20-Jun-2021 12:00 AM
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यह कहानी फ़ारूक़ी साहब की आखि़री कहानी है। हमारी खु़शकिस्मती है कि उन्होंने इस कहानी को उर्दू (अरबी) लिपि में हमें पढ़ने दी थी और हमारे आग्रह पर उन्होंने इसका देवनागरी में लिप्यन्तरण करवाना स्वीकार कर लिया था। इसका लिप्यन्तरण और कहीं-कहीं अनुवाद श्री शुभम मिश्र ने जब किया था, फ़ारूक़ी साहब जीवित थे। फिर वे 25 दिसम्बर 2020 को इन्तक़ाल फ़रमा गये। हमने कभी नहीं सोचा था कि ‘फ़ानी बाक़ी’ उनकी आखि़री कहानी साबित होगी। स.
मिरी जफ़ा-तलबी को दुआएँ देता है
वो दश्त सादा वो तेरा चेहरा जहान बेबुनियाद
ग्यारह साल की उम्र, यानी युवावस्था तक पहुँचते-पहुँचते मुझे सब कुछ सिखा और समझा दिया गया था। जैसे यह कि हमारी इंसानी कायनात के दो नाम हैंः जज़ीरए-आलूचा-ए-स्याह1 और जम्बू-द्वीप। और वह कायनाती ध्ाूरी, जिसके सहारे कायनात की हर चीज़ टिकी हुई है, उसका नाम मेरु पर्वत है। उसे सुमेरु भी कहते हैं। सुमेरु या मेरु की पाँच दिशाएँ हैंः पहली पूर्वी दिशा जो नीलम से निर्मित है। दूसरी दक्षिणी दिशा लाल याकूत2 की है और तीसरी पश्चिमी दिशा, यह पीले पुखराज की है। चैथी है उत्तरी दिशा जो सफ़ेद बुर्राक़ बिल्लौर3 की है। और सबसे अन्तिम दिशा सुमेरु के केन्द्र में है। यह गहरे हरे जु़मुर्रुद4 की है।
इस सृष्टि के उत्तरी क्षेत्र में अगम्य पर्वत हैं और जंगल और वीराने हैं और यह क्षेत्र इतना अध्ािक विशाल और घना है कि अगर ऊपर जाकर बहुत दूर से इसका निरीक्षण किया जाये तो लगता है कि सारा जम्बू-द्वीप और कुछ नहीं है, सिफऱ़् पहाड़ और जंगल है। लेकिन पर्वतों, जंगलों और वीरानों का यह सिलसिला ख़त्म भी हो जाता है और जहाँ यह ख़त्म हो जाता है वहाँ विशाल मैदान हैं। इतने बड़े और फैले हुए कि जहाँ तक नज़र जाये, लगता है सिफऱ् मैदान ही मैदान है। लेकिन ध्यान से देखें तो इस मैदान में बस्तियाँ भी आबाद हैं। वहाँ के रहने वालों को उत्तर कौरव कहते हैं। उनकी आयु
(1) काली जामुनों वाला टापू यानी जम्बू-द्वीप
(2) लाल रंग का एक बहुमूल्य रत्न
(3) स्फटिक मणि
(4) पन्ना
हज़ार बरस या उससे ज़्यादा होती है। वे अपनी जिन देवियों को पूजते हैं, उनसे विवाह भी करते हैं लेकिन किसी भी परिणय का जीवन-काल सात से आठवें दिन तक नहीं पहुँचता। आठवें दिन क्या होता है? यह किसी को नहीं मालूम। देवी से विवाह करने वाला शायद अपनी जान से हाथ ध्ाो बैठता है। और यही वजह है कि असाध्ाारण लम्बी उम्रों के बावजूद इस क्षेत्र में आबादी का दबाव इतना नहीं होता कि लोग एक-दूसरे से टकराएँ हों और इस तरह इन विशाल क्षेत्रों में युद्ध और मार-काट कर के जल-थल को शवों से भर दें। इसकी नौबत ही नहीं आती और आबादी का सन्तुलन बना रहता है।
देवियों से विवाह करने वालों के अलावा और लोग भी हैं जो इस क्षेत्र में जीने-मरने का चक्र पूरा करते हैं। अनगिनत वृक्ष, झाडि़याँ, ऊँचे-नीचे पहाड़ हैं और अनगिनत नदियाँ हैं। ये सब अपनी-अपनी जि़न्दगियाँ जीते हैं और उन्हें कुछ ख़बर नहीं कि यहीं पास में कहीं उत्तर कौरव लोग (या जिन्न? या असुर?) भी रहते हैं। सच पूछो तो उनकी भाषाओं में (क्योंकि अलग-अलग क्षेत्रों के लोग अलग भाषा बोलते हैं) में जिन्न, परी, देव, आदि शब्द हैं ही नहीं। कुछ इलाके ऐसे हैं, जहाँ सख़्त गर्मी पड़ती है। उनके यहाँ ठण्डी चीज़ की कल्पना नहीं। वे ठण्डे और गर्म में फ़र्क़ नहीं कर सकते और उनकी भाषा में बफऱ् के लिए कोई शब्द ही नहीं है। उन्हें गर्म पानी पिलाएँ या बर्फ़ जैसा ठण्डा पानी, उन्हें कोई फ़कऱ् नहीं पड़ता।
एक कथन यह भी मुझे पढ़ाया गया कि जम्बू-द्वीप खुद कोई कायनात नहीं है, वह असल में सभी सृष्टियों का केन्द्र है और इसे सात समुद्र ने घेरा हुआ है। इन समुद्रों में अन्तर इस तरह है कि हरेक समुद्र के बाद एक ज़मीन का टुकड़ा है। कुछ लोगों का विचार है कि इन सातों समुद्रों में अलग-अलग चीजें़ भरी हुई हैं। पहले में कड़वा और नमकीन पानी, दूसरे में गुड़ का शरबत, तीसरे में शराब या सोमरस, चैथे में मक्खन, पाँचवे में दही, और छँटवे में दूध्ा। अन्तिम समुद्र के बाद कोई टुकड़ा नहीं, हर तरफ़ पानी ही पानी है।
एक बड़ी मायूसी की बात यह थी कि किसी को नहीं मालूम था कि इन सभी कायनातों का आखि़री सिरा कहाँ है। कहा गया कि इस सिरे के बारे में हम जान भी लें कि वह किस तरफ़ और कितनी दूर है तो भी हम वहाँ तक पहुँच नहीं सकते। लेकिन दुखम्, जो मनुष्य की वास्तविक नियति है, उससे मुक्ति तब ही मिल सकती है जब हम सभी ब्रह्माण्डों के अन्तिम किनारे को छू लेंगे। मालूम हुआ कि दुखम्, यानी दुःख, दर्द, ग़म, व्याकुलता से किसी को छुटकारा नहीं।
मेरे उस्ताद की आदत थी कि बोलते-बोलते सो जाया करते थे। हमारी या किसी की मजाल नहीं थी कि उनको जगाएँ, या पाठ छोड़कर चले जाएँ। एक दिन की घटना है कि मेरे उस्ताद सुबह-सुबह ही सो गये और सूर्यास्त के समय ही जागे। उनके चेहरे पर, और चेहरे ही पर क्यों, उनके सारे व्यक्तित्व पर, उनके पोर-पोर पर, आभा बरसती हुई मालूम होती थी। बिना देर किये, और उस तरह, जैसे वे सोये ही नहीं थे उन्होंने कहना शुरु कर दियाः
‘हाँ, यह जम्बू-द्वीप भी किसी का बनाया हुआ है। यह अनन्त नहीं है। बस इतनी बात ठीक है कि मेरु पर्वत सारी सृष्टि, बल्कि सभी सृष्टियों का केन्द्र है। इस पहाड़ की अलग-अलग ऊँचाइयों और घाटियों की कल्पना तुम एक नीलोफ़र5 के फूल की तरह कर सकते हो।
और जब कल्पना कर सकोगे तो उसे अस्तित्व में भी ला सकोगे। इस तरह कि नीलोफ़र-रूपी मेरु पर्वत की चार पंखुडि़याँ हैं। और हर पंखुड़ी एक महाद्वीप है। और दक्षिणी पंखुड़ी का नाम भारत है और यह देश जिस पर तुम आबाद हो, इसी भारत या हिन्द या सिन्ध्ा का एक हिस्सा है।’
मेरी तालीम के आखि़री साल कई गुप्त शक्तियों को अपने अन्दर उत्पन्न करने और फिर उनसे बाहरी माहौल पर प्रभाव डालने, बल्कि कभी उसे नष्ट करके नया वातावरण पैदा करने के अभ्यास में व्यतीत हुए। मैं कुछ समझता, कुछ नहीं समझता, लेकिन सवाल करने या समस्याओं का विस्तार से हल मालूम करने की सामथ्र्य मुझमें नहीं थी। किसी में भी नहीं था। मेरे माता-पिता में भी नहीं। उसकी वजह शायद यह थी कि उनका विश्वास था कि यथार्थ असल में तुम्हारे मस्तिष्क का सबसे आन्तरिक हिस्सा है। तो क्या यथार्थ अलग से, अपने आप में कुछ नहीं? एक बार मैंने हिम्मत कर पूछ ही दिया। माँ तो दुपट्टे में मुँह छुपाकर मेरी बेवकूफ़ी या मासूमियत पर मुस्कुराने लगीं। लेकिन मेरे पिता चुप रहे। मैं खुश हो रहा था कि बड़े मियाँ को अच्छा चित किया है। अब कल जाकर अपने उस्ताद जी की भी उस्तादी निकालूँगा। लेकिन कुछ पलों के मौन के बाद मेरे पिता ने बोलना शुरु किया।
‘मारूज़6 क्या है? सिफऱ् अन्दाज़े बयाँ है। तुम इस घड़े को देख रहे हो और इसमें भरे हुए पानी को भी देख रहे हो। क्या यह सम्भव नहीं कि जब तुम इसके पास जाने का इरादा करो तो पास तक नहीं पहुँच सको? अगर तुम एक चींटी में परिवर्तित हो जाओ, तो तुम घड़े का मुँह भी नहीं देख पाओगे। घड़े की सतह चींटी को इतनी ही विशाल और असीम नज़र आयेगी जैसे इंसानों की ज़मीन की सतह तुम्हें महसूस होती है कि समतल है, चपटी है और अनन्त है। और अगर तुम किसी ऊँची जगह खड़े कर दिये जाओगे तो तुम्हें घड़ा नज़र भी नहीं आयेगा। और अभी तो हम तीन लोग इस घड़े को देख रहे हैं। हम कहीं भी जाकर गवाही दे सकते हैं कि हमारी कोठरी में पानी का घड़ा है और वह पानी से भरा हुआ भी है। इस वक़्त तो तुम अपनी आँखों, और अपनी देखने-समझने की शक्तियों के बल पर गवाही दे सकते हो और वह बिल्कुल सच्ची गवाही होगी। लेकिन अगर हम लोग यहाँ नहीं हों? कोई भी नहीं हो? तो फिर कौन गवाही देगा कि पानी का घड़ा यहाँ है? फिर तुम्हारी समझने की शक्ति किस काम की जब वह उपस्थित और अनुपस्थित में भेद करने का गुण नहीं रखती हो?’
