26-Oct-2020 12:00 AM
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तगर
तुम मेरी चाहत का खनिज
उसी से गढ़ लिये जा सकते हैं
स्नेह के अनेक सुघड़ पात्र
हाँफ़ता हुआ पुरुष-अश्व
प्रेम के एक घूँट पानी के लिए
कच्ची खदान
तुम्हारा तेजस्वी मन
घोड़ा दौड़ाकर जाने की वासना
तमाम पुरुष अश्वारोहियों की
तगर की पंखुडि़याँ एक एक कर गिरती है
रिक्त तगर पेड़
इस तगर के घुमक्कड़ फूल
दिल से होकर गुज़र जाते हैं
तुम्हारी चाहत के लिए तलबगार
पलकों के नीचे से चले जाते हैं
तगर तुम मेरी चाहत का खनिज हो
कई जन्मों तक चाहा तुम्हें
बीसवीं सदी में चाहा था तुम्हें
इक्कीसवीं सदी में भी तुम मेरी चाहत का खनिज
’तगर-असमिया के उपन्यासकार डाॅ. बिरंचि कुमार बरुवा के मशहूर उपन्यास ‘जीवनर बाटत’ का एक किरदार
विश्वनाथ घाट पर
गोध्ाूलि के विश्वनाथ घाट पर
प्राण को बाँध्ाकर आ गया था
नाव के एक शृंग में
नज़रों के सामने नदी किनारे से कौंध्ा रही थी
सुनहरी फसल की झलक
उषा के अटेरन का काता हुआ ध्ाागा
लहूलुहान
उसी से वक़्त कपड़ा बुनेगा नीले आकाश में
विश्वनाथ घाट के उस असीम सूनेपन को
रोक सकता है
लहूलुहान करता हुआ ध्ाागा
रक्ताक्त डाकिया
सीमावर्ती ज़मीन पर खड़ा होकर रुका
रक्ताक्त डाकिया
गगनचुम्बी मोबाइल टावर ने
सोख लिया है
अनुभूति के सारे रंगों को
लाल नीला सफ़ेद
क्षितिज की तरफ ध्ाावमान
डिजिटल अश्व
उसकी दौड़ में
फटकर क्षत विक्षत होता है
डाकिये का हृदय
नहीं
आकाश में लम्बाई के साथ बिछे हुए
नीलेपन का तलबगार
रक्ताक्त डाकिया
परित्यक्त घरों को पार कर
परित्यक्त घरों को पार कर
आगे बढ़ता रहता हूँ
निगाहें टिक जाती हैं
फूस वन पर
कच्चू वन पर
रात की ओस को भी सोख लिया है
परित्यक्त घरों ने
हथेली से होकर
गुजर गयी है
वंचना की कितनी लहरें
परित्यक्त घरों को पार कर
आगे बढ़ता रहता हूँ
फूस वन जलकर खाक हो जायेंगे
कच्चू वन में नहीं टूटेगी हँसिया
और
राह में घास
उगेगी
झिलमिलाता हुआ
पड़ोस मिलेगा
जलचित्र की तरह दमकते हुए
घर
मिलेंगे
पताका
पताका उड़ती है
अन्तर में हवा चलने पर
इतने दिन हवा
खामोश रही थी
मन के दायरे में
पताका उड़ती है
मन की डाल पत्तों के
देह की ध्ाूप की शिराओं में
मचलने पर
वंचना की आग के ध्ाुएँ ने
अपनी आँखों में ही जाल पसारा
उस आग को खदेड़ने के लिए
पताका उड़ती है
पताका उड़ती है
हृदय में
कलेजे का लहू पोतकर
फरफर आवाज़ के साथ
पताका उड़ती है