04-Sep-2018 03:15 PM
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अनुवाद: रमेशचन्द्र शाह
15 नवम्बर
उषःकाल। पहाड़ियाँ मेघाच्छन्न, और हर पक्षी गाता-पुकारता-चीखता ...। एक रँभा रही गाय। एक कुत्ता भौंकता कहीं। खासी मज़ेदार सुबह...। कहीं से पहले बाँसुरी, और फिर ढोल...। हर ध्वनि भीतर भिदती हुई... कुछ का प्रतिरोध... और कुछ का स्वागत... है ना? मगर, इस दुहरी प्रक्रिया में आप की ही क्षति है। कव्वे की पुकार ढोल के साथ, और ढोल की बाँसुरी के नाज़ुक-कमनीय स्वर के साथ... यह समूचा स्वर-समारोह सारे प्रतिरोध और सारी मुग्धता के परे एकदम परे भिद जाने को आतुर है इसी में महान् सौन्दर्य की अवतारणा का सम्भव हैं। वह सौन्दर्य ही क्या, जिसका एक औसत विचार और औसत संवेदन आदी हो चुका हो? विस्फोट सर्व-संहारक होता है और संहार ही धरती और उसका जीवन है। जैसे कि प्यार भी। प्यार कोई सेंसेशन नहीं है। सम्पूर्ण श्रवण - बिना किसी बाधा के - यही विस्फोट का चमत्कार है, जो ‘ज्ञात’ के चिथड़े उड़ा देता है। और उस विस्फोट को सुनना ही उस प्रदेश में प्रविष्ट होना है, जो विचार और काल-चेतना दोनों के परे है।
अपने सबसे सँकरे बिन्दु पर यह घाटी कोई एक मील चैड़ी है, जहाँ पहाड़ियाँ एक-दूसरे के क़रीब आ जाती है और फिर पूरब और पश्चिम की ओर फैलती जाती हैं। ये पहाड़ियाँ ऊँची चढ़ती हुई ... क्षितिज में धुँधला जाती हैं। ज्यों ही घर से निकले साथी से बतियाते हुए - वह ‘अन्य’ वह ‘अजनबी ममेतर’ अपनी प्रतीक्षा करता मिला। कितना अप्रत्याशित था उसका वहाँ आर्विर्भाव! इस कदर त्वरा के साथ। हमारी बातचीत जहाँ की तहाँ स्तम्भित हो गयी - सहज ही। साथी इस परिवर्तन को कैसे लक्ष्य करता? वह अपनी रौ में बोलता रहा। वह पूरे एक मील का फासला हमने निःशब्द तय किया - उस चमत्कार की सुरंग में भीतर ... और भीतर धँसते हुए। वह पूर्णतः ‘अज्ञात’ सत्ता है, हालांकि सहज ही आता और सहज ही चला जाता है। पहचान सारी स्तम्भित हो जाती है क्योंकि पहचानना भी तो अन्ततः ‘ज्ञात’ की ही गति-विधि है। हर बार वह सौन्दर्य पिछली बार की तुलना में विशदतर, तीव्रतर और अमेद्य शक्ति से पूरित होता है। यही प्रेम का भी स्वभाव है।
16 नवम्बर
यह एक नीरव सांझ थी। बादल विदा हो रहे थे - अस्ताचलगामी सूर्य के इर्द-गिर्द जमा हो गये थे। दिन भर हवा के साथ डोलते रहने के बाद अब वृक्ष भी रात्रि-विश्राम की तैयारी में थे: वे भी स्थिर-निष्कम्प हो गये थे। पक्षी भी अपने नीड़ों की ओर लौट रहे थे। घने वृक्षों के झुरमुट में। दो छोटे से उलूक काफ़ी ऊँचे तारों पर जमे हुए थे - अपलक निहारते-घूरते हुए अपने आस-पास को। सदा की तरह पहाड़ियाँ भी हर तरह के विध्न से परे एक निश्चल मौन में डूब रही थीं। दिन भर तो उन्हें इस घाटी के कोलाहल को झेलना पड़ता है, पर, अब साँझ की इस बेला वे स्वयं को चारों ओर से समेट कर मौन में मग्न हो रही थीं। अँधोरा उन पर छाता जा रहा था - हालांकि चाँदनी का हल्का झुटपुटा भी था। तार पर बैठे वे उलूक अब खासे मुखर हो आये थे - उनकी दुबली-सी छोटी काया के अनुपात में उनका यह कण्ठस्वर काफ़ी तीखा था। नीचे उधर उस टेढ़े खम्भे के ऊपर उनका एक खासा बड़ा बिरादर विराजमान था। वह अचानक पंख फड़फड़ाता हुआ इतनी तेज़़ी से उड़ा कि अचरज में डाल दिया उसने, कि कितने ताकतवर हो सकते हैं उसके पंख। निश्चय ही यह उस उलूक-दम्पत्ति में से एक है - जिसका तीखा स्वर रात में यहाँ अक्सर सुनायी पड़ता है - अपनी अद्र्धांगिनी को टेरता हुआ।
इन दिनों मनुष्य की प्रश्नाकुलता महज एक विद्रोह में सिमट गयी है। जो है, उसके विरूद्ध प्रतिक्रिया। ये प्रतिक्रियाएँ ज़्यादातर अनर्गल और अर्थक्षीण होती हैं। कम्युनिस्ट कैपिटलिस्टों के खिलाफ, बेटा बाप के खिलाफ। यह प्रतिक्रिया समाज के प्रचलित मानदण्डों को स्वीकारने के विरूद्ध होती हैं। कदाचित् ये विद्रोह आवश्यक हैं, तथापि वे गहरे नहीं पैठ पाते। होता क्या है कि पुराने की जगह एक नया विन्यास, नयी व्यवस्था ले पाती है और इस तरह यह नया जोड़-तोड़ मानवीय मन का घिराव करके उसे फिर से एक नये बन्धन में फँसाकर उसकी स्वाधीनता को कुण्ठित कर देता है। कारागार के बन्दियों का यह अन्तहीन व्रिदोह-दरअसल क्या है? वह तात्कालिक व्यवस्था के विरूद्ध एक उतनी ही तात्कालिक प्रश्नाकुल प्रतिक्रिया ही तो है - जो उस कारागार की दीवारों को ढहाकर फिर से उनकी चिनाई में जुट जाती है। जेल की दीवारों का यह पुनर्निर्माण इस कदर आत्मतुष्टि उपजा देता है कि हम कभी भी उस घिराव को वास्तव में भेद और ध्वस्त नहीं कर पाते। हाँ, अपनी खुशफहमी में ध्वंस और पुनर्निर्माण का भ्रम ज़रूर खड़ा कर लेते हैं। वह प्रश्नाकुल असन्तोष तुम्हारा दीवारों के भीतर ही पनपता-पुष्ट होता है जो तुम्हें बहुत दूर नहीं ले जा सकता। वह तुम्हें चन्द्रमा तक, न्यूट्राॅन बम तक ज़रूर पहुँचा देगा। परन्तु यह सारा पुरूषार्थ तुम्हारा फिर भी दुःख की पुकार और पहुँच के भीतर ही कार्यरत रहेगा। दुःख की संरचना और संगठन को ही प्रश्नांक्ति करना और उसे आर-पार भेदते हुए उसके परे पहुँचना प्रतिक्रिया नहीं है, न पलायन। प्रतिक्रिया में पलायन अन्तर्निहित है, अनिवार्यतः। वास्तविक प्रश्नाकुलता चन्द्रमा या चर्च तक पहुँचने की अपेक्षा बहुत कठिन और बहुत तीक्ष्ण चुनौती है। यह मर्मभेदी प्रश्नाकुलता ही सचमुच पूरी तरह ढहा सकती है मानवी दुःख-त्रास की विभीषिका की संरचना के दुर्ग को। यह प्रश्नाकुलता ही विचार की यान्त्रिकता को नष्ट-नेस्तनाबूद कर सकती है: न कि एक विचार को दूसरे विचार से, एक यन्त्र को दूसरे यन्त्र से विस्थापित करने वाली तर्क चातुरी। पलायन-चेष्टा से विरहित दुःख की मूल संरचना को प्रश्नांकित करने वाली व्याकुलता ही मनुष्य की सामाजिक प्रतिष्ठा पर आधारित नैतिकता को - स्व-केन्द्रित पुण्यात्मापन को - अन्तहीन सुधारवादी नैतिकता को जड़-मूल से उखाड़ सकती है, उन्मूलित कर सकती है।
परन्तु हम उस ‘ज्ञात’ के पूर्ण विध्वंस से भयभीत हैं - जो हमारे सीमित-संकुचित ‘स्व’ का - ‘मैं’ और ‘मेरा’ वाली मानसिकता का मूलोच्छेदन है। इस ‘ज्ञात’ से मुक्ति उस सबको निरर्थक और नष्ट कर देती है जिसे हम प्रेम, रिश्ता-नाता, सुख इत्यादि कहते हैं। जबकि ‘ज्ञात’ से स्वतन्त्र होना- विस्फोटक प्रश्नाकुलता के द्वारा ( न कि प्रतिक्रियामूलक प्रश्नों के द्वारा) - ही दुःख का मूलतः निवारण है। और, इसलिए प्रेम वह वस्तु, वह सत्ता है, जिसे विचार और भाव-यन्त्र नहीं माप सकते।
हमारा जीवन उथला और अर्थहीन है - तुच्छ और निस्सार, विचारांे तथा कर्म-कोलाहल से पटा हुआ, - द्वन्द्व और यन्त्रणाओं से बुना हुआ, और सदा-सर्वदा एक अभ्यस्ति, एक ‘ज्ञात’ से दूसरी अभ्यस्ति, दूसरे ‘ज्ञात’ की ओर का सफ़र तय करता हुआ - मनौवैज्ञानिक सुरक्षा की तृष्णा और लालसा से ही प्रेरित। किन्त ‘ज्ञात’ मंे कभी कोई सुरक्षा नहीं है - चाहे हम उसकी खातिर कितनी ही जद्दोजहद क्यों न करते रहंे। सुरक्षा का अर्थ ही समय है, और मनोवैज्ञानिक समय जैसी कोई चीज़़़ नहीं है। यह एक छूँछा मिथक और भ्रम भर है - भय ही भय उपजाते रहने वाला। कुछ भी स्थायी नहीं है यहाँ - आज और कल, यानी आगामी भविष्य में। केवल सही-वास्तविक प्रश्नों से प्रेरित धर्मजिज्ञासा और सही-वास्तविक ‘सुनना’ ही विचारों और भावनाओं की अन्तहीन यान्त्रिकता से - जाने भेागे हुए ‘ज्ञात’ के दुश्चक्र को ध्वस्त कर सकता है। आत्म-ज्ञान, यानी, विचार और भाव-यन्त्र का निर्मानमोह पारदर्शन, और हर दिमागी हलचल को तत्काल-तत्क्षण सुनना-पकड़ लेना ही इस अन्तहीन पुनरावृत्ति से हमें छुटकारा दिला सकता है। ‘ज्ञात’ ही दुःख की जन्मभूमि है; और प्रेम ही उससे मुक्ति।
17 नवम्बर
धरती आकाश के ही रंग में रंगी हुई...। पहाड़ियाँ, हरियाली, पकते हुए धान-खेत, वृक्ष-पंक्ति ... और सूखी बालुकामयी नदी-शय्या... सब आकाश रंगी। पहाड़ियों की हर शिला, बड़ी-बड़ी चट्टानें सब बादल। स्वर्ग धराधाम था, और धरा ही स्वर्ग; अस्त होते हुए सूर्य ने सब कुछ को रूपान्तरित कर दिया था, आकाश की धधकती अग्नि-ज्वाला मानो हर बादल, हर पत्थर, हर घास-पत्ती में से फूटी पड़ रही थी। उसकी विशालता और तीव्रता समूचे अन्तरिक्ष को आर-पार भेदती हुई पृथ्वी में प्रविष्ट हो गयी थी। पृथ्वी आकाश हो गयी थी और आकाश पृथ्वी। सब कुछ जीवित रंगों का विस्फोट!!! रंग ही ईश्वर था - मनुष्य का ईश्वर नहीं। पहाड़ियाँ पारदर्शी हो गयी थीं - प्रत्येक शिला और बड़ी-बड़ी चट्टानें एकदम भारहीन होकर रंगों के समुद्र में तैर रही थीं... और सुदूर पहाड़ियाँ नीली थीं। वह नीलिमा सारे समुद्रों की नीलिमा थी, और हर ऋतु का आकाश। पकते हुए धान तेज़ गुलाबी और हरे ... बरबस ध्यान आकर्षित कर लेने वाले। और, वह सड़क जो घाटी को पार कर रही थी... बैंगनी और श्वेत थी - इस कदर जीवन्त, कि वह उन किरणों में से ही एक किरण हो गयी थी - जो धरती में नहीं, आकाश के आर-पार दौड़ रही थी। तुम स्वयं भी उसी रोशनी के - उस ज्वलन्त - विस्फोटक, छायाहीन प्रकाश के - ही बने थे। बिना किसी जड़-मूल और शब्द के। जैसे-जैसे सूरज ढलता गया, वैसे-वैसे हर रंग अधिकाधिक उग्र और ज्वलन्त होता गया, और तुम पूरी तरह खो गये उसमें - वापसी से परे। यह एक ऐसी शाम थी, जिसकी कोई स्मृति नहीं होती।
हर विचार और भाव का कुसुमन अनिवार्य है - उसका अपना सम्पूर्ण जीवन जीने के लिए, और जी लेने के उपरान्त मरने के लिए। कुसुमन हर उस चीज़़़ का, जो तुम्हारे भीतर है - महत्वाकांक्षा, लोभ-लालसा, घृणा, भावावेग ... सब। उनके कुसुमित होने में ही उनकी मृत्यु और मुक्ति निहित है। स्वातन्त्र्य में ही चीज़़़ें पूर्णतः प्रस्फुटित होकर खिलती हैं; न कि दमन था नियन्त्रण और अनुशासन में। वे केवल विकृति उपजाते हैं। प्रस्फुटन, कुसुमन और स्वातन्त्र्य ही शिव है और सारी गुणवत्ता भी। ईष्र्या को भी फूलने-फलने देना आसान नहीं है। उसकी या तो भत्र्सना की जाती है या गुपचुप सम्वधर््ाना। पर उसे स्वतन्त्रता नहीं दी जाती कभी भी। परन्तु स्वतन्त्रता में ही ईष्र्या अपना असली रंग-रूप और गहरायी प्रकट करती है। दमित अवस्था में वह अपने को पूरी तरह खुलकर अभिव्यक्त नहीं करेगी। जब वह स्वयं को पूर्णतः व्यक्त कर देती है, तभी उसका अन्त होता है - एक दूसरे तथ्य के उद्घाटन में। वह तथ्य है रिक्ति, अकेलेपन और भय का। और ... जैसे जैसे हर तथ्य को फूलने-फलने के लिए खुला छोड़ दिया जाता है, वैसे-वैसे, दर्शक और दृश्य का अन्तद्र्वन्द्व और संघर्ष भी थमने लगता है। अब दमनकर्ता नहीं रहता; केवल मात्र निरीक्षण, केवल देखना भर रह जाता है। स्वतन्त्रता केवल पूर्णता में ही होती है ; पुनरावृत्ति या दमन, या विचार की किसी धारा या विन्यास में नहीं। पूर्णता सिर्फ़़ कुसुमन और विलोपन में अर्थात् मृत्यु में होती है। मृत्यु नहीं है, तो कुसुमन भी नहीं है। जो जारी रहता है, वह समयाधीन विचार है। विचार का कुसुमन विचार का अन्त है। क्योंकि मृत्यु में ही वह होता है, जो वास्तव में नया है। नया कुछ हो ही नहीं सकता यदि ‘ज्ञात’ से मुक्ति न हो। विचार, जो बासी-पुराना है, नये का सृजन नहीं कर सकता। उसे मरना ही होगा ताकि नया जन्म ले सके। जो कुसुमित होता है, उसका अन्त अवश्यम्भावी है।
20 नवम्बर
घना अँधोरा। निरभ्र आकाश में तारे दमक रहे थे और बयार शीतल-ताज़गी भरी। हर वृक्ष मौन, रहस्यमय, स्वप्निल और दुर्भेद्य। एक कार की आवाज़़़़़़़़़ को छोड़, समूचा देहात सोया पड़ा था। थोड़े से लोग सड़क पर दृष्टिगोचर हुए, उन्होंने स्वयं को कपड़े में इस तरह लपेट रखा था कि, बस चेहरा भर दिखायी दे। वे थके-माँदे अपने घरों को लौट रहे थे। ऐसे लग रहे थे मानो रात भर चलते रहे हों। सड़क एक के बाद दूसरा मोड़ पार करती हुई पसरी थी। पक्षी भी निद्रितावस्था में थे - इक्के दुक्के को छोड़कर। और जैसे-जैसे सूर्योदय बेला पास आती गयी, वैसे-वैसे वे जगने लगे - कव्वे, गीध, कबूतर और असंख्य छोटे-छोटे पक्षी। हम चढ़ाई चढ़ रहे थे और एक छोटे-से जंगल से गुजर रहे थे। सड़क पर कुछ बन्दर दिखायी दिये। इमली के नीचे एक बहुत बड़ा बन्दर बैठा था। एक बहुत छोटा-सा बन्दर भी - अपनी माँ के पेट से चिपका हुआ। ऊषा सूर्योदय में परिणत हो रही थी। लोग भी अब नींद से जगने लगे थे। वे अपने घरों को बुहारते और सारा कूड़ा-कचरा सड़क के बीचोबीच फेंकते नजर आये। कुत्ते-पता नहीं क्यों- सड़क के बीचोबीच ही सोना पसन्द करते हैं। बसें, कारें और लोग उन्हें बचाते हुए चल रहे थे। स्त्रियाँ कुँओं से पानी लेकर घर की ओर जाती दिखायी दीं। अब हम उस भीड़ भरे गन्दे बड़े शहर के निकट पहुँच गये थे और हमारी परिचित पहाड़ियाँ पीछे छूट चुकी थीं।
हमारी कार खासी रफ़्तार से चल रही थी और ध्यान के लिए वह अच्छी जगह थी। ध्यान मात्र एक साधन नहीं है किसी साध्य तक पहुँचने का। यहाँ कोई अन्त या गन्तव्य नहीं होता। हर प्रणाली या विधि विचार को समयबद्ध करती है: किन्तु ध्यान हर विचार और भाव की निर्विकल्प चेतना है; हर विचार और भाव के पीछे की नीयत और यान्त्रिकता के प्रति जागरूक होना। उन सबको प्रस्फुटित होने देना ही ध्यान का आरम्भ है। जब विचार और भावनाएँ पूरी तरह खिलकर मुरझा जाते हैं, तब ध्यान समय के परे संचरित होता है। इसी संचरण में परमानन्द की अनुभूति होती है। सम्पूर्ण रिक्ति में प्रेम प्रकट होता है और प्रेम के इस प्राकट्य के साथ ही विनाश और सृजन भी।
21 नवम्बर
अस्तित्व मात्र विकल्प है, वरण है। केवल आत्मसाक्षात्कारी अकेलेपन (अलोननेस) में ही निर्विकल्प शान्ति है। विकल्प मंे संघर्ष-अन्तद्र्वन्द्व निहित है। उसमें आन्तर और बाह्य का अशाम्य द्वन्द्व, उलझाव और यातना है। तब फिर उस यातना से बचने के लिए आस्था-विश्वास, राष्ट्रवाद आदि नाना प्रकार की प्रतिबद्धताएँ अनिवार्य हो उठती हैं। जहाँ उनमें शरण ली कि, बस फिर वे ही सबसे महत्वपूर्ण हो जाती है। पलायन की यही परिणति है: आत्म-छलना। भय और दुश्चिन्ता मन में सदा के लिए डेरा डाल देते हैं। विकल्प से निराशा और दुःख ही उपज सकते हैं और इस दुःख का कोई शमन या अन्त सम्भव नहीं। विकल्प में कोई आज़ादी नहीं है। तुम अपनी पृष्ठभूमि के अनुसार चुनाव करते हो - अपनी सामाजिक, आर्थिक और मज़हबी प्रतिबद्धताओं के अनुसार। तथाकथित विकल्प या वरण इस बन्धन को अनिवार्यतः और अधिक मज़बूत बनाता है। इस बन्धन से छूटना सम्भव नहीं। न पलायन, जो और दुःख बढ़ाता है।
दुःख को ही पोसने-बढ़ाने वाले इस विकल्प को ही ध्यानपूर्वक देखो - कि कैसे वह दुबका रहता है हमारे भीतर - हमेशा कुछ माँगता हुआ। और इससे पहले, कि तुम कुछ समझ पाओ, इससे पहले ही तुम कर्तव्यों-जिम्मेदारियों-निराशाओं के जंजाल में फँस जाते हो। देखो इसे सचमुच यथातथ्य देखो- तुम इस तथ्य के प्रति पूरी तरह सचेत हो जाओगे। तुम तथ्य को बदल नहीं सकते - उसे छिपा-ढाँप सकते हो - उससे दूर भाग सकते हो - परन्तु उसे बदल नहीं सकते। वह सदैव वहाँ रहेगा -यथावत्। यदि तुम बिना अपनी धारणाओं और दुराशाओं को बीच में लाये उसे अपनी जगह पड़ा रहने दो, तो वह खिलकर अपने आप झर जायेगा। खिलकर वह तुम्हें अपनी सारी जटिलताओं, दबी-छुपी नीयतों और कल्पनाओं को तुम्हारे सामने जाहिर कर देगा। बस, तुम्हें बिना फँसे, बिना अपना विकल्प छाँटने के चक्कर में पड़े, उसकी सारी हरकतों के प्रति जागरूक रहना है। तब तुम देखोगे कि विकल्प पूरी तरह खिल चुकने के बाद अपने आप मुरझा और झर जाता है और वही स्वतन्त्रता का उन्मेष होता है। यह नहीं, कि तुम स्वतन्त्र हो जाओगे; बल्कि यह, कि तुम देखोगे कि स्वतन्त्रता है। तुम विकल्प निर्माता हो, और तुमने विकल्प-निर्माण करना छोड़ दिया है। देख लिया है कि विकल्प दरअसल है नहीं। तब इस विकल्प रहित अवस्था के भीतर से ‘अलोननेस’ का, वास्तविक अकेलेपन का कुसुमन होगा। इस असली, स्वरूपावस्थानी अकेलेपन का अर्थ है - ज्ञात के प्रति, ज्ञात के लिए मर जाना। सारा विकल्प, सारा चुनाव ‘ज्ञात’ के क्षेत्र में ही होता है; और इस क्षेत्र में किया गया हर कर्म दुःखोत्पादक ही होता है। दुःख का निरसन केवल इस वास्तविक स्वरूपावस्थानी अकेलेपन को सिद्ध करने से ही हो सकता है।