(5) कमल
(6) कही गयी बात
मुझे यह फि़जूल सी बाल की खाल लगी। लेकिन अचानक मेरे पिता ने सिर उठाकर मुझे देखा तो मैंने देखा कि हमारी कोठरी की छत से एक चाँद लटक रहा है। फिर मैंने महसूस किया (या देखा) कि वही चाँद छत से उतरकर मेरे दिल में रौशन हो गया है। घबराकर मैंने अपना सिर झिंझोड़ा, हाथ-पाँव फेंके जैसे मुझे मिरगी का दौरा पड़ गया हो। लेकिन अब जो होश वापिस आया तो चाँद कहीं न था। छत पहले की तरह सुनसान थी।
यह भी उन लोगों का कोई जादू होगा, मैंने दिल में सोचा। क्या ऐसा भी सम्भव है कि आग न जलाये या पानी तर न करे?
अगले दिन सबक़ शुरु होने के पहले उस्ताद ने मुझसे पूछा, ‘क्या तुम जानते हो कि तुम्हारी रीढ़ की आखि़री हड्डी से लेकर सिर की आखिरी हड्डी तक बहत्तर हज़ार नाडि़याँ हैं’? मैंने कहा, ‘जी नहीं’। उस्ताद की बात मुझे निपट मूर्खतापूर्ण लगी थी, लेकिन ज़बान पर सवाल लाने या बात को अस्वीकार करने की हिम्मत कहाँ थी? उस्ताद ने फ़रमाया, ‘ये बहत्तर हज़ार नाडि़याँ तुम्हारे शरीर के सभी हिस्सों को प्राणवायु पहुँचाती हैं, कुछ बहुत तेज़ी से, कुछ ध्ाीमे-ध्ाीमे और कुछ बिल्कुल ही आहिस्ता। अगर ये नाडि़याँ न हों तो प्राणवायु के बगैर तुम अपाहिज हो जाओ, ख़ासकर तुम्हारा दिमाग़ कुछ नहीं रहेगा, पिलपिली झिल्लियों का विकृत संग्रह होकर रह जायेगा।’
मैं चुप सुनता रहा।
‘और तुम्हारे शरीर में सात चक्र हैं। हर चक्र को जागृत करने से उसकी शक्तियाँ जाग जाती हैं और जीवन को अर्थपूर्ण बनाती हैं। और सातवें चक्र के नीचे, तुम्हारी रीढ़ की आखिरी हड्डी के आखिरी जोड़े के नीचे कुण्डलिनी का ठिकाना है। वह एक नाग है, जो हर वक़्त सोया हुआ रहता है। वह जो हक़ का सच्चा तलाशी है, वह अपने अस्तित्व को समझने के संघर्ष में व्यस्त कुण्डलिनी को जगाने की कोशिश करता है। अगर तुम ऐसा कर सको तो क्या हर तरह के दुःख-दर्द से आज़ाद हो सकोगे। नहीं, हर तरह का दुःख तो नहीं, लेकिन जीने-मरने के दुःख को सहने का गुण तुममें पैदा हो जायेगा। वह मारूज़ी7 हो या मौजूई8, लेकिन तुम सांसारिक जीवन के दुःख से हर तरह आज़ाद होगे। तुम जानते हो, इंसानी वजूद की सबसे बड़ी आज़्माइश दुखम् है। जन्म से लेकर मृत्यु तक वह तुम्हारे साथ रहता है, अलग-अलग दर्जों में, विभिन्न शक्लों में। जब तुम दूध्ा पीते बच्चे थे, और तुम्हें भूख लगती थी और तुम्हारे रोने, गला फाड़-फाड़कर चिल्लाने के बावजूद तुम्हें दूध्ा नहीं मिलता तो तुम उस वक़्त अपनी नन्ही-मुन्ही हस्ती के सबसे बड़े दुःख में जकड़े हुए थे।’
(7) स्तुगत
(8) व्यक्तिपरक
‘और अब, जब तुम अपने आपको इस ब्रह्माण्ड में अकेले नज़र आते हो, तन्हाई से बढ़कर कोई दुःख नहीं। हाँ, मृत्यु की कल्पना एक दुःख ज़रूर है, जो मृत्यु के समय सबसे बढ़कर होता है। कुण्डलिनी कोई प्रतीक नहीं, कोई रूपक नहीं, तुम खुद हो। उसे जगाओगे तो खुद तुम्हे ब्रह्माण्ड की सबसे बड़ी जागृति प्राप्त हो जायेगी। कोई ज़रूरी नहीं कि तुम्हे कुण्डलिनी को जगाने के लिए खुद को किसी पहाड़ की गुफा में बन्द कर लेना पड़े। तुमने सुना होगा, एक ज़माने में लोग अपने ख़ज़ाने पर एक साँप नियुक्त कर देते थे। साँप को हटाओ तो ख़ज़ाने का रास्ता दिखायी दे। क्या वह कोई तिलिस्मी साँप था, या प्रतीकात्मक साँप, या वाक़ई अपने दाँतों के पीछे कोई ज़हरीली थैलियों वाला, नोकदार दाँतो वाला, दो शाख़-ए-ज़बान वाला? क्या मालूम?
मेरी समझ में कुछ भी तो नहीं आया। भला इंसानी जिस्म में कोई साँप भी सोया हुआ हो सकता है? सचमुच का साँप, और वह भी नाग-देवता ! होगा।
‘और यह भी कोई ज़रूरी नहीं कि तुम कुण्डलिनी को जगा लो तो तुम दुःख से वाक़ई आज़ाद हो जाओ। हाँ, दुःख तुम्हारी निगाहों में तुच्छ या गौण लगने लगता है। दुःख तो सृष्टि का केन्द्र है, उससे छुटकारा कहाँ? पैदा होने से लेकर निजात हासिल करने के बीच जितनी मंजि़लें हैं वे दुःख से बनी हैं। और यह नहीं भूलो कि सबसे बड़ा पड़ाव मुक्ति पा लेने का है। उसके बाद तुम्हारे जीवन में कोई उद्देश्य नहीं रहेगा। तो तुम वहाँ पहुँच कर क्या करोगे?’
