20-Jun-2021 12:00 AM
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लोग मुझे नाटक का आदमी कहते हैं। लेकिन मैं अपने आपको इस तरह से नहीं देख पाता। नाटक शब्द भी अब मुझे जँचता नहीं है। नाटक कहते ही कहानी, द्वन्द्व, संवाद, शुरुआत-मध्य-अन्त आदि सब एक साथ मुझे आ घेरते हैं। मैं बँध्ाा हुआ महसूस करता हूँ। मैं कला की इस सुन्दर दुनिया में इसलिए हूँ क्योंकि एक तो यहाँ कई तरह की कलाएँ आकर एक साथ एक जगह पर इकट्ठी होती है, दूसरा यहाँ मुझे इन कलाओं को बरतने में स्वतन्त्रता दिखायी देती है।
एक निर्देशक के रूप में इसीलिए पूर्व लिखित स्क्रिप्ट भी मुझे आकर्षित नहीं कर पाती। उनमें एक बना बनाया स्ट्रक्चर होता है। एक कहानी का रूप वहाँ होता है। सब कुछ पूर्व निश्चित वहाँ ध्ारा होता है। कहानी, स्थितियाँ, चरित्रों के घात प्रतिघात, घटनाएँ, दृश्यों का क्रम, अन्त आदि। मैं प्रस्तुति में संवाद (डायलाॅग) बहुत कम इस्तेमाल करता हूँ। जबकि संवाद नाटक का अनिवार्य तत्व माना जाता है। लेकिन मेरे लिये इसकी अनुपस्थिति का क्या कारण है? एक तो यह कि बतौर निर्देशक संवादों की श्रृंखला में शुरुआत से ही मुझे कोई दिलचस्पी नहीं रही। उनमें विस्तार की सम्भावनाएँ कम देख पाता हूँ। अपवाद रूप में कुछ स्क्रिप्ट हैं। लेकिन वह अपवाद ही हैं। दूसरी ये कि कि़स्मत से मैं एक नाट्य लेखक नहीं हूँ तो मेरे निर्देशन के संक्रमण काल के समय निरन्तर ये विचार चलता रहा था कि मैं कहाँ से लिखित पाठ प्रस्तुति में लाऊँ। परेशान रहता था। बहुत बाद में ‘सूर्यमल्ल’ में अचानक से रास्ता साफ़ हो गया। यह प्रस्तुति राजस्थान के महाकवि सूर्यमल्ल के जीवन और उनके साहित्य पर आध्ाारित है।
वहाँ से रास्ता खुला कि जो लिखित पाठ है वह संवाद रूप में ही क्यों आये। किसी निबन्ध्ा, किसी यात्रावृत्तान्त, किसी घटना, किसी समाचार पत्र, किसी इतिहास की कि़ताब से, किसी कविता आदि जहाँ कहीं से भी हमें कोई सुन्दर बात महसूस होती है, कहने का ढंग अच्छा लगता है या कोई सूचना भी अच्छी लगती है तो वह प्रस्तुति में शामिल की जा सकती है। संत पीपाजी, फै़ज़ अहमद फ़ैज़, फूल केसुला फूल, सूर्यमल्ल आदि में हमने यही प्रक्रिया अपनायी थी। अभी विनोबा भावे पर आध्ाारित प्रस्तुति के लिये इसीलिए कई तरह से सम्बन्ध्ाित विचार की खोजबीन कर रहे हैं।
इस तरीक़े से ध्ाीरे-ध्ाीरे हमने प्रस्तुति में संवाद की अनिवार्यता से निजात पायी है। हम कभी-कभी संवाद भी उपयोग में लेते हैं लेकिन ज़रूरत मुताबिक़। इस तरह के तरीक़े से हम समृद्ध ही हुए हैं। क्योंकि हमारे पास भिन्न-भिन्न भाषा के, भिन्न-भिन्न शैली के लिखित पाठ एक साथ होते हैं। इसकी ख़ास बात ये भी है कि यह बहुत मन से बहुत शोध्ा के बाद चुने हुए पाठ हमारे पास होते हैं। यदि एक्टर अपने लिये स्वयं यह पाठ चुने तो ये एक आदर्श स्थिति होती है। इन सब लिखित पाठों को एक खाँचे में बैठाने के लिए रंगमंच के अन्य तत्वों का सावध्ाानी से इस्तेमाल होता है। यह एक जि़म्मेदारी का काम हो जाता है।
