प्रेम के अंतस्तल का संवेदनात्मक चित्रण - योगेश प्रताप शेखर
12-Jul-2020 12:00 AM 1765
          रज़ा फाउंडेशन,दिल्ली की एक ख़ासियत यह भी है कि इस में युवाओं के लिए अनेक अवसरों की उपलब्धता है | साहित्य से जुड़े युवा लेखकों के लिए हर वर्ष ‘युवा’ का आयोजन किया जाता है | ठीक इसी तरह शास्त्रीय संगीत एवं नृत्य से जुड़े नवोदित कलाकारों के लिए ‘आरंभ’ एवं ‘उत्तराधिकार’ का आयोजन होता है | रज़ा पुस्तकमाला में भी इस का ध्यान रखा गया है | युवा लेखकों की कविता, उपन्यास, आलोचना और गद्य की पहली किताबें भी इस पुस्तकमाला में प्रकाशित की गई हैं | किसी भी नए लेखक के लिए उस की किताब का सुरुचिपूर्ण प्रकाशन उस के भीतर आत्मविश्वास की वृद्धि करता है | एक दृष्टि से देखा जाए तो रज़ा पुस्तकमाला के अंतर्गत युवा लेखकों के कविता-संग्रह इतनी संख्या में छपे हैं जिन्हें देख कर लगता है कि कविता में एक नई पीढ़ी का ही आगमन हो गया है | उदाहरण के लिए अम्बर पाण्डेय, सुशोभित, मोनिका कुमार, महेश वर्मा, पूनम अरोड़ा के कविता-संग्रह देखे जा सकते हैं | इसी क्रम में लवली गोस्वामी का कविता-संग्रह ‘उदासी मेरी मातृभाषा है’ भी प्रकाशित हुआ है |

 

     लवली गोस्वामी का यह संग्रह अपनी प्रस्तुति में अनूठा है | साहित्य का एक सैद्धांतिक सवाल यह है कि किसी भी नए कवि के पास अनुभव बिलकुल ही नया होता है क्योंकि उस का अनुभव नितांत अद्वितीय है पर जो उसे अभिव्यक्ति की भाषा मिली है वह अत्यंत पुरानी होती है | इसलिए हर कवि अपनी क्षमता और आवश्यकता के अनुरूप भाषा में तोड़-फोड़ करता है | अनुभव या भाव के भाषा में रूपांतरण की यह प्रक्रिया बहुत ही सुकुमार, रचनात्मक और मार्मिक होती है | कवि की प्रतिभा, अभ्यास और सूझ का पता इसी प्रक्रिया में चलता है | यह देख कर प्रसन्नता होती है कि लवली गोस्वामी की कविताओं यह अत्यंत विश्वासपूर्वक हो पाया है | नीचे दिए जा रहे एक उदाहरण से बात शायद स्पष्ट हो |

 

     आम तौर पर लोग यह मानते हैं कि कविता में अर्थ ही सब से बड़ी चीज़ है | ख़ास कर स्कूलों और विश्वविद्यालयों में जिस तरह से कविता का अध्यापन प्राय: किया जाता है उस में ‘अर्थ की प्राप्ति’ पर बहुत अधिक बल है | इसी कारण शमशेर बहादुर सिंह को ‘दुरूह कवि’ तक कहा गया क्योंकि उन्होंने अर्थ के परे जा कर कविता संभव की थी | वास्तविकता यह है कि कविता में अर्थ पहली सीढ़ी ही है | संस्कृत के प्राचीन काव्यशास्त्रियों विशेषत: अभिनवगुप्त ने इस बात को समझा था और ‘प्रतीयमान’ अर्थ की कल्पना की थी | लवली गोस्वामी के इस संग्रह की पहली कविता ‘कविता में अर्थ’ इस प्रक्रिया को व्यंजना के माध्यम से प्रस्तुत करती है | कविता है :

 

एक दिन मुझे एक अदम्य जिज्ञासु
तार्किक आदमी मिला,
वह हर बीज को फोड़ कर देख रहा था
कि उसके अन्दर क्या है
मैं उसे अन्त तक समझा नहीं पायी
कि बीज के अन्दर पेड़ होते हैं |

 

