08-Jun-2019 12:00 AM
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नीचे प्रकाशित कुछ अंश सत्यजीत राय की पत्नी विजया राय की लिखी आत्मकथा से लिये गये हैं। यह किताब कुछ ही समय पहले अँग्रेज़ी अनुवाद में भी प्रकाशित हो चुकी है। संपा.
1
‘पथेर पांचाली’ की शूटिंग मैं बहुत कम देख पायी। इन्हीं दिनों एक ऐसी घटना घटी जिसके लिए हममें से कोई भी तैयार नहीं था। मुझे पता चला कि मैं माँ बनने जा रही हूँ। आनन्द से विभोर होकर जब मैंने मानिक को यह बताया, तब उनकी जो प्रतिक्रिया हुई उससे मैं अवाक् रह गयी। उन्होंने घोर आपत्ति करते हुए जो कहा उसका सार यह था कि अभी-अभी इतनी झंझटों के बाद तो फि़ल्म की शूटिंग आरम्भ हुई है, इस समय और एक झंझट को झेलने लायक उनके मन की हालत नहीं है।
‘झंझट? तुम अपनी सन्तान को झंझट मान रहे हो?’
तब उन्होंने मुझे समझाते हुए कहा कि एक तो मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं है। (यह बात बचपन से सुनते-सुनते मैं थक चुकी थी) इस पर अगर मैं सन्तान प्रसव के कष्ट को न झेल पायी तो-मानिक को यही डर था।
मैंने उन्हें दृढ़तापूर्वक बता दिया कि इस समय मुझे ‘माँ’ बनने के संकल्प से कोई विचलित नहीं कर सकेगा। तीस वर्ष की उम्र में मेरा विवाह हुआ है, अब मैं लगभग पैंतीस वर्ष की हो चली हूँ, अब अगर बच्चा नहीं होगा, तो कब होगा? उन लोगों के इतने बड़े वंश की रक्षा करना भी तो मेरा कर्तव्य है। बेटा हो या बेटी मेरी माँ बनने की इच्छा इतनी प्रबल है कि उनकी किसी भी बात पर मैं ध्यान न दूँगी।
स्थिति समझ कर उन्होंने अपनी आवाज़ नरम कर ली। मेेरे स्वास्थ्य को लेकर सभी बहुत चिन्ता करते थेे। विशेष रूप से मानिक। इस वक़्त इतनी बाध्ााओं को पारकर अभी हाल में फि़ल्म बननी शुरू हुई है, इसके अलावा मेरी इस नयी चिन्ता ने उनके मन को आक्रान्त कर दिया था।
‘पता है, इस उम्र में पहली सन्तान होने में काफ़ी जोखि़म है?’
‘पता है सारी चीज़ें जानकर भी सभी तरह के खतरे मैं अपने ऊपर लेने को तैयार हूँ। तुम्हे कसम है, मुझे किसी तरह की बाध्ाा मत पहुँचाओ।’
इस पर वे शान्त हो गये। वे समझ गये कि मुझे विचलित नहीं किया जा सकता है।
मैंने जब अपनी सास को यह सुसंवाद सुनाया, तब उन्हें लगा जैसे उनके हाथ में स्वर्ग आ गया हो। घर में सभी लोग अध्ाीर होकर बड़े आग्रह के साथ एक शिशु के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे।
मेरे स्वास्थ्य की उन्नति देखकर सभी कहने लगे, मेरे लड़की होगी। सिर्फ़ मेरी सास ने ही बड़ी दृढ़ता से उस पर आपत्ति की। उन्होंने मान ही लिया था कि मेरे बेटा होगा।
मैं मन-ही-मन डर रही थी कि पुत्र न होकर कहीं कन्या हुई तो फिर क्या होगा? मुझे पता था कि मानिक भी पुत्र की ही आशा लगाए हुए थे।
मैं एक दिन नाराज़ होकर बोली, ‘तुम बड़े विचित्र लोग हो। अगर लड़का न होकर लड़की हुई, तो क्या उसे बाढ़ के जल में बहा दोगे?’
उन्होंने हँसते हुए मुझे पास खींचते हुए कहा, ‘देखना लड़का ही होगा। फिर मान लो अन्त में लड़के के बदले लड़की ही हुई तो उसे भी वैसा ही स्नेह-दुलार, आदर-जतन और पे्रम मिलेगा। इस बात को लेकर तुम किसी भी तरह की चिन्ता मत करो।’
मेरा स्वास्थ्य एक दिन के लिए भी खराब नहीं हुआ। यहाँ तक कि कभी उल्टी भी नहीं हुई। चेहरे पर एक तरह की आभा आ गयी थी, जिसे देखकर सभी कई तरह के विचार व्यक्त कर रहे थे।
मेरी देखरेख कर रहे थे अजय काका, अर्थात् अजय आचार्य (डाॅ. प्राणकृष्ण आचार्य के बेटे) खूब विख्यात चिकित्सक एवं उस वक़्त मेडिकल काॅलेज के स्त्री-रोग विभाग के अध्यक्ष।
उन्होंने मुझे पहले ही बता रखा था कि जिस उम्र में मुझे पहली सन्तान हो रही है, उस उम्र में वे कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहते। पहले ही वे सिजेरियन आपरेशन कर देंगे। उसमें हम लोगों में से किसी को भी कोई आपत्ति नहीं थी।
सभी लोग मुझे कई तरह के उपदेश देते थे। मैं रोज़ के सभी काम करती थी, एक दिन के लिए भी मुझे कोई असुविध्ाा नहीं हुई। सिलाई-मशीन से बैठे-बैठे मैं होने वाले बच्चे के लिए कई तरह के कपड़े सिलती रहती थी। मेरी सास कभी-कभी नाराज़ होकर कहा करती थी, ‘सारे दिन बइठी-बइठी सिरफ सिलाई किये जाब। देखना इससे बेटवा जनने में कईस दुःख भुगतना पड़ी।’
एक दिन मेरी बड़ी इच्छा हुई कि ‘फिरपोस’ रेस्तराँ में जाकर लूची खा आऊँ। उस वक़्त ‘फिरपोस’ जैसा विशाल रेस्तराँ कलकत्ता में कोई दूसरा नहीं था। अब सोचने पर आँखों में आँसू आ जाते हैं। इतने ज़ायकेदार काॅण्टीनेण्टल व्यंजन और किसी भी रेस्तराँ में नहीं मिलते थे।
मानिक बड़ी खुशी से मुझे वहाँ ले गये थे। पहले आया था मूलागाटानी सूप अर्थात् दाल का सूप। तारप फ्राॅयड फिश विथ टार्टर साॅस। यह हम दोनों का ही बड़ा प्रिय खाद्य था। बड़ी तृप्ति के साथ खाया। घर लौटते ही एकाएक मूलागाटानि सूप की गन्ध्ा नाक में आने लगी, साथ ही उल्टी हो गयी। पहली और अन्तिम उल्टी यही थी। इसके बाद तो दाल का सूप फिर कभी नहीं पिया।
अजय काका ने बच्चा पैदा होने की तिथि उन्नीस सितम्बर दी थी। उसी को ध्यान में रखकर जल्दी-जल्दी बच्चे के लिए कई किस्म की पोशाकें सिलने लगी। मेरी सास भी बेहद अच्छी सिलाई करती थीं। वे भी जुट गयी सिलाई करने में। इसी बीच कभी-कभी शूटिंग देखने जाती थी। उस वक़्त शूटिंग सिर्फ़ शनिवार एवं रविवार को होती थी क्योंकि मानिक ने उस वक़्त भी नौकरी नहीं छोड़ी थी। उन्हें रोज़ आफि़स जाना पड़ता था।
7 सितम्बर की सुबह थोड़ा दिन चढे़ हमारे काका के घर का पुराना नौकर-रसोइया माखन मिठाई बेचने आया। नौकरी छोड़ने के बाद से वह घर-घर मिठाई बेचने का ध्ान्ध्ाा कर अच्छी कमायी कर लेता था। उस दिन कौन-सी मिठाई लाया था, अब मुझे ठीक से याद नहीं है। सम्भवतः चावल गुुड़ की पट्टी और चिउड़ा-पुलाव लाया था। मैं खड़े-खड़े उससे खरीदने ही जा रही थी कि मुझे लगा जैसे मेरे पेट से पानी निकल रहा है।
माँ को बताया तो उन्होंने मुझे लिटा दिया और अजय काका को फ़ोन किया। बीस मिनिट के अन्दर ही अजय काका आ गये और मुझे मेडिकल काॅलेज अस्पताल ले जाने की दौड़ भाग शुरू हो गयी। मेरी माँ और गोपा (मेरी बड़ी दीदी की बेटी) बाॅम्बे से कलकत्ता आ चुकी थीं। मुझे नाइटी पहनाकर लिटाये रखा गया था, मेरे अपने हाथ से तैयार मिडनाइट ब्लू जाॅर्जेट की नाइटी। उस पर गोपा ने एक लाल पाड् की साड़ी, माँग में और माथे पर सिन्दूर की बिन्दी लगाकर मुझे तैयार कर दिया था। ये सब बातें आज भी साफ़-साफ़ याद हैं। ऐसे मुझे क्यों सजाया गया है, पूछने पर वह कोई जवाब नहीं दे सकी थी। फिर मुझे तो इन सब रीति-नीतियों का कुछ पता नहीं था।
लेटी हुई हालत में ही मुझे बड़ी सावध्ाानी से नीचे लाया गया। दुमंजि़ले से इकमंजि़ले पर। गाड़ी में किसी तरह लेटे-लेटे जब मेडिकल अस्पताल पहुँची, शाम हो चुकी थी। अजय काका तो थे ही, साथ में मेरी सास और मानिक। मेरा हाथ पकड़कर मानिक वही बात कहने लगे, जो उन्हें नहीं कहना चाहिए, ‘डर तो नहीं रही हो? देखना, सब ठीक हो जाएगा।’ मैं तो यह माने ही बैठी थी कि मेरा सिज़ेरियन आपरेशन होगा इसलिए डर नहीं रही थी, ऐसा तो नहीं था। मामूली इंजेक्शन से भी मुझे बहुत डर लगता था।
अस्पताल पहुँचते ही अजय काका ने नर्सों से कहा। सारी तैयारी हो जाने के बाद मैं जब कमरे में घुसी, तब देखा मेरे कमरे में तीन औंरतें और भी पहले से हैं। अवाक् होकर अजय काका की तरफ जिज्ञासु नेत्रों से देखते ही वे बोले, ‘तेरे लिए टैरेस वाला कमरा बुक कर रखा था। पर तुझे इक्कीस दिन पहले ही प्रसव के लिए यहाँ आना पड़ेगा, यह मैं नहीं जानता था। देखता हूँ, दो-तीन दिन में शायद वही कमरा मिल जाए। तब तक तुझे इसी कमरे में रहना पडे़गा।’
टैरेट सम इस महाविद्यालय का सबसे बड़ा कमरा है। चारों ओर से खुला हुआ और बहुत सुन्दर। अब वह कैसा है, यह मैं नहीं जानती। उस वक़्त भी अस्पताल बेहद गन्दा था, एकबार खाट के चारों ओर पर्दा लगाने की ज़रूरत पड़ी थी, लक्ष किया, पर्दे पर असंख्य कीड़े रेंग रहे हैं। पूरी देह सिहर उठी। पर्दा हटाने के बाद अचरज और परेशानी से अजय काका से मैंने इसका कारण पूछा। एक अस्पताल में यह गन्दगी विशेष रूप से अन्यायपूर्ण और अनुचित थी, मैंने बड़ी ज़ोर से इसके खिलाफ अपनी भावना व्यक्त की थी। लेकिन, उन्होंने ज़रा भी विचलित हुए बिना सहज स्वर में कहा था, ‘उन सब चीज़ों की ओर देखने की क्या ज़रूरत है? तुम तो आँखें बन्द किये, बनी रहो।’ इसके बाद और कोई बात तो चल नहीं सकती थी।
माँ और मानिक इसके कुछ पल पहले ही घर लौट गये थे। काफ़ी रात तक इंजेक्शन देकर मेरा दर्द बढ़ाने का प्रयास किया गया पर उसका कोई परिणाम नहीं निकला।
अजय काका ने मेरी जाँच कर कहा, ‘योर बेवी इज़ वेरी मच एलाइव एण्ड किकिंग।’ इसलिए कल सवेरे तक वे प्रतीक्षा कर रहे हैं। अगर दर्द न हुआ तो आॅपरेशन करना पड़ेगा।
मैं तो यही चाह रही थी कि बच्चा अपने आप हो जाए। मैं पहले ही कह चुकी हूँ कि आॅपरेशन और इंजेक्शन दोनों से मैं यमदूत की तरह डरती थी।
मैं मन-ही-मन ईश्वर से प्रार्थना करने लगी कि मैं सामान्य रूप से ही ‘माँ’ बन जाऊँ। कितने अस्वाभाविक किस्म से स्वाभाविक रूप से मैं माँ बन गयी, इसका विवरण पढ़ने पर यह कहानी की तरह लगेगा।
रात में ठीक से नींद नहीं आयी। सवेरे से ही रह-रह कर हल्का दर्द महसूस करने लगी। काफ़ी हड़बड़ाहट और जल्दी में अजय काका आ पहुँचे। उन्हें बताया तो वे जाँच कर बोले कि अभी देरी है। साढ़े ग्यारह से लेकर बारह के पहले कुछ होने की सम्भवना तो है नहीं। सवेेरे उन्हें एक सिज़ेरियन आॅपरेशन करना है। जल्दी उसे निपटा कर वे चले आएँगे। जाने से पहले मुझसे कह गये, ‘अगर बहुत तीव्र व्यथा हो तो चिल्लाने में किसी तरह का संकोच न करना। सभी औरतें चीखती हैं। अगर ज़रूरत समझो तो खूब चीख सकती हो। चारपाई के पीछे लोहे की छड़ सख्ती से पकड़कर खूब गला खोलकर जितने ज़ोर से चीख सको, चीखना, समझीं? तू बड़ी शान्त लड़की है, तुझे जानता हूँ, इसीलिए कह रहा हूँ, लज्जा मत करना।’
मैंने सिर हिलाकर हाँ की। पर कहा कुछ नहीं। मैं अपने दिल में सोचने लगी, क्या मैं सचमुच चिल्लाऊँगी? चीखूँगी? ठीक है, असह्य दर्द होने पर अपने आप चीखने की इच्छा होगी, तब देखा जाएगा।
अजय काका कह गये हैं कि साढ़े ग्यारह-बारह के पहले कुछ होगा नहीं। अभी तो साढ़े सात ही बजे हैं। दर्द ध्ाीरे-ध्ाीरे बढ़ने लगा। कमरे के बीच में अपनी खाट पर ही मैं लेटी हुई थी, अपनी मिडनाइट ब्लू जाॅर्जेट की नाइटी पहने हुए। हाँ, चादर ज़रूर ओढ़े हुए थी।
मेरे लिए एक आया को रखा गया था। वह मेरे माथे पर हाथ फेर रही थी और कमरे में मेडिकल के छात्र घूमते-फिर रहे थे। वहाँ और कोई नहीं था। दो-एक नर्सें बीच-बीच में चक्कर लगा जाती थीं। जिस वक़्त दर्द बढ़ने लगा, खाट के पीछे के छड़ को बड़ी ताकत से पकड़े हुए मैं चुप बनी हुई थी। दिल में सोच रही थी, अभी तो चीखने जैसी असह्य यन्त्रणा नहीं हो रही है तो सिर्फ़ चीखने के लिए क्यों चीखूँ?
