29-Dec-2019 12:00 AM
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प्रदर्शनकारी कला के रूप में नृत्य आलोचना-समालोचना का क्षेत्र आज नृत्य के प्रदर्शन और उसमें नर्तक, दर्शक, आलोचक, सम्पादक और पाठक की भूमिका के इर्द-गिर्द, उनके परस्पर सम्बन्ध्ाों और बाज़ार के रुख को भाँपकर आकार ले रहा है, विस्तार पा रहा है। हमारी प्रयोगध्ार्मा कलाएँ अब विशुद्ध व्यावसायिक हो चली हैं इसलिए अब इनका प्रकृष्ट दर्शन नहीं किया जाता। यों अब भी इन्हें ‘प्रदर्शनकारी’ कहा ज़रूर जाता है। संगीतादि कलाओं का लक्षण, उनका प्राण, नित्य प्रकृष्ट सम्भावनाओं का सम्यक् योग हुआ करता था और वे अपने इस योगरूपी ध्ार्म को ध्ाारण करने के कारण ही ‘प्रयोगध्ार्मा’ कहलाती थीं। इन प्रयोगध्ार्मा कलाओं के प्रकृष्ट दर्शन का लाभ प्रेक्षक को तत्क्षण सुख-दुःख से विमुक्त करने की क्षमता रखता था। ऐसे अलौकिक, अनिर्वचनीय रससिक्त कलारूप@कलारूपों की समालोचना का व्यापार तब साध्ाक प्रस्तोता, सहृदय प्रेक्षक और विलक्षण बुद्धि सम्पन्न प्राश्निक के मध्य जन्म लेता था।
आज स्थितियाँ भिन्न हैं। व्यावसायिक लक्ष्य को लेकर चलने वाली कलाओं में विभिन्न स्तरों पर हुए समझौतों का उतार-चढ़ाव स्पष्ट देखा जा सकता है। साध्ान और सम्पन्नता बढ़ी है किन्तु इनके मोटे आवरण के पीछे बारीकियाँ खो गई हैं। फिर भी, कलाकारों-आयोजनों-आयोजकों की नित्य बढ़ती संख्या, कलाकार और उसकी कला को प्रोत्साहित करने वाला विशाल समुदाय तथा इन सबके बीच आलोचकों की ‘विशिष्ट’ श्रेणी ने वर्तमान समय में आलोचना@समालोचना को भी एक नया आयाम दिया है, एक औपचारिक दर्जा दिया है। कलाकार की सफलता में बहुत बड़ी भूमिका आज आलोचकों के मन्तव्य की होती है। दर्शक और पाठक के मानस में सकारात्मक अथवा नकारात्मक भावभूमि रचने में भी ये सहायक होते हैं। यह लेख मुख्यतः नृत्य को केन्द्र में रखते हुए समालोचना के क्षेत्र में समालोचक की भूमिका के इर्द-गिर्द बुना गया है।
हममें से बहुशः अँग्रेज़ी भाषा के शब्द ब्तपजपबपेउ और हिन्दी के शब्द ‘आलोचना’ के कोशगत अर्थ से परिचित होते हुए भी बोल-चाल में इनका प्रयोग अनायास नकारात्मक अर्थ की अभिव्यक्ति के लिए करते रहते हैं। जैसे- क्यों कर रहे हो मेरी आलोचना? तुम्हारी तो आदत ही है आलोचना करने की। च्स्र कवदश्ज बतपजपबप्रम इत्यादि। अपनी चर्चा आरम्भ करने से पूर्व चलिये एक बार ‘आलोचना’ शब्द के कोशगत अर्थ का पुनर्पाठ कर लिया जाये। हिन्दी भाषा के शब्द आलोचना का कोशगत अर्थ है- दर्शन करना, देखना, सर्वेक्षण, समीक्षा, विचार करना, विचार-विमर्श। इसी तरह अँग्रेज़ी में ब्तपजपबपेउ पे . जव मअंसनंजमए जव तमअपमूए जव ंचचतंपेमए जव ेेंमेेए जव बवउउमदज ंदक जव ंदंसलेम यानी पुनर्विचार, मूल्यांकन, आँकना, टिप्पणी करना तथा विश्लेषण करना। समालोचना, आलोचना का अगला स्तर है जहाँ किसी वस्तु को अवध्ाान पूर्वक देखा जाये, उसका निरीक्षण किया जाये, गहराई-से सोचा-समझा-परखा जाये और तब राय रक्खी जाये।