यह छोटी-सी कविता हमारे सामने अत्यंत सहजता से यह स्पष्ट करती है कि कविता की दुनिया अर्थ की ज़रूर है पर उस में केवल अर्थ ही नहीं है और उस अर्थ में भी अनेक संभावनाएँ छिपी होती हैं |

 

     लवली गोस्वामी की कविताओं में प्रेम बार-बार आता है | यहाँ प्रेम अपनी गहरी संवेदनशीलता और पूरी जटिलता के साथ उपस्थित है | प्रेम दो व्यक्तियों का साझा मामला तो है पर यह नितांत वैयक्तिक ही नहीं है | प्रेम के साथ सामाजिक संरचना बहुत गहरे जुड़ी होती है | इसीलिए हर दौर और हर समाज में प्रेम एवं उस की अभिव्यक्ति अलग-अलग रही है | लवली की कविताओं से यह स्पष्ट होता है कि यह आज की जटिल सामाजिक परिस्थितियों की उपज है | लवली की ऐसी कविताओं की एक विशेषता यह भी है कि इन में प्रेम की गहराई और जटिलता के साथ-साथ प्रेम की सूक्ष्मता भी उपस्थित है | देखिए ! वे अपनी कविता ‘एक प्रेम कविता का सच’ में किस तरह से सूक्ष्मता का अंकन कर रही हैं :

 

 दुखों के कितने ही घाव जब एक साथ टीसते हैं
तब आँखों से अँजुरी भर खारा पानी बहता है
ढाई गज रेशम की चूनर कई इल्लियों की
जीवन भर मेहनत का नतीजा है
फूलों की एक बड़ी माला में
पूरे बग़ीचे का वसन्त क़ैद होता है
इसीलिए किसी कवि से कभी यह मत पूछना
कि वह फिर से प्रेम कविता कब लिखेगा
प्रेम की कविता ताल्लुक़ के
कई सालों का दस्तावेज़ है |

 

उपर्युक्त कविता की अंतिम दो पंक्तियाँ इसे संवेदनशील बौद्धिकता से युक्त कर देती हैं | ये दोनों पंक्तियाँ नहीं होतीं तो यह कविता प्रेम का एक महज रोमांटिक अंकन बन कर रह जाती | ताल्लुक़ एक सामाजिक प्रक्रिया है | इस में सामाजिक संरचना के साथ-साथ उस से उत्पन्न मनोवैज्ञानिक दशा भी शामिल होती है | इसीलिए प्रेम जैसे कोमल और सूक्ष्म भाव की प्रकृति अत्यंत जटिल हो जाती है | इसी तरह की  संवेदनशील बौद्धिकता ‘प्रेम में फुटकर नोट्स’ शीर्षक दो कविताओं में भी है | कितनी तल्ख़ अनुभूति है कि

 

डरना चाहिए ख़ुद से जब कोई बार-बार आप की कविताओं में आने लगे
कोई अधकहे वाक्य पूरे अधिकार से पूरा करे और वह सही हो
यह चिह्न है कि किसी ने आपकी आत्मा में घुसपैठ कर ली है
अब आत्मा जो प्रतिक्रिया करेगी उसे प्रेम कह कर उम्र भर रोयेंगे आप
प्रेम में चूँकि कोई आज तक हँसता नहीं रह सका है |  

 

     ऊपर यह संकेत किया गया है कि लवली की इन कविताओं में सामजिक यथार्थ अपनी पूरी गहराई और जटिलता में उपस्थित है |  इन कविताओं को पढ़ने के बाद यह स्पष्ट होता है कि आज का यथार्थ कितना जटिल है | कला या कविता का एक काम यह भी है कि जो अब तक हमारी आँखों से ओझल रहा है उसे भी वाणी दी जा सके | इस संग्रह में संकलित एक कविता है --- मेरे ‘मैं’ के बारे में --- पहली नज़र में यह लगता है कि किंचित् लंबी यह कविता आत्मकथात्मक शैली में अपने बारे में है | पर पूरी कविता पढ़ लेने के बाद हमारे सामने हमारा आज का समय और उस की तमाम पेचीदगी सामने आ जाती है | लवली कहती हैं कि

 

