Home
About
...
SAYED HAIDER RAZA
Awards and Recognitions
Education
Exhibitions
Journey
Social Contributions
About Raza Foundation
Trustees
Raza Chair
Awardees
Artists
Authors
Fellowships
Grants Supports 2011-12
Grants Supports 2012-13
Grants-Supports-2013-14
Grants-Supports-2014-15
Press Coverage
Collaborative Programs
Events
Festival
AVIRAAM
Mahima
Raza Smriti
Raza Utsav
UTTARADHIKAR
Krishna Sobti Shivnath Nidhi
Yuva
Aaj Kavita
Aarambh
Agyeya Memorial Lecture
Andhere Mein Antahkaran
Art Dialogues
Art Matters
Charles Correa Memorial Lecture
DAYA KRISHNA MEMORIAL LECTURE
Exhibitions
Gandhi Matters
Habib Tanvir Memorial Lecture
Kelucharan Mohapatra Memorial Lecture
Kumar Gandharva Memorial Lecture
Mani Kaul Memorial Lecture
Nazdeek
Poetry Reading
Rohini Bhate Dialogues
Sangeet Poornima
V.S Gaitonde Memorial Lecture
Other Events
Every month is full of days and weeks to observe and celebrate.
Monthly Events
Upcoming Events
Video Gallery
Authenticity
Copyright
Publications
SAMAS
SWARMUDRA
AROOP
Raza Catalogue Raisonné
RAZA PUSTAK MALA
SWASTI
RAZA PUSTAKMALA REVIEWS
Supported Publication
OTHER PUBLICATIONS
Exhibition
Contact Us
पड़ोस में जाना यानी ख़ुद को समृद्ध करना - योगेश प्रताप शेखर
Yogesh Pratap Shekhar
India
09-Aug-2020 12:00 AM
11290
हमलोग अक्सर बातचीत में इस पर बहुत बल देते हैं कि भारत में बहुलता और विविधता है | यह बात बिलकुल सही है, पर हम इस का प्रयत्न कम ही करते हैं कि भारत की इस बहुलता और विविधता का एहसास हम भारतीयों को कैसे हो ? मसलन कश्मीर का नाम आते ही एक भावनात्मक आवेग के अलावा क्या हम कभी यह सोचते हैं कि हम उस के बारे में कितना जानते हैं ? वहाँ की साहित्यिक और सांस्कृतिक स्थिति का क्या हाल है ? इसी तरह महाराष्ट्र या मुंबई का मतलब व्यापार एवं फिल्म उद्योग के अतिरिक्त और भी हमारे लिए है या नहीं ? कहने का मतलब यह कि भारत की बहुलता और विविधता के एहसास के लिए यह बहुत ज़रूरी है कि विभिन्न भारतीय भाषाओं में ख़ूब आवाजाही हो | केवल रचनात्मक साहित्य ही नहीं बल्कि उन भाषाओं में लिखे गए या लिखे जा रहे वैचारिक साहित्य से भी हम परिचित हों | भारतीय साहित्य से संबंधित दो संस्थाओं, साहित्य अकादेमी और भारतीय ज्ञानपीठ ने इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया है | पर इन दोनों संस्थाओं ने भारतीय भाषाओं का जितना रचनात्मक साहित्य प्रकाशित किया है उतनी मात्रा में आलोचनात्मक या वैचारिक साहित्य नहीं छापा है | हिंदी के इस अभाव की पूर्ति करने का भी प्रयास रज़ा फाउंडेशन की रज़ा पुस्तकमाला के अंतर्गत किया गया है | इसी क्रम में मराठी के प्रसिद्ध नाटककार एवं लेखक श्याम मनोहर के साहित्य, संस्कृति और सभ्यता संबंधी चितन का एक संचयन ‘गहराइयाँ और ऊँचाइयाँ’ प्रकाशित किया गया है | मराठी से हिंदी में अनुवाद निशिकान्त ठकार ने किया है जिन्होंने अपना पूरा जीवन लगभग इसी काम में लगा दिया है |
‘गहराइयाँ और ऊँचाइयाँ’ में संकलित निबंध ज़्यादातर संक्षिप्त हैं | पर इन में लेखक श्याम मनोहर के गहरे और ऊँचे चिंतन का एहसास होता है | सूत्र शैली या संक्षिप्तता में अपनी बात कहना ठेठ भारतीय शैली रही है जो आज के अति आत्म प्रचार युग में अविश्वसनीय लग सकता है | उदाहरण के लिए एक निबंध है --- कथा – साहित्य को क्यों पढ़ें ? यह मात्र दो पृष्ठ का है | पर इस से श्याम मनोहर के उज्ज्वल चिंतन और ललित गद्य का आनंद मिलता है | यह भी लगता है कि जब अनुवाद में यह गद्य इतना ललित है तो मूल में कैसा होगा ? श्याम मनोहर लिखते हैं कि “दो दिन पहले पूर्णिमा थी | चाँदनी को देखना