जैसा कि हमने पूर्व में कहा, आलोचना के शाब्दिक अर्थ को जानने पर भी हमने अपने चित्त में इस शब्द को नकारात्मक भूमिका में समझने और बरतने का अभ्यास बना लिया है। सम्भवतया इसीलिये कलाकार@सर्जक भी ज़रा इससे या इनसे दूर ही रहते हैं। कारण यह नहीं कि उनके विषय में कुछ कहा-लिखा जाये, ऐसा वे नहीं चाहते। कारण यह है कि या तो वे यह चाह बैठते हैं कि बड़ा अच्छा-सा कहा अथवा लिखा जाये। या फिर वही छाप दिया जाये जो उन्होंने लिखकर दिया है। और दूरी इस विचार से बनाते हैं कि आलोचना है तो अवश्य ही यह नकारात्मक होगी। लिखने-कहने वाले भी बहुत ही कम ऐसे हैं जो तटस्थ भाव से आलोचना का कार्य सम्पन्न करते हों। अब एक नज़रिये से तो हम-आप सब प्रेक्षक भी हैं और प्राश्निक भी। क्योंकि हम जब भी कुछ (संगीत-नृत्य के सन्दर्भ में) देखते हैं तो अवश्य उसपर टीका-टिप्पणी करते हैं। हमारी आलोचना का क्षेत्र हमारे अपने दो-चार मित्रों तक होता है। पर क्या हमारी राय को समालोचना का दर्जा दिया जा सकता है? नहीं न? तो सम्भाव्य आलोचना@समालोचना@बतपजपुनम के ऐसे कौन-से सर्वमान्य लक्षण हैं या होने चाहिये जिनके अभाव में वह मात्र रपट बनकर रह जाती है?
पश्चिम में आज सामान्यतः ब्तपजपबपेउ को सत्रहवीं शताब्दी के आसपास बवसवदपंस चमतपवक में प्रस्फुटित विध्ाा के रूप में माना जाता है जिसका विकास अगली शताब्दियों में क्रमशः होता गया। कैलिफ़ोर्निया विश्वविद्यालय में आध्ाुनिक नृत्य के सन्दर्भ में प्रस्तुत शोध्ाकार्य श्ॅतपजपदह क्ंदबपदह रू ज्ीम ेबवचम ंदक सपउपजे व िबवदजमउचवतंतल उवकमतद कंदबम बतपजपबपेउश् में सन् 1840 में पहली बार उत्तरी अमेरिका में श्ज्ीमंजतपबंस क्ंदबम च्मतवितउंदबमश् पर आलोचना प्राप्त होने की बात कही गई है।1 यह एक तरह से नृत्य प्रस्तुति का लेखा-जोखा मात्र थी। शोध्ाकर्ता त्ंमूलद ॅीलजम के अनुसार श्न्दजपस 1927 जीमतम ूें दव ेनबी जीपदह ें कंदबम बतपजपबश्2 - इस शोध्ाग्रन्थ में इस विषय पर विस्तृत विमर्श के बाद शोध्ाकर्ता ने यह माना है कि एक विध्ाा के रूप में आलोचना बीसवीं शताब्दी में ही विकसित हुई।
1ण् ॅतपजपदह क्ंदबपदह रू ज्ीम ेबवचम ंदक सपउपजे व िबवदजमउचवतंतल उवकमतद कंदबम बतपजपबपेउध्चण्5
2ण् ॅतपजपदह क्ंदबपदह रू ज्ीम ेबवचम ंदक सपउपजे व िबवदजमउचवतंतल उवकमतद कंदबम बतपजपबपेउध्चण्6
इस सम्बन्ध्ा में सुखद तथ्य यह है कि भले ही पश्चिमी देशों में आलोचना का पदार्पण सत्रहवीं शताब्दी में हुआ हो और बाद में इसका एक विध्ाा के रूप में विकास हुआ हो, किन्तु भारत के लिये यह विध्ाा नई नहीं है। आचार्य भरतकृत नाट्यशास्त्र को विभिन्न विद्याओं का आदिग्रन्थ कहा जाता है। इस सन्दर्भ में स्वयं भरतमुनि ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही घोषणा की है-
