20-Oct-2020 12:00 AM
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आध्ाुनिक राष्ट्र बनने के लिए संास्कृतिक अस्मिता और ऐतिहासिक दृष्टि को खो देना न केवल आवश्यक नहीं है बल्कि एक प्रकार से किस्तों में आत्मघात है और सांस्कृतिक अस्मिता नकल से नहीं बनती, विदेशी मनोवृत्ति और मनोभाव आयातित करके भी नहीं बनती, अपनी सही पहचान से बनती हैं। सांस्कृतिक जीवन के बारे में ही यह बात सबसे अध्ािक सत्य है कि हम वही बन सकते हैं जो हम हैं। अज्ञेय
यह सोचना हतप्रभ कर देता है कि हमारी पहचान के सबसे उर्वर प्रत्यय, खुद ही संघर्ष की विद्रूप अवस्थाओं से गुज़रे हैं। यह मान ही लेना पड़ता है कि सत्ता के वर्चस्व से तनिक भी कमतर भाषिक वर्चस्व की लड़ाइयाँ नहीं होती, बल्कि भाषिक तनाव एक अर्थ में सत्ता के संघर्ष से ज़्यादा प्रभावकारी रूप में घटित होते हैं क्योंकि उनमें तर्क और विचार का आग्रह अपेक्षाकृत अध्ािक होता है। हमारा इतिहास पढ़ने का औचित्य बहुध्ाा राजनीति ही बनाती है, उसी के सापेक्ष समाज आदि की स्थिति का अमुख्य-सा वृत्तान्त बता दिया जाता है जिससे किसी तरह की गहरी बावस्तगी नहीं होती। इतिहास में हम यदि इस राजनीति आध्ाारित विश्लेषण के अलावा प्रवेश करें तो उसमें अन्य अन्तःक्रियाओं की विस्मयकारी उपस्थिति है जिसमें न केवल तार्किक व कुटिल पूर्वग्रहों का संघर्ष है बल्कि इससे भी ज़्यादा प्रचलित अवध्ाारणाओं के विरुद्ध अप्रचलित सत्य की निरुपायता का वृत्तान्त भी है।
युवा लेखक राजीव रंजन गिरि की सद्यप्रकाशित पुस्तक परस्परः भाषा-साहित्य-आन्दोलन कुछ ऐसे ही वृत्तान्तों के विश्लेषण और आलोचना की निर्मिति है। पुस्तक के कुल तीन बड़े निबन्ध्ाों में से दो का केन्द्र भाषा है और तीसरे का विषय लघु पत्रिकाएँ हैं।
हिन्दी साहित्य के आध्ाुनिक काल का आरम्भिक भाषिक द्वैत, द्विवेदी युग में गद्य-पद्य दोनों में खड़ी बोली के प्रयोग के साथ ही समाप्त होता है जिसका पूरा श्रेय बहुमान्य रूप से महावीर प्रसाद द्विवेदी को दिया जाता है। इस किताब में, अयोध्याप्रसाद खत्री द्वारा सम्पादित, 1887 में प्रकाशित ‘खड़ी बोली का पद्य(पहिला भाग), का उल्लेख करते हुए बताया गया है कि द्विवेदी जी को विरासत रूप में खत्री जी का साहित्यिक अवदान मिला। ‘खड़ी बोली का पद्य’ के प्रकाशन के साथ ही पहली बार ‘काव्यभाषा का सवाल एक महत्त्वपूर्ण मुद्दे के रूप में उभरा।’ खत्री जी ने खड़ी बोली के काव्य भाषा बनने के लिए जो आन्दोलन शुरू किया उसके नतीजन ‘स्थितियाँ ऐसी बदली कि साहित्यिक भाषा (ब्रजभाषा) बोली बन गयी और बोली (खड़ी बोली) साहित्यिक भाषा’।