आनंद की बात है | हम चाँदनी का बखान करते हैं | अब ऋतु बदल हो रहा है | जाड़ा जा रहा है | धूप की आहट हो रही है | ... कथा – साहित्य में इस तरह के वर्णन होते हैं | ... कथा – साहित्य की कोशिश होती है कि कई प्रक्रियाओं में एकत्रित ज्ञान को, जानने की एक प्रक्रिया को खोजे | मनोविज्ञान, दर्शन, समाज – विज्ञान आदि में भी प्रक्रिया को जानना होता ही है | फिर कथा – साहित्य को ही क्यों पढ़ना ? मनोविज्ञान में चाँदनी नहीं होती | दर्शन में कड़ी धूप का वर्णन नहीं होता | कथा – साहित्य में सबकुछ एकसाथ होता है |” कितनी सफाई और रचनात्मकता के साथ श्याम मनोहर ने कथा – साहित्य का ज्ञान के अन्य अनुशासनों के साथ अंतर बता दिया है | फिर से इन दोनों वाक्यों, “मनोविज्ञान में चाँदनी नहीं होती | दर्शन में कड़ी धूप का वर्णन नहीं होता |” पर विचार करें तो यह स्पष्ट होता है कि मात्र ये दो वाक्य साहित्य की विशिष्टता को साहित्यिक तरीक़े से ही हमारे सामने उजागर कर देते हैं |
जब से भारत में भूमंडलीकरण का प्रकोप हुआ है तब से भारतीय भाषा का कोई भी लेखक पुस्तक – संस्कृति या पढ़ने की संस्कृति से जुड़े प्रश्नों पर विचार करने के लिए बाध्य हुआ है | एक तरफ़ इंटरनेट ने जहाँ बहुत – सी सामग्री को सुलभ किया है वहीं दूसरी ओर पढ़ने के लिए या सोचने – विचारने के लिए ज़रूरी एकांत का अपहरण भी कर लिया है | ऐसी स्थिति में पढ़ने की संस्कृति पर विचार आवश्यक है | श्याम मनोहर ने भी इस पर लिखा है | वे धर्मग्रंथ, प्रौद्योगिकी पुस्तकें और कालजयी कथा – साहित्य को पढ़े जाने की प्रक्रिया पर विचार करते हुए लिखते हैं कि “धर्मग्रन्थ पढ़ने की प्रेरणा है श्रद्धा | प्रौद्योगिकी पुस्तकें पढ़ने की प्रेरणा है उपयोगिता | कालजयी कथा – साहित्य की प्रेरणा है अस्तित्व का कुतूहल | ... आम आदमी के ज्ञान का मतलब होता है १. जो पैसा देता है, जीने के काम आता है | २. जो धर्म – ग्रन्थ में होता है | अर्थात् आध्यात्मिक ज्ञान को लेकर यही उसकी सोच है | इधर प्रकृति का ज्ञान अर्थात् विज्ञान के ज्ञान को वह स्वीकार कर रहा है | क्या वह नहीं जानता कि कालजयी का भी ज्ञान होता है और वह कालजयी कथा – साहित्य ही दे सकता है | अंग्रेज़ी कथा – साहित्य पढ़ने वाले को क्या पता नहीं है कि मराठी कथा – साहित्य यह ज्ञान दे सकता है ? कालजयी कथा – साहित्य को अकेले में सोचते हुए पढ़ने जैसा दूसरा आनन्द नहीं है | मराठी और भारतीय समाज का एकान्त का मूल्य खो गया है | क्या आम आदमी एकान्त से डरता है ?” इस उद्धरण की अंतिम दो पंक्तियों में जो बात है हमें उस पर गहराई से सोचना चाहिए | आम जीवन का अनुभव यही है कि आजकल टेलीविजन और मोबाइल में उपलब्ध इंटरनेट ने हमारे जीवन को इतना आक्रांत कर लिया है कि हम एक क्षण के लिए भी उसे परे हटाने को तैयार नहीं होते | निरंतर मोबाइल की स्क्रीन को ‘स्क्रॉल’ करते रहने की जैसे हमें लत लग गई है | हम शायद भूल रहे हैं कि मनुष्य का एकांत उसे रचनात्मक बनाता है |
श्याम मनोहर ने इस बात पर भरपूर ज़ोर दिया है कि साहित्य या कथा – साहित्य से मिलने वाला ज्ञान भी ज्ञान के अन्य अनुशासनों से मिलने वाले ज्ञान की तरह ही है | यह ग़लत धारणा समाज में बैठ गई है कि साहित्य तो कल्पना की चीज़ है और उस का ज्ञान से नहीं बल्कि आनंद से लेना – देना है, ज्ञान देने का काम दूसरे अनुशासन करते हैं | श्याम मनोहर इस बात को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि “सभ्यता इस तरह होनी चाहिए कि आदमी अपने जीवन का अर्थ खोजने के लिए आज़ादी मिले | इस नज़रिये से कलाकार, वैज्ञानिक,दार्शनिक और धर्मज्ञों को चाहिए कि वे ऐसा व्यवहार करें कि जिससे आदमी के लिए ज़रूरी आज़ादी मुहैया हो | ... क्या हर व्यक्ति खोज कर सकता है ? क्या हर व्यक्ति सृजन कर सकता है ? जो कर सकता है