स्पीकर भी छत पर कहीं फि़ट होता और उसका रुख़ खानों की जानिब ही होता। लाउड-स्पीकर पर या तो किसी नई फि़ल्म के वाहीयात गानों के रिकाॅर्ड कान फाड़ देने वाली आवाज़ में बजाए जाते या फिर हबीब पेंटर की क़व्वालियाँ।
(आज की बूफ़े दावतों में भी जहाँ सब खड़े होकर अपना खाना निकालते हैं, और खड़े होकर खाना खाते हैं, नौईयत के एतबार से कोई बड़ा फ़कऱ् नहीं है)
क्या ये मैदान-ए-जंग नहीं था?
हाँ! एक ऐसा मैदान-ए-जंग जिसमें इन्सान एक-दूसरे से, अपने-अपने दाँतों, अपने जबड़ों, अपनी ज़बानों और अपनी आँतों के ज़रिये लड़ते हैं।
यही सब उनके हथियार हैं जिन्हें चलाए जाने की लज़्ज़त में सराबोर होकर वो एक-दूसरे की इन्सानी भूख का शिकार करते हैं।
कौन थे वो लोग जो भूख बर्दाश्त करने के लिए पेट पर पत्थर बाँध लिया करते थे?
मैंने ऐसे लोग नहीं देखे। मैंने तो इन्सानों को अपनी-अपनी आँतों में पत्थर बाँधकर एक-दूसरे की तरफ़ फाँसी के फंदे की तरह फेंकते देखा है। एक का गला दूसरे की आँतों में फँसा हुआ है। आँतों की लम्बाई खास तौर पर छोटी आँत की लम्बाई तो ख़ुदा की पनाह!
ख़ुद मैं भी इसी बेरहम खेल में शामिल हूँ। जाड़ों की दोपहर में, ज़मींदार घराने की रिवायत को सँभाले हुए हम सब देसी घी में डुबो-डुबोकर उड़द की दाल की काली खिचड़ी खाते और फिर सो जाते। बाक़ायदा लिहाफ़ ओढ़कर सो जाते, और फि़र अस्र के वक़्त जब उठते तो सबका मुँह सूजा-सूजा और आँखें छोटी-छोटी नज़र आतीं। चावल और माश की दाल का बादीपन उस हुलिये का जि़म्मेदार होता।
ख़ुद मेरा भी यही हुलिया होता। मैं आईने में अपना चेहरा देखता और शर्मिंदा हो जाता। वो आईना जो दालान के उस हिस्से में लगा था जहाँ से बावर्चीख़ाना भी आईने में साफ़ नज़र आता था। ख़ास तौर पर उसका चूल्हा और एक तरफ़ रखा ये बड़ा-सा काला तवा।
ये सब मुझे शर्मिंदा करता था और करता आया है, मगर महज़ शर्मिंदगी से क्या होता है?
इन्सान कब से शर्मिंदा होता आया है मगर उसकी शर्मिंदगी दुनिया का कूड़ा-करकट साफ़ करने के लिए कभी झाड़ू न बन सकी।
एहसास-ए-जुर्म, शर्मिंदगी, अपने गुनाहों की फ़ेहरिस्त, सबको लिए-लिए मैं भी जि़न्दगी जीता रहा और जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गयी वैसे-वैसे मेरी जि़न्दगी में भयानक वाकि़आत भी बढ़ते गए। खाना खाने से ज़्यादा ख़ौफ़नाक गुनाह भी मुझसे सरज़द हुए हैं। ऐसे भयानक वाकि़यात जो एक ख़ुफि़या तहरीर की मानिन्द मेरे दिल में हमेशा के लिए दफ़्न हैं, मगर अब जब मुझे अपने बचपन के खिलौनों को तोड़कर उनका पोस्टमाॅर्टम करने की धुन सवार हो गयी है, तो फिर मेरे हाफि़ज़े को उस मुर्दा-ख़ाने की तरफ़ रुख़ करना ही पड़ेगा।

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