इस भाषिक आन्दोलन का एक दिलचस्प पहलू यह भी रहा कि जिन लोगों ने खड़ी बोली का प्रखर विरोध्ा किया, उन्होंने स्वयं ही विरोध्ा से पहले न केवल खड़ी बोली में कविता लिखी थी बल्कि ऐसा करने के लिए कवियों को प्रेरित भी किया था। बालकृष्ण भट्ट और प्रताप नारायण मिश्र ऐसे लोगों में प्रमुख हैं।
खत्री जी ने ‘खड़ी बोली का पद्य’ की प्रतियाँ उस दौर के तमाम हिन्दी अध्येताओं को भेजीं। जाॅर्ज ग्रियर्सन ने प्राप्ति के प्रत्युत्तर में खड़ी बोली में कविता लेखन की कोशिश की असफलता की भविष्यवाणी ही कर दी। राध्ााचरण गोस्वामी खड़ी बोली के इस्तेमाल के विरोध्ाी थे और श्रीध्ार पाठक हिमायती, दोनों का विवाद भी अपने पक्ष के प्रबल तर्क की नज़ीर से उल्लेखनीय है। गोस्वामी का घोषित आक्षेप था कि जो लोग ब्रजभाषा में कविता नहीं कर सकते, वे ही खड़ी बोली के आग्रही हैं। लेखक का मानना है कि गोस्वामी का खड़ी बोली विरोध्ा ध्ाार्मिक कारणों से ही है। सरकारी नीति इस दरम्यान हिन्दी उर्दू को नज़दीक लाने की रही। काव्य में खड़ी बोली इस्तेमाल के विरोध्ाी राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द भी थे।
काव्य रचना में ब्रजभाषा के पक्षध्ार भारतेन्दु भी थे लेकिन उन्होंने खड़ी बोली में कविता की असफल कोशिश की जोकि ‘चित्तानुसार नहीं बनी’; अपने इसी निजी अनुभव को भारतेन्दु ने सार्वजनिक राय की तरह पेश किया।
अयोध्याप्रसाद खत्री के ‘खड़ी बोली का पद्य (दूसरा भाग)’ का भी विरोध्ा हुआ और उसे अस्वीकार किया गया। चूँकि उस दौर की सबसे बड़ी साहित्यिक-सांस्कृतिक शख्सियत भारतेन्दु व्यक्तिगत वजह से खड़ी बोली के विरोध्ाी थे, इसलिए उनके पीछे ही उनके मत के पक्ष में लम्बी पंक्ति लेखकों की बन पड़ी जिनमें ग्रियर्सन भी शामिल थे। खड़ी बोली के इस सार्वजनिक अस्वीकार से क्षुब्ध्ा होकर खत्री जी ने एक पैम्पलेट बँटवाया जिसकी कुछ पंक्तियाँ उल्लेखनीय हैंः ‘ब्रजभाषा कविता के पक्षपाती बाबू हरिश्चन्द्र की दुहाई देते हैं इसलिए हरिश्चन्द्र के वचन का खण्डन होना आवश्यक है। बाबू हरिश्चन्द्र ईश्वर नहीं थे। उनको शब्दशास्त्र चीपसवसवहल का कुछ भी बोध्ा नहीं था। यदि चीपसवसवहल का ज्ञान होता तो खड़ी बोली में पद्य रचना नहीं हो सकती, ऐसा नहीं कहते।’ खत्री जी में उन्नत नैतिक विवेक चेतना रही होगी जैसा कि इस किताब में उल्लेख हैः ‘इतिहास के जिस दौर में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की तूती बोलती थी, अयोध्याप्रसाद खत्री ने उनकी मान्यता का खण्डन साहसपूर्वक किया।’ हालाँकि इस बात का जि़क्र भी यहाँ स्पष्ट है कि भारतेन्दु का ‘काव्य संस्कार ब्रजभाषा से बना था’ इसलिए उन्हें खड़ीबोली से ज़्यादा आसानी ब्रजभाषा में कविता लेखन में रही। यह तो ठीक है लेकिन राजीव रंजन का यह तर्क संदिग्ध्ा लगता है कि भारतेन्दु को ‘खड़ी बोली हिन्दी में कविता रचने के ऐतिहासिक महत्त्व का पता नहीं था।’ लगता तो नहीं है कि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जैसे अध्यवसायी, कल्पनाशील, सामाजिक मसलों के प्रति जागरूक और प्रयोगशील वृत्ति के शख्स के लिए ऐसे किसी महत्त्व का पूर्वानुमान न होगा। कोई महान लेखक भविष्य में ज़्यादा प्रभावी होने वाली भाषा की सम्भावना के चलते, अपनी रचनात्मक आकांक्षा को व्यक्त करती भाषा को छोड़कर किसी भविष्यलाभ की ओर प्रवृत्त होगा, यह भी विचारणीय है।
लेखक ने ‘ब्रजभाषा बनाम खड़ी बोली’ की अपनी इस पड़ताल को साहित्येतिहास में भी टटोला है जहाँ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा भाषा को आध्ाुनिकता का मुख्य नियामक मानने के बावजूद, अयोध्याप्रसाद खत्री को वाजिब श्रेय न देने को प्रश्नांकित किया गया है। यहाँ इस बात का भी जि़क्र है कि हिन्दी-उर्दू विवाद के मुद्दे पर महात्मा गाँध्ाी द्वारा प्रस्तावित ‘हिन्दुस्तानी’ की सबसे पहले सिफ़ारिश खत्री जी ने की थी, जिन पर गौर ही नहीं किया गया। राजीव रंजन ने अपनी एक अन्य आलोचना की किताब, अथ, साहित्यः पाठ और प्रसंग में ‘अयोध्याप्रसाद खत्री का महत्त्व’ निबन्ध्ा लिखकर खत्री जी के अवदान पर व्यापक विचार भी किया है।
ब्रजभाषा बनाम खड़ी बोली विवाद और संवाद से कई गुना अध्ािक जटिल व हैरतंगेज़ मामला संविध्ाान सभा में राष्ट्रभाषा को लेकर घटित हुआ। दरअसल संविध्ाान सभा के सदस्यों को नये आजाद मुल्क के लिए जिन बातों का अनिवार्यतः निधर््ाारण करना था, उनमें भाषा का सवाल बेहद चुनौतीपूर्ण था। संविध्ाान सभा में 4 नवम्बर 1948 से शुरू हुए भाषिक संवाद-विवाद में सेठ गोविन्द दास, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, आर वी ध्ाुलेकर, और अलगूराय शास्त्री आदि सदस्यों ने ज़ोर दिया कि ‘पहले राष्ट्रभाषा तय कर ली जाए’।
चूँकि संविध्ाान सभा के चुने गए प्रतिनिध्ाियों में अध्ािकांश उच्च और मध्य वर्ग के थे और अंग्रेज़ी भाषी थे इसलिए अध्यक्ष राजेन्द्र प्रसाद का आग्रह था कि वे अंग्रेज़ी में खुद को ज़्यादा अच्छे ढंग से व्यक्त कर सकते हैं। सहूलियत यहाँ आकांक्षा पर हावी दिखायी पड़ती है, नैतिक निर्वाह कमज़ोर पड़ जाता है। संविध्ाान सभा ने पाश्चात्य देशों के संविध्ाान को आध्ाार बनाया।
राष्ट्रभाषा पर हुई बहस में एक पक्ष हिन्दी के पक्षध्ारों का था जो राष्ट्रभाषा का मसला पहले सुलझाना चाहते थे। कुछ सदस्यों के अंग्रेज़ी आग्रह पर उनका तर्क था कि जब अंग्रेज़ी अपना सकते हैं तो हिन्दी क्यों नहीं, वह तो हमारी ही विविध्ा भाषाओं में से एक है। यदि ऐसा नहीं कर सकते तो ‘हिम्मत करके कह दीजिये कि अंग्रेज़ी हमारी नेशनल लेंग्वेज है।’