22 नवम्बर
(इस दिन कृष्णमूर्ति ने मद्रास में अपने आठ व्याख्यानों में पहला व्याख्यान दिया था। ये व्याख्यान 17 दिसंबर तक जारी रहे थे।)
ढेर सारी पत्तियों के बीच एक तीन पंखुड़ियों वाला गुलाबी फूल खिला। हरियाली के बीच विन्यस्त था यह और वह स्वयं अपने सौन्दर्य से चमत्कृत हुआ होगा। वह एक ऊँची झाड़ी पर उगा - उस सारी हरियाली के बीच जीवित रहने के लिए संघर्षरत है। उसके ठीक ऊपर एक विशालकाय वृक्ष तना खड़ा है और कई सारी दूसरी झाड़ियाँ भी - सभी अपने-अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए युद्धरत। यों इस झाड़ी में और भी कई सारे फूल थे, किन्तु पत्तियों के झुरमुट में खिलने वाला अकेला वही था। इसीलिए विस्मय उपजाता-ध्यानाकर्षक ढंग से। पत्तों के बीच हल्की-सी हवा थी। पर हवा का झोंका उस फूल तक पहुँच नहीं पा रहा था। फूल निश्चल था अपने एकाकी स्वरूप मेें। और चूंकि यह सचमुच अकेला था पूरी तरह, इसी कारण उसमें विलक्षण सौन्दर्य था - सूने आकाश में जगमगाते नक्षत्र की तरह।
सूर्यास्त हो चुका था और कुछ भटकते मेघ गुलाबी आभा धारण कर रहे थे। इस देशान्तर पर गोधूलि नहीं होती। आरे निरभ्र आकाश में लगभग पूरा चन्द्रमा अपनी छटा बिखेर रहा था। उस सड़क पर चलना-पानी में चाँद का प्रतिबिम्ब निहारते हुए और मेढ़कों की टर्राहट सुनते हुए आशीर्वाद सा उतर आया। चलते हुए तुम - जो कुछ तुम्हारे आस-पास घट रहा था - उस सबके प्रति सचेत जागरूक थे। चन्द्रमा को रह-रह कर अपने पीछे ओझल करते बादल-दल, पीछे से टुनटुनाती साइकिल की घण्टी-चेतावनी-सी देती। पर इस सचेतता के बावजूद, तुम इस सबसे बहुत दूर थे। तुम नहीं, बल्कि वह विशाल और महान् गहरायी। वह गहरायी देश-काल से परे अपने भीतर ही भीतर डूबती जा रही थी। वह सम्पूर्ण स्वाधीनता थी - मुक्ति बिना जड़-मूल की, और दिशा-निरपेक्ष। और, ..... उसी गहरायी में विचार से सर्वथा विच्छिन्न और सुदूर परमानन्द का स्फुरण हो रहा था।
नियन्त्रण का सार है - दमन। विशुद्ध देखना हर प्रकार की दमन-चेष्टा को समाप्त कर देता है। ‘देखना’ नियन्त्रण की तुलना में अगणित गुना सूक्ष्म वस्तु है। नियन्त्रण आसान है, उसमें बहुत समझ नहीं लगती। सिर्फ़़ दूसरों के द्वारा लादे गये अनुशासन का पालन भर करना होता है। किसी मान्य अथाॅरिटी का आदेश-पालन। कहीं कोई चूक न हो जाए, इसका डर, सफल होने की जद्दोजहद - यही वे बातें हैं जो यथार्थ का, तथ्य का दमन अथवा उन्नयन करती है। तथ्य को यथावत् देखने की विशुद्ध क्रिया अपनी समझ अपने साथ लाती है और, उसीमें से वास्तविक रूपान्तरण- ‘म्युटेशन’ - सम्भव होता है।
25 नवम्बर
ध्यान का खिलना ही शिवत्व है। यह कोई ऐसी चीज़़़ नहीं, जिसे धीरे-धीरे बटोरा जा सके; यह कोई बँधी-बँधाई नैतिकता नहीं, जो समाज में सम्मानयोग्य मानी जाती है; न ही, वह किसी सत्तासीन की मोहताज है। यह ध्यान का आन्तरिक सौन्दर्य है जो उसके कुसुमन को सुवासित करता है। ध्यान में आनन्द की सृष्टि कैसे होगी यदि वह लालसा और वेदना के उकसावे से उपजता हो? ध्यान खिलेगा ही कैसे, यदि आप उसे नियन्त्रण, दमन और त्याग के माध्यम से खोजेंगे? यह सब आपको पीछे छूट जाने देना होगा - बिना किसी पछतावे के, सहज रूप में। ध्यान किसी पद्धति के सुदीर्घ अभ्यास का मोहताज नहीं होता। सारी पद्धतियाँ, सारे तन्त्र विचार किसी एक साँचे में ढालने पर निर्भर होते हैं और ऐसी प्रणाली का बन्धन ध्यान के कुसुमन को ही मर्माहत कर देता है। वह केवल पूर्ण स्वातन्त्र्य में ही विकसित होता है। बगैर स्वातन्त्र्य के आत्म-ज्ञान नहीं होता। और बिना आत्मज्ञान के ध्यान सम्भव नहीं है। विचार सदैव तुच्छ और उथला होता है - चाहे वह ज्ञान की तलाश में आकाश-पाताल एक कर डाले। ज्ञान का विस्तार कदापि ध्यान नहीं है। वह केवल ज्ञात से पूर्ण स्वातन्त्र्य उपलब्ध करने पर ही खिलता है। और ज्ञात की सीमाओं में बँधते ही सूख और झर जाता है।
26 नवम्बर
धान के खेतों के बीच ताड़ का वृक्ष अकेला खड़ा है। वह अब युवा नहीं रहा खूब ऊँचा और सीधा तना हुआ है। उसकी खूबी उसके दर्पीले वजूद की है। संभ्रान्तता के आडम्बर से भरी हुई। वह अपने अकेले रौब-दाब के साथ मौजूद है वहाँ। उसने इसके सिवा और कुछ जाना ही नहीं और वह ऐसे ही अकड़ के साथ खड़ा रहा आयेगा-मृत्यु पर्यन्त। उससे तुम्हारी भेंट-अचानक ही हो गयी सड़क के मोड़ पर और तुम अचम्भित हो गये उसे वहाँ धान-खेतों और बहते पानी के बची अकेले खड़े देखकर। पानी और हरे-भरे खेत आपस में गुनगुना रहे थे जो वे प्राचीन काल से ही करते आ रहे हैं। परन्तु उनका विनम्र गुंजार कभी भी ताड़ तक नहीं पहुँच पाया। वह तो ऊँचे आसमान और चमकदार बादलों के साथ अपने अकेले ऐश्वर्य में तना रहा आया। तुम्हें रास्ते में कुछ हिरन भी चरते दिखायी पड़े थे - लम्बे और भारी सींगों वाले। उनमें से कुछ लाल सड़क को पार कर रहे थे और कुछ झाड़ियों में दुबके हुए थे। छोटी-सी कार कहीं रूकी नहीं थी। निर्मल साँझ उतर आयी थी और आसमान में तारे झलक आये थे। स्वच्छ और चमकीले। पेड़ रात्रि-विश्राम की तैयारी में थे और पक्षियों का अधीर कलरव भी थम चुका था।
साँझ के उस आलोक में उस तंग सड़क पर चलते हुए आनन्द की तीव्रता बढ़ती ही गयी-अकारण ही। आरम्भ उसका एक छोटे से उछलते-कूदते मकड़े से हुआ था, जो आश्चर्यजनक फुरती से मक्खियों पर झपटा था और उन्हें कसके दबोचे था। हाँ, वह आरम्भ एक छोटी-सी अकेली पत्ती की फड़फड़ाहट से हुआ था, जबकि बाकी पत्ते स्थिर-निष्कम्प थे; वह आरम्भ हुआ था एक धारीदार छोटी-सी गिलहरी को देखने से - जो अपनी लम्बी पूँछ हिलाती और जाने किस-किस को फटकारती फिर रही थी वहाँ। उस उल्लास का कोई एक हेतु नहीं था। वह उल्लास ओछा होता है जो किसी कारण से उपजता या उपजाया जाता है और नितान्त अस्थिर, बदलता रहता है। किन्तु यह विचित्र और अप्रत्याशित हर्षोत्तेज़ना अपने-आप तीव्रतर होती गयी और जो उल्लास ऐसा तीव्र-सघन होता है, वह कभी पाशविक नहीं हो सकता। वह नितान्त विनम्र और समर्पणशील होते हुए भी अपनी तीव्रता को बरकरार रखता है। तुम चाह कर उसे नहीं उपजा सकते। वह सबल और दुर्बल की कोटियों से बाहर है। वह सर्वथा निष्कवच और वेध्य होता है, जैसे कि प्यार होता है। सब कुछ-सारी की सारी हलचलें उस एक तीव्रता के भीतर ही सिमट आयीं थीं। एक स्थिर-निष्कम्प लौ का रूपाकार होता है; किन्तु भीतर केन्द्र में उसके सिर्फ़़ दाहक ऊष्मा भर होती है - बिना किसी रूपाकार के।
27 नवम्बर
तेज़ हवा से हाँके गये बादलों के झुण्ड के झुण्ड पश्चिमी क्षितिज पर जमा हो गये थे। वे गज़ब के लहरीले श्वेत-श्याम, पानी भरे बादल थे - और, देखते ही देखते समूचे आकाश पर छा गये। वयोवृद्ध वृक्ष उनसे और तेज़ हवा से नाराज़ थे। वे चाहते थे उन्हे ंनिर्विघ्न और अकेले रहने दिया जाये, हालाँकि वर्षा की ज़रूरत तो उन्हें भी थी ही। वर्षा उन्हें स्नान कराके उनकी सारी धूल छुड़ाके उन्हें स्वच्छ निर्मल कर देगी - उन्हें पता है। परन्तु वे विध्न भी नहीं चाहते - बड़े-बूढ़ों की तरह ही। बाग में तरह-तरह के फूल खिले थे रंग-बिरंगे - और हर फूल नृत्य करना चाहता था, हर पत्ती थिरक रही थी - लाॅन के घास की पत्तियाँ भी। दो वृद्धा स्त्रियाँ, जो समय से पूर्व ही वृद्ध हो गयी थीं - घास पर पालथी मारे बैठी थीं - फालतू घास उखाड़तीं और साथ-साथ बतियाती भी जातीं। तुम उनके साथ एकात्म हो गये थे। वे ‘तुम’ थे और घास और बादल भी। तुम ‘वे’, और वे ‘तुम’ - यह अद्वैत किसी सहानुभूति या विचार से नहीं उपजा था। तुम सोच तो बिलकुल भी नहीं रहे थे। न भावनाओं के वशीभूत हो रहे थे। वे तुम थे और तुम वे ही थे ... और समय एकदम रुक गया था, स्तम्भित हो गया था। एक कार रुकी और उसका शोफर भी उस दुनिया में शामिल हो गया। उसकी लजीली-सी मुस्कान और अभिवादन तुम्हारे ही थे और तुम अचरज मंे थे कि वह किसे देखकर मुस्कुरा रहा है, किसे सलाम कर रहा है? वे स्त्रियाँ और वे शोफर तुम ही थे। उनके और तुम्हारे बीच की बाड़ें ... तत्काल ध्वस्त हो गयी थीं और फिर सब कुछ एक निरन्तर फैलते जाते वृत्त में बदल गया, जिसमें वह गन्दी सड़क, वह भव्य आकाश, सड़क पर चलते राहगीर सबके सब सिमट आये। इस घटना का किसी सोच-विचार से कुछ भी लेना-देना नहीं था। विचार यूँ भी एक घटिया चीज़़़ है, ... और, भावनाएँ तो उस दृश्य में कहीं थीं ही नहीं। वह एक ‘लौ’ थी, जिसने सबको अपनी लपेट में लेके सबको मिटा दिया था। एक भी चिन्ह - राख तक नहीं छूटने दी थी वहाँ। वह कोई तथाकथित अनुभव नहीं था, जिसमें यादें होती हैं, जिन्हें दोहराया जा सके। वे सब तुम ही थे। और तुम ही उनमें से प्रत्येक थे।
कितनी विचित्र है अपने को कुछ दर्शाने की लालसा या कुछ बन जाने की! ईष्र्या घृणा है, और दिखावा भ्रष्ट करने वाला। असम्भव की हद तक कठिन लगता है सरल होना- यानी वही होना, जो तुम वस्तुतः हो; और हर दिखावे से दूर रहना। तुम मुखौटा धारण कर सकते हो; परन्तु वह होना, जो तुम वस्तुतः हो, बेहद जटिल है। क्योंकि तुम तो हर क्षण बदलते रहते हो - तुम कभी भी एक से नहीं रहते - हर क्षण तुम्हारा एक नया पहलू, एक नयी गहरायी, एक नयी सतह उभर आती है। तो फिर तुम किसी भी क्षण ‘यह सब’ कैसे हो सकते हो? नहीं हो सकते। इसलिए, अगर तुममें जरा भी अक्लमन्दी है, तो तुम कुछ भी बनने और दिखने का आग्रह तज दो। तुम सोचते हो, तुम बहुत संवेदनशील हो - जबकि मात्र एक घटना, मात्र एक दिमागी लहर ही साफ-दो टूक दर्शा देती है कि तुम नहीं हो संवेदनशील। तुम सोचते हो तुम बड़े चतुर सयाने, कला-कुशल और नैतिक संवेदना से लैस हो। मगर एक मोड़ पार किया नहीं, कि अगले ही मोड़ पर तुम इनमें से कुछ भी नहीं रह जाते। उल्टे, पाते हो, कि तुम भीतर ही भीतर बेहद महत्वाकांक्षी, ईष्र्यालु, अपर्याप्त, हिंस्र और चिन्तातुर हो। तुम बारी-बारी से ये सारे व्यक्तित्व हो, और, फिर भी, चाहते हो कि तुम वही बने रहो लगातार, जो तुम चाहते हो और जो फायदेमन्द और मज़ेदार-सुखदायी और रौबदार भी हो। तो, तुम उसी छवि के पीछे भागते हो जबकि बाकी सारे प्रतिरूप तुमसे अपना पावना वसूल करने कभी भी, कहीं भी आ धमकते हैं।
गरज यह, कि जो तुम हो, वही होना एक बहुत ही जटिल और कठिन पुरूषार्थ है। यदि तुम सचमुच चैतन्य हो, तो तुम सब जानते हो और उस ‘जानने’ के साथ जाने वाले तमाम दुःख और त्रास को भी। इसलिए, तुम स्वयं को सब तरफ से खींचकर-छुड़ाकर अपने काम में झोंक देते हो, अपनी आस्था या विचारधारा में, अपने आदर्शों और ध्येयों में। तब तक तुम वृद्ध हो चुके होते हो और कब्र में दफ़न होने के लिए प्रस्तुत भी - यदि तुम भीतर ही भीतर पहले ही मृत नहीं हो चुके हो तो। इन सारी चीज़़़ों को उनके समस्त अन्तर्विरोधों और दिन-ब-दिन बढ़ते दुख-त्रास के साथ परे फेंक देना, और अपनी अकिंचनता को अंगीकार कर लेना ही सर्वाधिक सहज और विवेकपूर्ण कर्तव्य है तुम्हारा। किन्तु इसके पूर्व, कि तुम ऐसी निपट अकिंचनता को अपना सको, यह अनिवार्य है कि पहले स्वयं तुम्हारे द्वारा उक्त सारी तुम्हारे भीतर छुपी हुई चीज़़़ें उघाड़ के उजागर कर दी जायें और इस तरह पूरी तरह आत्मसात् करके समझ-बूझ ली जाएँ। उन प्रच्छन्न प्रेरणाओं और बन्धनों-बाध्यताओं को आरपार देख-समझ पाने के लिए तुम्हेें उनके प्रति- बिना किसी विकल्प के सर्वथा सचेत जागरूक होना होगा - जैसे कि मृत्यु के सामने। तभी उस पारदर्शन के विशुद्ध कर्म में वे सारी चीज़़़ें झर जाएँगी, और तुम सचमुच और वस्तुतः अकिंचन होकर दुःखमुक्त हो सकोगे। अकिंचन होना कोई निषेधात्मक या नकारात्मक काम नहीं है। वह सब, जो तुम भोग चुके हो, हो चुके हो, उस सबको नकारना ही सबसे सकारात्मक कर्म है। यह सकारात्मकता किसी भी हालत में ‘प्रतिक्रिया’ नहीं है। प्रतिक्रिया तो वास्तव में कर्महीनता है - तुम्हारे सारे दुःख का मूल कारण। यह सकारात्मक नकार ही तुम्हें सचमुच ऊर्जा प्रदान करेगा। मात्र सोचना-विचारना, सोच विचार में ही गर्क रहना अपनी ऊर्जा को छितराना हैं, उसे नष्ट करना है। विचार कालाधीन होता है, और कालाधीन जीवन ही विघटन ह्ास और अन्तहीन दुःख-त्रास है।
28 नवम्बर
ध्यान कल्पना-क्रीड़ा नहीं है। ध्यान के खिलने के लिए बिम्ब, शब्द प्रतीक के सारे रूपों का अन्त हो जाना अनिवार्य है। मन को शब्दों और उनसे उपजती प्रतिक्रियाओं की ग़ुलामी से खुद को मुक्त करना होगा। विचार समय है और प्रतीक, चाहे वह कितना ही पुरातन और अर्थसमृद्ध क्यों न हो, विचार पर उसकी पकड़ बनी नहीं रह सकती। विचार में तब कोई निरन्तरता नहीं होती। वह सिर्फ़़ एक पल से दूसरे पल तक संचरित हो सकता है और, इसलिए अपनी यान्त्रिक आग्रहशीलता भी गँवा देता है। विचार तब मन को आकार नहीं दे सकता, न ही उसे एक साँचे में ढालकर उस संस्कृति और समाज के लिए इस्तेमाल कर सकता है, जिसमें वह जीता है। स्वातन्त्र्य चाहिए - समाज से नहीं, बल्कि, धारणाओं से। तभी सम्बन्ध और समाज मन को बन्दी नहीं बना सकेंगे। सारी चेतना अहर्निश अस्थिर, परिवर्तनशील है और मूलगामी परिवर्तन अर्थात ‘म्युटेशन’ तभी मुमकिन है जब समय और विचार का अन्त हो जाय। यह अन्त कोई निष्कर्ष नहीं है। वह आत्मज्ञान द्वारा ग्राह्य होता है। तथाकथित ज्ञान सचमुच सीखना नहीं है; वैसा ज्ञान तो सिर्फ़ स्वीकृति और संग्रह भर है: जानकारियों का ढेर - जो असली ‘सीखने’ की प्रक्रिया को अवरुद्ध कर देता है। सीखना पल-प्रतिपल होता है, क्योंकि यह ‘मैं’ हर क्षण बदलता रहता है। वह कभी स्थिर नहीं रहता। संग्रह और परिग्रह सीखने को विकृत कर देता है। ज्ञान का संग्रह ज्ञान की सीमाओं को चाहे जितना विस्तृत कर दे - वह दरअसल है यान्त्रिक चर्या ही। और, यान्त्रिक मन कभी भी स्वतन्त्र मन नहीं हो सकता। आत्मज्ञान मन को ‘ज्ञात’ के बन्धनों से मुक्त करता है। ध्यान कोई व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं है; न ही यथार्थ या सत्य की व्यक्तिगत खोज।
29 नवम्बर
बगैर संवेदनशीलता के स्नेह सम्भव नहीं। व्यक्तिगत प्रतिक्रिया संवेदनशीलता नहीं साबित करती। आप अपने कुटुम्ब के प्रति, अपनी पद-प्रतिष्ठा और क्षमता के प्रति संवेदनशील हो सकते हैं; परन्तु इस प्रकार की संवेदनशीलता केवल एक प्रतिक्रिया है - सीमित, संकुचित और ह्रासोन्मुख। संवेदनशीलता सुरूचि भी नहीं है; क्योंकि सुरूचि व्यक्तिगत होती है; और व्यक्तिगत प्रतिक्रिया से मुक्ति ही सौन्दर्य चेतना है। इस सौन्दर्य-चेतना के अभाव में प्रेम नहीं पनप सकता। प्रेम प्रकृति के प्रति संवेदनशीलता है: नदी, आकाश, लोग, गन्दी सड़क सबकी सतत-चेतना अनुभूति है। इस स्नेह का सार ही संवेदनशीलता है। किन्तु अधिकांश लोग इसी संवेदनशीलता से डरते हैं। उनके लिए संवेदनशील होना चोट खाना है। इसलिए वे अपने को कड़ा करके अपने दुःख का संरक्षण करते हैं। या फिर मनबहलाव के तरह-तरह के रूपों की ओर पलायन करते हैं - जैसे चर्च, गपशप, सिनेमा या समाज-सुधार में। किन्तु संवेदनशील होना कोई व्यक्तिगत मामला नहीं है। जब भी वह ऐसा होता है, दुर्गति की ओर ही ले जाता है। इस व्यक्तिगत प्रतिक्रिया के चंगुल से छूटना ही प्रेम है। और, प्रेम किसी एक या अनेक से बँधा नहीं होता। संवेदनशील होने के लिए सारी ज्ञानेन्द्रियों का खूब चुस्त-चैकस होना ज़रूरी है। और इसमें इन्द्रियों का गुलाम बन जाने का डर उपजना या उपजाना मात्र एक प्राकृतिक तथ्य से कतराना है। तथ्य के प्रति सचेतन होना दासता कबूल करना कतई नहीं है। उल्टे, तथ्य से डरके भागना ही बन्दीपन को बुलावा देना है।