छात्र लोग बीच-बीच में घूमकर आते, पेट दाबकर देखते ऐसा वे जितनी बार करते उतनी ही बार दर्द बढ़ जाता था। अन्त में जब मुझसे रहा नहीं गया तब मैं बोली, ‘दया करके अब और पेट मत दबाइए। दबाते ही पीर बढ़ने लगती है।’
एक छात्र ने अवाक् होकर कहा, ‘कहाँ, आप तो अन्य औरतों की तरह चीख-चिल्ला नहीं रही हैं।’
बोली, ‘अब भी दर्द सहन कर पा रही हूँ, जब असहनीय हो जाएगा तो मैं भी चीखने लगूँगी।’ अपने को लेकर ही इतनी व्यस्त थी इसलिए लक्ष्य ही नहीं किया था कि आसपास से आती चीखने की आवाज़ों के रेले से कान सन-सन करने लगे थे। मेरे कमरे की तीनों औरतों ने परित्राहि माम कहते हुए चीखना शुरू कर दिया था। देखा बरामदे में पंक्ति लगी है। सभी को ठेल-ठालकर ओ.टी. में ले जाया जा रहा है। मैं एकदम चुपचाप थी, मुँह से टूँ तक की आवाज़ नहीं कर रही थी। सहसा मेरा दर्द बढ़ गया, पर चीखूँ इतना नहीं।
उस वक़्त सवेरे के नौ बजने में दस मिनिट बाकी थे। दर्द बढ़ने के साथ-साथ थोड़ा ज़ोर लगाते ही पेट से ‘आँ’ आवाज़ करते हुए मेरे बच्चे का सिर बाहर निकल गया। उस वक़्त बच्चा ही अपना अस्तित्व प्रमाणित करने के लिए मुझे बचाओ कहते हुुए ज़ोर से रोने लगा। क्षणभर में ही मेरा सारा दर्द, सारी व्यथा हवा हो गयी। कमरे में उस वक़्त मात्र एक नर्स थी। दोनोें हाथ उठाकर कह उठी, ‘नहीं, नहीं, अभी नहीं।’
अब सोचती हूँ तो हँसी आती है। नर्स का भयार्त, असहाय चेहरा, वह क्या करेगी? मेरी सन्तान का तब तक प्रसव हो चुका था। मैं चीखी-चिल्लायी नहीं थी, इससे थोड़ी असुविध्ाा हो गयी थी। सभी सोच रहे थे, अभी भी प्रसव का समय नहीं हुआ है।
आया ने दौड़कर सिस्टर को खबर दी और वह उसके साथ ही तुरन्त हाजि़र हो गयी। लड़का हुआ या लड़की यह जानने के लिए मैं बड़ी उतावली से प्रतीक्षा कर रही थी।
मज़ेदार घटना का अभी भी अन्त नहीं हुआ था। फिर भी यह निश्चित है कि यदि कुछ गड़बड़ी होती तो फिर मैं और मेरी सन्तान दोनों में से कोई भी न बचता। सिस्टर ने आया से कहा, जल्दी जाकर नाड़ा काटने की कैंची ले आओ। आया के ट्रे में कैंची लाते ही सिस्टर नाराज़ होकर बोली, ‘यह तुम क्या लायी हो? नाड़ी काटने की कैंची भी नहीं पहचानती। जल्दी में भूल हो सकती है इस भूल के कारण किसी जि़न्दगी-खतरे में पड़ सकती है।’
नाड़ी काटने के बाद शिशु को ध्ाों-पोंछकर साफ़ करने के पहले सिस्टर मुझे बता गयी थी, ‘आपके बेटा हुआ है, बेहद सुन्दर बेटा है।’
मेरे मन की हालत उस वक़्त क्या हो रही थी, उसका मैं वर्णन नहीं कर सकती। इच्छा हो रही थी जैसे खाट से उठकर कूदने लगूँ। चारों ओर उछलती फिरूँ, चक्कर लगाऊँ, इतनी खुशी थी।
अजय काका जब आये तब उनकी आँखों और मुख पर हक्के बक्के और विस्मय का जो भाव था उसे देेखकर मुझे हँसी आ गयी। उनसे मैंने कहा, ‘अजय काका मुझे तो एक बार भी नहीं चीखना पड़ा। बड़ी सहजता से ही प्रसव हो गया।’
दुःख प्रकट करते हुए बोले, ‘मैं अगर यहाँ होता तो तुझे ज़रा भी दर्द न होता। इतनी जल्दी प्रसव हो जाएगा, डाॅक्टर होते हुए भी मैं नहीं समझ पाया, इसी बात का तो दुःख है।’
बच्चा होते समय पीरें लेने में मुझे बेहद तकलीफ भुगतना पड़ी थी। मेरा खून आदि साफ़ कर जब बच्चे को मेरे पास ले आया गया, तब उसे गोद में लेते ही मेरे झर-झर आँसू निकल पड़े, मैं रो पड़ी। कहाँ छिपा हुआ था इतना स्नेह, इतनी ममता, इतना प्यार? महसूस किया दुनिया में इतना मीठा बच्चा और किसी को भी नहीं हुआ है। और किसी भी माँ ने मेरे जितना स्नेह अपनी सन्तान को नहीं किया होगा। उस दिन से सारी दुनिया एक तरफ थी और मेरा बच्चा एक तरफ था। अँग्रेज़ी में जिसे कहते हैं, ‘द वल्र्ड रिवोल्व एराउण्ड हिम।’
बच्चा इक्कीस दिन पहले हो गया था इसलिए उसका वज़न कम था। इस पर अजय काका बोले, ‘जब तक इस बच्चे का वज़न पाँच पौण्ड न हो, तब तक इसकी देह से जल मत छुआना। तेल लगाकर इसकी सफाई करती रहना।’
विजि़टिंग अवर्स में सभी लोग मुझे देखने आयेे। मेरी दोनों माएँ, गोपा, सँझली दीदी और मानिक।
बच्चे को देखकर मानिक विस्फारित नेत्रों से बोले, ‘यह क्या, यह तो बिल्कुल पाइण्ट साइज़्ड है।’
माँ ने डाँटते हुए कहा, ‘इक्कीस दिन पहले हुआ है न? बाद में वह खूब तन्दुरुस्त हो जाएगा।’
बेटा हुआ था इसलिए मेरी सास को कितनी खुशी हुई थी। उस पर वह बेहद गोरा-चिट्टा, उसकी देह का हर अंग दोष-रहित था, कोई गड़बड़ी नहीं थी। अँग्रेज़ी में एक कहावत है, ‘आई टोल्ड यू सो’ मैंने तो पहले ही कह दिया था। अपनी सास के मुँह से मैं यह बात अक्सर सुनती थी, ‘कहा था न, छोरा होगा?’
दूसरे दिन ही अजय काका की कृपा से टेरेस वाला कमरा मिल गया। विशाल कमरा और खुला हुआ, हवादार। हाॅउस सर्जन हमारी ही चचेरी बहन नोटन के पति अरूण मित्र थे (जिन्हें हम सभी लोग ‘टीपू’ कहकर बुलाते थे)। जैसी मीठी बहन, वैसा ही सुन्दर उसका स्वामी नोटन। दोनों वक़्त का खाना बनाकर मेरे लिए ले आती थी। कई किस्म की अच्छी-अच्छी चीज़ें। नोटन के बाबा को हम लोग छुटकू काका कहकर पुकारते थे। अच्छा नाम था ध्ाीरेन्द्रनाथ गुप्त। गाने में असाध्ाारण गला था उनका। उनके साथ हम लोगों ने कोरस में कई गाने रिकाॅर्ड किये थे। हाँ, यह सब बातें बहुत पहले की हैं। उस वक़्त मेरी सास ने भी हमारे साथ गाया था।
मेडिकल काॅलेज अस्पताल में नर्सों के लिए मैं एक देखने लायक चीज़ हो गयी थी। जिसने कैंची लाने में ग़लती की थी, वही सबको बुला लाती थी। सबसे कहा करती थी, ‘तुम लोगों ने कभी सुना है कि किसी ने बच्चा होते समय ज़रा-सी आवाज़ भी न की हो। यह महिला वही है। यह कितने बड़े खानदान की है, इससे यह समझ में आ जाता है।’
ये बातें सुनकर मुझे हँसी आ जाती थी। हमारे वंश के सम्बन्ध्ा में देखो इसने कैसे पता लगाया। ऊँचे खानदान की औरतें बच्चा जनते समय चीखती नहीं है। यह बात मैंने पहली बार सुनी थी।
अपने बच्चे को लेकर मेरा समय कैसे कट जाता था अगर मुझसे यह पूछा जाए तो इस समय मैं कुछ भी न बता सकूँगी। नर्सें जो कुछ भी करती थीं, वह सब मेरी ही आँखों के सामने। मैं उसकी तरफ से अपनी नज़रे हटा ही नहीं पाती थी। दूध्ा पिलाते समय ज़रूर वह अकेले में मेरे साथ ही रहता था। दाई और तृतीय श्रेणी के कर्मचारी बख़्शीस चाहते थे। मेरी सास और सँझली दीदी ने खुले हाथ से खूब दान दिया था। मानिक रोज़ ही आते थे। कहते, ‘कितना गोरा है! किन्तु कितना छोटा, मुझे तो गोद में लेनेे से भी डर लगता है।’ खुद छह फुट साढ़े चार इंच के लम्बे होने के कारण छोटे शिशु के इतने नन्हें डील-डौल पर विश्वास ही नहीं कर पा रहे थे।
इस पर मैं कहती, ‘तीन सप्ताह पहले हो गया है, कुछ दिनों में बड़ा हो जाएगा।’
अपने घर बड़ी जल्दी लौट आयी। बच्चे के लिए नन्हा पलंग खरीद लिया गया था, नीले रिबन और लेस से उसे खूब सजा दिया गया था। अगर लड़की होती तो उसके लिए मैंने गुलाबी रिबन और लेस खरीद कर रख लिया था क्योंकि क्या होनेवाला है, यह कहा नहीं जा सकता था।
सभी की मनोवांछा पूर्ण करते हुए, घर में उजाला बिखरते हुए, मेरे एकदम गोरे-चिट्टे, शिशु ने जिस दिन घर में प्रवेश किया, उस दिन से मैं और मेरी सास सारी दुनिया को भूलकर उसी में लग गयी थी।
अपनी सास के इस आमूल-चूल परिवर्तन से मुझे कितना अध्ािक आनन्द मिलता था, उसे लिखकर समझाना असम्भव है। ‘आयरन लेडी’ से रातों रात वे मिट्टी जैसी कोमल मनुष्य हो गयीं। जिस महिला ने अपने इकलौटे लड़के को कड़ी पाबन्दी में रखा था, वही महिला आज कहाँ चली गयी? उसकी जगह नाती के पे्रम से गदगद एक असामान्य ममतामयी औरत को देखकर सभी भौंचक्के रह गये थे। मेरे भी मन की वही हालत थी। अपने बच्चे की तरफ से मैं एक पल के लिए भी नज़र नहीं हटाती थी। मानिक उसे गोद में लेने से डरते थे। आॅफि़स जाते समय नीचे झुककर उसका चुम्बन लेकर जाते थे। शनि और रविवार को शूटिंग में जाने के पहले भी यही करते थे। बच्चे के कारण होने वाली अपनी उपेक्षा से भी उन्हें आनन्द ही आता था।
हमारे घर में अच्छे स्वभाव के नौकर-चाकर थे। वही लोग मानिक की देखभाल करते थे। इक्कीस दिन पहले हो जाने के कारण बच्चे को काफ़ी सावध्ाानी से रखना पड़ रहा था। हम सास-बहू मिलकर बच्चे की कितने इन्तज़ाम के साथ चैकसी करते थे।
मेरी सासू माँ ही बच्चे का हर काम करती थीं सिर्फ़ दूध्ा पिलाने को छोड़कर। इसके बाद आता उसे सुलाने का दौर। वह भी मैं करती थी। किन्तु बच्चे को सुलाने को लेकर कभी-कभी मुझे बड़ी आफत में पड़ जाना पड़ता। रात्रि में काफ़ी देर तक उसे लकड़ी के पलंग पर हिला-हिलाकर गाना गाते हुए सुलाने के बाद जब हम लोग सोने जाते, उसी वक़्त वह जाग जाता था। उसके बाद तो पूरी रात उसके साथ एक तरह से युद्ध ही चलता रहता था।
अगर पलंग पर लिटा देती तो वह तार स्वर में रोने लगता था। गोद में लेते ही एकदम चुप।
एक दिन सबेरे माँ मेरे कमरे की देहरी पर आकर खड़ी हो गयी। बेहद हल्के-से कहने लगी, ‘बहूरानी, मुझे तो पूरी रात नसों के दर्द के कारण नींद नहीं आती। तुम तो देखती हो, रात का अध्ािकांश समय मुझे टहलते हुए काटना पड़ता है। अध्ािकांश समय घूमती ही रहती हूँ।’ उसके बाद, भीख माँगने जैसे सुर में बोलीं, ‘तुम्हें हाल में ही बच्चा हुआ है। तुम इतनी थकान कैसे बर्दास्त कर पाओगी। अगर तुम्हें कोई एतराज न हो तो आज से वह मेरे पास ही सो जाएगा, उससे मुझे तो कोई असुविध्ाा होगी नहीं और तुम थोड़ी नींद ले सकोगी।
माँ मुझसे याचना कर रही हैं। जिस महिला के डर से मैं सूखकर छुहारा हो जाती थी, वे करुण स्वर में मेरे सामने अपनी अजऱ्ी पेशकर रही हैं।
मेरी आँखों में आँसू आ गये। बच्चे को उसी क्षण उनकी गोद में देकर बोली, ‘माँ, तुमने मुझे बचा लिया। मैं काफ़ी दिनों से अच्छी तरह सो भी नहीं सकी हूँ।’
खुशी और हँसी से उनका मुँह चमक उठा था। बोलीं, ‘जैसे ही उसे भूख लगेगी, मैं तुम्हें जगा दूँगी। वही ऐसी चीज़ है, जो मैं नहीं कर सकती है।’
मैं सहज ही राज़ी हो गयी। इसके बाद जब तक वे जीवित रहीं, मेरा बेटा उनके पास ही सोया, उनके अन्तिम समय के कुछ दिनों को छोड़कर। बीमार हो जाने पर मैं उसे लेकर माँ के साथ सोती थी।
बड़ी सुविध्ाा से कई दिन बीत गये। एक दिन नहाकर गुसलखाने से निकलते ही देखती हूँ कि माँ हमारी खाट पर रबर क्लाॅथ बिछाकर प्लास्टिक की बाल्टी में गरम पानी भरकर उसमें तौलिया भिगोकर साबुन लगाकर बच्चे को खूब अच्छी तरह नहला रही हैं। अब भी उसका वजन पाँच पौण्ड नहीं हुआ था, मैं तो डर के मारे कह उठी, ‘अरे माँ, यह क्या कर रही हो, पाँच पौण्ड वजन होने के पहले उस की देह पर पानी डालना निषिद्ध है, यह तुम क्या कर रही हो?’