अभी इन दिनों हम विनोबा भावे पर आध्ाारित प्रस्तुति के लिये कार्य कर रहे हैं। हमारे लिये विनोबा कोई चरित्र नहीं है। एक विचार है। क्योंकि जैसे कोई बात विनोबा जो कहते थे वही बात बुद्ध ने भी दूसरे ढंग से कही होगी तो बुद्ध की बात भी प्रस्तुति में आ जाएगी। गाँध्ाी की बात आ जाएगी। इस तरह से एक विचार को प्रकट करने के कई ढंग होंगे। इस तरह से हम कहानी और संवाद की अनिवार्यता से मुक्त हो गये। मुझे लगता है कहानी की नाटक में उपस्थिति अभिनेता ही नहीं निर्देशक के लिये भी नुक़सानदेह है। कहानी बनाने के लिये हमको घटनाओं का सहारा लेना पड़ेगा। अब जैसे विनोबा के सन्दर्भ में कहूँ तो प्रस्तुति के लिये पारम्परिक ढंग से जो क्रम रहेगा वो इस तरह से होगा। उनका जन्म, उनका घर छोड़ना, गाँध्ाी का साथ फिर भूदान आन्दोलन, चम्बल के डकैत, क्षेत्र सन्यास आदि। हर कोई यही क्रम चुनेगा। इसमें हुआ यह की चरित्र का मूल विचार दबकर रह जाता है। मैं जब निर्देशन प्रक्रिया में होता हूँ तो एक कहानीकार नहीं होता बल्कि एक कवि होता हूँ। जैसे कविता में हर शब्द में बढ़त है, हर पंक्ति में नया ध्ारातल है। मैं सोचता हूँ मेरी रचना में भी ऐसी ताक़त हो। वो खुली रहे। जैसे कविता की पहली पंक्ति को अन्तिम पंक्ति बनाया जा सकता है, मैं मेरे बनाये दृश्यों का क्रम कई बार बदल बदल कर देखता हूँ। एक आनन्द आता है। तो मूल बात यह है कि एक रचनाकार के रूप में जिस विनोबा अनुभव से मैं गुज़रा हूँ वही अनुभव सम्प्रेषित भी करूँ। कहानी वह करने नहीं देती। जैसे हमने समूह में क्या किया की हम पवनार स्थित विनोबा आश्रम गये। वहाँ कुछ दिन रहे। वधर््ाा स्थित गाँध्ाी का सेवाग्राम आश्रम देखा। सम्बन्ध्ाित लोगों से मिले। विनोबा का लिखा पढ़ा। उन पर लिखा पढ़ा। हमारे थिएटर आश्रम में कोई दस महीने हमने गायें रखी। हमारा जो रोटेदा गाँव में थिएटर स्पेस है उसे हम आश्रम कहते हैं। आश्रम पैराफि़न। आश्रम क्योंकि वहाँ की कार्य पद्धति जैसी है उसके लिये स्पेस, स्टूडियो, स्कूल, जैसे शब्द ठीक नहीं बैठते।.... तो अब विनोबा प्रस्तुति के लिये यह जो रचना प्रक्रिया हम अपना रहे हैं। जो अनुभव हमें हो रहे हैं। ये अनुभव ही हमारा हासिल है। इन्हीं से हम समृद्ध होते हैं। तो मैं मूल बात पर फिर से लौटता हूँ कि प्रस्तुति में यदि हम कहानी कहने की तरफ जायेंगे तो ये सारे अनुभव कह नहीं पाएँगे। और कहना भी किससे है। पहले पहल तो हमसे ही कहना है। तो अब जो प्रस्तुति होगी उसमें हर क्षण का विस्तार किया जा सकेगा। वो क्षण खुला होगा। चरित्र भी मुख्य नहीं होगा।