वर्षा में नहायी सुबह थी और आकाश मेघाच्छन था। छोटे लाॅन में नाना प्रकार के पक्षियों का कलरव गूँज रहा था। जब तक हल्की फुहारें पड़ती रहीं, वे बेपरवाह रहे। मगर जब बौछार तेज़ हो गयी तब वे सब उड़ गये - ज़ोरों से शिकायत करते हुए। मगर वृक्ष-लता-गुल्म सब मिलके आनन्दोत्सव मना रहे थे। हर बूँद वर्षा थी, नदी थी और समुद्र थी। धरती वर्षा को सहेज रही थी अपने भीतर; कई -कई महीनों की झुलसाने वाली गरमी के लिहाज से। ... सड़क समुद्र तक चली गयी है। वह समुद्र हल्का हरा था - विशाल पर्वताकार लहरें एक के बाद एक उठकर तट पर बिछ जातीं थी। समुद्र उग्रतापूर्वक शान्त दिखायी देता था और लहरें ऊँची और ऊँची उठती हुई उसके खतरे को दर्शा रही थीं।
तथाकथित धार्मिक लोगों के लिए संवेदनशील होना ही पाप में लिप्त होना है। ऐसा पाप, जो सांसारिक जनों के लिए ही सुरक्षित है। उनके लिए सौन्दर्य सिर्फ़़ प्रलोभन है, जिसका प्रतिरोध और निरोध परमावश्यक है। मठवासी या सन्यासी के लिए इन्द्रियाँ केवल दुःख और पाप उपजाने वाली हैं। रहा विचार, तो उसे उनकी समझ और धारणा के ईश्वर को ही पूर्णतः समर्पित होना चाहिये। परन्तु विचार इन्द्रियों से जुड़ा होता है। विचार ही समय को व्यवस्थित करता है और यह विचार ही है, जो संवेदनशीलता को पापमय बताता और बनाता है। वास्तव में विचार का अतिक्रमण करना ही सर्वोच्च पुरूषार्थ है। और यह पुरूषार्थ वह सघन और तीव्र संवेदनशीलता ही है, जिसका नाम प्रेम है। प्रेम करो - उसमे कोई पाप नहीं है। प्रेम करो और भरपूर करो। ... और, तब दुःख-त्रास भी नहीं होगा।
30 नवम्बर
बिना नदी के कोई भी देश उजाड़ हो जाता है। यह एक छोटी-सी नदी है, यदि इसे नदी कहा जा सके; परन्तु इस पर खासा बड़ा ईंट-पत्थर का पुल एलफिंस्टन ब्रिज, जो-अड्यार नदी पर बना हुआ है। (जिस घर में कृष्णमूर्ति उन दिनों ठहरे थे, वह इस पुल के उत्तर-पश्चिम में है।) यह नदी पूर्व दिशा में बहती हुई समुद्र में जा मिलती है - बड़े उत्साह-उमंग के साथ। पुल से आसमान इस कदर विस्तृत, समीप और अविकृत लग रहा था - एयरपोर्ट से काफ़ी दूर था यह पुल। परन्तु उस शाम वह अकेली .... और तीन ताड़ वृक्ष समूची धरती, समूचा अतीत और वर्तमान तथा समूचा अनबीता जीवन बन गये थे। ध्यान बिना जड़ों का प्रस्फुटन था और, इसीलिए मरना भी। नकार एक चमत्कारिक हलचल है जीवन की; और तथाकथित सकार मात्र एक प्रतिक्रिया जीवन के प्रति, मात्र एक प्रतिरोध। जहाँ प्रतिरोध है वहाँ मृत्यु भी नहीं, केवल मात्र भय ही भय होता है। भय में से भय ही उपजता है और एक अन्तहीन विकृति का सिलसिला भी। मृत्यु नये का कुसुमन है; ध्यान समस्त ‘ज्ञात’ संसार की मृत्यु।
कितनी विचित्र लगती है यह बात, कि आदमी कभी यह नहीं कहता कि - ‘मैं नहीं जानता’! ऐसा कहने और सचमुच अनुभव करने के लिए विनम्रता चाहिए। मगर कोई भी, कभी भी इस तथ्य को - वास्तविकता को कभी न जान पाने के तथ्य को - स्वीकार नहीं करता। यह प्रदर्शनप्रियता ही है, जो मन को ‘ज्ञान’ की खुराक पहुँचाती हैै। किन्तु ‘मैं नही जानता’ - यह सच्चा स्वीकार इस ‘जानने’ की यन्त्रचर्या को ठप्प कर देता है, आत्म-प्रदर्शन की लालसा एक विचित्र व्याधि है - सदैव आशा की मृगतृष्णा में फँसी हुई, और अवसादग्रस्त। ‘मैं नहीं जानता’ कहने के भी कई सारे ढंग है। पाखण्ड, दूसरों को प्रभावित करने की लालसा, लोगों के बीच महत्व पाने की आकांक्षा इत्यादि..। एक ‘मैं नहीं जानता’ कहना वह है, जो सचमुच ही सत्य को जानने के लिए ध्ौर्यपूर्वक प्रतीक्षा करने को तैयार है; और, दूसरा वह है, जिसमें किसी खोज की अभीप्सा नहीं है। पहले वाली मानसिकता कभी कुछ नहीं सीखती सिर्फ़़ जानकारियाँ बटोरती रहती है। और, दूसरी हमेशा सीखने की अवस्था में रहती है - बगैर संग्रह की लालसा के। सीखने की आज़ादी में मन हमेशा ताज़ा, युवा और निर्दोष बना रहता है, जबकि जोड़ने-बटोरने की, परिग्रह की लालसा मन को विकारग्रस्त और जर्जर कर देती है। निर्दोष सिखनौड़ापन अनुभवहीनता नहीं है; वह सिर्फ़़ अनुभव और अभ्यास की दासता से मुक्ति है। यह मुक्ति, यह स्वतन्त्रता अनुभव की जकड़बन्दी से मुक्ति का, मृत्यु का ऐलान है - उसे दिमाग की उपजाऊ मिट्टी में जड़ पकड़ने देने से इंकार।
किन्तु शब्दाभिव्यक्ति का आदी हो जाना, शब्द में निहित भावनात्मक सामग्री की आसक्ति में पड़ जाना शब्दों से आज़ाद होने की प्रक्रिया को अवरुद्ध कर देना है। बगैर इस आज़ादी के तुम शब्दों की गुलामी के अभ्यस्त हो जाते हो। निष्कर्षों और अवधारणाओं के भी। ऐसी दासता उपजाने वाले शब्द को नष्ट कर देना हमारे भीतर गहरे में जमी हुई सुरक्षा ग्रन्थि की संरचना को ध्वस्त कर देना है, जिसमें कि किसी भी रूप में यथार्थ का वास नहीं होता।
1 दिसम्बर, 1961
भीड़ से पटा, कीचभरा रास्ता। शहर से बाहर, किन्तु उपनगर बनने की तैयारी में। फिलहाल तो .... गढ्ढों से पटी हुई, अविश्वसनीय रूप से गन्दी बस्ती है। सड़क के दोनों ओर ताड़वृक्ष और धान-खेत ... और पानी से भरे गढ्ढे ही गढ्ढे। इतने में ठसाठस भरी बस आयी - सबके सब रास्ते से हट गये - मगर एक कद्दावर भैंस ने बस को जहाँ का तहाँ रोक दिया। सड़क के बीचों बीच खड़ी थी वह - बस के लगातार बजते भांेंपू की ज़रा भी परवाह न करती हुई। भोंपू भी थककर चुप हो गया। लगता है, भीतर से हर आदमी एक राजनीतिज्ञ है - बस केवल तात्कालिकता से ही मतलब रखता हुआ - और समस्त जीवन को उसी तात्कालिकता में ठूँसने की ज़िद ठाने हुए। बाद में तो इसका फल भुगतना पड़ेगा। पर क्या इससे बचा नहीं जा सकता? बखूबी बचा जा सकता था: मगर इसकी परवाह करने की फुरसत किसे है? नींद की गोलियाँ हैं, शराब है, मन्दिर है और तात्कालिकताओं का एक समूचा परिवार है। आप चाहें तो इस सारी अराजकता को खत्म कर दे सकते हैं आसानी से। बशर्ते आप प्रतिबद्ध हों किसी विचार से। मगर आप ये सारे रास्ते आजमा चुके हैं और आपका दिमाग भी उतना ही बंजर है, जितना आपका हृदय। और, आपने रास्ता पार कर लिया और तात्कालिकता में गर्क हो गये। सड़क पार होती रही - खजूर के पेड़ों, धान के खेतों, झोपड़ों इत्यादि से गुज़रती रही ... और, अकस्मात् हमेशा की तरह अप्रत्याशित ढंग से वह ‘अन्यता’ वहाँ ऐसी पावनता और शक्ति के साथ प्रकट हो गयी, जिसे किसी भी विचारधारा का पागलपन कभी भी सूत्रबद्ध नहीं कर सकता। और ... वह वहाँ प्रकट थी - वह सर्वथा नयी ‘अन्यता’; और, तुम्हारा अन्तःकरण आनन्दातिरेक से विस्फोटित होता लगा - शून्य आकाशों में। दिमाग पूर्णतया चुप - निःस्तब्ध था, किन्तु, ..... संवेदनशील और बाकायदा साक्षी उस सब कुछ का, जो घट रहा था वहाँ। वह सीधो शून्य में प्रविष्ट नहीं हो सकता था क्योंकि आखिर वह था तो दिमाग ही - काल का बन्दी। किन्तु काल तो खुद ही ठहर गया था। इसलिए, दिमाग भी निश्चल हो गया था - बिलकुल चुप्पा - बिना किसी आग्रह और अभीप्सा के। और यह सम्पूर्णता प्रेम की हर वस्तु में दाखिल हो गयी। बाकी सारी चीज़़ों का अपना अवकाश है, अपनी जगह है। मगर इसकी नहीं । इसलिए इसे पाया नहीं जा सकता। तुम कुछ भी कर लो, इसके लिए जगह नहीं पा सकते। यह न तो बाज़ार में सुलभ हो सकती है, न किसी मन्दिर में। सब कुछ ध्वस्त कर देना होगा, ... तभी अज्ञात सत्ता इधर से गुज़र सकेगी। बहरहाल, वह वहाँ थी। और, सौन्दर्य भी।
बदलाव लाने का सारा सायास सरंजाम यथास्थिति का ही पुनर्वास है। बदलाव के ऐसे हर उपक्रम के पीछे कोई उद्देश्य और एक निधर््ाारित दिशा होती है; और इसीलिए वह मात्र निरन्तरता ही साबित होती है: थोड़ी-सी काट-छाँट के साथ, ... उसी स्थिति की निरन्तरता, जो पहले थी। यह परिवर्तन निरर्थक है: यह तो वैसा ही कि आपने एक खिलौने को पहनाए वस्त्र बदल दिये। पर, ... खिलौना तो वही का वही रहा आता है। वैसा ही यान्त्रिक, जीवन रहित और भंगुर, जो कभी भी तोड़कर कचरे में फेंका जा सकता है। मृत्यु हर बदलाव का अपरिहार्य अन्त है! और, आर्थिक सामाजिक परिवर्तन भी मृत्यु ही है - परिवर्तन के भेष और विन्यास में। यह क्रान्ति कदापि नहीं है। वह, जो होता रहा है, हुआ है, उसीका किंचित् संशोधित रूप है। ‘म्युटेशन’ - अर्थात् सम्पूर्ण क्रान्ति तभी होती है जब हर बदलाव, समय का हर विन्यास झूठ ही है - यह साफ-साफ देख लिया जाता है। तभी, उस झूठ के सम्पूर्ण परित्याग से ‘म्युटेशन’ घटित होता है। असली, टिकाऊ, सम्पूर्ण रूपान्तरण।
2 दिसम्बर
समुद्र बहुत उद्वेलित था। पर्वताकार लहरें दूर से उमड़ती आ रही थीं। निकट ही एक बड़े चैड़े और गहरे सरोवर के चतुर्दिक बसा हुआ गाँव था, एक भग्नावशेष-सा मन्दिर। चारों ओर से सीढ़ियाँ उतरती थीं सरोवर में। घर भी जर्जर अवस्था में; किन्तु वह गाँव अद्भुत मैत्री-भाव उपजाता था।
अँधोरे झुटपुटे में उस सड़क पर चलते हुए वह अजस्र शक्ति इतनी त्वरा और स्पष्टता के साथ प्रगट हुई कि ऊपर की साँस ऊपर और नीचे की साँस नीचे ही रह जाए। वह शक्ति ही सारा जीवन थी। वह इच्छा-शक्ति नहीं थी, न किसी संकल्प से, या आत्मरक्षा या प्रतिरोध से प्रेरित। न ही वह साहस या ईष्र्या, या मृत्यु की प्रेरणा से उपजी थी। वह निर्गुण-निराकार शक्ति थी- वर्णनातीत। और, फिर भी, वह वहाँ उतनी ही मूर्तिमन्त यथार्थ थी, जितनी, कि दूर झलकतीं पहाड़ियाँ, और सड़क किनारे खड़े वृक्षों की पाँत। वह नितान्त अहेतुक शक्ति थी और, इसीलिए उसमें कुछ जोड़ा या घटाया नहीं जा सकता था। वह अज्ञेय है, अगम्य भी। ... शब्दों का अवमूल्यन हो चुका है; दिल-दिमाग और मन, ... सब इसके द्वारा निगल लिये गये हैं। कुछ भी नहीं बचा स्वयं उसी के सिवा। अकेले विचरण करते हुए, या, औरों के साथ, यह जारी रहा, और ... पूरी रात जारी रहा - जब तक, कि ताड़वृक्षों के बीच सुबह नहीं उग आयी। पर वह अभी भी वहाँ है - पत्तों के झुरमुट मंे ... एक फुसफुसाहट की तरह।
क्या ही असाधारण वस्तु है यह ध्यान! अगर किसी तरह की कोई बाध्यता हो इसके पीछे - कोई आयास विचार को इसका अनुसरण कराने का - तो, यह एक थकाने वाला बोझ बन जाता है। वह मौन, जो अपेक्षित है, वह अपनी दीप्ति में स्थिर नहीं रह पाता। यदि वह चमत्कारिक दृश्यों और अनुभवों की लालसा से प्रेरित होने लग जाये, तो वह तरह-तरह की भ्रान्तियों और आत्म-सम्मोहन की ओर ले जाने लगता है। ध्यान की सार्थकता इसी में निहित है कि विचार का पूर्ण कुसुमन-प्रस्फुटन हो और उसी के बूते विचार का अन्त भी। विचार केवल स्वातन्त्र्य में ही खिल सकता है, न कि ज्ञान के निरन्तर विस्मृत होते जाते विन्यासों में। ऐसा ज्ञान सेंसेशन और अधिकाधिक रोमांच पैदा करने वाले नये-नये अनुभव प्रदान कर सकता है। परन्तु वह मानस, जो किसी भी तरह के रोमांचकारी अनुभवों का अनुसरण करता है, अपरिपक्व मानस है। परिपक्वता तमाम अनुभवों के जाल से छूट निकलने में - उनसे पूर्ण मुक्ति पा लेने में निहित होती है। ध्यान की परिपक्वता मन को ‘ज्ञान’ से मुक्त करने का नाम है, क्योंकि यह ज्ञान सारे अनुभवों को आकार देता और नियन्त्रित करता है। जो मन स्वयंप्रकाश है, उसे अनुभव की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। अनुभव की - अर्थात् अधिकाधिक विस्तृत और विविध अनुभवों की निरन्तर बढ़ती जाती लालसा ही अपरिपक्वता है। ध्यान इस ज्ञान और ‘ज्ञात’ के संसार के आर-पार विचरण करने में, तथा उसकी सीमाओं को लाँघ जाने में, अतिक्रमण कर जाने मंे निहित है। तभी वह ‘अज्ञात’ में प्रवेश पा सकता है।
3 दिसम्बर
उस खुशनुमा सड़क पर, एक छोटी-सी झोपड़ी में - जिसमें एक छोटी-सी तेल की बाती जल रही है, वे आपस में लड़ रहे हैं। स्त्री तार स्वर में चीख रही थी - रूपये-पैसे को लेकर; चावल खरीदने के लिए भी पैसे नहीं बचे हैं, इस बारे में ... ; दूसरी ओर एक धीमा-सहमा पुरुष का स्वर-कुछ बड़बड़ाता हुआ। इतनी दूर से भी स्त्री का क्रुद्ध कण्ठस्वर साफ सुनायी दे रहा था। फिर वह भीड़भरी बस के शोर में डूब गया। ताड़ वृक्ष चुप्पी साधो थे। चन्द्रमा कहीं दिखायी नहीं दे रहा था आसमान में और ... खासा अँधोरा छाया हुआ था। सूर्य कुछ समय पूर्व घिरते बादलों की ओट में डूब गया था। समुद्र-तट के प्राचीन मन्दिर से लोगों की भीड़ लौट रही थी - ठसाठस भरी बसों और कारों में। फिर वह कोलाहल भी शान्त हो गया - सड़क भी अपने सूनेपन में लौट गयी। इसी बीच वह अजनबी अन्यता अविश्वसनीय मृदुलता और आत्मीयता के साथ पास ही आ बिराजी। वह वहाँ एक नन्ही-सी पत्ती की तरह अपनी सम्पूर्ण निरीहता अविनश्वरता मंे विद्यमान थी। हर विचार, हर भावना लुप्त हो गयी। विस्मृति ने लपेट लिया सब कुछ को।
विचित्र बात है - पैसा कितना महत्वपूर्ण हो गया है। देने वाले के लिए भी, लेने वाले के लिए भी। घोर विपन्नों के लिए भी। लोग दिन-रात पैसों की ही बात करते रहते हैं - जो शिष्टाचारवश नहीं करते, वे भी उसी की चिन्ता से घिरे रहते हैं। सत्कर्म करना हो, तो पैसा, राजनीति करनी हो, तो पैसा, मन्दिर के लिए पैसा, और चावल खरीदना हो तो पैसा। पैसा पास में हो, तो परेशान, पैसा न हो तो परेशान। कोई आदमी क्या है, यह इसी पर निर्भर करता है कि उसके पास पैसा कितना है, वह किस पद पर है, कितनी कमाई कर लेता है। यत्र-तत्र-सर्वत्र यही धुन, यही चर्चा। अमीरों की ईष्र्या, ग़रीबों की ईष्र्या, जानकारियों की, कपड़े-लत्ते की, कौन कितनी बारीकी हाँक सकता है, इसकी होड़ रात-दिन। पैसे से भी ज़्यादा महिमा और जोड़-तोड़ पद-प्रतिष्ठा की। सन्त के पास पैसा न सही, ऐसी सत्ता है जिसे सिर नवाने क्या अमीर, क्या ग़रीब सभी दौड़े जाते हैं। राजनीतिज्ञ देश का इस्तेमाल करता है; साधु-सन्त देवी-देवताओं का। ऊँचे आसन पर विराजने के बाद वे तुम्हें लोभ-लाभ की निरर्थकता पर और शक्तिमतों की निर्दयता पर प्रवचन पिलाने को हमेशा प्रस्तुत।
कोई भी इस अन्धी होड़ से उबरना नहीं चाहता। दुःख-निवृत्ति का मामला बहुत पेचीदा है। लिखा तो है धर्मग्रन्थों में सब कुछ। परन्तु उनके बावजूद दुःख जहाँ का तहाँ। विचारों के आवरण पर आवरण चढ़े हुए हैं दुःख पर, मगर दुःख को चकमा देना इतना आसान है क्या? दुख की परिक्रमा करते रहने से क्या होगा? तुम्हें उसके गर्भ-गृह तक पहुँचना होगा सीधो एकदम। तभी उसका हल मिलेगा। यह वैसा ही है जैसा कि नदी का पीछा करना उसके स्रोत तक पहुँचने के लिए। उल्टी दिशा में। नदी ही तुम्हें ले जायगी वहाँ, जहाँ से वह निकली थी। देखो, सुनो दृष्टा-भाव से इस सारे दृश्य को। तुम्हें यह यात्रा करनी ही है - चन्द्रमा के लिए नहीं, देवताओं के लिए नहीं, - केवल केवल अपने लिए। केवल अपनी अन्तर्यात्रा। दुःख का अन्त करने के लिए तीव्रतम भावावेग की ऊर्जा चाहिए; और वह ऊर्जा इन पलायन चेष्टाओं के जरिये नहीं खरीदी जा सकती। पलायन-चेष्टा खत्म करो पूरी तरह, तभी वह तुम्हंे साक्षात् अपने सम्मुख विद्यमान मिलेगी। वही है दुःख - निवृत्ति का एकमात्र्र और अमोद्य उपाय।
4 दिसम्बर
वृक्षों की घनी छाया में बड़ा सुकून था। तरह-तरह के पक्षी चहचहाते-पुकारते-गाते ... अपने में मगन थे। शाखाएँ इतनी सुन्दर और सुडौल, कि उन्हें देखना ही अचरज से भर जाना था। उनका विस्तार, उनकी महिमा ऐसी कि आँखों में आँसू उमड़ आये। ... सच में, पृथ्वी पर एक वृक्ष से अधिक सुन्दर कुछ नहीं होता। मरणोपरान्त भी वृक्ष का सौन्दर्य नहीं छीजता। मरणोपरान्त भी - पक्षी उस पर बसेरा करेंगी। उल्लू और तोते उसके तने या उसकी शाख की खोखल में विश्राम पाएँगे। कठफोड़वे आयेंगे - उसमें सूराख करने। इन गिलहरियों को देखो - हमेशा कुछ न कुछ शिकायत करती हुई... और इतनी उत्सुक, जिज्ञासु, चंचल, फुरतीली। उधर उस पेड़ की सबसे ऊँची शाखा पर एक सफ़ेद और लाल चीज़़़ बैठी है। जाने कितनी तरह की चींटियाँ भी - लाल और काली - लगातार पेड़ पर चढ़ती या उतरती हुई। पर ... अभी तो यह वृक्ष भरपूर जीवन्त और शानदार है। गरमी छू भी नहीं सकती तुम्हें इसकी छाया में। तुम घण्टों बैठे रह सकते हो इस छाया में ... कुछ निहारते-महसूस करते। तुम देख रहे हो इस विशाल को, और अचरज मेें डूबे जा रहे हो, कि कौन किसे देख रहा है? सब कुछ तो चरमतीव्रता और तेज़स्विता में प्राणवान् है। हर तरफ, जीवन! जीवन! की पुकार है। और, देखने वाला मूक-निश्चेष्ट हो गया है - उस पत्ती की तरह। दिमाग - हाँ दिमाग भी तो - एकदम खामोश हो गया है! सिर्फ़़ देखता और सुनता सब कुछ। बिना किसी प्रतिक्रिया के, बिना कुछ भी किये ...।