‘नुकसान तुम्हारी अपेक्षा मेरा ही अध्ािक होगा।’ माँ बोलीं, ‘फिर भी इस गरमी में इतने दिन तक उसे स्नान न कराने से उसका शरीर ठण्डा नहीं होगा, रात में उसे नींद भी नहीं आयेगी। मैं जो कर रही हूँ, ठीक ही कर रही हूँ, तुम चिन्ता मत करो।’
और आश्चर्य की बात, उसके बाद से ही वह बड़ी अच्छी तरह बढ़ने लगा। पहले की अपेक्षा उसे नींद भी खूब आने लगी। उसके बाद से उसे लेकर फिर हमें कोई परेशानी नहीं हुई।
उसके कारण ‘पथेर पांचाली’ की शूटिंग प्रारम्भ में मैं देख ही नहीं सकी। मानिक शूटिंग से वापस आकर पूरे दिन के कार्यकलाप की कहानी सुनाया करते थे। वंशी (चन्द्र गुप्ता), सुव्रतो (मित्रा) सभी लोग उस वक़्त होते थे। हो-हल्ला करते हुए दिन बीत जाता था। उसी काम-काज के बीच बाबू के डेढ़ वर्ष पूरे होने के बाद मैं और लक्ष्मी (बाबू की आया) और बाबू सभी लोग मिलकर शूटिंग देखने जाते थे बोराल में। लेकिन बाबू कोई परेशानी पैदा नहीं करता था। सिर्फ़ अपनी गोल-गोल, बड़ी-बड़ी आँखों से बाबा का काम देखता रहता था। वह बचपन से ही राजा बेटा जैसा लड़का था। उसे लेकर किसी भी दिन मुश्किल में नहीं पड़ना पड़ा।
बड़े समारोह के साथ उसका नामकरण संस्कार हुआ था। हर शुभ काम की तरह इस अनुष्ठान के लिए भी क्षितिमोहन बाबू को बुलाया गया था। उसका अन्नप्राशन भी उसी संस्कार के साथ हो गया था। विवाह के घर में जैसा उत्सव होता है ठीक वैसे ही। कई तरह की मिठाइयाँ बनीं, छत पर मेहराब बाँध्ाी गयी। दोनों तरफ के नाते-रिश्तेदारों, मित्रगण, आत्मीय स्वजनों में से कोई भी नहीं छूटा।
मानिक की बड़ी इच्छा थी उसका नाम ध्ाीमान रखने की। मेरी और माँ की इच्छा थी-बाप और परदादा के नाम के साथ मिलाकर ‘स’ से उसका नाम रखा जाए। विवाह के बाद ही ‘घरे बाइरे’ फि़ल्म को लेकर जो काण्ड हुआ था उससे किसी तरह पीछा छुड़ाने के बाद भी ‘सन्दीप’ नाम मेरी पसन्द के अनुसार था, शुरू से। क्षितिमोहन बाबू से पूछने पर वे बोले, ‘उसका जब सिंह राशि का जन्म है, ‘स’ से ही नाम उपयुक्त होगा।’ इसके बाद तो और कोई प्रस्ताव चल ही नहीं सकता था। मानिक की अनिच्छा हो, ऐसा नहीं था। इसीलिए उसका नाम ‘सन्दीप’ रखना ही तय किया गया। काकी माँ ने उसके लिए चम्पा फूलों के रंग जैसी जार्जेट की एक फ्राॅक बना दी थी। वही पहनाकर उसे गोद में लिए मैं बैठी थी। वह बड़ी गहरी नींद में सो रहा था, गोरा रंग जैसे फटा पड़ रहा था। वह इतना सुन्दर और आकर्षक दिखायी दे रहा था, मेरे झर-झर आँसू निकल पड़े। काका मेरी बगल में ही बैठे हुए थे, मेरी सास और माँ भी। काका अस्फुट सुरों में बोल पड़े, ‘इतने सुख के दिन में रो क्यों रही हो?’ माँ को भी देखा, दोनों हाथों से अपने आँसुओं को पौंछ रही थी।
क्षितिमोहन बाबू ने मन्त्र पढ़ते हुए कितनी सुन्दर पूजा-अर्चना की थी, वह कभी भूल नहीं सकूँगी है। उस वक़्त टेप रिकार्डर नहीं आया था, अगर होता तो उस अनुष्ठान को रिकार्ड कर लेती। उनकी उपासना के मन्त्र सुनना बेहद अच्छा लगा था। उन श्लोकों में बहुत कुछ सीखने योग्य था।
इसके बाद बाद अन्नप्राशन का अनुष्ठान चलने लगा। ध्ाोती, कुर्ता, फूलों की माला और मुकुट में मेरे बेटा का वह कैसा रोना था! इतना सजना उसे पसन्द नहीं आ रहा था। किसी तरह मेरे भाई खोकन ने उसके मुँह में खीर डाल दी। उसके बाद उसके कपड़े उतार कर अपनी सास द्वारा तैयार ‘झबला’ उसे पहना दिया। कितनी सुन्दर और अपूर्व सिलाई की थी मेरी सास ने झबले की! सभी देखकर मुग्ध्ा हो गये थे। वही झबला बाद में मैंने सँभाल कर रख लिया था अपने नाती को पहनाने के लिए, सुख है कि उसने पहना भी था। सुनहले रंग के क्रेप में ऊपर चैड़ी काश्मीरी कढ़ाई की गयी थी, देखकर लगता था जैसे चित्र बना हुआ है, सिलाई नहीं की गयी है। अब भी वह रखा हुआ है, इस आशा में कि शायद बहू अपने नाती को पहनाना चाहें। उसे देखकर ऐसा नहीं लगता है कि उसे बने इतने दिन हो चुके हैं। अभी भी उसमें नये जैसी चमक है।
उस दिन बाबू को गोद में लेकर मैं जिस वक़्त उसे लाड़ कर रही थी, मानिक ने उसकी तस्वीर खींच ली। वह तस्वीर बहुत सुन्दर बनी थी। मानिक सचमुच में बेहद सुन्दर तस्वीर खींच लेते थे। ऐसा कौन-सा काम था जो वे न कर सकते हो (गृहस्थी के कामकाज को छोड़कर) यह सोचने की बात है। दोपहर में बाबू जब हमारे कमरे में आकर सोता था, मानिक ने उसकी सोती हुई हालत में एक तस्वीर बनायी थी। इस घर में आने के बाद मैंने उसी तस्वीर को खोजकर मढ़ा कर रखा हुआ है। मुझे बेटा होने के बाद जब सारी दुश्चिन्ताओं का समाध्ाान हो गया तब ‘पथेर पांचाली’ की शुरूआत हुई, उन्हें लगा, यह लड़का हमारे लिए शुभ है। यह बात उन्होंने ज़बान से न कहकर चिट्ठी में लिखी थी, जब ‘अपराजितो’ फि़ल्म को वेनिस में गोल्डन लायन पुरस्कार मिला था उसी दिन था मेरे बेटे का जन्म दिन।
‘पथेर पांचाली’ का इतिहास सभी जानते हैं। नयी तरह से उसके लिखने की कोई ज़रूरत नहीं है। नियमित आॅफि़स जाना और उसी के साथ शूटिंग भी चल रही थी। इतना आनन्द था कि उसे रखने की मानो हमारे पास कोई जगह ही नहीं थी। एक तो इतना आकर्षक, सुन्दर बेटा, जिसकी ओर मानिक मुग्ध्ा नेत्रों से देखते रहते थे, उसे ज़रा भी कुछ हो जाए तो बेचैन हो उठते थे। बाप बन जाने का आनन्द भलीभाँति ले रहे थे। बाबू ने छुटपन में कई तरह की बीमारियाँ भुगती हैं। सभी कहते थे बच्चों को तो यह सब लगा ही रहता है। लेकिन हम तीनों-मैं, माँ और मानिक बहुत परेशान हो जाते थे, उसका भार माँ पर ही था, कारण उन जैसी सेवा कोई और कर ही नहीं सकता था। इसलिए मैं निश्चिन्त होकर उन पर ही सब कुछ छोड़ देती थी, यद्यपि सदा उसके आस-पास ही मँडराती रहती थी। अपनी सन्तान के प्रति मेरे गहरे खिंचाव को माँ समझ गयी थीं। इस कारण हम दोनों एक जुट हो गये थे। उनका वह गम्भीर स्वभाव, बात-बात में नाराज़ी और बकझक पता नहीं कहाँ चला गया था! उसके स्थान पर एक स्नेहमयी नारी ‘दादा भाई’ (नाती को) को लेकर उन्मत्त हो उठती थी।
बाबू के जन्म के पहले मेरी सास गम्भीर रूप से बीमार हो गयी थीं। एक तो मध्ाुमेह उस पर दिल की बीमारी। चिकित्सकों ने भी पतवार डाल दी थी। अपने असाध्ाारण मनोबल के सहारे वे ठीक होने लगी थी। नाती होने के बाद खूब हँसती हुई कहा करती थी, ‘इसकी सेवा करने के लिए ही मैं अच्छी हो गयी हूँ।’
‘पथेर पांचाली’ फि़ल्म के जारी होने के एक दिन पहले मानिक के मित्रों और सम्बन्ध्ाियों की इच्छा से उसका पहला प्रदर्शन एडवरटाइजिंग क्लब में हुआ था। ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण घटना मेरे जीवन में फिर कभी नहीं घटी। मेकशिफ़्ट व्यवस्था के अन्तर्गत वह फि़ल्म दिखायी गयी। हाॅल में प्रोजेक्टर रखकर, सिकुड़ा हुआ पर्दा टाँगकर, बेहद खराब साउण्ड बाॅक्स आदि के सहयोग से वह कैसा वीभत्स काण्ड था! संवाद तो समझ ही नहीं आ रहे थे, ध्ौर्यपूर्वक बैठे-बैठे फि़ल्म देखना प्रायः असम्भव हो गया था।
खत्म होने के बाद आँसू भरी निगाह से बगल में खड़े मानिक की ओर देखते हुए बोली, ‘यह क्या हुआ?’
उन्होंने सहज सुर में कहा, ‘प्रोजेक्शन खराब है, पर चिन्ता मत करो, सब ठीक हो जाएगा।’ हालाँकि बाद में उन्होंने मेरे सामने स्वीकार किया था कि भय के कारण उनके हाथ-पैर ठण्डे पड़ गये थे। इतनी झंझटें मोल लेेने के बाद तो यह फि़ल्म बन सकी, अन्त में उसका यह हश्र? जान-पहचान वालों में सभी हमसे बच कर निकल गये थे, इसका कारण मैं समझ ही नहीं पा रही थी।
दक्षिणमोहन ठाकुर से मेरा बहुत दिनों से परिचय था। मेरे गाने के साथ उन्होंने कई बार सितार-शहनाई बजायी थी। एकमात्र वही थे जो आगे आकर बोले, ‘पहला शो तो ऐसा ही होता है। इसके अलावा आप देख तो रही थीं प्रोजेक्टर की कैसी आवाज़ थी, संवाद तक सुनायी नहीं दे रहे थे।’
उस दिन का वह अनुभव सहज में ही भूल न सकूँगी। भूलना सम्भव तब हुआ जब कुछ दिन बाद वसुश्री में मानिक ने अपनी ‘पथेर पांचाली’ फि़ल्म रिलीज़ की। मेरी सास जल्दी सो जाती हैं इसलिए वे छह बजे का शो देखने गयीं। हम लोगों ने निश्चय किया कि बाबू को सुलाकर नौ बजे के शो में जाएँगे।
सभी के चले जाने के बाद मेरा मन छटपटाने लगा। अपनी जान-पहचान के एवं पूरी यूनिट के साथ बैठकर न देख सकूँगी यह सोचकर रह नहीं सकी इसलिए बाबू को लेकर टैक्सी से सिनेमा हाॅऊस चली गयी।
मुझे देखते ही तुरन्त ‘वसुश्री’ सिनेमा के कर्मचारियों ने दुमंजि़ले पर पहुँचाकर कमरे में पहुँचा दिया। उस वक़्त पर्दे पर जो दृश्य देखा उसमें सर्वजया दुर्गा के बाल पकड़ कर उसे खींचते-खींचते घर से बाहर निकाल रही है। चारों तरफ परिचित चेहरे, माँ और मानिक मुझे देखते ही अचरज से भरकर मेरे पास आ गये। मैं ध्ाीरे से बोली, ‘थोड़ा देखकर अभी ही चली जाऊँगी।’
मेरे बेटे ने कमरे की ओर घुसते ही जो पर्दे की ओर देखना शुरू किया, फिर उसने उध्ार से अपनी नज़रें हटायी ही नहीं। चारों ओर परिचित चेहरे-वंशी, अनिल बाबू, सुव्रत, दादाभाई, बाबा। किन्तु उसकी तस्वीर स्थिर दृष्टि सिर्फ़ पर्दे के ऊपर ही बनी रही।
थोड़ी देर बाद उसे लेकर जब वापस आ रही थी, उसने बड़ी आफ़त मचायी, अभी और भी देखूँगा। काफ़ी समझा-बुझाकर घर ले आकर उसे जब दूध्ा पिलाने लगी, वह मेरा आँचल खींचकर बार-बार कहने लगा, ‘माँ अपू देखूँगा, चलो।’ उस वक़्त उसके दो वर्ष भी पूरे नहीं हुए थे।
फि़ल्म खत्म होने के बाद जब सभी घर लौटे, उनके चेहरे देखकर ही समझ गयी कि किला फतह हो गया है! हमारे तिमंजि़ले पर मिस्टर एण्ड मिसेज गुप्ता नामक एक दम्पति रहते थे। उनके साथ हमारा उस वक़्त भलीभाँति परिचय नहीं हुआ था, किन्तु वे लोग सीध्ो मेरे फ़्लैट में चले आये और फि़ल्म की प्रशंसा पंचमुख से करने लगे। वह कैसा उल्लास था! इतनी अच्छी फि़ल्म प्रायः होती नहीं है, ऐसी फि़ल्म उन्होंने जीवन में देखी नहीं है आदि-आदि। मेरा दिल भर आया, इतनी तकलीफ़ हुई पर सब कुछ सार्थक हो गया।
रात्रि में फि़ल्म देखकर रोते-रोते लौटी। नाते रिश्तेदार, आत्मीय, स्वजन, मित्रगण जो जहाँ थे, खासकर एड-क्लब के कटु अनुभव के बाद, सिनेमा-हाॅल में फि़ल्म देखकर सभी अभिभूत थे। यह सब कहना भी कम ही है क्योंकि ‘पथेर पांचाली’ जैसी फि़ल्म हमारे देश में आज तक दूसरी नहीं बनी।
एक सप्ताह के लिए फिक्स्ड बुकिंग थी। उस अवध्ाि से भी अध्ािक समय तक फि़ल्म चल सकती है, यह किसी को आशा ही नहीं थी। लेकिन मेरे स्वामी को तो कोई पहचानता नहीं था, आखिर वंश की परम्परा जाएगी कहाँ! जिस काम में भी हाथ लगाया, असामान्य सफलता के साथ शिखर पर अनायास ही चढ़ते चले गये। हरेक अख़बार प्रशंसा से मुखरित हो उठा। कई लोगों की ऐसी ध्ाारणा है कि ‘पथेर पांचाली’ ने ‘कान’ में पुरस्कार पाने के बाद अपने देश में सम्मान पाया है। पर यह ध्ाारणा भ्रमपूर्ण है। इसके कहीं पहले लोगों की जुबान पर इस फि़ल्म की प्रशंसा बिखरी पड़ी थी। फि़ल्म देखने के लिए भीड़ उमड़ी पड़ रही थी। छह सप्ताह के बाद ‘वसुश्री’ से ‘इन्दिरा’ फि़ल्म हाउस में ‘पथेर पांचाली’ को ले जाना पड़ा। वहाँ भी वही हालत हुई। अन्य फि़ल्मों की बुकिंग के बीच में जैसे ही थोड़ी साँस मिलती कई सप्ताह के लिए यह फि़ल्म दिखायी गयी थी।
‘पथेर पांचाली’ और भी काफ़ी दिनों तक चल सकती थी। लेकिन हमारी दूरदर्शिता के अभाव में ऐसा नहीं हो सका। किन्तु ‘पथेर पांचाली’ से उन्हें जो ख्याति मिली, वे बड़ी सहजता से उसे वहन करते रहे थे। उस वक़्त भी उन्होंने नौकरी नहीं छोड़ी थी।