हिन्दी के पक्ष-विपक्ष के सदस्यों के तर्कों की पड़ताल कर राजीव रंजन का प्रश्न है कि क्यों दोनों पक्षों के मतों का ठीक से सम्प्रेषण नहीं हो सका, ‘क्या हिन्दी समर्थकों की आवाज़ में कट्टरपन भरा था।’
इस बहस के विविध्ा पक्षों के विचारों के बीच यह तथ्य ध्यान रखना ही होगा कि जिसे हम हिन्दी कह रहे हैं, उस दौर में उसके पाँच रूप चलन में थेः संस्कृत आग्रही-पण्डित हिन्दी, उर्दू आग्रही- मौलवी हिन्दी तथा संस्कृत-उर्दू के सम्मिलन से बनी हिन्दुस्तानी (मुंशी हिन्दी), ठेठ हिन्दी और यूरेशियन हिन्दी थे। खत्री जी ने मुंशी हिन्दी (हिन्दुस्तानी) को आदर्श माना।
महात्मा गाँध्ाी हिन्दुस्तानी के हिमायती थे। उनके प्रति अगाध्ा श्रद्धा भाव रखने वाले सदस्य वी पोकर ने हिन्दुस्तानी के पैरवी ही इसी तर्क से की- ‘इस आदरणीय सभा को केवल इस कारण हिन्दुस्तानी के पक्ष में निश्चय करना चाहिए कि राष्ट्रपिता महात्मा गाँध्ाी का यही पवित्र मत था।’
आमतौर पर भाषिक विवाद में उत्तर और दक्षिण भारत के लोगों के भाषिक पक्ष को सहज ही बता दिया जाता है, इस प्रत्याशा के विरुद्ध यह उल्लेखनीय है कि इस सभा के दक्षिण भारतीय एक सदस्य एम सत्यनाराण ने हिन्दुस्तानी का पक्ष लिया। दक्षिण के हिन्दी विरोध्ा की वजह हिन्दी के समर्थकों का कट्टर होना भी था। इसे इस सभा की एक सदस्य दुर्गाबाई ने भी स्पष्ट किया है।
पण्डित नेहरु की दृष्टि में अन्य चीज़ों के ‘बनिस्बत भाषा किसी राष्ट्र के चरित्र की ज़्यादा बड़ी कसौटी है।’ वे अंग्रेज़ी का महत्त्व तो स्वीकार करते थे लेकिन उसे राष्ट्रभाषा बनाने के पक्ष में नहीं थे। भाषिक निधर््ाारण का उनका विचार गाँध्ाी के मत का ही पर्याय रहा। राष्ट्रभाषा के लिए भाषाओं के पक्ष की पैरवी में कुछ अप्रत्याशित बातें भी मिलती हैं। अट्ठाईस सदस्यों ने संस्कृत के पक्ष में अपना मत प्रकट किया जिनमें डाॅ अम्बेडकर और नज़ीरुद्दीन अहमद का शामिल होना आश्चर्यजनक है । पारम्परिक जड़ताओं से मुक्ति के अनवरत अभियान के एक अनिवार नेतृत्त्वकर्ता अम्बेडकर द्वारा संस्कृत की हिमायत संविध्ाान सभा की शुरुआती स्थिति पर सोचने को विवश करती है।
दक्षिण के एक सदस्य कृष्णमूर्ति राव ने ‘हिन्दी समर्थकों से तमिल सीखने की अपेक्षा प्रकट की।’ लेखक इसे त्रिभाषा-सूत्र के बीज रूप में देखते हैं।
यह भी ग़ौरतलब है कि संविध्ाान सभा में भाषिक बहस के दौरान ‘राष्ट्रभाषा और राजभाषा का प्रयोग पर्याय के तौर पर होता था।’