मेरे पास कुछ सवाल हैं जिन्हें कविता में पिरो कर
मैं दुनिया के ऐसे लोगों को देना चाहती हूँ,
जिनका दावा है कि वे बहुत से सवालों के जवाब जानते हैं
जैसे जब तबलची की चोट पड़ती होगी तबले पर
तब क्या पीठ सहलाती होगी मरे पशु की आत्मा ?
जिन पेड़ों को कागज़ हो जाने का दण्ड मिला
उन्हें कैसे लगते होंगे ख़ुद पर लिखे शब्दों के अर्थ ?
वे बीज कैसे रौशनी को अच्छा मान लें ?
जिनका तेल निकाल कर दिये जलाये गये
जबकि उन्हें मिट्टी के गर्भ का अन्धकार चाहिए था
अंकुर बनकर उगने के लिए 

 

ऊपर का पूरा अंश अपनी अंतर्वस्तु और प्रस्तुति में नवीन तो है ही साथ ही “जैसे जब तबलची की चोट पड़ती होगी तबले पर /तब क्या पीठ सहलाती होगी मरे पशु की आत्मा ?” पंक्तियों में अज्ञेय की प्रसिद्ध कविता ‘असाध्य वीणा’ की गूँज भी है | ‘असाध्य वीणा’ में जिस तरह प्रियंवद उन सब के प्रति कृतज्ञ होता है जिन से ‘वीणा’ का निर्माण हुआ था और इस प्रक्रिया में वह हमारे सामने कई अलक्षित प्रश्न भी रखता है | ऊपर की दोनों पंक्तियों में अब तक सामने न आए सवाल हैं | ‘असाध्य वीणा’ कविता के यहाँ ज़िक्र से यह न समझा जाए कि लवली की उक्त कविता ‘असाध्य वीणा’ जैसी है | दोनों कविताएँ बिलकुल ही अलग हैं |

 

     लवली की ये कविताएँ प्रेम में देह की स्थिति को बिना किसी कुंठा के स्वीकार करती हैं | प्रेम में देह की अंतरंगता के अनेक कोमल बिंब इन कविताओं में उपस्थित हैं | जैसे प्रेम केवल दैहिक व्यापार ही नहीं है उसी तरह ये बिंब भी केवल देह की परिधि में ही सीमित नहीं हैं | इन में प्रेम की कोमलता, सांद्रता, उदात्तता और उद्दामता एक साथ अभिव्यक्त हुई है | एक उदाहरण से ही बात स्पष्ट हो जाएगी | लवली ने ‘अन्त में’ कविता में लिखा है  :

 

मैं उसकी देह में हलके दन्तक्षतों से बोती रही अपना होना
उसकी सिहरनों में इच्छा बनकर उगती रही
उसकी देह को मैंने चुम्बनों के झरते निर्झर में गूँथ दिया
अपने न होने में उसके होंठों से हँसी बनकर झरती रही
यह सब इसलिए कि
एक दिन मुझे टूटकर अपने ही मन पर
क़ब्र के पत्थर – सा गड़ जाना था
नकार की ज़िदों से बनी सख़्त भीमकाय दीवारों पर
उगना था स्मृतियों के अवांछित पीपल – सा
पतझड़ में पीले पत्तों का धरम निबाहते
डाल से यों ही झड़ जाना था बेसाख़्ता |  

 

यह कविता देह के अनुभव से शुरू ज़रूर होती है पर अंत तक आते-आते यह देह की परिधि से निकल कर प्रेम में हुए त्रासद अनुभव का दस्तावेज़ बन जाती है | लवली की इन कविताओं को पढ़ने से पाठकों को एक नया अनुभव – संसार तो मिलेगा ही साथ ही उन्हें एक चिंतनशील कवयित्री की संवेदनात्मक दुनिया का पता भी चलेगा जिस में आज का सच पूरी मार्मिकता के साथ उपस्थित है |   

 

-योगेश प्रताप शेखर, सहायक प्राध्यापक, दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय
 
'उदासी मेरी मातृभाषा है’ का प्रकाशन रज़ा फाउंडेशन एवं वाणी प्रकाशन के सहकार से संभव हुआ है।
 
 

 

 

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