इसके बाद वे कौन-सी फि़ल्म बनाएँगे, यह कोई खास चिन्ता का कारण नहीं बना। ‘अपराजितो’ पर फि़ल्म बनाएँगे, यह उन्होंने निश्चित कर लिया। मैंने थोड़ी आपत्ति की थी, क्योंकि हमारे देश में माँ और बेटे का सम्बन्ध्ा कैसा हो, इस सम्बन्ध्ा में कुछ भ्रान्त ध्ाारणा बनी हुई है, उसका पोषण लगभग अट्ठासी प्रतिशत लोग करते हैं। थोड़े हल्केपन से बोली, ‘माँ की मृत्यु से बच्चे का मुक्तिपूर्ण उल्लास, इसे क्या हमारे देश के लोग स्वीकार कर लेंगे।’
बोले, ‘देखा जाए न, तो बाद में वह अपने पूर्व मनोभाव के कारण पश्चाताप से भर जाता है और माँ की मृत्यु उसे गहरा ध्ाक्का देती है।’
मेरा मन उसके बाद भी असन्तुष्ट ही बना रहा। बाबू की उम्र उस वक़्त लगभग अढ़ाई वर्ष हो गयी थी, उसे अक्सर ग्रामीण अंचलों की शूटिंग दिखाने ले जाती थी। बड़े मज़े से दिन कट रहे थे। फिर भी काशी में शूटिंग के वक़्त मैं और बाबू नहीं जा सके क्योंकि वहाँ बाबू के रहने की व्यवस्था उपयुक्त नहीं थी। मेरे बदले माँ मानिक के साथ गयीं। मानिक की देखभाल करने के लिए उनकी बड़ी ज़रूरत थी। खास कर इसलिए और भी कि ‘पथेर पांचाली’ के बाद से ही उनका रक्तचाप बढ़ा हुआ था। फि़ल्म को लेकर इतनी खींचतान और आर्थिक संकट के झमेले निपटाने पड़े थे कि मुँह से कुछ न कहने पर भी भीतर-ही-भीतर निश्चय ही इतना भारी बोझ वहन करने के कारण उन्हें इसका मूल्य चुकाना पड़ा था।
सहसा एक दिन कन्ध्ो के दर्द के कारण रक्तचाप की समस्या पकड़ में आयी। उसके बाद से दवा और खाने-पीने का जो परहेज आरम्भ हुआ, वह अन्त तक चलता रहा। तभी रक्तचाप कन्ध्ो के दर्द से शुरू होता है, यह हम लोग आसानी से समझ गये थे। डाॅक्टर लोग दवा देते थे और नियमित रूप से वह खानी पड़ती थी। वे खुद दवा कभी नहीं खाते थे। मुँह के सामने दवा रख देनी पड़ती थी। काम काज की व्यवस्तता के कारण अपनी देखभाल का समय उन्हें कभी नहीं मिलता था। उसके बाद पहनने के कपड़ों की सार-सँभार, ध्ाोना-ध्ााना, स्त्री आदि करने के लिए उन्हें सदा लोगों की ज़रूरत बनी रहती थी। इसी कारण काशी जाते समय जब माँ का प्रस्ताव आया तो उसे मैंने सिर-माथे ले लिया। मन तो मेरा खूब खराब हो ही गया था। इतने दिन उनके बिना रहना पड़ेगा, उसके अलावा शूटिंग देखने के आनन्द से भी वंचित रहूँगी। किन्तु लाचारी के कारण राज़ी होना पड़ा।
उन लोगों के काशी जाने के साथ ही मैं बाबू को लेकर बाम्बे चली गयी। काफ़ी आनन्द से समय बीता। हालाँकि वहाँ रूमा और गोपा कोई भी नहीं थीं। उन दोनों का ही विवाह हो गया था।
मेरे विलायत से वापस आने के कुछ दिनों के बीच ही रूमा का विवाह हो गया, किशोर कुमार के साथ। विवाह में मैं बाॅम्बे गयी थी, उस वक़्त बाबू नहीं हुआ था। बाबू जिस वर्ष पैदा हुआ, उसी वर्ष दिसम्बर के महीने में गोपा का भी विवाह हो गया सुभाष घोषाल के साथ। सुभाष हम लोगों के अत्यन्त परिचित, पटना के विख्यात डाॅक्टर शरदिन्दु घोषाल के बेटे, जिनके बारे में मैं पहले ही लिख चुकी हूँ। हमारे पटना वाले घर में उनका बेरोकटोक आना-जाना था। शरदिन्दू घोषाल की पत्नी चीनू दीदी प्रशान्त और बूला महलनवीश की बहन थी।
सुभाष बड़ा सुन्दर लड़का था और गोपा के लिए सर्वथा उपयुक्त था। सुभाष वाल्टर टाॅमसन विज्ञापन कम्पनी में एक मामुली कर्मचारी की नौकरी में आया था और अपनी समझदारी एवं प्रयास के बल पर एजेंसी का प्रमुख अध्ािकारी बन गया था। उसे एक बार ही किंवदन्ती पुरूष कहा जा सकता है। विज्ञापन-जगत में उससे बढ़कर और कोई नाम कर सका है, ऐसे किसी व्यक्ति की मुझे जानकारी नहीं है। बड़े दुलार और स्नेह का पात्र था हमारा यह जमाई।
बाॅम्बे में उस वक़्त बड़ी दीदी, सँझली दीदी के अलावा माँ और सुन्दर जी थे। इसके अतिरिक्त बलाई और हितू (हितेन चैध्ारी) तो थे ही। सभी लोगों ने मिलकर बाॅम्बे के दिनों को खूब गुलजार कर रखा था। मित्रों की दृष्टि से हमारा भाग्य सचमुच में बहुत अच्छा है। विपत्ति के दिनों में सभी अपना सीना खोलकर हमारी बगल में आकर खड़े हो जाते थे।
रूमा के घर मैं खूब जाती थी। रूमा के बेटे अमित के साथ बाबू का बड़ी घनिष्ठता का भाव था। अमित उससे एक वर्ष बड़ा था।
मैं केवल मानिक के पत्रों की प्रतीक्षा में रहती थी। कैसी शूटिंग चल रही है, इसे जानने का अत्यन्त आग्रह रहता था। कभी-कभी माँ भी पत्र में लिखती थीं कि शूटिंग बहुत अच्छी चल रही है।
शूटिंग खत्म होने के बाद वे लोग जिस दिन लौटे उसके एक दिन बाद हम दोनों बाॅम्बे से लौट गये। आकर देखती हूँ कि मानिक लेटे हुए हैं और एक पैर पर पट्टी बँध्ाी हुई है। मैंने घबराकर पूछा, ‘क्या हुआ?’
उन्होंने थोड़ा हँसकर कहा, ‘लौटने के एक दिन पहले गंगा के घाट पर सीढि़यों से फिसल गया था। घुटने में बेहद दर्द हुआ, सूज भी गया। आज सर्जन आएँगे जाँच करने। अगर हड्डी टूट गयी होगी तो प्लास्टर चढ़ेगा। सौभाग्य से शूटिंग खत्म हो गयी थी, अगर खत्म न हुई होती तो सोचो क्या हालत हुई होती।’
‘खूब दर्द है क्या?’ मैंने पूछा।
बोले, ‘वह तो है ही। तुम्हारा काम थोड़ा बढ़ गया है, मैं तो गुसलखाने तक भी न जा सकूँगा।’
‘देखो डाॅक्टर आकर क्या कहते हैं।’ मैंने जवाब दिया।
चिकित्सक ने बताया कि हड्डी टूट गयी है, प्लास्टर चढ़ाना होगा। उसी समय मानिक लगभग तीन महीने तक बिस्तर पर पड़े रहे थे। उनकी सेवा का भार मेरे ऊपर था। माँ और लक्ष्मी, बाबू की देखभाल करती थीं। बाबू रोज़ ही हमारे कमरे में आकर चारपाई पर बैठकर बाबा के साथ खेलता और गपशप करता। बाबा क्यों इतने दिनों तक लेटे हुए हैं पूछने पर मानिक विस्तापूर्वक अपने पैर टूट जाने की घटना उसे बताते थे। बाबू अवाक् होकर सुनता रहता था। उसकी राय होती थी, ‘घाट की सीढि़याँ बहुत दुष्ट हैं, है ना बाबा? मैं जाकर उन्हें पीट आता हूँ।’ हम लोग उसकी बातें सुनते और हँसने लगते थे। ‘अपराजितो’ की शूटिंग उस वक़्त भी खत्म नहीं हुई थी।
मानिक को जिस दिन से चलने की अनुमति दी गयी, उसके दूसरे दिन से लाठी हाथ में लेकर लँगड़ाते-लँगड़ाते उन्होंने गाँव के दृश्यों की शूटिंग शुरू कर दी। मैं भी बाबू को साथ लेकर शूटिंग देखने जाती, उन पर नज़र रखने के लिए। बेहद अच्छा लगता था।
बाॅम्बे में रहते समय ही यह समझ गयी थी कि रूमा और किशोर में कुछ मनमुटाव चल रहा है। बेहद स्वाभाविक था। इतनी कच्ची उम्र में विवाह कर देना ही भूल है। खुद भुक्त भोगी होते हुए भी मँझली दीदी ने क्यों यह भूल कर दी, मैं नहीं जानती। हम सभी लोगों ने उन्हें मना किया था, और सुझाव दिया था कि अभी जल्दी क्या है, एक वर्ष और प्रतीक्षा कर लीजिए। किन्तु उन्होंने किसी भी बात पर ध्यान दिये बिना यह अनहोनी कर डाली। फिर उसका परिणाम यह निकला कि हमारे कलकत्ता वापस आने के एक वर्ष के भीतर ही रूमा अपने बेटे अमित को लेकर कलकत्ता चली आयी और कुछ दिनों में ही किशोर के साथ उसका तलाक हो गया।
इसी समय एक भारी विपत्ति का सामना करना पड़ा था। एकाएक मेरे अच्छे-भले लड़के ने तुतलाना प्रारम्भ कर दिया। वह ऐसा-वैसा तुतलाना नहीं था, मुँह से कोई साफ़ बात ही नहीं निकलती थी। ध्ारती पर पैर पटकता, मुँह लाल हो जाता, फिर एकाध्ा बात किसी तरह मुँह से निकाल पाता। सहसा ऐसा क्यों हो गया, पता नहीं चला। पहले कितनी मीठी-मीठी बातें किया करता था जिसकी कल-कल ध्वनि से घर मुखर बना रहता था, वह लगभग गूँगा-सा हो गया था। यहाँ तक कि ‘माँ’ ‘बाबा’ तक नहीं कह पाता था। मैं रोज़ रात में रोती रहती थी। ऐसा क्यों हो गया? मैंने तो किसी का कुछ बिगाड़ा नहीं, कोई अपकार किया नहीं, अन्याय किया नहीं, तो फिर मुझे यह दण्ड क्यों दिया गया? सभी लोगो की राय से उस ज़माने के बच्चों के विख्यात चिकित्सक क्षीरोद प्रसाद रायचैध्ारी के पास लेकर गये मैं, माँ और मानिक। उन्होंने काफ़ी अच्छी तरह जाँच कर यह बताया कि उसमें कोई शारीरिक कमी नहीं है, यह तात्कालिक और अस्थायी है, हमें किसी भी तरह उससे जबरदस्ती कुछ कहलवाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। पर यह विचित्र बात थी कि कुछ गाने और कविता सुनाते वक़्त वह ज़रा भी नहीं तुतलाता था। छुटपन से ही उसका गला बड़ा सुरीला था। छुटपन में वह गुनगुन करता हुआ सदा कुछ-न-कुछ गाते ही रहता था। डाॅ. चैध्ारी ने गाना गाने और कविता कहने के लिए उसे उत्साहित करते रहने की बात कही। उन्होंने कोई दवा नहीं दी। बोले, ‘बच्चों को ऐसा कई बार होता रहता है, फिर ठीक हो जाता है।’
मेरे नाते-रिश्तेदारों के बच्चों ने तीन-साढ़े तीन वर्ष में ही स्कूल जाना शुरू कर दिया था। पर, मैंने उसे घर में ही थोड़ा-थोड़ा पढ़ाना शुरू कर दिया। घर में खूब ज़ोर-ज़ोर से बाबा की यूनिट के सदस्यों के साथ गपशप करने पर भी मेरा बेटा मूल रूप में शर्मीले स्वभाव का था। अन्त में निश्चय किया कि उसे स्कूल में भर्ती करा दूँगी। जब सभी बच्चे जा रहे हैं, तब वही स्कूल क्यों नहीं जाएगा? माँ ने एतराज किया तो इस पर मैं बोली, ‘माँ, सभी बच्चे तो जा रहे हैं, फिर घर में खेलने को भी कोई साथी नहीं है, स्कूल पहुँचकर संगी-साथी मिल जाने से उसे शायद अच्छा ही लगेगा।’ अलीपुर में मिस हिगिन्स के स्कूल में हमने उसे भर्ती करा दिया। उस वक़्त रूमा भी कलकत्ता आ गयी थी और अमित भी उसी स्कूल में जाया करता था। जाते समय रूमा की गाड़ी बाबू को भी लिए जाती थी।
लेकिन जो मैं सोच रही थी, वह नहीं हुआ। बाबू स्कूल जाने में भारी एतराज करता था। मैंने सोचा कि शुरू-शुरू में ऐसा कर रहा है, बच्चों से दोस्ती हो जाने बाद उत्साहित होने लगेगा।
मैं उसकी रूलाई सहन नहीं कर पाती थी। कभी-कभी ऐसा भी हुआ है कि दोनों लोगों की आँखे भर आयी हैं और इसी अवस्था में मैंने उसे गाड़ी में बैठा दिया है।
पर, इस बार माँ ने कड़ा रूख अख़्ितयार कर लिया। बोलीं, बच्चों के सलाहकार को दिखाकर उसके स्कूल न जाने के इस कारण को जानना चाहिए। यही किया गया। मानिक के स्कूल के मित्र ननी गोपाल मजूमदार ने चाइल्ड स्पेशलिस्ट के रूप में भारी नाम कमाया था। वे आये, उन्होंने जाँच की और कहा, ‘आपका बच्चा अभी भी स्कूल जाने योग्य नहीं हुआ है। अगर जबरदस्ती करेंगी तो इससे नुकसान हो सकता है। सभी बच्चों के साथ ऐसी समस्या नहीं होती है। इतनी जल्दी आपको क्यों है?’ माँ गर्व से हँसने लगीं। मैं और मानिक ने चैन की साँस ली। घर में ही बाबू ने मेरे पास पढ़ना शुरू कर दिया। काफ़ी अच्छे तरीके से वह आगे बढ़ने लगा। खूब हँसी-खुशी से। तुतलाना तो तब भी जारी था। पर, पहले से बहुत कम हो गया था। ‘अपराजितो’ की शूटिंग उस वक़्त भी देखने जाती थी बाबू को लेकर। इस बार तो एक दूसरे गाँव में शूटिंग हो रही थी। बड़ा सुन्दर, साफ़-सुथरा गाँव था। मानिक को खूब आनन्द आ रहा था।
अब की बार मानिक ने अपने आॅफिस से छुट्टी ले ली थी। सप्ताह में मात्र दो दिन में ही शूटिंग का सारा काम झमेला अब नहीं निपटाना पड़ता था। लगातार शूटिंग चल रही थी। फि़ल्म खत्म होने के बाद एक दिन सभी को दिखायी गयी। मेरा मन काफ़ी कुण्ठित हो गया। फि़ल्म असाध्ाारण थी, इसमें कोई सन्देह नहीं, किन्तु पिंकी से अपू का बड़ा होना (स्मरण घोषाल) उसका यह रूपान्तरण आँखों को खटकता था। इस उम्र के बच्चों में एक तरह की जड़ता अथवा अटपटापन रहे, वह आँखों को खटक रहा था। हालाँकि वही स्वाभाविक था। उसके अलावा माँ के प्रति उसकी उदासीनता। फिर डाॅयलाग में ‘माँ को मैनेज कर लूँगा।’ इस तरह के कथन कठोर सत्य होने पर भी क्या समाज के लोग उसे स्वीकार कर सकेंगे?
