12-Dec-2017 05:55 PM
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...पहाड़, पेड़, नदी, मकान, मन्दिर, एकान्त और रंग, अलग-अलग चीज़ें होने के बावजूद रहने वालों से इस कदर गहरे जुड़े हैं कि लोग, चीज़़ों के एक दूसरे से जुड़े होने के यथार्थ से ही अनजान हैं। जब-जब ललिताप्रसाद सोचते वह एक पहाड़ है, वह पहाड़ ही होता, समुद्र नहीं हो पाता।...
जब-जब वह सोचते- वह एक पहाड़ है, वह पहाड़ ही होता, समुद्र नहीं हो पाता। दूसरे लोग भी उसे देखते ही कह सकते थे ‘वह एक पहाड़ है।’
इतने दिनों में वह जान गए थे हर दिन गाँव के किनारे वह रहेगा, रहेगा बिलकुल एक पहाड़ की तरह ही। एक ही मुद्रा में पड़ा एक भीमकाय सुस्त अजगर। एक पक्षी की तरह उड़ कर वह कहीं और नहीं जा सकता था। किताब कहती है- ‘पहले पहाड़ उड़ते थे। बाद में जब उनके पंख इन्द्र ने काट दिये, वे जहाँ थे वहीं के वहीं रह गये।’
बच्चे अपनी कॉपी में उसका टेढ़ा-मेढ़ा-सा चित्र बना कर भी कह सकते थे ‘देखिये, मैंने पहाड़ का चित्र बनाया।’ पहाड़ उनके चित्र की आलोचना या प्रतिवाद नहीं करता था। कभी नहीं कहता था ‘मेरा चित्र बहुत खराब बना।’ आदमी होता तो ज़रूर कह देता।
वह बोलता हुआ पहाड़ नहीं था। पर जो लोग कविता लिख सकते थे वे कहते थे ‘ये पहाड़ बोलता है।’ उन्हें ज़रूर पहाड़ का बोलना सुनायी देता होगा। बच्चों को, और जो लोग कवि नहीं थे, पहाड़ का बोलना कभी सुनायी नहीं देता था।
अगर पहाड़ कभी बोलता था, चुप भी ज़रूर होता होगा। पर उन लोगों को जो बच्चे थे या कविता नहीं लिखते थे, पहाड़ हमेशा चुप ही दिखता था। लगता था उस पर उगे बहुत सारे पेड़ हवा चलने पर बोलते थे। हवा अगर तेज़़ होती तो पेड़ तेज़़ बोलते। आँ¬धी आती तो वे लगभग चिल्लाते।
पर आँधी में पेड़ों को चिल्लाते हुए देखने वाला कोई न होता। लोग तो आँधी से बचने की तजवीज़ में लगे होते। चौक में सूखते कपड़ों को उड़ जाने से बचाते। धूप में सुखाई लाल मिर्चों और पापड़-बड़ियों को फुर्ती से समेटते। गाय और बछिया को भीतर लाकर बाड़े में बाँधते। उड़ने को उद्यत पुराने अख़बार को पत्थर के नीचे दबाते। तोते के पिंजरे को भीतर छान के नीचे लाते।
बस्ती में आँधी में घिरे वृक्षों को देख कर कोई ये नहीं कहता था ‘पेड़ चिल्ला रहे हैं।’ लोग केवल उनका धीरे-धीरे हिलना, हवा से काँपना और तेज़़ आँधी से इधर-उधर डगमगाना जैसा ही देखते थे। बोलना-चिल्लाना नहीं।
दूर से पेड़ पहाड़ की ऊबड़-खाबड़ त्वचा पर फैले हरे-हरे धब्बों जैसे दिखते ज़रूर थे पर वे थे हू-ब-हू पेड़ ही। पेड़ों की ही तरह पहचाने जाते थे। उन्हें कोई दूसरी चीज़़- मसलन ‘हरे धब्बे’ नहीं मान लेता था। कोई पूछता तो लोग ठीक-ठीक कहते- ‘पहाड़ पर पेड़ उगे हुए हैं।’
कुछ इस शैली में गाँव, पेड़ों और पहाड़ का रिश्ता काफ़ी पुराना था।
पेड़ दुनिया में निस्सन्देह पहाड़ बनने के बाद और गाँव बसने से पहले आये थे, और वे पहाड़ पर होने से ‘पहाड़ पर उगे पेड़’ कहलाने लगे थे। हाँ, मैदान के पेड़, पहाड़ के पेड़ों से अलग थे। कद-काठी में थोड़े कम छायादार और ठिगने। पहाड़ के नीचे जो मैदान जैसा था, ऐसे पेड़ वहाँ थे। उनमें से कई पेड़ तो आदमियों की तरह गंजे थे। पहाड़ के पेड़ आकार में उनसे काफ़ी बड़े थे, वहाँ उन्हें काटने-छाँटने वाला कोई नहीं था। यही वजह थी कि मैदान में पेड़ कम थे और पहाड़ पर मैदान की बजाय पेड़ों की तादाद ज़्यादा थी। गाँव में ग़रीबी होने के बावजूद साधु-सन्यासियों के डेरे को छोड़ कर रोटी हर घर में दोनों वक्त बनती थी, इसलिए बबूल जैसे कांटेदार पेड़ों तक की बड़ी पूछ थी।
लोग-बाग मैदान के पेड़ आसानी से काट लेते थे। पहाड़ के पेड़ काटने को उन्हें चट्टानों के सहारे ऊबड़-खाबड़ पहाड़ के ऊपर चढ़ना पड़ता और पेड़ काट कर उसकी लकड़ी सर पर ढो कर नीचे लाना पड़ता, जो यकीनन बड़ी मेहनत-मशक्कत और दिक्कत का काम होता, इसलिए मैदान के पेड़ों को खतरा हमेशा ज़्यादा होता था।
लोग सोचा करते अगर पहाड़ पर सीढ़ियाँ होतीं तो दूए से कुछ हरे धब्बों जैसे दिखते पेड़ भी आसानी से काट लिए जा सकते थे। ललिताप्रसाद पेड़ काटने वाले लोगों से बिना पूछे भी जान लेते वे पहाड़ पर उगे हरे धब्बों के बारे में कुछ बुरा सोच रहे हैं। उन्हें खुशी थी सीढ़ियाँ बना कर वृक्ष काटने का विचार कोई आदमी कार्यान्वित न कर सका था। पहाड़ पर पहले सीढ़ियाँ बनाना और फिर पहाड़ पर चढ़ कर पेड़ काटना मैदान के पेड़ काटने के काम से ज़्यादा मेहनत का काम था।
पहाड़ के नीचे जो मैदान था, पेड़ों के अलावा वहाँ कुछ घर भी थे।
टीन-टप्पर, घास-फूस की छतों वाले कच्चे घर। बिना छत का घर कभी सभ्यता के इतिहास में घर नहीं कहलाया गया लिहाजा घर बनाने के लिए तब से आज तक लोगों के लिए छत पहली ज़रुरत होती थी। मकान बनाने में बेकार समझी जाने वाली चीज़़, घास-फूस तक बड़ी उपयोगी और काम की चीज़़ थी। ज़मीन से पेड़ों की तरह उगे नहीं थे, ये सब ज़मीन पर बनाये गये घर थे। पहाड़ के नीचे के मैदानी इलाके में घास-फूस की कहीं कोई कमी नहीं थी। बल्कि वही काफ़ी इफ़रात में थी और बिना किसी के उगाये भी यहाँ-वहाँ उगा करती थी। जिन-जिन लोगों ने घास-फूस के छप्पर डाल कर सिर छिपाने के लिए अपने दड़बे बना लिए थे, वे उन्हें ‘अपना घर’ कहा करते थे। वे उन घरों में रहते हुए अक्सर तब तक खुश दिखते थे जब तक वे दुखी या उदास नहीं हो जाते।