इसी तरह की एक और दिलचस्प बात मुझे याद आती है कि सालों से नाटक का एक और अनिवार्य घटक माना जाता रहा है। वह है ‘द्वन्द्व’ (बवदसिपबज)। लेकिन मैं द्वन्द्व से हमेशा ही दूर रहने की कोशिश करता रहा हूँ। कई बार ऐसा होता है कि हम किसी अनजान व्यक्ति से मिलते हैं। उससे दूर जाने के बाद लगता है वाह! क्या आदमी था। इसी तरह कभी कोई बात पढ़ते हैं, सुनते हैं तो लगता है वाह! क्या बात है।... मैंने ध्ाीरे-ध्ाीरे ऐसी बात अपनी प्रस्तुति में लाने की कोशिश की है। दरअसल जब भी द्वन्द्व की बात होगी तो दर्शकों का दिमाग़ काम करना शुरू करेगा। उनकी विश्लेषण क्षमता जागृत होगी। तर्क की बात होगी। मैं चाहता हूँ नाटक देखते समय दर्शक केवल दिल का इस्तेमाल करें, दिमाग का नहीं। उदाहरण देना पड़े तो मन्दिर का दूँगा। जहाँ जाने वाले लोग केवल दिल का इस्तेमाल करते हैं। ...हालाँकि अब ऐसा होना भी दुर्लभ हो गया... तो इस तरह का विचार मुझे सालों पहले सन्त पीपाजी नाटक करने के बाद आया। कई साल बाद चिड़ी चमेली से इसकी शुरुआत होते-होते सूर्यमल्ल में हमने इसको अच्छे से समझा। अभी विनोबा में भी वैसी ही कोशिश है।... यदि सरल भाषा में कहूँ तो दर्शकों को एक मूड देते हैं विचार नहीं। और यह हमारा बवदेबपवने कमबपेपवद है। अर्टिस्टिक च्वाॅइस है। सालों की मेहनत का परिणाम है। अब यह भी है की ऐसी प्रक्रिया में प्रस्तुति सपाट होने की सम्भावना बढ़ जाती है। लेकिन जैसा की मैंने पहले कहा कि यदि प्रस्तुति का हर क्षण विस्तार लिये हुए होगा तो वैसी समस्या पैदा नहीं होगी। भारतीय शास्त्रीय संगीत में तो यही होता है। वहाँ हर क्षण विस्तार लिये होता है। अगला क्षण क्या है कैसे आएगा। कोई पूर्व निधर््ाारित नहीं। हालाँकि प्रस्तुति में चरित्र के अपने स्वयं के द्वन्द्व हो सकते हैं। लेकिन मैं दर्शकों के लिये द्वन्द की बात कर रहा हूँ जो विचार रूप में आएँगे। उनसे मैं बचता हूँ। एक निर्देशक के रूप में मैं अपने दर्शकों पर कोई विचार थोपना भी नहीं चाहता। जैसे विनोबा पर शोध्ा के दौरान हमने पाया कि विनोबा के काम में रुकावटें डालने वाले, विपरीत बात करने वाले लोग उस समय भी थे। भले ही वह भूदान आन्दोलन के समय हो या चम्बल के बागियों के समर्पण के वक़्त। इमरजेंसी पीरियड को विनोबा द्वारा अनुशासन पर्व कह देना तो बहुत बड़ी घटना थी। लेकिन यह सब विपरीत विचार मैं निर्देशक के रूप में प्रस्तुति में लाना नहीं चाहता। एक बार बीकानेर में नन्द किशोर आचार्य ने सुझाव दिया था की इस तरह से तो नाटक, नाटक न रहकर स्तुतिगान हो जायेगा। वह सुझाव उन्होंने तब दिया था जब मैंने इब्राहिम अलकाज़ी और उनके छात्रों के साथ सम्बन्ध्ाों की एक परफ़ाॅरमेंस और एक आॅडियो प्रदर्शनी तैयार की थी। उस आॅडियो प्रदर्शनी में उनके छात्रों के अपने अध्यापक के बारे में विचार थे। संयोग से केवल वह छात्र ही सम्मिलित हुए थे जो उनकी अध्यापक के रूप में तारीफ़ कर रहे थे। और आध्ाुनिक भारतीय