भाषा के निधर््ाारण की यह बहस किन्हीं राष्ट्रव्यापी स्थितियों के केन्द्र के इर्द-गिर्द ही नहीं थी, इसमें तात्कालिक प्रलोभन भी सक्रिय रूप में उपस्थित थे। एक सदस्य टी ए रामलिंगम चेट्टियार ने चुनाव के समय जनमत के विरोध्ा की आशंका का दबाव बहस में स्वीकार किया।
राष्ट्रभाषा के निधर््ाारण का मसला इतना जटिल और विवादास्पद हो गया था कि सदस्यों का मतभेद आपसी कटुता के तार ही खींच रहा था। कुछ सदस्यों ने अन्य ज़रूरी मसलों के निराकरण की चिन्ता में इस मतैक्य न बना सके मुद्दे को स्थगित करना लाजिमी समझा। एक सदस्य पी टी चाको ने कहाः ‘हम यह आशा कर सकते हैं कि हमारी आने वाली पीढियाँ अध्ािक बुद्धिमान और सहिष्णु होंगी और वे एकमत से इस प्रश्न को हल कर सकेंगी। हमारी असहिष्णुता के कारण भारत का विभाजन हो चुका है जो कुछ रह गया है, उसे अब हम विभाजित न करें। आनेवाली पीढि़यों पर किसी भाषा को न थोप कर हमें इस प्रश्न को उन्हीं के निर्णय के लिए छोड़ देना चाहिए।’
हिन्दी के समर्थकों और विरोध्ाियों की द्विपक्षीय बना दी गयी इस बहस में एक भिन्न तेवर भी देखने मिलता है जो वैविध्य से भरे इस देश में एकसेपन को दृढ़ता से प्रश्नांकित कर सका। भाषिक कट्टर आग्रहियों के एक संस्कृति की अवध्ाारणा ने उन्हें इस अलहदा तर्क के लिए मुखर किया। श्री शंकरराव देव ने ऐसा करते हुए देश की सभी भाषाओं के महत्त्व की पैरवी ही की। वे अंग्रेज़ी का स्थान लेने वाली भाषा को राष्ट्रभाषा बनाने के तर्क से असहमत थे तथा उन्हें यह अनौचित्यपूर्ण लगा। एक संस्कृति के बरक्स उनका आग्रह मिश्रित संस्कृति का रहा।
एक सदस्य जयपाल सिंह ने इस बहस में एकतरफा अलक्षित कर दी गयीं आदिवासियों की भाषा का सवाल उठाया। 176 आदिवासी भाषाओं में सिफऱ् तीन को संविध्ाान की अनुसूची में शामिल करने का उनका अनुरोध्ा अनसुना ही रह गया हालाँकि उस समय बारह भाषाएँ ही शामिल कीं गयीं जिनमें हिन्दी जनपद की कोई भाषा नहीं थी, जो भाषाएँ शामिल की गयीं, लेखक की दृष्टि में उनका आध्ाार हिन्दी विरोध्ा ही मुख्य रहा। अन्य सदस्यों द्वारा इन भाषाओं को नज़रन्दाज किया जाना लेखक के अनुसार उनके ‘चरित्र की बानगी है।’ इसी तरह किसी भाषा के पक्ष में तर्क-वितर्क के मुख्य विचार के आध्ाार पर लेखक का यह मानना कि यह बहस ‘भाषा पर कम, राष्ट्र के चरित्र और स्वरूप की बहस अध्ािक है’, उचित ही लगता है।
इस पूरी बहस के दौरान सदस्यों के अपनी आग्रही भाषा के पक्ष में दिये तर्क और उसे प्रकट करती भाषा के स्तर को देखकर मौलाना आजाद ने ‘सदस्यों की तंगख्याली पर गहरा अफ़सोस प्रकट किया।’ उन्होंने सारा झगड़ाः उर्दू, हिन्दी, हिन्दुस्तानी नाम को लेकर ही माना। उनका व कुछ अन्य सदस्यों का आग्रह, अंग्रेज़ी को हटाने के पाँच वर्षों के समय को बढ़ाकर पन्द्रह वर्ष करने का भी रहा जिसे अन्तिम तौर पर क्रियान्वित भी किया गया और जो अब तक मुसलसल जारी है।