एक सबक़ ने तो मेरी अक़्ल ही बरबाद कर दी।
‘वैचारिक और भौतिक सृष्टियाँ आपस में समन्वित हो सकती हैं। तुम अपने लिए चाँद उत्पन्न कर सकते हो और उसे आसमान पर लटका भी सकते हो। क्या तुमने ग़ौर किया कि बाहरी दृश्य जैसे समुद्र, पर्वत, आकाश आदि अगर नज़र आते हैं तो ये तुम्हारे वैचारिक परिदृश्य के प्रतिबिम्ब भी हो सकते हैं, जिन्हें तुम्हारा विवेक बोध्ा के पर्दे पर उतार सकता है? यानी वैचारिक दृश्य ही वास्तविक दृश्य है?’
यह सब मुझे पढ़ाया गया। पढ़ाया ही नहीं, सिखाया गया। सिखाया ही नहीं, मेरी हस्ती और अस्तित्व का हिस्सा बन गया। मुझे यक़ीन हो गया कि दृश्य अगर आन्तरिक हैं तो मैं उन्हें ऊपरी सतह पर भी देख सकता हूँ। और अगर देख सकता हूँ तो वे उपस्थित हैं। और अगर वे उपस्थित हैं तो मेरे ही उत्पन्न किये हुए हैं।
तो फिर यह शेर-ओ-शायरी, यह इश्क़ और मुहब्बत, यह खोज और ईजाद, ये सब क्या हैं? ‘ये सब तुम हो, तुम्हारे बाहर कुछ नहीं’। हर बार मुझे परोक्ष से यही जवाब आता। मुझे अपने आप से, हर चीज़ से डर लगने लगा। यह दुनिया, यह अस्तित्व, ये रंग, ये भाग-दौड़, ये दोस्तियाँ, मुल्क जीतना, विजय प्राप्त करना, ये सब मैं ही हूँ? ‘हाँ, अगर ये सब तुम नहीं हो तो तुम कुछ भी नहीं हो। तुम ही ने उन्हें उत्पन्न किया है और तुम ही उनको ध्वस्त करोगे, कर सकते हो, अब भी यही कर रहे हो’।
मैं यह सब सुन, पढ़ और सीखकर जीवन से उकता गया था। मैं अपने घर, अपनी पाठशाला, अपने गाँव, सबको निरर्थक और व्यर्थ जानने लगा था। यह कौन-सी तालीम है और कौन सी अक़्ल जो मुझे सिखाती थी कि मैं ही अपना बनाने वाला और फिर अपना ही पतन हूँ और फिर जीवन-पटल से खुद को मिटाने वाला भी हूँ। आखि़र और भी लोग हैं। खाते, पीते, मानवीय गतिविध्ाियों और विकारों से जो परे नहीं। वे जीते, लड़ते-भिड़ते, बदला लेते, जुर्म और सज़ा के पड़ावों से भी गुज़रते हैं। लेकिन वे मेरी ही तरह के लोग नहीं तो फिर क्या हैं? क्या उन्होंने अपने आप को खुद ही बनाया है। तो क्या उनको मुक्ति की चिन्ता नहीं। लेकिन मुक्ति भी दुखम का अन्त तो नहीं? तो उनके दुःख कैसे हैं? वैसे, जैसे किसी जानवर के होते हैं? जिसे कोई परवाह नहीं कि फि़क्र करे कि वह कहाँ से आया था और मरना किसे कहते हैं? बस मरने से डर, जीवन को बनाये रखने के संघर्ष, उसे वे समझते हैं।
उनको शायद मृत्यु की सच्चाई का ज्ञान नहीं। हाँ, दुःख वे ज़रूर जानते हैं, या शायद जानते हैं लेकिन उस नाम से नहीं? क्या वे नाम का विचार भी रखते हैं, या ये हम ही हैं जो वस्तुओं को नाम देकर समझते हैं कि हमने इस चीज़ को अपने ज्ञान के घेरे में क़ैद कर लिया? लेकिन मृत्यु के बाद क्या है? शायद कुछ नहीं, वरना हर निम्न से निम्न प्राणी जि़न्दगी को बरक़रार रखने के लिए इतनी भाग-दौड़ क्यों करता है, इतने दुःख क्यों भोगता है? मरने के बाद क्या होगा, उन्हें नहीं मालूम, जि़न्दगी को जो जानते हैं इसीलिए जि़न्दगी को अज़ीज़ रखते हैं।
(2)
मैंने एक रात घर छोड़ दिया। मेरे पिता हमारी झोंपड़ी के दरवाज़े पर खुरदुरे फ़र्श पर सो रहे थे। मेरी माँ कहीं अन्दर रसोई की चैखट को तकिया बनाकर मासूमों की नींद सो रही थीं।
मेरे पिता? मेरी माँ? क्या मैं भी अपने पिता की कल्पशक्ति का एक प्रदर्शन था? क्या उन्होंने अपना वीर्य मेरी माँ की कोख में डाला था और मैंने हस्ती के सबसे नाजुक कण से लेकर पूरे होश-ओ-हवास वाले अस्तित्व की मंजि़लें इस आरामगाह में सुरक्षित गुजारी थीं? शायद वही कुछ पल थे जब मैं दुःख से बेख़बर था। या फिर मेरी माँ... क्या मेरी माँ भी उस चाँद की तरह थीं, जिसे मेरे पिता ने आनन-फ़ानन हमारी झोंपड़ी की छत से लटकाकर फिर उसे मेरे दिल में उतार दिया था? तो फिर न कोई मेरा पिता था, न कोई मेरी माँ। मैं इस पूरे ब्रह्माण्ड में अकेला था।
फिर भी मैं चल पड़ा। हमारे भारत के दक्षिणी क्षेत्र में एक देश है, जिसे एक ज़माने में केरलपुत्र कहा जाता था। केरल यानी ताड़ का पेड़ और पुत्र यानी बेटा। उसके नाम बदलते गये, यहाँ तक कि उसके कई क्षेत्र निधर््ाारित हुए और उनके नाम भी अलग-अलग रखे गये और बदलते गये। बहरहाल, मुझे तो केरलपुत्र ही नाम अच्छा लगता है। मैंने अब तक जितनी विद्याएँ हासिल की थीं उनमें संगीत और नृत्य को विशेष महत्व प्राप्त था। लेकिन केरलपुत्र में ऐसे कई नृत्य थे, जिन्हें वहाँ जाकर ही समझा और सम्भव हो तो सीखा जा सकता था।
रास्ते में मुझे कई बार यह ख़याल आया कि यह सब सीखने से क्या फ़ायदा? मुझे तो अपने बारे ही में अब तक कुछ नहीं पता था, दुनिया भर की ग़ैर-ज़रूरी चीज़ें जान लेने के बाद मैं खुद को समझ लूँगा? कुण्डलिनी को जगाना बेशक मेरी पहुँच में था। लेकिन क्या दुःख का कोई इलाज वहाँ था भी कि नहीं? मगर, ख़ैर चलो आगे बढ़ो। नाग-कुण्डलिनी तो मेरे बस में था ही, आगे चलते हैं, देखें क्या दिखायी देता है।
एक क़स्र-ए-नादिरे रोज़गार9 मिस्ल-ए-आसमान10 बुलन्द है... एक दरीचए-तिलाए अहमर11 का इस क़स्र में नुमायाँ है। सुबह को जब आफ़्ताब12 निकलता है... एक हवा आती है, वो पर्दे को उड़ाती है। पर्दा उड़कर मेख़हा-ए-तिला13 पर नसब14 हो जाता है। चालीस दरवाज़े इस दरीचे के दाहिने और बायें बने हैं। वो भी वा15 हो जाते हैं। हर दरवाज़े में एक-एक औरत हसीन, मन्क़ल-ए आतशीं लिये, मुश्क-ओ-अम्बर सुलगता हुआ, आकर खड़ी होती हैं। बाद उसके एक नाज़नीन महजबीन, महर तमकीन16, नमूना-ए-बकऱ्-ए-तूर17, अज़ सिर ता पा दरिया-ए-जवाहिर में ग़कऱ्18, इस दरीचए-तिलाई में कुर्सी-ए-जवाहिरनिगार19 पर आकर बैठती है, करिश्मा-व-अदा में ताक़20, हुस्न-ओ-जमाल में शोहरा-ए-आफ़ाक़21...गले में हेकल अलमास22 के नगीनों की पड़ी है... जो उस नाज़नीन को देखता है, दिलदादा,
(9) अपने ज़माने का अनूठा महल
(10) आसमान की तरह
(11) ख़ालिस सोने की बनी खिड़की
(12) सूर्य
(13) सुनहरी कीलें
(14) स्थापित
(15) खुल
(16) रोबदार
(17) तूर पर्वत (सीरिया का एक पहाड़ जहाँ हज़रत मूसा ने ईश्वर का जल्वा देखा था) पर चमकती हुई बिजली की तरह
(18) सिर से पैर तक हीरे-जवाहिरात में लदी हुई
(19) हीरे-जवाहिरात से जड़ी कुर्सी
(20) निपुण
(21) पूरे ब्रह्माण्ड में जिसकी प्रसिद्धि हो
(22) हीरों का हार
शेफ़्ता-ओ-फ़रेफ़्ता23 होता है... वो नाज़नीन (तुरंज24 को) मज्मा-ए-उश्शाक़25 में फेंकती है। जो शख़्स उस तुरंज को उठाकर सूँघता है, गिरेबान चाक करता है अपने को हलाक करता है। एक सम्त26 एक बुर्ज नज़र आता है। इस बुर्ज पर एक कबूतरबाज़ लिबास-ए-जर्रीं27 पहने, छीपी28 तिलाई हाथ में, कबूतर उड़ाता है। एक ज़ंजीर-ए-तिलाई इस बुर्ज से लटकी रहती है। हर शख़्स (जो) इस तुरंज को सूँघकर दीवाना हो जाता है, जोश-ए-जुनूँ, में बढ़ता है, ज़ंजीर-ए-तिलाई को पकड़ कर चढ़ता है। जब क़रीब बुर्ज के पहुँचता है कि ऊपर चढ़ जाये अपने को उस नाज़नीन तक पहुँचाये, उस बुर्ज में एक सुराख़ पैदा (होता) है। उस सुराख़ से एक हाथ निकलता है, उस शख़्स को अन्दर सुराख़ के खींच लेता है। बाद एक साअत29 के उस शख़्स का सिर कटा हुआ, सुराख़ से वही हाथ बाहर फेंक देता है। फिर वो नाज़नीन नज़र नहीं आती, खिड़की बन्द हो जाती है।
(ईरजनामा, जिल्द अव्वल, दास्तानगो, शेख़ तसद्दुक़ हुसैन)
मालूम नहीं मैं होश में हूँ या मुझमें किसी कि़स्म का जादू असर कर गया है। या शायद मैं सपना देख रहा हूँ? मैं हड़बड़ाकर जागा। मैं किसी नदी के किनारे पहाड़ी की छाँव में सो गया था। वहाँ खुदा जाने मुझ पर क्या हंगामा गुज़रा। क्या मेरे पिता अपनी शक्तियाँ इस्तेमाल करके मुझे वापिस बुला रहे थे? या उन्होंने यह तिलिस्म सिफऱ् मुझे चक्कर में डालने के लिए पैदा किये हैं? मैं फिर सो गया। अब...