आदत, वह चाहे जितनी सुविधाजनक हो - संवेदनशीलता की शत्रु है। आदत हमें सुरक्षा कवच सा पहना देती है। कितनी जल्दी सब कुछ एक आदत में ढल जाता है! आदत के बाद बारी आती है फुरसत की। फिर यह फुरसत भी आदत मंे ढल जाती है।
5 दिसम्बर
वह कोयल, जो उषःकाल से ही लगातार कूक रही थी - कव्वे से छोटी और ज़्यादा साँवली थी। लम्बी पूँछ, और चमकीली लाल-आँखें। वह एक छोटे से खजूर के पेड़ पर आधी छुपी बैठी थी। अपने सुकोमल स्वर में जाने किसे लगातार पुकारती हुई। वहीं एक छोटे-से वृक्ष पर उसका जोड़ीदार बैठा था। शायद उसी को पुकार रही होगी। वह उससे भी छोटा, उससे कहीं ज़्यादा लचीला, और ज़्यादा छुपा हुआ था। या, कहना चाहिए, कि छुपी हुई थी। क्योंकि तभी अचानक नर कोकिल उड़के आ बैठा अपनी संगिनी के पास, जो कि खुद इस बीच एक खुली शाख पर आ बैठी थी। वे बैठे रहे उसी तरह दोनों। और... लो, इतने में ही दोनों उड़ भी गये।
ध्यान का हर उपक्रम कभी भी पहले जैसा नहीं होता। उसमें एक नयी ही प्राणवायु होती है हर बार। एक नयी विस्फोटक ऊर्जा का उन्मेष। वह आदत नहीं बन सकता कभी भी। सारी आदतें - भले, वे अभी हाल ही में पड़ी हों - पुरानी ही होतीं हैं। वे पुरानी आदतों से ही निकलती हैं और उन्हीं में जुड़ जाती हैं। लेकिन, ध्यान पुराने को तोड़कर उसकी जगह नये को बिठा देना नहीं होता। यह ध्यान बिलकुल नया और विस्फोटक था; वह नया था - पुराने के क्षेत्र में नहीं। उस क्षेत्र में तो वह कभी दाखिल ही नहीं हुआ था। वह नया था - इसलिए, कि उसने पुराने को कभी जाना ही नहीं था। वह अपने-आप में विध्वंसक और विस्फोटक था। विध्वंस कर रहा था, इसीलिए नया था। और ... इसीलिए वह सृजन था।
ध्यान में कोई खिलौना नहीं होता जो तुम्हें रमा सके। या तुम जिसमें रम जाओ। ध्यान सारे खिलौनों, स्वप्न-चित्रों, विचारों और अनुभवों का विनाश है। तुम्हें सच्चे ध्यान की पक्की बुनियाद रखनी होगी। अन्यथा तुम भ्रम के नानाविध रूपों में उलझ जाओगे। ध्यान विशुद्ध निषेध या नकार है। ऐसा नकार, जो प्रतिक्रिया के भीतर से नहीं उपजता। नकारना- और, उस नकार के साथ सचमुच रहना - यही वह निर्विकल्प और निव्र्यक्तिक क्रिया है, जो प्रेम है वस्तुतः।
6 दिसम्बर
एक साँवले चकत्तों वाला पक्षी - लगभग कव्वे जितना। तुम उसे जितनी देर चाहो, निर्विध्न निहार सकते थे। वह बेर खाने में रमा हुआ था - बड़े कायदे से उन्हें चुनता हुआ, जो भारी गुच्छों में लटके हुए थे उस पेड़ पर। इतने में दो और पक्षी - आकर दूसरी शाखा पर झूलने लगे। वे वही कल वाले कोयल-दम्पति थे। कल की तरह मगर वे शोर-गुल नहीं मचा रहे थे - बेर खाने में मशगूल थे। फिर वह गिलहरी भी उनका साथ देने आ पहुँची। तभी एक कव्वा वहाँ आ पहुँचा चीखता हुआ। गिलहरी से यह विध्न झेला नही गया और वह वहाँ से सटक ली। कव्वे ने खुद तो कुछ खाया नहीं, पर ऐसा प्रतीत हुआ कि उसे औरों को खाते देखना भी अच्छा नहीं लगा। बड़ी शीतल सुहावनी सुबह थी और सूर्यदेव धीरे-धीरे पेड़ों के झुरमुट से बाहर निकल रहे थे। लम्बी घनी छायाएँ पसरी हुई थीं धरती पर ... और घास पर ओस की बूँदें झलमला रही थी। छोटे-से तालाब में दो लिली के फूल खिले थे। एकाएक सारे विचार और भाव बिला गये और बस केवल वे दो फूल ही समूची चेतना पर छा गये। वे तीव्रतम उज्ज्वल ऊर्जा से भरे थे। एक यह मनुष्य ही है, जो सारे सजीव वस्तुओं में सबसे कम सजीव लगता है क्योंकि उसे अपनी खुदगर्जी से ही फुर्सत नहीं मिलती। आस-पास झाँकने की। इन दो फूलों को निहारते ... पूरी दुनिया ही बदल गयी मेरे लिए। किसी बेहतर अधिक न्यायपूर्ण व्यवस्थाओं में नहीं; बल्कि ऐसी विभूति में - जहाँ दुःख - त्रास की, दुश्चिन्ता और ऊब की छाया भी नहीं पड़ती। सृष्टि इसलिए क्षण भर में रूपान्तरित हो गयी कि वे दो पुष्प वहाँ खिले थे। वह विशुद्ध जाग्रत सौन्दर्य की महिमा थी। चमत्कार अक्षरशः।
हम सभी उस सड़क से अब तक काफ़ी हिल-मिल गये थे। अँधोरा था और सड़क आकाश की आभा से चमक रही थी और रात घिर आयी थी। ध्यान प्रयत्नसाध्य वस्तु नहीं है। हर प्रयत्न विरोध या प्रतिरोध लिये हुए होता है। प्रयत्न और चुनाव हमेशा संघर्ष और द्वन्द्व उपजाते हैं। और तब ध्यान भी एक पलायन में - तथ्य से पलायन की चेष्टा में अवमूल्यित हो जाता है। परन्तु उस जानी-पहचानी सड़क पर ध्यान सहज ही उस ‘अन्यता’ की दिव्य अनुभूति में परिणत हो गया। पहले से ही शान्त मस्तिष्क को और भी गहरी निःस्तब्धता में निमज्जित करते हुए। वह अजनबी ममेतर वहाँ ऐसे विचर रहा था जैसे कोई बहुत चैड़ी और गहरी नदी दो तीखे ढलानों वाले तटों के बीच बह रही हो। ठीक उसी तरह वह अजनबी आत्मीयता वहाँ विचर रही थी - बिना किसी दिशा और काल के - दिक्कालातीत।
7 दिसम्बर
खिड़की से एक तरूण ताड़वृक्ष और एक दूसरा वृक्ष दिखायी देता है जो बड़े-बड़े लाल पंखुड़ियों वाले फूलों से लदा हुआ है। ताड़ के पत्ते हर दिशा में अजीब बेढंगेपन से हिलते रहते हैं - मगर फूलों में कोई हलचल नहीं होती। दूर पर समुद्र है जिसका गहरा और बेधक घोष सारी रात सुनायी देता रहता है।
ध्यान वह अग्नि है जो सारे काल और दूरी को भस्म कर देती है। विचार सृजनात्मक नहीं हो सकता। यह चीज़़़ों को एक विन्यास में जमा सकता है: चित्रफलक पर, शब्दों में, पत्थर पर, या एक राॅकेट में: विचार चाहे जितना चमकदार हो, चाहे जितना बारीक, समय की सीमाओं के भीतर ही कैद रहता है: अपना अतिक्रमण नहीं कर सकता; अपना निर्मलीकरण नहीं कर सकता। वह सिर्फ़़ खिल सकता है, और ... खिलकर समाप्त हो सकता है। ... अगर स्वयं को अवरुद्ध न कर ले, तो।
9 दिसम्बर
दूर से ही तुम समुद्र को सुन सकते हो - गर्जन-तर्जन करते ... लहर पर लहर .. पर लहर ... एक अन्तहीन सिलसिले में। समुद्र तो शान्त लगता है ऊपर से; किन्तु उसकी लहरें ... उत्तुंग, भयानक ...। कितने सारे लोग इनकी चपेट में आकर अपना जीवन खो बैठे। उस शाम लहरें कुछ अधिक ही उग्र लग रही थीं - किनारे पर उनके सिर पटकने का शोर कानों को बहरा कर देने वाला था। सूर्य भी प्रचण्ड दाह उत्पन्न कर रहा था। उग्र समुद्र ... और तपा देने वाला सूर्य - दोनों मिलकर धरती को यातना दे रहे थे ... और, लोग दुबले-पतले, दीन-हीन, भूखे थे। यातना ही यातना! सर्वत्र और सब समय!! मृत्यु इतनी आसान, ... जन्म से कहीं अधिक आसान! हर कहीं, हर तरफ उदासीनता और ह्रास। जो सम्पन्न हैं, वे भी जड़ और सुस्त। बस, सिरफ़ पैसा कमाने, या सत्ता और रुतबा कबाड़ने में तेज़।
तुम दुःख से कतरा और छुप सकते हो, पर मृत्यु से नहीं। हर तरह के स्वार्थ हमें हाँकते रहते हैं; हमारे हर काम के पीछे कोई नीयत, कोई उद्देश्य होता है। इसलिए हम प्रेम नहीं कर सकते। न ही हम, जो कुछ कर रहे हैं, उस कर्म से ही प्रेम करते हैं। बिना किसी लिप्सा या तृष्णा या उन्माद के हम न तो कर्म कर सकते हैं, न जी या हो सकते हैं। इस तरह हम अपने अस्तित्व को ही एक निहायत ओछी, सुस्त और निरर्थक चीज़़़ बना डालते हैं। हमारा हर कर्म किसी लिप्सा से प्रेरित होता है; अनासक्त और स्वाधीन कर्म कभी नहीं।
10 दिसम्बर
चन्द्रमा ताड़-वृक्षों के ऊपर टँगा हुआ सा लग रहा था। कल वह इस जगह नहीं था: शायद बादलों के पीछे छुपा रहा हो। वह एक छोटा-सा टुकड़ा भर था और विशाल ताड़ों के झुरमुट में वह एक चमत्कार के उल्लास की तरह था। बादल उसे घेर-घार कर आँखांे की ओट कर देने की फिराक में थे; परन्तु वह वहाँ उनसे बेखबर, बेहद कोमल और कितना समीप लग रहा था! ताड़-वृक्ष मौन, तपस्वी, कठोर लग रहे थे। शाम पत्तियों से बतियाने में मगन थी और समुद्र कहीं दूर पर गरज रहा था। देहाती जन इस साँझ के भव्य सौन्दर्य के प्रति नितान्त उदासीन थे। वे इसके आदी जो हो चुके थे। वे सब कुछ स्वीकार कर लेने के आदी हो चुके थे - अपनी दरिद्रता, भूख, धूल, गन्दगी और घिरते बादलों के - सब कुछ के। मनुष्य सब परिस्थितियों का अभ्यस्त हो जाता है। न हो, तो उसका जीवन और अधिक यन्त्रणामय हो जाये। तो यही बेहतर है - संवेदनाविहीन और जड़ हो जाना - बनिस्बत, और अधिक दुःख-कष्ट आमन्त्रित करने के। इस तरह मौत भी कुछ ज़्यादा आसान हो जाती है। अब आप लाख आर्थिक-मनोवैज्ञानिक कारण ढूँढ़ लीजिये - जमकर बहस कर लीजिये इस परिस्थिति को लेकर; मगर जो तथ्य है नीरंग और नंगा - वह तो बदलने से रहा। आखिर, अमीर हो, चाहे गरीब, सबको जीना है - जिम्मेदारियाँ निभानी हैं। और, इसलिए सुरक्षा इसीमें हैं, कि सब कुछ से ताल-मेल बिठा लिया जाय, आदत डाल ली जाय सब कुछ सहने की। हम प्रेम, डर, मौत ... सबके आदी हो जाते हैं। आदत ही अच्छाई और गुण मान ली जाती है। यहाँ तक, कि पलायन और देवी-देवता भी। आदतों से लदा मन एक उथला, सुस्त, तमोगुणी मन होता है। तो, हुआ करे।
11 दिसम्बर
सूर्योदय विलम्ब से हुआ। तारे अभी उतने ही चमकदार थे और वृक्ष उतने ही विरक्त, उदासीन और अलग-थलग। कोई पक्षी नहीं चहक रहा था - यहाँ तक कि वे छोटे-छोटे उल्लू तक, जो रात भर एक पेड़ से दूसरे पेड़ का चक्कर लगा रहे थे। अजीब-सी निःस्तब्धता छाई हुई थी चहुँओर। बस एक समुद्र-गर्जना को छोड़। पृथ्वी प्रतीक्षा मंे थी सूर्योदय की, एक और दिन की। ध्यान जारी रहा आया उस निःस्तब्धता के साथ। और वह निःस्तब्धता ही प्रेम थी। वह किसी वस्तु या व्यक्ति का प्रेम नहीं था। उसमें कोई मूर्ति नहीं थी न कोई प्रतीक। न शब्द और न बिम्ब। वह सहज-विशुद्ध प्रेम था - बिना राग, बिना भावुकता का। अपने में सम्पूर्ण, नग्न और तीव्र। निर्मूल, और दिशाहीन। दूर से आता पक्षी का कण्ठस्वर वह प्रेम था। स्वतःपूर्ण और निरपेक्ष। वह कोई भाव नहीं था, जो मुरझा जाता है और क्रूर बन जाता है। ध्यान उस पक्षी का स्वर था, जो उस निःस्तब्धता को सम्बोधित था, और सुदूर समुद्र की गर्जना को। प्रेम केवल अतलान्त रिक्ति और शून्यता में ही सम्भव होता है। ऊषा की हल्की-सी लालिमा क्षितिज पर आभासित होने लगी थी ... और अँधोरे में वृक्ष और भी अधिक काले और उग्र लग रहे थे। ध्यान में कोई दुहराव नहीं होता - जो कि एक आदत का जारी रहना भर है। ध्यान हर ज्ञात वस्तु या अनुभव की मृत्यु है। ... और ‘अज्ञात’ की खिलावट। नक्षत्र बुझ चुके थे और बादल मानो नींद से जागे रहे थे - सूर्योदय के साथ।
अनुभव स्पष्टता और समझ को नष्ट कर देता है। अनुभव एक ऐन्द्रिक उद्वेलन है। सेंसेशन। अनुभव तरह-तरह की उत्तेज़नाओं का प्रत्युत्तर है। और हर अनुभव हमें घेरे खड़ी दीवालों का और भी ज़्यादा मुटाना है। ज्ञान-यानी जानकारी- जुटाना एक यान्त्रिक प्रक्रिया है और हमारे नित्यप्रति के यान्त्रिक जीवन के लिए आवश्यक भी। पर, यह ज्ञान हमको समय से बाँधने वाला ज्ञान है। महत्वाकांक्षा की क्रूरता ऐसे ही अनुभव का विस्तार है। ताकत और प्रतिष्ठा जिस अनुपात में बढ़ती है, ठीक उसी अनुपात में संवेदना का भोथरापन भी। अनुभव नम्रता को नहीं उपजा सकता, जो कि सारे सद्गुणों का सार है। नम्रता में ही सीखना निहित होता है और यह ‘सीखना’ ज्ञान का संग्रह कदापि नहीं है।
कव्वे की पुकार ने सबेरे की शुरूआत की। और, .... फिर तो चारों ओर पक्षियों का समवेत कलरव गूँजने लगा।
13 दिसम्बर
आक्षितिज मेघों का विस्तार। काले-काले मेघ वर्षा-जल से आपूरित। उत्तर में वर्षा होने लगी थी और दक्षिण की ओर अग्रसर थी। नदी के पुल के पार महानगर है - भीड़ और कोलाहल भरा, गन्दा, दिखावटी, समृद्ध। और, वहीं कुछ दूरी पर आगे ढेर सारी मिट्टी की झोपड़ियाँ हैं - जर्जर, ढहती हुईं। उन्हीं के साथ छोटी-छोटी गन्दी दूकानें, एक फैक्टरी छोटी-सी ... और, भीड़-भरी सड़क, जिसके बीचोबीच एक गैया लेटी हुई है। बसें और कारें उसे बचाती हुई आ-जा रही है। इतने में झमाझम बारिश होने लगी और देखते-ही- देखते सड़क पर पानी ही पानी भर गया - गड्ढे जो हैं जगह-जगह। झोपड़े टपक रहे हैं - बसें गरजती हुई भागी जा रही हैं।
सब कुछ नहा रहा है धुल रहा है - इस बारिश में। सारा कलुष इस शहर का। अतीत और वर्तमान, सब कुछ। भविष्य कहीं नही है। हर कदम कालहीन है, और विचार जो कालबद्ध है - एकदम अवरुद्ध हो गया है। वर्षा की हर बूँद नदी है, समुद्र है और बिन-पिघली बरफ है, सुदूर पहाड़ों की। सर्वत्र एक सम्पूर्ण रिक्ति है, और उसीमें सृजन, प्रेम और मृत्यु। परस्पर सर्वथा अविभाज्य।
15 दिसम्बर
यह एक खूबसूरत शाम थी; डूबते सूरज के इर्द-गिर्द बादल जमा हो गये थे। कुछ भटके मेघ भी थे - रंगोज्ज्वल। और ... अभी अभी उगा चाँद उनके बीच अटक गया था। समुद्र की गर्जना कैसुरीना और ताड़ के झुरमुटों से छनकर आ रही थी - इस कारण उसकी उग्रता भी कुछ कम हो गयी थी। चरमर करती बैलगाड़ियों का एक काफ़िला सा शहर की ओर बढ़ा जा रहा था - जलाऊ लकड़ियों से ठसाठस भरा हुआ। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते गये, सड़क सुनसान होती गयी। अब अँधोरा हो चला था। सूर्यास्त के साथ ही एक अजीब-सी ख़ामोशी पसर जाती है - शोर और धूल के धुल जाने जैसा अनुभव। यह प्रतिक्रिया नहीं है - यह जो बाहर ही नहीं, भीतर भी उमड़ रहा है - यह निर्मल बोध, जो बड़ी मुलायमियत के साथ तुम्हें सब कुछ से, हर किसी से छुड़ा रहा है। जैसे-जैसे अँधोरा छा रहा है, वैसे-वैसे यह बोध अधिकाधिक तीव्र होता जा रहा है। ये देहातीजन हमें पहचानते लगे हैं - वे हमसे बात करना चाहते हैं हमें कुछ ज़मीन बेचना चाहते हैं ताकि हम उनके साथ हिल-मिल जायें। ... और, जैसे-जैसे शाम रात मंे ढलने लगी, वह ‘अन्यता’ अपनी आशीष के साथ उतर आयी और मस्तिष्क उन वृक्षों की तरह निःस्पन्द हो गया। एक पत्ती तक हिल-डुल नहीं रही है। सब कुछ तिरोहित हो जाना है - सब कुछ झड़-पँुछ जाना चाहिये। एक बाढ़ की तरह वह उस सूखी धरती को अपने में निमग्न कर दे। वह आशीर्ष हर्षातिरेक लेकर आयी और बनी रही।
17 दिसम्बर
उषा के आविर्भाव से बहुत पहले ही एक पक्षी की तीखी चीख ने नींद भंग कर दी - क्षण भर के लिए। फिर उस चीख की रोशनी धुँधला गयी एक विचित्र निःस्तब्धता, - भयावह रूप से शक्तिशाली और विनाशक रूप से जीवन्त। वह इस कदर जीवन्त थी - और, फिर भी तुम भयभीत थे - हिल-डुल भी नहीं रहे थे। देह जम-सी गयी - अचल हो गयी। और मस्तिष्क, जो उस पक्षी की चीख से जग पड़ा था, वह फिर खामोश हो गया, मगर एक तीव्रतर, सघनतर संवेदनशीलता के साथ। ध्यान कभी भी समय में नहीं होता। समय कभी भी बुनियादी रूपान्तरण घटित नहीं कर सकता। वह कुछ सुधार ला सकता है, जो फिर और सुधार-बदलाव माँगते है। बाकी सारे सुधारों की तरह। ध्यान जो काल में से उपजता है, हमेशा बन्धनकारी होता है; उसमें कोई आज़ादी नहीं होती; और बगैर आज़ादी के विकल्प और संघर्ष का दुश्चक्र जारी रहेगा हमेशा। लाइलाज, असाध्य दुश्चक्र।
18 दिसम्बर