न तज्ज्ञानं न तत्छिल्पं न सा विद्या न सा कला।
नासौ योगो न तत्कर्म नाट्येस्मिन् यन्न दृश्यते।3
अर्थात् सभी प्रकार का शिल्प, ज्ञान, विद्या, कला-सभी कुछ इस नाट्य@नाट्यवेद में कहा गया है।
इस परम सूत्र का मनन करते हुए जब लेखिका ने नाट्यशास्त्र का अवगाहन किया तो पाया कि नाट्यशास्त्र के 27वें ‘नाट्यसिद्धि निरूपणाध्याय’ में प्रसंगवश प्राश्निक के विषय में गहन-गम्भीर चर्चा की गई है। प्राश्निक यानी ेेंमेेवतध्ंचचतंपेमतध्रनकहमध्मअंसनंजवतध्बतपजपुनम आलोचक@निर्णायक। इसका आशय यह कि भारतवर्ष में आलोचना@समालोचना@ब्तपजपबपेउ का इतिहास दो हज़ार वर्ष से अध्ािक पुराना है।
नाट्यशास्त्र में प्रयोगध्ार्मा कलाओं के सन्दर्भ में प्राश्निक के बड़े ही मार्मिक लक्षण कहे गये हैं-
अत ऊध्र्वं प्रवक्ष्यामि प्राश्निकानां तु लक्षणं।।
चारित्राभिजनोपेताः शान्तवृत्ताः कृतश्रमाः।
यशोध्ार्मपराश्चैव मध्यस्थवयसान्विताः।।
षडंगनाट्यकुशलाः प्रबुद्धाः शुचयः समाः।
चतुरातोद्यकुशला वृत्तज्ञास्तत्त्वदर्शिनः।।
देशभाषाविध्ाानज्ञाः कलाशिल्पप्रयोजकाः।
चतुधर््ााभिनयोपेता रसभावविकल्पकाः।
शब्दच्छन्दोविध्ाानज्ञा नानाशास्त्रविचक्षणाः।
एवं विध्ाास्तु कर्तव्याः प्राश्निका दशरूपके।।
नाट्यशास्त्र@27@49-53
3. नाट्यशास्त्र@परिमल प्रकाशन@प्रथम अध्याय@श्लोक 116
अर्थात् सच्चरित्र, कुलीन, शान्त प्रकृति तथा व्यवहार वाला, विद्याभ्यास में परिश्रमी, गुण और यश का आकांक्षी, मध्य अवस्था वाला, नाट्य के छहों अंगों को जानने वाला, प्रत्युत्पन्नमति, पवित्र विचार वाला, आतोद्य की चारों विध्ााओं तंत्र, अवनद्ध, सुषिर और घन के मर्म को समझने वाला, विभिन्न भाषाओं का जानकार, नेपथ्य विध्ाान को जानने वाला, चारों प्रकार के अभिनय का ज्ञाता, रसभाव को समझने वाला, और भाषा आदि के शब्द तथा छन्द शास्त्र का ज्ञाता ही प्राश्निक बनाया जाये।
ऊपर कहा गया अर्थ स्पष्ट है। इतने सारे गुणों का आगार, और साथ ही निरहंकारी, निर्लिप्त मति वाला व्यक्ति ही प्राश्निक बनने का अध्ािकारी है। उक्त सूची में कुछ गुण तो जन्मगत-संस्कारगत हो सकते हैं किन्तु अनेक गुण ऐसे हैं जो कठिन परिश्रम, ध्ौर्य और अभ्यास से ही अर्जित किये जा सकते हैं। ध्यान दें कि मुनि ने प्राश्निक के लिये उपयुक्त वय मध्य आयु कही है। इसका अर्थ यह है कि विभिन्न प्रकार के ज्ञान और कौशल को अर्जित किया हुआ, प्रकृति से शुद्ध, शान्त और मध्यम आयु वाला ज्ञान वृद्ध व्यक्ति ही प्राश्निक बनने के योग्य है। क्योंकि छोटी आयु में चंचलता और वयोवृद्ध में शारीरिक अशक्तता सामान्य लक्षण हैं। किन्तु सभी गुणों का एकीकृत होकर किसी एक व्यक्ति में मिल पाना सहज-स्वाभाविक नहीं है। इतना ही नहीं मनुष्य की आयु का एक बड़ा भाग इन गुणों के अर्जन में व्यतीत होने की भी सम्भावना जान पड़ती है। इस तथ्य को समझते हुए आगे भरत कहते हैं कि-