रंगमंच में वह सब भी बड़े नाम माने जाते हैं। खैर उनकी बात पर मैंने कई दिनों तक विचार किया। लेकिन मैं इसे इस तरह से देखता हूँ कि हम इस मानव जीवन में जब आते हैं तो द्वन्द्व लेकर ही आते हैं। जीवन द्वन्द्वमय ही होगा क्योंकि हमारे पास चेतना है। दुनिया निरन्तर परिवर्तनशील है। ऐसे में मैं एक निर्देशक के रूप में ऐसी कल्पना अक्सर करता हूँ कि मेरी प्रस्तुति में कोई अपनी माँ के बारे में दर्शकों को बताये। माँ का प्यार, विश्वास, चिन्ता, समर्पण इत्यादि। बस इतना ही। इसमें मैं यदि माँ द्वारा बच्चे की पिटाई, एक दिन गुस्से में घर से बाहर निकाल देना, एक दिन भूखा रखना जैसी बातें न भी करूँ तो क्या बुरा है। और यह हमने किया भी। एक हमारे दोस्त हैं। लेखक हैं, अम्बिकादत्त चतुर्वेदी। हमने एक प्रस्तुति की ‘अम्मा’। उन्होंने अपनी पत्नी संग दर्शकों को अपनी माँ के बारे में बताया। बस इतना ही। मैं ऐसे ही रंगमंच की कल्पना करता हूँ। केवल अन्त में उन्होंने अपनी एक कविता दर्शकों को कही।
माँ के चले जाने के बाद....
माँ ने अपनी सारी तैयारी पहले ही कर ली थी।
मैंने स्वप्न में देखा,
माँ को गठड़ी लिये, प्लेटफ़ार्म की बेंच पर बैठे हुए।
न ध्ाुँआ दिखा, न आवाज़ सुनी।
ट्रैन कब आयी, माँ किस डिब्बे में चढ़ी, पता ही न चला।
मेरी जब आँख खुली, माँ जा चुकी थी।।
माँ के कमरे में हवन किया गया।
ध्ाुआँ पूरे घर में फैल गया।
माँ अब एक खुशबूदार ध्ाुआँ हो गयी है।
माँ अब हवा में है।
हमेशा हमारे चारों तरफ़।
जब कभी भी यादों की अगरबत्ती जलाएँगे, वो बातों में महकने लगेगी।
... तो मैं कहना यह चाहता हूँ की यह भी एक तरीक़ा है जो मैं दर्शकों को देना चाहता हूँ। और यह शायद इसलिये भी है कि मैं व्यक्तिगत तौर पर किसी विवाद में पड़ता नहीं हूँ। किसी परिभाषा, शब्द आदि में उलझता नहीं हूँ। मैं कोई राजनीतिक समस्या, जाति, ध्ार्म, समसामयिक मुद्दे आदि को छूता हुआ कोई बात प्रस्तुति में कहूँगा तो जो द्वन्द्व पैदा होगा, वैसा द्वन्द्व मैं नहीं चाहता। उनसे क्या होता है कि दर्शक का दिमाग़ काम करना शुरू करता है। वो मैं चाहता नहीं। हालाँकि नाटक में एक ध्ाारा यह भी कहती है कि प्रस्तुति दर्शक को सोचने पर मजबूर करे तभी वह सफल है। उसके सामाजिक सरोकार हों आदि आदि। लेकिन जैसा कि मैंने कहा कि यह मेरी अपनी आर्टिस्टिक च्वाॅइस है कि दर्शक सोचेंगे तो मेरा मक़सद हल नहीं होगा। हम वैसे भी समाचार-पत्र, टीवी, मोबाइल आदि के ऐसे माहौल में हैं कि सोच ही सोच रहे हैं। हर किसी के पास अपना-अपना तर्क है। मज़बूत। इसीलिए तंग आकर मैं कई सालों से अख़बार नहीं पढ़ता। कारण यही है। अभी के हालात में हम कलाओं के ज़रिये एक रूहानी अनुभव दर्शकों को दे सकें, बतौर कलाकार मेरे लिये यह ज़्यादा ज़रूरी है।... इस बात का यह मतलब भी नहीं की केवल इसी तरह की कलाएँ समाज में पैदा हों। लेकिन मुझे ऐसी ही बात जँचती है और यही मुझे दर्शकों से साझा करने की इच्छा रहती है। मुझे दर्शकों से बहुत प्रेम है।