संविध्ाान सभा में राष्ट्रभाषा के मुद्दे पर हुई विस्तारपूर्वक बहस में हिन्दी, बांगला, संस्कृत, अंग्रेज़ी, तमिल आदि भाषाओं के पक्ष में सहभागी सदस्यों ने प्रबल तर्क प्रस्तुत किये। आज़ाद भारत के नव निर्माण के शुरुआती प्रयासों में कुछ प्रमुख मुद्दों को सर्वानुमति से निराकृत होने का यत्न घटित हो सकना था, भाषा के मुद्दे पर यह नहीं हो सका। सदस्यों ने व्यक्तिगत अनुराग व मान्यता से लेकर अपने क्षेत्रीय सन्तुलन पर आग्रह किया, जनता के बीच चुनाव के समय जाने के दबाव को भी इस बहस का प्रमुख तथ्य बना दिया। एक स्वतन्त्र राष्ट्र के नीति-निधर््ाारकों से जिस कोटि के निस्पृह भाव की उम्मीद की जानी चाहिए, वह इस बहस में अत्यल्प ही दिखायी पड़ती है।
इस बहस पर निष्कर्षतः लेखक का विश्लेषण हमारे उस दौर का नाजुक बयान है जहाँ हमें एकदम मजबूती के साथ निर्णय लेने थेः ‘राष्ट्रभाषा से राजभाषा की यात्रा में न तो हिन्दी समर्थकों की सभी बातें मानी गयी और न विरोध्ाियों की। असफल ‘हिन्दुस्तानी’ के पक्षध्ार भी हुए। सफल हुआ, तत्कालीन अंग्रेजीदाँ तबका। इस वर्ग की कामनाएँ, बड़े हद तक, पूरी हो गयी। दिलचस्प बात है कि फ्रेंक एंथनी को छोड़ दें तो इस तबके ने भाषाओं की सूची में ‘अंग्रेज़ी’ का नाम रखा जाए, इसकी कोशिश नहीं की। पर, वह सब हासिल करा लिया, जो चाहिए था। संविध्ाान सभा में सभी भारतीय भाषाएँ हारीं, विजयश्री तिलक अंग्रेज़ी के ललाट पर लगा।’
इस किताब का तीसरा निबन्ध्ा लघु पत्रिकाओं के औचित्य, उनके जरिए साहित्यिक-सामाजिक- सांस्कृतिक परिवेश के उन्नयन आदि पर पर विचार करता है। व्यावसायिक पत्रिकाओं के वर्चस्व के विलोम निजी व समवेत प्रयासों से निकाली गयी कुछ लघु पत्रिकाओं ने अल्प आर्थिक संसाध्ानों, छपाई व कागज़ की कामचलाऊ हैसियत में ही साहित्यिक मूल्यों की प्रतिष्ठा में उल्लेखनीय योगदान दिया।
सामूहिक प्रयास से जो पत्रिकाएँ निकाली जा रहीं थीं उन्हें लेकर एक आश्वस्ति भाव भी प्रकट किया जा रहा था कि ये पत्रिकाएँ न केवल विश्वसनीय हैं बल्कि व्यावसायिक पत्रिकाओं से ज़्यादा मूल्यवान हैं। अनेक लघु पत्रिकाओं के सम्पादकों ने संगठित होकर पत्रिका के कुछ प्रतिमानों का निधर््ाारण किया, साथ ही एक समन्वय समिति गठित कर लघु पत्रिका सम्मलेन भी आयोजित किये गये। इनसे सम्बद्ध लोगों का मानना रहा कि यह सारी कवायद एक आन्दोलन है। उत्तराधर््ा पत्रिका में वीरभारत तलवार ने इसे प्रश्नांकित किया जिसके जवाब में शम्भुनाथ सिंह ने लघु पत्रिका उद्यम की पैरवी की। दोनों के मध्य की यह बहस तार्किक और पठनीय है।