नहीं, लोगों ने उसे स्वीकार नहीं किया। मानिक को भारी ध्ाक्का लगा था। फि़ल्म के शुरुआती हिस्से का तो लोगों ने खूब मज़ा उठाया था, लेकिन अपू के बड़े होने के साथ-ही-साथ पूरा मामला ही बदल जाने से लोगों का उत्साह चला गया था। दो सप्ताह चलने के बाद फि़ल्म पिट हो गयी। दो-एक अख़बारों को छोड़कर सभी अख़बारों में बड़ी खराब आलोचना हुई थी। इसी वक़्त ‘अपराजितो’ को वेनिस ले जाने का आमन्त्रण मिला। हमारे एक बड़े नजदीकी मित्र, शान्ति चैध्ारी, अपनी इंजिनियरिंग की नौकरी छोड़कर फि़ल्म डिस्ट्रीब्यूशन के ध्ान्ध्ो में कूद पड़े थे। वे ‘अपराजितो’ को लेकर वेनिस चले गये और वहीं उस फि़ल्म का एक सबटाइटिल रख लिया गया। सब कुछ बड़ी जल्दी-जल्दी किया गया। लेकिन मेरे मन में कोई आशा नहीं थी। हम लोग उस वक़्त भी लेक एवेन्यू वाले घर में थे।
मानिक के पत्र तो नियमित रूप से मिल ही रहे थे और उन पत्रों से यह समझ में आ रहा था कि यह प्रतिस्पधर््ाा कितनी मुश्किल है। बड़े-बड़े विख्यात वितरकों की बड़ी तादाद में फि़ल्में थीं, फिर मानिक तो एक उदीयमान निर्देशक थे। वे अपने पत्रों में सब कुछ बताते थे। वे सब चिट्ठियाँ आज भी बड़े जतन से मेरे पास रखी हुई हैं। इन बड़े-बड़े निर्देशकों को पीछे छोड़ने की बात की उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी। खासकर इसलिए कि अपने देश में लोगों के इस फि़ल्म को पसन्द नहीं करने से उनका मन बेहद निराश हो गया था। क्योंकि देश के लोगों की ग्रहण क्षमता को ही वे सदा प्रमुखता देते आये थे। बाबू का जन्मोत्सव 8 सितम्बर को खूब समारोह पूर्वक मनाया गया। वे घर में नहीं थे इसलिए मेरा मन बहुत दुःखी हो गया था। मैं पूरे वर्ष बाबू के जन्मदिन की प्रतीक्षा करती रहती थी, यह दिन सभी दृष्टियों से सार्थक रहे, इस प्रयास में मैं कोई त्रुटि नहीं रहने देती थी।
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बाबू के जन्मदिन के सम्बन्ध्ा में अगर लिखने बैठूँ तो एक पुस्तक लिख जाएगी। जितने संक्षेप में यह विवरण समाप्त हो जाए, उसी का प्रयास करूँगी।
दो चीज़ें बड़े समारोहपूर्वक मनायी जाती थी। बाबू का जन्मदिन और क्रिसमस। क्रिसमस पर सान्ता क्लाॅज आकर अपनी मन पसन्द चीज़ें दे जाता था, यह उसके लिए भारी ताज्जुब की बात लगती थी। हर वर्ष सान्ता क्लोज को पत्र लिखकर बता देता था कि इस वर्ष वह कौन-सी चीज़ चाहता है। मैं उसे सचेत कर देती थी कि तुम बहुत कीमती चीज़ नहीं माँगोगे, वह इसलिए कि दुनिया भर के बच्चों को वह खिलौना देता फिरता है, इसलिए उसके लिए वह चीज़ देना हो सकता है सम्भव न हो। सान्ता क्लोज के बारे में सोचकर उसे इतनी खुशी होती थी कि उस ‘भ्रम’ को मैं तोड़ना नहीं चाहती थी। मानिक एक बार सावध्ाान करते हुए बोले थे, ‘वह थोड़ा और बड़ा होकर जब यह समझने लगेगा कि तुम उससे झूठ बोल रही हो, उसके मन के क्या विचार होंगे, यह सोचकर क्या तुमने देखा है?’
मैं बोली, ‘हाँ ज़रूर सोचती हूँ। फिर भी वह जब यह समझ जाएगा, कि माँ ने उसे खुशी देने के लिए उसको झूठी बात समझायी थी, वह अवश्य मुझे माफ़ कर देगा। सान्ता की कहानी सुनकर उसे जितनी खुशी मिलती है, उससे मैं उसे वंचित करना नहीं चाहती हूँ। यह उसके लिए एक रहस्य है, बहुत बड़ा रहस्य।’ मानिक उसके बाद फिर कुछ नहीं बोले। छुटपन में उनकी माँ ने भी उन्हें सान्ता क्लोज के नाम पर बहुत-सी चीज़ें दी थीं। बताइए, बड़े होकर सारी चीज़ समझ जाने के बाद माँ के प्रति उनकी भक्ति ज़रा भी तो कम हुई नहीं। इससे कोई हानि नहीं होती है, वरन् माँ के प्रति पे्रम बढ़ता ही है। मेरी सास के मर जाने के बाद वह मेरे पास ही सोता था और उसकी बगल में टेबिल रखकर, उसके ऊपर बड़े करीने से एक तरफ अपने दिये हुए उपहार और दूसरी तरफ सान्ता क्लोज के दिये हुए उपहार रखती थी।
अतिशय आनन्द से उसकी नींद बड़ी जल्दी टूट जाती थी और बगल में रखे टेबिल पर उपहारों की बहार देखकर खुशी और उत्तेजना से उसकी आँखे चमक उठती थी।
क्रिसमस उसके लिए बड़ा रहस्य था। एक अनजान बूढ़ा व्यक्ति, जिसे उसने कभी अपनी आँखों से नहीं देखा है, वह आकर उसे मन पसन्द अच्छे-अच्छे उपहार दे जा रहा है, यह सोचते ही वह आनन्द से उद्भाषित हो उठता था। वह अनपहचाना ज़रूर था, पर अनजाना नहीं। यह इसलिए कि फ़ादर क्रिसमस की मैं उसे इतनी कहानियाँ सुनाया करती थी कि सान्ता क्लोज कैसा होगा, इसे वह बहुत अच्छे से पहचान सकता था।
कई तरह के सवाल उसके मन में उठा करते थे। कहा करता था, ‘मेरे स्कूल के कुछ बच्चों ने फादर क्रिसमस से कई उपहार प्राप्त किये हैं पर बहुतों को दुबारा नहीं मिले, क्यों माँ?’
मैं जवाब देती, ‘उन लोगों ने लिस्ट बनाकर नहीं भेजी होगी, इसलिए उन्हें दुबारा नहीं मिले।’
इस पर वह कहता, ‘पर, माँ जिन लोगों को उपहार मिले भी हंै, उन्हें मेरे जैसी सुन्दर-सुन्दर चीज़ें तो मिली नहीं है।’
उसके जवाब में मैं उसे लाड़ करती हुई कहती थी, ‘तुम्हारे जैसे सुशील लड़के वे थोड़े ही हैं। फादर क्रिसमस को तो सब कुछ पता रहता है, इसलिए तुम्हें इतने अच्छे-अच्छे उपहार देते हैं।’ वह वही मान लेता था।
मानिक यह बातचीत सुनकर काफ़ी खुश होते थे। अपने बेटे को इतना प्यार करते थे कि इन बातों से वह इतना खुश हो रहा है, इससे वे भी खुश हो जाते थे। उन्हीं के कमरे में बैठकर चैबीस दिसम्बर की रात्रि में बाबू के सो जाने के बाद मैं उपहारों को बाँध्ाकर रखती थी। वे मेरी यह सब कारगुजारी देखते रहते और कहने लगते, ‘अच्छा बताओ तो, तुमने यह गिफ़्ट पेक करना किससे सीखा है?’
मैं जवाब देती, ‘अपने मन से, और कुछ-कुछ विलायती मैगजीन पढ़कर।’ उन्हें खुश करके मुझे अपना जीवन सार्थक लगता था।
जन्मदिन के निमन्त्रण-पत्र मानिक से लिखवाने का प्रयास करती थी। वे उस वक़्त अपने काम में मग्न रहते थे, विनती करते हुए कहने लगते थे, ‘तुम तो काफ़ी अच्छी तरह लिख लेती हो, देख तो रही हो, मुझे कितने काम करने हैं, मुझे तुम इन झँझटों में मत खीचों, तुम्हीं सब निपटालो ना।’ मैं वैसा ही करती थी।...
मानिक की ‘अपराजितो’ फि़ल्म जनता के लिए जारी हो गयी। कई सप्ताह तो भारी भीड़ हुई। किन्तु ध्ाीरे-ध्ाीरे कमते-कमते छह सप्ताह के बाद फि़ल्म उठ गयी। मानिक को बड़ा ध्ाक्का लगा। अखबारों में उसकी समीक्षा बहुत खराब निकली थी। हम सभी लोगों का मन खराब हो गया था। इस किस्म की फि़ल्म ग्रहण कर पाने के लिए हमारा देश अब भी तैयार नहीं हुआ है। यह मैं पहले ही बता चुकी हूँ।
वे थोड़े निराश ज़रूर हो गये थे पर, इससे वे रुकने वाले व्यक्ति तो नहीं थे। इसके बाद वे कौन-सी फि़ल्म बनाएँगे इसी योजना को लेकर सोच-विचार करने लगे। इसी वक़्त ‘अपराजितो’ को वेनिस फि़ल्म समारोह में शामिल करने का निमन्त्रण मिला।
और एक व्यक्ति का प्रसंग यहाँ लिखे बिना काम नहीं चल सकता है, वे थे शान्ति चैध्ारी। ग्लासगो से इंजीनियरिंग पास कर आये थे, यहाँ कलकत्ते में मानिक की फि़ल्म देखकर मुग्ध्ा हो गये और सब छोड़-छाड़कर फि़ल्म वितरण के काम में लग गये। मानिक की ‘अपराजितो’ फि़ल्म के स्वत्वाध्ािकार को खरीद कर वे पहले ही वेनिस चले गये वहाँ पर उस फि़ल्म का सब-टाईटल लगानेे के लिए।
मानिक ने तब तक ‘जलसाघर’ की शूटिंग प्रारम्भ कर दी थी। लोगों के गाने, नाच आदि पसन्द कर उन्होंने तारा शंकर के ‘जलसाघर’ उपन्यास को चुन लिया था। उन्होंने एक बार भी यह नहीं सोचा कि जिस तरह के नाच-गाने उन्हें पसन्द हैं, उसके साथ पब्लिक का मत नहीं भी मिल सकता है।
वेनिस से जब उनका बुलावा आया तब लाचार होकर कुछ दिनों के लिए शूटिंग बन्द कर वे वहाँ के लिए रवाना हो गये। उन्हें विदाई देने घर पर ढेरों लोगों का समागम हुुआ था। उन लोगों में अगर चूड़ोदा के बारे में न लिखूँ तो काम नहीं चल सकता है। चूड़ोदा के परिवार के साथ हम लोगों का पटना से सम्पर्क था। उनके बाबा सुशील कुमार मल्लिक मेरे बाबा के बड़े घनिष्ठ मित्र थे। उनके और एक बेटे भीष्म मल्लिक आगे चलकर हमारे पारिवारिक डाॅक्टर बन गये थे। अब भी वे हम लोगों का इलाज करते हैं।
चूड़ोदा बड़े मज़ेदार आदमी थे। मानिक से बेहद प्यार करते थे। मानिक जो भी करते, उनके लिए वही परफेक्ट था। कोई कुछ कहे तो उन्हें भयंकर क्रोध्ा आता था।
जिस दिन मानिक चलने लगे, उन्होंने कहा, ‘मैं बाजी लगाकर कह सकता हूँ कि इस फि़ल्म को पुरस्कार मिलेगा ही।’
यहाँ कलकत्ते में यह फि़ल्म अच्छी तरह नहीं चली थी इसलिए मैं एकदम मायूस बनी हुई था। बोली, ‘पुरस्कार मिलना तो असम्भव है। हमारे देश के लोगों ने इस फि़ल्म को जिस तरह ठुकरा दिया है, उसके बाद भी आप यह कैसे दावा कर रहे हैं कि इस फि़ल्म को पुरस्कार मिलेगी?’
इस पर उन्होंने उत्तर दिया था, ‘ये सारे लोग बेवकूफ़ हैं बेवकूफ़, ये कुछ भी नहीं समझते हैं। वे सब समझदार लोग हैं, हमारे देश के लोगों की तरह इतने बुद्धू नहीं हैं।’
मैंने कहा, ‘यह बात आप कैसे कह रहे हैं चूड़ोदा? यही लोग तो ‘पथेर पांचाली’ फि़ल्म देखकर पागल हो गये थे। इस फि़ल्म को नकारने के पीछे ज़रूर कोई कारण होगा।’
उन्होंने उत्तेजित होकर कहा, ‘मुझसे शर्त लगा लो मंकू, शर्त। अगर इस फि़ल्म को पुरस्कार न मिले तो मेरा नाम बदल देना।’
चलने के लिए जब मानिक तैयार ही हो गये, तब चूड़ोदा बोले, ‘विश्वविजय करने के लिए सत्यजित जा रहे हैं, तुम सब लोग मंगल ध्वनि करो न!’