मुझे कई बार यह बात रोमांचित करती है कि एक ही दिन, लगभग एक ही समय, अलग-अलग घरों में लोग एक साथ तैयार होते हैं। कंघी करते हैं। कपड़े पहनते हैं। फिर अलग-अलग दिशाओं से लगभग एक साथ प्रस्तुति स्थान पर पहुँचते हैं। कितनी बड़ी घटना ये होती है। अब इन दर्शकों के सामने अभिनेता जब खड़ा होता है तो उस पर एक जि़म्मेदारी का भाव होना चाहिए। मैं एक निर्देशक के तौर पर इस बात में खूब विश्वास करता हूँ कि वहाँ अभिनेता की शक्ल में मैं खुद ही खड़ा होता हूँ।... एक साथ सैकड़ों आँखे मुझे ही देख रही होती है। दर्शक मुझे ही देखने-सुनने के लिये इकट्ठे होते हैं। इसीलिए समूह के साथ हर प्रस्तुति के अन्त में मैं दो बार उनके सामने झुकता हूँ। पहले प्रस्तुति समाप्ति के लिये, दूसरी बार उनके द्वारा हम पर विश्वास के लिये। मेरे लिये यह बहुत ही पवित्र कार्य है।
मैं अक्सर कहता हूँ कि मेरी हर प्रस्तुति का मैं ही पहला और अन्तिम दर्शक हूँ। माने जब प्रस्तुति बनती है तब मैं ही अन्तिम रिहर्सल देखता हूँ। प्रस्तुति को दर्शकों के समक्ष प्रस्तुत करने के बाद उन्हें पसन्द आये या न आये इस बात का मेरे दर्शक मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। कमियाँ, अच्छाईयाँ मुझे दिखायी देती हैं। साफ़-साफ़। इसका ये क़तई मतलब नहीं कि दर्शकों की बात पर मैं विचार नहीं करता। क्योंकि एक जादू है कि जब तक मैं अकेला प्रस्तुति को देख रहा होता हूँ तब तक प्रस्तुति का पूरा आकलन नहीं कर पाता। लेकिन जैसे ही दर्शकों से प्रस्तुति साझा करता हूँ न जाने क्या जादू होता है प्रस्तुति के समय और तुरन्त बाद कई कमियाँ, अच्छाईयाँ मुझे महसूस होने लगती है। मेरा ख़याल है हर निर्देशक को होती होगी। तो इतना गहरा प्रभाव दर्शकों का रहता है। वह दर्शक जो पूर्वाग्रहों से ग्रसित न हों, मुझे विशेष प्रिय हैं। फिर वो बुराई भी करते हैं तो प्यारे लगते हैं।
वो दर्शक जो कलाकार को समझने में, उसकी कला के बारे में जानने में रुचि रखते हैं वही सच्चे दर्शक हैं। दुर्भाग्य से कई रंगकर्मी तो अब तक दर्शक भी नहीं बन पाए हैं। नाट्यशास्त्र में दर्शकों के बारे में लिखा है की वह ‘सहहृदयी’ हों। यह एक महत्वपूर्ण बात है जो संसार की किसी कि़ताब में इससे पहले नहीं आयी। दर्शकों से जो मैं साझा करता हूँ वह मेरा चखा होता है। प्यार से परोसा होता है। वह थाली ठुकरा भी सकता है। थोड़ा छोड़ भी सकता है। ‘दुबारा खाने को कब मिलेगा’ ऐसा पूछ भी सकता है।... मैं तीनों ही स्थितियों के लिये तैयार रहता हूँ। लेकिन वह कहे कि ‘ऐसा क्यों बनाते हो, ऐसा बनाओ।’ तो मुझको उनकी अज्ञानता पर दुःख होता है। अब तक के अनुभवों में ऐसी बात रंगकर्मी ही करते हैं। शुद्ध दर्शक नहीं। कलाकार, दार्शनिक, वैज्ञानिक जो भी रचता है, उसे दूसरों से साझा करने की इच्छा उसकी रहती है। मेरी भी रहती है। साझा करने की चाह में यदि अहम् न हो। किसी तरह के लाभ की आकांक्षा न हो तो ही ये नेक काम है अन्यथा नहीं। कई बार उदाहरण देता हूँ कि ‘साझा’ की भावना ऐसी होनी चाहिए जैसे माँ ने बेटे के दोस्त को बड़े प्यार से खाना बनाकर परोसा हो। माँ अच्छा उदाहरण है। उसके मन में खाना परोसते हुए जो चलता है वैसा ही मेरा भाव रहता है। मैं दर्शकों से नाटक के अगले दिन बात करना चाहता हूँ। लेकिन अज्ञानी रंगकर्मी मुझसे इस तरह से बात करते हैं जैसे मैं एक गुनाहगार हूँ। एक कटघरे में अपने को खड़ा पाता हूँ। वह बातचीत का माहौल बिगाड़ देते हैं। शुद्ध दर्शक तो ऐसे में कुछ बोल ही नहीं पाते। शुद्ध दर्शक कितने प्यारे लोग होते हैं सोचिये कोई बैंक में काम करता है कोई व्यापारी है। वह केवल प्रस्तुति देखने आया है। लेकिन मैं उस तक नहीं पहुँच पाता। एक बार बैंगलोर में शो के बाद यही महसूस हुआ। बहुत तेज़। हमने किसके लिये यह शो किया। तब से यही कोशिश रहती है कि दर्शकों से बात कर सकूँ। यही बात मैं मेरे अभिनेताओं को भी समझाता हूँ। क्योंकि यह बहुत महत्वपूर्ण बात है। यह बात एक अभिनेता को समझनी होगी यह कैसा सुख है कि एक मनुष्य दूसरे मनुष्य को देखने-सुनने आया है। इसीलिए मैं खुद एक निर्देशक के साथ-साथ दर्शक भी होता हूँ। हालाँकि यह अलग बात है कि मैं दर्शक मेरी ही तरह का होता हूँ। बाज़ार की आवश्यकताओं से बहुत दूर।
मेरे अभिनेता और अन्य लोग जो मेरे रचना कर्म के हिस्सेदार हैं वो मेरी इस दर्शक रूपी भूमिका को और अध्ािक मज़बूती प्रदान करते हैं, और मेरी दर्शक रूपी भूमिका को सुध्ाारते हैं। अभिनेता मेरे लिये क्या हैं? कैसे कहूँ?
सोचता हूँ यदि मैं पेंटर, स्कल्पटर या आर्र्किटेक्ट होता तो मेरे रचना कर्म का मीडियम रंग, मिट्टी, ध्ाातु या पत्थर जैसी ही कोई निर्जीव वस्तु होती। एक निर्देशक के रूप में मुझे ऐसा मीडियम मिला है जिसके अन्दर एक दिल ध्ाड़कता है। उसका खून मेरे खून की तरह ही लाल है। वह मुझे देख मुस्कुराता है और मैं भी।
मेरा अभिनेता मुझ पर इस तरह से विश्वास करने लगता है कि मैं स्वयं को एक माँ की भूमिका में पाता हूँ। लेकिन एक पिता जैसी भूमिका निभाते हुए मैं कभी-कभी उसी अभिनेता के साथ कठोर व्यवहार भी करता हूँ। वो फिर भी मुझे ऐसे देखता है कि मैं एक माँ की ही भूमिका में हूँ।
एक निर्देशक के रूप में मेरा अभिनेता मेरे ही चरित्र का एक हिस्सा होता है। या इसे यूँ भी कह सकते हैं कि उसके चरित्र का मैं एक हिस्सा होता हूँ। मेरा दिल उसके दिल से मिल जाता है। हममें से यदि कोई भी एक रचनात्मक त्रुटि करता है तो दोनों को समान रूप से दुःख होता है।