एक ही मुद्रा में पड़े एक भीमकाय सुस्त अजगर जैसे न हिलने डुलने वाले पंख कटे हुए पहाड़ के नीचे, कम पेड़ों वाले मैदान में जो घर थे, वहीं था एक और घर-ललिताप्रसाद का घर।
इस घर के मालिक का नाम ‘हैदर अली’ भी हो सकता था, पर हैदर अली न हो कर वह नाम ललिताप्रसाद है। लोग उनसे कभी भी ये नहीं कहते थे ‘चूंकि आप हैदर अली नहीं हो सकते थे इसलिए आप ललिताप्रसाद हैं’, बल्कि उन्होंने शुरू से ललिताप्रसाद को इसी नाम से जाना था, लिहाजा इस क़िस्से में उनका नाम वही है। कच्चे होने के बावजूद छठे-चौमासे या भूले-भटके पीले रंग की पुताई करवा लेने या छोटी-मोटी टूट-फूट को दुरस्त करवाने के अलावा ललिताप्रसाद पर अपने मकान के रखरखाव की कोई खास ज़िम्मेदारी न थी। ऐसा वैसा, जैसा-तैसा निर्माण उनके पिता ने करवाया था। इसलिए ललिता बाबू को खुद घर नहीं बनवाना पड़ा। कुछ इस वजह से भी हर साल वह पिता का श्राद्ध बड़ी भक्ति-भावना से करते थे। कथा में उनके पिता का नाम बताने की कोई उपयोगिता या ज़रुरत नहीं है। उन्हें ‘ललिताप्रसाद का पिता’ कह देना ही काफ़ी है।
स्वभाव से ललिता बाबू को अपना ऐसा-वैसा जैसा-तैसा घर, पहाड़, रंग और पेड़ बहुत अच्छे लगते थे। वह घर की खिड़की खोल कर जब चाहे उन्हें देख सकते थे। पेड़, पहाड़, रंग और मकान तीनों एक दृश्य बनाते थे और गाँव-बस्ती की तरफ आने वाले लोगों को पहाड़ के नीचे उगे पेड़ों के पास बना ‘ललिताप्रसाद का पीला मकान’ कहने लायक वाक्यांश।
मकान के आसपास जो पेड़ थे, उन सबके नाम ललिता बाबू लगभग बचपन से जानते थे। भाषा सीखने के साथ ही उन पेड़ों के नाम भी सीख लिए गये थे। बबूल को बबूल, आम को आम, अमरुद को अमरूद, पीपल को पीपल, बड़ को बड़ कहने में कोई रुकावट नहीं थी। ललिता बाबू जानते थे अपनी आकृति और पत्तों की बनावट के कारण हिन्दी में पीपल के वृक्ष को कभी अमरुद का पेड़ नहीं कहा जा सकता। पीपल पर कभी अमरूद नहीं लग सकते- ये कठिनाई भी वह जानते थे। अगर कभी अमरूद का पेड़ किसी जादू से पीपल जितना बड़ा हो जाए और उस पर फल लगें तो उस पर कितने सारे अमरुद होंगे ये बात ज़रूर उन्हें सम्भावना भरी कल्पना लगती। ‘सम्भावना’ में बहुत सी चीज़़ें शामिल हो जाती थीं। तब वह ‘सम्भावना’ शब्द के ही अन्तर्गत फल मण्डी ले जाकर पीपल जितने बड़े अमरुद के पेड़ के सारे अमरूद बेच देते। पीपल के पेड़ पर उगे अमरुद तोड़ने के लिए मज़दूरों का इन्तजाम... मण्डी तक ले जाने को ट्रेक्टर-ट्रॉली का प्रबन्ध, रास्ते में पिचक कर वे खराब न हो जाएँ इसके लिए ट्रॉली में घास या पुआल बिछवाने का कोई जुगाड़...उन्हें सही आढ़तिये के पास ले जा कर सही-सही तुलवाना...सही सही मोल-भाव करके बेचना...पैसे ले कर लौटते हुए मण्डी के जेबकतरों से सावधानी रखना आदि-आदि सारी गतिविधियाँ अमरूद बेचने की कल्पना जैसे छोटे पद में सिमट जातीं।
बबूल और शीशम के पेड़ों से फर्नीचर बनाने लायक लकड़ी मिल सकती है, इस बात की सम्भावना का भी ललिता बाबू को पता था, हालाँकि घर के पेड़ काट कर उनकी लकड़ी किसी बढ़ई को बेच डालने का कोई विचार उन्हें कभी नहीं आया। उसे वह एक ‘बुरा-विचार’ मानते थे। वह इस आशंका से भी सहम जाते थे कि किसी दिन मजबूरी में उन्हें ऐसा न करना पड़ जाए। इस तरह अपने अहाते के पेड़ न बेचने के अच्छे विचार के कारण वह सुखी थे। खिड़की में बैठे-बैठे वह हवा के साथ हिलते उनके पत्तों को देख कर मन ही मन खुश। नए पत्ते हलके थे, इसलिए ज़्यादा हिलते, पुराने पत्ते भारी, कुछ कम हिलते। ये बात पेड़ों और ललिता बाबू दोनों के लिए अच्छी थी कि पतझड़ नहीं आया था, पत्ते थे। पेड़ अपनी जगह कायम थे और ललिता बाबू पहाड़ के नीचे बने अपने पीले मकान में न बेचे गए पेड़ों के चलते।
उन्हें यह देख कर अक्सर ताज्जुब होता था कि पहाड़ पर उगे पेड़ उनके घर के अहाते में उगे पेड़ों की तुलना में कुछ ज़्यादा हिलते-डुलते हैं। विज्ञान के कारण उन्हें फौरन समझ आ गया था कि पहाड़ पर मैदान की तुलना में हवा ज़्यादा है। वहाँ हवा पहाड़ की ऊँचाई के कारण शायद ज़्यादा हो- उनका अनुमान था। वह कई बार अपने घर के पेड़ों की तुलना पहाड़ के पेड़ों से करते। दुःख शुरू हो जाता। घर के पेड़ कुछ दुबले थे। शुरू-शुरू में उन्हें नियमित तौर पर पानी भी देना होता। पहाड़ के पेड़ों को कोई पानी देने नहीं जाता था फिर भी वे ज़्यादा गहरे हरे, घने और बड़े थे। ऐसा क्यों था- उसका कारण उनकी समझ में कभी नहीं आता था। कोई अदृश्य आदमी अदृश्य ढंग से क्या रोज़ खूब सारा पानी पहाड़ के पेड़ों को देने जाता है? कोई छिप कर उनमें अदृश्य खाद डाल जाता है? कौन है वह अनजान, जो लोगों की निगाह में आये बिना उनकी इतनी देखभाल और साज-सँवार किया करता है? घर के पेड़ अच्छी देखभाल के बावजूद दुबले क्यों हैं? क्या किसी दिन मैदान के पेड़ भी पहाड़ों के पेड़ों जितने घने, बड़े और गहरे हरे हो सकते हैं?
गहरे हरे की बात सोचते ही हल्का हरा भी अपने आप चला आता था। उस से भी कम हरा अगली एक सम्भावना थी। सबसे ज़्यादा हरा- लगभग काले जितना गहरा हरा, एक और सम्भावना। इस तरह हरे की अलग-अलग रंगतें। सब रंग ललिता बाबू को सब जगह एक साथ नहीं दिखते थे। वह पूरे दिन जो रंग देखना चाहें, सुबह-सुबह ही तय कर लेते थे।
अगर वह किसी दिन लाल देखना चाहते तो सिर्फ़ लाल रंग ही देखते। गुडहल और गुलाब के फूल लाल मिलते। रजाई के खोल पर लाल रंग की किनार मिलती। पेन्सिल का रंग लाल मिलता। झाड़ियों में चिड़ियाँ लाल मिलतीं। पोस्ट आफिस का बम्बा लाल मिलता। शेव करते पुरानी ब्लेड से गाल छिलता तो खून लाल मिलता। साबुनदानी लाल मिलती। रसोई की टोकरी में पड़े टमाटर लाल मिलते। तोतों की चोंच लाल मिलती। कलेण्डर की सुन्दर औरत हमेशा लाल साड़ी पहने मिलती। बुलबुल की पूँछ के नीचे लाल रंग मिलता। सुबह से रात तक इतना सब लाल दिखता कि ललिता बाबू खुद इतने सारे और इतनी जगहों पर मिले लाल पर ताज्जुब करते।
जिस दिन पीला देखना होता, सिर्फ़ पीला ही देखते या खोजते। पीला भी तमाम अटपटी और अकल्पनीय जगहों पर मिल जाता। बेंगनी, भूरा, काला, केसरिया, गुलाबी, सलेटी, नीला वगैरह सब रंगों के साथ वह बारी-बारी ये प्रयोग करते।
एक शगल और था। कभी कोई खास शब्द सुबह-सुबह सोच लेते। दिन भर उसी शब्द का पीछा करते। वह शब्द कभी-कभी दस-पन्द्रह मिनिट के भीतर-भीतर या रात तक अक्सर दुबारा-तिबारा-चौबारा कहीं न कहीं उनसे टकरा ही जाता। लोग नहीं जानते थे, ललिता बाबू का आज का सोचा शब्द, पर बेहद रहस्यमय-ढंग से लोगों से बातचीत करते वही शब्द अचानक सुनायी पड़ जाता, अख़बार या किताब में लिखा दिखायी दे जाता। ये खोज भी उन्हें खुश कर देती।
इस तरह अपनी चुपचाप ठण्डी एकान्त दुनिया में उन्हें खुश रहने के कई मौके मिल जाते। यह खुश रहना उसी गुप्त आदमी की कारवाई जैसा होता जो पहाड़ के पेड़ों को रोज़ पानी देने जाता। खाद आदि डालने जाने वाला आदमी, जो कभी भी किसी को नहीं दिखता था।
‘गुप्त-खुशी’ दो शब्दों को मिला कर नया-सा पद बनाते! इस तरह वह कभी अपने भाषा-ज्ञान की मौलिकता पर खुश होते। अपनी ‘गुप्त-खुशी’ को केन्द्र में रख कर वह एक निबन्ध लिखना चाहते। कभी एक कहानी लिखना। कभी एक कविता लिखना। कवि न होने के बावजूद कवि होने की यह एक इच्छा थी। इस विचार की क्रियान्विति कभी न हो सकती थी, न हुई।
खिड़की के पल्ले पुराने थे। भूरे रंग की याद दिलाते। भूरा खिड़की पर था नहीं, बारिश और वक्त से उड़ गया था। रंग से पूछो तो कह देता- ‘मैं भूरा था- कभी- भूरा’। ललिता बाबू कभी भूरे के उसी अच्छे अतीत को ले कर भावुक हो जाते, जो दुखद उजड़े हुए भूरे के रूप में खिड़की का वर्तमान था।
साँकल लोहे की थी- खोलते वक्त खरखराते हुए कर्कश आवाज़ करती थी। बाहर कोई खड़ा हो तो भी पूछना नहीं पड़ता, वह लोहे की आवाज़ से सहज ही जान जाता, ललिता बाबू भीतर खिड़की खोल रहे हैं। घर में लोहे की आवाज़ खिड़की के खुलने और बन्द होने की आवाज़ भी कही जा सकती थी। ये भी अच्छा था घर में आवाज़ तक का नाम था। चीज़़ों की तरह ही आवाज़ जैसी अमूर्त चीज़ तक का एक नाम। यह सिलसिला उन्हें बहुत भारतीय लगता था। सिलबट्टे, हथौड़ी, किताब, दीवार, छत, रस्सी, दरी, पानदान, तकिये जैसा नाम। ‘महाभारत’ में अगर शंखों, घोड़ों, नदियों, साँपों, कौरवों और अस्त्र-शस्त्रों आदि के नाम थे तो उनके घर में भी सब चीज़ों के नाम थे। उन्हें चीज़ों के नाम से कोई शिकायत नहीं, सुविधा थी। वह सोचते थे- अगर बाँस का नाम बाँस न होता या कुछ भी न होता तो कैसे बताते- बाँस का पेड़ बाँस का पेड़ है और उस पर फूल ज़िन्दगी में बस एक बार खिलता है! फूल का नाम अगर बाँस और बाँस का नाम अगर फूल होता तो क्या कहते? फूल पर खिला बाँस?
खोलने पर सबसे पहले जिस चीज़ पर नज़र पड़ती वह खिड़की के नज़दीक उगाया गया एक पेड़ था- हरसिंगार का पेड़- सख्त डालियों वाला सुनसान और पुराना, जिसकी पत्तियाँ धूल में सनी होने पर भी हरसिंगार के पेड़ की पत्तियाँ कही जातीं। उस पर एक से केसरिया डण्ठल वाले सुगन्धित पीले-सफ़ेद नन्हे-नन्हे फूल बिना पानी डाले भी आया करते। फूल कमनीय थे, अपने नाम ही की तरह, इसलिए हलकी-सी हवा से भी काँपते हुए बेसाख़्ता ज़मीन पर गिर जाते। फूल गिरने का वक्त देख कर नहीं गिरते थे। धरती के गुरुत्वाकर्षण के कारण हर सुबह उन्हें अपनी सूखी ज़मीन पर हरसिंगार के फूलों की धवल चादर-सी बिछी मिलती। बड़े तड़के फूल उठा कर वह जैसे उजली सुगन्धित चादर को तह कर देते!
इतने सालों की आदत और अभ्यास से हर दिन नींद जल्दी खुलती। दिन के उग जाने का सबूत सूरज, उनसे सुस्त था, उनके बिस्तर से उठने के बाद पूरब के आसमान में जागता। वह बिना सूचना एकदम नहीं उग आता था। रोज पूरब के क्षितिज को देख कर सूर्योदय होने का पूर्वाभास हो जाता था। सूरज का होना नए दिन का होना होता। अपने उगने की जगह को पहले सूरज लाल-सुरमई सी रोशनी के रंग से पोतता और बहुत आहिस्ते से क्षितिज की कोर से अपना केसरिया सर निकालता। ठण्ड हो या गरमी, उसे नमस्कार करने का यही वक्त होता।
सुबह का वक़्त थोड़ा अलग होता था, तब कुछ और ज़्यादा दूर तक देखा जा सकता था! सूर्योदय से पहले हवा कुछ हल्की और ज़्यादा पारदर्शी लगने लगती थी। उसमें न गाँव की धूल होती, न चूल्हों का धुँआ! शाम को ये दोनों कुछ ज़्यादा ही होते। मवेशी और लोग- दोनों ही धूल और धुँए के स्रोत थे- उनसे छुटकारा नहीं पाया जा सकता था।
ललिता बाबू को अक्सर पेड़ पर फल लग जाने, फूल खिलने और पक्षियों की उड़ान की ही तरह आदमियों के पैदल चलने की क्रिया भी बड़ी विलक्षण और रहस्यमय जान पड़ती थी।
बस्ती के सब लोग पैदल चलते थे और प्रमाणस्वरुप रेत पर पाँवों के निशान छोड़ते जाते थे। इस तरह रेत में हज़ारों पदचिह्न छपे थे। खुरों और जूतों के निशानों से भरी थी बस्ती की धरती। गूगल की मदद के बिना भी ललिता बाबू के पास पृथ्वी पर पैदल चलने वाले आदमियों का यह प्रमाणिक नक़्शा था।
वह खुद जब पैदल चलते तो उनकी चप्पलों के निशान भी रेत पर किसी और के पदचिह्नों के ऊपर अंकित होते जाते थे। जब वह कहीं जाते और लौट कर घर आते तो ढूँढ़ने पर भी कभी उन्हें अपनी चप्पलों के निशान कभी नहीं मिलते थे। कोई और उन निशानों पर चल चुका होता था। ये बिना जाने कि ललिता बाबू वापसी में अपने पदचिह्न ढूँढ सकते हैं, कोई दूसरा उन की चप्पलों के निशान मिटा चुका होता था। ललिता बाबू सोचने लगते अगर उन्हें घर लौटते हुए अपने मन्दिर जाने के निशान मिल जाते तो मन्दिर जाने की खुशी के अलावा उन्हें एक ‘अतिरिक्त खुशी’ और होती। एक ‘गुप्त-खुशी’। अपने खुद के बनाये पदचिह्न दुबारा खोज लेने की खुशी। नहीं मिलनी थी। नहीं मिली।
बस पदचिह्न ढूँढते हुए हरसिंगार के फूल लेकर मन्दिर जाना दिनचर्या में शामिल था...मन्दिर पुराना था। बस्ती के किनारे। कोई नहीं जानता था उसे कब और किसने बनवाया होगा? पूरे गाँव में कोई जानने की कोशिश करता भी नहीं दीखता था। बीच में कहीं होता तो पूरी बस्ती पार नहीं करनी पड़ती। मार्ग में मिलने-जुलने वाले देखते ही एक दूसरे से ‘राम-राम’ जरुर करते।
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लौट कर आने वाले दिन कभी नहीं आते। उनकी परछाईं आती होगी। परछाईं के लिए धूप होनी चाहिए। यह एक समीकरण है, जिसे हर आँख आसानी से समझ सकती है। आँख खुली होनी चाहिए। छाया देखने की समीकरण समझने की कुछ ज़रूरी शर्तों में से एक यह भी है। देखने में दृश्य का शरीक होना जरुरी है। वह जैसे भीड़ में शामिल एक अकेले आदमी का एकान्त है। फ़र्श पर एक रुपये का सिक्का गिरने की आवाज़ से यह कुछ अलग है- जिसे आप झुक कर उठा सकते हों। छाया को एक रुपये के सिक्के की तरह उँगलियों में उठाया नहीं जा सकता। उसे बस एक जगह से दूसरी जगह रखा भर जा सकता है- प्रकाश और वस्तु के सम्बन्ध को बदलते हुए। प्रकाश और पृथ्वी के बीच वस्तु के अक्षांश को परिवर्तित कर छाया को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने की तजवीज़ की जा सकती है। जिस दिन बादल छाये हों और सूर्य आसमान से गायब हो- ऐसा करना मुश्किल है। ‘छाया के लिए कुछ ज़रूरी मुश्किलें।’ वह चलते-चलते एक अच्छा-सा शीर्षक सोच लेते और खुश होने का यह सोचना, एक आरम्भ हो जाता। एक ऐसी शुरुआत, जिसकी उम्र का अन्दाज लगाना मुश्किल होता कि इस खुशी की जन्मपत्री में सप्तम स्थान के स्वामी से द्वितीयेश की प्रत्यन्तर दशा कब तक चलेगी। ‘अनदेखी खुशी का मारकेश‘ एक और शीर्षक। खुशी की अनिश्चितता की ओर बढ़ा ये पहला कदम हो सकता था। यह खुश होना उस बच्चे के चलने की तरह था जो घुटनों के बल रेंगना छोड़ कर दोनों पाँवों पर पैदल चलने की शुरुआत करता हो। लडखड़ाकर धड़ाम से ज़मीन पर गिर जाने की फ़िक्र इस आरम्भिक चलने में शामिल थी। आरम्भिक चलना पृथ्वी के स्थाई गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध लम्बवत खड़ा होने के विद्रोह से उपजने वाली क्रिया थी। वह सौभाग्य से, चल पाने के सौभाग्य से पहली बार चलने वाला बच्चा नहीं थे- अतः चलने में गिर जाने की कोई आशंका शरीक न थी। बिना गिरे चला जा सकता था। कुछ बिना याद किए कि ‘चल रहे हैं’। चलते वक्त, पूरे गाँव में, कोई चलने को याद नहीं करता था। वह करते थे। चलते वक्त वह चलने के अलावा एक और चीज़ महसूस करते। धरती, आकाश, पाताल, घर, बाहर, लोग, खाना, पीना, ओढ़ना, बिछाना, सोना, जागना, रोना, धोना, घूमना, लौटना, काटना, पीसना, खंगालना, मुरझाना, खिलना, मुस्कुराना, पिसना, पीसना, नहाना, धोना, बहना, उधेड़ना, उड़ना, उड़ाना, बोलना, चुप रहना। सब। क्रियाओं की बड़ी-सी दुकान के बीच एक ठिठके हुए ग्राहक की तरह चीज़ों को इस तरह देखते जैसे कह रहे हों, ‘क्रियाओ! लो, मैं तुम्हें देखता हूँ’ यह देखना कहने से पहले होता। कहना छोटा भाई बन जाता। देखना बड़ा। बड़ा भाई उन्हें गाँव के पहाड़ दिखाता। दरवाज़ा दिखाता। मैदान और पेड़ और लोग और कपड़े और अंगीठी और अलगनी और कोयले और फूल और स्त्रियाँ और छाता और रज़ाई और हिमामदस्ता और पंचांग और चप्पलें और चिड़िया और कुआँ। सब दिखलाता। छोटा भाई कम वाचाल होता। बस इतना भर कहता, ‘लो, मैं तुम्हें देखता हूँ।’ देख सकने वाले आदमी का यह एक सम्पूर्ण देखना था। उन्हें अब तक भी अपनी दृष्टि ठीक जान पड़ती थी जिसके साथ यह गुप्त-खुशी जुड़ी होती कि वह कहने के संक्षेप के बावजूद देखने के सम्पूर्ण में शामिल हैं। पहचान का कोई संकट न था। पेड़, पेड़ की तरह पहचाना जाता था और खिड़की, खिड़की की तरह। दिनचर्या को पुराने पत्तों की तरह झाड़ू से इकठ्ठा करते दिन शुरू होता। और ...भोर का अालोक, उमेठे हुए गीले कपड़े जैसा लगता, बूँद-बूँद टपकता हुआ पानी, पूरब की अलगनी पर टंगी हुई धोती। जागने पर हर बार आँखें खोलनी पडतीं थीं। बिना आँखें खोले जागा ही नहीं जा सकता था। क्या सोये-सोये भी जगा जा सकता है? वह खुद से पूछते। तब ये सवाल ज़्यादा पूछा जाता, जब थकान और नींद के बावजूद आँखें खोल कर बिस्तर से बाहर आ जाना एक मजबूरी होती। बिछौने के सरहाने पड़ा लोटा, कभी आधा भरा मिलता, कभी पूरा, जैसे रात सोने से पहले उसे भरा गया हो। लोटा पूरा भरा मिलता तो लगता रात होने को है और वह लोटे में अभी-अभी पानी भर कर सोने जा रहे हैं। अगर लोटा आधा भरा पाते तो उन्हें याद करना होता- किस दुःस्वप्न से जाग कर नींद में ही उन्होंने पानी पिया होगा। पानी पीते ही नींद जल्दी घेर लेती। पुराना सपना नहीं आता। इस बार नया सपना आता। पुराना पूरा पीछे छूट जाता। वह संकल्प करते, डर कर इस बार नींद में भी पानी नहीं पीना है। नहीं पीते। सपना बीत जाता। डर भी। पानी सुबह लोटे में यथावत मिलता। वह सात घण्टे पुराना पानी कहलाता। इस तरह लोटे के पानी की भी उम्र होती। वह पानी भरने, सोने, सपना देखने, डरने, पानी पीने या न पीने को मिला कर एक जगा हुआ आदमी बन जाते। वह दातुन करते करते सोचते, कहीं ये सब लिखे जाने के लिए क्या एक अद्वितीय बात नहीं ? लेखक होना चाहते हुए भी वह लेखक नहीं थे, इसलिए नहीं लिखते। सिर्फ़ दातुन करते। रात वाले पूरे बचे पानी से कुल्ला करते सोचते, वह जिस दिन ये सब लिखना चाहेंगे, एकदम किसी मंजे हुए लेखक की तरह इस अनुभव को कलमबद्ध कर देंगे- लोटे के पानी से लेकर आधी रात को आये उस दुःस्वप्न से लेकर सुबह उठने तक की पूरी कहानी- पर इसकी नौबत आने से पहले ही उनका ध्यान अलगनी पर टंगे कपड़े खींच लेते। आँख से देखना होता- चौक कहाँ है? बाहर धूप तेज़़ होती तो सूखे कपड़ों का रंग उड़ जाने की आशंका सताने लगती। लिखने का इरादा मुल्तवी कर उन्हें चौक का दरवाज़ा खोलना होता। जोर लगा कर साँकल बाएँ हाथ को सरकानी होती। दाहिने बन्द। बाएँ खुला। पल्ले खींचने होते। अपने शरीर को बाहर चौक में ले जाने का निर्देश अपने दिमाग़ को देना होता। पाँव से चल कर जाना होता। कपड़े सुखाने की अलगनी की तरफ निगाहें केन्द्रित करनी होतीं कि कपड़े कहाँ हैं? उँगलियों से छू कर इत्मीनान कर लेना होता कि वे सूख गए हैं। बिना ज़मीन पर गिराए हुए हाथ से कपड़े एक-एक कर उतारने होते। कहानी लिखने का विचार बिला जाता। लेखक होने का ख़्वाब सूखते हुए कपड़े निगल जाते। चौक की अलगनी एक महान सांस्कृतिक-विचार को चुपचाप खा जाती। खुशी होती कि कपड़े सफलतापूर्वक उतार लिए गये और रात बारिश नहीं हुई। सूखे हुए कपड़ों को ले कर वह कितने खुश हैं वह जानते थे, पर कितना खुश हैं, उन्हें पता नहीं चल पाता था। ‘जितना हो सकते हैं’ का हिसाब मन ही मन में लगाने लगते। हिसाब गड़बड़ा जाता। खुश होने की माप इधर-उधर हो जाती। होने को कैसे मापूँ- वह सोचने लगते। खुश होने को मापना और कठिनाई भरा था। घर में कई चीज़ें थीं, जिनमें छोटी-छोटी अमूर्त खुशियाँ भी काफ़ी थीं। आकृतिहीन विचारों की शुरुआत के लिए यही पल निर्धारित किया गया था। सबसे पहले तो घर में खुद के होने का असल मायना ही समझना मुश्किल था, फिर चीज़ों के बीच प्रसन्नताओं की सूची बनाना और भी मुश्किल, फिर उन खुशियों का माप करना तो बेहद कठिन...एक सवाल उनके सामने ऐसे ठिठका मिलता जैसे वह सवाल नहीं कोई पल हो, एक क्षण, एक लम्हा, एक निमेष, बस पलक झपकाने जितनी अवधि। पलों से मिला कर पूरा दिन सामने पड़ा था। सूर्योदय से सूर्यास्त तक का समय। ठीक सामने होता वह एक दिन- ‘काल-कूप’ से निकला हुआ। उसे पूरा नहीं देख सकते। वह सोचते थे। वह ठीक सोचते थे। दिन का जितना हिस्सा सामने होता, वही उस क्षण का दिन होता। पूरे दिन को इसी तरह बस टुकड़ों-टुकड़ों में देखा जा सकता था। पूरे दिन को एक दिन बीत जाने पर क्या पूरा देखा जा सकता है? शायद रात को हम पूरा दिन देख सकते हैं, उन्हें विचार आता। पर दिन भर मिलीं बहुत-सी चीज़ें संकल्प खुशियाँ, उदासियाँ और पछतावे, याददाश्त से निकल जाते। हर शाम वह दिन का अधिकतर हिस्सा भूल चुके होते थे। इस तरह दिन में वह ऐसे रहते थे, जैसे क्षण में रह रहे हों। क्षण-क्षण मिला कर जो समय बनता, दिन ज़रूर कहलाता, पर बहुत कुछ ऐसा भी होता जो न चाहते भी भुला दिया गया हो। उनके कई दिन इसी तरह कई क्षणों को मिला कर बनाये गए थे। पलों की कोई बाढ़-सी थी, जिसमें उनके दिन बचे रह गये थे। इस तरह बचे रहने का सन्तोष उन्हें अच्छा लगता। बाढ़ के पानी में न डूब जाने के भाव से उपजा एक और क्षण वह सोचते। फिर सन्तोष के बहुत सारे क्षण मिलते और सन्तोष का एक समय बनता। उस समय, समय बनने का कोई आकार या रंग क्यों नहीं, वह खुद से पूछते। अगर इत्मीनान की कोई शक्ल है तो कैसी है उसकी आकृति? उन्हें अपने प्रश्न के पल से नया सवाल पूछने की तबियत होती। ठिठक जाते। ठिठके-ठिठके बस एक ही मुद्रा में ‘फ्रीज़’ हो जाते, जैसे मूर्ति। सामने का दृश्य गायब होने लगता। खिड़की की चौकोर आकृति किसी धुँध में डूबने लगती। फ़र्श अपनी जगह बदलता। धरती डगमगाती। सीढ़ियाँ पिघल जातीं। आसपास अँधेरा उतरता। पेड़, बादलों जैसे दिखते और बादल पहाड़ जैसे। वह अपने अँधेरे के एकान्त में गुमसुम खड़े रह जाते। निस्पन्द। निश्चल। स्थिर। वह नहीं, खड़े होते, बफ़़र् से बनी उनकी मूर्ति खड़ी होती। अपनी आँखें बिना पलक झपकाये। सामने की तरफ एकटक देखते। निःशब्द। हवा कानों को छूती हुई बहती तो लगता बर्फ़ की मूर्ति नहीं है, ललिताप्रसाद हैं। हवा ज़्यादा होती अगर खिड़की के पल्ले पूरे खुले हों। बिना किसी पूर्व-तैयारी के, घर की खिड़की कारीगर के वास्तुशास्त्र न जानते भी वायव्य-कोण में थी इसलिए भी हवा हमेशा आती। न हो, तब भी किसी अदृश्य पंखे से चल कर आ जाती। वह सबसे पहले तो घर के पेड़ों को हिलाती नज़र आती, फिर नज़र आता पहाड़ पर उगे पेड़ भी हिल रहे हैं। तब सब कुछ जैसे तेज़ चलती उस हवा के नियंत्रण में होता। उससे कोई छुटकारा नहीं था। खिड़की बन्द कर लेने पर हवा घर में कुछ कम आती पर बाहर तो वह पुरानी तरह ही होती। बाल उड़ते। हाथ में पकड़ा हुआ कागज़ और चौक में पड़ा पुराना अख़बार। पत्ते और डालियाँ भी। आँगन में पड़े अख़बार के शब्द बेशक नज़र नहीं आते थे, पर आकृति से जाना जा सकता था, वह अख़बार ही था, जिसे हवा यहाँ से वहाँ झंझोड़ रही थी। अगर अख़बार की जड़ होती तो वह इस तरह नहीं उड़ता। हवाई-जहाज़ के उड़ने का रहस्य समझने के लिए यह एक उपयोगी सूत्र था। वायुयान जड़ें न होने से उड़ते हैं, यहाँ से शुरू करते तो उड़ने वाली चीज़ों की फेहरिस्त को बढ़ाते हुए काफ़ी देर तक सोचा जा सकता था। पक्षी सूची की शुरुआत में ही होते क्यों कि उनका उड़ सकना संसार का जाना-माना सच था। समस्या पेंगुइन और शुतुरमुर्ग जैसे पक्षियों को लेकर उत्पन्न हो सकती थे जो यकीनन पक्षी तो थे, पर उड़ते नहीं थे। पंख होने के बावजूद न उड़ने वाले पक्षी नाम की दूसरी सूची बनानी होती जो उड़ने वाले पक्षियों से यकीनन छोटी होती। अगर वह इसी तरह की दूसरी सूचियाँ भी बनाना चाहते, देर तक इसी काम को कर सकते थे पर, कहानी के हित में आखिर, बर्फ़ की मूर्ति को पिघल जाना पड़ा। देशकाल बदलना जरुरी था। मूर्ति पिघलने पर ललिता बाबू पुरानी आकृति में लौट आते। अपनी जगह से हिलते। बाहर की तरफ चलते। किसी पेड़ की तरफ देखते। उसकी पट्टियों की अनुमानित संख्या का हिसाब लगाते। जड़ें सिर्फ़़ हरसिंगार के पेड़ की दिख रहीं थी क्योंकि गर्मी से बचने को गाँव के कुत्तों ने क्यारी खोद कर ठण्डक में सुस्ताने का ख़्याल कल दुपहर ही कार्यान्वित किया था। खोदी गयी मिट्टी ज़्यादा भूरी थी। ठण्डी भी रही होगी। पास के एक बरगद की जड़ें डालियों से निकलती हुईं ज़मीन में धँस रहीं थी। ज़मीन पर बिना गिरे खड़े रहना धरती के चुम्बक को पराजित करना है, उन्हें घर से बाहर निकल कर अभी-अभी ये विचार आया है। वह देख रहे हैं, हवा से एक तरफ झुके पेड़ भी गिरे नहीं हैं, गिरने के लिए छूटना ज़रूरी है, वह सोच रहे हैं। वे जड़ों से नहीं छूटते इसलिए खड़े हैं, फिर एक प्राचीन निष्कर्ष बरामद हो रहा है। कहाँ हैं आदमी की जड़ें, वह मन लगाने को नया सवाल खुद से पूछने लगते हैं, क्या घर में... क्या समाज में... या फिर समय में, जो क्षणों से मिल कर बनता है। इसी ऊहापोह में बहुत-सा समय चला जाता। क्षण, मिनिट में बदलते और मिनिट, घण्टे में। पहर ढलते। सुबह से शाम होने को आती।
शाम को खोजबीन का क्रम बदलना होता। उन्हें शिव मन्दिर जाने की याद आती। कई साल के क्रम को इतनी आसानी से नहीं तोड़ा जाना चाहिए।
हिन्दी में चलना अगर एक ‘क्रिया’ थी तो वह क्रिया उसके कर्त्ता के जीवन में पैदल चलने के लिए बड़े काम की चीज़ थी। पैदल चलना साइकिल पर चलने की तुलना में यकीनन धीमी ऱतार से होता पर आराम से लगभग टहलते हुए, बिना हड़बड़ी वह आसपास की चीज़ों को बहुत ध्यान और दिलचस्पी से देख सकते थे। आवाज़ों को और करीब से सुन सकते थे। रंग ठीक ठीक पहचान सकते थे। अगर कोई बैलगाड़ी अरडू के पत्तों को लादे पास से गुजरती हो तो उससे उडती हुई गन्ध सूँघ कर किसी को भी बतला सकते थे- ‘आज करीब साढ़े सात बजे बैलगाड़ी पर हडमान अरडू के पत्ते बेचने को शहर की तरफ गया था।’
घर से न चले हों तो हिलना देखा जा सकता था, दरवाज़ों के कपाटों का, खिड़की पर टँगे हुए कलेण्डर में हमेशा लाल साड़ी पहनने वाली मुस्कुराती औरत का। मन्दिर जाने के लिए भी सबसे पहले मन्दिर जाने का विचार दिमाग़ में जमाना होता, फिर पाँवों को फर्श पर रखना अगर खाट पर बैठे या लेटे हों फिर चलना शुरू करने से पहले घर की खिड़की और दरवाज़े पर निगाह डालना ताकि वे खुले हों तो बन्द किये जा सकें, बत्ती बुझानी होती, टपकते हुए नल को ज़ोर लगा कर बन्द करना होता, चप्पलें पहननी होती, कहाँ जाना है के सवाल का उत्तर पूर्व में चूँकि ‘शिव मन्दिर’ खोज लिया गया होता, इसलिए अन्त में सिर्फ़़ वह ताला रह जाता जिसे दरवाज़़े पर लगाने का विचार बच जाता।
शिवालय बस एक ही था, वही जो गाँव के बाहर था। वही रास्ता। बील का वही पेड़। कचनार के पेड़ों के पास कुआँ। खड़कते हुए किवाड़। शिवलिंग।
बस्ती को एक ईश्वर चाहिए था और उस जरुरत को शिव सपरिवार पूरा करते थे। गणेश और पार्वती के विग्रह भी मन्दिर में थे, कुछ दूर- काले पत्थर का एक नन्दी भी, पर देवताओं में असली महिमा यहाँ शिव की थी। लगातार पानी और दूध से नहाते जाने से बलुआ पत्थर का पीला शिवलिंग कुछ खुरदरा होने के बावजूद पर्याप्त चिकना दिखता था। मन्दिर के आसपास अरडू और कचनार के पेड़ थे, एक और बड़ा पेड़ बीलपत्र का भी था। मन्दिर की स्थापना के अज्ञात दिन से बील के पेड़ को पानी, शिवलिंग की जलहरी से लगातार पहुँचता आया था। उसके विशाल होने का कारण साफ था। ये तजवीज पेड़ के हित में थी कि शिव पर चढ़ाया पानी व्यर्थ नहीं होता था। गाँव वाले देखते आये थे, ये पेड़ कभी सूखता न था, हमेशा हरा-भरा ही दिखता। साल के कुछ महीने उस पर हरे-हरे बीलों की गेंदें ही गेंदें लटक जातीं। चढ़ाने के लिए जब लोग तीन पत्तों वाले पत्ते तोड़ते तो उनकी अघोषित इच्छा पाँच या चार पत्तों वाला कोई अपवाद बील-पत्र ढूँढने की भी रहती। गाँव में तीन की बजाय चार या ज़्यादा पत्ते वाला बहुत शुभ कहा जाता था। लोग मन्दिर से काफ़ी दूर जूते-चप्पल इसी बील के पेड़ के नीचे खोलते। दस्त लग जाने पर बील का फल तोड़ ले जाते। पेड़ मन्दिर के सामने था इसलिए मन्दिर में दर्शन करते हुए भी अगर नये पहने हों तो जूते-चप्पलों का ज़्यादा ध्यान रखा जा सकता था।
गाँव का कोई न कोई भक्त मन्दिर में आता ही रहता था। सुबह-शाम ज़्यादा आते। एक-दो लोटा पानी तो हर कोई शिवलिंग पर डालता। लोग मन्दिर की तरफ आते तो दूर से पानी भरा लोटा भी साथ लाते दिखते। पानी का लोटा और शिवालय पर्याय से थे। जो नहीं लाते, उनके लिए कचनार के पेड़ों के पास कुआँ था। कुएँ की जगत पर लम्बी रस्सी, एक डोलची और मुड़ी-तुड़ी बाल्टी घर से पानी का लोटा न लाने वालों का इन्तज़ार-सा करती। बाल्टी जाते ही एकदम पानी में नहीं डूब जाती थी, एक दो बार ऊँचा-नीचा करते उसे जल में डुबोना होता था, पानी में डुबाने पर बाल्टी से बाल्टी डूबने जैसी आवाज़़ आती। फिर लकड़ी की बड़ी सी गड़गड़ी पर पानी से भरी बाल्टी के रस्सी पर खिंचने की चूं-चूं ... चूं-चूं ...आवाज़।