एक सहरा-ए-पुरख़ार30, दश्त-ए-पुरआज़ार31 से गुज़र हुआ जहाँ की ज़मीन भी ताबिश-ए-आफ़्ताब से स्याह थी, तीराबख़्ती32 मुसाफि़रान-ए-सहरा की गवाह थी...पानी नाम को नहीं, चश्मा-ए-चश्म33 भी अश्कों से ख़ाली, ज़बान-ए-मिशगाँ34 से सूखी सुनाते... कहीं-कहीं
(23) आसक्त
(24) कशीदाकारी किया हुआ रूमाल
(25) प्रेमियों की महफि़ल
(26) ओर
(27) चमकीला लिबास
(28) कबूतरों को उड़ाने के लिए इस्तेमाल होने वाला एक छोटा झण्डा
(29) समय
(30) काँटों से भरा जंगल
(31) तक्लीफों से भरा जंगल
(32) बदकि़स्मती
(33) आँखों के सोते
(34) पलकें
जानवर जो नज़र आता लख़लख़ाता, पानी की तलाश में फड़फड़ाता ज़बान बाहर निकाले तड़पता... दो-तीन चीलें पोटे टीके आँखें बन्द किये बैठी थीं और हाँफ़ रही थीं, सोज़-ए-जिगर की सर्दमेहरी35 से काँप रही थीं।
तालाब और झीलें ब रंग-ए-आईना-ए-मुसफ़्फ़ा36 हैं। बगुले एक पाँव से बग़लों में चोंच दाबे खड़े हैं... मेंढक झील चश्मे में अर्राता है। झींगुर की चीं-चीं है, टिटहरी टर्राती है... हवा सर्द चलने लगी। दरख़्तों की खड़-खड़ाहट से हिरण की डारें दामन-ए-कोह और बीहड़ से निकलीं... किसी तरफ़ से पाढ़े, किसी जानिब से नीलगायें ज़ाहिर हुईं। कछार37 में शेर डकारा, हाथी चिंघाड़ा, दरख़्तों में मुगऱ् झुण्ड के झुण्ड बोलने लगे। ढेड़ चहकारे, झीलों पर बगुलों ने फुरेरी ली, मछलियाँ दम मारने लगीं।
जवानान-ए-बोस्ताँ मिस्ल-ए-सालेह पाक रविश-ओ-नेक रौ, पंजए-मरजान ब रंग-ए- दस्त-ए-दुआ-ए-आबिद खुशखू, सद बर्ग में सबहा-ए-सद दाना का शुमार, जाफ़री मुतीअ, जाफ़र-ए-तैयार। नसीम-ए-सहर में मुतबर्रिक नफ़्स-ए-ज़ाहिदाँ का असर, दफ़्तर-ए- कुदरत-ए-खुदा का वर्क़, हर बर्ग-ए-सोसन ज़बान शुक्र कुनिंद गाने दावर, मेहन्दी ब रंग-ए-रौशन ज़मीरान-ए-साफ़ बातिन, बू-ए-गुल मशाम अहले राज़ की साकिन, गुंचए-मिस्ल-ए-दहान-ए-हक़ीक़त आगाहान-ए-ख़ामोश, कुम्रियों की ज़बान पर हक़-ए-सिर्रहू का जोश, कलियाँ-ए-सौमाआ ज़ादान-ए-खुशबू, सुम्बुल याद कद यौर-ए-कुदरत में आशुफ़्ता मू...38
हर सम्त शाहिदान-ए-तन्नाज़39 पाएँचें कलाइयों पर डाले दुपट्टे कांध्ाों पर ढलकाये हुए हज़ारों
(35) कठोरता
(36) आईने की तरह साफ-सुथरी
(37) नदी का किनारा
(38) वे गुलिस्ताँ में खिलने वाली एक कली की तरह जवान हैं। सूरत और सीरत में पवित्र और चरित्र में नेक हैं। (इस) सदाचारी तपस्वी की प्रार्थना, मूंगे के पेड़ के समान निर्मल है। सैकड़ों इंसानों में जपमाला के दानों की तरह विशिष्ट हैं। इमाम जाफ़री के अनुयायी हैं और सुबह की शीतल हवा की तरह आपकी हस्ती पुनीत और प्रभावशाली है। (वे) ईश्वर की महिमा का एक छोटा सा हिस्सा हैं। उनके अस्तित्व की हर कुमुदिनी-रूपी पँखुड़ी ईश्वर की कृतज्ञ है। (वे) पवित्र मानस और प्रबुद्ध अन्तश्चेतना के रंग में पूरी तरह रंगे हुए हैं। ईश्वर के रहस्य की तरह फूल की सुगन्ध्ा को महसूस कर लेने वाले (वे) गुणीजन हैं, सच्चाई का ज्ञान रखने वालों की तरह मौन कलियाँ हैं। श्वेत पक्षियों की ज़बान पर सच्चाई की सदा का जोश आप ही की देन है। एकान्त में रहने वाले तपस्वियों की तरह (वे) कलियों की सुगन्ध्ा हैं। कुदरत के राग के याद-ए-सुम्बुली में परेशाँ हाल बल्कि इन ही रागों में महव और बेखुद हैं।
(39) नाज़-नख़रे वाले
नाज-ओ-अन्दाज़ से फिरते, दम-ए-खिराम40 महशर बपा करते। रात का वक़्त शमा-ओ-चिराग़ाँ रौशन, सिहन41 में चैका लगा, पलंगों पर जोबन। कोई नींद में ग़ाफि़ल, कोई लह्व-ओ-लअब42 का शागि़ल। कहीं चैसर, कहीं गंजफ़ा। कहीं सितार बजता, बायें का ठेका। कहीं कहानी हो रही है कहीं शेर ख़्वानी हो रही है। कहीं पर्दे पड़े हुए चाहने वाले दर पर्दा मज़े उड़ाते, शाम ही से पहुँचे हुए। कहीं वुई43 की सदा, किसी जा44 क़हक़हे उड़ते, फ़ब्तियाँ कहने की आवाज़ बरपा। कि़लमाक़नियाँ45 दाग़स्तानियाँ कांध्ो पर रखे पहरे पर टहलतीं। बारीदारनियाँ46 ओटों47 के क़रीब जाग रहीं।
(तिलिस्मे होशरुबा, जिल्दे अव्वल, दास्तानगो, सैयद मुहम्मद हुसैन जाह)
मेरे खुदा, ये कौन से देश हैं, जिनके दृश्य मैंने देखे? क्या वाकई ऐसी जगहें जिस्मानी और भौतिक अस्तित्व रखती हैं? या वे केवल काल्पनिक हैं? अच्छा मान लिया कि काल्पनिक वजूद ही सही, लेकिन कहीं तो कोई चीज़ें ऐसी होंगी जिनके आध्ाार पर मैं इनकी कल्पना कर सका, ख़्वाब ही में सही। या क्या वाक़ई मैंने ख़्वाब देखे थे या उन जगहों पर मैं कभी न कभी आया-गया था? कहा जाता है, हम ऐसी चीज़ों की कल्पना नहीं कर सकते जो मौजूद नहीं हों। यह हमारे फ़ल्सफ़े का बुनियादी उसूल है। तो फिर, वह जो कुछ मैंने देखा, क्या था? देखा भी कि नहीं? लेकिन यहाँ तो देखने और कल्पना करने में कोई फ़कऱ् नहीं? अब मैं क्या करूँ? चलो मान लिया कि वे सब जगहें, वे सब दृश्य, वे सब वातावरण, वे सब हवाएँ, वे आवाज़ें, वह संगीत, वे सब हैं नहीं, लेकिन हो सकते हैं।
मैंने माना हम लोग विचित्रताओं और पर्दों से घिरे हुए हैं। और जब हम ही लोग बेवजूद हैं तो फिर उन विभिन्न, रंगा-रंग दुनियाओं का क्या डर? मुझे वापिस बुलायें या मैं खुद घबराकर वापिस चला जाऊँ, या यहीं या कहीं और अपनी हत्या कर लूँ, किसी का क्या बिगड़ता है। मैं जानता हूँ कि मुझे हिमालय पर्वत भी जाना है। माना कि वह जगह यहाँ से बहुत दूर है। और अभी चंद लम्हों के जो ख़्वाब देखकर मैं जागा हूँ, उनकी उन मंजि़लों के आगे कोई हक़ीक़त नहीं जो हिमालय की राह में मेरे समक्ष उपस्थित हों। मुझे मालूम है वहाँ मेरे ख़्वाबों की तरह देवलोक भी है और असुरलोक
(40) चलते-चलते
(41) आँगन
(42) खेल-कूद
(43) चुहल
(44) जगह
(45) किसी राजकुमारी की सशस्त्र महिला सेवक