मैं और मेरा अभिनेता दोनों ही इस तरह से रंगभूमि पर कार्य कर रहे होते हैं जैसे किसान और बैल एक खेत में कार्य करते हैं। लेकिन मुझे अक्सर ये बात पीड़ा पहुँचाती है कि हमेशा ही मुझे किसान की भूमिका में रहना पड़ता है। और मैं उतना पसीना नहीं बहा पाता जितना अभिनेता बहाता है।
अपने आप के लिए अक्सर मैं लज्जाजनक भाव महसूस करता हूँ क्योंकि वह मेरे सामने इस तरह से खड़ा होता है जैसे वह मेरा गुलाम है। मेरी हर बात को विनम्रतापूर्वक मानकर उस पर अमल करना ही उसका काम है। मैं उसे सहज करने की कोशिश करता हूँ। सवाल करने के लिए प्रेरित करता हूँ। कोई अभिनेता मेरी इस बात को समझता है, कोई नहीं।
रचना प्रक्रिया के दौरान यदि मेरा अभिनेता चिन्तित होता है तो मैं एक माँ और पिता, दोनों की भूमिका में एक साथ होता हूँ। स्वयं भी बेचैन होता हूँ। कोई उपाय ढूँढ़ने लगता हूँ।
जो नया अभिनेता होता है। अभी-अभी आया होता है। उसकी देखभाल ज़्यादा करनी पड़ती है। वह कमज़ोर न रह जाए ऐसी सावध्ाानी बरतनी पड़ती है। उस समय मैं ऐसा पहलवान पिता बन जाता हूँ जो अपने बेटे को भी पहलवान बनाना चाहता है। मैं उसके साथ कठोर व्यवहार करता हूँ। चाहता हूँ काम करते-करते उसके हाथों और पैरों में छाले पड़ जाए। चोट क्या होती है, वो ये जाने। लेकिन फिर एक माँ की भूमिका निभाते हुए उसका पसीना भी पोछता ही हूँ।
ये कैसा जादू है कि एक निर्देशक के रूप में जैसा मैं सोचता हूँ, जैसी परिकल्पना करता हूँ, मेरा अभिनेता उसे मूर्त रूप दे देता है। जब इस रहस्य को मैं मेरे अभिनेता से पूछता हूँ तो वह कहता है कि ‘आप कहते ही ऐसे हैं कि हम कब कर देते हैं पता ही नहीं चलता।’... इस तरह से मैं और मेरा अभिनेता दोनों ही एक-दूसरे के प्रति ‘अन्ध्ा प्रेम भाव’ रखने में विश्वास करते हैं।
मेरा अभिनेता मुझे सदैव नया कुछ रचने के लिए प्रेरित करता है। मेरी सोच-विचार की अवस्था के समय वह रंगभूमि पर हाथ पैर हिला रहा होता है। तरह-तरह की आवाज़ें निकाल रहा होता है और मैं कुर्सी से झट से उठकर उसके साथ आ खड़ा होता हूँ। जब मैं अभिनेता के साथ खड़ा होता हूँ तो एक ऐसी जादुई ऊर्जा महसूस करता हूँ जिसका दायरा पूरे स्पेस के साथ-साथ मेरे अन्दर तक होता है। मैं मेरे चुस्त अभिनेता को कुछ कहता हूँ और वापस अपने स्थान पर बैठ जाता हूँ।
मैं और मेरा अभिनेता कई बार एक अँध्ोरी गुफ़ा में घुसे हैं, वहाँ इध्ार-उध्ार भटकते हुए हम कई बार एक साथ हताश हुए हैं, कई बार ठोकर खाकर गिरे हैं। एक-दूसरे को सम्भालते हुए अक्सर हमने एक-दूसरे का हाथ थामा है और अन्त में सोना न सही चाँदी लिए गुफ़ा से बाहर निकले हैं।
प्रस्तुति दर्शकों से साझा करने के बाद हमारी दोस्ती और अध्ािक बढ़ जाती है। इस तरह प्रस्तुति दर प्रस्तुति हमारी दोस्ती एक रहस्यमयी रूप ध्ाारण करती जा रही है। मैं अक्सर मेरे अभिनेता को याद करते हुए बिस्तर में सोते हुए रोया हूँ। इसका कारण खोजने की कोशिश मैंने कभी नहीं की।