उसे असाधारण कहा जाता है, तो फिर साधारणों का जीना बेकार है ? साधारणों के जीवन का क्या इतना ही अर्थ है कि मात्र मतदान कर नेताओं को चुनें ? इसी से आधुनिक साहित्य का जन्म हुआ है | ... एक सिद्धांत था कि धार्मिकता से जीने पर ज्ञान होता है | और धार्मिकता के जीने में मन: शुद्धि की एक धारणा होती है | अर्थात् विकार नहीं होते | धार्मिकता से जीने की यह शर्तें कुछ हद तक तकलीफ़देह हैं | उनको सहजता से पूरा नहीं किया जाता | तो आदमी ने सोचा, जो मुझमें विकार है, दुर्गुण है तो क्या मैं कुछ ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकूँगा ? और इसी बात से मनुष्य ने विज्ञान, कला आदि ज्ञान शाखाओं का निर्माण किया | इस नज़रिये से कथा – साहित्य भी ज्ञानशाखा ही है |” इस पूरे उद्धरण में सभ्यता का उद्देश्य, ज्ञान – विज्ञान के निर्माण की प्रक्रिया, मनुष्य की कमजोरियों का उसे एहसास तथा उस से दूर करने की इच्छा और साहित्य की विशिष्टता का संकेत सूत्रात्मक ढंग से कर दिया गया है | बिना गहरे चिंतन के ऐसी उच्चता संभव ही नहीं है |
उपर्युक्त पुस्तक के एक खण्ड में सभ्यता और संस्कृति से संबंधित निबंध संकलित हैं | इन में अभिव्यक्त सूत्रों को पढ़कर हम सोचने को बाध्य होते हैं और हमारे सामने सभ्यता एवं संस्कृति की समझ का एक नया दरवाजा खुलता है | श्याम मनोहर की विशेषता यह है कि वे साधारण – सी या रोजमर्रा में होने वाली बात से शुरू करते हैं और इसी प्रकार उसे बढ़ा कर पूरे जीवन से जोड़ देते हैं | यह भी भारतीय शैली ही है | यहाँ हजारीप्रसाद द्विवेदी के निबंध ‘नाखून क्यों बढ़ते हैं ?’ को याद किया जा सकता है कि कैसे वे इस निबंध की शुरुआत में यह कहते हैं कि एक बच्ची ने उन से पूछा कि “नाखून क्यों बढ़ते हैं ?” यहाँ से वे सोचना शुरू कर पूरी मानवीय सभ्यता का एक तरह से परीक्षण कर डालते हैं | ठीक इसी तरह ‘रुचि और अभिरुचि’ शीर्षक टिप्पणी में श्याम मनोहर ने किसी को श्रीखण्ड पसंद है तो किसी को जलेबी की चर्चा करते हुए एक सूत्र दिया है कि “रुचि से अभिरुचि की ओर जाना ही संस्कृति है |” इसी प्रकार वे ‘सभ्यता के प्रश्न’ लेख में ज्ञान को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि “अनुसन्धान करना हो तो अनुसन्धान की प्रणाली निर्माण करनी पड़ती है | प्रकृति में यह प्रणाली नहीं होती | अनुसन्धान की प्रणाली ही ज्ञान है |” ज्ञान जैसे गूढ़ विषय को शायद ही किसी ने ऐसी सहजता से परिभाषित किया होगा !
श्याम मनोहर के निबंधों का यह संचयन पढ़ना हिंदी पाठकों के लिए अपने पड़ोस की भाषा का सिर्फ़ पता चलना नहीं बल्कि समृद्ध होना है | सहजता और गहराई इन निबंधों की विशेषता है | सहजता और गहराई के मेल से ही उच्चता पाई जा सकती है | इसी किताब से महान वैज्ञानिक आइंस्टाइन के बारे में यह जानने को मिलता है कि “आइंस्टाइन ने एक स्थान पर लिखा है कि किसी वैज्ञानिक की अपेक्षा डोस्टोवस्की मुझे ज़्यादा कुछ देता है | आइंस्टाइन के टेबल पर ‘डॉन क्विक्झीट’ हमेशा रहती थी |” क्या इस के बाद भी साहित्य और दूसरे अनुशासनों की हदबंदी अनिवार्य है ?
-योगेश प्रताप शेखर, सहायक प्राध्यापक, दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय
«
असाध्य को साधने की एक कोशिश: असाध्य वीणा - शंकरानंद
Raza Pustakmala Articles
»
पितृ – वध या पितृ – संवाद - योगेश प्रताप शेखर
×
© 2025 - All Rights Reserved -
The Raza Foundation
|
Hosted by SysNano Infotech
|
Version Yellow Loop 24.12.01
|
Structured Data Test
|
^
^
×
ASPX:
POST
ALIAS:
padosa-men-jana-yanee-khnuda-ko-samardadha-karana-yogesh-partap-shekhar
FZF:
FZF
URL:
https://www.therazafoundation.org/padosa-men-jana-yanee-khnuda-ko-samardadha-karana-yogesh-partap-shekhar
PAGETOP:
ERROR: