22-Mar-2023 12:00 AM
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तमाम कायनात अज़ल से आइनों की ज़द में थी
हुजूम+ए+अक्स में य. बे-मिसाल कैसे आ गया?
परिचयार्थ
इक खुशगवार नींद प. हक़ बन गया मेरा
वह रतजगे इस आँख ने काटे हैं इन दिनों।
-परवीन शाकिर की मृत्यु के पश्चात छपे उनके काव्य-संग्रह कफ़+ए+आइन. (1996) में संकलित एक ग़ज़ल से।
1.1. जीवन-वृत्त
सो यह लड़की भी जब आपसे बात करेगी तो उसकी पलकें बेशक भीगी हुई होंगी- लेकिन ज़रा ग़ौर से देखियेगा- उसका सर उठा हुआ है।
-अपने प्रथम संकलन ख़ुशबू (1977) की भूमिका में परवीन शाकिर।
कुल पच्चीस बरस की उम्र में इस डिण्डिम-नाद के साथ अपना पहला काव्यसंग्रह लाने वाली परवीन शाकिर का जन्म सोमवार 24 नवम्बर 1952 को प्रातःकाल कराची के लेडी डफ़रिन अस्पताल में हुआ। उनकी माता का नाम अफ़ज़लुन्निसा बेगम और पिता का नाम सैयद शाकिर हुसैन रिज़वी1 था। इसके पूर्व इस दम्पती के यहाँ 16 मार्च 1950 को एक बेटी का जन्म हो चुका था जिसका नाम नसरीन बानो रखा गया था, इस दूसरी बेटी का नाम परवीन बानो2 रखा गया।
सैयद शाकिर हुसैन का जन्म 1925 में बिहार के मुंगेर ज़िले में स्थित हुसैनाबाद में हुआ था (अब यह हुसैनाबाद शेखपुरा नामक नये बने ज़िले में आ गया है)3 उनका घरेलू नाम शायद ‘रज्जन’ था। शाकिर हुसैन के पिता सैयद अबुल हसन दस सन्तानों के पिता थे जिनमें से आठ बेटे थे। 1930 के आसपास एक महामारी वहाँ फैली जिसकी चपेट में इनके पाँच बेटों की मृत्यु हो गयी। सम्भवतः इसी के बाद सैयद अबुल हसन दरभंगा ज़िले के लहरिया सराय में स्थित चन्दन-पट्टी नामक गाँव में आ बसे क्योंकि डा. नज़ीर सिद्दीक़ी को लिखे गये एक पत्र में4 (जो 28 फ़रवरी 1978 को लिखा गया है) परवीन शाकिर ने अपने पिता का भारत-विभाजन के पूर्व का गाँव यही बताया है। हुसैनाबाद में परवीन शाकिर के परिवार का अब कोई सदस्य नहीं रहता किन्तु चन्दन-पट्टी में कुछ निकट सम्बन्धी अभी रहते हैं जिनसे मिलने परवीन शाकिर अपनी एक भारत-यात्रा में आयी भी थीं। यह यात्रा सम्भवतः तब की है जब वे 1978 में दिल्ली के शंकर-शाद मुशाइरे में कवितापाठ के लिए आयीं और अपने रिश्ते के मामा डा. जाबिर हुसैन से मिलने पटना गयीं जो उस समय कर्पूरी ठाकुर के मन्त्रि मण्डल में स्वास्थ्य-मन्त्री थे तथा राजनेता होने के अतिरिक्त हिन्दी और उर्दू के साहित्यकार भी हैं।
शेष बचे तीन बेटों में से दोनों बड़े बेटों ने धार्मिक शिक्षा प्राप्त की और इसी क्रम में ईरान में स्थित शीआ धर्मशास्त्र के प्रसिद्ध विद्याकेन्द्र कुम नगर को चले गये तथा वहीं बस गये।
सैयद शाकिर हुसैन भारत में ही रहे। उन्हें सम्भवतः पारिवारिक परम्परा के अन्तर्गत थोड़ी बहुत धार्मिक शिक्षा भी दिलायी गयी किन्तु उनकी रुचि आधुनिक अंगरेज़ी शिक्षा में थी जो उन्होंने पटना जाकर प्राप्त की। वे वहीं से जून 1947 में सैयद मुजाहिद हुसैन (जो सम्भवतः कोई निकट सम्बन्धी थे) के साथ कराची चले गये और चाकीवाड़ा मुहल्ले में रहने लगे। इस समय तक पाकिस्तान औपचारिक रूप से नहीं बना था। परवीन शाकिर ने यह कहा है कि उनके पिता का पाकिस्तान बनने के पहले कराची आ जाना इस उद्देश्य से था कि वे आज़ादी का जश्न पाकिस्तान में मनाना चाहते थे किन्तु इस कामना के अतिरिक्त रोज़ी-रोटी की तलाश का भी इस यात्रा के पीछे होना असम्भव नहीं लगता क्योंकि उनको टेलीकम्युनिकेशन्स विभाग में वहाँ नौकरी भी मिल गयी। सैयद शाकिर हुसैन का फिर भारत आना एक ही बार हुआ जब वे डा नाज़िम जाफ़र की शादी में वाराणसी आये। यह शादी 1963 में हुई थी और इसमें सैयद शाकिर हुसैन सपरिवार आये थे। इस समय परवीन शाकिर की उम्र दस बरस की थी।
परवीन शाकिर की माता अफ़ज़लुन्निसा बेगम की माँ सैयद शाकिर हुसैन की ‘कज़िन’ बतायी जाती हैं। इनके पिता, अर्थात् परवीन शाकिर के नाना, सैयद काज़िम हुसैन पटना में रहते थे और लगता है कि इन्हीं के सहयोग से सैयद शाकिर हुसैन का पटना जाना भी हुआ। प्रतीत होता है कि यह परिवार भी पाकिस्तान जा बसा क्योंकि शायद सैयद शाकिर हुसैन का विवाह पाकिस्तान में ही हुआ जिसके बाद वे चाकीवाड़ा छोड़कर कराची की रिज़विया कालोनी में रहने लगे जो मुख्यतया भारत से गये शीआ मुसलमानों की बस्ती थी।
माँ-बाप से मिली परवरिश के अलावा परवीन बानो और उनकी बड़ी बहन को सैयद हसन अस्करी5 का भी लाड़-प्यार बचपन से ही मिलता रहा। अस्करी साहब होम्योपैथी के डाक्टर थे और कविता के शौक़ीन। बाद में बड़ी बहन नसरीन बानो होम्योपैथी की डाक्टर बनीं और छोटी बहन परवीन बानो कवि। सैयद हसन अस्करी को इन दो बहनों का रिश्ते में नाना कहा गया है अतः ये सैयद काज़िम हुसैन के भाई लगते होंगे। एक सैयद हसन अस्करी का सैयद शाकिर हुसैन के चाचा के रूप में भी उल्लेख मिलता है जो उनके पाकिस्तान पहुँचने के आस-पास ही पाकिस्तान चले गये थे, हो सकता है ये वही हों। जो भी हो, नज़ीर सिद्दीक़ी को लिखे गये एक पत्र में परवीन शाकिर ने यह बताया है कि उनके नाना फ़ारसी में कलकत्ता विश्वविद्यालय से एम ए थे, और जब तक जिये, उन्हें फ़ारसी पढ़ाने की कोशिश करते रहे।
सैयद शाकिर हुसैन स्वभाव से बहुत सीधे-सादे, धर्मभीरु, सहनशील, और कुलमर्यादा के आग्रही व्यक्ति बताये जाते हैं। पारिवारिक जीवन बहुत हर्षमय नहीं लगता। पत्नी बीमार रहती थीं और नसरीन बानो के जन्म के बाद दूसरी सन्तान के लिए अनेक मन्नतों और दुआओं के बाद परवीन बानो का जन्म हुआ था। बड़ी बेटी नसरीन बानो का विवाह उन्होंने अपने एक मित्र के बेटे से किया था किन्तु इस विवाह में उन्हें धोखा दिया गया था- वह लड़का मन्दबुद्धि था। परिणामतः यह विवाह सफल नहीं रहा और नसरीन बानो अपने मायके में ही रहीं। उनका भी स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था।
किन्तु सैयद शाकिर हुसैन ने अपनी पारिवारिक ज़िम्मेदारियाँ यथाशक्ति बहुत अच्छी तरह निभायीं। बेटियों की शिक्षा के लिए घर में तो वे धार्मिक पुस्तकें लाते थे किन्तु स्कूली पढ़ाई के लिए उन्होंने अंगरेज़ी माध्यम के स्कूल चुने जिनके नाम क्रमशः ‘इस्लामिया कैम्ब्रिज स्कूल’ और ‘राइजिं़ग सन स्कूल’ बताये जाते हैं। तीसरी कक्षा में पढ़ते हुए परवीन को दो प्रोन्नतियाँ मिलीं और वे पाँचवीं में पढ़ रही अपनी बड़ी बहन नसरीन के साथ पढ़ने लगीं। पाँचवीं के बाद उनका अगला स्कूल ‘रिज़विया गर्ल्स सेकन्डरी स्कूल’ भी घर से दस क़दम पर ही था जहाँ आठवीं कक्षा में लिखे गये निबन्ध के आधार पर परवीन बानो को उनकी एक अध्यापिका ने ‘भविष्य की साहित्यकार’ बताया। 1966 में मैट्रिक (= दसवीं) की परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास करने के बाद कराची के सर सैयद अहमद गर्ल्स कॉलेज में परवीन ने इन्टरमीडिएट (= एफ़ ए अर्थात् बारहवीं) की पढ़ाई की जो 1968 में प्रथम श्रेणी और नवीं पोज़ीशन के साथ परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर पूरी हुई। 1971 में उन्होंने कराची विश्वविद्यालय से अंगरेज़ी में बी ए (आनर्स) द्वितीय श्रेणी और दूसरी पोज़ीशन के साथ किया। इस बीच 1970 में उन्हें यूनाइटेड स्टेट्स इन्फ़ॉर्मेशन सर्विस (USIS) कराची से ‘सर्वश्रेष्ठ कवि’ का पुरस्कार मिल चुका था।
1972 में कराची विश्वविद्यालय से द्वितीय श्रेणी में अंगरेज़ी में एफ़ ए करने के बाद वे 31 मार्च 1973 से कराची के ही अब्दुल्ला गर्ल्स कॉलेज में अंगरेज़ी की अध्यापिका हो गयीं जहाँ उन्होंने नौ वर्षों तक पढ़ाया। इस बीच उन्होंने पाकिस्तान के उर्दू दैनिक ‘जंग’ में एक कालम भी 1972 से 1974 तक लिखा (और फिर 1993 से प्रारम्भ करके अपनी मृत्यु तक लिखती रहीं)।6
1980 में उन्होंने एक और एम ए ‘अंगरेज़ी भाषा-विज्ञान’ में कराची विश्वविद्यालय से ही किया और 1981 में उन्होंने पाकिस्तान की सी एस एस (CSS = Central Superior Services जिसे भारत की आई ए एस परीक्षा के समतुल्य समझना चाहिए) परीक्षा दी जिसमें उन्होंने उत्तीर्ण प्रत्याशियों में दूसरा स्थान प्राप्त किया। विशेष उल्लेखनीय यह है कि इस परीक्षा में उर्दू के प्रश्नपत्र में एक प्रश्न स्वयं उनकी कविता पर ही था। यह परीक्षा देने के लिए उनकी उम्र अधिक हो चली थी और जनरल ज़िया उल हक़ की विशेष अनुमति से ही7 वे इस परीक्षा में बैठ पायीं। योग्यता-क्रम के अनुसार उनकी नियुक्ति पाकिस्तान की विदेश सेवा में हो सकती थी और वे ऐसा चाहती भी थीं किन्तु ऐसा हो नहीं पाया। इसके दो कारण बताये जाते हैं: पहला यह कि पारिवारिक (और अहमद नदीम क़ासिमी जैसे शुभचिन्तकों का भी) आग्रह इसके पक्ष में नहीं था और दूसरा यह कि इसी समय ज़िया उल हक़ ने पाकिस्तान में स्त्रियों का विदेशसेवा में जाना प्रतिबन्धित कर दिया था। दोनों बातें सही हो सकती हैं। जो भी हो, लाहौर में आवश्यक प्रशिक्षण के बाद 1984 में उनकी नियुक्ति कराची में ही कस्टम विभाग में हो गयी और फिर 1986 में उन्हें इस्लामाबाद में सेन्ट्रल बोर्ड ऑफ़ रेवेन्यू में सेकन्ड सेक्रेटरी के पद पर नियुक्त किया गया। वे यहीं विभिन्न प्रोन्नतियाँ प्राप्त करते हुए 1992 में डेपुटी कलेक्टर के पद पर पहुँचीं। यह पद उनके जीवन के अन्त तक रहा।
प्रशासनिक सेवा में रहते हुए भी वे विश्वविद्यालयीय शिक्षा से दूर नहीं रहीं। 1990-91 में उन्होंने Hartford Consortium for Higher Education में Fulbright Scholar के तौर पर निवास किया तथा वहाँ के कई संस्थानों में दक्षिण एशियाई साहित्य, फ़िल्म, सभ्यता, आदि पढ़ाती रहीं। 1991 में उन्होंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय की Thomas Jefferson Felloship for Edward S. Mason Program प्राप्त की और 1992 में हार्वर्ड विश्वविद्यालय से Public Administration की मास्टर्स डिग्री ली। स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक, पाकिस्तान से लेकर अमरीका तक, वे अपने संस्थानों की पत्रिकाओं से लेखन और सम्पादन के स्तर पर जुड़ी रहीं।
एक कवि के रूप में उन्होंने कई विदेश-यात्राएँ कीं। 1986 में USIS Exchange Program के अन्तर्गत अमरीका में विविध विश्वविद्यालयों और अन्य स्थानों पर स्थानीय बुद्धिजीवियों से सम्पर्क भी किया। उनका अपना क़द, जो कभी भी कम ऊँचा नहीं था, बढ़ता ही गया। विवाह के आस-पास ही उनका पहला काव्य-संग्रह खुशबू (1977) आया था जिसका दूसरा संस्करण छह महीने के भीतर ही आ गया और आज भी इसका छपना-बिकना चल ही रहा है। इस पुस्तक पर 1979 में आदम जी पुरस्कार मिला और खुदकलामी (1985) पर अल्लामा इक़बाल हिजरा पुरस्कार। 1987 में वे पाकिस्तानी लेखकों के एक प्रतिनिधि-मण्डल में चीन गयीं। 1989 में दिल्ली में विश्व उर्दू सम्मेलन हुआ जिसमें उन्होंने फै़ज़ अहमद फै़ज़ पुरस्कार प्राप्त किया और उसी वर्ष ढाका में आयोजित दक्षिण एशियाई काव्योत्सव में पाकिस्तान का प्रतिनिधित्व किया। 1990 में उन्हें साहित्य-सेवा के लिए पाकिस्तान का ‘तमग़ा+ए+हुस्न+ए+कारकर्दगी (= Pride of Performance) पुरस्कार मिल चुका था जो पाकिस्तान के सरकारी सम्मानों में एक बड़ा सम्मान है। उन्हें कस्टम विभाग द्वारा ‘सितारा+ए+इम्तियाज़’ सम्मान के लिए भी नामित किया गया था जो असमय मृत्यु के नाते उन्हें न मिल सका। उन्हें और भी बहुत से सम्मान मिले हैं जो इस छोटी सी सूची में शामिल नहीं हैं।
1.1.1 जीवन-वृत्त के इर्दगिर्द
परवीन शाकिर प्रारम्भ से ही प्रतिभासम्पन्न छात्रा के रूप में पहचान ली गयी थीं और उन्होंने स्कूली जीवन से ही लिखना भी प्रारम्भ कर दिया था। पहले उन्होंने अपना लेखकीय उपनाम ‘बीना’ रखा था, किन्तु बहुत शीघ्र ही उन्होंने इसका परित्याग कर दिया अतः उनकी रचनाओं में नाम या उपनाम का कोई अंकन नहीं मिलता।
उनकी प्रतिभा को प्रारम्भ में ही पहचान मिली और उनके अध्यापकों ने उन्हें सक्रिय रूप से प्रोत्साहित किया। परवीन शाकिर ने अपने स्कूल की प्रिन्सिपल ज़ाहिदा तक़ी के प्रति बड़ी कृतज्ञता व्यक्त की है। इसके बाद कॉलेज की पढ़ाई में प्रारम्भ से ही उन्हें इरफ़ाना अज़ीज़ का संरक्षण मिला जो यों तो अर्थशास्त्र की अध्यापिका थीं और इस प्रकार अंगरेज़ी से आनर्स कर रही परवीन की सीधे-सीधे शिक्षिका नहीं थीं किन्तु जिन्होंने परवीन की रचनात्मकता को पहचाना और उसके विकास के लिए समुचित अवसर उपलब्ध कराया। वे स्वयं भी कवि थीं और कराची के संस्कृतिकर्मियों के बीच उनकी अच्छी पहुँच थी। उन्होंने ही परवीन शाकिर को रेडियो के कार्यक्रम करने, अख़बार में कालम लिखने, मुशाइरे में भाग लेने, और अन्ततः अहमद नदीम क़ासिमी की पत्रिका फुनून में रचनाएँ भेजने के लिए हिम्मत दिलायी। यह बात दूसरी है कि इन सभी क्षेत्रों में परवीन ने अपनी सुपात्रता को प्रमाणित किया।
कराची पाकिस्तान बनने से लेकर लम्बे समय तक उस देश की राजधानी थी और भारत से गये उर्दूभाषियों का सबसे बड़ा जमावड़ा भी वहीं था। परवीन के समय भी वहाँ की सांस्कृतिक समृद्धि कम न थी और परवीन को इसका लाभ मिला। वे बड़े-बड़े नामों के सम्पर्क में आयीं और धीरे-धीरे उन बड़े नामों की सूची में शामिल हो गयीं। उन्होंने बहुत तेज़ी से बढ़त हासिल की किन्तु अपने प्रशंसकों के बीच वे अपनी कविता के अतिरिक्त कुछ भी लेकर नहीं गयीं- यहाँ तक कि मुशाइरे में अपनी ग़ज़लें भी वे तरन्नुम से नहीं पढ़ती थीं जैसा कि यू-ट्यूब पर उपलब्ध उनके कविता-पाठों में देखा जा सकता है। इस विशेषता का उल्लेख करते हुए मुज्तबा हुसैन ने लिखा है कि मार्च 1978 में जब वे भारत आयीं और मुशाइरे के पहले कान्स्टीट्यूशन क्लब में आयोजित एक गोष्ठी में कविता पढ़ी तो पहली बार उन्होंने किसी स्त्री-कवि को बिना तरन्नुम का सहारा लिए हुए कविता पढ़ते सुना। कच्ची उम्र से ही अहमद नदीम क़ासिमी के संरक्षण में होने के बावजूद, परवीन शाकिर ने उनके ‘इस्लामिक सोशलिज़्म’ से न इस्लाम लिया और न ही सोशलिज़्म। मैत्री के कृत्रिम विस्तार में भी उनको कोई दिलचस्पी न थी किन्तु स्वतःस्फूर्त सम्मान की अभिव्यक्ति में वे पीछे न थीं- यदि उन्होंने अहमद नदीम क़ासिमी को एक नज़्म समर्पित की है जिन्होंने उनको कवि के रूप में पहचान दिलायी तो एक नज़्म रघुपति सहाय ‘फ़िराक़’ को भी समर्पित की है जो उनके लिए अनजाने थे और जरा-जर्जर हो चुके थे।
परवीन की लोकप्रियता उनके जीवन-काल में ही असाधारण थी। सी.एस.एस. की परीक्षा में किस प्रकार उन्हें अपनी ही कविता पर एक आलोचनात्मक निबन्ध लिखना पड़ा इसका उल्लेख आ चुका है। सी.एस.एस. की सफलता के बाद उनका बैच दसवाँ था। ट्रेनिंग के दौरान एक बार जब एक विशिष्ट आगन्तुक से परवीन शाकिर का परिचय कराया गया तो उनका मुँह खुला का खुला रह गया और उनके हाथ से थाली छूट पड़ी। जैसा ऊपर बताया जा चुका है, उनकी मृत्यु के बाद भी इस लोकप्रियता में कोई कमी नहीं आयी है। 2017 में पाकिस्तान के कस्टम्स डिपार्टमेंट ने अपने कराची-स्थित भवन में सैयद अली रिज़वी पुस्तकालय की स्थापना की जिसमें एक कक्ष परवीन शाकिर के नाम पर है। कुछ और उदाहरण यहाँ दिये जाते हैं।
02 मार्च 2014 को पाकिस्तानी अख़बार The News के रविवारीय संस्करण में One Step Forward... शीर्षक से आमिना हैदर इसनी की एक रिपोर्ट छपी है जिसमें उन्होंने Fashion Week Pakistan Summer 2014 के बारे में बताया है। इसके अनुसार डिज़ाइनर माही हुसैन ने बाज़ार में जो बैग उतारे हैं उनके साथ ‘परवीन शाकिर प्रिन्ट्स’ का रूमाल भी है।
फिर हम देखते हैं कि वेबसाइट newageislam.com पर उपलब्ध पत्रिका New Age Islam में 15 फ़रवरी 2011 को सैयद शिहाबुद्दीन का अतहर फ़ारूक़ी द्वारा लिया गया एक इन्टरव्यू मौजूद है जिसमें शिहाबुद्दीन ने बताया है कि जब उन्होंने राजनीति में उतरने के उद्देश्य से भारतीय विदेश सेवा से इस्तीफा दिया तब तत्कालीन विदेश मन्त्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने उन्हें ऐसा न करने के लिए मनाने के वास्ते तीन बार अपने पास बुलाया और तीसरी बार में शिहाबुद्दीन साहब अटल जी के पास तर्क के रूप में परवीन शाकिर की एक ग़ज़ल देवनागरी में लिखकर ले गये जिसे अटल जी ने भी बहुत पसन्द किया और उनके अनुरोध पर शिहाबुद्दीन साहब ने यह ग़ज़ल उनको बाद में भिजवायी भी। यह देखते हुए कि यह 1978 की बात है और परवीन शाकिर की उम्र कुल छब्बीस बरस की भी नहीं थी तथा साल भर पहले ही उनका तब तक अकेला काव्यसंग्रह छपा था, उनकी लोकप्रियता का अनुमान लगाया जा सकता है।
परवीन शाकिर जिन दिनों कस्टम विभाग में अफ़सर थीं, उन्हें एक बार एक ऐसे कै़दी का पत्र जेल से मिला जिसे मौत की सज़ा हुई थी और जिसने इस पत्र में यह इच्छा प्रकट की थी कि वह मरने के पहले उनकी कविताएँ पढ़ना चाहता है। परवीन शाकिर ने उसे अपनी काव्य-पुस्तक भिजवा कर उसकी यह इच्छा पूरी की।
कुछ लोगों का यह कहना है कि अपनी इस सब जगह स्वीकृति के चलते परवीन शाकिर में बहुत घमण्ड आ गया था। उनके विरोध में कुछ दुष्प्रचार तो चलता रहता था इसमें सन्देह नहीं है। उदाहरण के लिए परवीन शाकिर और कु़र्रतुल ऐन हैदर के सम्बन्ध परस्पर बहुत अच्छे थे- परवीन की 1978 वाली भारत-यात्रा के समय कु़र्रतुल ऐन हैदर ने उन्हें अपनी कार+ए+जहाँ दराज़ है इस अनुरोध के साथ दी थी कि वे पाकिस्तान में इसे छपवाने की बात करें जबकि कु़र्रतुल ऐन हैदर को पाकिस्तान में सभी साहित्यकर्मी बहुत अच्छी तरह जानते थे। परवीन शाकिर ने एक नज़्म भी कुर्रतुल ऐन हैदर को समर्पित की है। किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि बाद में कुछ लोगों ने यह बात फैलायी कि परवीन ने कुर्रतुल ऐन हैदर के ख़िलाफ़ कुछ कहा है जिसके नाते कुर्रतुल ऐन हैदर नाराज़ हो गयीं और यह बात अहमद नदीम क़ासिमी तक पहुँची जिन्होंने परवीन को इस बारे में लिखा जिसका जवाब अमरीका से देते हुए परवीन ने अपनी सफ़ाई में एक ख़त में लिखा कि उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं कहा। अहमद नदीम क़ासिमी और परवीन शाकिर के आपसी सम्बन्धों में भी परवर्ती काल में थोड़ी खटास का आ जाना कहा जाता है जिसका कारण मन्सूरा अहमद को बताया जाता है जो अहमद नदीम क़ासिमी की ‘तीसरी बेटी’ का दरजा पा चुकी थीं और जिनके नाते अहमद नदीम क़ासिमी के परिवार सहित उनके अनेक शिष्य कुछ असहज हो चले थे।
परवीन शाकिर के इस ‘घमण्ड’ का क्या तात्पर्य है, यह मेरी समझ में एक उदाहरण से समझा जा सकता है। परवीन शाकिर ने नज़ीर सिद्दीक़ी को 2 अगस्त 1978 को लिखे गये पत्र में लिखा हैः
कलीम आजिजे़ साहिब से मेरी देहली में सरसरी मुलाक़ात हुई- मुशाइरे8 में। लेकिन उससे क़ब्ल मैं वह जो शाइरी का सबब हुआ9 पढ़ने की नाकाम कोशिश कर चुकी थी। वह मेरे वालिद के दोस्तों में क़तई नहीं हैं- बल्कि कलीम साहिब ग़ालिबन उनके दोस्तों के दोस्त या रिश्तेदार हैं। हिन्दोस्तान जाने से क़ब्ल 130 रुपये की डी लक्स क़िताब मेरे पास भिजवायी गयी कि मैं उस पर तब्सिरा करूँ। मैंने क़िताब देखी- कितने तो मिसरे ही वज़्न से गिरे हुए थे।...10 का बेतहाशा इस्तेमाल और बे-अन्दाज़ा फ़ारसीयत मुझसे बरदाश्त नहीं हुई। मैंने अब्बा से कह दिया कि मैं नहीं चाहती कि आपके मरासिम आपके दोस्तों से ख़राब हों, इसलिए इस क़िताब पर तब्सिरा करने से मैं क़ासिर हूँ। देहली में मुशाइरे में बजुज़ सलाम दुआ के और क्या हो सकता था। मेरी मसरूफ़ियात मुझे किसी और तरफ़ बहा कर ले गयीं और वह शायद अगले दिन वापस चले गये। यहाँ आयी तो मेरा आपरेशन होना था। मिल नहीं सकी, मुमकिन है उन्होंने बुरा माना हो, मगर मैं क्या करूँ सिद्दीक़ी11 मैं बहुत बुरी हूँ मगर मुनाफ़िक़ नहीं हूँ। मुझसे फ़िजूल शेरों पर ‘वाह, वाह’ नहीं हो सकती और जब उनसे मिलते तो शेर भी सुनने पड़ते। शेर सुनते तो दाद भी देनी पड़ती। और यह आज़माइश बहुत कड़ी थी।
अब यहाँ कलीम ‘आजिज़’ साहब के बारे में कुछ जान लेना ज़रूरी होगा। कलीम ‘आजिज़’ (1920-2015) बिहार के प्रसिद्ध उर्दू कवियों में से थे। इनकी क्रान्तिकारिता असन्दिग्ध है क्योंकि चर्चित एक्टिविस्ट शर्जील इमाम की थीसिस की शुरुआत में कलीम आजिज़ का यह शेर12 दिया हुआ हैः
य. पुकार सारे चमन में थी, व. सहर हुई व. सहर हुई
मेरे आशियाँ से धुआँ उठा तो मुझे भी इसकी ख़बर हुई।।
साथ ही, सत्ता-केन्द्रों में भी इनका आदर था क्योंकि इनके प्रथम काव्य-संग्रह का ही (जिसकी बात परवीन शाकिर ने की है) लोकार्पण 1976 में तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने दिल्ली कि विज्ञान-भवन में किया था। बाद में भी, ये ‘पद्मश्री’ से सम्मानित हुए और पटना विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग के अध्यक्ष पद से रिटायर होने के बाद बिहार सरकार की उर्दू सलाहकार समिति के आजीवन अध्यक्ष रहे।
ज़ाहिर है कि परवीन शाकिर को प्रभावित कर उनसे कुछ अपने ऊपर लिखवा लेने की कलीम आजिज़ साहब ने कई प्रकार से कोशिश की- उन्हें काव्य-संग्रह का डी लक्स संस्करण भिजवाया जिसका दाम 1976 में भी 130 रुपये था, बिहार में रहने के दौरान उनके पिता से अपनी मैत्री का हवाला दिया और उनकी बेरुख़ी की शिकायत बिहार से पाकिस्तान जाने वाले एक बड़े आलोचक नज़ीर सिद्दीक़ी से की। इन कोशिशों का महत्व तब और भी बढ़ जाता है जब हम याद करें कि कलीम आजिज़ परवीन से बत्तीस वर्ष बड़े थे, खुद परवीन शाकिर का अपना पहला काव्य-संग्रह कलीम आजिज़ के इस काव्य-संग्रह के बाद छपा था, और कलीम आजिज़ साहब के इस काव्य-संग्रह की प्रशंसा फ़िराक़ साहब ने की थी। अब अगर इतने के बावजूद परवीन शाकिर उनकी कविता पर एक लेख लिखने को तैयार नहीं हो पायीं तो परवीन शाकिर के ‘नकचढ़ेपन’ में किसी को क्या सन्देह हो सकता है?
यह मानना ग़लत होगा कि परवीन शाकिर को सिर्फ़ वे ही लोग पसन्द थे जो उनके सहमत होकर रहें। इस्लामाबाद में रहते हुए उनकी सर्वाधिक घनिष्ठ मित्र परवीन क़ादिर आग़ा, जिनके घर में भी वे एक लम्बे समय तक पारिवारिक सदस्य की तरह रहीं, मज़हब में सुन्नी थीं और राजनीतिक विचार भी उनसे भिन्न रखती थीं, किन्तु सम्बन्धों में कभी कोई टकराव नहीं उपजा। परवीन क़ादिर आग़ा ने लिखा है कि परवीन शाकिर कभी अपने अलावा किसी और को नुक़सान पहुँचा ही नहीं सकती थीं।
1.1.2 वैवाहिक जीवन
1975 में परवीन की मँगनी सैयद नसीर अली से हुई थी जो कराची में ही डॉक्टर थे। ये उनके ‘ख़ालाज़ाद भाई’ बताये जाते हैं जिसका तात्पर्य ‘मामी का बेटा’ भी हो सकता है और ‘मौसी का बेटा’ भी; कुछ अन्य सूत्र स्पष्टतः इन्हें परवीन शाकिर का ममेरा भाई ही बताते हैं। मुझे यह नहीं मालूम हो सका कि यह रिश्ता कितना नज़दीकी था किन्तु चूँकि ऐसा कहा जाता है कि परवीन को बचपन में ही उनकी माँ से नसीर की माँ ने माँग लिया था, इसलिए दोनों परिवार एक-दूसरे से सुपरिचित ही रहे होंगे और यह सम्बन्ध अगर बिलकुल सगा न हो तो भी बहुत दूर का न होगा। विवाह 14 अक्टूबर 1976 को हुआ। इस विवाह में अतिथियों की संख्या सीमित थी क्योंकि शासन की तरफ़ से पारिवारिक आयोजनों में मितव्ययिता के आदेश थे, फिर भी फ़हमीदा रियाज़ समेत कई साहित्यकर्मियों की उपस्थिति की सूचना है। 20 नवम्बर 1979 को वह एक पुत्र की माँ बनीं जिनका नाम सैयद मुराद अली है और जिन्हें परवीन प्यार से ‘गीतू’ बुलाती थीं। परवीन ने अपनी तीसरी काव्य-पुस्तक खुदकलामी इन्हें ही समर्पित की है और इनके नाम से ‘मुराद पब्लिकेशन्स’ नाम का एक प्रकाशन भी प्रारम्भ किया था जिससे वे अपनी क़िताबों को छापा करती थीं। ये अब कनाडा में रहते हैं और साफ़्टवेयर इन्जीनियर हैं।
1987 में परवीन का तलाक़ हो गया और उसके बाद से अपने बेटे को उन्होंने एक अकेली माँ के रूप में पाला। इस तलाक़ के लिए परवीन के माता-पिता भी परवीन को ही दोषी ठहराते थे और परवीन के पिता ने शायद उनसे बोल-चाल भी बन्द कर दी थी। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ‘मायका’ और ‘ससुराल’ इतने अलग भी न थे- परवीन की माँ और परवीन की सास आपस में रक्त-सम्बन्धों से जुड़ी हुई थीं। दोनों परिवारों की इस निकटता को परवीन ने प्रकटतः अपने वैवाहिक जीवन के लिए हितकर ही बताया था। उदाहरण के लिए पाकिस्तान की एक पत्रिका पाकीज़ा13 ने परवीन शाकिर का एक साक्षात्कार 1977 में लिया, अर्थात् यह साक्षात्कार परवीन शाकिर के विवाह के कुछ ही समय बाद का है। इसमें यह आता है :
प्रश्नः जब आपके शौहर को आपके हवाले से पहचाना जाता है तो उनका रद्द+ए+अमल क्या होता है?
उत्तरः नसीर पहले मेरे खालाज़ाद भाई हैं इसलिए उन्हें पहले से सबकुछ पता था इसलिए ऐसी बातें परेशानी का बाइस नहीं बनती हैं। उन्होंने तो ‘जहाँ है, जैसी है’ की बुनियाद पर टेंडर खुलवाया है।
किन्तु सास-ससुर, जेठ-जिठानी और ननदों वाले पारम्परिक सामान्य-वित्तीय रहन-सहन वाले परिवार में ऊँची पढ़ाई, ऊँची नौकरी, और ऊँची सार्वजनिक प्रतिष्ठा वाली बहू को लेकर कुछ तनाव भी हो ही सकते हैं। परवीन अपनी निजी समस्याओं को सार्वजनिक करने में दिलचस्पी नहीं रखती थीं और यह नहीं लगता कि उनके ससुराल वालों का पक्ष जानने का कोई प्रयास उन पर लिखने वालों में से किसी ने किया हो। फिर भी जितना सामने है उसके आधार पर वास्तविकता के निकट कुछ दूर तक जाया जा सकता है।
अपनी एक परवर्ती कविता में उन्होंने लगभग प्रत्यक्ष रूप से यह स्वीकार किया है कि पति की अपेक्षा पत्नी की प्रसिद्धि अधिक होना समाज-स्वीकृत पारिवारिक संरचना के लिए असमंजस होता है। यह कविता उनके तीसरे काव्य-संग्रह खुदकलामी में संगृहीत है और इसका शीर्षक है ‘नेविश्त.’, अर्थात् ‘लिखा हुआ है’ जिसका निहितार्थ है ‘यह प्रामाणिक है’। कविता यह है :
नेविश्त.
...तब जै़द ने बक़र को गाली देते हुए कहा :
कि इस (बक़र) की माँ इसके बाप से ज़ियादा मशहूर थी
मेरे बच्चे!
तेरे हिस्से में भी यह तीर आयेगा
तुझे भी इस पिदर-बुनियाद दुनिया में, बिल-आख़िर
अपने यूँ मादर-निशाँ होने की इक दिन
बड़ी क़ीमत अदा करनी पड़ेगी
अगरचे
तेरी इन आँखों की रंगत
तेरे माथे की बनावट
और तेरे होंटों के सारे ज़ाविये
उस शख़्स के हैं
जो तेरी तख़लीक़ में साझी है मेरा
फुकहा+ए+शह के नज़दीक जो पहचान है तेरी
मगर जिसके लहू ने तीन मौसिम तक तुझे सींचा है
उस तनहा शजर का
एक अपना भी तो मौसिम है
लहू से फ़स्ल तारे छानने की
सोच से खुशबू बनाने की रुतें
और शेर कहने का अमल
जिनकी अलमदारी तेरे अज्दाद के क़लओं से बाहर जा चुकी है
और जिसे वापस बुला सकना
न सैफ़ो के लिए मुमकिन रहा था
न मीरा के ही बस में था!
सो अब हमजोलियों में गाहे-गाहे तेरी ख़जलत
वाक़िफ़ों के आगे तेरे बाप की मजबूर ख़िफ़्फ़त
इस घराने का मुक़द्दर हो चुकी है
कोई तख़्ती लगी हो सदर दरवाजे़ पर लेकिन
हवाला एक ही होगा
तेरे होने न होने का!
अन्तिम पंक्तियों का सन्दर्भ यह है कि अपने बेटे की चौदहवीं वर्षगाँठ पर उन्होंने अपने दरवाजे़ पर उसके नाम की नेम-प्लेट ‘सैयद मुराद अली’ लगा दी थी और कविता का ऊहापोह इस क़दम की सार्थकता को लेकर है। यह स्पष्ट है कि इस कविता में आये ‘पिदर-बुनियाद (= पितृ-मूलक)’ और ‘मादर-निशाँ (= मातृ-परिचयी)’ जैसे शब्द इस कविता को आसानी से ‘फे़मिनिज़्म’ की सुपरिभाषित वीथियों में ले जा सकते थे किन्तु हम पाते हैं कि इस कविता की चिन्ताओं में जहाँ परवीन शाकिर ने अपने स्त्री-कवि के समाहार-द्वन्द्व14 को उस अलमदारी15 में शामिल किया है जिसकी अग्रेसरता उन्होंने प्राचीन यूनान की स्त्री-कवि सैफ़ो और मध्यकालीन भारत की स्त्री-कवि मीराबाई में स्वीकार की है, वहीं इसके परिणाम-स्वरूप अपने बेटे और अपने पति की सामाजिक असमंजसता को भी शामिल किया है जिसपर अपनी इयत्ता को वर्चस्वशाली रखने का आग्रह उनका नहीं है; इस नियति को शिरोधार्य करने की वेदनामय विवशता ही उनका वक्तव्य है।
परवीन का परिवार उदार नवाचारों के आत्यन्तिक विरोध में न था, परवीन को मदरसे से बाहर की समकालीन उच्च शिक्षा मिली थी, परदे की कोई ऐसी पाबन्दी न थी, और अगर वे मुशाइरों में जाकर मरदों के साथ कविता पढ़ती थीं तो इसको प्रोत्साहन मिला हो या न मिला हो, कुछ ऐसा विरोध भी इसका नहीं हुआ। ससुराल में भी मनमुटाव के बावजूद उन पर ऐसी कोई बन्दिशें नहीं थीं और यद्यपि दोनों परिवार परिपाटीगत धर्माचरण में दृढ़ आस्था रखते थे, जैसा परवीन ने नज़ीर सिद्दीक़ी को लिखे एक पत्र में बताया है, वे विवाह के बाद भी ‘रोजे़ वोजे़’ नहीं रखती थीं।
किन्तु यह सच है कि अपने विवाह के समय तक परवीन एक कवि, रेडियो और टेलीविजन पर कार्यक्रम-संचालक तथा कलाकार और अख़बारी कालम लिखने वाली पत्रकार के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त थीं और उनकी ससुराल के लोग शायद इन बातों से उदासीन थे। संयुक्त परिवार में रहने का परवीन को कोई अनुभव पहले से न था, वे पढ़ाई और काव्यशास्त्रविनोद में व्यस्त रहती थीं और घरेलू कामों के लिए न उनके पास समय था, न उन्हें कोई दिलचस्पी थी, और न ही उनके ऊपर कोई दबाव था। कहा तो यह जाता है कि उन्हें विवाह के समय तक भोजन बनाना नहीं आता था और वे भोजन बनाने का तरीक़ा अपनी बहन से फ़ोन पर पूछती थीं (जो वे शायद कॉलेज से करती होंगी क्योंकि ससुराल में तो टेलीफ़ोन था नहीं)। बड़ी बहन से रसोई के व्यंजन सीखना किस प्रकार कटुता उत्पन्न कर सकता है यह समझना आसान नहीं है। जो भी हो, कोई एक साल उनका वैवाहिक जीवन कुछ सुखमय बीता जब उनके पति को पाकिस्तानी फ़ौज में काम मिला16 और दोनों एबटाबाद में रहे। इस दौरान परवीन ने कई मुशाइरों में भाग लिया और नसीर अली को चाहे उनके साथ पुछल्ले की तरह घूमना बुरा ही लगा हो, उन्होंने कोई बन्दिश भी नहीं लगायी।
नज़ीर सिद्दीक़ी को लिखे एक पत्र में परवीन शाकिर ने बताया है कि उनके रिश्ते अपने पति के साथ तो अच्छे थे किन्तु ससुराल के अन्य लोगों के साथ निभाना उनके लिए सम्भव नहीं हो पाया। इसका कारण उन्होंने यह बताया है कि ‘वे मेज़-कुर्सी या आलमारी नहीं थीं, सोचने वाला ज़हन रखते हुए एक लड़की थीं’। अन्ततः वे अपने मायके आ गयीं जहाँ उनके पति प्रायः नित्य ही एक बार आ जाते थे और वीक-एन्ड में रुक भी जाते थे। नसीर अली पाकिस्तान के बाहर कहीं नौकरी करने की कोशिश में थे और परवीन की भी इसमें सहमति थी बशर्ते कि ‘मिडिल ईस्ट’ न जाना पड़े। पति-पत्नी के बीच यह सहमति बनी थी कि जब तक ऐसा नहीं होता, परवीन मायके में ही रहेंगी। भारतीय सन्दर्भ में यह मानना मुश्किल है कि मायके या ससुराल में कोई भी इस स्थिति से प्रसन्न होगा किन्तु किसी ने परवीन से इतनी असहमति नहीं दिखायी कि परवीन को मायका छोड़ना पड़े। स्वयं परवीन को भी नज़ीर सिद्दीक़ी इस्लामाबाद में कोई नौकरी दिलाने के प्रयास में थे। इस बीच परवीन को प्रशासनिक सेवा में सफलता मिल गयी।
इसके बाद उनकी पोस्टिंग जब तक कराची में रही और उन्हें स्वतन्त्र रूप से एक सरकारी घर में रहने की सुविधा मिली, विवाह टूटा नहीं, चाहे निबाह कठिन रहा हो। यह माना जा सकता है कि लड़कियों के स्थानीय कॉलेज में अध्यापिका होने और केन्द्रीय सरकार में ऊँचे ओहदे पर अफ़सरी करने के बीच बिहार के एक गाँव से आया हुआ मध्यवित्तीय सैयद घराना जिसकी पारिवारिक सम्पत्तियों में सबसे मूल्यवान उसका वंशवृक्ष है, ज़रूर अध्यापिका होने को ही वरीयता देता होगा और चाहता होगा कि वे अपनी अफ़सरी छोड़ें, ख़ासतौर पर तब जब उसके लिए दूर बसी राजधानी में जाना हो। नसीर अली से यह उम्मीद तो नहीं की जा सकती थी कि वे परिवार के अन्य सदस्यों के प्रति कोई ज़िम्मेदारी न निभायें, ख़ासतौर पर तब जब उनके एबटाबाद-प्रवास के दौरान उनके बड़े भाई सैयद तनवीर अली की मृत्यु एक दुर्घटना में हो चुकी थी।17
इन कारणों के अतिरिक्त कोई और बात सामने नहीं आयी है। जो भी हो, इसका नुक़्सान सभी को हुआ क्योंकि यद्यपि इस्लाम में तलाक़ और पुनर्विवाह वर्जित नहीं है, भारतीय मुस्लिम शुरफ़ा में ये दोनों ही सामाजिक अप्रतिष्ठा के सूचक रहे हैं और परवीन ने एक अकेली ज़िन्दगी गुज़ारी है जिसकी टीस उनकी कविताओं में उभरती है।
नसीर अली ने फिर दूसरा विवाह कर लिया जिससे वे एक बेटी के पिता हुए। तलाक़ की शर्तों में यह था कि परवीन अपने बेटे को तभी अपने साथ रख सकेंगी जब वे पुनर्विवाह न करें। पैंतीस साल की उम्र में बेटे के लिए परवीन ने यह कठिन चुनाव भी किया। उन्होंने अपने बेटे को इस्लामाबाद के बेकन हाउस में प्रवेश दिलाया जो पाकिस्तान के सबसे प्रतिष्ठित विद्यालयों में से था; निश्चय ही ऐसी परवरिश उसे अपने पिता के संरक्षण में न मिल सकती। वे उसे न्यूरोसर्जन बनाना चाहती थीं। असमय मृत्यु के नाते वे अपने बेटे की सफलता अपनी आँखों से न देख पायीं किन्तु यह मानना चाहिए कि यदि वे जीवित रहतीं तो उन्हें इस मोरचे पर अपनी सफलता से सन्तोष ही होता।
1.1.3 टिप्पणी
परवीन को लेकर बहुत से अस्पष्ट प्रवाद प्रचलित हैं। संक्षेप में, प्रवादों का सारांश यह है कि कॉलेज में पढ़ते समय वे किसी से प्रेम करती थीं और वह व्यक्ति भी उन्हें चाहता था किन्तु इसी बीच वह व्यक्ति सेन्ट्रल सर्विसेज़ में चयनित हो गया जिसके नाते उसके लिए ‘सम्पन्न और पहुँच वाले’ ख़ानदानों से रिश्ते आने लगे और परिणामतः उसने परवीन से किनारा कर लिया। इन प्रवादों का ढाँचा उनकी कविताओं में ही मौजूद है जिनमें से कई का आत्मकथात्मक पाठ करना सम्भव है। लगता है कि ऐसे ही आत्मकथात्मक पाठ के भरोसे, और शायद कुछ इधर-उधर से सुनकर भी, नज़ीर सिद्दीक़ी ने सीधे परवीन शाकिर से ही इस बारे में पूछा जिसके जवाब में परवीन शाकिर ने उन्हें 27 फ़रवरी 1978 को लिखा :
खुशबू के हवाले से जो सवाल आपने उठाया है, मेरा ख़याल है उसका जवाब उसी में मौजूद है। यह सबकुछ कैसे हुआ, दोनों में से कोई न समझ सका, बस यूँ जान लीजिए कि civil service और मुहब्बत में अव्वल-उल-ज़िक्र की जीत हो गयी। ज़िन्दगी के मुतअल्लिक़ जब नज़रिया तब्दील हुआ तो इर्द-गिर्द रहने वाले लोगों के बारे में राय की तब्दीली नागुज़ीर थी और मैंने उसके फै़सले के आगे सर झुका दिया क्योंकि उसने मेरी तरबियत इसी तरह की थी।
मुझे इस सिलसिले में कोई और प्रामाणिक सूचना नहीं मिल सकी किन्तु इतना तो कहा ही जा सकता है कि जो भी लड़का परवीन को प्रेम करने का दावा करता था, उसने अफ़सर बनने को प्राथमिकता दी, चाहे उसने यही कहा हो कि मैं इस इम्तिहान में कामयाब होने के बाद ही तुम से शादी करूँगा। यह आश्चर्यजनक है कि अपने पत्र-व्यवहार के लगभग प्रारम्भ में ही नज़ीर सिद्दीक़ी ने ऐसा नितान्त व्यक्तिगत प्रश्न किया और परवीन ने उसका जवाब दिया जब कि नज़ीर सिद्दीक़ी की उम्र इस समय परवीन की उम्र से दुगुनी थी, दोनों ही विवाहित थे, और दोनों के बीच एक आलोचक तथा एक कवि के साहित्यिक सम्बन्ध के अतिरिक्त कोई ऐसी निकटता न थी जो ऐसे प्रश्न उठाने की अनुमति देती। जो भी हो, इस उत्तर से इतना तो साफ़ ही है कि जहाँ तक परवीन की बात है, इस ‘मुहब्बत’ में कुछ ऐसा न था जो उनके दाम्पत्य को असहज करता।
यह भी कहा जाता है कि वह लड़का सुन्नी परिवार से था जब कि परवीन शाकिर एक शीआ परिवार से थीं और इस नाते परवीन शाकिर के माता-पिता इस प्रस्ताव के विरोध में थे। इसका विलोम भी प्रचलित है, अर्थात् यह कि वह लड़का एक धनी परिवार से था जब कि परवीन एक मध्यवित्तीय परिवार से थीं और इस नाते उसी के परिवार के लोग इस विवाह के विरोध में थे। सच कुछ भी हो जितने की पुष्टि ऊपर दिये गये परवीन शाकिर के उद्धरण से हो सकती है वह इतना ही है कि उस लड़के ने अपनी अफ़सरी को अधिक महत्व दिया, प्रेम को कम। परवीन की कविताओं के आत्मकथात्मक पाठ भी ‘प्रेमी की बेवफ़ाई’ से अलग हमें नहीं ले जाते। जो भी हो, इस प्रसंग की आँच और राख हमें उनकी कविताओं के बाहर कहीं प्रत्यक्ष देखने को नहीं मिलीं।
इसका अर्थ यह नहीं है कि परवीन को उन लांछनों का सामना नहीं करना पड़ा जिन्हें एक स्त्री की सार्वजनिक उपस्थिति के साथ हमारी पितृसत्तात्मक सामाजिकता स्वतः जोड़ देती है। परवीन शाकिर के समकालीन स्त्री-कवियों में से कई की ज़िन्दगी अजीरन थी; उदाहरण के लिए सिन्धी भाषा की कवि अकरम सुल्ताना के बारे में यह प्रचार किया गया कि वे मुशाइरों में ‘अपने लिए मर्द फँसाने’ जाती हैं और तंग आकर उन्होंने 1973 के आस-पास अपना नाम बदलकर सुल्ताना वक़ासी रख लिया। 29 वर्ष की उम्र में आत्महत्या करने वाली सारा शगुफ़्ता पर परवीन शाकिर ने एक कविता भी लिखी है जिसकी कुछ चर्चा आगे की जायगी।
परवीन शाकिर उर्दू साहित्य में बिना किसी छिपाव-दुराव के असफल प्रेम और उद्दाम यौनिकता की कविताएँ लिखने वाली शायद अकेली स्त्री-कवि हैं और उनके बारे में तिल की नामौजूदगी में भी ताड़ बन जाना अस्वभाविक नहीं है। यह बात भी सच है कि उनकी प्रसिद्धि को लेकर बहुत से लोग उनसे ईर्ष्या करते थे। चूँकि उनकी कविताओं को ख़राब ठहराना आसान नहीं था, उन पर आक्रमण का एक ही तरीक़ा बचता था कि उनके ‘भली औरत’ के मानदण्डों पर खरा न उतरने के दबे-छिपे इशारे हवा में तैराते रहे जायें। इस तरीक़े का भरपूर इस्तेमाल हुआ लगता है। परवीन ने नज़ीर सिद्दीक़ी को एक पत्र में लिखा है कि उनको कराची के साहित्यकारों से मिलना-जुलना बहुत पसन्द न था क्योंकि वे सब ‘सख़्त स्कैन्डलबाज़’ थे। रूपलोभी पुरुषों के बीच रहने से उपजे असुरक्षा-भाव के संकेत भी उनकी कविताओं में मिलते हैं। किन्तु इसका कोई सीधा असर उनके जीवन पर पड़ा हो इसके प्रमाण सामने नहीं आये हैं और मेरी समझ में तो इतना ही आता है कि यह तलाक़ संयुक्त परिवार में परवीन की असहजता के नाते हुआ जिसमें ऊँट की पीठ तोड़ने वाला तिनका उनकी इस्लामाबाद पोस्टिंग थी।
कभी-कभी शायद अनजाने में ही, उनके प्रशंसकों में भी परवीन का साहित्येतर आकर्षण छलक जाता है। उदाहरण के लिए नज़ीर सिद्दीक़ी ने उपरि-वर्णित पत्रसंग्रह की भूमिका में लिखा हैः परवीन शाकिर अपने जमाल+ओ+कमाल (= सौन्दर्य और पूर्णता) की बिना पर ... उभरीं...। हो सकता है कि उनका आशय परवीन शाकिर की कला के सौन्दर्य से रहा हो किन्तु वे निश्चय ही किसी पुरुष कवि के बारे में ऐसा न लिखते। परवीन शाकिर ने नोशी गीलानी की किसी काव्य-पुस्तक के लोकार्पण के समय कहा था कि यदि कोई स्त्री-कवि अच्छी रचना-कार होने के साथ सुन्दर भी हो तो उसकी कठिनाइयाँ बढ़ जाती हैं। यह बात उनके अपने बारे में भी सच है। अपने कई साक्षात्कारों में उन्होंने इस समस्या का उल्लेख किया है जिसमें से एक का उद्धरण मैं देता हूँ।
परवीन शाकिर के पाकीज़ा वाले जिस साक्षात्कार की चर्चा पहले आ चुकी है, उसमें यह आता हैः
प्रश्नः क्या कभी ऐसा भी हुआ कि किसी महफ़िल में खूबसूरत मर्द को आपकी तरफ़ तवज्जुह18 देख कर गुस्सा आ गया हो?
उत्तरः फ़ितरी (= स्वभाविक) बात है, गुस्सा आ जाता है, लेकिन क्या करूँ, लड़की भी हूँ, शेर भी कहती हूँ, और बदसूरत भी नहीं हूँ। इसलिए अब तो आदी हो गयी हूँ।
1.1.4 मृत्यु
जैसा ऊपर बताया गया है, फ़रवरी 1989 में दिल्ली में आयोजित ‘विश्व उर्दू सम्मेलन’ में भाग लेने परवीन शाकिर भारत आयी थीं। यहाँ उन्होंने एक ज्योतिषी को अपना हाथ दिखाया जिन्होंने देखते ही कहा, ‘बहुत छोटी उम्र लिखवा कर आयी हैं आप’ और फिर बोले, ‘चार क़िताबें हैं, पाँचवी नहीं दिखायी देती’। इसी ज्योतिषी ने यह भी बताया कि उनके साथ एक कार-दुर्घटना होगी जिसमें ड्राइवर मारा जायेगा। परवीन ने अपने बचने के बारे में पूछा तो ज्योतिषी ने कहा, ‘एक टाँग से महरूम हो जायेंगी।’ ये सारी बातें लगभग सच हो गयीं जब इस्लामाबाद में 26 दिसम्बर 1994 को अपनी सरकारी सुजुकी वैन से दफ़्तर जाते हुए उनकी गाड़ी एक बस से टकरा कर दुर्घटनाग्रस्त हुई; ड्राइवर की मृत्यु घटनास्थल पर ही हो गयी और परवीन शाकिर के भी प्राण अस्पताल में पहुँचने के कुछ ही समय के बाद निकल गये। कहा जाता है कि उस समय बिजली की कटौती के नाते टै्रफ़िक लाइट्स काम नहीं कर रही थीं। परवीन शाकिर की उम्र उस समय बयालीस वर्ष तैंतीस दिन थी और उनके जीवन में उनकी कुल चार क़िताबें छपीं- ख़ुशबू (1977), सदबर्ग (1980), ख़ुदकलामी (1985) और इनकार (1990); पाँचवी क़िताब माह+ए+तमाम (1994) इन्हीं चार क़िताबों का एकत्र प्रकाशन है और छठी क़िताब कफ़+ए+आइन (1996) उनकी मृत्यु के बाद छपी है। 26 दिसम्बर 1994 को भी सोमवार ही था और ठण्ड तथा बरसात का माहौल था जैसा कि उनके जन्म के समय सोमवार 24 नवम्बर 1952 को था।
रविवार 25 दिसम्बर को उन्हें अपनी मित्र रफ़ाक़त जावेद के घर दोपहर का भोजन करने जाना था। वे नहीं पहुँच पायी थीं किन्तु रात को अचानक पहुँचीं और आइसक्रीम के लिए बाहर चलने को कहा जिससे बेहद सर्दी होने के नाते रफ़ाक़त ने मना कर दिया। फिर उन्होंने ‘ज़िन्दगी का क्या भरोसा रफ़ाक़त’ कहते हुए रफ़ाक़त को कुछ जे़वर वापस किये जो उन्होंने उनसे कभी लिये थे। रफ़ाक़त जावेद ने इन बातों का बयान ऐसे किया है जैसे परवीन को अपनी मृत्यु का पूर्वाभास हो चुका था। प्रायः किसी की मृत्यु के बाद हम कई बातों का स्मरण उस मृत्यु की परछाईं में करते हैं। कुछ और लोग भी ऐसे जोड़ बिठाते हैं। उदाहरण के लिए यह भी कहा जाता है कि इस भविष्यवाणी को ग़लत साबित करने के लिए ही परवीन ने अपनी प्रकाशित चार पुस्तकों का एकत्र प्रकाशन करके उन्हें माह+ए+तमाम नाम से एक पाँचवीं पुस्तक का रूप दिया। इस नाम के चुनाव की भी एक कहानी बतायी जाती है। कहते हैं कि अहमद फ़राज़ अपनी कविताओं का एक बड़ा संग्रह निकालना चाहते थे और इस संग्रह के लिए परवीन शाकिर ने माह+ए+तमाम नाम सुझाया। इस नाम का तर्क अहमद फ़राज़ का यह शेर थाः
उसने सुकूत+ए+शब में भी, अपना पयाम रख दिया
हिज्र की रात बाम पर माह+ए+तमाम रख दिया।।
किन्तु इस नाम से गूँजने वाली अमंगल-ध्वनि के नाते अहमद फ़राज़ ख़फ़ा हो गये और बोले कि ‘अभी मेरा फ़न्नी सफ़र तमाम नहीं हुआ है (= अभी मेरी कला-यात्रा समाप्त नहीं हुई)’ जिसके बाद उनके काव्य-संग्रह के लिए यह नाम अस्वीकृत हो गया। बाद में जब परवीन शाकिर ने उनसे यह नाम अपने काव्य-संग्रह के लिए माँगा तो अहमद फ़राज़ फिर बहुत ख़फ़ा हुए और कहाः
भला तुम्हारी उम्र या फ़न्नी सफ़र की इस लफ़्ज़ के मफ़हूम से क्या मुनासिबत है? तुम तो अभी शेरी सफ़र की पुरबहार महकती सुबह की मानिन्द हो जिसने अभी बहुत से अनमोल गुन्चे खिलाने हैं। तुम तो अभी अधखिली कली की मानिन्द हो जिसने वक़्त गुज़रने के साथ फूल बनकर खिलना है और उर्दू अदब के दामन को ताबदार करना है।19
यह इत्तिफ़ाक़ ही है कि अहमद फ़राज़ की मृत्यु के बाद पाकिस्तान के डायरेक्टरेट ऑफ़ फ़िल्म पब्लिकेशन्स ने उन पर जो पुस्तक 2009 में छापी है, उसका शीर्षक भी माह+ए+तमाम ही है।
इसी प्रकार एक और संयोग की चर्चा होती है। उनकी मृत्यु के दूसरे दिन दैनिक जंग के लिए उनके नियमित लिखे जाने वाले कालम की (आख़िरी) क़िश्त छपी जिसमें एक दिलचस्प घटना का उल्लेख था : एक मुशाइरे से आधी रात को घर लौटते हुए इफ़्तिख़ार आरिफ़ और अज़हर अब्बास हाशिमी को रास्ते में पुलिस ने पकड़ लिया। परवीन शाकिर ने इसके बाद की बातचीत का ज़िक्र अपने कालम में यों किया हैः
‘इतनी रात गये आप दोनों कहाँ जा रहे हैं?’
‘घर जा रहे हैं।’
‘यह घर जाने का कौन सा वक़्त है?’
‘शाम होती है तो घर जाने को जी चाहता है’, इफ़्तिख़ार आरिफ़ ने अपने शेर की मार देनी चाही।20 ... और जब अच्छी तरह से इतमीनान हो गया कि ये दोनों दहशतगर्द नहीं दहशतज़दा हैं तो जाँबख़्शी की।
यह कालम कुछ-कुछ हास्य-व्यंग्य की ध्वनि लिए हुए है किन्तु इसका पहला वाक्य ‘मौत बरहक़ है लेकिन...’ से प्रारम्भ होता है और इस कालम के पहले शब्द ‘मौत’ से उनकी मृत्यु का सांयोगिक सम्बन्ध जोड़ा गया है।
परवीन शाकिर को इस्लामाबाद के एच-8 क़ब्रिस्तान में दफ़नाया गया है। इसी क़ब्रिस्तान में जोश मलीहाबादी और अहमद फ़राज़ की भी क़ब्रें हैं। परवीन शाकिर की क़ब्र की तस्वीर इन्टरनेट पर है। प्रतीत होता है कि यह सफ़ेद संगमरमर की बनी है और उनके सिरहाने की तख़्ती का जो सिरा क़ब्र के बाहर की ओर है, उसपर उनका नाम रोमन लिपि में PERVEEN SHAKIR और उसके नीचे 24th NOV 1952-25th DEC 1994 लिखा हुआ है जिसके नीचे उर्दू लिपि में उनके ये शेर खुदे हुए हैं :
मर भी जाऊँ तो कहाँ लोग भुला ही देंगे
लफ़्ज़ मेरे मेरे होने की गवाही देंगे।।
अक्स+ए+खुशबू हूँ, बिखरने से न. रोके कोई
औ (र) बिखर जाऊँ तो मुझको न. समेटे कोई।।
बख़्त से कोई शिकायत है न. अफ़लाक से है
यही क्या कम है कि निस्बत मुझे इस ख़ाक से है।।
बज़्म+ए+अन्जुम में क़बा ख़ाक की पहनी मैंने
औ (र) मेरी सारी फ़ज़ीलत इसी पोशाक से है।।
रक्खा है हमको आँधियों ने ही कशीद.-सर
हम वह चिराग़ हैं जिन्हें निस्बत हवा से है।।
तथा इनके नीचे फिर रोमन लिपि में PLOT NO 57-GRAVE NO 44 अंकित है। तख़्ती का जो सिरा क़ब्र की ओर है, उसपर उर्दू लिपि में सब कुछ अंकित है। पहली दो पंक्तियाँ मैं नहीं पढ़ सका किन्तु उनके नीचे ‘परवीन शाकिर’, फिर उस के नीचे ‘बिन्त सैयद शाकिर हुसैन’ (‘बिन्त’ का मतलब है ‘बेटी’) लिखा है जिसके नीचे दो पंक्तियों में उनके जन्म और मृत्यु की तिथियाँ अंकित हैं। इसके नीचे परवीन शाकिर के ये दो शेर खुदे हैं:
या रब मेरे सुकूत को नग्मासराई दे
जख़्म+ए+हुनर को हौसला+ए+लबकुशाई दे।।
शह+ए+सुख़न से रूह को वह आशनाई दे
आँखें भी बन्द रक्खूँ तो रस्ता सुझाई दे।।
अगर इसके भी नीचे कुछ है तो तस्वीर में वह फूलों से ढँका हुआ है।
उनके अन्तिम संस्कार के समय उनके बेटे सैयद मुराद अली के अतिरिक्त शायद परिवार का कोई अन्य सदस्य नहीं उपस्थित हो सका था। वैसे, इस्लामाबाद के कई गण्यमान्य उपस्थित थे। किश्वर नाहीद और शबनम शकील द्वारा उनके पार्थिव शरीर पर विलाप का उल्लेख मिलता है और यह माना जा सकता है कि इस्लामाबाद में उस समय जो भी साहित्यकर्मी रहे होंगे उनकी मौजूदगी अस्पताल से लेकर शोकसभा तक रही होगी। निजता के स्तर पर शायद सबसे महत्वपूर्ण नाम परवीन क़ादिर आग़ा का है जो परवीन शाकिर की सहकर्मी और मित्र थीं तथा उनके पास अस्पताल में सबसे पहले पहुँची थीं। परवीन शाकिर ने अपनी आख़िरी क़िताब इनकार इन्हें ही समर्पित की थी। इन्होंने ‘परवीन शाकिर ट्रस्ट’ बनाया है जिसकी वे अध्यक्ष हैं और इस ट्रस्ट के माध्यम से इन्होंने परवीन शाकिर की स्मृति में अनेक आयोजन करने, छात्रवृत्तियाँ देने और पुरस्कार बाँटने तथा पुस्तकें छपाने के अतिरिक्त सैयद मुराद अली की पढ़ाई का भी ज़िम्मा उठाया जो उस समय 16 वर्ष के ही थे। परवीन क़ादिर आग़ा उनकी क़ानूनी तौर पर अभिभावक भी थीं और उनके पति आग़ा अफ़ज़ल हुसैन का भरपूर सहयोग उन्हें इन सब कामों में मिला। रिटायरमेन्ट के बाद से ये कई सार्वजनिक महत्वपूर्ण पदों पर रहती आयी हैं और सिन्ध विश्वविद्यालय की कुलपति भी रहीं।
उस समय उपस्थित लोगों में दो और नाम हैं जो सार्वजनिक क्षेत्र में जाने-पहचाने हैं। इनका उल्लेख शाहनवाज़ खर21 ने 2014 में लिखे एक लेख में किया है। पहला नाम चौधरी एतिज़ाज़ अहसन का है जो तत्कालीन बेनज़ीर भुट्टो की सरकार में मन्त्री थे। बाद में ये नवाज़ शरीफ़ की सरकार में पाकिस्तान सिनेट में विपक्ष के नेता थे और अकेले वकील हैं जिन्होंने पाकिस्तान के तीन प्रधान मन्त्रियों- बेनज़ीर भुट्टो, नवाज़ शरीफ़, और यूसुफ़ रज़ा गीलानी- की ओर से समय-समय पर मुक़दमा लड़ा है। दूसरा नाम सरताज अज़ीज़ का है जो नवाज़ शरीफ़ के विदेश-सलाहकार रहे हैं। परवीन की मृत्यु का समाचार तत्काल फैल गया और भारत तथा पाकिस्तान से गोपी चन्द नारंग, कुर्रतुल ऐन हैदर, अली सरदार ज़ाफ़री, अहमद नदीम क़ासिमी, अहमद फ़राज़, नूर जहाँ आदि अनेक कला-कर्मियों ने सार्वजनिक रूप से शोक व्यक्त किया। अली सरदार ज़ाफ़री ने एक लम्बी कविता परवीन शाकिर की मृत्यु पर लिखी है (जिसमें भूल से परवीन की कुल उम्र अड़तीस साल लिखी गयी है)।
पाकिस्तान में परवीन शाकिर की मृत्यु पर एक दिन का राष्ट्रीय शोक घोषित किया गया था।22 जिस सड़क पर उनकी कार दुर्घटनाग्रस्त हुई वह सड़क उनके नाम पर ‘परवीन शाकिर रोड’ कहलाती है।23 2013 में उनपर एक डाक-टिकट पाकिस्तान में जारी किया गया है। प्रतिवर्ष परवीन शाकिर ट्रस्ट, कस्टम्स डिपार्टमेन्ट और अन्य कई संगठन परवीन शाकिर की जन्मतिथि और मृत्यु-तिथि पर आयोजन करते हैं। 2019 में उनके जन्मदिन पर गूगल ने भी अपना डूडल उन पर बनाया था।
परवीन शाकिर की कविताओं का Dr. Shabrina Lei द्वारा किया गया एक अनुवाद इटालियन में Soliloquio नाम से 2012 में परवीन शाकिर ट्रस्ट द्वारा छापा गया। फ्रे़न्च समेत अनेक अन्य भाषाओं में किये गये कुछ अनुवादों की भी सूचना मिलती है। अंगरेज़ी में चौधरी मुहम्मद नईम ने परवीन शाकिर पर एक लेख में कुछ कविताओं के अनुवाद छापे थे; फुटकर अनुवाद और भी कई लोगों ने किये हैं। पुस्तकाकार छपे अंगरेज़ी अनुवादों में मुझे चार की जानकारी हैः पहली पुस्तक है बेदार बख़्त का अनुवाद Talking to Oneself. Translation of Selected poems of Perveen Shakir. Translated by Baidar Bakht, Leslie Lavigne with extensive collaboration by Perveen Shakir; Islamabad, Lafz Log Publishers 1995, दूसरी पुस्तक है Sessions of Sweet Silent Thought by Mahamudul Hasani, Mirza A B Beg, Mirza Nihal Ahmed Beg, Arshia Publications, Delhi 2012, तीसरी पुस्तक है रेहान क़य्यूम की After Perveen Shakirजो 2015 में छपी है, और चौथी पुस्तक है, नईमा रशीद द्वारा किया गया कुछ कविताओं का अनुवाद जो Defiance of The Rose नाम से पाकिस्तान के आक्सफ़ोर्ड प्रेस से 2019 में छपी है।
परवीन शाकिर ने स्वयं भी कुछ अनुवाद किये हैं। अहमद नदीम क़ासिमी की कुछ कविताओं का अंगरेज़ी में उन्होंने अनुवाद किया था जो पुस्तकाकार छपा था। इसके अतिरिक्त एक भारतीय लड़की गीतांजलि की अंगरेज़ी में लिखी कुछ कविताओं का अनुवाद उन्होंने उर्दू में किया था जो उनकी मृत्यु के बाद 1995 में छपा। ये कविताएँ उस लड़की ने किशोरावस्था में ही कैन्सर से जूझते हुए मृत्युशय्या पर लिखी थीं।
1.2 परवीन शाकिर की कविता का नेपथ्य
फ़ारसी-उर्दू कविता में कवि के स्व-यूथ्य ‘अनल हक़’ की प्रसिद्धि वाले मन्सूर हल्लाज हैं, इस्लाम का सार-तत्त्व कुफ्ऱ में ढूँढा जाता है, मुल्ला और मस्जिद का उपहास किया जाता है, ग़ैर-इस्लामी पूजा स्थलों और पूजा प्रतीकों की प्रशंसा की जाती है तथा शराब को केन्द्रीय प्रतिष्ठा दी गयी है। इन काव्य-रूढ़ियों का आत्म-कथात्मक पाठ करने वाले प्रायः फ़ारसी-उर्दू के प्रत्येक कवि के निजी विश्वासों को भी इस्लाम की परिपाटी के बाहर सर्व-पन्थ-समभाव और वैश्विक समरसता का पोषक मानते हैं यद्यपि सभी कवियों के बारे में निरपवाद रूप से यह बात नहीं कही जा सकती। यहाँ इस बहस में पड़ना ज़रूरी नहीं है और वैसे भी परवीन शाकिर की कविताओं में इन काव्य-रूढ़ियों का यथावत परिपालन नहीं हुआ है। कुछ अन्य साक्ष्यों के आधार पर उनके बारे में कुछ कहा जा सकता है।
1.2.1 देश के बाहर भी देस
अली सरदार जाफ़री ने अपने एक लेख नयी खुशबू24 में नवोदित कवि परवीन शाकिर का स्वागत करते हुए लिखा है कि वे 1977 की अपनी पाकिस्तान यात्रा के दिनों में लाहौर में पाकिस्तान के प्रसिद्ध चित्रकार सादिकै़न25 के स्टूडियो में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के साथ बैठे थे जहाँ उनकी नज़र एक काव्य-संग्रह पर पड़ी जिसका मुखपृष्ठ सादिकै़न ने तैयार किया था और जिसके कवि का नाम परवीन शाकिर था। कोई साढ़े तीन सौ पृष्ठ की इस पुस्तक को उठाकर फै़ज़ साहब ने मुस्कराते हुए कहा कि इतनी कविताएँ तो मैंने जीवनभर में नहीं लिखीं। इस कटाक्ष26 पर सादिक़ैन ने कवि का पक्ष लेते हुए कहा कि परवीन अधिक कविताएँ लिखती हैं किन्तु अच्छा लिखती हैं। इस क़िताब का नाम खुशबू था और तब तक इसका लोकार्पण (जिसे पाकिस्तान में ‘रू-नुमाई’, अर्थात् ‘मुँह पर से परदा हटाना’ कहते हैं) नहीं हुआ था।
कुछ दिन बाद दिसम्बर 1977 में लाहौर से कराची जाते हुए अली सरदार जाफ़री के साथ हवाई जहाज़ में अहमद नदीम क़ासिमी भी थे जो खुशबू के लोकार्पण के लिए ही जा रहे थे। कराची में यद्यपि सम्भवतः लोकार्पण के अवसर पर अली सरदार जाफ़री उपस्थित नहीं थे, वहाँ उनकी भेंट परवीन शाकिर से तीन बार हुई जिनमें से दो बार उन्होंने उनकी कविता भी सुनी- दूसरी बार तब जब सर सैयद कॉलेज (जहाँ की परवीन शाकिर छात्रा रह चुकी थीं) में अली सरदार जाफ़री के स्वागत के लिए आयोजित कार्यक्रम में परवीन शाकिर ने साग्रह लता मंगेशकर पर लिखी अपनी नज़्म यह कहकर सुनायी कि मैं इसे जाफ़री साहब की मौजूदगी में सुनाना चाहती हूँ। परवीन शाकिर की इस नज़्म का शीर्षक ‘मुश्तरका दुश्मन की बेटी’ है और इसमें वर्णित घटना यह है कि परवीन शाकिर अपनी कुछ सहकर्मियों के साथ एक चीनी रेस्तराँ में बैठी हुई थीं जहाँ उनकी सहकर्मी अध्यापिकाएँ भारत की बुराई कर रही थीं जिसमें रेस्तराँ के मालिक की पत्नी की भी भागीदारी थी (क्योंकि भारत दोनों देशों का ‘मुश्तरका (= साझा) दुश्मन’ है), तभी लता मंगेशकर की आवाज़ रेडियो पर सुनायी दी और उसके सम्मोहन में सब चुप हो गयीं। परवीन शाकिर ने फिर अपनी नवप्रकाशित पुस्तक की एक प्रति अली सरदार जाफ़री को यह कहकर दी कि आप वापस जाकर मुश्तरका दुश्मन की बेटी को यह क़िताब दे दीजियेगा (इसके पहले वे अली सरदार जाफ़री के लिए एक प्रति उनसे पहली ही भेंट में दे चुकी थीं)। इससे हम यह तो मान ही सकते हैं कि परवीन शाकिर कला-कर्म को सार्वदेशिक मानती थीं।
इससे यह भ्रम नहीं होना चाहिए कि उनके ‘देशप्रेम’ में कोई क़सर थी। कवि के रूप में उनकी सार्वजनिक उपस्थिति का विधिवत् प्रारम्भ जिस कविता से हुआ था वह ‘देशभक्ति’ की ही कविता थी जिसे उनकी शिक्षिका इरफ़ाना अज़ीज़ ने उनसे पाकिस्तान के ‘यौम+ए++दिफ़ाअ (= रक्षा-दिवस)’27 पर लिखवाया था; इस कविता को एक स्थानीय प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ। इस कविता का शीर्षक था सुबह+ए+वतन और इसकी कुछ प्रारम्भिक पंक्तियाँ ये हैं:
दफ़अतन् नूर हुआ, आगे बढ़ा इक जिबरील
दिल में रौशन किये आज़ादी की नूरी इन्जील
अज़्म की आग थी, ईमाँ की हरारत दिल में
जुल्मतें पिघलीं, तरशने लगी इक सुबह+ए+जमील
यह कहा जा सकता है कि सोलह बरस की उम्र में लिखी गयी पहली कविता जो एक छात्र-प्रतियोगिता के लिए लिखी गयी थी और जिसे कवि ने अपने किसी संकलन में शामिल नहीं किया है, के आधार पर कुछ कहना ठीक नहीं है किन्तु हम देखते हैं कि परवीन ने चहार-सू में प्रकाशित अपने इन्टरव्यू में भी इसका उल्लेख किया है अतः यह तो माना ही जा सकता है कि उनमें इस कविता को अपना बताने में कोई हिचक नहीं थी। यद्यपि परवीन अपनी संग्रहीत कविताओं में अपनी नागरिक वफ़ादारियाँ साबित करने को उत्सुक नहीं रही हैं, कभी-कभार उनकी राष्ट्रीय प्रतिबद्धता की झलक परवर्ती कविताओं में भी दिख जाती है। उदाहरण के लिए :
तुहमत लगा के माँ प. जो दुश्मन से दाद ले
ऐसे सुख़नफ़रोश को मर जाना चाहिए।।
।। सुख़नफ़रोश = काव्य-विक्रेता ।।
स्पष्टतः फ़हमीदा रियाज़ की ओर संकेत है जो ज़िया उल हक़ के शासन-काल में जान बचाकर भारत भाग आयी थीं और जिनके बारे में हबीब जालिब समेत अनेक पाकिस्तानी कवियों का यह विचार था कि उन्हें पाकिस्तान में रहकर ही ज़िया उल हक़ का सामना करना चाहिए था।28
1.2.2 आस्तिकता का मेरुदण्ड
परवीन शाकिर ने नज़ीर सिद्दीक़ी को लिखे एक पत्र में कहा है कि ‘क़िताबों ने कभी धोखा नहीं दिया, कोई बुत नहीं तोड़े’। इस वाक्य के निहितार्थ स्पष्ट है। उनके दूसरे संग्रह सदबर्ग में एक कविता है जो बेटी को विवाह के बाद ससुराल विदा करते हुए माँ-बाप की तरफ़ से लिखी गयी है। इसकी समापन-पंक्तियाँ हैं:
हम सब उसको याद करेंगे
और अपने अश्कों के सच्चे मोतियों से
सारी उम्र
एक ऐसा सूद उतारते जायेंगे
जिसका अस्ल भी हम पर क़र्ज़ नहीं था।
इस कविता का शीर्षक ‘जिज़्या’, अर्थात् मुस्लिम शासकों द्वारा शासित जनता के गै़र-मुस्लिमों से नियमित रूप से वसूला जाने वाला अर्थ-दण्ड है। इन दो उदाहरणों से इतना तो स्पष्ट है कि परवीन के मन में इस्लाम के सैनिक और साम्राज्यवादी इतिहास पर कोई गर्व-भाव नहीं था। यह छोटी बात नहीं है अगर हम इसकी बग़ल में हाली और इक़बाल जैसे कवियों को रखें जिनके लिए इस्लाम का कुल महत्व ही यही था कि वह विजेताओं का धर्म है।
परवीन के व्यक्तिगत धर्माचरण के विषय में यह कहा जाता है कि छात्रावस्था में वे बुर्क़ा पहनकर कॉलेज़ जाती थीं किन्तु उनकी सार्वजनिक उपस्थितियाँ इस कथन के विपरीत जाती हैं। उनके विवाह के बाद की पति के साथ खिंचवायी तस्वीर नेट पर मौजूद है जिसमें परदे के नाम पर साड़ी से सिर भी ढका हुआ नहीं है। बाद में उन्होंने आधुनिक वेषभूषा भी अपना ली थी और बाल कटवा लिये थे। वे परिवार-नियोजन की भी समर्थक थीं। यह ऊपर बताया जा चुका है कि वे रोज़ा वगै़रह नहीं रखती थीं। वे यह स्पष्ट रूप से स्वीकार करती थीं कि संसार में एक से अधिक धर्म हैं और किसी को दूसरे के धर्म का तिरस्कार नहीं करना चाहिए। किन्तु इन सब से यह निष्कर्ष निकालना असंगत है कि उनका मन इस्लाम से उचट गया था भले ही उनकी इस्लाम की समझ बहुत से दूसरे लोगों से अलग रही हो। गुलज़ार जावेद को दिये गये एक साक्षात्कार29 में उन्होंने कहा है कि परदे के बारे में उनका विचार वही है जो उनके मज़हब का है, अर्थात् ‘परदा आँख का होता है’। इसी साक्षात्कार में गुलज़ार जावेद का प्रश्न था कि पश्चिमी पद्धति के शिक्षा-संस्थानों से शिक्षित लोगों का मज़हब के प्रति कैसा विचार हो जाता है और परवीन शाकिर ने जवाब दिया हैः
दो तरह के रद्द+ए+अमल होते हैं- या आप अपने मज़हब से बहुत दूर हो जाते हैं या इतने क़रीब कि दूसरों के मज़ाहिब बुरे लगने लगते हैं। खुदा का शुक्र है कि मैं ऐसी किसी इन्तिहा तक नहीं पहुँची।
मेरी समझ में यह ‘मध्यम मार्ग’ ही परवीन शाकिर की वैचारिकता को सभी क्षेत्रों में परिभाषित करता है।
बाह्याचरण को छोड़ दिया जाय तो परवीन शाकिर धार्मिकता से उतनी ही और उसी हद तक ओतप्रोत थीं जितना कोई आस्थावान् भारतीय शीआ होता है। उन्हें अपने सैयद होने, अर्थात् हज़रत मुहम्मद की वंश-परम्परा से होने का भी सहज अभिमान था :
हमें बहुत है य. सादात+ए+इश्क़ की निस्बत
कि. यह क़बील. कोई ऐसा कम-नसब भी नहीं।।
-खुदकलामी में पृ. 103 पर ‘चराग़ माँगते रहने का कुछ सबब भी नहीं।’ से शुरू होती ग़ज़ल।
।।सादात+ए+इश्क = इमाम हुसैन के परिवार के लोग, जो ‘इश्क़’ (अर्थात् इस्लाम) के ‘सादात’ अर्थात् नेता हैं (श्लेष से ‘सादात’ का अर्थ ‘सैयद लोग’ भी है); निस्बत = सम्बन्ध : कम-नसब = निम्न-वंशीय।
शीआ अक़ीदे की नींव में कर्बला के मैदान में हुई इमाम हुसैन की शहादत है और इस पृष्ठभूमि की जानकारी के बिना न तो परवीन शाकिर को एक व्यक्ति के रूप में समझा जा सकता है और न ही उनकी कविताओं में पीड़ा की अभिव्यक्ति के सूक्ष्म संकेत समझे जा सकते हैं। इसलिए उसका एक अति संक्षिप्त विवरण सामने रखकर ही आगे बढ़ना ठीक होगा।
हज़रत मुहम्मद की बेटी हज़रत फ़ातिमा से ही उनका वंश चला है। इनका विवाह हज़रत अली से हुआ था जो हज़रत मुहम्मद के चचेरे भाई थे। शीआ अक़ीदा हज़रत अली को ही हज़रत मुहम्मद का वास्तविक उत्तराधिकारी मानता है किन्तु ऐतिहासिक घटनाक्रम इसके विपरीत गया और पहले ख़लीफ़ा हज़रत अबू बक्ऱ हुए तथा हज़रत अली को अन्ततः चौथे ख़लीफ़ा के रूप में सत्ता मिली। शीआ ‘ख़लीफ़ा’ की जगह ‘इमाम’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं और हज़रत अली को पहला इमाम मानते हैं। उनके देहावसान के बाद दूसरे इमाम उनके बड़े बेटे हज़रत हसन हैं जिनके बाद हज़रत अली के छोटे बेटे हज़रत हुसैन तीसरे इमाम हैं किन्तु राजनीतिक सत्ता यज़ीद के पास थी जिसने इराक़ स्थित कर्बला नामक स्थान पर उनके परिवार और अनुयायियों को घेर कर मार डाला। यह लड़ाई इस्लामी तिथिपत्र के पहले महीने ‘मुहर्रम’ के शुरुआती दस दिनों में हुई थी जिसमें होने वाले सामूहिक मातम से प्रत्येक भारतीय परिचित है।
किन्तु भारतीय शीआ समाज में प्रतिवर्ष दो महीने आठ दिन का मातम होता है, अर्थात् मुहर्रम और सफ़र के दो महीनों के बाद आठवीं रबी-उल-अव्वल तक जिस दिन ग्यारहवें इमाम की शहादत हुई थी। इस बीच भारतीय शीआ कोई भी पारिवारिक या सामाजिक मांगलिक आयोजन नहीं करते, और स्त्रियाँ चूड़ियाँ नहीं पहनतीं। इस समाज के लिए अपने तिथिपत्र में नवीं रबी-उल-अव्वल ही पहला दिन होता है जब वे खुशी मनाते हैं क्योंकि इसी दिन से बारहवें इमाम30 की इमामत प्रारम्भ होती है। मातम की इस दीर्घकालीन अवधि में कर्बला की लड़ाई और उसके बाद की हृदयविदारक कथा से सम्बद्ध प्रत्येक घटना पर शोक व्यक्त किया जाता है। सार्वजनिक शोक-सभाएँ होती हैं जो ‘मजलिस’ के नाम से जानी जाती हैं और इनमें इन्हीं घटनाओं पर आधारित प्रवचनों के अतिरिक्त मर्सिया, नौहा, सोज़ आदि शोक-काव्य पढ़े जाते हैं; इन काव्यविधाओं में इन्हीं घटनाओं का मार्मिक वर्णन होता है। घरों में स्त्रियों के लिए अलग से भी मजलिस होती है जिसमें प्रवचन करने वाली स्त्रियों को ‘ज़ाकिरा’ कहते हैं। स्त्रियाँ इस शोक पर आधारित लोकगीत भी गाती हैं। यह सब कितना केन्द्रीय है इसे इसी से समझा जा सकता है कि अनेक शीआ परिवारों में विवाह जैसे अवसरों पर भी मर्सिये पढ़े जाते हैं। माना यह जाता है कि इन मातमों में बहाया गया हर आँसू इहलोक और परलोक में कल्याणकारी होता है।
परवीन शाकिर ने होश सँभालने के साथ ही इन मजलिसों में अपनी मौजूदगी पायी और ज़ाकिराओं को सुनने तथा उनकी नक़ल करने से भाषिक व्यवहार प्रारम्भ किया; इन ज़ाकिराओं में तत्कालीन कराची की ख्याति प्राप्त ज़ाकिरा बतूल तुराबी का नाम विशेष रूप से लिया जाता है। ‘अनीस’ और ‘दबीर’ के मर्सियों से उन्हें परिमार्जित उर्दू भाषा के साथ ही साहित्य की स्तरीयता भी सीखने को मिली। उनकी कविता की देह के श्वास-निःश्वास यही स्तरीयता और मार्मिकता हैं। यों तो उन्होंने एक सलाम31 भी लिखा है किन्तु उनकी कविता में कर्बला से सम्बद्ध जिस मुख्य घटना का सन्दर्भ बार-बार आता है वह यह है कि हज़रत हुसैन की शहादत के बाद यज़ीद की सेना ने उनकी बहन हज़रत जै़नब की चादर खींच कर उन्हें बेपर्द कर दिया। अपमान की इस पीड़ा से ही परवीन की कविता का ‘स्त्री-वाद’ बना है, जिस पर कुछ विस्तार से आगे बात करेंगे।
आधुनिक उर्दू कविता ने कर्बला की शहादत को कई सन्दर्भों में इस्तेमाल किया है। जोश मलीहाबादी से लेकर हफ़ीज जालन्धरी तक, फै़ज़ अहमद फै़ज़ से लेकर फ़हमीदा रियाज़ तक, सबने कर्बला के शहीदों में शौर्य और संघर्ष के तत्त्वों का गुणगान किया है। किन्तु पीड़ा का उन्मीलन जिस मार्मिक और अन्तःप्रवाही ढँग से परवीन शाकिर की कविता में मिलता है, उसका रिसाव कर्बला की कारुणिकता को इन मुखर अभिव्यक्तियों से अधिक समावेशी बनाता है।
1.2.3 लोक और शास्त्र का अवेक्षण
परवीन शाकिर का घर-परिवार अभी बिहार को भूला नहीं था और उनकी कविता में तमाम स्मृतियाँ तथा संवेदनाएँ उनकी उन जड़ों से आती हैं जो भारत में पीछे छूट गयी थीं। नज़ीर सिद्दीक़ी की पत्नी ने उनकी कविताओं से ही यह अनुमान लगा लिया था कि यह लड़की बिहार की है। इन गूँजों और अनुगूँजों का स्रोत घरेलू बातचीत से ही उभरता है और यह सिर्फ़़ इस नाते नहीं है कि उन्होंने ‘गोरी करत सिंघार’32 लिखा है या ‘गंगा’ और ‘श्रीकृष्ण’ पर कविताएँ लिखी हैं या अपनी कविता को मीराबाई की कविता से जोड़ा है। इस तरह की चेष्टाएँ उनकी पीढ़ी के आसपास और पहले के कई कवियों में मिल जाती हैं और पाकिस्तान तक अपने को सीमित रखें तो मीराज़ी और जमीलुद्दीन आली की रचनाओं में बहुत सा ‘हिन्दी-पन’ खोज़ा जा सकता है। ‘देवमाला’33 में उनकी रुचि गहरी थी इसमें कोई सन्देह नहीं है और दस बरस की उम्र में की गयी अपनी वाराणसी-यात्रा में भी वे मानस-मन्दिर देखने गयी थीं किन्तु उनकी कविता में भारतीय मिथक-सम्पदा के उल्लेख एक सीधे सम्बन्ध की हैसियत में आये हैं, अपने को या उर्दू को ‘भारतीय’ बताने के लिए आरोपित नहीं हैं। यहाँ मैं सिर्फ़़ एक शेर देता हूँ जिससे कुछ अनुमान लग सकता है कि उनकी कविता में ऐसे तत्त्व किस तरह अपनी मौजूदगी दर्ज कराते हैं :
पावँ34 छूकर पुजारी अलग हो गये,
नीम-तारीक मन्दर की तन्हाई में
आग बनती हुई तन की नौखेज़ खुश-
-बू समेटे हुए देवियाँ रह गयीं।।
।। नीम-तारीक = हल्के अँधेरे वाला; मन्दर = मन्दिर; नौख़ेज़ = नयी उभरती हुई ।।
इसी की बग़ल में मैं इस ग़ज़ल का आखि़री शेर रखना चाहता हूँ :
अजनबी शह की अव्वलीं शाम ढल-
ने लगी, पुरस. देने जो आये, गये
जलते ख़ेमों की बुझती हुई राख पर
बाल खोले हुए बीबियाँ रह गयीं।।
।। अव्वलीं = पहली; पुरस. देने = शोक व्यक्त करने; बीबियाँ = (सम्मानयोग्य) स्त्रियाँ ।।
उद्धृत दो शेरों में से पहला जिस उद्दाम यौनिकता की ओर संकेत करता है वह उसमें आये हुए समूचे धर्म-सांस्कृतिक सन्दर्भ को मानवीय देहिकता में अभिव्यक्त करता है। दूसरा उद्धृत शेर वस्तुतः कर्बला की लड़ाई के बाद की उस घटना की ओर संकेत करता है जब इमाम हुसैन के परिवार की स्त्रियों को यज़ीद की राजधानी में अपमानपूर्वक ले जाया गया था किन्तु यहाँ भी सारा धर्म-सांस्कृतिक सनदर्भ मानवीय पीड़ा में ही अभिव्यक्त हुआ है। दोनों मिथक-सम्पदाओं को बिना लपके-हथियाये एक सदा-प्राप्त प्रलेख की सहजता से देह और मन की अभिन्न इकाई की व्यथा के रूप में ही समतोल पढ़ा गया है और इस पाठ का विस्तार सम्पूर्ण जगत् तक है, किन्तु उसका संकोच भी जगत् तक ही है, उसमें पारलौकिकता तक जाल फेंकने की लालसा नहीं है।
उनकी रुचि वस्तुतः एक जिज्ञासु की थी जैसा कि नज़ीर सिद्दीक़ी को भेजे गये एक पत्र (जिस पर 23 जून 1978 की तारीख़ पड़ी है) के इन वाक्यों से प्रकट हैः
हिन्दुओं ने ...ख़ैर+ओ+शर (= कल्याण और अकल्याण) को गोया ज़िन्दगी की जद्द+ओ-जहद (= संघर्ष) का मुहर्रिक (= चलाने वाला) बनाया।... तनासुख़ (= पुनर्जन्म) तक बात फैलायी गयी लेकिन बुनियादी बात वही रही कि नेकी का अन्जाम अच्छा और बदी का बुरा... नेकी अवतार बना देती है और बदी राक्षस। यही हाल यूनानी असातीर (= मिथक-सम्पदा) का है मगर ज़रा देखिए कि यह poetic justice भला ज़िन्दगी में होता कहाँ है? और बिलफ़र्ज़ (= मान लीजिए कि) अगर हो भी जाये तो भी कै दिन की बहार? वही मिट्टी में मिलना चाहे किसू का सर पर गु़रूर हो35 या कोई object जानवरों की सतह पर गुज़ारने वाला महकूम (= शासित) क़ौम का फ़र्द (= व्यक्ति)। और इस ultimate end के आगे सब कामरानियाँ (= सफलताएँ) बे-हक़ीक़त नज़र आने लगती हैं। माँदगी (= शिथिलता) के इस वक़्फ़े (= अवकाश)36 को लहर बनाने की क्या-क्या कोशिशें न हुईं मगर फ़राइन+ए+मिस्र (= प्राचीन मिस्र के बादशाहों) की ममियों से आगे बात न बढ़ सकी।
यों तो इन वाक्यों में कुछ संकेत ज़िया उल हक़ के शासन के अधीन तत्कालीन पाकिस्तान का भी है किन्तु यहाँ मैं इस ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ कि संसार-चक्र की व्याख्या कर्मफलवाद से करना परवीन को सन्तुष्ट नहीं कर रहा है और उनकी चाहत इन सवालों के भँवर में कुछ और गहरे उतरने की है।
साथ ही, अंगरेज़ी साहित्य के गहरे अध्ययन ने उनमें पश्चिम से भी प्राप्त कुछ संवेदनाएँ जगायी हैं जो यहीं तक सीमित नहीं है कि उन्होंने कुछ अंगरेज़ी शब्दों का प्रयोग अपनी कविता में किया है और Wasteland तथा Leda and the Swan को विषयीकृत करते हुए कविताएँ लिखी हैं। उनकी कविताओं के इन सभी तत्त्वों को उनकी कविता पर चर्चा करते समय सामने लाने की चेष्टा करेंगे।
फ़िलहाल यहाँ सिर्फ़़ एक बात की ओर ध्यान दिलाना चाहता हूँ। उर्दू के भाषा-ज्ञान की कसौटियों में दिल्ली या लखनऊ का रोज़मर्रा ही नहीं है, अरबी और फ़ारसी की शब्द-सम्पदा तथा छन्दःशास्त्र से गहरा परिचय भी है और इस कसौटी पर बड़े-बड़े कवियों की फ़ज़ीहत उर्दू आलोचना में प्रारम्भ से होती रही है। परवीन शाकिर का अरबी और फ़ारसी से कोई गहरा परिचय नहीं था, निजी स्वाध्याय और घर-परिवार के सुशिक्षित बुजुर्गों से जो कुछ सीखने को उन्हें मिला, उसी के बल पर उनकी कविता में इन भाषाओं का कुछ छौंक-बघार है। किन्तु इसका चरित्र क्या है, इसे मैं एक उदाहरण से स्पष्ट करता हूँ।
खुशबू में मौजूद एक ग़ज़ल है जिसमें क़ाफ़िये ‘मुरतसिम’, ‘मुनक़सिम’, आदि हैं। इस प्रकार इस ग़ज़ल में सचेष्ट होकर क़ाफ़िया कुछ अरबी शब्दों का चुना गया है। परवीन की ग़ज़लों में उस्तादी दिखाने की ऐसी प्रवृत्ति नहीं मिलती और यह स्पष्टतः एक प्रशिक्षु के उत्साह का परिणाम है। यहाँ जो बात जानने की है वह यह है कि इस ग़ज़ल का अन्तिम शेर यह हैः
मेरी गली में कोई शहरयार आता है
मिला है हुक्म कि. लहजे को मुहतरिम कर लूँ।।
।। शहरयार = राजा; मुहतरिम = आदर करने वाला ।।
इस पर नज़ीर सिद्दीकी ने एक आपत्ति ‘मुहतरिम’ शब्द को लेकर की जिसे उन्होंने सम्भवतः सार्वजनिक नहीं किया किन्तु परवीन शाकिर को लिखकर भेजा। परवीन शाकिर ने इस विषय में उनको जो उत्तर (अपने 23 जून 1978 वाले पत्र में) दिया है वह यह हैः
अलबत्ता लफ़्ज़़ ‘मुहतरिम’ के बारे में शायद मैं इतनी ग़लत नहीं कि अरबी में ‘मुहतरम’ के मानी वह जिसका एहतराम (= आदर) किया जाय और ‘मुहतरिम’ के मानी वह जो एहतराम करता है।
नज़ीर सिद्दीक़ी का पत्र सामने नहीं है किन्तु लगता यही है कि उनकी आपत्ति व्याकरण के सहारे थी और उन्होंने यह कहा होगा कि जब ‘मुहतरिम’ कर्ता है तो ‘लहजे को मुहतरिम करना’ सही वाक्य-प्रयोग नहीं है और ‘लहजे को मुहतरम करना’ सही होता क्योंकि ‘मुहतरम’ कर्म है। बाद के कुछ पत्रों में भी इस विवाद का सन्दर्भ मौजूद है और लगता है कि यह मुक़द्दमा कुछ और विद्वानों के पास गया। जो मैं कहना चाहता हूँ वह यह है कि नज़ीर सिद्दीक़ी की वरिष्ठता, विद्वत्ता और परवीन शाकिर पर वत्सलता जताते रहने की निरन्तर चाहत के बावजूद परवीन शाकिर झुकी नहीं और आज भी यह शेर उसी तरह मिलता है। रहा यह कि क्या होना चाहिए, तो मैं समझता हूँ कि कोई भी इस बात से सहमत होगा कि कवि को जो कहना है उसकी अभिव्यक्ति तो ‘मुहतरिम’ कहने से ही होती है और अगर व्याकरण का कोई नियम खण्डित भी हुआ है तो यहाँ खटकता नहीं।
1.2.4 परवीन का ‘स्त्री-वाद’ और उनकी ‘राजनीति’
रुख़साना अहमद द्वारा प्रणीत37 में पाकिस्तान की कुछ ‘स्त्री-वादी’ कवियों की कुछ रचनाओं का सानुवाद संकलन है। इनमें परवीन शाकिर को उन्होंने शामिल नहीं किया है, और जैसा कि भूमिका में उन्होंने स्पष्ट किया है, इसका कारण यह नहीं है कि परवीन शाकिर की कविता अच्छी नहीं है, इसका कारण यह है कि परवीन शाकिर ने ‘सेक्सिस्ट’ मूल्यों को स्वीकार कर लिया है।
परवीन शाकिर की कविता पर विचार करते समय मैं इस कथन के निहितार्थ से अपनी असहमति दर्ज करूँगा किन्तु परवीन शाकिर को ‘अ-विद्रोही’ मानने पर उनके पाठकों में आम सहमति है। यहाँ मैं ऐसी मान्यता के पीछे के उन तर्कों को सामने लाना चाहता हूँ जिनके आधार पर ऐसा बिना परवीन शाकिर की कविता को पढ़े भी माना जा सकता है।
सबसे पहले तो हम यह देखते हैं कि आपने निजी दुःखों का सार्वभौम प्रक्षेपण करते हुए उन्होंने कोई आक्रामक दर्शन नहीं तैयार किया। मैं गुलज़ार जावेद द्वारा लिये गये उपरिचर्चित साक्षात्कार से एक उदाहरण देता हूँ :
प्रश्नः पहले बाप, फिर शौहर, औरत की शिनाख़्त के यह हवाले तौहीन+ए+निसवाँ के जुमरे में नहीं आते?
उत्तरः यह तो बहुत खूबसूरत रिश्ते हैं, इनमें तौहीन का पहलू कहाँ से नज़र आया?
कुछ और तथ्य भी इस उद्धरण की बग़ल में रखे जा सकते हैं। जब वे चीन गयी थीं तो उनके साथ-साथ प्रतिनिधिमण्डल में अता उल हक़ क़ासिमी भी थे जिन्हें परवीन शाकिर ‘भाई’ कहती थीं (शायद इसलिए कि ये भी अहमद नदीम क़ासिमी के स्नेहभाजनों में से थे)। वहाँ अता उल हक़ क़ासिमी अपनी कमीज़ प्रेस कर रहे थे तो परवीन ने उनसे कमीज़ ले ली और यह कहते हुए कि ‘बहन के होते हुए भाई यह करते अच्छे नहीं लगते’, खुद प्रेस करने लगीं। वे अपने बेटे मुराद को बड़ा होते हुए देखकर प्रायः यह कहती थीं कि ‘एक लड़का जब जवान होता है तो उसकी माँ मज़बूत होती है’। अपने पिता के देहान्त के समय वे अमरीका में थीं और उन्होंने अहमद नदीम क़ासिमी को लिखा था कि चूँकि उनका कोई भाई नहीं है, इसलिए अब घर की देखभाल उन्हें ही करनी है और वे ही Man of the House हैं। उनकी मित्र रफ़ाक़त जावेद ने लिखा है कि उन्हें कभी-कभार पछतावा होता था कि उनका शेरोशाइरी का शौक़ शादी के बाद से आगे नहीं बढ़ सका और परवीन का जवाब होता था कि ‘तुम मुझसे अच्छी हो क्योंकि तुम एक खुशहाल घरेलू ज़िन्दगी बिता रही हो’। रफ़ाक़त उनके लिए ईद के जोड़े भी खरीदती थीं जिस पर परवीन का कहना था कि ‘ईद के नये जोड़े पहने सुहागिनें अच्छी लगती हैं, जो मैं नहीं हूँ’। इन सारी बातों से यह पता चलता है कि उन्हें बहन, बेटी, माँ, या पत्नी के रूप में अपने को पहचनवाने में कोई आपत्ति नहीं थी और शायद ऐसे परिचय को वे अन्य स्त्रियों के लिए भी अ-काम्य नहीं मानती थीं।
उनका अपना चुना हुआ परिचय ऐसे परिचयों से अलग रहा है किन्तु जैसा ऊपर की बातों से प्रकट है, उनका आग्रह अपने चुनाव को दूसरी स्त्रियों के लिए अनुकरणीय मनवाने का नहीं था। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि जिसे मैं परवीन शाकिर का ‘चुनाव’ कह रहा हूँ वह उस ‘प्रयोजन’ से भिन्न है जो उन्होंने अपने जीवन का नज़ीर सिद्दीक़ी को एक पत्र में बताया है, अर्थात् यह कि खुदा ने उन्हें कविता लिखने के लिए ही सिरजा था और इसलिए उन्हें सभी दुःख झेलते हुए भी कविता लिखनी ही है।
परिभाषा और व्याख्या के भीतर किसी परिणाम के पीछे की प्रक्रिया को पकड़ने के प्रयास में एक अनिश्चितता-सिद्धान्त काम करता हैः जितना ही आप उसको अपनी समझ के भीतर घेरने की कोशिश करते हैं, उसकी वास्तविकता उतनी ही बदलती जाती है। फिर भी बिना शब्द-व्यवहार के काम नहीं चलता अतः मैं अपने द्वारा प्रयुक्त ‘चुनाव’ शब्द का तात्पर्य बताने का प्रयास करता हूँ और इस ख़तरे से भी वाक़िफ़ हूँ कि जिस अनिश्चितता की बात मैंने अभी की है उस पर इस प्रसंग में ‘मर्द-समझावन ¾mansplaining)’ की अपनी परत भी स्वतः पड़ जायेगी। ‘चुनाव’ से मेरा मतलब उस सविनय अवज्ञा से है जिसका उल्लेख उन्होंने खुशबू की भूमिका में किया है और जिसके उद्धरण से मैंने इस अध्याय का प्रारम्भ किया है, अर्थात् सिर को न झुकाते हुए भी पलकों को भीगने की आज़ादी देने का चुनाव। सामान्यतः कोई भी ‘वाद’ उठे हुए सिर को दृढ़ता का और भीगी पलकों को दुर्बलता का पर्याय मानता है तथा इन दोनों के सहसमुच्चय को वैसे ही अस्वीकार्य मानता है जैसे प्रकाश के साथ अन्धकार की मौजूदगी को। हम यह सुनना पसन्द करते हैं कि वीर अपने सिद्धान्तों के लिए हँसते-हँसते प्राण त्याग देते हैं, यह नहीं मान सकते कि अपनी बात पर अड़े रहने वाले को पछतावा न करते हुए भी अपने अड़ियलपने के लिए मरते समय कष्ट भी हो सकता है।
यहाँ मैं थोड़ा हटकर एक उदाहरण देना चाहता हूँ। जैसा कि सुविदित है, बेनज़ीर भुट्टो से आसिफ़ ज़रदारी का विवाह प्रेम-विवाह नहीं था, दो परिवारों के बीच पारम्परिक ढँग से तय किया गया विवाह था जिसमें बेनज़ीर के लिए आसिफ़ अली ज़रदारी का प्रस्ताव बेनज़ीर की बुआ ने किया था यद्यपि लन्दन में पाँच दिन तक चली इस बातचीत में भावी वर-वधू परस्पर मिले थे और इस प्रकार अपरिचित नहीं रह गये थे। बेनज़ीर के अनुसार38 ‘पाँचवें दिन तक़दीर ने एक मधुमक्खी की शक्ल में फ़ैसला कर दिया।’ हुआ यह कि चौथे दिन बेनज़ीर एक पार्क में घूमने गयी थीं जहाँ मधुमक्खी ने उनके हाथ में काट लिया जिसके नाते घर लौटने तक उनका हाथ काफ़ी सूज आया था और उन्हें बहुत दर्द हो रहा था। आसिफ़ अली ज़रदारी ने तुरन्त एक कार से उन्हें हठपूर्वक डॉक्टर के पास भिजवाया। इस घटना पर बेनज़ीर की टिप्पणी हैः ‘पहली बार ऐसा हुआ कि नेतृत्व मेरे हाथ में नहीं था’।
तो कभी ऐसा भी हो सकता है कि आप खुदमुख़्तारी की यकताई से ऊब कर खुदसिपुर्दगी के लिए एक शरीक चाहें- हमारे अपने समय में BDSD (= Bondage, Discipline, Submission, Dominance) की स्त्रीवाद के भीतर स्वीकार्यता इसका एक अतिरेकी उदाहरण है किन्तु बहुत पहले कामसूत्र में ‘भोक्ता का अभिमान’ और ‘भोग्या का अभिमान’39 की समतोल सत्ताएँ स्वीकार की गयी थीं। मेरा कहना सिर्फ़़ इतना है कि स्वतन्त्रता का कोई एक ही अर्थ सबके लिए सब समय समान नहीं हो सकता और अन्तर्वैयक्तिक गतिकी को भेड़चाल में ढालने का हठ भी गुलामी थोपना है। समर्पण और दासता पर्यायवाची नहीं हैं।
पाकिस्तान में स्त्री-वाद के सन्दर्भ में कुछ बातें यहाँ प्रासंगिक हैं। 08 मार्च 2018 को अन्तर-राष्ट्रीय महिला दिवस पर पाकिस्तान के कई शहरों में ‘औरत मार्च’ के नाम से एक जुलूस निकला और इसका आयोजन प्रतिवर्ष करने का संकल्प भी लिया गया। 2019 के औरत मार्च में कई पोस्टर और नारे ऐसे थे जिनको लेकर पूरे पाकिस्तान में उग्र प्रतिक्रियाएँ सामने आयीं। इनमें से अधिकतर प्रतिक्रियाएँ इस आधार पर थीं कि ऐसे पोस्टर पाकिस्तान की स्वीकृत ‘इस्लामी संस्कृति’ के विरुद्ध हैं और इस सुपरिचित तर्क के भरोसे थीं कि ‘स्त्रियों को सर्वाधिक अधिकार इस्लाम ने ही दिये हैं’। 2020 के औरत मार्च के पहले यह बहस फिर भड़की जिसमें दो लड़कियों द्वारा बनाये जा रहे एक चित्रशिल्प को लाल मस्जिद के लोगों द्वारा नष्ट करने और टीवी पर एक चर्चित लेखक और फ़िल्म डायरेक्टर ख़लीलुर्रहमान क़मर द्वारा एक्टिविस्ट मार्वी सरमद को फूहड़ गालियाँ बकने से लेकर 08 मार्च को हुए औरत मार्च पर इस्लामाबाद में पथराव तक शामिल हैं। 2019 के मार्च में एक नारा था ‘मेरा जिस्म, मेरी मर्ज़ी’, जिसके प्रत्युत्तर में ‘मेरा जिस्म, अल्लाह की मर्ज़ी’ के नारे के साथ एक ‘हया मार्च’ भी 2020 में निकाला गया जिसमें स्त्रियाँ बुर्क़ा पहने मार्च कर रही थीं।
इस प्रत्याशित और परिचित घटनाक्रम में से यहाँ दो बातें प्रासंगिक हैं। पहली यह कि 2020 के औरत मार्च को रोकने के लिए एक मुक़द्दमा दायर हुआ था जिसके फ़ैसले में अदालत ने मार्च पर रोक लगाने से तो इनकार किया किन्तु अनुज्ञा इस शर्त पर दी कि कोई ऐसे नारे या पोस्टर मार्च में न हों जो नैतिकता या इस्लाम के विरोधी हों। इस सप्रतिबन्ध अनुज्ञा का मार्च के समर्थकों ने अपनी विजय मानने से इनकार किया है। दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि पाकिस्तान में स्त्रीवादी आन्दोलन की सबसे मशहूर आवाज़ किश्वर नाहीद ने भी 2019 के नारों में से कई पर आपत्ति की थी और यह सलाह दी थी कि औरत मार्च के आयोजकों को अपनी ‘संस्कृति और परम्परा’ का सम्मान करते हुए अपने नारों और पोस्टरों का चुनाव करना चाहिए। ‘इस्लामी’ विशेषण हटा देने के बाद यह वही आपत्ति थी जो मौलवी और इस्लाम का नाम लेने से बचने वाले मर्दवादी प्रगतिशील अपने को औरतों का हिमायती बताते हुए कर रहे थे। इसे ठीक से समझने के लिए एक पोस्टर पर चर्चा करते हैं जिस पर अन्य अनेक लोगों के साथ किश्वर नाहीद को भी आपत्ति थी।
यह पोस्टर कराची के हबीब विश्वविद्यालय की दो छात्राओं, रुमिसा लखानी और रशीदा शब्बीर हुसैन ने बनाया था। इसमें एक लड़की जाँघे फैलाकर एक पहलवान की तरह ताल ठोंकती हुई बैठी है और इसका शीर्षक है ‘लो बैठ गयी सही से’। यह उन प्रतिबन्धों के प्रतिपक्ष में था जो स्त्रियों के बैठने-उठने पर लगते रहते हैं और जिनकी कोई आवश्यकता पुरुषों के लिए नहीं समझी जाती। किन्तु किश्वर नाहीद समेत अनेक को इसमें केवल यौनिक आमन्त्रण दिखायी दिया जिसे उन्होंने अश्लील माना।
स्वभाविक है कि इन प्रतिक्रियाओं पर भी प्रतिक्रियाएँ आयीं और किश्वर नाहीद को भी सोशल मीडिया पर कुछ बुरा-भला कहा गया। यहाँ समझने की बात यह है कि पाकिस्तान शायद संसार का अकेला देश है जहाँ दो ‘महिला दिवस’ होते हैं: एक 08 मार्च वाला ‘अन्तर-राष्ट्रीय’ और दूसरा 12 फ़रवरी वाला ‘पाकिस्तानी’ जो ज़िया उल हक़ के समय में 12 फ़रवरी 1983 को शरिया क़ानून के कुछ प्रावधानों को लागू करने के विरोध में अस्मा जहाँगीर समेत अनेक महिलाओं द्वारा लाहौर में निकाले गये मार्च की स्मृति में मनाया जाता है। इस 12 फ़रवरी 1983 वाले मार्च पर पुलिस द्वारा किये गये लाठीचार्ज में किश्वर नाहीद को भी चोटें आयी थीं। स्वभाविक है कि 2019 वाले औरत मार्च के नारों से किश्वर नाहीद के मतभेद को ‘पीढ़ियों के अन्तर’ के रूप में देखा गया है।
यदि हम पाकिस्तान में आज के ‘हया मार्च’ और ‘औरत मार्च’ को देखें तो इतना तो साफ़ ही है कि ‘हया मार्च’ आदेशात्मक है क्योंकि वह सभी स्त्रियों को हिजाब में देखना चाहता है जबकि ‘औरत मार्च’ आदेशात्मक नहीं है क्योंकि वह सभी स्त्रियों को जाँघे फैलाकर बैठने को नहीं कहता, वह सिर्फ़़ यह पूछता है कि स्त्रियों के बैठने के लिए पाबन्दियाँ क्यों हैं। इस नाते मुझे लगता है कि ‘औरत मार्च’ मानवीय हित में है और ‘हया मार्च’ मानवीय अहित में। किन्तु मैं यह भी जोड़ना चाहता हूँ कि किश्वर नाहीद का भी सुझाव ‘औरत मार्च’ को आदेशात्मक बना देने का ही है।
मैं उन मर्दों की जमात में शामिल नहीं होना चाहता जो स्त्रियों को यह समझाना चाहते हैं कि अपनी बात कहने के लिए उनके द्वारा अपनाये जाने वाले तरीक़ों में से कौन सा तरीक़ा ‘उचित’ है। मेरा अपना मानना यह है कि अभिव्यक्ति के तरीक़े अलग हो सकते हैं और उनके बीच तारतम्य को औचित्य की मापनी पर नापना ग़लत है; साथ ही, समय की मापनी पर चढ़ाकर ‘पीढ़ियों के बीच अन्तर’ करना भी ग़लत है। नैतिक और अनैतिक की बहस से दूर, मैं यह मानता हूँ कि वास्तविक अन्तर एक ही विद्रोह की मुखरता के मन्द्र, मध्यम, या तार स्वरों में अभिव्यक्त होने का होता है और तीनों तरह के लोग एक ही समय में वर्तमान रह सकते हैं; साथ ही शाब्दिक अभिव्यक्ति के अनुवाद जीवन की घटनाओं में करने की प्रवृत्ति भी भ्रमोत्पादक है।
इस सन्दर्भ में हम देखते हैं कि पाकिस्तान में एक ही समय में वर्तमान तीन स्त्री-कवियों में से जीवन के स्तर पर किश्वर नाहीद के जीवन में किसी असहजता की उपस्थिति का पता नहीं चलता, परवीन शाकिर को अफ़वाहों का सामना भी करना पड़ा और अकेली ज़िन्दगी गुज़ारने का फै़सला भी लेना पड़ा और सारा शगुफ़्ता को मानसिक तथा दैहिक शोषण का लगातार शिकार होते हुए अन्ततः आत्महत्या करनी पड़ी जबकि कविता में विद्रोही स्त्री-वाद का सर्वाधिक स्वीकृत निनाद किश्वर नाहीद का है, सर्वाधिक परेशानकुन आवाज़ सारा शगुफ़्ता की है और सर्वाधिक नरम आहंग परवीन शाकिर का है यद्यपि तीनों कवियों में उसकी मौजूदगी न केवल असन्दिग्ध है अपितु समतोल भी है।
परवीन शाकिर की कविता में राजनीतिक मुखरता का भी अभाव देखा गया है। इसकी भी परीक्षा उनकी कविता पर बात करते समय ही उचित होगी और यहाँ फिर केवल उन्हीं आँकड़ों तक अपने को सीमित रखते हैं जिनके आधार पर बिना उनकी कविता पढ़े कुछ कहा जा सकता है। वैसे तो 19 जुलाई 1990 को उनके चौथे काव्य-संग्रह इनकार के लोकार्पण के समय पढ़े गये अपने निबन्ध उर्दू शाइरी की रानी झाँसी में सैयद ज़मीर जाफ़री ने इस संग्रह में संगृहीत अनेक कविताओं को ज़िया उल हक़ के शासन के विरुद्ध ‘कलाश्निकोव’ से तुलनीय बताया है किन्तु यह अपने आप में कोई प्रमाण नहीं है और कोई यह भी कह सकता है कि इस समय ऐसा कहना सुरक्षित था क्योंकि उस समय सरकार बेनज़ीर भुट्टो की थी और इस लोकार्पण के मुख्य अतिथि भी बेनज़ीर की पार्टी के एक बड़े नेता चौधरी एतिज़ाज़ अहसन थे किन्तु ऐसे सतहीपन से बचते हुए हमें कुछ आँकड़ों पर नज़र डालनी चाहिए।
2 अगस्त 1978 को लिखे गये जिस पत्र का उल्लेख ऊपर आ चुका है (जिसमें उन्होंने अपने द्वारा कलीम आजिज़ साहब की उपेक्षा के आरोप का जवाब दिया है) उसमें परवीन शाकिर ने नज़ीर सिद्दीक़ी को अपनी एक ताज़ा नज़्म मैकबेथ भेजी है जो नज़ीर सिद्दीक़ी को शायद पसन्द नहीं आयी और इसलिए परवीन शाकिर ने अपने 14 अगस्त 1978 के पत्र में उनसे यह अनुरोध किया है कि वे पाकिस्तान के तत्कालीन राजनीतिक सन्दर्भ में इस नज़्म को देखें और यह समझें कि ‘मैकबेथ’ कौन है। हमें यहाँ यह स्मरण रखना होगा कि जनरल ज़िया उल हक़ ने 5 जुलाई 1977 को जुलफ़क़ार अली भुट्टो की सरकार को हटाकर चीफ़ मार्शल ला ऐडमिनिस्ट्रेटर के रूप में पाकिस्तान का शासन सँभाल लिया था जबकि भुट्टो ने ही उन्हें सात वरिष्ठ जनरलों की उपेक्षा करके सेनाध्यक्ष बनाया था- तब हमें ‘मैकबेथ = ज़िया उल हक़’ का समीकरण बिलकुल प्रत्यक्ष हो जाता है। इसके आसपास के कुछ पत्रों में परवीन शाकिर ने स्पष्टतया नज़ीर सिद्दीक़ी को यह बताया है कि वे भुट्टो की समर्थक हैं और आश्चर्य न केवल परवीन शाकिर के साहस पर होता है अपितु नज़ीर सिद्दीक़ी की अति-जिज्ञासा पर भी जिन्होंने उस माहौल में इस विषय पर एक लिखित प्रश्नोत्तर की उम्मीद की।
भारत में प्रायः यह प्रचारित किया जाता है कि कम-अज़-कम सैनिक शासनों का तो सभी पाकिस्तानी बुद्धिजीवी विरोध करते ही रहे हैं। यह बात सच नहीं है; अयूब ख़ान के समय भी कुदरतउल्लाह शिहाब और जमीलुद्दीन आली जैसे लोग उनके साथ थे और हफ़ीज़ जालन्धरी तो ख़ैर उनके सलाहकार ही थे, फ़ैज़ को भी कुछ दिन क़ैद में रखने के बाद उन्होंने सरकारी नौकरी में ले लिया था। परवेज़ मुशर्रफ़ के समय भी फ़हमीदा रियाज़ समेत कई बुद्धिजीवियों का यह मानना था कि वे एक ‘अच्छे शासक’ थे। ज़िया उल हक़ के समय में भी कई बुद्धिजीवी उनके समर्थक थे जिनमें परवीन शाकिर के ‘अभिभावक’ अहमद नदीम क़ासिमी का भी नाम है।
अस्तु, ज़िया उल हक़ के दौर की लिखी हुई परवीन शाकिर की अपनी कविताओं में बहुत सारा आक्रोश व्यक्त है जिसकी प्रत्यक्ष राजनीतिक व्याख्या सम्भव है, यद्यपि यह सच है कि वे सरकारी नौकरी करती रहीं, सरकारी टेलीविज़न पर प्रोग्राम देती रहीं और सरकार के विरुद्ध किसी प्रदर्शन में भाग नहीं लिया। उनके सम्बन्ध शायद ज़िया उल हक़ के मीडिया प्रबन्धक ब्रिगेडियर सिद्दीक़ सालिक से भी अच्छे ही रहे होंगे जिनकी मृत्यु पर उन्होंने एक कविता लिखी थी।40
किन्तु हम इस ओर ध्यान दे सकते हैं कि सरदार जाफ़री के जिस नयी खुशबू शीर्षक लेख की बात ऊपर आयी है, उसमें उन्होंने यह बताया है कि कराची विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में आयोजित गोष्ठी में परवीन शाकिर ने दो कविताएँ पढ़ी थीं: एक तो ख़ाक-म ब-दहन41 शीर्षक नज़्म और दूसरी वह ग़ज़ल जिसका पहला शेर हैः
पा-ब.गिल सब हैं रिहाई की करे तदबीर कौन
दस्त-बस्त. शह में खोले मेरी ज़न्जीर कौन।।
।। पा-ब.गिल = ज़मीन में धँसे हुए पैरों वाले; दस्त-बस्त. = बँधे हुए हाथों वाले ।।
यदि हम यह ध्यान में रखें कि इस गोष्ठी के समय ज़िया उल हक़ का शासन आ चुका था तो हम इन कविताओं में व्यक्त क्षोभ के राजनीतिक चरित्र को तत्काल पहचान सकते हैं। यह ग़ज़ल उन्होंने 11 मार्च 1978 वाले मुशाइरे में दिल्ली में भी पढ़ी थी जहाँ भी इसका राजनीतिक चरित्र स्पष्ट था। सुना जाता है कि इस मुशाइरे में फ़िराक़ साहब भी मौजूद थे जिन्होंने इस ग़ज़ल को सुनकर मंच से ही अपने ख़ास अन्दाज़ में यह कहा, ‘वाह परवीन साहिबा, क्या मरदानी ग़ज़ल पढ़ी है। जी चाहता है कि चूड़ियाँ पहन लें’।
परवीन शाकिर में राजनीतिक साहस खोजते समय हमारे लिए यह ध्यान में रखना भी ज़रूरी है कि वे कवि के रूप में चाहे जितनी प्रशंसित क्यों न हों, वे एक मध्यवित्तीय परिवार से आती थीं और उनकी पहुँच सत्ता अथवा प्रतिपक्ष के उन आलीशान ड्राइंग-रूमों तक न थी जिनमें फ़ैज़ और फ़राज़ के लिए हमेशा कुर्सी मौजूद रही। राजनीति में सक्रिय भाग उन्होंने अपने छात्र-जीवन में भी नहीं लिया था। वे कविता के अतिरिक्त किसी और तरह से अपनी बात रख ही नहीं सकती थीं और उन्होंने ऐसा ही किया है। उनकी ‘राजनीतिक’ कविताएँ हबीब जालिब की कविताओं जैसी प्रत्यक्ष नहीं हैं किन्तु फ़ैज़ की कविताओं से अधिक परोक्ष भी नहीं है। कहीं-कहीं उनका कटाक्ष बहुत ही सूक्ष्म है- जैसे
फ़स्ल बरवक़्त न. कटती जो सरों की परवीन
आसमानों ने ज़मीनों को निगल जाना था।।
-सदबर्ग में पृ. 263 पर ‘आतश+ए+जाँ से क़फ़स आप ही जल जाना था’ से शुरू होती ग़ज़ल।
।। बरवक़्त = समय पर ।।
यह ज़िया-उल-हक़ के सैनिक शासन के पक्ष में दी गयी ‘अनिवार्यता का सिद्धान्त’42 की दलील पर व्यंग्य है और इसकी उर्दू में ‘ने’ की घुसपैठ ने जिस प्रकार पाकिस्तान के राजतन्त्र में ज़िया उल हक़ की घुसपैठ को उभारा है वह कविता में ही सम्भव है।
फिर भी, इन सब बातों के साथ यह सच है कि परवीन शाकिर को खुशबू की कवि के रूप में ही जाना गया और जैसा कि नज़ीर सिद्दीक़ी ने उपरिचर्चित पत्र संग्रह की भूमिका में स्वीकार किया है, खुशबू के बाद के उनके किसी संग्रह पर लिखने की उनकी कोई इच्छा नहीं हुई। इस समझ के कारण का कुछ संकेत इस उदाहरण से मिल सकता हैः 2 अगस्त 1978 वाले पूर्वोल्लिखित पत्र में परवीन शाकिर ने नज़ीर सिद्दीक़ी को यह लिखा है कि वे अपने दूसरे काव्य-संग्रह का नाम ‘हवा-बुर्द (= हवा के द्वारा उड़ा दिया गया)’ रखना चाहती हैं43 और इसके पीछे यह शेर हैः
आँसू रुके तो आँख में भरने लगी है रेत
दर्या से बच गये तो हवा-बुर्द हो गये।।
नज़ीर सिद्दीक़ी साहब को यह नाम नहीं पसन्द आया और इस सन्दर्भ में परवीन शाकिर ने उन्हें अपने 14 अगस्त 1978 वाले पत्र में लिखाः
मुझे पता था कि आपको मेरी नयी क़िताब का नाम पसन्द नहीं आयेगा। आप लोगों ने मेरे साथ softness को इतना वाबस्ता किया हुआ है कि ज़रा भी खुरदुरापन बरदाश्त नहीं। मगर सारा प्राब्लम यह है कि मेरी अगली क़िताब का मिज़ाज खुशबू से बड़ी हद तक मुख़्तलिफ़ है और हवाबुर्द (जैसा कि अपने बिलकुल दुरुस्त अन्दाज़ा लगाया- मेरी अपनी है) इस मिज़ाज को बहुत अच्छी तरह depict करती है।
लेकिन मेरा विचार है कि softness और ‘खुरदुरापन’ जैसे शब्दों की आड़ में कुछ और बातें छिपी हुई हैं- जब खुशबू में यह शेर पढ़ने को मिलता हैः