न चैवैते गुणाः सम्यक् सर्वस्मिन् प्रेक्षके स्मृता।
विज्ञेयस्याप्रमेयत्वात्संकीर्णानां च पार्षदि।।
नाट्यशास्त्र@27@55
यानी ये विविध्ा गुण किसी एक व्यक्ति में विद्यमान नहीं रह सकते क्योंकि ज्ञेय विषयक अनेक हैं और जीवन छोटा। तो फिर समाध्ाान क्या है? वे कहते हैं-
संघर्षे तु समुत्पन्ने प्राश्निकान् सन्निबोध्ात।।
यज्ञविन्नर्तकश्चैव छन्दोविच्छब्दवित्तथा।
अस्त्रविचित्रकृद्वेश्या गान्ध्ार्वो राजसेवकः।।
नाट्यशास्त्र@27@64-65
इसका अर्थ यह हुआ कि जब नाट्यप्रयोग की सफलता अथवा असफलता पर विचार संघर्ष उत्पन्न हो तब किसी एक प्राश्निक पर निर्भर न करते हुए, आगे बतलाये जा रहे विशिष्ट वर्ग के प्राश्निकों से सम्मति ली जाये। विशिष्ट वर्ग के प्राश्निक हैं- याज्ञिक, नर्तक, छन्दवेत्ता, वैयाकरण, अस्त्रशास्त्रों का ज्ञाता, चित्रकार, वेश्या, संगीतकार तथा राजा का सेवक।
एक साध्ाारण बीमारी पर भी हम तीन चिकित्सकों की राय जानने का प्रयास करते हैं। एक साध्ाारण-सी बात पर भी अपने इष्ट-मित्रों से सलाह लेते हैं। तो फिर समालोचना जैसे गुरू गम्भीर दायित्व के निर्वहन में शुद्धता हेतु आवश्यकता होने पर विषय के जानकारों की राय का महत्व समझा जा सकता है। और कुछ न हो तो युवा विद्यार्थी वर्ग से भी उनकी राय लेते हुए अपनी शंका का समाध्ाान किया जा सकता है। इससे एक लाभ यह भी होगा कि जहाँ वे स्वयं को और अपनी कला को महत्वपूर्ण महसूस करेंगे, वहीं सजग होकर देखने-समझने का अभ्यास भी डालेंगे, कि पता नहीं कब हमसे कुछ पूछ लिया जाये।
भरतमुनि के उक्त कथन से यह तो बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि आलोचक को आलोच्य विषय की गहरी जानकारी हो। सहकारी विषयों का ज्ञान आलोचक के कार्य को उत्कृष्ट बनाता है। नृत्य की प्रस्तुति का एक अहम हिस्सा उसका ंबबवउचंदपउमदज होता है जो प्रस्तुति को सम्भाले रखता है। उम्दा संगत से सामान्य स्तर की नृत्य प्रस्तुति को निखरते और इसके विपरीत संगत उपयुक्त न होने पर अच्छे नर्तक को बेबस होते भी देखा गया है। सामान्य दर्शक अवश्य इस भेद को जान-समझ न पाये किन्तु आलोचक के लिये यह आवश्यक है कि वह मूल और सहकारी की चमक के भेद को परख सके। इसके अलावा नृत्य की विध्ाा अपने आप में आकर्षण के तमाम साध्ान लिये हुए मंच पर आती है। नर्तक का वेश विन्यास, उसकी मुख सज्जा, मंच सज्जा इत्यादि भी वे घटक हैं जो मूल प्रस्तुति के सौन्दर्य में अभिवृद्धि करते हैं। इन बाह्य तत्वों से अप्रभावी रहने की अपेक्षा एक आलोचक से की जाती है।