ऐसा पागल मनुष्य क्या कोई दूसरा हो सकता है। इतना मौजी और इतना स्नेहप्रवण। वे खाँटी मनुष्य थे, एकदम खरे, उसी के साथ उनमें प्रचण्ड विनोद भाव भी था। उनकी बातों से हम लोग हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते थे।
चूड़ोदा की भविष्यवाणी इस तरह सफल होगी, इसकी हम लोग कल्पना भी नहीं कर सके थे। मानिक वहाँ से नियमित रूप से चिट्ठी लिखा करते थे। क्या हो रहा है, क्या नहीं हो रहा है, सब कुछ लिखा करते थे। बड़े नामी-गिरामी निर्देशकों की फि़ल्में उस महोत्सव मेें आयी थीं, इसलिए उन्होंने पहले से ही मान लिया था कि उनकी फि़ल्म को कोई भी पुरस्कार नहीं मिलेगा।
अगस्त के अन्तिम दिनों में वे लोग वेनिस गये थे। उनकी पहली चिट्टी मुझे छब्बीस अगस्त (1957) को मिली, ‘कल फि़ल्म समारोह का उद्घाटन हो गया है। कैसी विचित्र घटना है, वह तुम्हें मैं लिखकर नहीं समझा सकता। रात दस बजे उद्घाटन हुआ। एक स्पेनिश फि़ल्म से। ‘एन ऐंजिल ओवर बु्रकलिन’। यहाँ शाम की पोषाक पहनना अनिवार्य है। इसीलिए मुझे पिं्रस कोट पहनकर जाना पड़ा। सिनेमा पैलेस के बाहर प्रचुर भीड़ थी। टेलीविज़न, कैमरा, रिपोर्टर, मूवी केमरा, हलचल भरा मामला था। सेलीब्रिटी लोगों की कोई कमी तो थी नहीं। निर्माताओं में लगभग सभी लोग आये थे (जिनकी फि़ल्में दिखायी जा रही थीं।) इसके अलावा जाॅन क्रोफर्ड, एस्थर विलियम्स, अनेक काॅण्टीनेण्टल, स्पेनिश, यूगोस्लावी, जापानी, मिस्र और एशिया के फि़ल्मी सितारे भी आये हुए हैं। फि़ल्म समीक्षकों में तो शायद ही कोई छूटा है।
पेनेलोपी ह्युस्टन से तो सिनेमा में ही भेंट हो गयी। बोलीं, ‘द फि़ल्म मोस्ट लुक्ड फोरवार्ड टू आर विसकान्तीज़, कुरोसावाज़ एण्ड योर्स।’ वे कुरोसावा की फि़ल्म लण्दन में देखकर आ रही थीं। कहने लगीं ‘इट्स मोस्ट इण्टरेस्टिंग् आॅलदो नाॅट ए मास्टरपीस’। जि़नेमन की फि़ल्म ‘अ हेटफुल आॅफ रेन’, आँद्रे कैयात्त की ‘एन आई फाॅर एन आई’ और काॅस्टेलिनी की फि़ल्मों की प्रशंसा यहाँ की जा रही है। पहले दिन की फि़ल्म कोई बहुत सुखदायक नहीं थी, फैण्टसी किस्म की थी। पर बहुत कल्पनाशील नहीं थी। इसकी तुलना में ‘अपराजितो’ अच्छी फि़ल्म है। फि़ल्म के बीच-बीच में यहाँ तालियाँ बजती हैं। कल्पनाशीलता से लोग प्रभावित हैं। कानाफूसी बिल्कुल नहीं होती है। खूब विनम्र श्रोता हैं। हाॅल तो देखने योग्य है। लाइटहाउस जैसी सादी डिज़ाइन है। किन्तु उसकी तुलना में बेहद बड़ा है। ढ़ाई हजार लोग उसमें समा जाते हैं। बेहद अच्छा प्रोजेक्शन है। इतनी अच्छी स्क्रीन तो मैंने कभी देखी नहीं है। फि़ल्म आरम्भ होते-होते लगभग दस-पन्द्रह मिनिट की देरी तो निरपवाद रूप से हो ही जाती है। क्योंकि शुरूआत में तो मान्य अतिथियों के फोटो लेने की ध्ाूम मच जाती है। मुझे दुमंजि़ले पर बैठाया गया है, विख्यात लोगों के बगल में। ऐसे गहमागहमी भरे, बोझिल वातावरण में ‘अपराजितो’ जैसी फि़ल्म का प्रभाव कैसा होगा, इसे पहले से बताना असम्भव है। फिर भी यह निश्चित है कि एकबार फि़ल्म आरम्भ हो जाने पर सभी लोग सीरियस हो जाते हैं एवं बड़े ध्यान से फि़ल्म देखने लगते हैं। आज रात में एक यूगोस्लाव फि़ल्म दिखायी जाने वाली है। ‘अपराजितो’ चार सितम्बर को दिखायी जाने वाली है। ‘अपराजितो’ के प्रचार के लिए एक स्टाॅल ले लिया गया है। (हर देश ऐसा करता है।) उसे इटेलियन लोगों से शुरू कराने में बहुत खर्चा हो गया है, फिर भी हमारा स्टाॅल ऐसा कुछ बुरा नहीं बना है। एक लड़की को उस पर रख लिया गया है। वह स्टाॅल पर बैठेगी और समीक्षकों, पत्रकारों के आने पर उन्हें फोटोग्राफ और फि़ल्म सम्बन्ध्ाी सामग्री माँगने पर देती रहेगी। स्टिल फोटोग्राफ की बड़ी माँग है, लगभग खतम हो गये हैं। और भी अध्ािक लाने चाहिए थे। शान्ति अपनी अक्लमन्दी से निगेटिव लेता आया था, उनसे फिर से प्रिण्ट निकलवाये जा रहे हैं। शान्ति के कमरे में जावाटीन से भेंट हुई थी। उसने बहुत बार आग्रह किया है कि वह मुझे अपने घर ले जाएगा। बहुत-सी बातें करनी हैं न उससे। यहाँ पर फेस्टीवल निर्देशक मिज़ोगूची की पाँच पुरानी फि़ल्में और डोवज़ेन्को की पुरानी फि़ल्में आदि बहुत कुछ दिखाया जा रहा है।
लिडो में बेहद ठण्ड है। दिन भर गरमी रहती है, उसके बाद रात्रि में कम्बल ओढ़कर सोना पड़ता है। पिछली बार तो यहाँ बड़ी गरमी थी। हमारा होटल बहुत अच्छा है। उसकी सर्विस भी अच्छी है। भोजन भी बेहद अच्छा है। मछली बहुत अच्छी बनती है, माँस तो कभी छूटता ही नहीं है। हाँ, लगता है इस होटल में मुर्गा कम ही दिया जाता है।
इसके बाद तो व्यक्तिगत बातों को छोड़कर उस पत्र में खास कुछ नहीं था। बाबू के लिए एक नयी किस्म का खिलौना खरीद लिया था। उस सम्बन्ध्ा में बाबू से कुछ कहूँ, इसके लिए मुझे रोक दिया था। वे बाबू को सरप्राइज देना चाहते थे।
इसके बाद का पत्र तीस सितम्बर का लिखा हुआ है। अन्यान्य बातों के बाद लिखा था, ‘रोज़ ही कम-से-कम तीन फि़ल्में देख रहा हूँ, उसी काम में लगभग छह घण्टे चले जाते हैं। सवेरे साढ़े नौ बजे मिज़ोगूची की जापानी फि़ल्म, उसके बाद ही समारोह के बाहर यूरोपीय फि़ल्में और रात दस बजे समारोह में प्रवेश। सवेरे-सवेरे दो फि़ल्में देखने के बाद फेस्टीवल सिनेमा की बगल में एक ओपिन एअर कैफ़े है, उसी में बैठकर काॅफ़ी अथवा कोकोकोला पीता हूँ। रोज़ ही कोई-न-कोई फि़ल्म समीक्षक अथवा पत्रकार आकर बातचीत करता है और परिचय-आलाप के बाद प्रश्न पूछता है। कई उच्च स्तर के समीक्षकों से घनिष्ठ परिचय हो गया है, उनसे गहराई से बातचीत भी हुई है। खासतौर पर सादूल और लाउतर आईजीनी के साथ (जिसने कान फेस्टीवल डायरी फि़ल्म कल्चर में ‘पथेर पांचाली’ की बेहद प्रशंसा की थी।) सादूल की उम्र पचास-पचपन की होगी। एक वर्कमेन की तरह कपड़े पहनकर घूमता रहता है। लाउतर आईजीनी की उम्र साठ-पैंसठ के करीब होगी किन्तु ऐसी जि़न्दादिली और संवेदनशीलता आज तक किसी में भी नहीं देखी है। ये सब लोग ‘अपराजितो’ की प्रतीक्षा इतनी उत्सुकता से कर रहे हैं कि मुझे तो डर ही लग रहा है। मैं सभी से बार-बार आग्रह कर रहा हूँ, ‘कृपया बहुत अध्ािक अपेक्षा न रखें’ और सभी से कह रहा हूँ, ‘आप आलोचना करने में किसी तरह का संकोच न करें।’ क्या होगा पता नहीं। पर, आज तक जो पाँच फि़ल्में दिखायी गयी हैं, उनमें एक भी ‘अपराजितो’ से अच्छी नहीं है। कल ‘द स्टोरी आॅफ़ एस्थर कोस्टिलो’ (जुआन क्रोफ़र्ड, रोजे़नो ब्राज़ी) फि़ल्म देखी। एक उपन्यासिका जैसी कहानी है, लेकिन हीथर सीयर्स नाम की एक नयी लड़की में काफ़ी सम्भावनाएँ हैं। दर्शकों ने उसकी बेहद प्रशंसा की। जुआन क्रोफ़र्ड के आने की सम्भावना थी, पर आये नहीं’ आदि।
इसके बाद जिस दिन ‘अपराजितो’ दिखायी गयी, उस दिन के पत्र में बहुत-कुछ लिखा था। लेकिन मैं इतर बातों को छोड़कर जो सबसे अध्ािक महत्वपूर्ण है, उसी को लिख रही हूँ, ‘पेनेलोपी ह्यूस्टन ज्यूरी के सदस्य हैं, उस बारे में तुम्हें मैं पहले ही लिख चुका हूँ। फि़ल्म जब समाप्त हुई, हमलोग ध्ाड़कते हृदय से एक तरफ खड़े हुए थे। ज्यूरी के सदस्यों ने जब एक-एक कर बाहर जाना शुरू कर दिया, तब उनके चेहरे की तरफ देखते हुए यह जानने की कोशिश की कि उनकी प्रतिक्रिया क्या है। पेनेलोपी ने निकलते ही हम लोगों को उन लोगों की तरफ देखते पाया। उसके बाद चुपचाप आकर मुझसे कहा, ‘आई शुड नाॅट बी सेपिंग दिस, बट आई थिंक इट वाज मेग्नीफि़सेंट।’ ऐसा लग रहा था जैसे वे अपनी भावोत्तेजना को सँभाल नहीं पा रही थी। बस, ये कहकर वे निकल गयी।’
अब की बार हम लोग भी आशा-निराशा में झूलते हुए प्रतीक्षा करने लगे। आठ सितम्बर को बाबू का जन्मदिन बड़े समारोह पूर्वक मनाया। लेकिन मानिक के न होने से मेरा मन काफ़ी भारी था। उसके बाद क्या घटा उसे जानने के लिए मन बड़ा बेचैन था। लेकिन मुझे इसकी बिल्कुल आशा नहीं थी, न मन में ऐसा लग रहा था कि उन्हें कोई भी पुरस्कार मिलेगा, प्रथम पुरस्कार मिलना तो दूर की बात थी।
मैं बाबू के पैदा होने के बाद से ही नियमित रूप से डायरी लिखती आ रही थी। 1953 ईस्वी से लेकर 1992 ईस्वी तक। किन्तु, उनके चले जाने के बाद अब डायरी लिखने का कोई उत्साह बाकी नहीं है। घर बदलने के कारण कुछ डायरियाँ खो गयी हैं। 1957 ईस्वी की डायरी खोजने पर नहीं मिल पा रही है। इसलिए मन से ही लिख रही हूँ। जहाँ तक याद आ रहा है, समाचार पत्रों से ही पहली खबर मिली। पढ़कर खुशी से अपने को भूल गयी थी। विश्वास ही नहीं कर पा रही थी। उसके बाद मानिक की चिट्ठी से विस्तारपूर्वक सब कुछ जान सकी थी। लिखा था, ‘सोच रहा था कल ही लिखूँगा। लेकिन घूमते-घूमते रात के साढ़े तीन बज गये। दस बजे पुरुस्कार समारोह हुआ। उसके बाद रेने क्लेयर की एक फि़ल्म दिखायी गयी। यहाँ के सबसे बड़े होटल एक्सनों में उत्सव समिति की ओर से एक विराट पार्टी दी गयी। वहाँ पर एक घण्टा तो सभी से हैण्डशेक करने में ही लग लया। अभी भी घटना पर ठीक से विश्वास नहीं हो पा रहा था। कल शाम तक तो कुछ समझा ही नहीं जा सकता था। जिन चार फि़ल्मों में असली प्रतियोगिता थी, उनमें जिनेमन (ए हेटफुल आॅफ़ रेन) और कुरोसावा की फि़ल्में ही सचमुच में अच्छी थीं,-- फिर भी यह निश्चय था कि एक इटेलियन फि़ल्म को तो पुरुस्कार ये लोग देंगे ही, इसलिए मैंने तो एकदम आशा छोड़ ही दी थी। हालाँकि इटली के फि़ल्म समीक्षक अखबारों में ‘अपराजितो’ की हिमायत कर रहे थे। मैं सोच रहा था कि समारोह पुरुस्कार के अलावा भी अन्य तीन पुरुस्कार हैं (इण्टरनेशनल क्रिटिक्स एवार्ड, सिनेमा न्यूवो एवार्ड और कैथोलिक एवार्ड) उनमें से एक-न-एक तो ‘अपराजितो’ को मिल ही जाएगा। रात सात बजे इतालवी रेडियो की तरफ से एक व्यक्ति होटल में मुझसे भेंट करने आया, वह मुझे बड़े विश्वास से बता गया कि उन्हें खबर मिली है कि ‘अपराजितो’ को ग्राँ प्रि (प्रथम पुरस्कार) मिला है। उसके ठीक आध्ो घण्टे बाद और भी दो अपरिचित लोग होटल में आकर मुझे बध्ााई दे गये।