कभी शाम को मन्दिर की तरफ आते तो लौटने वालों के अलावा मार्ग प्रायः निर्जन होता इतना कि धूल में सना रहने वाला कोई परिचित-अपरिचित उन्हें नहीं मिलता। रास्ते में उन्हें रामा-श्यामा करने वाले लोग तक अपने दड़बों में जा घुसे होते। अपनी डालों से हरी गेंदें लटकाने वाला बील और उसके पड़ौसी दूसरे पेड़ चुप होते। हवा बन्द होती। शाम की लम्बी-लम्बी परछाइयाँ मन्दिर के शिखर को अँधेरे के रसायन में डुबो चुकी होतीं। पश्चिम दिशा में बची बस इत्ती-सी सुर्ख रोशनी बताती सूरज किधर डूबा। वह बहुत आहिस्ता से लकड़ी के किवाड़ को धकियाते। पुराना दरवाज़ा था। फिर एक आवाज़ होती। दरवाज़ा धकेलने की आवाज़। घर की लोहे वाली साँकल खोलने की आवाज़ से यह आवाज़ जुदा होती। ‘अन्य-आवाज़’ ‘दूसरा दरवाज़ा’ ‘दरवाज़ा : एक आवाज़’ वह कुछ ऐसे ही नए पद बनाते। फिर वह उसे ‘अन्य की आवाज़’ कहना चाहते। इसलिए कि दरवाज़ा उनके घर का नहीं, मन्दिर का था। वह मन्दिर के पुराने दरवाज़े की आवाज़ को इतनी गहरायी से पहचानते थे कि नींद में सुनते तो पहचान जाते। जब भी देखो शिव ऊँघते से लगते। हमेशा की तरह उनकी दण्डवत का कभी जवाब न देते। इन्तज़ार कभी पूरा न हुआ। शिव चुप ही रहे। ललिताप्रसाद उम्मीद टूटने पर सावधानी से कुएँ की और जाते। कदम गिनते। सत्रह की संख्या तक मुंडेर तक पहुँचते। कुआँ गहरा काला होता। उसका पानी हर दिन और स्याह। उखड़ती हुई मुंडेर धुँधली होती। ललिताप्रसाद कुएँ में झाँक कर उसका तला ढूँढने का प्रयास करते, किन्तु उन्हें एक गोल घेरा भर दीखता, काले जल का गोलाकार घेरा। कुएँ में झाँकते हुए वह एक बच्चे की तरह अपनी आवाज़ की अनुगूँज सुनना चाहते। कई दिनों कई महीनों तक तो उन्हें समझ ही न आया कि कुएँ में मुँह डाल कर अपनी आवाज़ की अनुगूँज सुनना चाहें तो आखिर क्या बोलें? क्या अपना नाम? गाँव का नाम? देश का नाम? या पूरा एक वाक्य, जो बहुत लम्बा न हो...अन्त में बहुत माथापच्ची के बाद उन्हें एक वाक्य सूझा और वह था, ‘वसन्त आ रहा है!’
उस शाम जब कच्चे रास्ते पर पैदल चलते लोगों की आमदऱत थम-सी गयी और घरों में चिमनियाँ और लालटेनें जल उठीं, वह अकेले एक बार फिर मन्दिर के लिए निकल पड़े। भीतर ही भीतर वह बहुत उत्तेजित से थे। अपनी खुद की आवाज़ सुनने की उत्सुकता में। कुएँ में झाँक कर पानी की तरफ चिल्ला कर बोले जाने वाला वाक्य उनके हाथ लग चुका था और वह जल्दी से उस वाक्य को कुएँ में उछाल कर उसे खुद दुबारा सुन लेना चाहते थे!
ठण्ड बहुत तेज़ थी। रात एक स्याह पुराने लबादे की तरह गाँव पर झूल रही थी। एक छोटे-से मोड़ के बाद रास्ता खत्म हो गया और मन्दिर का बाहरी हिस्सा अँधेरे में उन्हें एक सोई हुई गाय जैसा लगा। दरवाज़ा खोलने पर ठीक वैसी आवाज़ हुई जैसी आवाज़ मन्दिर का दरवाज़ा बन्द करते वक्त वह सुनते आये थे। वह बूढ़ा और कमजोर पुजारी भी जा चुका था जिसके उलझे हुए सारे बाल सफ़ेद थे और जो काँपती हुई उँगलियों से दर्शनार्थियों को प्रसाद के रूप में बस चीनी के मुनमुने या मिश्री के दाने दिया करता था! मन्दिर एकदम सुनसान था।
उन्होंने अँधेरे में ही शिव को प्रणाम किया और वापस दरवाज़ा भिड़ा कर सत्रह कदम चलने के लिए बाहर आ गये!
मन्दिर से कुछ दूर जंगल था। हवा से दरख़्त सनसना रहे थे। कभी हवा मन्दिर के पल्लों को झंझोड़ती तो फिर शब्द होता- हवा द्वारा दरवाज़े धकेलने का शब्द...किसी को दूर से लग सकता था कोई मन्दिर में जा रहा है। पर वह सिर्फ़़ हवा होती, ठण्डी और बेरहम।
अचानक बील के पेड़ पर कोई पक्षी उड़ा और डैने फड़फड़ा कर किसी अज्ञात दिशा की ओर उड़ गया। मन ही मन एक दो तीन गिनते हुए सत्रहवें कदम में वह कुएँ की जगत तक पहुँच गये।
उन्होंने कुहनियाँ कुएँ की मुण्डेर पर रख दीं ...हिम्मत-सी बटोरी और एक जिज्ञासु बच्चे की तरह प्रतिध्वनि सुनने के लिए तैयार हो गये। ‘वसन्त आ रहा है’ उनका पहला वाक्य था, जो वह कुएँ की गहरायी में फेंकना और उसका लौटना सुनने को कब से व्याकुल थे।
वह झुके और कुएँ के अँधेरे में देखते हुए चिल्लाए-
वसन्त आ रहा है!
अँधेरे और ठण्ड के बावजूद आवाज़ बुलन्द थी। वह जल की सतह तक गयी, जो अँधेरे में डूबी हुई थी, पर जब वह वापस उन तक प्रतिध्वनित हो कर लौटी, शब्द गूँजे- ‘अन्त आ ऽऽऽऽ रहा ऽऽऽऽ है...ऽऽऽऽ’
हाँ, उन्होंने वापस अपनी आवाज़ को, अपने वाक्य को लौटते हुए सुना तो बिलकुल यही तो सुना था उन्होंने- ‘अन्त आ ऽऽऽऽ रहा ऽऽऽऽ है...ऽऽऽऽ’
‘वसन्त’ शब्द कुएँ में जल की सतह से टकरा कर पूरा नहीं लौटा था। कुएँ ने उनके वाक्य के पहले शब्द का कुछ हिस्सा चबा लिया था। ‘वसन्त’ को ‘अन्त’ बनाते हुए....क्या वह कुआँ काल था, एक काल-कूप?