लेखक संगठनों तथा व्यक्तिगत स्तर पर निकाली जा रही पत्रिकाओं के प्रति अध्ािकांश लेखकों का मत एकपक्षीय ही रहा, ऐसी ही पत्रिकाओं को महत्त्वपूर्ण घोषित किया जाता रहा। इस किताब के लेखक का विचार इससे भिन्न हैः ‘पत्रिकाओं का स्तर सिफऱ् किसी सामूहिक आन्दोलन से ऊँचा नहीं उठ सकता।’
पत्रिका सम्पादकों के संगठन की आन्दोलनकारी क्रियाशीलता के उद्देश्य से जो सम्मलेन आयोजित हुए उनमें से आजमगढ़ में सम्पन्न तीसरे सम्मलेन में वरिष्ठ हिन्दी कवि केदारनाथ सिंह ने अपने वक्तव्य में कहा- ‘लघु पत्रिका आन्दोलन हिन्दी साहित्य में भक्ति आन्दोलन के बाद सबसे बड़ा आन्दोलन है।’ केदारनाथ सिंह की इस अत्युक्ति को राजीव रंजन ने भक्तिकाल में हुए ‘प्रतिमान परिवर्तन’ के समक्ष लघु पत्रिकाओं के सन्दर्भ में परखते हुए न केवल प्रश्नांकित ही किया बल्कि खारिज ही कर दिया। सिफऱ् पत्रिका निकालना, किसी भी तरह साहित्यक क्रियाशीलता में हमेशा मूल्यवान नहीं होता। अनेक लघु पत्रिकाओं के हवाले से यह बात स्पष्ट है कि उनमें विचारध्ाारा विशेष से सम्बद्ध लेखकों को ही प्रकाशित किया जाता रहा अर्थात लेखन की कोटि के ऊपर विचारध्ाारा को स्थापित करने का अभियान ऐसी पत्रिकाओं का मुख्य ध्येय रहा। हिन्दी के अनेक महत्त्वपूर्ण लेखकों का लेखन और उनपर विचारपरक आलोचकीय उद्यम इन पत्रिकाओं में अपने लिए कोई स्थान नहीं पा सका। इस बात की पुष्टि के लिए कुछ लघु पत्रिकाओं के तमाम विशेषांक भी अवलोकित किये जा सकते हैं।
इस किताब का ‘आरम्भिक’ लेखकीय दृष्टि का आईना और सार एकसाथ बन पड़ा है। अनुसन्ध्ाान से आलोचना तक की यात्रा तय करते इस किताब के तीनों निबन्ध्ा सिफऱ् तथ्यों के आलोक में विश्लेषण करते हुए किसी निष्कर्ष पर पहुँचने की जल्दबाजी नहीं करते। वे तथ्यों को अपने विस्तार में बहने देते हैं, वहीं किसी तर्क, विचारणा, मीमांसा के सहारे उनके होने की समग्रता की नैतिक पड़ताल करते हुए, उन्हें उनकी नियति के विश्रान्त तक लाकर छोड़ते हैं, जहाँ लेखक की दृष्टि का आलोक ज़्यादा दीप्त हो जाता है।
यह किताब अनुसन्ध्ाानपरक लेखन के समक्ष तो एक नज़ीर है ही, बहुभाषिकता की आसन्न सर्वस्वीकृति के विलोम, भाषिक संकीर्णता का प्रबल साक्ष्य भी है जिसकी पृष्ठभूमि में नितान्त असाहित्यिकता, असहिष्णुता, अविवेक, अहंकार का अप्रतिहत युग्म सक्रिय रहता है; इस अर्थ में बड़ों की लघुता भी इसमें निपटता के साथ प्रकट हुई है। इन सन्दर्भों को समझने के लिए भी इसे पढ़ा जाना चाहिए।
किताब - परस्पर भाषा, साहित्य, आन्दोलन
लेखक - राजीव रंजन गिरि
प्रकाशक - रज़ा पुस्तकमाला, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली