प्रतीक हैं बन्धन तुम्हारे - मिथलेश शरण चौबे
              कविता में अगर कवि की कल्पनाशीलता की उच्चतम कोटियाँ अवतरित होती हैं तो प्रत्यक्ष की उपस्थिति का अप्रत्याशित रूप भी मिलता है, ऐसा रूप जो हूबहू घटित सा नहीं है, उसमें घटित की टेक पर, अघटित की सम्वेदना भी है और अन्यत्र घटित तक का विस्तार | इस तरह भी कह सकते हैं कि किन्हीं आसन्न स्थितियों की भीषणता के सीधे बयान के बरअक्स कविता सिर्फ़ भीषणता के लोक को उजागर कर, उससे मुक्त होने की कार्यवाही के बजाए मुक्ति की आकांक्षा से सामना कराती है | कवि जीवन और कविता जीवन में इस अर्थ में फ़र्क रहेगा क्योंकि एक मनुष्य की, हालात से प्रत्यक्ष मुठभेड़ की प्रतिलिपि किसी भी स्थिति में कविता नहीं हो सकती | यथार्थ के अतिशय आग्रह ने कविता को इस बनावटीपन से ग्रस्त किया है | कविता की निर्मिति के लिए यथार्थ और यथार्थ के बखान के लिए कविता में कोई साम्य नहीं है |      
                  
                       अज्ञेय के क्रान्तिकारी जीवन की छवियाँ शेखर और कुछ कहानियों में तो मिलती हैं ; प्रकृति की व्याप्ति के अहसास, स्मृति के पुनर्वास और अस्तित्त्व की तलाश में डूबी उनकी कविताओं में लगभग नदारद ही हैं जबकि वे आत्मप्रक्षेपण के स्थूल आक्षेप से शोभित हैं | उनके लिए निजी हमेशा अन्य की उपस्थिति और उससे गहरे सम्बद्ध होने के अर्थ के मानिन्द ही है | कविता अज्ञेय के लिए उस निजता का बखान कभी नहीं रही जिसमें एकांगीपन हो | उनकी कविता आत्मग्रस्त इसीलिये नहीं हो सकी क्योंकि कविता का एक मनुष्य या कुछ मनुष्यों के प्रति सम्बोधन निजत्व के अतिक्रमण की सतह पर ही नहीं है बल्कि उसमें उसके किसी कल्पित व्यक्तित्त्व की पुनर्प्रतिष्ठा की गहरी आकांक्षा है और यह शुरुआत खुद ही से आरम्भ होती है | हिन्दी में अज्ञेय की अब तक उपलब्ध रही कविताओं में एक बढ़त की तरह शामिल हो सकी हैं, मूलतः अग्रेज़ी में लिखीं व प्रकाशित वर्ष 1933 से 1938 के दरमियान की वे कविताएँ, जिन्हें हाल ही में रज़ा फाउन्डेशन ने बन्दी जीवन और अन्य कविताएँ नाम से हिन्दी में  प्रकाशित किया है | इन कविताओं को नन्दकिशोर आचार्य ने हिन्दी में अनुदित किया है | तब ये प्रिज़न डेज़ एण्ड अदर पोएम्स शीर्षक से प्रकाशित थीं, जवाहर लाल नेहरू ने जिसकी भूमिका लिखी थी |

 

                       कारागार जीवन की अनेक विद्रूप छवियों को व्यक्त करती इन कविताओं में एक गहरा लेकिन अल्पजीवी निरुपायताबोध मिलता है, वहाँ के घुटन भरे व संकीर्ण जीवन से बाहर निकलने की छटपटाहट के बजाए स्वतन्त्रता के बृहत्तर लक्ष्य की चिन्ता और आसन्न निराशाजन्य स्थितियों से यह निरुपायता सघन होती है – ‘इतना तुच्छ कर दिया मेरा जीवन / इस बन्दीगृह ने / दया तक भी नहीं कर सकता हूँ / खुद पर |’ यह स्थिति इसलिए भी है कि जिस उत्साह और उर्वरता से लक्ष्य सन्धान के लिए तत्पर संघर्ष किया, उसकी स्वीकृति व्यापक नहीं है तथा संघर्ष दुष्कर होता जा रहा है  | जैसे-तैसे बीतने की अभ्यस्त दुनिया में बेहतर का स्वतन्त्र स्वप्न और उसके लिए किया उद्यम कोई ख़ास महत्त्व का नहीं है | यह स्थिति एक निराशा का उद्गम है – ‘काले दिनों में संघर्ष किया मैंने / सार्थकता के लिए / और संघर्ष ने ला दिए हैं अब और काले दिन ! / आज मैं बेड़ियों में हूँ / क्योंकि संसार डरता है ऊर्जा से, जीवन से, सार्थकता से |’ लेकिन यह अस्थायी निराशा है, हालात पर तात्कालिक खीज है | इस अल्पकालिक भावदशा के विरुद्ध स्थायी जिजीविषा मुखर है – ‘कुछ भी मरा नहीं है मुझमें / अस्तित्त्व पुनर्जीवित करता है सदा / मर नहीं सकता मैं / पीड़ा जो बसती है मुझमें |’ इसी आत्मशक्ति से, कैद में भी स्वाधीनता का विचार रोशन है और यह केवल स्वानुभूति तक सीमित नहीं, सभी के लिए आश्वस्तिपरक है – ‘दरवाज़ें बन्द  कर दें वे / पर सलाखों के पार / तारे चमकते हैं सदा / अन्ततः उनमें विजय होगी हमारी / तुम्हारी और मेरी, बन्धु ! / स्मरण रखना |’    

 

         सिर्फ़ आश्वासन में दूसरों की सहभागिता नहीं बल्कि स्वाधीनता के संघर्ष में भी सामूहिक यत्न का आह्वान गूँजता है | यह भाव किसी भी तरह की एकात्मिक संतुष्टि से सर्वथा विलग सामूहिक मुक्ति के स्थायी विचार का ही विस्तार  है | यहाँ किसी संकट के पश्चात के यत्नों पर एकलय होने से आगे जाकर, स्वाधीनता के मूल विचार के अहर्निश प्रवाहित होने की एकसूत्रता का आग्रह है जिसे स्थायी भाव की तरह व्याप्त हो सकना चाहिए – ‘जान लें यदि हम / एक ही लय में धड़कता है / अन्य का भी ह्रदय / तो क्या चमकता नहीं रहेगा सदा / प्रसन्न लाल सूरज / अनन्त के हर सवेरे |’

 

         अज्ञेय की कविताओं में अस्तित्त्व पर विचार का नैरन्तर्य है | ‘ब्रह्माण्ड की इस महद योजना में’ अकिंचिन के आभास रूप से शुरू होकर, नगण्यता के निपट अनुभव में अनिवार्यतः गहरे सम्बद्ध, अपनी रचनात्मक शक्ति के ठोस स्वीकार की तरह वह व्यक्त है – ‘कुछ भी नहीं हूँ / फिर भी कितना सामर्थ्य है मुझ में / होने, करने और रचने का |’ अस्तित्त्व की तलाश और उसका भाष्य अज्ञेय के लिए सिर्फ़ निजी मामला नहीं है बल्कि वह मनुष्य के लिए तो है ही, मानवेतर भी है, हम जिसे जड़ मानते हैं उनकी तरफ़ से भी यह विचार उतनी ही निस्संगता के साथ प्रकट है | इस संग्रह में शामिल ‘मिट्टी का डला’ कविता, उन्हीं की बहुपठित ‘नदी के द्वीप’ कविता में वर्णित द्वीप के समतुल्य, मिट्टी के अस्तित्त्व को चरितार्थ करती है | प्रकृतिपरक कविताओं में भी अस्तित्त्व सम्बन्धी अस्मिता का प्रकृत उद्घाटन मिलता है |
 
        चिन्तनयुक्त प्रश्नवाचिकता ने अनेक काव्यपंक्तियों को सूक्तियों जैसा अर्थबहुल बना दिया है | समता, स्वतन्त्रता, बन्धुता की प्रत्यक्ष पुकार, कल्पना से निर्णायक निष्पत्ति के सबक की आकांक्षा, स्मृति से वर्तमान के अर्थपूर्ण होने की आस्था, स्थितियों से जूझने के अपार उद्यम की माँग, मृत्यु के डर और शापित होने से इनकार इन कविताओं में अज्ञेय की उस ज्ञेय छवि के साथ उनकी अज्ञेयता को भी अनावृत करता है | मलयज ने आत्म आक्षेपित अज्ञेय को आत्मविस्तार और आत्मनिर्माण की प्रक्रिया की तरह देखा है | इस संग्रह की कविताओं में यह आत्म, अन्य के साथ पारस्परिकता और मुक्ति के सामूहिक स्वपन तक प्रशस्त है | ऐसी कुछ नयी ध्वनियों को सुनने, यह संग्रह ज़रूर पढ़ा जाना चाहिए |
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कविता संग्रह        : बन्दी जीवन और अन्य कविताएँ
कवि                   : अज्ञेय
अंग्रेज़ी से अनुवाद : नन्दकिशोर आचार्य
प्रकाशन              : रज़ा पुस्तकमाला, राजकमल प्रकाशन नयी दिल्ली
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