ऊँचे पर्वतों के बीच-नंगी शिलाओं के बीच -जहाँ एक भी वृक्ष या लता-गुल्म नहीं, वहाँ एक छोटी-सी नदी- सिर्फ़़ जलधारा कहना चाहिए उसे - वह उमगती हुई उतर रही थी - दुर्भेघ चट्टानों के बीच से। जैसे ही वह धार नीचे उतरी, वह झरना बन गयी ... और फिर और नीचे उतर आयी घाटी में। और अब उसके स्वर में शक्ति थी, आवेग था। उसे लम्बी राह तय करती है - कई-कई कस्बों, जंगलों घाटियों और मैदानों को पार करना है। अब वह एक उद्दाम वेगवती नदी बनने जा रही थी - अपने तटबन्धों को छलछलाती, स्वयं को अधिकाधिक निर्मल करती, ... चट्टानों के ऊपर कूदती-फाँदती ... जाने कितनी दूरियाँ पार करके समुद्र की ओर प्रवहमान होती। पर, महत्त्व इसका नहीं था कि वह समुद्र में मिलने जा रही है। महत्त्व था उसके एक विशाल नदी बन जाने का - इतनी गहरी, इतनी चैड़ी, इतनी गरिमामयी नदी! निस्सन्देह वह अदृश्य हो जाएगी एक महासागर में - जो अभी यहाँ से हज़ार मील दूर होगा। परन्तु अब से तब तक वह अद्भुत जीवनी-शक्ति, सौन्दर्य और असीम हर्ष से भरी रहेगी। कोई उसके उद्दाम वेग को नहीं रोक सकता। कारखाने और बड़े से बड़े बाँध भी नहीं। यह एक चमत्कारी नदी है - इस कदर अदम्य, उन्मुक्त, सर्वव्यापिनी - अपने तटों पर जाने कितने सारे नगरों को बसाये हुए। सारा जीवन इसके तटों पर पसरा हुआ है: हरे-भरे विशाल खेत, जंगल, अकेले सुनसान महल, मृत्यु, पे्रम और विनाश ... सब कुछ। बड़े-बड़े पुल भी बने हैं इस नदी के ऊपर - कई जगह। एक से एक सुन्दर, उपयोगी। कई नदियाँ भी कई जगह मिलती जाती है इसीमें। परन्तु यह सारी नदियों की माँ है - छोटी-बड़ी, सबकी। वह सदानीरा है और आज शाम उसका दर्शन अद्भुत रोमांचकारी आशीर्वाद था।
वह नन्ही-सी जलधार उन सुदूर पर्वतों में - उन दुर्गम शिलाओं के बीच - जो उसकी जन्मभूमि है - जहाँ इसका महिमामय जीवन आरम्भ हुआ था। ध्यान इस नदी की तरह है। फ़र्क बस, इतना ही, कि ध्यान का कोई आरम्भ या सुनिश्चित उद्गम-स्थल नहीं होता। वह आरम्भ हुआ और उसका अन्त उसका आरम्भ था। कोई हेतु, कोई कारण नहीं था उसके प्रकट होने का। और, उसका स्पन्दन ही उसका नवीकरण था। वह सदैव नया था, नया है और नया रहेगा। उसने कुछ भी संचय-संग्रह नहीं किया, जो वृद्ध हो। वह कभी मैला नहीं हुआ क्योंकि उसकी जड़ें समय में नहीं थीं। ध्यान करना अच्छा है; मगर उसके लिए प्रयत्न करना नहीं। अनायास एक नन्हीं धार की तरह आरम्भ होकर वह देश-काल से परे पहुँच जाता है, जहाँ विचार भावना प्रवेश ही नहीं कर सकते; जहाँ स्वयं अनुभव भी नहीं होता।
19 दिसम्बर
वह एक सुन्दर सुहावनी सुबह थी। उषःकाल अभी दूर था। थोड़े से वृक्ष और झाड़ियाँ जो घर के चारों ओर हैं - वे मानों रातों-रात एक जंगल मंे तब्दील हो गये थे और अपने भीतर जाने कितने साँपों और जंगली जानवरों को प्रश्रय दिये हुए थे। हज़ारों छायाओं वाली चाँदनी इस अहसास को और गहरा रही थी। और, ... अचानक उन वृक्षों के बीच और उनके पार एक गीत गूँज उठा - भक्ति का संगीत। आवाज़़़़़़़ बड़ी समृद्ध थी। मानो गायक अपना हृदय ही उँड़ेले दे रहा हो उस गायन मंे। उसे सुनते हुए तुम उस स्वर-लहरी पर आरूढ़ जाने कब उस स्वर से एकजान हो गये थे और फिर उससे भी परे चले गये थे - विचार और अनुभव, दोनों से परे। फिर एक दूसरा स्वर गूँजने लगा - वह वाद्य का स्वर था, कण्ठस्वर नहीं। बहुत धीमा, मगर सुस्पष्ट।
25 दिसम्बर
नदी यहाँ पर खूब चैड़ी और शानदार हो गयी है। वह गहरी भी है, विस्तृत भी - एक झील की तरह निःस्पन्द। थोड़ी-सी नौकाएँ हैं उस पर - अधिकतर मछुवारांे की। और एक बहुत बड़ी नौका, जिसका पाल फटा हुआ है, वह रेत ढोकर ले जा रही है नगर की ओर। सबसे सुन्दर है - पूरब की ओर जल का प्रसार ... और उसके दूसरी तरफ का घाट। नदी यहाँ एक विशाल सरोवर की तरह लगती है। उसकी सौन्दर्य-राशि आकाश से होड़ कर रही हो मानो। यह एक समतल क्षेत्र है और आकाश धरती को भर देता है और, क्षितिज वृक्षों के पार बहुत दूर-दूर लगता है। वृक्ष उस दूसरे घाट पर अधिक हैं। अभी हाल ही में गेहूँ बोया गया है - खेत खूब विस्तार में फैले हुए हैं - दूर-दूर तक। वर्षा ऋतु में यह नदी खूब ऊपर आ जाती है और अपने साथ खूब रेत-मिट्टी बहा लाती है। जब जलस्तर नीचे चला जाता है, वर्षा-ऋतु के बाद, तब जाड़े की बुआयी होती है। फिलहाल नदी का विशाल तट मोहक हरीतिमा का गलीचा बना हुआ है। नदी के इस पार पेड़ों का झुरमुट एक अभेद्य अरण्य जैसा लगता है, किन्तु उसमें जगह-जगह लोगों के घर टँके हुए हैं। परन्तु एक महाकाय वृक्ष - खुली-पसरी जड़ों वाला-इस किनारे की शोभा है। उसके नीचे एक छोटा-सा श्वेत मन्दिर है; लेकिन उसमें बसे देवता उस जल-प्रवाह की तरह हैं, जो मन्दिर के पाश्र्व से गुज़र रहा है। बस वह वृक्ष ही यथावत् अपने स्थान पर जमा हुआ है: उसकी लम्बी-लम्बी पत्तियाँ इस कदर सघन हैं कि पक्षी उस पार से नित्य आकर रात्रि-विश्राम के लिए उसका आश्रय लेते हैं। वह बाकी सारे वृक्षों के ऊपर तना खड़ा है और चाहे टहलते हुए जितनी भी दूर चले जाओ, वह कभी भी आँखों से ओझल नहीं होता। बराबर तुम्हारे दृष्टि-पथ पर विराजमान रहा आता है। उसमें सौन्दर्य की दिव्य विभूति है - वह भव्यता, वह गरिमा जो सच्चे आत्म-वान् एकाकीपन से उपजती है। किन्तु वे सारे गाँव भीड़ भरे, छोटे-छोटे गन्दे घरों से पटे हुए हैं और मानवजीव अपने चारों ओर की धरती को गँदलाने में ज़रा भी नहीं हिचकते।
उस प्रशान्त गरिमामय एकान्त में वह दिव्य ‘अन्य’ सहसा आविर्भूत हुआ और ध्यान जैसे अपना अर्थ ही खो बैठा। वह एक बहुत ही ऊँची लहर की तरह बहुत दूर से आकर पूरे वेग से तट पर आ टूटा। कैसी भी कोई भी कल्पना उसकी प्रचण्डता को - उस महाशक्ति को नहीं छू सकती। उसे ‘अनुभव’ कहना उसकी महिमा को घटाना है। केवल कच्चे लोग ही अनुभव के पीछे पड़ते हैं, और उसका बखान करते हैं। स्मृति भी उसे अपने जाल मंे नहीं पकड़ सकती। वह एक अकथनीय ज्वलन्त कौंध थी, जिसमें काल और अकाल-अनन्त दोनों एक साथ निगल लिये गये थे - बिना कोई भी अवशेष छोड़े। ध्यान मन को सम्पूर्णतः खाली कर देना है: कुछ पाने-ग्रहण करने के लिए नहीं, बल्कि बिना किसी चाह या माँग के अपने सारे आवरणों का लोप हो जाने देने के लिए। ध्यान वस्तुतः मन को ‘ज्ञात’ के चेतन-अचेतन दोनों ही कोषों से रिक्त कर देना है। नकार ही सार है स्वातन्त्र्य का। और खोज या उपलब्धि का दावा ही सबसे बड़ा बन्धन।
30 दिसम्बर
दो कव्वे बुरी तरह आपस में लड़ रहे थे। वे बहुत ही उग्र और हिंसक रुख अपनाये हुए थे एक-दूसरे के प्रति। दोनों की लड़ायी जमीन पर ही हो रही थी। परन्तु एक थोड़ी अधिक सुविधाजनक स्थिति में था। खिड़की से दोनों को डाँटते-फटकारने का प्रयास बिलकुल ही विफल रहा। लगा, अब तो इनमें से एक की मौत होनी ही है। कि इतने में उधर से गुज़रता एक और कव्वा उनके बीच आ कूदा और उन दोनों से भी कहीं ज़्यादा उग्रता का प्रदर्शन करते हुए उसने बीच-बचाव का उपक्रम किया। और, लो, इतने में और भी कुछ कव्वे इस दृश्य में आ जुटे। पंखों और चोंचो की भयानक भिड़न्त थी वह। अन्ततः सबके सब एकबारगी और एक साथ वहाँ से उड़ लिये और सब शान्त हो गया। अभी पूरी तरह उजाला नहीं हुआ था। अब तोतों की सभा जुटी - उनका कलरव आरम्भ हुआ। इमली के खोखल से प्रगट होते हुए उन्हें हर कोई देख सकता था। भयानक शीतलहर चल रही है इन दिनों। दो सुनहरे हरे रंग के पाखी तो ठण्ड के मारे अपनी जान ही गँवा बैठे थे - एक नर, एक मादा। दोनांें लगभग एक साथ ही दिवंगत हुए। अद्भुत सुन्दर थे उनके रंगीन पंख। रंग तो अभी भी उतने ही विलक्षण सुन्दर थे - किन्तु जीवन समाप्त हो चुका था। इस तरह रंग हृदय से कहीं ज़्यादा टिकाऊ साबित हुआ - रंग, जो कालातीत भी है और पीड़ातीत भी।
किन्तु विचार-चिन्तन कभी भी दुःख-दर्द की समस्या को नहीं सुलझा सकता। दुःख-दर्द की क्यों, ज़िन्दगी की किसी भी समस्या को। विचार यान्त्रिक होता है; दुःख यान्त्रिक नहीं होता। दुःख उतनी ही विलक्षण सत्ता है, जितनी प्रेम। दुःख का अन्त ‘ज्ञात’ से स्वतन्त्र होने में ही सम्भव है।
31 दिसम्बर
कोई तेईस नौकाएँ मछुवारों की इस वक़्त नदी में मौजूद थीं। हर नौका में दो या तीन लोग। नदी का विस्तार यहाँ सबसे अधिक है और ये नौकाएँ खेल में मगन बच्चों की तरह लग रही थीं। वे बहुत ही ग़रीब लोग थे - फटे-पुराने चिथड़े लिपटे थे उनके तन पर। किन्तु इस वक़्त वे मस्ती में थे। तमाम चिन्ताओं और पीड़ाओं से मुक्त। नदी खूब चमक रही थी। कव्वे नदी पार से इसी तरफ को उड़ के आ रहे थे - अपने आश्रयदाता वृक्षों के पास।
1 जनवरी
घुमावदार छोटी-सी नदी इस बड़ी नदी से आकर मिलती है यहाँ। वह शहर के एक धुर गन्दे इलाके से आती है और यहाँ पहुँचते उसमें इतनी गन्दगी भर जाती है कि, बेचारी एकदम पस्त पड़ चुकी लगती है। दोनांे के संगम पर एक कामचलाऊ पुल बना हुआ है। बाँस और रस्सी का। आर-पार आते जाते लोग आपस में यहाँ टकराएँ नहीं, यह असम्भव है। इतना व्यस्त और भीड़ भरा पुल शायद ही कहीं और हो। गाँव वाले सुबह अपने खेतों की उपज और दूध वगैरह लेकर शहर आते हैं और फिर शाम को थके-माँदे रोजाना के उपयोग की चीज़ें शहर से ढोकर इसी पुल से अपने घरों को वापस लौटते हैं। वे हमेशा गन्दे चिथड़ों में लिपटे, बीमार... फिर भी असीम ध्ौर्य के साथ इस रास्ते पर चलते हुए दीखते हैं। उनके पास अपनी परिस्थिति से विद्रोह करने की ऊर्जा नहीं है, न सारे निकम्मे राजनीतिज्ञों को इस मुल्क से बाहर खदेड़ने की। मगर, मौका मिलने की देर है। वे स्वयं भी इन्हीं राजनीतिज्ञों का अनुसरण करते हुए उतने ही मक्कार और शोषक जन्तुओं में परिणत हो सकते है जो हर सम्भव हथकण्डे अपनाते हुए अपनी कुर्सियों से चिपके रहते हैं। उस ताकत झूठ, और लाइलाज भ्रष्टाचार के बूते-जो अपने ही देशवासियों को नष्ट करने में लगी रहती है। हम उसी पुल को पाल कर रहे थे - एक विशालकाय भैंस की बगल में चलते हुए और ढेर सारी साइकिलें और पैदल गाँववाले भी हमारे साथ उसी पुल से गुज़र रहे थे। लगता था, पुल अभी इसी क्षण चरमराकर गिर जाएगा। पर, जाने कैसे हम सभी सकुशल पार हो गये और हमारी साथिन उस भैंस को भी कोई फ़र्क नहीं पड़ा।
बढ़िया शाम थी - शीतल और शान्त। ऊपर आकाश भी शान्त था। कोई क्षितिज नहीं था। अन्तहीन फैलाव चपटी धरती का उस विस्तृत आकाश में घुल-मिल गया था। कोई हलचल नहीं थी इस खामोश फिजाँ में। यह शान्ति तुमने उत्पन्न नहीं की थी। इसे लाने में तुम्हारा कोई योगदान नहीं था। न तुम्हारे तरह-तरह की जुगत भिड़ाने वाले दिमाग का। यह शान्ति वहाँ थी और तुम उससे अलग नहीं थे, कि उसका विश्लेषण विवेचन करने में जुट जाओ। केवल वह शान्ति वहाँ थी। और, कोई भी, कुछ भी नहीं।
2 जनवरी
गाँव के लड़के नदी तट पर पतंग उड़ा रहे थे, वे उल्लासित होकर अपने फेफड़ों का पूरा ज़ोर लगाकर चीख-चिल्ला रहे थे - अपने हर्षातिरेक की उत्तेज़ना में। उनका उत्साह संक्रामक था क्योंकि कई सारे सयाने और बुज़ुर्ग जो उन्हें देख रहे थे ऊपर से, वे भी उनके खेल में पूरी तरह भागीदार थे - उन्हें उकसाते, बढ़ावा देते हुए। लग रहा था यह पूरे गाँव का सन्ध्याकालीन मनोरंजन है। यहाँ तक, कि भूखे हड़ियल कुत्ते भी इस खेल का मज़ा ले रहे थे। बच्चे, किशोर सभी अधनंगे, फटेहाल, क्षीणकाय ... मगर ऊर्जा से भरपूर। भारी थैले लादे ग्रामीण पथिक भी इस दृश्य का अनिवार्य अंग बने हुए थे। उनका ध्ौर्य और सहनशक्ति असीम थी और, वह होनी ही थी क्योंकि मृत्यु वहाँ इस कदर सन्निकट थी और उसी तरह जीवन की दुस्सह यन्त्रणाएँ भी। सब कुछ वहाँ एकत्र था - एक ही समय में। जन्म, मृत्यु, सेक्स, ग़रीबी, भूखे पेट, उत्तेज़ना, आँसू ... सब कुछ। उनके पास एक जगह थी - पेड़ों के झुरमुट तले, तट से काफ़ी ऊपर एक खण्डहर हो चुके मन्दिर से बहुत दूर नहीं - जहाँ वे अपने मृतकों को दफ़नाते हैं। नन्हंे शिशु थे कई सारे, जो जाने कितनी बार भूखे-अधभूखे रहने की यातना को जानंेगे। किन्तु यह नदी सदैव उनके साथ रही आयेगी। यह नदी सब कुछ है उनके लिए। वे अक्सर इसमें नहातें हैं, अपने मैले-कुचैले कपड़े धोते हैं और अपने दुबले हड़ियल शरीरों को भी। और वे इसकी पूजा करते हैं, इसे फूल चढ़ाते हैं। नदी उनके हर्ष-विषाद दोनों से उदासीन बहती रहती है। वह इतनी गहरी है, उसमें इतनी शक्ति है - वह जीवन्त और जोखिम भरी भी है। परन्तु अभी वह एकदम शान्त और निस्तंरग है। आकाश में उड़ते पक्षी की छाया नदी पर पड़ रही है। ये पक्षी बहुत ऊँची उड़ान नहीं भरते। वे पहले नदी से सिर्फ़ सौ फीट ऊपर उड़ते हैं; फिर थोड़ा ऊँचे जाकर फिर नीचे आते हैं और लगभग सौ फीट की उड़ान भरके वापस लौट आते हैं - अँधोरा घनीभूत हो जाये, इसके पहले ही। कुछ छोटे जल-पाखी भी हैं - अपनी पूँछ ऊपर-नीचे फटकारते हुए। उनकी उड़ने की रफ़्तार काफ़ी तेज़ है। उनसे कुछ बड़े आकर के पक्षी भी हैं - साँवले-भूरे रंग के, जो तट के ऊपर ही ऊपर उड़ान भर लेते हैं। किन्तु सबसे बड़ा चमत्कार नदी के ऊपर का विस्तीर्ण आकाश है - इस कदर विस्तृत, असीम-अनन्त सा - बिना क्षितिज का आकाश। साँझ का आलोक बेहद कोमल और स्वच्छ है। दिन भर चमकती नदी अब आकाश की प्रभा बन गयी है- स्वप्निल - सम्मोहक, और स्वयं अपने ही सौन्दर्य और प्रेम में खोई हुई। इस सुकोमल प्रकाश में सारी वस्तुएँ अपना अस्तित्व खो देतीं-सी: वह हृदय, जो क्रन्दन कर रहा था, वह दिमाग, जो बहुत चातुर्य दिखा रहा था। हर्ष और विषाद दोनों विलुप्त हो चुके थे। शेष रह गया था केवल आलोक - पारदर्शी, विनम्र, और चराचर जगत् को थपकी देता, सहलाता हुआ। वह विशुद्ध-निरा आलोक था; विचार और भावना की उसमें कोई हिस्सेदारी नहीं थी। विचार और भावना कभी प्रकाश नहीं दे सकते थे। वे वहाँ थे भी नहीं। वहाँ केवल आलोक था। और एकदम निरभ्र आकाश। तुम इस प्रकाश को देख ही नहीं सकते जब तक तुम ध्यान के कालातीत स्पन्दनों को नहीं जानते। विचार-मात्र का अन्त ही यह स्पन्दन उपजा सकता है। प्रेम का मार्ग विचार या भावना का मार्ग नहीं है।
मस्तिष्क पूर्णतः शान्त-निश्चेष्ट हो गया था। किन्तु बेहद जीवन्त और द्रष्टा-साक्षी पक्का-पूरा।
3 जनवरी
एक ऐसी सड़क पर पैदल अकेले घूमना, जो हज़ारों बरसों से तीर्थ यात्रियों द्वारा पैदल नापी जाती रही हो, कैसा विचित्र अनुभव होता है! जिन्होंने इस रोमांच को जाना नहीं कभी - वे केवल इसकी कल्पना ही कर सकते हैं। इस रास्ते के किनारे बड़े प्राचीन वृक्षों की कतार है - इमली और आम के वृक्ष। और यह बहुत से गाँवों से गुजरती हैं। गेहूँ के हरे-भरे खेत ... प्राचीन कुँए, मन्दिर ... और उनमें सूखते देवता! धरती ऐसी चपटी-जैसे हथेली - ठेठ क्षितिज तक पसरी हुई। इतने मोड़, इतने घुमाव आते हैं कि कुछ ही क्षणों में लगने लगे कि आपने कम्पास की सारी दिशाएँ छान लीं। किस कदर खुला हुआ और मैत्रीपूर्ण पथ है यह! - जैसे, संसार में कम-बहुत ही कम होंगे। उनमें से कुछ का स्मरण हो रहा है अभी चलते हुए। किन्तु ... अभी तो यही कहना होगा कि यह पथ निराला-अद्वितीय पथ है: किसी और पथ जैसा नहीं। रास्ते में साँड़ दिखा एक - बड़ी बेफिक्री के साथ पकी-पकाई खेती को चरता हुआ। फिर बन्दर दीखे। फिर तोते। चलते-चलते मन जाने कहाँ खो गया! एकदम निर्विचार। सिर पर अविश्वसनीय चमत्कार-सा आकाश। चँदोवे सा तना हुआ। इस पथ पर विचरते हुए मन में कहीं कोई भाव नहीं, विचार नहीं ... केवल सौन्दर्य! असीम-अपार सौन्दर्य, जो धरती और आकाश में, प्रत्येक पेड़-पत्ते और घास पर बिखरा हुआ है। सब कुछ उसी से छाया हुआ है .... और, तुम भी उसी के अंग हो - अविच्छेद्य। वह वहाँ पसरा हुआ है सर्वत्र ... मौन, निश्शब्द। क्योंकि तुम नहीं हो, नहीं रह गये हो कहीं भी। तुम अब चुपचाप पीछे मुड़ गये हो - जिधर से आये थे, उधर को ही वापस चलने लगे हो। सूर्यास्त की फीकी पड़ती रोशनी में।
प्रत्येक अनुभव एक अपनी छाप छोड़ जाता है और ऐसी हर छाप अनुभव को विकृत कर देती है। इसलिए, कि ... ऐसा कोई अनुभव नहीं, जो पहले नहीं हुआ हो। सब कुछ बेहद प्राचीन है यहाँ; कुछ भी नया नहीं। परन्तु ... नहीं! ऐसा नहीं है। सारे अनुभवों की तमाम छापें धुल-पुंछ जाती है; अतीत का गोदाम यह मस्तिष्क पूर्णतया शान्त और निःस्तब्ध हो जाता है - बगैर किसी भी प्रतिक्रिया के। मगर बेहद जीता-जागता, संवेदनपूर्ण। तभी तो वह अतीत से पूरी तरह खाली, मुक्त हो जाता है और फिर से एकदम नया और ताज़ा हो उठता है।
वह वहाँ था - वह अनन्त, विशाल - जिसका कोई भी अतीत या भविष्य नहीं। वह वहाँ था - साक्षात्। बिना वर्तमान को महसूस किये। वह कमरे में व्याप्त हो गया - उसका अनन्त अमाप, और अकथनीय विस्तार। ....