‘सिनेमा पैलेस में पहुँचते ही तालियों की गड़गड़ाहट और तस्वीरें लेने की ध्ाूम देखकर समझ गया कि खबर सत्य थी। दस बजकर पन्द्रह मिनिट पर पुरुस्कार की घोषणा की गयी। अन्यान्य बार किसी न किसी कोने से अपरिहार्य रूप से आलोचना की गुनगुन सुना करता था लेकिन इस बार असहमति की वैसी भनभनाहट बिलकुल नहीं हुई। विसकान्ती को द्वितीय पुरुस्कार मिला। वे पहले खूब तरक्की पसन्द थे किन्तु उनकी नयी फि़ल्म देखने से पता चल रहा था कि वे दक्षिण पन्थ की तरफ झुक गये हैं और उन्होंने समझौता कर लिया है। अभिनेत्रियों में रूसी फि़ल्म की अभिनेत्री को पुरस्कार मिला और अभिनेताओं में नये अभिनेता एण्टोनी फ्रान्सियोसा को पुरुस्कार मिला, ‘ए हेटफ़ुल आॅफ़ रेन’ फि़ल्म में उसने अद्भुत अभिनय किया है। फिर भी सब लोगों का विचार था कि ‘अपराजितो’ को यदि मुख्य पुरुस्कार न मिलता तो नायिकाओं में करुणा को ज़रूर मिलता। करुणा की बेहद ख्याति हुई। (कई अख़बारों ने लिखा है मेरी फि़ल्म का नाम ‘अनवेंक्विस्ड’ न होकर ‘द मदर’ होना चाहिए था।) बाकी तीन पुरुस्कार रात के खाने के वक़्त घोषित किये गये, क्या तुम्हें इस पर विश्वास होगा? तीन पुरस्कारों मेेें दो अकेले ‘अपराजितो’ को मिले! इण्टरनेशनल क्रिटिक्स एवार्ड और सिनेमा न्यूवो एवार्ड दोनों। इस समारोह के इतिहास में पहली बार एक ही फि़ल्म को ग्रेण्ड प्राइज़ और क्रिटिक्स एवार्ड दोनों एक साथ मिले। अन्यान्य फि़ल्में इस तरह अस्वीकृत हो गयी थीं कि इसके अलावा और कोई गति थी ही नहीं। सिनेमा न्यूवो इटली का सबसे बड़ा और बढि़या फि़ल्म जर्नल, इसके एडिटर एरिस्टर को इटली का श्रेष्ठ फि़ल्म समीक्षक बताया जाता है। इस पुरुस्कार का मूल्य भी कम नहीं है। मैं एक अजीब से अपराध्ाबोध्ा और हताशा का अनुभव कर रहा था। हालाँकि इस बार विदेशी फि़ल्मों को देखकर ठीक यही महसूस हो रहा था कि ‘अपराजितो’ निहायत बेकार फि़ल्म तो नहीं है। खैर जो भी हो बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने वाला था, अपराजितो के साथ भी कुछ वैसी ही घटना हुई है। और अब मैं इसका तीसरा भाग बनाने के लिए वचनबद्ध हूँ। इन लोगों ने अख़बारों, पत्रिकाओं एवं रेडियो में यह घोषित कर दिया है कि इस फि़ल्म का तीसरा भाग बनाया जाएगा। वेनिसवासियों को आशा है कि दो वर्ष में वे इसका तीसरा हिस्सा ज़रूर देखेंगे।
इसके बाद चिट्ठी में लिखा था कि पेरिस और लण्दन होते हुए वे वापस आ जाएँगे। क्योंकि दोनों दूतावासों में उनके सम्मान में फि़ल्म दिखायी जाएगी और पार्टी दी जा रही है। इन कार्यक्रमों को समाप्त कर वे उन्नीस तारीख को कलकत्ता के लिए चल पड़ेंगे। उसके बाद लिखते हैं, ‘बाबू का जन्मदिन कैसा रहा? उसकी बहुत याद आ रही थी। लगता है उसी के कारण मेरा भाग्योदय हुआ। लोटी आईजनार बार-बार कह रहा था, ‘मेरी यह कामना थी कि आपकी पत्नी और आपका छोटा बच्चा यहाँ होते!’ मैंने जवाब दिया, ‘वे अगली बार ज़रूर यहाँ होंगे।’ जब मैंने उन्हें बताया कि मेरे बेटे का आज जन्म दिन है, तब उन्होंने उस ख़बर को चारों तरफ फैला दिया।
चिट्ठी पढ़कर सभी लोग आनन्द से विभोर हो गये थे। वे ऐसे ही तौर-तरीके के व्यक्ति थे कि पुरुस्कार पाकर उन्हें थोड़ा अपराध्ा और हताशा महसूस हुए, और ‘यह फि़ल्म निहायत खराब नहीं है, किन्तु इतने पुस्कार पाने योग्य भी नहीं है।’ इस प्रकार का मनोभाव उन्हीं को हो सकता थे। किसी भी मामले को अतिवादी या बढ़ाचढ़ाकर प्रस्तुत करने का भाव उनमें नहीं था। वे सहज, सरल मनुष्य थे।
जिस दिन लौटे, उस दिन आत्मीय स्वजन, नाते-रिश्तेदार, बन्ध्ाु-बान्ध्ाव, यूनिट का पूरा दल, इसके अलावा भी अवाई अड्डे पर जनसैलाब उमड़ा पड़ रहा था। एक दो मंजि़ली बड़ी बस भाड़े पर करके आत्मीय जनों के साथ मैं, माँ, बाबू और यूनिट के लोग उनको लेने गये थे। उज्ज्वल अपने ‘आनन्द मेला’ का दल लेकर गया था। हवाई अड्डे पर फि़ल्म समीक्षक, अखबार के लोग, कैमरामेन लोगों की भीड़ देखकर मैं भौचक्की रह गयी थी।
हवाई अड्डे पर जहाँ जहाज़ आकर रुकता है, वहाँ कुछ विशेष लोगों के अलावा अन्य लोगों को जाने नहीं दिया जाता। मैं, माँ, बाबू, करुणा, पिंकी और स्मरण के अलावा, उनकी यूनिट के लोग और उज्ज्वल और उनके ‘आनन्द मेला’ के बच्चों को छोड़कर वहाँ पर और कोई नहीं था।
हमारी प्रतीक्षा का अवज्ञान करता हुआ जब जहाज़ उतरा, उसमें सीढि़याँ लग जाने के बाद हम लोग उसे चारों ओर से घेरकर खड़े हो गये। दरवाज़ा खुलने के बाद एक-के-बाद एक यात्री बाहर आने लगे। ठीक कितने लोगों के बाद वे निकले यह न बता सकूँगी, लेकिन जैसे ही निकले, सामने ही इतने परिचित मुखों को देखकर सबसे पहले अचरज से अपनी लम्बी जीभ काट ली, यह मुझे साफ़-साफ़ याद है। एक तरह का अप्रस्तुत का भाव था और क्या! उतरते ही माँ की गोद से बाबू को अपनी गोद में ले लिया। उसके बाद अपना हाथ मेरी तरफ बढ़ा दिया।
मेरी आँखों में बहुत जल्दी आँसू आ जाते हैं। मैं उन्हें सँभाल नहीं पाती। उनके हाथ को अपने गाल से सटाकर आँचल के छोर से आँखें पांैछ डालीं। माँ को प्रणाम करने के लिए झुकने के पहले ही उन्होंने हाथ बढ़ाकर सिर पर हाथ रख आशीर्वाद दिया। मेरे स्वामी प्रणाम में विश्वास ही नहीं करते थे। स्वयं भी नहीं करते थे और दूसरों को भी नहीं करने देते थे। इस बार गहरे आवेग के क्षण में माँ के सामने अपने आप सिर झुक गया था। किन्तु, छलछलायी आँखों से माँ ने उन्हें रोका। मुझे कैसा आनन्द आ रहा था, उसे समझा जा सकता है। इसके बाद भी उन्हें असंख्य पुरस्कार मिले। लेकिन उनके मन की शक्ति आश्चर्यजनक थी। अहंकार नाम की कोई चीज़ उनमें थी ही नहीं। पुरस्कार मिलने पर खुश ज़रूर होते थे, किन्तु जहाँ पुरस्कार मिलना चाहिए था, वहाँ न मिलने पर कभी कोई दुःख व्यक्त नहीं किया। जिस-तिस को पकड़कर जुगाड़ भिड़ाने से उन्हें अत्यन्त घृणा थी, अन्तिम दस वर्षों में राष्ट्रीय पुरस्कार के लिए फि़ल्म भेजने पर घोर आपत्ति करते थे किन्तु निर्माता उनकी बात क्यों मानेगा? फि़ल्म उनकी निजी सम्पत्ति तो है नहीं। ‘अपराजितो’ की शूटिंग के वक़्त काशी के घाट पर गिर गये थे। उसके कारण तीन-चार मास बिस्तर पर पड़े रहना पड़ा था। उसी वक़्त शुरू हुआ था कहानियाँ पढ़ने का दौर। ‘जलसाघर’ पसन्द आ गयी, उसकी शूटिंग के दौरान वेनिस जाना पड़ा। लौटकर पूरे दमखम के साथ उसकी शूटिंग पुनः आरम्भ हो गयी।
छबि विश्वास की उन दिनों बड़ी पूछ थी। जमींदार विश्वम्भर राय की भूमिका में और किसी के बारे में सोचा ही नहीं जा सकता था।
...‘जलसाघर’ की शूटिंग पुनः प्रारम्भ हो गयी। बड़ा सुन्दर लोकेशन मिल गया था। नियतिता के जमींदार राय चैध्ारी लोगों का भवन। वे लोग बड़े अच्छे स्वभाव के थे। उन लोगों से हमारा आज भी बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध्ा है। सबसे अचरज भरी बात यह थी कि उनके ही एक पूर्व पुरूष ज़मींदार को लेकर ताराशंकर ने विश्वम्भर राय के चरित्र की रचना की थी। यह खबर भी हमें उन्हीं से पता चली थी।
दुमंजिला विशाल ज़मींदार भवन। बहुत बड़े लम्बे-चैड़े बरामदे में बैठने पर ऐसा प्रतीत होता था जैसे किसी जहाज में बैठे हुए हैं। सामने अथाह और शान्त गंगा नदी थी, जो थोड़ी दूर जाकर पùा में मिल जाती थी। उस पार था पूर्वी बंगाल। बाबू के कारण इस बार भी मेरा जाना न हो सका। उसका स्कूल खुला हुआ था, इसलिए कैसे जाती? इस बार भी माँ ही मानिक के साथ गयी हुई थीं। मानिक अपने में इतने खोये रहने वाले व्यक्ति थे कि सदा दूसरे पर आश्रित रहने के कारण उन्हें कहीं भी अकेला छोड़ना सम्भव नहीं था। विदेश तो अक्सर ही जाना पड़ता था। विदेश जाते वक़्त मैं उनकी दवाएँ आदि इतनी सावध्ाानी से रख देती थी जिससे दवा खाने में किसी तरह की भूल न हो। अध्ािक दिनों के लिए तो जाते नहीं थे, यही एक सुविध्ाा थी। अपने कपड़े ध्ाोने-ध्ााने में भी एकदम अज्ञानी थे। इस कारण पर्याप्त कपड़े रखने पड़ते थे। ज़रूरत पड़ने पर होटल की लाँड्री में देते थे। जेब खर्च जो भी मिलता था, उसी से काम चला लेते थे।
दुनियादारी के कामों में मेरे वे कितने अध्ािक अज्ञानी थे, यह बात लिखकर समझाना बहुत कठिन है। दुनियादारी या परिवार के किसी भी काम में कभी भी उन्होेंने अपना दिमाग नहीं लगाया, न किसी तरह की झंझट में अपने को फँसाया, न हस्तक्षेप किया। फिर, जब मैं अथवा माँ हैं तो उन्हें उन झंझटों में फँसने ही क्यों देंगे? वे अपना काम लेकर ही मग्न रहे, यही अच्छा।
घर के काम-काज में वे कितने अनाड़ी थे, इसे दो-एक उदाहरणों से ही समझा जा सकता है।
हमारे पलंग के दोनों तरफ टेबिल के ऊपर दो टेबिल लैम्प रखे रहते थे। वे लेटे-लेटे पढ़ रहे हैं। सहसा बल्ब फ़्यूज हो गया। वे कहने लगे, ‘अरे, बल्ब तो बुझ गया, अब क्या होगा?’ मैं तुरन्त अलमारी खोलकर नया बल्ब निकाल लाती हूँ। उनकी टेबिल के पास खड़े होते ही वे पूछने लगे, ‘अब क्या करोगी?’
‘नया बल्ब लगा दूँगी।’
अस्थिर होकर कहने लगते, ‘ना, ना, तुम मत लगाओ, शाॅक-वाॅक लग जाएगा। उन लोगों को बुला लो।’
उन लोगों अर्थात् नौकरों में से किसी को।
मैं स्विच बन्द कर देती। फिर बल्ब लगाकर उसे जला देती और कहती, ‘हो गया?’
सुनकर अचम्भित होकर कहते, ‘अरे, ये सब काम तुमने कब सीख लिये?’
‘इसमें सीखने का क्या है, होल्डर में बल्ब घुसाकर पेंच से कसने से हो गया।’
जितनी बार बल्ब चला जाता, उतनी बार मेरे बल्ब लगाते ही वही एक बात कहा करते थे, ‘उन लोगों को बुला लो।’
कमरे में एअर कण्डीशनर में कभी हाथ नहीं लगाते थे। विश्राम करने कमरे में आते ही देखते कि मैं किसी कारण से कमरे में नहीं हूँ, चिल्लाकर कह उठते ‘सुन रही हो? ए.सी. तो चला कर जाओ।’ मैं कमरे में आकर ए.सी. चालू कर दरवाज़ा बन्द कर देती। ऐसे थे मेरे स्वामी।
‘जलसाघर’ बनाते-बनाते छबि विश्वास को सहसा बुलावा आ गया बर्लिन जाने के लिए। बर्लिन में उनकी ‘काबुलीवाला’ फि़ल्म दिखायी जा रही थी। वे कभी विदेश गये नहीं थे। इसीलिए उनकी जाने की प्रबल इच्छा थी। वे अपनी इच्छा को दबा नहीं पा रहे थे। एक बार जब विदेश जा रहे हैं तो बर्लिन के अलावा यूरोप के अन्य स्थानों को भी देख आएँगे, उन्होंने यही निश्चय कर रखा था। क्योंकि हो सकता है, फिर कभी बाहर जाने का अवसर मिले न मिले?
काफ़ी परेशानी होते हुए भी मानिक ‘न’ नहीं कर सके। उन्हें जाने दिया गया। लेकिन क्या छबि बाबू के वापस आने तक वे चुप-चाप बैठे रहेंगे? यह तो हो नहीं सकता था। अनेक किस्म की फि़ल्म बनाने की उनकी इच्छा बराबर होती रहती थी। इसीलिए अन्दाज़ है उन्होंने एक कामेडी फि़ल्म बनाने का निश्चय किया। कामेडी कभी तो बनायी नहीं थी। पास में अभिनेता भी मौजूद थे। उनके बारे में विचार कर उनके चरित्र के अनुसार कहानी चुननी पड़ेगी।
अभिनेता और कोई दूसरा नहीं था, तुलसी चक्रवर्ती थे। मानिक उनके बड़े भक्त थे। उनके बारे में कहा करते थे- ‘इतने उच्च स्तर का अभिनेता हमारे देश में विद्यमान है। उसके द्वारा छोटे-छोटे चुटकी भर चरित्रों का अभिनय करा लिया जाता है, यह कितना विडम्बनापूर्ण और आघात करने वाला है, इसे मैं बड़ी गहरायी से महसूस करता हूँ।’ ‘पथेर पांचाली’ में वही पसरट की छोटी-सी दुकान और गुरू महाशय का किरदार निभाने के बाद से ही तुलसी चक्रवर्ती के सम्बन्ध्ा में उन्होंने विचार करना प्रारम्भ कर दिया था।
अब मानिक को अवसर मिल गया। कुछ दिनों में ही उन्होंने एक उपयुक्त कहानी खोज निकाली, परशुराम लिखित ‘परशपाथर’। तुलसी बाबू को बुलाकर जब उन्हें इस कहानी के सम्बन्ध्ा में बताया गया, तब उनके मुँह से प्रारम्भ में तो कोई बात ही नहीं निकली। उसके बाद दोनों हाथ जोड़कर अश्रुसिक्त कण्ठ से बोले, ‘आपकी फि़ल्म में मुख्य भूमिका में कभी अभिनय करूँगा, इसकी मैंने किसी भी दिन कल्पना नहीं की थी। जिस दिन वह फि़ल्म खत्म हुई, मानिक के सामने फिर हाथ जोेड़ कर खड़े हो गये और कहने लगे, ‘इसके बाद अगर मैं मर भी जाता हूँ, तो मेरे दिल में कोई क्षोभ अथवा दुःख नहीं रहेगा।’
कैसा असाध्ाारण अभिनय किया था उन्होंने ‘परशपाथर’ में। लेकिन मैं थोड़ी दुविध्ाा में थी। कहा था, ‘ऐसी पूरी की पूरी काॅमेडी हमारे देश की जनता स्वीकार कर लेगी?’
इस पर मानिक की प्रतिक्रिया थी, ‘फि़ल्म बनाकर देखी जाए न, जनता स्वीकार करती है या नहीं।’
मेरा बेटा उसी वक़्त साउथ प्वाइण्ट में भर्ती हुआ ही था। मैं और मानिक दोनों ही उसे भर्ती करने गये थे। काफ़ी सहजता से सारा काम हो गया। मुझे सिर्फ़ यही डर था कि कहीं उसकी कक्षा के बच्चे उसकी हँसी न उड़ायें। क्लास टीचर इन्द्राणी को जब अपनी चिन्ता बतायी तो उसने हँसते हुए कहा, ‘अरे, कोई डर नहीं है मंकू दीदी। उसी की तरह हकलाने वाले दो-तीन छात्र और भी हैं, उस कक्षा में फिर हम लोग बड़ी कड़ी नज़र रखते हैं, जिससे दूसरे छात्र उनका मज़ाक न उड़ा सकें।’ उसकी बात सुनकर मैं निश्चिन्त हो गयी।
‘परशपाथर’ के प्रोड्यूसर थे प्रमोद लाहिड़ी। बड़े भद्र और सज्जन पुरूष। उन दिनों मैं बाबू के स्कूल की छुट्टी होते ही उसे लेकर शूटिंग देखने जाती थी। उसको कितना उत्साह था। वह फि़ल्म निर्माता ही बनेगा, इस विषय में हमारे मन में कोई सन्देह नहीं था। घर लौटते ही दादा भाई और नानी माँ को शूटिंग का पूरा विवरण देने के अलावा भी खासकर काॅकटेल पार्टी के गाने की हूबहू नकल उतारकर दिखाता था।
मेरी माँ तभी से मेरे साथ ही रह रही थी। मँझली दीदी, बड़ी दीदी बाॅम्बे में थीं, किन्तु माँ को मैं अपने साथ लायी थी। हम चार बहनें थीं। हमारे कोई भाई नहीं था। माँ को रखने की सामथ्र्य एकमात्र मुझमें ही थी। मँझली दीदी ने ज़रूर काफ़ी दिनों तक इस दायित्व का पालन किया था किन्तु, उन लोगों का थियेटर उन दिनों बहुत अच्छा नहीं चल रहा था। थोड़ी ढ़ीलीढ़ाली हालत थी। इसीलिए माँ को अपने पास लाकर रखना ही मुझे बहुत निरापद लगा था।
मानिक अब पूरे अर्थों में फि़ल्मकार हो गये थे। उन्होंने नौकरी छोड़ दी थी। उस वक़्त सस्ते के जमाने में परिवार चलाने में कोई असुविध्ाा तो थी नही। ‘पथेर पांचाली’ बनाते समय हम लोगों को पैसों का जो अभाव भोगना पड़ा था, सुखद बात यह है कि वैसी स्थिति में फिर हमें कभी नहीं रहना पड़ा।
‘परशपाथर’ समाप्त हो गयी और दर्शकों के लिए जारी कर दी गयी। पहले कुछ सप्ताहों में भारी भीड़ एवं जनता का उत्साह देखकर लगा था कि फि़ल्म को लोगों ने पसन्द कर लिया है। किन्तु आखिर में यह देखने में आया कि तुलसी बाबू के असामान्य अभिनय के होते हुए भी फि़ल्म में सिर्फ़ कामेडी को ही ग्रहण करने में हमारे देश के लोग अक्षम हैं। फि़ल्म इतनी अच्छी होते हुए भी, जब छह सप्ताह के बाद ही उठ गयी, तब मानिक विशेष चिन्ता में पड़ गये थे।
इसके बाद छबि विश्वास के लौट आने पर नये उत्साह के साथ ‘जलसाघर’ की शूटिंग फिर शूरू हो गयी। सोचा देश के लोगों को जब गाना-बजाना इतना अच्छा लगता है-यह सब ‘जलसाघर’ में काफ़ी मात्रा में था, इसलिए इस फि़ल्म को लोग ज़रूर अपना लेंगे।
फि़ल्म समाप्त होने के बाद उसे रिलीज कर दिया गया। पहले की तरह ही इस बार भी शुरूआत में भीड़ उमड़ी पड़ रही थी, बाद में यह समझ में आया कि लोग सिर्फ़ शास्त्रीय नाच-गाने से सन्तुष्ट नहीं होते हैं। छबि विश्वास के अपूर्व अभिनय एवं इतनी लोकप्रियता के बाद भी यह फि़ल्म भी छह सप्ताह से अध्ािक नहीं चली।
इस बार वे सचमुच चिन्ता में पड़ गये। एक-के-बाद एक तीनों असाध्ाारण फि़ल्में, लेकिन जनता ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। बाद में ज़रूर उनकी सभी फि़ल्में विदेश में इतनी अच्छी तरह से चलीं कि निर्माता को तो नुकसान हुआ ही नहीं, उन लोगों को भी खूब फ़ायदा हुआ था।
इस बार एकाएक याद आ गया कि जिस वक़्त ‘अपराजितो’ दिल्ली में जवाहर लाल नेहरू को दिखायी गयी थी उस वक़्त उन्होंने मुग्ध्ा होकर पूछा था, ‘व्हाट हेपेन्स टू अपू नाउ’? इसके अलावा वेनिस में जब संवाददाताओं ने प्रश्न किया था, ‘पथेर पांचाली’ और ‘अपराजितो’ के बाद उनकी ‘अपू’ को लेकर क्या फि़ल्मत्रयी बनाने की इच्छा है? इस पर उन्होंने बिना किसी दुविध्ाा के ‘हाँ’ कहा था। क्यों? पूछे जाने पर उत्तर किया था, ‘सभी आशा लगाये हुए हैं इसलिए मैंने भी ‘हाँ’ कर दी थी।’ वही बात याद दिलाने पर पुनः ‘अपराजितो’ उपन्यास पढ़ना शुरू कर दिया एवं बड़ी सहजता से उनकी फि़ल्मत्रयी बनाने की चिन्ता का भी समाध्ाान हो गया था। बोले, ‘इसमें इतनी चमत्कृत करने वाली कहानी विद्यमान है, पर पता नहीं मैंने पहले क्यों नहीं सोचा। इसका एकमात्र कारण ‘अपराजितो’ फि़ल्म का खूब न चलना था, इसलिए ‘अपू’ को लेकर फिर मैंने अध्ािक चिन्ता नहीं की। पर, अब मैं उस पर एक और फि़ल्म बनाने का विचार करूँगा।
पात्रों का चयन शुरू हो गया। ‘अपराजितो’ फि़ल्म बनाते समय उनके एक सहकारी निर्देशक निमाई दत्त सबसे पहले सौमित्र (चटर्जी) को लेकर आये थे। ‘अपराजितो’ के अपू की दृष्टि से सौमित्र की उम्र कुछ अध्ािक होने के कारण वे उसे नहीं ले सके थे। अब की बार तो सबसे पहले उन्हें सौमित्र की याद हो आयी, ‘अपू का संसार’ के अपू को पाने में उन्हें कोई असुविध्ाा नहीं हुई। सौमित्र की उस वक़्त यही कोई बाईस-तेईस वर्ष की उम्र होगी। दूसरे पात्रों को खोजने में कोई अध्ािक देरी नहीं हुई। मुश्किल का सामना करना पड़ा ‘अपर्णा’ को लेकर। कोई भी अन्य लड़की उन्हें पसन्द ही नहीं आयी।
कानों में बात आयी ‘काबुलीवाल’ की टिंकू की बड़ी बहन रिंकू अर्थात् शर्मिला अगर हो तो काम बन सकता है। किसने यह प्रस्ताव रखा था, इस वक़्त याद नहीं।
इरा और गीतीन्द्रनाथ ठाकुर के साथ हमारा पहले से ही परिचय था। टिंकू के ‘काबुलीवाला’ में अभिनय करने पर जब उन्होंने कोई आपत्ति नहीं की, तब अन्य लड़की के अभिनय पर उन्हें अवश्य कोई एतराज़ नहीं होगा।
उन्होंने फ़ोन से सम्पर्क किया। वे लोग बड़ी सरलता से रिंकू को लेकर आने के लिए राज़ी हो गये। हम लोग उस वक़्त भी लेक एवेन्यू वाले घर में रह रहे थे। ‘अपू का संसार’ समाप्त होने के बाद हम लोग 1959 ईसवी में टेम्पल रोड वाले घर में चले आयेे हैं।
जैसी बात हुई थी इरा और गीति ठाकुर शर्मीला को लेकर आये। हम लोगों ने बैठक वाले कमरे में उन्हें बैठाया। रिंकू को देखकर शुरू में तो मैं निराश ही हो गयी थी। उस वक़्त उसकी बारह वर्ष की उम्र थी। फ्राॅक पहने गौर वर्ण की लड़की। कन्ध्ो तक घने घुँघराले केशों की राशि और पूरी तरह एक शहरी लड़की का चेहरा। यह कैसे एक ग्रामीण बाला के रूप में फबेगी?
पर, उन्होंने उसे एक झलक में ही अपनी फि़ल्म के लिए निश्चित कर लिया था। मेरी ओर देखते ही वे समझ गये कि मुझे वह अध्ािक पसन्द नहीं आ रही है। बोले, ‘उसे बेडरूम में ले जाओ।’ खूब कस कर उसके बाल बाँध्ाकर कन्ध्ो तक लटकता हुआ एक जूड़ा बना देना। और हाँ, तुम्हारे पास डोरिया की एक साड़ी नहीं है? ‘उस साड़ी को बंगाली तरीके से पहनाकर, माथे पर सिन्दूर की एक बिन्दी लगा देना, थोड़ा घूँघट निकालकर उसे मेरे पास ले आओ।’
उन्होंने जो जो कहा, मैंने वही किया। उसके बाल तो पहले से ही कन्ध्ो तक थे इसलिए कसकर जूड़ा बनाने में कोई असुविध्ाा नहीं हुई। बंगाली साड़ी पहना कर, माथे पर सिन्दूर की काफ़ी बड़ी बिन्दी लगायी फिर पता नहीं क्यों दिल में एक विचार उठा, उसके अनुसार अपनी आईब्रो पेंसिल से आँखों के नीचे काजल-सा लगा दिया। देखते-ही-देखते शहर की शर्मिला गाँव की अपर्णा में परिणत हो गयी। उसकी दोनों आँखें वैसे ही काफ़ी अपूर्व हैं, उसके ओठों के कोनों पर एक मध्ाुर, सलज्ज हँसी भी खेल रही थी। उसका वेश बदलने के साथ-ही-साथ उसके इस आश्चर्यजनक परिवर्तन पर मुझे विश्वास ही नहीं हो रहा था। इसके अलावा वह जब हँसती थी तो उसके दोनों गालों में गड्ढे पड़ जाते थे।
उसे सजाकर बैठने के कमरेे मे ले आयी। मानिक शर्मीला को इस वेश में देखते ही अपनी खुशी दबाकर नहीं रख सके। मेरी तरफ देखते हुए जैसे मौन भाषा में ही कह रहे हों, ‘देखो मैंने पहले ही बता दिया था ना?’
तत्काल सारी बातें पक्की हो गयीं। लेकिन उन्होंने शर्मीला की सम्मति भी ली। बोले, ‘क्यों, तुम्हें खुद कोई एतराज़ तो नहीं है? अगर हो तो मैं तुम पर कोई ज़ोर नहीं डालूँगा।’ गाँव की अपर्णा ने थोड़ा शरमाकर हँसते हुए, अपनी सहमति दे दी।
उन्होंने उसे हमारे बैडरूम के सामने वाले बरामदे में बैठाकर उसकी एक तस्वीर उतार ली। वही तस्वीर अगले दिन ‘सिने एडवान्स’ के पहले पृष्ठ पर बड़े आकार में छापी गयी। तस्वीर बड़ी अपूर्व खिंची थी। अब शूटिंग की जोड़तोड़ शुरू हुईं
इस शूटिंग के दौरान मैं प्रायः रोज़ ही शूटिंग में रहती थी। अपर्णा को सजाने का भार मेेरे ऊपर था। इरा भी रहती थी। इसलिए बड़ी अच्छी तरह से समय बीत जाता था।
उस छोटी-सी लड़की ने किस तरह अपने शहरी अस्तित्व को भूलकर अपने को गाँव की अपर्णा मान लिया था, इसे हम सभी स्तम्भित होकर देखते थे।
अपू के साथ उसके विवाह के दिन बड़ी सुन्दरता से उन दिनों की रीति के अनुसार लाल फीता और जरी से उसकी वेणी को गूँथकर बाँध्ा दिया था। चन्दन लगाने में तो मेरा हाथ बहुत मँजा हुआ था। मैं अनेक तरह से चन्दन लगा सकती थी। लेकिन मानिक का कहना था कि उस जमाने में वध्ाू को चन्दन बड़े सादे तरीके से लगाया जाता था। इसलिए मुझे उसमें विशेष कलाकारी नहीं दिखानी है। इसके अलावा फि़ल्म में तो यह दिखाया जा रहा है कि उसकी माँ शेफ़ाली देवी उसे चन्दन से सजा रही हैं, पहले के ज़माने में जैसे लौंग से चन्दन लगाया जाता था। इसलिए उस यात्रा में मुझे फिर चन्दन नहीं लगाना पड़ा। विवाह करने के बाद अपू और अपर्णा जब घर में प्रवेश करते हैं, अपर्णा विवाह की साज-सज्जा में ही है, उस वक़्त उसे मुझे ही चन्दन लगाना पड़ा था। इन सब छोटी-छोटी बातों में मानिक की दृष्टि बड़ी आश्चर्यजनक थी। शर्मिला से बाबू की बड़ी घनिष्ठता हो गयी थी। शर्मिला ने ही उसे सिखा दिया था कि उसे रिंकूदी न कहकर ‘बन्ध्ाू’ कहकर बुलाये। उसके बाद से ही दोनों एक-दूसरे को बन्ध्ाू कहकर ही पुकारते थे। शूटिंग का कुछ भाग घर में ही सम्पन्न हुआ था। अपू का छत वाला कमरा वंशी ने बना दिया था। वे बराबर ड्राईंग रूम के फ़र्श पर बैठकर ड्राईंग पेपर फैलाकर कैसा और कितना बड़ा कमरा होगा, उसमें सामान आदि कैसे रखा जाएगा, इसका विवरण बड़े साफ़-साफ़ तरीके से समझा देते थे, कला निर्देशक का काम इसीलिए बड़ा सुविध्ाापूर्ण हो जाता था। कैमरामैन की बारी आने पर उसे भी इसी तरह हर चीज़ व्यावहारिक रूप से समझा देते थे। हर शाॅट के हाशिये पर एक छोटा-सा चित्र बना रहता था, किस कोण पर कैमरा लगाया जाएगा एवं प्रकाश का प्रवाह किस दिशा से आएगा। इस विवरण से कैमरामैन का काम भी सहज हो जाता था। ‘पथेर पांचाली’ से लेकर ‘आगन्तुक’ तक उनका एक ही नियम चला आया था।
अपर्णा को अपू अपने ईंटों से बने कमरे में लेकर आ रहा है, जीने से ऊपर चढ़ रहा है, छत पर पहुँचकर चाबी से कमरा खोलकर उसमें घुसने के पूर्व वाले क्षण तक ईंटों के घर का ही दृश्य रहता है, कमरे में घुसते ही वह स्टूडियों के कमरे में बदल जाता है। यह अन्तर किसी की नज़र में नहीं आ पाता है। बड़ी सुन्दर तकनीक से ईंटों और स्टूडियों के दोनों कमरे आपस में घुल-मिल जाते हैं।
4 अपै्रल, 2018 को निर्मल वर्मा के जन्मदिन के अवसर पर दिल्ली के गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान में ख़ालिद जावेद और उदयन वाजपेयी के निर्मल जी की कहानियों और उपन्यासों पर व्याख्यान हुए थे। प्रस्तुत निबन्ध इन लेखकों के व्याख्यानों का सं’ाोधित और परिमार्जित रूप हैं।