प्रकृति और नियति का यह विरोध्ा क्यों? अफ़ानासी फ़्येत की कविताएँ रूसी से अनुवादः वरयाम सिंह
20-Jun-2021 12:00 AM 1446

19वीं शताब्दी के उत्तराद्र्ध के महत्वपूर्ण कवि। 1820 में रूस के ओर्लोव इलाके में कुलीन परिवार में जन्म। पिता रूसी और माँ जर्मन। आरम्भिक शिक्षा घर और ऐस्तोनिया के शहर के जर्मनभाषी स्कूल में। उच्च शिक्षा मास्को राज्य विश्वविद्यालय में। 1845 में सेना में भर्ती। 1857 में सैन्य सेवा से मुक्त होने के बाद ओर्लोव क्षेत्र में 200 हेक्टेयर ज़मीन ख़रीद कर खेती और पशुपालन। मास्को और पीटर्सबर्ग के साहित्यिक और राजनीतिक हलचल से दूर। 1892 में मृत्यु।
पहला कविता संग्रह बीस वर्ष की उम्र में 1840 में गोगोल की प्रशंसा से उत्साहित होकर प्रकाशित। पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित रचनाओं पर चर्चाओं के केन्द्र में। तुर्गेनेव और ताॅल्स्तोय से मित्रता। 1856 में कविताओं का बृहद संकलन। जर्मन कवियों एवं दार्शनिकों की रचनाओं के अनुवाद। 1885 से ‘सांझ के दीप’ नाम से 1892 तक चार संकलन।
जन्म के दो सौवें वर्ष के अवसर पर प्रकाशित ये हिन्दी में सम्भवतः फ़्येत के ये पहले अनुवाद हैं।

जब हिंस्र हो उठती है भीड़

जब हिंस्र हो उठती है अय्याश भीड़
डूबी होती है अपराध्ाों के नशे में
खुश होती हैं दुष्ट प्रतिभाएँ
महापुरुषों के नामों को कीचड़ में लाने में।
मुड़ जाते हैं मेरे घुटने
झुक जाता है सिर
पुकारता हूँ बलशाली छायाओं को
उनकी चिट्ठियाँ सुनाता हूँ पढ़कर।
रहस्यों से भरे मन्दिर की छाया में
ध्ाूप और अगरबत्तियों के ध्ाुएँ के घेरे में
सीखता हूँ ध्यान लगाना गुरूओं के शब्दों पर।
और भूल जाता हूँ लोगों का सारा शोर,
सौंपता हूँ अपने को कुलीन विचारों के हाथ,
अपने भीतर लेता हूँ उन्हें गहरे श्वास के साथ।
(1866)

फड़फड़ाने लगी...

फड़फड़ाने लगी अन्ध्ाड़ से चीड़ की रोयेंदार टहनियाँ,
बफऱ्ीले आँसू बहाने लगी पतझड़ की रात,
ध्ारती पर कहीं कोई अलाव नहीं, न आकाश में तारे
सबकुछ तोड़ना चाहती है हवा
वहाँ ले जाना चाहती है सबकुछ झरनों की तरह बारिश।
कोई नहीं। कुछ भी नहीं। ठण्डे बिस्तर पर नींद तक नहीं,
सिफऱ़् पेंडुलम है वक़्त को मापता हुआ हास्यास्पद ढंग से।
अलग हो जाओ खुले मन से
अलग हो जाओ इस मद्धिम बत्ती से,
नहीं तो भारी बोझ खींच लेना तुम्हें नियति प्रेरित ध्ारती की ओर।
प्रवेश करो इस अंध्ाकार में, मुस्कुरा दो, ओ सहृदय परी,
पूरी जि़न्दगी पर इस पल मैं छिड़क रहा हूँ नमक,
इस एक पल से माप रहा हूँ अपनी पूरी जि़न्दगी,
मध्ाुर ध्वनियों से, सुरीली वाणी से सहला रहा हूँ कान,
घड़ी के वक़्त को मैं मानता नहीं, रात के आर्तनाद पर विश्वास नहीं।
(60 के दशक का अन्त?)