इस सम्बन्ध्ा में सांख्य दर्शन में कहीं पढ़ी चर्चा याद आती है, सन्दर्भ नहीं दे पाऊँगी अभी। वहाँ स्वरूप लक्षण और तटस्थ लक्षण की चर्चा की गई है। प्राश्निक या आलोचक के लिये इन लक्षणों को जानना बड़ा उपयोगी, साथ ही रोचक होगा। स्वरूप लक्षण तो वह कहा गया जो किसी वस्तु@व्यक्ति@कला का स्वरूप है, उसका अपना रूप है, इस तरह यह उसका आंतरिक लक्षण हुआ। यह उसका आत्म तत्व कहा जा सकता है। यानी जिसके बिना वह, वह नहीं रह जाता। जैसे मनुष्य के शरीर का मूल ढाँचा किसी अन्य प्राणि के शरीर के मूल ढाँचे से भिन्न है। जैसे ध्ा्रुपद गान और ठुमरी या फि़ल्मी संगीत के मूल कथ्य में अन्त है। जैसे कथक, भरतनाट्यम् और भांगड़ा-नृत्य वर्ग में होने पर भी परस्पर पूर्णतः भिन्न हैं। तो स्वरूप लक्षण वे तत्व हैं जो किसी वस्तु, व्यक्ति या विध्ाा का ‘वह पन’ तय करते हैं और उन्हें कायम रखते हैं। कला के प्रसंग में इससे आगे बढ़कर विभिन्न कलारूपों में प्रयोगध्ार्मिता के कारण आये आंतरिक परिवर्तन भी शामिल किये जा सकते हैं। कालान्तर में ऐसे परिवर्तन उनके ‘स्वरूप’ को वैशिष्ट्य भी प्रदान करते हैं। इसलिये किसी कला के स्वरूप लक्षणों के साथ-साथ ऐसे विशिष्ट परिवर्तनों को जानना, समझना और फिर तदनुसार बरतना प्रयोक्ता (अभिनेता@नर्तक) के साथ-साथ प्राश्निक के लिये भी आवश्यक है। अन्यथा उनके अपने मार्ग से विचलित होने की सम्भावना बन जाती है। स्वरूप लक्षणों को जानने वाला तथा आच्छादित होने वाले अन्य तत्वों के प्रति तटस्थ प्राश्निक ही उच्च कोटि का समालोचक गिना जा सकता है।
दूसरा है- तटस्थ लक्षण। ये दरअसल बाह्य स्वरूप में होने वाले परिवर्तनों के अनुसार कहे गये हैं जो देश और काल के अनुसार अपेक्षाकृत अध्ािक गति से बदलते हैं या बदले जा सकते हैं। प्रश्न उठता है कि फिर इन लक्षणों को बाह्य लक्षण न कहकर तटस्थ लक्षण क्यों कहा गया? यहाँ तटस्थ प्राश्निक के दृष्टिकोण से कहा गया है। सामान्य प्रेक्षक का ध्यान प्रस्तुति के विभिन्न घटकों यथा परिवर्तित वेशभूषा अथवा नेपथ्य आदि की चमक-दमक में भटक सकता है, बहुत सम्भव है कि सामान्य प्रेक्षक कला की गुणवत्ता को गहराई से न समझ सके। सामान्य प्रेक्षक इन बाहरी घटकों से सबसे अध्ािक प्रभावित होता है और उसका ध्यान मूल तत्व से भटक जाता है। किन्तु प्राश्निक के लिये यह आवश्यक है कि वह इन हावी होने वाले घटकों के प्रति तटस्थ रहे और मूल तत्व को अपने अवध्ाान केन्द्र में रखे। इस तरह एक बार फिर गुरु-गम्भीर उत्तरदायित्व बनता है आलोचक का।