वह आग है कि मेरी पोर-पोर जलती है
मेरे बदन को मिला है चिनार का मौसिम।।
।। चिनार = प्रमुखतः काश्मीर में पाया जाने वाला एक वृक्ष जिसकी पत्तियाँ अक्टूबर-नवम्बर में रंग बदलकर लाल हो जाती हैं और फिर गिरने लगती हैं; इसके नाते यह कविसमय है कि उससे चिनगारियाँ झड़ती हैं। ।।
तो चूँकि सबको मालूम है कि यह शेर एक कमसिन और खूबसूरत लड़की का लिखा हुआ है इसलिए इसे तुरन्त काव्यजगत से निकाल कर कवि के बायोडाटा में उतार दिया जाता है जिसके चलते इस मर्दवादी सिद्धान्त के तहत कि ‘औरत का बदन से ज़ियादा कोई वतन नहीं होता’44 एक ऐसी गुदगुदी की उम्मीद की जाती है जो, उदाहरण के लिए, परवीन शाकिर के वरिष्ठ समकालीन ज़फ़र इक़बाल के इस शेर से नहीं प्राप्त होतीः
लौ दे उठीं फिसलती हुई उँगलियाँ ज़फ़र
वह आग थी खुले हुए रेशम के थान में।।
मैं इस ‘बायोडाटावादी आलोचना’ को ही परवीन शाकिर को ‘खुशबू की कवि’ के रूप में परिसीमित करने का उत्तरदायी मानता हूँ और आगे उनकी कविता पर बात करते हुए मैं यह दिखाने की चेष्टा करूँगा कि किस प्रकार इस आलोचना के दबाव के चलते परवीन शाकिर की कविताओं का पठन एकांगी रह गया है।
1. अनेक जगहों पर ‘रिज़वी’ की जगह ‘जै़दी’ लिखा मिलता है; यह ठीक नहीं है। सैयद शाकिर हुसैन भी अपनी छात्रावस्था में ‘साक़िब’ उपनाम से कविता करते थे और इसके नाते कुछ लोगों ने उनका नाम भूल से ‘साक़िब हुसैन’ भी लिख दिया है तथा ‘शाकिर’ को उनका उपनाम बताया है; यह भी ग़लत है।
2. इस नाम के नाते परवीन शाकिर के आइडेन्टिटी-कार्ड में उनका नाम Perveen B. Shakir मिलता है जिसके फलस्वरूप कुछ लोगों ने उनका नाम ‘परवीन बेगम शाकिर’ भी लिख दिया है। बचपन में उनके चंचल स्वभाव के नाते उन्हें घर में ‘पारा’ कहकर बुलाया जाता था, जिसका एक विरूपण ‘पारो’ भी प्रचलित था- यह बाद में भी पारिवारिक स्तर पर प्रचलित रहा।
3. पाकिस्तानी टी वी चैनल ‘मेट्रो वन’ का एक विडियो यू ट्यूब पर है जिसमें प्रस्तोता शमीम जावेद ने बताया है कि परवीन शाकिर का परिवार मूलतः बिहार में गया ज़िले के हुसैनाबाद क़स्बे का था। ऐसी कई सूचनाएँ अर्धसत्य हैं। मैंने मुख्यतः डॉ. ताहिरा सैयद के शोध-प्रबन्ध परवीन शाकिर और उनकी शाइरी पर भरोसा किया है जो श्रीनगर स्थित काश्मीर विश्वविद्यालय के उर्दू विभाग में पी.एच.डी. उपाधि के लिए 2012 में जमा किया गया था और इन्टरनेट पर उपलब्ध है। डॉ. रूबीना शबनम की पुस्तक उर्दू ग़ज़ल की माह+ए+तमाम परवीन शाकिर से भी कुछ सहायता मिली है जो ‘रेख़्ता’ की वेबसाइट पर एक ई-बुक के रूप में उपलब्ध है।
4. इन पत्रों का संग्रह ‘रेख़्ता’ की वेबसाइट पर एक ई-बुक के रूप में उपलब्ध है।
5. ये प्रसिद्ध उर्दू लेखक मुहम्मद हसन ‘अस्करी’ से भिन्न हैं जिनके नाम में ‘अस्करी’ चुना हुआ लेखकीय उपनाम था और इस चुनाव के नाते कुछ लोग जिनके बारे में यह अनुमान करते हैं कि ये शीआ रुजहान के थे यद्यपि ये देवबन्द के प्रसिद्ध मौलाना अशरफ़ अली थानवी के अनुयायी थे और इस नाते यह सम्भव नहीं लगता। यहाँ यह जान लेना ठीक रहेगा कि शीआ इमामों में ग्यारहवें इमाम का नाम ‘हसन अस्करी’ है और यह नाम शीआ परिवारों में एक बहु-प्रचलित नाम है।
6. इन लेखों का संग्रह गोशा+ए+चश्म नाम से प्रकाशित हो चुका है।
7. यदि ऐसा ही है तो शायद यह अहमद नदीम क़ासिमी की सिफ़ारिश से हुआ होगा जिनका संरक्षण परवीन को प्रारम्भ से प्राप्त था और जो ज़िया उल हक़ के शासनकाल के समय उसके निकटवर्ती माने जाते थे।
8. यह मुशाइरा दिल्ली में 11 मार्च 1978 को आयोजित शंकर-शाद मुशाइरा है जिसमें परवीन शाकिर आमन्त्रित थीं और जिसमें उनकी भेंट अनेक भारतीय शाइरों से हुई थी।
9. यह कलीम आजिज़ साहब के प्रथम काव्य-संग्रह का नाम है जो 1976 में छपा था।
10. छपे हुए पत्र में यहाँ कुछ बिन्दियाँ ही दी गयी हैं।
11. मेरा ख़याल है इसके आगे ‘साहब’ होगा जो छपने से रह गया है।
12. देखिए thewire.in पर 21 फ़रवरी 2020 को प्रीति गुलाटी का लिखा लेख Charged by the Police in Five States, But Who Indeed is Sharjeel Imam? शीर्षक लेख।
13. नाम से ऐसा प्रतीत होता है कि यह पत्रिका स्त्रियों के लिए थी। इस साक्षात्कार से उद्धरण मैंने सैयद एहतशाम हुसैन टाँडवी की पुस्तक परवीन शाकिर ग़ज़ल के आइने में से लिए हैं।
14. ‘समाहार-द्वन्द्व’ उस द्वन्द्व समास को कहते हैं जिसमें समास बनाने वाले दोनों अवयव अपनी इयत्ताओं को अस्फुट रखते हैं; इसके विपरीत ‘इतरेतर-द्वन्द्व’ वह समास होता है जिसमें दोनों अवयवों की इयत्ताएँ स्फुट रहती हैं।
15. अलमदारी (= झण्डा उठाना; इस शब्द का शीआ सन्दर्भ में विशेष महत्व है क्योंकि सातवीं मुहर्रम के जुलूस में हज़रत अब्बास के शौर्य की स्मृति में अलम लेकर चला जाता है।
16. प्रायः यह बताया जाता है कि नसीर अली फ़ौज में ही डॉक्टर थे किन्तु परवीन द्वारा नज़ीर सिद्दीक़ी को लिखे गये पत्रों से यह स्पष्ट है कि यह नौकरी सिर्फ़़ एक साल की थी तथा फिर कराची ही लौटना हुआ जहाँ नसीर अली ने प्राइवेट प्रैक्टिस प्रारम्भ की।
17. इस घटना का उल्लेख डॉ. ताहिरा सैयद ने किया है। तनवीर अली इन्जीनियर थे और कोयले की खान में हुई एक दुर्घटना में मारे गये थे। आश्चर्य है कि नज़ीर सिद्दीक़ी को लिखे पत्रों में परवीन ने इसका उल्लेख नहीं किया जबकि अपनी ख़ाला की मौत का किया है।
18. मुझे लगता है यह वाक्य ग़लत छप गया है फिर भी मैंने इसे जस-का-तस उद्धृत कर दिया है। तात्पर्य को प्रसंग से समझने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए।
19. यह उद्धरण मैंने (पाकिस्तानी उर्दू के ‘ने’ सहित) जस-का-तस डॉ. ताहिरा सैयद की पूर्वोल्लिखित थीसिस के पृष्ठ 53 से लिया है। अगर अहमद फ़राज के शब्द यही है तो हम कल्पना कर सकते हैं कि जब चालीस से ऊपर की उम्र में परवीन शाकिर को अपने लिए ‘अधखिली कली’ सुनना पड़ता था तो उन्होंने किन मुश्किलों को झेलते हुए अपना साहित्यिक जीवन इन शाइरों के बीच गुज़ारा होगा।
20. यह इशारा इफ़्तिख़ार आरिफ़ के इस शेर की तरफ़ हैः
घर की वहशत से लरज़ता हूँ मगर जाने क्यूँ
शाम होती है तो घर जाने को जी चाहता है।।
21. ये पाकिस्तान की पूर्व विदेश-मन्त्री हिना रब्बानी ख़र के चचेरे भाई हैं।
22. यह सूचना Khawar Mumtaz, Yameemaa Mitha, Bilquis Tahira की क़िताब Pakistan: Tradition and Change 2003 के पृष्ठ 16 पर दी गयी है। इसका सत्यापन मैं और कहीं से नहीं कर सका हूँ।
23. पाकिस्तानी अख़बार The News के मंगलवार जनवरी 22, 2008 को प्रकाशित Parveen Shakir remembered शीर्षक समाचार के अनुसार परवीन शाकिर की चौदहवीं बरसी पर आयोजित एक शोक सभा में इस्लामाबाद के तत्कालीन Capital Development Authority के चेयरपरसन कामरान लाशारी ने परवीन शाकिर रोड का नामकरण घोषित किया। सूचना के अनुसार यह एक निजी आयोजन था और सीमा ख़ान के घर पर हुआ था।
24. यह पाकिस्तान की पत्रिका चहार-सू के परवीन शाकिर विशेषांक में छपा था जो रेख़्ता की वेबसाइट पर मौजूद है।
25. सैयद सादिक़ैन अहमद नक़वी (30 जून 1923-10 फ़रवरी 1987) का जन्म उत्तर प्रदेश के अमरोहा में हुआ था और ये विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गये थे। ये पाकिस्तान के सर्वाधिक प्रसिद्ध चित्रकर्मी थे और एक अच्छे कवि के रूप में भी इनकी ख्याति है।
26. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जैसे वरिष्ठ और सुप्रतिष्ठित कवि की एक सर्वथा नयी कवि के प्रथम काव्य-संग्रह को लेकर ऐसी व्यंग्योक्ति कुछ आश्चर्य जगा सकती है। इसके पीछे परवीन शाकिर के उदय से फै़ज़ की ख्याति के कुछ मलिन होने का भय नहीं था, बात कुल इतनी है कि परवीन शाकिर को आगे बढ़ाने वाले अहमद नदीम क़ासिमी थे और यद्यपि दोनों ही प्रगतिशील थे, फै़ज़ का ख़ेमा और क़ासिमी का ख़ेमा परस्पर प्रतिद्वन्द्वी थे।
27. पाकिस्तान में सरकारी तौर पर यह माना जाता है कि 1965 की लड़ाई में पाकिस्तान ने भारत के ऊपर विजय प्राप्त की थी। इस उपलब्ध में वहाँ प्रतिवर्ष 6 सितम्बर को ‘रक्षा-दिवस’ मनाया जाता है; 6 सितम्बर 1965 को भारतीय सेना लाहौर में घुसी थी और उसकी वापसी का श्रेय पाकिस्तान अन्तर-राष्ट्रीय प्रयासों को न देकर अपनी सेना की ‘बहादुरी’ को देता है। इस दिन जो आयोजन वहाँ होते हैं उनमें ‘देशभक्ति की कविता’ की भी एक प्रमुख भूमिका होती है और इस सिलसिले में विद्यार्थियों के लिए भी काव्य-प्रतियोगिताएँ आयोजित होती हैं।
28. फ़हमीदा रियाज़ द्वारा सम्पादित पत्रिका आवाज़ पर ज़िया उल हक़ की सरकार ने चौदह मुक़दमे ठोंके थे जिनमें से एक मुक़दमे में मौत की सज़ा भी मुमकिन थी; वे ज़मानत पर थीं और फ़रार होकर भारत भाग आयी थीं (देखिए रुखसाना अहमद द्वारा प्रणीत We Sinful Women की भूमिका में फ़हमीदा रियाज़ का परिचय)। यह आश्चर्य का विषय है कि ज़िया उल हक़ के समय में फै़ज़ अहमद फै़ज़ द्वारा कुछ समय के लिए सोवियत यूनियन द्वारा प्रायोजित अन्तर्राष्ट्रीय पत्रिका स्वजने का सम्पादन सँभालने के लिए लेबनान चले जाने को एडवर्ड सईद जैसे चिन्तकों द्वारा फै़ज़ का ‘निर्वासन’ बताया जाता है और पाकिस्तानी तथा भारतीय बुद्धिजीवी भी ऐसा जताते हैं जैसे फै़ज़ साहब ने यह नौकरी पकड़ कर कोई बहुत बहादुरी का काम किया हो। प्रगतिशील प्रचारतन्त्र की कीमियागरी के उदाहरणों की अन्तहीन सूची में एक प्रविष्टि यह भी है।
29. यह भी बहार-सू के उसी विशेषांक में है जिसका उल्लेख ऊपर आया है।
30. बारहवें इमाम अन्तिम इमाम हैं। ये अभी अज्ञातवास में माने जाते हैं और उनकी प्रकट उपस्थिति भविष्य के गर्भ में है।
31. फ़ारसी-उर्दू साहित्य में हज़रत मुहम्मद की स्तुति में लिखी गयी कविता को ‘नअ़त (जिसका उच्चारण ‘नात’ होता है)’, हज़रत अली की स्तुति में लिखी गयी कविता को ‘मन्क़बत’, और अन्य इमामों की स्तुति में लिखी गयी कविता को ‘सलाम’ कहते हैं।
32. इस शीर्षक से परवीन शाकिर ने एक नज़्म लिखी है जो उन्होंने अमीर खुसरो को समर्पित की है। ‘सिंघार’ वस्तुतः ‘सिंगार (= श्रृंगार)’ है और परवीन शाकिर की कविता में सर्वत्र इसी वर्तनी में मिलता है।
33. यह शब्द उर्दू में हिन्दू पौराणिक मिथक-सम्पदा के लिए प्रयुक्त होता है।
34. यद्यपि ग़ालिब ने ‘पाँव’ ही लिखा है, अब उर्दू वाले ‘पावँ’ ही लिखते हैं।
35. यह इशारा मीर तक़ी मीर के इस शेर की तरफ़ हैः
जिस सर को गु़रूर आज है याँ ताज-वरी का
कल उस प. यहाँ शोर है फिर नौहागरी का।।
36. मैं डॉ. बलराम शुक्ल का आभारी हूँ जिन्होंने इस लेख की कई त्रुटियों को सुधारने के अतिरिक्त मेरा ध्यान इस ओर दिलाया कि यह इशारा मीर तक़ी मीर के इस शेर की तरफ़ हैः
मर्ग इक माँदगी का वक़्फ़ है
यअ़नी आगे चलेंगे दम ले कर।।
37. यह शीर्षक किश्वर नाहीद की प्रसिद्ध कविता ‘हम गुनहगार औरतें’ से प्रेरित है।
38. देखिए The New Yorker के 26 सितम्बर 1993 वाले अंक में Bhutto's Fateful Moment शीर्षक से Marie Anne Weaver का लेख। यह इन्टरनेट पर मौजूद है।
39. यहाँ ‘अभिमान’ से ‘घमण्ड’ न समझना चाहिएः इसे ‘मैं-पन’ समझना अधिक उचित होगा।
40. यह कविता परवीन शाकिर के किसी संकलन में नहीं है और मैं इसे अन्यत्र भी कहीं से नहीं पा सका। ब्रिगेडियर सिद्दीक़ सालिक एक उपन्यासकार, व्यंग्य-कार, और संस्मरण-लेखक के रूप में जाने जाते हैं। ये उस सेना में मौजूद थे जिसने 1971 में भारतीय सेना के आगे ढाका में समर्पण किया था और इनकी पुस्तक Witness to Surrender उस लड़ाई का एक प्रामाणिक दस्तावेज़ मानी जाती है। ये 17 अगस्त 1988 को उसी विमान-दुर्घटना में मारे गये थे जिसमें ज़िया उल हक़ समेत कई पाकिस्तानी सैन्य अधिकारी मारे गये थे।
41. ‘ख़ाक-म ब-दहन = मेरे मुँह में ख़ाक’ उस समय कहा जाता है जब किसी अपने से उच्च पद पर आसीन व्यक्ति से औद्धत्य-पूर्वक बात करने की विवशता आ गयी हो।
42. पाकिस्तान में सैनिक शासनों को न्यायालय में वैध ठहराने के लिए Doctrine of Necessity का तर्क दिया जाता रहा है। ज़िया उल हक़ के शासन तक की कहानी को विस्तार से समझने के लिए देखिए 1983 में Mark M. Stavsky का Cornell International Law Journal में छपा लेख The Doctrine of State Necessity in Pakistan; यह लेख इन्टरनेट पर उपलब्ध है। मोटे तौर पर इस सिद्धान्त का अर्थ यह होता है कि आवश्यकता पड़ने पर राज्य को गै़र-क़ानूनी क़दम उठाने का भी अधिकार है।
43. यह संग्रह बाद में सदबर्ग नाम से छपा।
44. सारा शगुफ़्ता पर अमृता प्रीतम की पुस्तक एक थी सारा (जिसका उर्दू संस्करण रेख़्ता ई-बुक के रूप में उपलब्ध है) में एक प्रश्न हैः ‘क्या औरत का बदन से ज़ियादा कोई वतन नहीं होता?’ मेरा अनुमान है कि यह सारा शगुफ़्ता की किसी नज़्म से लिया गया है किन्तु मैं ठीक-ठीक पता नहीं लगा सका।