5 जनवरी
सूरज पेड़ों के झुरमुट के पीछे से उगता है और समूचे नगर पर छा जाता है ... और, वृक्षों के अन्तराल, और नगर ... सब कुछ जीवन है; सब कुछ समस्त काल है। नदी उनके बीचोबीच प्रवहमान है - गहरी जीती-जागती और प्रशान्त नदी! कई छोटी-छोटी नावें नदी के ऊपर और नीचे तैर रही हें। कुछ बड़ी और पालदार नौकाएँ भी है, जो काष्ठ, बालुका, कटे-छँटे पत्थर ढोकर ले जा रही हैं। कभी-कभी नर-नारियों को भी - जो अपने गाँव वापस लौट रहे हैं - दुबले-पतले साँवले लोग - जो बहुत ही प्रसन्नचित्त, आपस में बतियाते हुए, नाव खेते जा रहे हैं मस्ती में। वे मैले-कुचैले चिथड़ों में लिपटे लोग हैं जिन्हें कभी पेट भर खाना भी नसीब नहीं होता ... और जिनके कई-कई बच्चे हैं। वे पढ़-लिख नहीं सकते - निरक्षर हैं एकदम। उनके पास मन बहलाने के कोई साधन नहीं हैं - सिनेमा आदि। परन्तु वे लोकगीतों, भजन-कीर्तनों और पौराणिक कथाओं से मन बहला लेते हैं बखूबी। वे सभी बहुत ही अकिंचन दीन-हीन लोग हैं और उनका जीवन बेहद-बेहद कठोर और कष्टपूर्ण जीवन है। रोग-व्याधि और मृत्यु उनके चारों और व्याप्त है - इस धरती और इस नदी की तरह। और उस शाम स्वैलो पक्षियों के झुण्ड के झुण्ड वहाँ नदी को लगभग छूते हुए उड़ रहे थे - और नदी का पानी बुझती हुई आग के रंग का था। हर चीज़़ इस कदर जीवन्त ... और विलक्षण तीव्र ऊर्जा से भरी हुई ... चार-पाँच छोटे-छोटे, मगर मोटे से कुत्ते अपनी भूखी-प्यासी माँ के इर्द-गिर्द खेलने-कूदने में मस्त थे। कव्वों के कई झुण्ड अपने बसेरों की ओर लौट रहे थे। उसी तरह तोते भी सदा की तरह चीखते-चहचहाते हुए। एक रेलगाड़ी पुल को पार कर रही थी और उसका तुमुल कोलाहल नदी के आर-पार हम तक पहुँच रहा था। और एक स्त्री नदी के ठण्डे जल में नहा रही थी। हर शै जीने के लिए संघर्षरत थी - अपने प्राणों की रक्षा करने किसी तरह ... और फिर चुपचाप मर जाने के लिए। परन्तु सूर्योदय और सूर्यास्त के बीच काल समस्त जीवन को निगल रहा था: समय - वर्तमान और अतीत - मनुष्य के हृदय को लगातार कुतर रहा था। मनुष्य काल में अपना अस्तित्व धारण किये था और इसलिए दुःख को जान रहा था।
किन्तु वे ग्रामीणजन - नदी की बगल वाले तंग रास्ते से गुज़रते हुए ...। पीछे चलता आदमी अपने आगे चलते हुए आदमी का अभिन्न अंग लग रहा था। कोई आठ जने थे - और, जो सबसे पीछे चल रहा था, वह बहुत बूढ़ा था और लगातार खाँस रहा था - गला खँखार रहा था ... और बाकी जने चुपचाप चल रहे थे अपने रास्तो पर। आगे चलता हुआ आदमी अपने पीछे आ रहे लोगों के प्रति चेतन था। वे सब थके-माँदे, गर सहज-शान्त लोग थे, सब के सब - यहाँ तक, कि प्रसन्न भी। आगे चलता आदमी अपने पीछे आ रहे लोगों की उपस्थिति से उतना ही बाखबर और चैतन्य था, जितना नदी के प्रवाह से। कोई केन्द्र नहीं था उसके देखने - महसूस करने का। ये सब शब्द और विचार से जुड़ी चीज़़ें हैं। वहाँ उसमें कोई सोच-विचार नहीं था। सिर्फ़ जीवन्त सत्ताएँ थी। वे सब तेज़-तेज़ डग भर रहे थे। वे नदी के साथ बह रहे थे, पक्षियों के साथ उड़ रहे थे और उतने ही खुले और फैले थे, जितना आकाश। यह तथ्य था, महज कल्पना-जल्पना नहीं। कल्पना निहायत बोदी और उथली चीज़ है, और तथ्य ज्वलन्त यथार्थ। वे नौ प्राणी अनादि काल से उस अनादि पथ पर गतिमान् थे; वे कहीं को नहीं जा रहे थे, कहीं से नहीं आ रहे थे। वह एक अन्तहीन जुलूस का जीवन था। काल और पहचान-अस्मिता सब गुम हो गये थे - विचित्र ढंग से। जब वह सबसे अगला आदमी मुड़ा वापस चलने के लिए, वे सबके सब ग्रामीणजन - खासकर वह वृद्ध, जो उसके क़रीब था - ठीक उसके पीछे - उसने ऐसे अभिवादन किया उसका - जैसे युग-युगो की गाढ़ी मैत्री हो दोनों की। अँधोरा घिर रहा थ। पक्षी अपने नीड़ों में वापस लौट चुके थे ; उस लम्बे पुल पर रोशनियाँ झलमला रही थीं और वृक्ष भी अपने में लौट रहे थे। दूर कहीं पर मन्दिर की घण्टियाँ बज रही थीं।
7 जनवरी
छोटी-सी नहर - कोई एक फीट चैड़ी - जो गेहूँ के हरे खेतों से गुज़रती है। उससे लगी पगडण्डी - जिस पर काफ़ी दूर तक टहला जा सकता है - बिना एक भी मनुष्य से टकराये। उस शाम की खामोशी खासुलखास थी। एक तगड़ा बड़ी चमकीली आँखों वाला पक्षी नहर में मज़े से जलपान कर रहा था। वह भौंकने वाला गुस्सैल नहीं था। तुम उसके एकदम पास जा सकते थे बिना डाँट खाये उसकी। बस उसने थोड़ा अचरज से तुम्हें देखा और तुमने उसे दुलार भरी नजरों से। वह मोटा-तगड़ा, मस्त था और बड़ा ही ख़ूबसूरत। वह बस इन्तज़ार में रहा कि तुम क्या करने वाले हो। और तुमने कुछ नहीं किया, तो वह इत्मीनान से फुर्र हो गया वहाँ से - बिना ज़रा भी आवाज़ किये। तुुम्हें उस पक्षी में, जितने भी पक्षी आज तक इस दुनिया में अस्तित्व में आये होंगे - उन सबका इकट्ठा एक जगह दर्शन हुआ। यह था करिश्मा उस विस्फोट का। कोई सोचा-समझा, पूर्वनियोजित विस्फोट नहीं था वह। वह बस अचानक घटित हो गया इस कदर तीव्रता और त्वरा के साथ, कि काल जहाँ का तहाँ ठहर गया - स्तम्भित हो गया। पर ... तुम, उस पगडण्डी पर आगे बढ़ लिये - उस महावृक्ष के पास से गुज़रते हुए, जो एक मन्दिर का प्रतीक बन चुका था क्योंकि वहाँ बाकायदा, फूल चढ़ाए गये थे - एक यूँ ही रंग दी गयी मूरत पर .... और, वह मन्दिर किसी और चीज़़ का प्रतीक था और, वह कुछ और भी एक विशाल प्रतीक था। शब्द और प्रतीक झण्डे की तरह भयावह रूप से महत्व पा लेते हैं। प्रतीक वह भस्मीभूत चीज़़ थी, जो दिमाग़ को खुराक पहुँचाती है, और वह दिमाग भी बंजर था और विचार उसी कचरे से उत्पन्न हुआ था। वह चतुराई और सूझ-बूझ से भरा था - जैसे कि वे सभी मरूस्थली चीज़़ें हुआ करती हैं जो ‘न कुछ’ से उपजा करती हैं। किन्तु, वह वृक्ष महामहिम था - पत्तों से भरा-पूरा - अनेकानेक पक्षियों का शरणस्थल; वृक्ष के तले की भूमि झाड़-बुहार के स्वच्छ रक्खी गयी थी; एक मिट्टी का चबूतरा भी उन्होंने वृक्ष के चारों और बना रक्खा था, जिस पर मूर्ति प्रतिष्ठित की गयी थी - वह मूर्ति जो वृक्ष के तने पर पीठ टिकाये हुए थी। पत्ते सड़-गल कर झर जाने वाले थे, पर वह मूर्ति नही। मूर्ति बनी-बची रहेगी - मनों को नष्ट करती हुई।
8 जनवरी
प्रातः सूर्य नदी को जगमगा रहा था - आँखों को चैंधियाता हुआ। एक मछुआरे की नाव उस ‘सुनहले पथ’ को पार कर रही थी और उस पार के तट पर झीना कुहरा टंगा था। यह नदी कभी भी निश्चल नहीं रह पाती: कोई न कोई हलचल होती ही रहती है उसमें हमेशा: अगणित पगों का नृत्य ... और आज की सुबह बेहद जीवन्त थी - सामने के वृक्षों-लता-गुल्मों को एकदम भारी और सुस्त बना देती हुई। बस, अपवादस्वरूप उन पक्षियांे को छोड़कर, जो निरन्तर कलरव-मग्न थे, और, उन तोतों को भी - जो उधर से रह-रह कर चीखते हुए उड़े जा रहे थे। ये सारे के सारे तोते उस घर की बगल में खड़े इमली के पेड़ पर डेरा डाले हुए हैं। सारा दिन वे इसी तरह आवागमन करते रहेंगे अपनी बेचैन उड़ानों के साथ। बहुत तेज़ और मुखर होती है उनकी उड़ाने और, तुम पत्तो के उस झुरमुट पर आँखें गड़ाओ तो बमुश्किल दर्शन होंगे उनके। उतने तड़के भी नदी आकाश के आलोक की छुअन भर से जग गयी थी ... और ध्यान केवल मन की विशालता को ही पैना करता जा रहा था। मन कभी भी नहीं सोता, कभी भी पूरी तरह बिन-जगा नहीं होता। मन के टुकड़े इधर-उधर पड़े थे जो दुःख और द्वन्द्व की धार पर निरन्तर पैने किये जा रहे थे। साथ ही, अभ्यस्तियों और हल्की आत्मतुष्टियों के कारण सुस्त और जड़ भी हो गये थे। हर सुख-सन्तुष्टि का कतरा मन पर लालसा की छाप छोड़ जाता था। पर ये अँधोरे क्षेत्र मन की सम्पूर्ण सत्ता के खुलने-खिलने के लिए तनिक भी अवकाश नहीं छोड़ते थे। अल्पकालिक सन्तुष्टि की वेदी पर विशालता की बलि चढ़ जाती थी। जो तात्कालिक है, वह विचार का समय है, और विचार कभी किसी गुत्थी को नहीं सुलझा सकता। निहायत टुच्ची-मशीनी बातों को छोड़कर। ध्यान मशीनी मामला नहीं है। वह कोई नाव नहीं है जो तुम्हें तुरन्त उस पार पहुँचा दे। वहाँ कोई किनारा नहीं होता; न कहीं पहुँचना। और ... प्रेम की ही तरह उसका कोई उद्देश्य, कोई सोचा-समझा स्वार्थ नहीं होता। वह एक अन्तहीन हलचल है, जो समय में भले चलती हो, परन्तु समय की सम्पत्ति नहीं है। समय का - यानी तत्काल का सारा क्रिया-कर्म दुःख की जन्मभूमि है ; उस पर कुछ भी नहीं उगता - सिवा दुःख-द्वन्द्व के। परन्तु ध्यान इस भूमि की भरपूर और गहरी चेतना है। और वह अपनी निर्विकल्प सत्ता में किसी चीज़़ को जड़ नहीं पकड़ने देती - चाहे वह जितनी भी सुखद या दुःखद हो। ध्यान अनुभव की मृत्यु है। और ... तभी वह स्पष्टता आती है जिसकी स्वाधीनता ‘देखने’ में - यानी, विशुद्ध देखने में निहित होती है। ध्यान वह विलक्षण आनन्द है, जिसे किसी हाट में नहीं खरीदा जा सकता। उसका कोई गुरू या कोई शिष्य नहीं हो सकता। सारा गुरूत्व, सारी गुरूभक्ति और उसकी सारी चर्या को तुरन्त-तत्काल झर जाना होगा - जैसे एक पत्ती झर जाती है चुपचाप।
वह असीम - अप्रमेय वहाँ विद्यमान था - उस छोटी-सी जगह को - और ब्रहााण्ड को आपूरित करता हुआ। वह ऐसे आविर्भूत हुआ जैसे एक समीर का झोंका नदी के ऊपर से गुज़रता हुआ आता है। पर, विचार उसे झेल नहीं सकता था। और, अतीत, या काल स्वयं उसकी माप लेने - करने में सर्वदा-सर्वथा अक्षम था।
9 जनवरी
नदी के पार धुँआ उठ रहा था - एक सीधो स्तम्भ की रचना करता हुआ। नित्य की सहज गतिविधि, जो आकाश में पहुँचकर विस्फोटित होती थी। हवा एकदम चुप-निःस्पन्द थी; नदी भी निस्तरंग। और पेड़ों की भी हर पत्ती निःस्पन्द। बस कुल जमा कुछ तोते ही इधर-उधर शोर करते उड़े जा रहे थें यहाँ तक, कि मछुआरे की नाव भी पानी को नहीं हिला पा रही थी। सभी कुछ विजड़ित हो गया लगता है - सिवा उस ध्रूम्रवलय के। यद्यपि वह धूम्रवलय सीधा ऊपर को उठा जा रहा था, उसमें एक उल्लसित स्फूर्ति थी - और क्रियाशील स्वतन्त्रता। यह एक सुहावना दिन था - आकाश निरभ्र, ... और सहस्र शिशिरों के आलोक से परिपूर्ण, ‘वह’ हर पल तुम्हारे साथ था। एक दिव्य सुगन्ध की तरह वह नितान्त अप्रत्याशित जगहों में भी साथ रहा आया। वह ऐसा प्रकाश था, जिसकी कोई छाया नहीं पड़ती और, जो तुम्हारी हस्ती के हर कोने-अँतरे में रम गया था। तुम हर वस्तु के आर-पार देख रहे थे - दीवाल के उस तरफ के पेड़ों के आर पार, स्वयं तुम्हारी अपनी सत्ता के आर-पार। तुम्हारा ‘स्व’ उतना ही पारदर्शी था, जितना आकाश, और उतना ही खुला-विस्तीर्ण। चरम भावावेश! पर ऐसा, जो कभी मुरझा या मर नहीं सकेगा। एक अपूर्व आलोक था वह, जो हर वस्तु को उघाडे़ दे रहा था, हर वस्तु को वेध्य और वध्य बनाता हुआ, .... और जिसकी एकमात्र सुरक्षा थी - प्रेम। केवल, केवल प्रेम। तुम वह नहीं हो सकते थे जो तुम थे। तुम जलकर छार हो चुके थे। बिना राख का एक कण तक नहीं छोड़े। अपूर्व अप्रत्याशित रूप से सृष्टि में और कुछ था ही नहीं - सिवाय, सिवाय उस ‘आलोक’ के।
12 जनवरी
एक छोटी-सी बालिका बाग में एक खम्भे के सहारे खड़ी। वह गन्दगी में लिथड़ी हुई थी, उसके बाल हफ़्तों से धुले नहीं थे। वे धूल से सने, बिना कंघी किये ; कपड़े फटे हुए थे और कब से नहीं धुले थे। उसकी गरदन के गिर्द एक लम्बा चीथड़ा लिपटा हुआ था और वह उन लोगों को देख रही थी, जो बरामदे में बैठे चाय पी रहे थे ; उसका यह देखना पूर्णतः उदासीन और विरक्त था; बिना किसी भाव के, बिना किसी कुतूहल या सोच-विचार के - उस दृश्य के बारे मंे, जो उसकी आँख सामने घट रहा था। उसकी आँखें यों ही उधर जमी थीं नीचे उस समूह पर। ... और वे तोते या बत्तखें, जो उसके इतने पास थे - वे भी उसका ध्यान बिलकुल नहीं खींच रहे थे। वह भूखी तो नहीं लग रही थी। शायद वह यहीं के नौकर-चाकरों में से किसी की बेटी थीं क्योंकि वह उस परिवेश से खासी परिचित लग रही थी। वह ऐसे, इस अंदाज में खड़ी थी, जैसे वह पूर्ण विकसित युवा महिला हो - आत्मविश्वास से भरी, और सारे दृश्य से अलग-थलग, एकाकी और विरक्त-सी। नदी और पेड़ों की पृष्ठभूमि में उसे देखते हुए तुम्हें एकाएक महसूस हुआ कि तुम उस चाय-पार्टी को नितान्त निर्भाव और निर्विचार मुद्रा में देख रहे हो- सब कुछ से उदासीन। और, ... जब वह वहाँ से निकल कर दूर उस नदी-किनारे खड़े वृक्ष के निकट पहुँची, तो तुम्हें लगा, यह तुम ही हो; वह नहीं। जो चले गये, वे भी तुम हो। जो बैठा है वहाँ सख्त खुरदरी जमीन पर, वह भी तुम हो। यह तुम हो, जिसने झुक कर वह सूखी टहनी उठायी और नदी-किनारे फेंक दी। यह तुम ही हो - वह अकेली, मुस्कानविहीन, सदा अवहेलित बालिका। तभी तुम उठे और घर के इर्द-गिर्द चक्कर काटने लगे। और ... क्या ही विचित्र और विस्मयकारी घटना! ... तुम ही वे बत्तखें थे, तुम ही वह गिलहरी थे, जो दौड़कर पेड़ पर जा चढ़ी थी अभी-अभी। और तुम ही वह बिना नहाया मैला-कुचैला शोफ़र हो, ... और वह नदी भी; ... जो बही जा रही है चुपचाप, उधर वहाँ। प्रेम दुःख नहीं है; न ही वह राग-द्वेष का बना है; किन्तु वह जोखिम भरा अवश्य है क्योंकि वह सब कुछ ढहा सकता है। वह उस हर चीज़़ को नष्ट कर देता है जो मनुष्य ने अपने इर्द-गिर्द बना-जमा रक्खी है। सिवाय ईटों को छोड़कर। प्रेम मन्दिर नहीं बना सकता; न सड़े-गले समाज को सुधार सकता है; वह कुछ नहीं कर सकता। हर कम्प्युटर, हर मशीन चीज़़ों को बदल सकती है और मनुष्य के लिए फुरसत पैदा कर सकती है, जो फुरसत फिर एक नयी समस्या पैदा कर देगी - पहले से ही इकट्टी समस्याओं में वृद्धि करती हुई। प्रेम में कोई समस्या नहीं है; और इसीलिये वह इतनी सर्व-संहारक और खतरनाक है। मनुष्य समस्याओं में ही जीता है, बिना उन्हें ओढ़े वह समझ ही नहीं पाता, क्या करे। इसी कारण उसकी समस्याओं का कोई अन्त नहीं होता। एक को सुलझाता है, तो दूसरी आकर खड़ी हो जाती है। मृत्यु, वृद्धावस्था, और व्याधियाँ ... और ऐसी समस्याओं का अम्बार, ... जिन्हें कोई संगणक नहीं हल कर सकता। यह वह विनाश नहीं है, जो प्रेम लाता है; न वह मृत्यु जो प्रेम ही लाता है। वह राख की ढेरी है - एक ऐसी आग से उपजी, जिसे आदमी बड़े जतन से बनाता है और तमाम सारी उसकी बनायी हुई स्वचालित मशीनें दिन-रात बेरोक चलती रहती हैं। प्रेम, मृत्यु और सृजन परस्पर अविच्छेद्य है। तुम एक को स्वीकारो और दूसरे को नकार दो - यह नामुमकिन है। तुम प्रेम को किसी हाट में या चर्च में नहीं खरीद सकते: वहाँ तो उसका मिलना और भी ज़्यादा कठिन है। परन्तु, यदि तुम यह रात-दिन की भाग-दौड़, आपा-धापी छोड़ दो - समस्याओं का रोना भी, - तो शायद वह, अकस्मात्-अयाचित ऐसे वक़्त प्रकट हो जाये, जब तुम कहीं और व्यस्त हो।
वही ‘अज्ञात’ है; और हर चीज़़, जो तुम्हें ‘ज्ञात’ है उसे खुद को भस्म कर देना होगा - बिना राख तक छोड़े। तुम्हें अपना अतीत भी - वह चाहे समृद्ध हो, चाहे दरिद्र, - उसे भी उठाकर उसी तरह परे फेंक देना होगा जैसे उस लड़की ने वह टहनी उठाकर तट से दूर फेंक दी थी। ‘ज्ञात’ का भस्मीकरण ही ‘अज्ञात’ की क्रियाशीलता है। दूर कहीं बाँसुरी बज रही है - कुछ बेसुरी-सी, और, सूर्यास्त होने को है - एक बहुत बड़ा लाल गोला शहर की दीवालों के पीछे दिखायी दे रहा है। और, नदी का रंग धीमी आग जैसा है और सब दूर से पक्षी उड़े चले आ रहे हैं - रात्रि-विश्राम के लिए ....
13 जनवरी
सूर्योदय होने ही वाला था और, हर पक्षी जगता प्रतीत हो रहा था .... उनके कलरव के ऊपर कव्वों की काँव-काँव अलग ही गूँजने लगी थी। वे बहुत सारे थे। उधर, तोतों ने भी अपना अलग ही सुर अलापना शुरू कर दिया। एक पत्ता भी नहीं हिल रहा था कहीं, .... और, नदी ... चाँदी जैसी चमक धारण करती हुई यहाँ से वहाँ तक फैली अपने दिगन्तव्यापी विस्तार और गहरायी में बही जा रही थी। रात्रि ने नदी के साथ कुछ कर दिया था। तभी तो वह कल की अपेक्षा आज कहीं अधिक सम्पन्न और समृद्ध लग रही थी - उस धरती से एकजान, - जिस पर वह प्रवहमान थी। उसमें ऐसी तीव्र-तेज़स्वी ऊर्जा थी जो अपनी पावनता में सर्वस्वहारी - सर्वसंहारी थी। उस पार का तट अभी सोया पड़ा था: वृक्ष और गेहूँ के दूर-दूर तक फैले खेत अभी भी शान्त और रहस्यमय लग रहे थे। दूर कहीं किसी मन्दिर की घण्टी बज रही थी - सिर्फ़ घण्टी ...; और कोई संगीत नहीं। सब कुछ अब जगने की तैयारी में था। सूर्य वृक्षों के पत्तों पर पग धरते हुए आये और देखते-देखते उन्होंने नदी के आर-पार एक स्वर्णिम पथ निर्मित कर दिया। यह एक अनन्तरमणीय प्रातःकाल था और उसकी सुन्दरता अक्षुण्ण, टिकी रहने वाली थी। स्मृति में नहीं - स्मृति एक बहुत ही उथली चीज़ है; स्मृति एक मृत वस्तु है, स्मृति एक बहुत ही उथली चीज़़ है; स्मृति एक मृत वस्तु है, स्मृति कभी भी सौन्दर्य या प्रेम को धारण नहीं कर सकती। वह उन्हें नष्ट कर देती है। वह निरी यान्त्रिक चीज़़ है - बेशक, उपयोगी; परन्तु सौन्दर्य का स्मृति से कुछ भी लेना-देना नहीं। सौन्दर्य चिर नूतन होता है: पर उस नूतन का पुरातन से कोई सम्बन्ध नहीं होता। जो कि कालबद्ध चीज़़ है।
14 जनवरी
चन्द्रमा अभी किशोर ही था। फिर भी छायाएँ उत्पन्न करने लायक काफ़ी उजाला था उसका। बहुत सारी छायाएँ थी और वे बिलकुल शान्त-निश्चल पड़ी हुई थीं। उस तंग रास्ते के इर्द-गिर्द हर छाया दूसरी छाया से बतिया रही थी। हर इमली, हर आम अब रात्रि-विश्राम की प्रतीक्षा में थे एक छोेटा-सा उलूक टेलीग्राम के तार पर बैठा था और जैसे ही तुम उस के पास पहुँचे, वह चुपचाप पंख पसार कर अन्तधर््ाान हो गया। ग्वाले शहर में दूध पहुँचाने के बाद अपनी साइकिल खड़खड़ाते हुए वापस लौट रहे थे। वे अपने साथियों से बतियाते जा रहे थे ज़ोर-ज़ोर से। पर उनके शोर के बावजूद खुले देहात का मौन और आकाश की विशालता निर्विध्न थी। उस शाम कुछ भी, कोई भी चीज़़ उस विशाल मौन को विध्न नहीं पहुँचा सकती थी। यहाँ तक कि मालगाड़ी तक - जो लोहे के पुल को पार कर रही थी। हरे-भरे खेतों से होकर एक पगडण्डी जाती है और ... जब तुम उस पर चल रहे थे, - सारे मानवी चेहरों और आँसुओं से दूर ..., अचानक तुम चैकन्ने हो गये - तुम्हें लगा, तुम्हें कुछ हो रहा है। तुम्हें पता है, यह कोई कल्पना नहीं है, न ही कोई स्मृति विगत के किसी खट्टे-मीठे अनुभव की। तुम्हें पता है यह उनमें से कुछ भी नहीं है। तुम इन शंकाओं से भी खूब परिचित हो। उन्हें परे धकेलते हुए तुम उसके प्रति चैतन्य हो गये जो तुम्हारे भीतर घट रहा है। वह वहाँ साक्षात् उपस्थित है - धरती-आकाश और उनकी हर वस्तु को भरता हुआ। तुम और वह छोटा-सा ग्रामवासी-जो चुपचाप एक शब्द तक उचारे बिना तुम्हारी बगल से गुज़र गया - दोनों उसी उपस्थिति से बने हो, उसी के हो। उस अकाल-बेला में वहाँ केवल वह ‘विशाल’ विद्यमान है। सारी ध्यानलग्न संवेदनशीलता भी चुक गयी - केवल वह, केवलमात्र वह अविश्वसनीय पावनता ही वहाँ शेष है। वह महाशक्ति ही पावनता है - सर्वथा अभेद्य और अगम्य। परन्तु ... वह वहाँ विद्यमान है। सब कुछ निः स्पन्द, ठहरा हुआ है। कहीं कोई हलचल नहीं। और रेल की सीटी तक उस निःस्तब्धता में डूब गयी है। वह तुम्हारे साथ चलती रही जब तक तुम वापस अपने कमरे के एकान्त में प्रविष्ट नहीं हो गये, और, वह वहाँ भी तुम्हारे साथ रही आयी है क्योंकि उसने कभी तुम्हें छोड़ा ही नहीं था।
16 जनवरी
बुरी तरह लदे-फँदे ऊँट के साथ हमने उस छोटी-सी नदी पर बने नये पुल को पार किया। उस बूढ़े-चरमराते पुल की जगह अब यह नया पुल बन गया था। खासा मज़बूत, .... और ऊँट को भी उस पर चलने में कोई ऐतराज नहीं हुआ। हम सब पुल पर से नदी पार किये और ... कई सारे ग्रामवासी नीचे से। खासा धूल-भरा रास्ता था, जिस पर ऊँट के पैरों की तगड़ी छाप पड़ी। ऊँट पर अनाज के भारी-भारी बोरे लदे हुए थे और उसे इससे ज़्यादा तेज़ नहीं चलाया जा सकता था - हालाँकि ऊँट का मालिक ऊँट के साथ खासी जबर्दस्ती करता रहा था। एक रास्ता और है जो दाँयी तरफ मुड़ जाता है - पीली सरसों और फूली हुई मटर, और घने गेहूँ के खेतों को पार करता हुआ। यह रास्ता ज़्यादा चलन में नहीं है, इसलिए उस पर टहलना बहुत अच्छा लगता है। सरसों में हल्की-सी गन्ध थी, मटर में उससे तेज़ ... और गेहूँ की बालियाँ, जो अभी एकदम नयी ही आयी थीं - उनकी भी अपनी गन्ध थी, और इन तीनों गन्धों का मिश्रण शाम की हवा को सुवासित किये था। बड़ी सुहावनी शाम थी। लग रहा था जैसे हम देश या काल में नहीं हैं - कहीं अन्यत्र हैं, जिसे मापा नहीं जा सकता। इक्का-दुक्का ग्रामीण ही कभी रास्ते में मिला होगा। तुम बहुत दूर चले गये थे किसी अज्ञात विश्व में - जिसका कोई रिश्ता हमारे ‘ज्ञात’ विश्व के साथ नहीं प्रतीत होता था। यह कोई वैसी वस्तु नहीं, जिसका अनुभव किया जा सके। सारा ही अनुभव ‘ज्ञात’ के क्षेत्र से ही बँधा होता है। तुम बहुत दूर चले गये थे, परन्तु वे वृक्ष, वे पीले सरसों के फूल, गेहूँ की बालियाँ इतने पास अपने थे - तुम्हारे विचारों से भी ज़्यादा पास, .... और अविश्वसनीय रूप से जीवन्त! मृत्यु, सृजन और प्रेम वहाँ थे, और तुम उसका एक अंश ... । वे अलग नहीं थे एक दूसरे से। वे अविच्छेद्य थे - परस्पर सम्बद्ध। और यह रिश्ता शब्द और कर्म का रिश्ता नहीं था। वृक्ष, अग्नि और आँसू सच्चे थे - अनिवार्य तथ्य। किन्तु वे ज्ञात के क्षेत्र की गतिविधियाँ थीं। पर, तुम्हें बहुत दूर जाना है, और ... फिर भी, बहुत पास रहना है।
बाइसिकिल पर सवार व्यक्ति गा रहा था। दूध के खाली कनस्तर जो साइकिल में उसके पीछे बँधे थे - खड़खड़ा रहे थे। वह किसी से बात करने को उत्सुक था ... और बगल से गुज़रते हुए उसने हिचकिचाते हुए कुछ कहा ... और फिर अपने रास्ते चला गया। चन्द्रमा ऊपर आ गया था - रात की गन्ध गहराने लगी थी। ... और, सड़क के मोड़ के पार ही नदी थी। वह जगमगा रही थी मानो उसके भीतर हज़ारों मोमबत्तियाँ जल रही हों। छोटी-सी नदी भी नक्षत्रों से डबाडब भरी थी।
20 जनवरी
उषःकाल अभी दूर था, आसमान तारों से जगमग ...। नदी पर हल्का कोहरा था, और उस पार का तट थोड़ा-थोड़ा दिखने लगा था। रेल धड़धड़ाती हुई पुल पार कर रही थी - वह मालगाड़ी थी। उस विशाल नीरवता ने उस शोर को भी सोख लिया। कुछ भी उस नीरवता को भंग नहीं कर सकता था, जो वहाँ व्याप्त थी। वह एक अभेद्य सन्नाटा था। पेड़ घने अँधोरे में नींद में डूबे हुए थे। अभी ध्यान इस सब की चेतना से, ... और उस चेतना के भी अतिक्रमण से - स्वयं काल के भी अतिक्रमण से जुड़ा था। काल की गतिविधि ही विचार है जो कभी भी काल से स्वतन्त्र नहीं हो सकता। उषा के अवतरण का संकेत मिल चुका था - नक्षत्र अपनी चमक उत्तरोत्तर खो रहे थे और सुबह होने ही वाली थी। फिर भी वह विशाल नीरवता अभी यथावत् कायम थी और... वह सदैव वहाँ बनी रहेगी- पक्षियों के कलरव और मनुष्य द्वारा उपजाये गये सारे तुमुल कोलाहल कलह के बावजूद..।
21 जनवरी
शिशिर अपने चरम पर था। हड्डियों को ठिठुरा देने वाली ठण्ड में निधर््ान दीन-हीन लोगों की दुर्दशा की कोई सीमा नहीं थी। एक ओर जनसंख्या का विस्फोट। दूसरी ओर ठण्ड से मरते लोग। रोज़ का दृश्य है यह, इन काँपती-ठिठुरती मानव-मूर्तियों का। चिथड़ों में लिपटे मनुष्य! ओढ़ने को कुछ भी नहीं उनके पास। एक वृद्धा सिर से पाँव तक ठण्ड से काँप रही - अपने घुटनों को बाँहों से घेरे ... । दाँत बज रहे थे उसके मारे ठण्ड के। जमुना किनारे एक युवती फटा चीथड़ा धो रही थी और वहीं उसके पास एक बूढ़ा बुरी तरह खाँस रहा था। बेहाल था वह खाँसी से, और बुरी तरह हाँफ़ रहा था। रोज सुनायी देता था आज इतने लोग ठण्ड से मर गये। ... लाल गुलाब और पीली पैंजी अपने रंगों में दमक रहे थे - पूरा बगीचा रंगों में सराबोर था। रंग ही ईश्वर था और ठण्ड ईश्वर की भी पहुँच से बाहर। ठण्ड भी सर्वव्यापी थी और रंग भी और तुम दोनों को एक-दूसरे से अलग नहीं कर सकते थे। आसमान हल्का नीला था - एक वर्षाहीन शीतऋतु का नीलापन। किन्तु वह नीला सब रंगों का नीलापन था। तुम उसे देखते थे और एकजान हो जाते थे उससे। नगर के सारे कोलाहल मद्धिम पड़ जाते थे किन्तु रंग अपनी अविनश्वरता में कायम रहे आते थे।
दुःख को भी सम्भ्रान्त बना डाला है आदमी ने। हज़ारों व्याख्याएँ कर डाली हैं उसकी। दुःख को मानवीय गुणवत्ता और सम्बोधि के माध्यम की तरह प्रतिष्ठित कर दिया गया है। सर्वत्र उसके प्रति सहानुभूति प्रदर्शित की जाती है, या उससे पलायन के नुस्खे बताये जाते हैं। किन्तु दुःख की जड़ें आत्मपीड़न-आत्मदया में होती हैं - अपनी अन्तहीन स्मृतियों के साथ। बीते हुए कल की मृत चीज़़ों के बीच। पर यह बीता हुआ कल हमेशा महत्वपूर्ण हो जाता है। इसी की यन्त्रचर्या जीवन को अर्थ देती प्रतीत होती है: इसलिए, कि वह ‘ज्ञात’ की समृद्धि है, जानी-पहचानी चीज़़ों की दौलत है। विचार मात्र का उत्स इसी बीते हुए कल में है। ये बीते हुए कल ही मनुष्य के दुख भरे जीवन को अर्थ देते लगते हैं। जब तक मनुष्य अपने मन को इस बीते हुए कल से, उसे झाड़-पोंछकर उससे मुक्त नहीं होता, दुःख का अन्त नहीं होगा। उसे तुम विचार से नहीं धो सकते क्योंकि विचार बीते हुए कल की ही पुनरावृत्ति या निरन्तरता है। सारे विचारों, अवधारणाओं, आदर्शों का भी कुलकुलान निचोड़ यही है। केवल इस सारी प्रक्रिया की आत्मालोचनात्मक सचेतनता ही मानव-मन को दुःख से मुक्ति दिला सकती है। इस जटिल ‘तथ्य’ को बिना फैसले के, बिना रायजनी के देख पाना ही दुःख का अन्त कर सकता है। सब बातों का सारांश यही कि ‘ज्ञात’ का अन्त होना चाहिए अनायास। तभी अज्ञात की सत्ता उसकी जगह ले सकती है।
22 जनवरी
उसने अपने व्यक्तित्व को खूब चमका रक्खा था। वह दर्पण में अपनी प्रतिच्छवि को निहार कर उसे चैकस चुस्त बनाये रखती थी। उसके कई बच्चे थे और उसके बाल भी सफ़ेद हो चले थे। उसके पास पैसा था और एक सुरूचिपूर्ण शालीनता और आभिजात्य भी। उसकी कार भी उसी की तरह चकाचक और चमाचम थी। बड़ी दक्षता के साथ, सड़कों के सारे मोड़ खूबसूरती से पार करते हुए, ..... अपनी रफ़्तार कायम रखते हुए वह गन्तव्य तक पहुँचती थी। यह बेहतरीन सुरक्षा और व्यवस्था उसके दैनिक जीवन की, उसका आत्मविश्वास बनाए रखती थी। वह एक ठण्डी सुबह थी; जो थोड़ा-सा कुहरा छाया हुआ था, वह सूर्योदय के साथ ही बिला चुका था। सब कुछ अपनी जगह शालीनता के साथ कायम था।
मनुष्य का मस्तिष्क सदा-सर्वदा किसी न किसी काम में व्यस्त, उलझा रहता है। वह चाहे जितना सतही और ऊपर से देखने पर चाहे जितना महत्त्वपूर्ण लगता हो, बन्दर की तरह वह हमेशा चंचल और अस्थिर ही रहता आता है। एक डाल से दूसरी डाल पर कूदता-फाँदता .... वह चकर-चकर करता रहता है। रिक्त होना, ....... पूरी तरह खाली कर देना अपने मन को, इस मर्कट-क्रीड़ा से - किस कदर डरावनी चीज़़ है - जैसी कि हम उसे समझते हैं। पर वह पूर्णतः अनिवार्य है - मन के लिए - अपने को असंलग्न रखना, खाली कर देना! क्योंकि, तभी तो वह ‘अज्ञात’ गहराइयों में प्रवेश करने में समर्थ हो सकता है। मानवजीव की अधिकतर व्यस्तताएँ, अधिकतर क्रियाएँ एकदम सतही होती हैं। एक विषयासक्त और दलदल मंे फँसा हुआ मन कभी भी अपनी ही गहरायी में प्रविष्ट नहीं हो सकता; अपने ही अपरिचित-अनभ्यस्त प्रदेशों में नहीं विचर सकता। यह खालीपन-यह उलझाव रहित खालीपन ही मस्तिष्क को अवकाश (स्पेस) प्रदान करता है - और, इस अवकाश में काल प्रवेश नहीं कर सकता। इसी खालीपन, इसी असली आत्म-वान् शून्य में से ही सच्चा सृजन सम्भव होता है, जिसकी लगन, जिसका प्रेम ही मृत्यु है।
23 जनवरी
पेड़ नंगे हो चुके थे - हर पत्ता झर चुका था। यहाँ तक, कि नाजुक टहनियाँ तक टूट और बिखर रहीं थीं। शीत उनकी सहनशक्ति से ज़्यादा, बहुत ज़्यादा भारी पड़ रहा था। कुछ दूसरे पेड़ भी थे, जिनकी पत्तियाँ अभी झरी नहीं थीं। तो भी, उनकी हरियाली टिक नहीं पा रही थी। कुछ तो उनमें से भूरी पड़ चुकी थीं। यह एक असाधारण और अभूतपूर्व ढंग से शीतग्रस्त शिशिर ऋतु थी। हिमालय की निचली पर्वतश्रेणियों पर भारी हिमपात हुआ था। कई-कई फुट मोटी बर्फ़ जम चुकी थी उन पर और कुछ ही मील दूर, नीचे मैदानों पर उसकी ठिठुरन व्याप चुकी थी। हर जगह धरती पर पाला पड़ चुका था और फूलों का खिलना ही बन्द हो गया था। थोड़े से, गिनती के गुलाब ही बचे थे जिनका रंग उस छोटे से बगीचे में अभी भी खिला हुआ था। और, पीले पैंजी फूलों का भी। किन्तु सड़कों पर, सार्वजनिक स्थानों पर फटे-पुराने चिथड़ों में लिपटे लोग ही सिर अैर मुँह ढाँपे हुए दिखायी पड़ते थे। उनमें अधिकतर तो रोजाना मज़दूरी करने वाले ही होते, परन्तु शाम को जब दिनभर के कठोर श्रम के उपरान्त वे लौट रहे होते अपने घरों की - घर क्या, झुग्गी-झोपड़ों की ओर, तो वे हँसते-बतियाते आपस में एक दूसरे को छेड़ते-गुदगुदाते होते। ये वे मानव-जीव थे, जो बड़ी-बड़ी इमारतें और कार्यालय निर्माण करते हैं -जहाँ वे न तो कभी रहेंगे, न जहाँ कभी उन्हें काम करने का मौका नसीब होगा। सारे संभ्रान्त लोग अपनी आलीशान कारों में सवार होकर वहाँ जाते हैं और ये सर्वहारा लोग उन पर - यानी अपनी ही बनायी इमारतों पर एक नज़र तक नहीं डालते। सूरज ऐसी ही किसी आलीशान इमारत के पीछे डूब रहा था। अलग-अलग देशों के झण्डे जो लगे थे वहाँ, बिलकुल भी नहीं हिल रहे थे - हवा इस कदर ठहरी हुई, ... स्तम्भित थी; और, पूरे दिन कोहरा जमा रहा था। वे झण्डे भी थक गये थे। वे थे क्या आखिरकार? रंगीन चिथड़े ही न? मगर क्या आन-बान-शान थी उनकी? .... कुछ कव्वे एक गड्ढे के पास इकट्टा हो गये थे पानी पीने। आसमान धीरे-धीरे धुँधला रहा था - रात के लिए प्रस्तुत हो रहा था।
हर विचार, हर भाव बिला गया था और मस्तिष्क पूर्णतः निश्चेष्ट हो चुका था। आधीरात के भी बाद की घड़ी रही होगी यह; और, कहीं कोई आवाज़़़़़़़ नहीं। कड़ाके की सरदी थी, और चाँदनी एक खिड़की से छनके कमरे के भीतर आ रही थी: सामने की दीवार पर उसने एक छायाकृति बुन दी थी। मस्तिष्क पूरी तरह सचेत था: बगैर किसी प्रतिक्रिया के सब कुछ को देखता ...। एक भी हरकत नहीं थी उसकी, अपनी ओर से - वह केवल मात्र साक्षी था। किन्तु संवेदनहीन नहीं; न ही स्मृति की गिरफ़्त में कदापि ...। और ... अकस्मात् वह अगम-अज्ञेय ... वह ‘विशाल’ अवतरित हुआ - न केवल कमरे में, तथा कमरे के बाहर भी, बल्कि, एकदम गहरे - अतलान्त गहरे में भी - उन प्रदेशों में - जो कभी मन की, मानस की गहरायी थी। विचार का सीमान्त होता है - जो हर तरह की प्रतिक्रियाओं से निर्मित होता है और हर उद्देश्य, हर कामना उसे आकार देती है - जैसा कि हर भावावेग के साथ होता है। सारा का सारा अनुभव-अनुभव मात्र अतीत से जुड़ा होता है और सारी अवगति, सारा भान ‘ज्ञात’ विश्व से। किन्तु उस विराट् ने कोई छाप नहीं छोड़ी। वह वहाँ साक्षात् विद्यमान था - सुस्पष्ट, शक्तिशाली, अभेद्य और अगम्य, जिसकी तीव्रता ही वह ‘अग्नि’ थी, जो कोई राख नहीं छोड़ती। वह अपने साथ चरम आनन्दानुभूति भी लेकर आया था, और .... उसने भी कोई स्मृति नहीं छोड़ी। क्योंकि उसको अनुभव करने वाला दिमाग ही बिला चुका था। वह सहज ही वहाँ था - अवतरित होने और फिर अन्तधर््ाान हो जाने के लिए; पर, उसका अनुसरण नहीं किया जा सकता था; न ही, आवाहन।
अतीत और अज्ञात अज्ञेय किसी भी बिन्दु पर नहीं मिलते। वे कैसी भी चेष्टा और कर्म से साथ नहीं लाये जा सकते। कोई ऐसा सेतु भी नहीं, जिसे पार करके उस तक पहुँच सकें: कोई ऐसी राह नहीं, जो वहाँ ले जा सके। ये दो सत्ताएँ कभी नहीं मिली हैं आपस में; और कभी नहीं मिलेंगी। अतीत को उस ‘अज्ञात’ सत्ता के प्रति पूर्णतः समर्पित और निःशेष हो जाना होता है - ताकि उसका आविर्भाव हो सके।
और ... अन्त में
अनुवादक की ओर से
जे. कृष्णमूर्ति (1895-1986) अपने व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों में अपने पाठकों-प्रशंसकों के लिए पूरे पारदर्शी खुलेपन के बावजूद एक पहेली बने रहे हैं। एक ओर वे हमारे इस ‘खूंखार-सिनिक संशयवादी‘ युग में बुद्ध की ‘महाकरूणा’ के अवतार और प्रत्यक्ष वस्तु-पाठ सरीखे लगते रहे हैं, और दूसरी ओर हम सामान्य मानव जीवों को रास आने वाले सारे परम्परागत आदर्शों को प्रश्नांकित करते हुए, बल्कि उन्हे निर्ममतापूर्वक नकारते हुए वे हमें मानो एक बियाबान में पटक देते प्रतीत होते हैं। हमारी असाध्य व्याधियों का उनका सुझाया उपचार टी.एस. एलियट के ‘दि शार्प कम्पैशन आॅफ द हीलर्स नाइफ़’ की तरह एक ओर हमें रामबाण की तरह लुभाता और आश्वस्त करता प्रतीत होता है, और दूसरी ओर अपनी आत्यन्तिक और अभूतपूर्व रहस्यमयता में स्वयं हमारी व्याधि से भी अधिक दुर्गम-दुस्साध्य लगने लगता है। उनके कथनानुसार आज की तारीख में जो मानव-निर्मित प्रलयकाल सरीखी विपदाएँ हमारे सामने मुँह बाये खड़ी हैं - चाहे सभ्यताओं के असमाधोय संघर्ष की; चाहे स्वयं मानवीय जीवन-चर्या के एक विश्वव्यापी यन्त्रचर्या द्वारा पूरी तरह विस्थापित-उन्मूलित हो जाने की; चाहे, पर्यावरण के अन्तहीन प्रदूषण की, चाहे सारी मजहबी और विचारधारायी मान्यताओं और मतवादों के पूरी तरह निरर्थक-अप्रांसगिक हो जाने की इन सारी विडम्बनाओं से उबरने का और कोई उपाय नहीं बचा है - सिवाय स्वयं इस मानवीय चेतना नाम की चीज के ही आमूलचूल रूपान्तरण के। यह रूपान्तरण या ‘म्यूटेशन’ (कृष्णमूर्ति का प्रिय शब्द) ही इस सामूहिक आत्मघात से, निस्सारता के इस सर्वग्रासी आतंक से हमें उबार सकता है। मानव जाति से कृष्णमूर्ति की यह माँग कइयों को एक असम्भव माँग लग सकती है। श्री अरविन्द की तरह वे इसे ‘इवोल्यूशन’ से भी नहीं जोड़ते। उनका कहना है, कि विकासवादी विकास जितना हो सकता था, हो चुका; अब मनुष्य को विकास नहीं, आमूलचूल रूपान्तरण-अर्थात् ‘म्युटेशन’ चाहिए। कैसा क्या होगा यह म्यूटेशन? क्या श्री अरविन्द के ‘अतिमानस का अवतरण’ जैसा? लगता नहीं- क्योंकि कृष्णमूर्ति के दर्शन में इस तरह के यूटोपियन विचारों या विश्वासों के, यहाँ तक कि अनुभवों तक के, लिए बिलकुल भी गुंजाइश नहीं दीखती। उनकी दृष्टि में यह सब आत्मछलना है, भ्रान्ति है। तब फिर सवाल उठता है कि उनको अभीष्ट रूपान्तरण या ‘म्युटेशन’ का आधार क्या है? क्या वैसा कुछ उनके अपने जीवनानुभव में घटित हुआ है।
परन्तु कृष्णमूर्ति कहीं भी अपने ‘अनुभवों’ का हवाला नहीं देते। उनके लिए ‘विचार’ की तरह ‘अनुभव’ भी संदिग्ध चीज़ों की ही कोटि में आता है। वे अकेले ऐसे दार्शनिक हैं, जो ‘सत्य’ की बजाय ‘तथ्य’ पर ही एकाग्र होने की ज़रूरत को हर कहीं और हर सन्दर्भ में रेखांकित करते हैं। वे हमें हर तरह के बुद्धिजीवियों को-उनमें भी वैज्ञानिकों और धर्माचार्यों को-विशेष रूप से, लगातार बहस के लिए आमन्त्रित करते हैं। इतना ही नहीं, वे उनकी श्रद्धा और बौद्धिक सराहना से भी संतुष्ट नहीं होते: उल्टे, अपनी तथ्याग्रही टेक के चलते वे कभी-कभी उसे भी जोखम में डालने से नहीं हिचकते। उनके लिए हिंसा (वायलेंस) ही तथ्य है, ‘अहिंसा’ नहीं। हालांकि श्री अरविन्द का उल्लेख भी उनके यहाँ कहीं नहीं दीखता, परन्तु, जिस तरह महात्मा गांधी की ‘अहिंसा’ उनके लिए अप्रासंगिक ठहरती है, उसी तरह, हमें लगता है, कि श्री अरविन्द का ‘पूर्णयोग’ नामक दर्शन भी उन्हें ‘म्युटेशन’ की उनकी अपनी माँग के अनुसार कदापि स्वीकार्य नहीं लगता। तब फिर उनकी माँग का और उनकी आस्था का औचित्य और प्रेरणास्रोत कहाँ है, क्या है-हमारी यह प्रश्नाकुलता स्वयं उन्हें भले ही व्यर्थ और अप्रासंगिक लगे, हमें कैसे लगेगी? हमारी हालत तो बकौल तुलसीदास, लगभग वैसी ही रही आती है जैसी गरूड़ के सामने कागभुशुण्डि की? ... ‘संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता’ ....। तब फिर हम इस संशय का, इस निस्सहाय अकेलेपन की यन्त्रणा का क्या करें जिसमें यह हमारे आधुनिक ऋषि हमें बारम्बार झोंक देते हैं और कहीं किसी आसान सहारे की गुंजाइश ही नहीं रहने देते? ‘गुरू’ सम्बोधन से भी उन्हें घोर वितृष्णा है: परम्परागत धर्मगुरूओं से ही नहीं, पाश्चात्य जगत् में धूम मचा देने वाले महेश योगी सरीखे गुरू और उनका ट्रांसेंडेंटल मैडिटेशन भी उनकी दृष्टि में नितान्त हास्यास्पद और निरर्थक ही ठहरते हैं। ‘ध्यान’ यानी ‘मैडिटेशन’ कृष्णमूर्ति के यहाँ महत्वपूर्ण है, पर यह वह ध्यान नहीं जिसके बारे में सुनने के हम अभ्यस्त हैं।
तो फिर वह क्या है? ‘क्वेश्वनिंग कृष्णमूर्ति’ नाम की बड़ी रोचक संवादों की पुस्तक में एक संवाद प्रख्यात बौद्ध ध्यान-गुरू छोग्याम टंªग्पा रिनपोछे के साथ भी शामिल है जिसका शीर्षक ही है ‘ध्यान क्या है?’ कृष्णमूर्ति के लिए ध्यान परम्परागत अभ्यास और वैराग्य वाला ध्यान नहीं है। वह निस्संग-निर्वैयक्तिक अन्तरावलोकन यानी ‘आॅब्जर्वेशन’ है। कृष्णमूर्ति के लिए सारी समस्याओं की समस्या मानव-जीवन में सर्वत्र व्याप्त अव्यवस्था, संघर्ष और द्वन्द्व की है, और इस द्वन्द्व की जड़ है - ‘मैं’। वे प्रश्न उठाते हैं कि क्या बिना इस ‘मैं’ को बीच में लाये यह आत्मावलोकन या आत्मनिरीक्षण सम्भव है? पारम्परिक ध्यान-योगी तो यही कहेगा कि ‘नहीं है,’ क्योंकि ‘मैं’ तो रहेगा ही। यानी इस ‘मैं’ से छुटकारा पाने के लिए भी अभ्यास आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। इसका मतलब क्या निकला? ‘मैं’ से पीछा छुड़ाने का अभ्यास ‘मैं’ पर ही तो बल देना हुआ। तो फिर कैसी उलटबाँसी है यह? अभ्यास द्वारा ही अभ्यास पर विजय पाने की लालसा। तब फिर यह एक दुश्चक्र में फँसना ही नहीं, तो और क्या है? कृष्णमूर्ति साफ़ कहते हैं यहाँ, कि यह ‘मैं’ को ही, यानी ‘अहं’ को ही सूक्ष्म ढंग से पालना-पोसना है: उसे ईश्वर के यानी परम आत्मा के समकक्ष बिठा देना है - जो कि निहायत वाहियात बात है। कृष्णमूर्ति यहाँ ‘एब्सर्डिटी’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं। कहते हैं- ‘इस प्रकार परम्परागत ध्यान ‘पद्धति’ या प्रक्रिया’ साधक मनुष्य को उसके अतीत के ही पिंजरे में कै़द किये रखती है - व्यक्तिगत ‘अनुभव’ के माध्यम से उसे-यानी उसके व्यक्तित्व को ही यानी अहंभाव को ही महिमा-मण्डित करती हुई। परन्तु, कृष्णमूर्ति यहाँ पूरे ज़ोर से अपनी इस मूल प्रतीति को दोहराते हैं कि .... ‘यथार्थ कोई व्यक्तिगत अनुभूति नहीं है। तुम समुद्र की विशलता को व्यक्तिगत रूप से अनुभव नहीं कर सकते। वह वहाँ विद्यमान है, ताकि तुम उसे देख सको। परन्तु वह तुम्हारा समुद्र कदापि नहीं है।’
तो क्या यह सम्भव है- ‘मैं’ को बीच में लाये बिना मनुष्य-जीवन की घनघोर अराजकता को देख पाना? बिना इस ‘मेरा-तुम्हारा’ वाले विभाजन के? यह विभाजन ही कृष्णमूर्ति के लिए सारे संघर्ष और द्वन्द्व का मूल है। इस संघर्ष और द्वन्द्व को मिटाये बिना कुछ नहीं हो सकता - कोई सार्थक रूपान्तरण जीवन का घटित नहीं हो सकता। वह द्वन्द्व तभी खत्म होगा जब मनुष्य को ‘मैं’ के बिना ही जीवन-जगत् को देखना - उसका ‘अवलोकन’ करना आ जाएगा।
कृष्णमूर्ति आगे कहते हैं- ‘हम मानव जीवों के साथ सबसे बड़ी दिक्कत - दिक्कत क्या, त्रासदी - यह है कि हम कभी भी किसी वृक्ष को, या किसी पक्षी को बिना इस तरह के विभाजन और पृथक्करण के देख ही नहीं पाते। और, चूँकि हमने कभी किसी वृक्ष या पक्षी को समग्रतः नही देखा, इसलिए हम स्वयं अपने को भी समग्रतः नहीं देख पाते।’ उस घोर अव्यवस्था के संत्रास को हम देख ही नहीं पाते जिसमें हम अहर्निश जीते चले जाते हैं। क्यांे? इसलिए, कि हमारे भीतर यह मिथ्या धारणा जड़ पकड़े हुए है कि हमारा ही एक अंश पूर्णतः व्यवस्थित है जो इस अव्यवस्था को देखने और दूर करने में समर्थ है। हम उस अंश को ‘आत्मा’ या ‘उच्चतर’ ‘स्व’ का नाम देते हैं। फिर उसी के बूते ईश्वर का, तमाम देवी-देवताओं और उनके ऊपर एक परमात्मा का भी आविष्कार कर लेते हैं और उससे यह प्रार्थना और अपेक्षा करते हैं कि वह सारी अव्यवस्था को व्यवस्था में बदल देगा। जबकि दुर्दान्त सच्चाई या तथ्य यह है कि जहाँ ‘मैं’ है, वहाँ अराजक अव्यवस्था और अनर्थ होना अवश्यम्भावी हैः क्योंकि यदि ‘मैं’ इस जगत् को यानी अन्तर्जगत्-बर्हिजगत् दोनों को ‘मैं’ के माध्यम से ही देख रहा है तो इसमें विभाजन ही नहीं, संघर्ष भी अनिवार्य है। और, इस तरह तो मनुष्य के कष्टों का कभी कोई अन्त ही नहीं होगा। कृष्णमूर्ति के शब्दों में ‘इस यथार्थ को, तथ्य को समग्रता में देख पाना ही असली ध्यान है। यह ध्यान अभ्यास नहीं माँगता। तुम्हें सिर्फ इतना ही करना है कि तुम्हारे भीतर-बाहर जो कुछ भी घट रहा है आठों याम-उसके प्रति तुम पूर्णतया चेतन और जागरूक हो जाओ।’
कृष्णमूर्ति की यह माँग - यह अन्तर्दृष्टि पहली बार तभी समझ में आयी, जब इस नोटबुक में दर्ज उनके दैनिक अन्तरावलोकनों से गुज़रना हुआ। उनके जीवनव्यापी चिन्तन, संवाद और शिक्षण का स्रोत क्या है, कहाँ है, इसका भी कुछ आभास हुआ। स्वयं कृष्णमूर्ति कहीं भी अपनी इस ‘नोट बुक’ का बखान तो क्या, उल्लेख तक नहीं करते। उनके जीवन-दर्शन में व्यक्ति को, व्यक्तित्व को, यहाँ तक कि ‘अनुभव’ जिसे कहा जाता है, उस तक को कोई महत्व नहीं दिया गया है। क्यों नहीं दिया गया - यह उनकी ऊपर कही गयी बातों से पता चलता है। पर उसकी पृष्ठभूमि और असली मर्म तो इस नोटबुक में दर्ज दैनिक घटना-क्रम से उजागर होता है, जो बारम्बार दुहरायी जाकर भी इन पृष्ठों में नित्य-नूतन यथार्थ की तरह प्रगट होती हैं। वे विचार नहीं, घटनाएँ हैं, तथ्य हैं। ‘सार’, ‘सौन्दर्य’ और ‘सृजन’ ये तीन शब्द उनके यहाँ कैसे और क्यों महत्वपूर्ण हो जाते हैं, यह भी इस घटना-क्रम के विवरणों से यानी तथ्यों से ही उजागर होता है। यहाँ जो दैनिक आविर्भाव होता है उस वस्तु का, उस घटना का, जिसे वे कभी ‘विशाल’ कभी ‘आशीर्वाद’ या ‘कृपा’, और कभी ‘अन्य’ और कभी ‘ममेतर’ का नाम देते हैं, उसी से हमें लग उठता है कि कृष्णमूर्ति की जीवनानुभूति और मूल्य-चेतना का स्रोत और सार इसी में निहित है। पहली बार लगता है कि हम यहाँ एक असंदिग्ध आधार और टिकाव पा सकते हैं - जहाँ ‘चेतना का रूपान्तरण’ कोई सुदूर अलौकिक रहस्यानुभूति या अनुकरणीय आदर्श नहीं, बल्कि एक ज्वलन्त-जीवन्त तथ्य की तरह यानी आध्यात्मिक यथार्थ की तरह हमारे सिर पर चढ़कर बोलता है। पर आध्यात्मिक या धार्मिक उसे न भी कहें तो भी उसकी गुणवत्ता, सारमत्ता में कोई फर्क नहीं पड़ता। तो, क्या वह घटना-क्रम, जिसे कृष्णमूर्ति ‘प्रोसेस’ का नाम देते हैं, और क्या वह दैनिक चमत्कारिक ‘तथ्य’ जिसे वे कहीं ‘बेनेडिक्शन’ और कहीं ‘दि अदर; या ‘विशाल’ कहके पुकारते हैं, वही है वह सिद्धि, जिसके लिए ‘सिद्धि’ नाम भी न केवल छोटा बल्कि अनर्गल प्रतीत होने लगता है। मगर जो हमारे भी सिर पर चढ़के बोलती है और सारी तथाकथित जानी-मानी सिद्धियों को तुच्छ और निस्सार करार देने के बाद भी अपने में अक्षत-अनाहत बनी रहती है। क्योंकि उसकी भरपूर कीमत चुकायी गयी है। भले, निर्वैयक्तिकता के पक्षधर और नम्रता को सर्वाधिक बुनियादी गुण मानने वाले कृष्णमूर्ति के लिए चेतना के जोखम या ‘एडवेंचर’ सरीखी उक्तियों का कोई अर्थ न हो, इस ‘नोटबुक’ का जो पहला प्रभाव किसी भी संवेदनशील पाठक पर पड़ता है, वह ऐसे गहरे जोखम और एडवेंचर का ही पड़ता है। कृष्णमूर्ति के समस्त कृतित्व में इस ‘नोटबुक’ का अपना एक विलक्षण स्थान इसलिए भी तो है ही, कि वह हमें स्वयं उनकी चेतना के रूपान्तरण को स्वायत्त करने के लिए प्रामाणिक तथ्य सुलभ करती है - सहज, अनायास और बिना किसी तरह की फलासक्ति के।
यह आत्मकथ्य नहीं है ; उससे नितान्त भिन्न, और फिर भी अक्षरशः एक जीती-जागती आत्मा की कथा है - तमाम आत्मकथाओं से विलक्षण, अभूतपूर्व और अभूत्पश्चात्। गौर करने की बात है कि कृष्णमूर्ति यहाँ कहीं भी योग की बात नहीं करते - जहाँ भी ऐसा कोई सन्दर्भ आता है बातचीत में, वे सर्वथा निस्संग-उदासीन-निर्लिप्त भाव आख़्तियार कर लेते हैं। परन्तु तब फिर इस नोटबुक पर छायी हुई वह तथ्यात्मकता, जिसे उन्होंने ‘प्रोसेस’ नाम दिया है, और दूसरी ओर वह उससे भिन्न और स्वतन्त्र प्रतीत होने वाली ‘अन्यता’ क्या है? प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या? यह दैनन्दिनी आप अपना प्रमाण है - उस सारवत्ता के असन्दिग्ध तथ्य का, जो कृष्णमूर्ति के समस्त जीवन-कार्य की, उनकी शिक्षाओं की भी पृष्ठभूमि में कार्यरत प्रेरणा का जीवन्त स्रोत और दस्तावेज है।
इस नोटबुक की दूसरी उतनी ही विलक्षण विशेषता है ‘प्रकृति’ के साथ कृष्णमूर्ति की अन्तरंगता। इस ‘प्रकृति’ में उनका परिवेश पूरी तरह मूर्तिमान् होता है- पेड़ पौधो, पहाड़ियाँ, नदी, समुद्र, खेत, आकाश, मेघमालाएँ और नक्षत्र ही नहीं, बल्कि वह जीवन्त मानवीय परिदृश्य भी, जिसे वे अचूक संवेदनशीलता के साथ यथावत् दर्ज करते चलते हैं अनायास। इसे यों भी समझ सकते हैं, कि कृष्णमूर्ति की यह नोटबुक ‘प्रकृति’ और ‘पुरूष’ दोनों के अन्योन्याश्रय सम्बन्ध की प्रामाणिक अनुभूतियों का भी जीवन्त दस्तावेज है, जिससे तुलनीय, कोई भी पारम्परिक अथवा आधुनिक उदाहरण ढूँढना दुष्कर है। मात्र एक उदाहरण, 1 दिसम्बर 1961 की प्रविष्टि का पर्याप्त होगा। इस द्विविध विलक्षणता को उजागर देख पाने के लिए। उसे यहाँ उद्धृत करना यों तो अनावश्यक है, क्योंकि वह तो यहाँ है ही। पर उसे इस वक्तव्य के ज़रूरी हिस्से की तरह इस ख़ास सन्दर्भ में भी रेखांकित किया जा सकता है। ...
‘.... सड़क पार होती रही ... खजूर के पेड़ों, धानखेतों, झोपड़ों इत्यादि से गुज़रती रही .... और अकस्मात् हमेशा की तरह, अयाचित-अप्रत्याशित ढंग से वह ‘अन्यता’ वहाँ ऐसी अपरम्पार पावनता और शक्ति के साथ प्रकट हो गयी, जिसे किसी भी विचारधारा का पागलपन कभी भी सूत्रबद्ध नहीं कर सकता। ... वह वहाँ साक्षात् प्रकट थी - वह सर्वथा नित्य-नूतन अन्यता; और तुम्हारा अन्तःकरण एक अनूठे आनन्दातिरेक का निरन्तर विस्फोट था। ... दिमाग पूरी तरह चुप और निश्चेष्ट था, किन्तु पूर्णतः संवेदनशील और साक्षी भी - उस सब का, जो वहाँ घटित हो रहा था। वह सीधो शून्य में प्रविष्ट नहीं हो सकता था क्योंकि आखिर वह था तो दिमाग ही - काल का क़ैदी। किन्तु काल तो खुद ही ठहर गया था, इसीलिए दिमाग भी निश्चल हो गया था-एकदम खामोश-निःस्तब्ध। बिना किसी अभीप्सा या आग्रह के। और यह सम्पूर्णता-समग्रता हर जगह प्रविष्ट हो गयी। बाकी सारी चीज़ों की अपनी स्पेस, अपनी जगह है, परन्तु इसकी नहीं। इसलिए इसे उस तरह थाहा और पाया नहीं जा सकता। तुम कुछ भी कर लो, इसके लिए जगह नहीं निकाल सकते। यह न तो बाज़ार में सुलभ हो सकती है, न किसी मन्दिर या मठ मेें। वह सब कुछ जो तुम्हारा जाना-पहचाना है, उसे पूरी तरह ध्वस्त कर देना पड़ेगा ... तभी यह अज्ञात सत्ता इधर से गुज़र सकेगी। ... बहरहाल, वह वहाँ थी। और सौन्दर्य भी।’ आगे इसी सिलसिले में कृष्णमूर्ति यह भी कहते हैं कि ... ‘म्युटेशन,’ अर्थात् सम्पूर्ण क्रान्ति तभी सम्भव है, जब हर तथाकथित परिवर्तन, यानी समय का हर विन्यास झूठ ही है, इस तथ्य को आर-पार और साफ़-साफ़ देख लिया जाता है। तभी, उस झूठ के सम्पूर्ण परित्याग के भीतर से ही वह रूपान्तरण, वह ‘म्युटेशन’ घटित होता है।
अन्त में, सारांश यही, कि ‘यह नोट बुक’ बीजग्रन्थ है कृष्णमूर्ति के जीवन-कार्य को, उनके जीवन व्यापी लोकशिक्षण को प्रेरित और आलोकित करने वाला। जो किसी भी कारण या टिप्पणी की अपेक्षा से मुक्त उनके जीवन-दर्शन का स्वतः प्रमाण, स्वतःस्फूर्त आधार और प्रेरणास्रोत है। कहने की जरूरत नहीं, कि यही प्रतीति इस अनुवाद के अध्यवसाय की प्रेरणा बनी। आशा है हिन्दी समाज इससे लाभान्वित होगा। अनुवादक का प्रेम-परिश्रम भी तभी सार्थक होगा।
रमेशचन्द्र शाह