कलाओं की देवी से

तुम आयीं और बैठ गयीं। प्रसन्न और उद्वेलित
मैं दुहराता हूँ तुम्हारी स्नेहिल कविता,
यदि नगण्य हो मेरी प्रतिभा तुम्हारे सामने
तो ईष्र्या में कम नहीं हूँ मैं किसी से।
पूरी लगन से रक्षा कर रहा हूँ तुम्हारी स्वतन्त्रता की,
जिनमें समर्पणभाव नहीं बुलाया नहीं उन्हें तुम्हारे पास,
गुलामों के जैसे उनके हंगामें को सहन नहीं किया
अपवित्र नहीं होने दिया तुम्हारी वाणी को।
तुम वही हो पूर्ववत पवित्रता की मूर्ति
पृथ्वी के लिए अदृश्य बादलों के ऊपर,
तारों का मुकुट ध्ाारण किये, अनश्वर देवी,
मुख पर सोच में डूबी मुस्कान लिये।
(1882)

कविता
हमने जन्म लिया है अन्तःप्रेरणा के लिए
मध्ाुर ध्वनियों और प्रार्थनाओं के लिए। पुश्किन

रोते, बिलखते तुम चाहते हो देना अभिशाप,
कोड़ों के बल खड़ा करना चाहते हो क़ानून के सम्मुख,
रुको, ओ कवि, मुझे नहीं बल्कि बुलाओ
अथाह में से प्रतिशोध्ा की देवी टिज़ीफ़ाॅनी को।
जागते हुए मैंने संजो रखे हैं सम्मोहक सपने,
अपनी दैवी शक्ति से
ऊँचे आनन्द और मानव-कल्याण का
मैं आरम्भ करता हूँ आह्वान आज से।
और तरह-तरह के अपमानों से लज्जित
जब हृदय से रोने की इच्छा की उठती आवाज़ सुनायी दे
तुम्हारी विपदाओं की ख़ातिर मैं तब भी
ध्ाोखा नहीं दूँगा स्वतन्त्रता की इस शाश्वत पुकार को।
झेलनी होंगी विपदाएँ! सभी झेलते आये हैं-
आशाओं और चेतना से वंचित बनैला पशु भी,
चमकती हैं खुशियाँ यातना-यन्त्रणाओं की जहाँ
उसके लिए सब बन्द हैं द्वार उस जगह के।
अपरिचित रहेंगे इन खुशियों से
आत्महीन, हृदयहीन सब मनुष्य।
यदि वीणा बन न सकी हो नरसंहार का बिगुल
क्यों पीटने पर तुले हो आज उसे?
प्रकृति और नियति का यह विरोध्ा क्यों?
ये ध्वनियाँ तो पृथ्वी पर
लाती हैं यन्त्रणाओं से बचने के उपाय
न कि उत्तेजित तूफ़ान या आह्वान संघर्ष के।
(1887)

मेरी अनिद्रा के क्षणों में...

मेरी अनिद्रा के क्षणों में, आध्ाी रात की ख़ामोशी में
कड़े तेवर लिये खड़े होते हैं सामने
बीते दिनों के देवता, बीते दिनों के आदर्श
अपनी ललकारती भत्र्सनाओं के साथ।
मैं फिर से प्रेम करता हूँ, प्रेम करते हैं मुझे भी,
अपने प्रिय सपनों के क़दमों पर चलता रहा हूँ मैं,
पापी हृदय सताता रहा है मुझे
अपने असहनीय अन्यायों से।
कभी जो मित्र रही देवियाँ
खड़ी हैं सामने कभी मोहक, कभी सख़्त मुद्रा में,
लेकिन व्यर्थ है देवियों की तलाश उनके सामने
वे देवियाँ हैं अपने असली रूप में।
उनके सामने फिर से घिरा है मेरा हृदय चिन्ताओं और आग से,
लेकिन उनकी लपटें नहीं है पहले के जैसी,
वे मानो मत्र्यों की तरह पाखण्ड करते
उतर आयी हैं दैवी तलहटी से।
केवल दम्भी और सजीव सपनों की दुश्मन
पता नहीं जिन्हें क्या होती है दया, क्या होता है युद्ध,
महारानियों की तरह पहले की ऊँचाइयों पर खड़ी हैं वे
घृणित प्रार्थनाओं की फुसफुसाहट सुनती हुई।
उनकी आँखें थकी पलकों के नीचे ढूँढ रही हैं कुछ,
व्यर्थ की प्रार्थनाएँ सम्बोध्ाित हैं उन्हें,
निष्फल आशाओं की अगरबत्तियों का ध्ाुआँ
उठ रहा है आज भी उनके पाँवों के पास से।
(3 जनवरी 1888)

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