यद्यपि किसी प्रस्तुति में प्रयोक्ता का यह कत्र्तव्य है कि वह इन बाह्य उपकरणों और उनके औचित्यपूर्ण प्रयोग का संज्ञान स्वयं ले तथापि यदि प्रयोक्ता इन प्रचलित और लोकप्रिय उपकरणों का ग्रहण असन्तुलित रूप से करता भी है तो फिर प्राश्निक से यह अपेक्षा रहती है कि वह कला के ‘स्वरूप लक्षणों’ पर आच्छानकारी ‘बाह्य लक्षणों’ के प्रति तटस्थ रहते हुए अपने वक्तव्य@समालोचना से प्रयोक्ता तथा प्रेक्षक, दोनों को सजग करे। यह बतलाये कि ऐसे उपकरणों का प्रयोग किस सीमा तक ग्राह्य है। एक तरह से आलोचक, प्रयोक्ता का पथ प्रदर्शक बने। इसलिये प्राश्निक या आलोचक का अवध्ाान आवश्यक रूप से ‘स्वरूप लक्षणों’ पर केन्द्रित रहना चाहिये तब ही वह अपने मूल्यांकन में आवश्यक निर्देशों का समावेश करते हुए अपने उत्तरदायित्व का वहन कर पायेगा। इसलिए जब ये प्रश्न उठे कि आलोचक की विषय के प्रति आसक्ति हो अथवा प्रयोक्ता के प्रति? जो बहुत स्पष्ट और सीध्ाा समाध्ाान है कि वह मात्र विषय के प्रति आसक्त रहे। प्रकारान्तर से प्राश्निक अपनी न्यायपूर्ण तटस्थ समालोचना के द्वारा कलाओं के संरक्षण का कार्य भी कर सकता है।
अब इतने ज्ञान, सजगता और अन्य आवश्यक संसाध्ानों से लैस प्राश्निक एक तरह से कलाकारों का भाग्यविध्ााता बन जाता है। उसकी कृपादृष्टि की लालसा हर वर्ग के कलाकार को रहती ही है। तो फिर क्या अब ऐसे प्राश्निक के लिये किसी निर्देश की आवश्यकता नहीं बचती? नहीं। आचार्य भरत ने इस सम्बन्ध्ा में भी स्पष्ट रूप से कहा है कि प्राश्निक अपनी समालोचना का प्रारम्भ सकारात्मक टिप्पणियों से करे। इसका आशय यह है कि जो कुछ अच्छा है उसे अपनी लेखनी से अध्ािक सशक्त और खूबसूरत तरीके से प्रस्तुत करे। सकारात्मक टिप्पणियाँ एक ओर तो प्रयोक्ता का मनोबल बढ़ाती हैं, वहीं दूसरी ओर उन विशेष बिन्दुओं के प्रति सजगता के संस्कार बीज प्रेक्षकों में भी रोपित करती हैं। एक तरह से ऐसी टिप्पणियाँ प्रेक्षकों को संस्कारित करते हुए, उन्हें अच्छा देखने-सुनने को प्रेरित करती है। प्राश्निक की यह नैतिक जि़म्मेदारी है कि वह कमज़ोर बिन्दुओं को भी अपनी आलोचना में स्पष्ट करे। सुलझे तौर पर की गई खरी किन्तु सध्ाी व्याख्या से न केवल प्रयोक्ता सही मार्ग का अवलम्ब लेंगे वरन् प्रेक्षक में यह समझ पैदा होगी कि क्या सही और क्या सतही है।
‘कृतश्रमी’ और ‘जिज्ञासु’ होना प्राश्निक के लिये अत्यन्त महत्वपूर्ण है। प्रत्येक प्रस्तुति, जिसपर अपनी सम्मति देनी हो, उसे पूर्णरूप से ध्ौर्यपूर्वक देखने का अभ्यास एक योग्य प्राश्निक का गुण है। विषय का ज्ञाता होने पर भी बालसुलभ जिज्ञासा लिये प्रस्तुति के प्रत्येक पक्ष को जानने की चेष्टा, उसके सजग और सहृदय होने का संकेत है। उपरोक्त गुणों से सम्पन्न प्राश्निक@समालोचक, प्रस्तोता के दिशा-निर्देशन और प्रेक्षक के शिक्षण के साथ-साथ कलाओं के संरक्षण की त्रिविध्ा भूमिका निभाते हुए समाज के सांस्कृतिक पुनरुत्थान का महत् कार्य भी कर सकता है। इत्यलम्।