(46) अपनी बारी का इंतिजार करती हुईं सेविकाएँ
(47) मिट्टी का चबूतरा
भी। अजगर और मगरमच्छ भी हैं और नाचते-चमकते दृश्य भी। वहाँ की भूल-भुलैयाँ ऐसी है कि पूरी-पूरी क़ौमें उनमें दाखि़ल होकर गुम हो जातीं और फिर लुप्त हो जाती हैं। बड़े-बड़े महलों के मुहाफि़ज़ हैं जिनके सर आसमान को छूते हैं और जिनके एक हाथ में कुल आलम की मौत है और एक हाथ में कुल आलम की जि़न्दगी। जो कोई उनके सवालों के जवाब नहीं दे सके, उनके एक इशारे में फ़ना हो जायेगा।
(3)
यहाँ, यानी जिस जगह कि अब मैं हूँ, यहाँ कई तरह के नाच-गाने, और संगीत की शैलियाँ हैं। यही जगह केरलपुत्र है और मैं यहाँ मुद्दतों से बना हुआ हूँ। यहाँ मैं इनके संगीत और नृत्य की सारी कलाओं, सारे जादुओं पर पूरी-पूरी महारत हासिल कर चुका हूँ। सिफऱ् एक खेल, या स्वाँग बाक़ी है। इसे यहाँ के लोग कुट्टीयट्टम् स्वाँग या रहस्य कहते हैं। इस रहस्य को जानने और बरतने वाले सिफऱ् एक ऋषि हैं, जो बारह साल में एक बार दुनिया के परिदृश्य पर आते हैं और अपना रहस्य दिखाकर ग़ायब हो जाते हैं। लेकिन इसमें कई कथन और भी हैं। मैं उन्हें वक़्त पर बयान करूँगा। मैं नहीं जानता कि ज़माने के उन नायाब दृश्यों को जिन्हें मैं राह में ख़्वाब में देख चुका हूँ (उसको मुद्दतें गुज़रीं), उनसे भी बढ़कर कोई अजूबा हो सकता है। लेकिन देखेंगे। इन बुजुर्ग के प्रकट होने में अब सिफऱ़् कुछ सप्ताह बाक़ी हैं।
इन बुज़ुर्ग का नाम कोई नहीं जानता। इनकी उम्र कितनी है, यह भी किसी को नहीं मालूम। बस यह है कि लोग उन्हें रहस्य सम्राट कहते हैं। कुछ लोग उन्हें नटराज भी कहते हैं। वे बारह साल में एक बार प्रकट होते हैं। कावेरी नदी की तह में कहीं एक गुफा में उनका रहने का स्थान है। उनका नाच तीन दिन या पाँच दिन या सात दिन चलता है। मैंने बहुत पूछा लेकिन कोई उससे ज़्यादा बताने पर राज़ी नहीं हुआ। सिफऱ् इतना मालूम हुआ कि रौशनी बहुत मामूली होती है और कोई मंच या तमाशागाह का चबूतरा या तख़्त नहीं होता। नाट्यशाला की ज़मीन को चैबीस घण्टे की मेहनत में तैयार किया जाता है। यानी उसे चिकना करते हैं लेकिन इतना नहीं कि नटराज तमाशे के दौरान लड़खड़ा जायें या फिसल जायें। ज़मीन बिल्कुल बराबर कर दी जाती है, कंकर-पत्थर निकाल दिये जाते हैं, ताकि ज़मीन बिल्कुल अपनी असल सूरत में नज़र आये। रहस्य सम्राट के पीछे चार संगीतकार होते हैं। वे साजि़न्दों का भी काम करते हैं। जिस भाषा में वे गीत गाते हैं, वह वेदों की संस्कृत से मिलती-जुलती है, लेकिन सरासर वैदिक संस्कृत नहीं होती। इसमें केरलपुत्र की प्राचीनभाषा की भी मिलावट होती है। इस ज़बान की शुरुआत और इसके असल के बारे में अलग-अलग रिवायतें हैं। लेकिन इतना सब मानते हैं कि यह भाषा देवताओं की बनायी हुई है लेकिन उन क़ौमों की ज़बान है, जो भारत में आर्यों के आने के पहले से आबाद थी। शुरू-शुरू में यह सारे देश में जगह-जगह बोली जाती थी, यानी उस भारत में जिसमें तुम आबाद हो, और जो एक बृहत भारत या हिन्द या सिन्ध्ा का एक हिस्सा है। वैदिक संस्कृत की तरह यह ज़बान बाहर से नहीं आयी थी।
कुछ लोग यह भी कहते हैं कि कल्पना की हद से परे ज़मानों में एक व्यक्ति रहता था जिसका मस्तिष्क बिल्कुल विकृत था। उसे कोई काम नहीं आता था, उसकी परवरिश के लिए उसे एक मन्दिर में रखवाला नियुक्त कर दिया गया था। लेकिन मुश्किल यह थी कि वह जिससे भी मिलता, कुछ देर बाद उसका नाम भूल जाता था। भाषा उसको आती नहीं थी, इसलिए इशारों से, और उससे ज़्यादा गूँ-ग़ाँ करके बताता था कि कौन आया, कौन गया। उन बातों के आध्ाार पर लोग उसे भाण्ड भी समझते थे।
मन्दिर में जिस पवित्र कि़ताब के कथनों का पाठ होता था, वह इतनी अध्ािक प्राचीन थी कि उसके कई पन्नों पर से अक्षर उड़ चुके थे। पुरोहित अपनी-अपनी अटकलों से शब्द निकालते, लेकिन उनके अर्थ फिर भी समझ में नहीं आते थे। एक ज़माना गुज़र गया, कि़ताब और भी पुरानी और जर्जर होती गयी, यहाँ तक कि उसे पढ़ना स्थगित कर दिया गया। श्रद्धालु आते, उसे दूर से प्रणाम करते, या अगर बहुत हुआ तो उसे आहिस्ता से स्पर्श करते और चले जाते। इन एहतियातों के बावजूद, समय बीतने के कारण कि़ताब के अक्षर लगभग सबके सब उड़ गये। अब उसे मन्दिर के एक अन्ध्ोरे कोने में रख दिया गया कि हवा भी न लगे। बहुत ही कभी-कभी ऐसा भी होता कि कोई दूर-दराज़ का मुसाफि़र इस कि़ताब के किसी श्लोक या वाक्य का अर्थ पूछने आ जाता तो उसे मुख्य पुरोहित के समक्ष उपस्थित किया जाता। पुरोहित अपनी समझ से जो अर्थ निकाल देता, उन्हीं को अन्तिम और निश्चित बता दिया जाता। सवाल पूछने या स्पष्टीकरण की न किसी को हिम्मत थी न ही ज़रूरत।
हमारे पागल भाण्ड को शराब का भी बहुत चस्का था। एक रात वह सारी रात पीता रहा और बेसुध्ा होकर उस ताक़ के नीचे पड़ा रहा जिस पर वह पवित्र कि़ताब रखी जाती थी। सुबह हुई तो दुनिया जाग गयी, लेकिन न जागा तो वह पियक्कड़, आध्ाा पागल रखवाला। जब बहुत देर हो गयी और श्रद्धालुओं को पवित्र कि़ताब के दूर से भी दर्शन में मुश्किल होने लगी तो उस आध्ो पागल भाण्ड को घसीट कर मन्दिर के बाहर कर दिया गया। वह तीन दिन तक सोता रहा। चैथे दिन जब वह जागा, तो उसकी ज़बान पर कुछ अजीबो-ग़रीब, अपरिचित और ज़रा कठोर शब्द रवाँ थे। कठोरता के बावजूद उस ज़बान में एक रहस्यमय संगीत भी था मानो कहीं दूर कुछ देवता आपस में बातचीत करते हों। वह दिन भर ऐसे ही ऊल-जलूल बकता रहा। शाम होते-होते एक पुरोहित ने, जो बहुत बड़े ज्ञानी भी थे, महसूस किया कि ये शब्द तो कुछ परिचित और सुने हुए से हैं। अचानक उन पर यह बात रौशन हुई कि ये शब्द तो पवित्र पुस्तक के शब्दों से बहुत मिलते-जुलते हैं। वे भागे-भागे गये और कि़ताब को अपने दामन में छुपा कर बाहर लाये। कि़ताब की झलक पाते ही भाण्ड ने उसकी तमाम इबारतें फर-फर पढ़ना शुरु कर दीं। बहुत ग़ौर और असमंजस के बाद यह नतीजा निकाला गया कि जो भाषा वह पागल रखवाला बोल रहा था, वही तो पवित्र पुस्तक की असल ज़बान थी, जिसे लोग बहुत अध्ािक समय बीत जाने के कारण भूल चुके थे।
फिर वही भाषा मुल्क केरलपुत्र की बन गयी। दिन गुज़रते गये, उसमें संस्कृत भी बहुत सारी दाखि़ल हो गयी। संस्कृत वह भाषा थी, जिसे यहाँ के विद्यार्थियों और क़ाजि़यों ने सुमेरु पर्वत की लम्बी यात्राओं के बाद आहिस्ता-आहिस्ता हासिल किया था। फिर बाद में अरबी के शब्द भी उसमें शामिल हो गये। जो लोग अरबी से प्रभावित इस भाषा के ज्ञानी थे, उन्हें मुंशी और मापला कहा जाता था। फिर यह अरबी समाज में इतनी अध्ािक रच-बस गयी कि दो भाषाएँ अस्तित्व में आ गयीं, एक तो वह जिसे स्थानीय भाषा में, लेकिन अरबी लिपि में लिखा जाता, और दूसरी वह ज़बान जिसे हम आप सब बोलते थे। इस ज़बान में भी अरबी शब्दों की मात्रा प्रचुर थी लेकिन स्थानीय देवताई ज़बान के उपयोग की वजह से वे शब्द बदलते गये और अब तो मुश्किल से ही उन्हें अरबी शब्द कहा जा सकता है।
ज़बानें सीखने का बेहद शौक़ और बहुत जल्द किसी भी नयी भाषा में निपुण हो जाने का अथाह गुण मुझे बुज़ुर्गों से मिला था। मैं सोचता था कि शायद सोचने, देखने, संगीत के उतार-चढ़ाव समझने की योग्यता, जो मुझे माँ के गर्भ में ही मिल गयी थी, इसी तरह यह भी कोई दैवीय कृपा है और शायद एक दिन वह भी आये जब मैं दुनिया की किसी भी भाषा को सिफऱ् एक बार सुनकर समझ सकूँगा। यानी कोई शब्द बोला गया और मैंने उसे फ़ौरन समझ लिया, चाहे जुबान का नाम मुझे मालूम न हो और न ही उस क्षेत्र का नाम जहाँ वह बोली जाती होगी।
आखि़र वह वक़्त आ गया जब रहस्य सम्राट प्रकट हुए। लोग इकट्ठा होने लगे। संगीतकारों ने अपनी जगह सम्भाली। तमाशागाह, जैसा कि मैंने बताया, समतल थी, कोई ऊँची जगह नहीं थी। लोग मगर फिर भी जमा होने लगे। ध्ाीरे-ध्ाीरे पास के घरों की छतों और छज्जों पर भी लोग आ-आकर बैठने लगे। फिर नारियल और ताड़ के पेड़ों की बारी आयी। लोग बख़ूबी जानते थे कि नाच का दौर कई दिन भी चल सकता था। लेकिन तमाशाइयों को देखने की उत्कंठा हर ज़रूरत, हर पाबन्दी पर हावी हो गयी थी।
दिन फूटने के पहले संगीत की आवाज़ बुलन्द हुई और एक दरवाज़े से, जो देखने में तो अब तक कुछ खुफि़या-सा था, सम्राट ज़ाहिर हुए। बिल्कुल काले कपड़े पहने हुए, कोई सजावट नहीं, हाथ, गला, पाँव, कमर सब ज़ेवरों से मुक्त। पाँव में घुँघरू भी नहीं। उनका कद कुछ ठीक समझ में नहीं आता था। एक पल लगता कि वे छोटे क़द के हैं, एक क्षण लगता कि वे औसत से ज़्यादा ऊँचे क़द के हैं और कभी तो वे बहुत मोटे-तगड़े, तन्दुरुस्त और ऊँचे क़द के दिखायी देते थे। लिबास की तरह उनका पूरा शरीर भी बिल्कुल स्याह था। या शायद उन्होंने किसी तरकीब से, कोई लेप लगा कर, या किसी तेल की मालिश करके खुद को काले रंग का कर लिया था। उन्होंने दर्शकों को झुक कर दण्डवत की। एक नारा बुलन्द हुआ। संगीत की लय ध्ाीमी होती गयी, यहाँ तक कि दूर वालों को मुश्किल से सुनायी देती होगी। (लेकिन यह भी मेरा वहम था। बाद में लोगों ने बताया कि वे बारीक और तीव्र से तीव्रतर सुर, आवाज़ के हर उतार-चढ़ाव, बहुत साफ़ सुन सकते थे।)
रहस्य सम्राट ने सृष्टि की रचना शुरू की। उनकी आँख के हर इशारे, भृकुटिओं की हरकत, उनकी उँगलियों के हर गुप्त संकेत, उनके पाँव का हर अध्ाूरा या पूरा क़दम, उनकी कमर या गर्दन की हर हलचल, कायनात के अनदेखे और अजेय, मृत्यु और जीवन के सामने उनका सरू के वृक्ष के समान ऊँचा और सुडौल होना, पूरी तरह झुक जाना - उन सबसे भय और निराशा, और उम्मीद और इल्तिजा से भरी हुई दुनियाएँ बनती चली गयीं। जम्बू-द्वीप, कायनाती कोहिस्तान मेरु-ए-निलोफ़री की हर पंखुड़ी और हर पंखुड़ी पर आबाद दुनियाएँ। सृष्टि में अनगिनत कोस की दूरी पर झिलमिलाते हुए सितारे, बफिऱ्स्तान, रेगिस्तान, पानी, पानी ही पानी। यह सब, और बहुत कुछ उनके हल्के से हल्के इशारे या शारीरिक हरकत के संकेत की बदौलत सामने आता गया। या यह कोई तिलिस्म था, कोई ग़ैर-इंसानी वजूद था, जिसकी कुंजी रहस्य सम्राट के इशारों और हरकतों में थी। उनके पाँव, पाँव ही नहीं लगते थे, हाथ ही नहीं लगते थे। उनकी आँखें बन्द थीं और खुली हुई भी थीं।
एक पल वह भी आया जब हमने सृष्टि-निर्माता यानी ब्रह्मा को अपने सामने देखा। क्या वह किसी पर्दे के पीछे से अचानक प्रकट हो गया था, या वह खुद वही सब कुछ था, जिसे हमने अपनी जागती आँखों से देखा था? रहस्य सम्राट अब कहीं नज़र नहीं आते थे, हाँ चीटियों की एक क़तार थी, जो मंज़रगाह के इस सिरे पर थी, जहाँ से नृत्य शुरु हुआ था। फिर हर तरफ़ कुछ सफ़ेद और नीले रंग का ध्ाुआँ-सा फैलने लगा।
बाद में मुझे बताया गया कि सात दिन और सात रातों में सृजन का यह कायनाती सफ़र पूरा हुआ। इस अवध्ाि में कौन आया, कौन चला गया, मुझे कुछ नहीं मालूम। मुझे तो सिफऱ् यह मालूम है कि जब मैंने आँख खोली तो भीड़ वैसी ही थी जैसी कि बिल्कुल शुरुआत में थी। लोग बेशक चले गये हों, नये तमाशबीन आ गये होंगे, लेकिन मैंने निरन्तर ही देखा। मंज़रगाह पर दुनियाओं का वैसा ही हुजूम था।
अचानक मुझे नटराज दिखायी पड़े। उनके हाथ में तीन बत्तियों का एक दिया था। उन्होंने एक फूँक में तीनों बत्तियाँ रौशन कर दीं और अचानक हर तरफ़ आग ही आग थी, अगर आग का कोई वजूद है तो वही हर तरफ़ था। सब दुनियाएँ, सब सितारे, ग्रह-नक्षत्र, आकाशगंगाएँ, मेरे सामने चुपचाप जलती गयीं। और फिर...फिर नटराज भी उसी ब्रह्माण्डी अग्निशाला में ख़ाक हो गये। हर तरफ़ राख ही राख थी।
मज्मे में विलाप का शोर तो उसी वक़्त बुलन्द होने लगा था जब दिये की बत्तियाँ रौशन हुई थीं। मैंने जि़न्दगी में ऐसा दर्दनाक, ऐसा दुःख-भरा दृश्य नहीं देखा था, न अपने पढ़ने-लिखने के दिनों में, न वनवास के दिनों में मुझे इसके किसी मामूली से कण की कल्पना ही सम्भव हुई थी, या हो सकती थी। अपने आप ही, न चाहते हुए मेरी आँखें भर आयीं और फिर मेरे चेहरे पर आँसुओं की चादर फैल गयी। मैं क्यों रो रहा था? किसके लिए रो रहा था? मेरा तो कुछ भी नहीं खोया था, हाँ ज्ञान का विश्वास, जिसने मेरी जि़न्दगी की रहनुमाई अब तक की थी। वह घमण्ड, वह आत्मविश्वास, वह आत्म-सन्तुष्टि जो मेरे माता-पिता की देन थी। अब मैं दुनिया में बिल्कुल तन्हा था।
मैंने आँखें बन्द कर लीं कि उन क़ातिल रौशनियों में मेरी दृष्टि नहीं जल जाये। शायद मेरे आँसू थम सकें कि जब कुछ नहीं देखूँगा तो रोऊँगा कैसे? लेकिन मैं तो खुद रो रहा था, खुद को रो रहा था। भीड़ में मातम मनाने का और सिर पर ध्ाूल उड़ाने और अपनी रानों को ज़ोर-ज़ोर से पीटने का शोर था जैसे उन रानों और कमर पर कोई कीड़ा चल रहा हो, कोई चींटी सुरसुरा रही हो। सहसा मज्मे से एक आवाज़ बुलन्द हुई। ‘देखो, देखो, वह राख तो चलने लगी है’! भय से पराजित होकर मैं घुटनों के बल बैठ गया, या यूँ कहिये कि गिर पड़ा। कहीं दूर से सनसनाहट की सी, सन्नाटे की सदा बुलन्द होने लगी। जैसे समन्दर का पानी पीछे हट रहा हो, फिर आगे आ रहा हो। लेकिन ...नहीं। यह तो जैसे कई मृदंग एक साथ बजने लगे हों और उनकी ताल ध्ाीरे-ध्ाीरे द्रुत फिर अतिद्रुत हो रही हो। आहिस्ता-आहिस्ता राख में कुछ बेचैनी, कुछ व्याकुलता का सा भाव पैदा हुआ। मेरी आँखें बन्द थीं। मैं शोर को सुन सकता था, और दुनिया, दुनिया में जो कुछ भी था, सबसे बेख़बर था कि अचानक मुझे ठण्डक और नर्म, सुन्दर आर्द्रता की अनुभूति हुई, जैसे कोई अपने भीगे आँचल से पसीने से तर-बतर मेरा माथा पोंछ रहा हो। मैंने आँखें बन्द रखीं। भीनी-भीनी फुआर अब मेरे चारों तरफ़ थी। तबीअत में ठहराव और सन्तुष्टि सी फैलने लगी थी। फिर इक्का-दुक्का हल्की-हल्की बूँदें मुझ पर, बल्कि मेरे चारों तरफ़ भी टपकने लगीं। मगर शायद यह कोई फुसफुसाहट हो, जैसे मैं ख़्वाब में हूँ और ये बूँदें नहीं हैं बल्कि किसी सूक्ष्म, आसमानी बाँसुरी से फूटते हुए स्वर हैं। कुछ शब्द भी हैं, और ये शब्द अब मुझे साफ़ सुनायी दे रहे हैं ः
प्ज कतवचचमजी ें जीम हमदजसम तंपद तिवउ ीमंअमद
न्चवद जीम चसंबम इमदमंजीण् प्ज पे जूपबम इसमेेमकरू
प्ज इसमेेमजी ीपउ जींज हपअमे ीपउ ंदक ीपउ जींज जंामेय
श्ज्पे उपहीजपमेज पद जीम उपहीजपमेज
सब शब्द मैं साफ़-साफ़ सुन रहा हूँ। इनमें अजीब सा संगीत है, जैसे दूर से झरने के गिरने की आवाज़ आ रही हो, या किसी कलाई में काँच की रंगीन चूडि़याँ आपस में बज रही हों। अजब रहस्य है, यह भी ठीक है और वह भी ठीक है। मगर यह भाषा कौन सी है? कोई फिरंगी ज़बान हो तो हो। या शायद यह ज़बान ही नहीं, सिफऱ् आवाज़ों का संग्रह जो बिल्कुल संयोगवश किसी ध्वनि में एक साथ खनक रहा हो।
लेकिन अब मुझे शब्दों के अर्थ भी समझ में आने लगे हैं। इस तरह नहीं कि मैं उनके व्याकरण-सम्बन्ध्ाी सूरतों को समझ सकूँ। उनमें वर्तमान काल बताने वाला शब्द कौन सा है और भूतकाल या भविष्य की पहचान कराने वाला कौन-सा वाक्य है? लेकिन मैं सब कुछ समझ गया हूँ, जैसे माँ के गर्भ में शिशु अपने आप समझ लेता है कि कुछ कहा जा रहा है, और यह भी समझने लगता है कि क्या कहा जा रहा है। कोई आसमानी शुभ-सन्देश है, जो बहुत दूर से गीत की सूरत में मुझ पर उतर रहा है। ‘जा, उठ जा। अपनी तक़्दीर और अपना अंजाम तलाश कर। यह नेमत है जो तुझे प्रदान की जायेगी, अगर तू खुद को उसके योग्य साबित कर सकेगा। मगर यह भाग-दौड़ से, कि़ताबों में सिर खपाने से, ध्यान और समाध्ाि में नहीं मिलती। तूने ब्रह्माण्ड को बनते और नष्ट होते देख लिया है। अब तुझे शान्ति उसी समय प्राप्त होगी, जब तू अपने आपको इस आसमानी गान में परिवर्तित कर सकेगा, जो तुझ पर अभी उतर रहा है’।
शब्द और संदेश तो मैंने समझ लिये, लेकिन क्या ये शब्द कुछ और भाव भी रखते हैं?
मैंने आँख खोली। शाम का ध्ाुआँ भरा ध्ाुँध्ालका हर तरफ़ था। तमाशाई सब जा चुके थे। दुनिया अपने मामूल कारोबार में तल्लीन थी, जैसे यहाँ अभी यहाँ कुछ भी तो नहीं हुआ था। मैंने मंज़रगाह में प्रवेश कर, चारों तरफ़ इध्ार-उध्ार देखा। एक बुजुर्ग नज़र आये जो दरियाँ-क़ालीन वग़ैरह समेटने की कोशिश में व्यस्त थे। मैंने उनसे पूछा कि रहस्य सम्राट कहाँ चले गये तो उन्होंने मुझे घूर कर देखा, जैसे उन्हें यक़ीन नहीं आ रहा हो कि यह भी कोई पूछने की बात हो। लेकिन उन्होंने मेरे गिड़गिड़ाहट भरे चेहरे को देखा तो समझ लिया कि मैं वाक़ई खोजी हूँ, बेकार बातें बनाने वाला नहीं हूँ। उन्होंने कहाः
‘जहाँ रहते हैं वहीं चले गये होंगे। वैसे असलीयत किसी को मालूम नहीं। ज़रा आगे अपनी कावेरी नदी घूमती है, इतनी ज़्यादा कि लगता है दूसरी होकर अपने में समा जायेगी। ठीक उस मोड़ पर एक घना पेड़ है और उसी जगह नदी का पानी बहुत गहरा है। सुनते हैं सतह के बहुत नीचे एक कुण्ड है जिसमें मगर और घडि़याल और बड़े-बड़े कछुए बसेरा लेते हैं। नटराज उसी कुण्ड में डूब जाते हैं। फिर पता नहीं चलता। कहते हैं कि उसी कुण्ड के सबसे गहरे हिस्से में उनकी झोंपड़ी भी है।’
वे बुजुर्ग अपने काम में व्यस्त हो गये। गहरे कुण्ड के सबसे गहरे कोने में झोंपड़ी?
मैंने सोचा कि यह भी कुछ इसी तरह की बात होगी कि नटराज बात करते-करते पूरी सृष्टि का निर्माण करते हैं और फिर उसे विनष्ट कर सकते हैं। मगर उस राख के बिखर जाने के बाद वहाँ क्या हुआ था? क्या दिखायी दिया था? मैंने बड़े मियाँ से पूछा, हालाँकि मेरी आवाज़ डर और शर्मिंदगी से कँपकँपा रही थी।
‘देखोगे’?
उन्होंने अचानक आँखें निकाल कर पूछा। उफ़, वे क्या आँखें थीं, जैसे आस-पास का सारा रहस्य, सारा आसमान, सारी ज़मीन भड़क रही हो, कुपित और शान-ओ-शौकत के रोब से लबालब। बवण्डर हैं कि शोले हैं कि पूरी सृष्टि एक अलाव है। मुझे लगा अगर मैं आँखें खोले रहूँगा तो भस्म हो जाऊँगा या उसी अलाव में कूद पड़ूँगा।
मैंने आँखें बन्द कर लीं, या शायद अपने आप मेरी आँखें बन्द हो गयीं। मैंने देखा कि राख के उस ढेर से एक परिन्दे का सिर आहिस्ता-आहिस्ता निकल रहा है। गर्दन के ऊपर बिल्कुल सुनहरा, बल्कि खुद ही सोने की डली, जिसे नर्म करके गर्दन और सिर और चोंच बना दिया हो। लेकिन बाक़ी जिस्म बिल्कुल हमारे मोनाल तीतर की तरह था। लाल, पीला, नीले रंगों में दमकता हुआ। लेकिन उसकी चोंच मोनाल से बहुत ज़्यादा लम्बी थी, बिल्कुल जैसे कोई ख़ंजर हम सबके सीनों में उतर जाना चाहता हो। और, और, उसकी चोंच में अनगिनत छेद थे जिनमें से हल्के-हल्के शोले झाँक रहे थे। मौसीक़ार? मैंने सोचा। लेकिन मौसीक़ार तो बहुत बड़ा होता है, कुछ शुतुरमुगऱ् या सीमुर्ग़48 जैसा, और बिल्कुल लाल। लेकिन सुना है मौसीक़ार हज़ार साल में एक बार प्रकट होता है। उसकी चोंच से असंख्य गीत और राग सूरत नुमा होते रहते हैं, सूरत नुमा मैंने इसलिए कहा कि हर राग, हर गीत, हर लहरे, हर तान को, हर व्यक्ति अलग-अलग सुन और देख सकता है। मौसीक़ार शाम तक गाता रहता रहता है, दूर-दूर से लोग उसे सुनने और देखने आते हैं। लेकिन इसके पहले कोई उसके क़रीब आ सके वह आसमान की तरफ़ देखकर दिल दुःखाने वाली आवाज़ में चीखता है। फिर अन्ध्ोरा छा जाता है। जब रौशनी होती है तो वहाँ राख का एक ढेर नज़र आता है, मौसीक़ार का दूर-दूर तक पता नहीं होता। कहते हैं, जो भी मौसीक़ार के गीत सुन ले वह अपने वक़्त का सबसे बड़ा नायक, सबसे बड़ा कलावन्त बन जाता है।
मगर यहाँ तो वह मोनाल या मौसीक़ार बिल्कुल ख़ामोश था। उसके चारों तरफ़ बस एक गूँज-सी थी, जो उसे घेरे में लिये हुए थी। जब गूँज इतनी प्रचण्ड हो गयी कि खुद वह परिन्द भी उसमें गुम होता महसूस हुआ तो अचानक एक बिजली-सी गिरी और उस परिन्द को उड़ा ले गयी। मैं सारी संवेदना, सारी देखने और समझने की शक्ति खो बैठा। मेरी आँखें बन्द थीं और मैं कहीं दूर बहुत दूर पाताल की तरफ़ खिंचा जा रहा था।
मालूम नहीं मैं कितनी देर तक सोया, और मुझे यह भी ख़बर नहीं थी कि जाग रहा भी हूँ कि नहीं। हवाएँ मेरे सिर में पेचाँ थीं। वे कुछ यह कहती हुई लग रही थीं कि उठ, तुझे अभी और
(48) अंक़ा@फ़ीनिक्स
भी दूर जाना है। मगर मैं कहाँ जाऊँ, क्यों जाऊँ? मैं रहस्य सम्राट तो हूँ नहीं कि तमाम दुनियाओं को एक दम में बना डालूँ और फिर एक दम में मटियामेट कर डालूँ। क्या मेरे सारे गुण, सारे उपार्जन, इसी तरह व्यर्थ हो जाएँगे जिस तरह रहस्य सम्राट ने दुनियाएँ बनायीं और बर्बाद कर दीं?
(4)
सामने ठण्डे पानी की झील, चारों तरफ़ हरियाली, सर्द हवा, ज़हन में अस्त-व्यस्तता। कितना ठण्डा पानी है? मैं कूद कर देखूँ? अचानक मुझे किसी ने पानी की तरफ़ उछाल ही तो दिया। मैंने हज़ार चाहा कि इस अदृश्य पंजे की गिरफ़्त से आज़ाद हूँ लेकिन प्रतिद्वंद्वी ज़बर्दस्त था, तड़पने की भी मजाल नहीं देता था। मैंने आँखें बन्द कर लीं। ठण्डे पानी की चोट ने मेरे मन की शक्ति छीन ली। या शायद कई पलों के लिए बेकार कर दी। मैं तह तक उतरता चला गया। फिर जो आँख खुली तो मेरे सामने दृश्य जल्द-जल्द बदल रहा था, जैसे पर्दे पर तस्वीरें दौड़ रही हों। एक मंज़र को दूसरे से कुछ वास्ता नहीं था।
चाँदनी खिली हुई थी, दश्त-ओ-दर चाँदनी का पतर49। शाहिदे बहार50 को मशातए शब51 आइन्दा माह52 दिखाती... रात का सन्नाटा, तमाम मैदान सफ़ेद हो रहा, जानवर अपने-अपने मस्कन53 में बैठे हुए। कभी जो हवा के झोंके से कोई दरख़्त खड़कता, एकाध्ा हिरण, ख़रगोश जस्त करके54 झाड़ी से बाहर निकल आता, इध्ार-उध्ार देखकर चैकड़ी मार जाता। झाडि़यों से हिरण, पाढ़े, चीतल, नीलगाय सिर निकालते। झीलों का यह आलम कि जैसे ख़ाना-ए-ज़मीन में आइने जड़े हुए। किनारे-किनारे बगुले, काज़ें, सुरख़ाब परों में मुँह डाले एक पाँव से खड़े हुए। दामन-ए-कोह में कोड़याला खिला हुआ, नरगिस्तान-ए-कवाकिब को शरमाता55...
नीचे पाल के, चैका तख़्तों का बिछा था। उस पर चाँदनी का फ़र्श-ओ-क़ालीन आरास्ता था। मुकाबा56 और सन्दूक़चा57 ध्ारा था, सन्दूक़चे से लगा हुआ आईना-ए-हलबी58 रखा, साकि़नें
(49) परत
(50) बहार का माशूक़
(51) रात को सँवारने वाली
(52) आने वाला चाँद
(53) स्थान
(54) कूद कर
(55) पहाड़ के दामन में खिले सफ़ेद चित्तियों वाले काले फूल (कोड़याला) की चमक के सामने तारों की आभा भी फीकी पड़ रही है
(56) श्रृँगारदान
(57) छोटा सन्दूक़
(58) हलब यानी सीरिया का शहर अलेप्पो जहाँ का दर्पण बहुत प्रसिद्ध है
हज़ार बनाओ किये, दुलाई सफ़ेद ऊदी गोट की ओढ़े, आगे से तौक59 सोने का दिखलाने को गला खोले, पाएँचे पाएजामे के पीछे तख़्त पर पड़े, माथे पर अफ़्शाँ60 लगाये, पटे छोड़े बाल बनाये, लब-ए-तख़्त बा हज़ाराँ नाज़-ओ-अन्दाज़ बैठी थीं61। कान का ज़ेवर झूमकर झोंके लेता था, रुख़-ए-ताबिन्दा बहर-ए-हुस्न62 था, इसमें इस ज़ेवर का अक्स पड़ता था। यह ज़ाहिर था जैसे कँवल दरिया में तैरते हैं या मछलियाँ और जानवराँ आबी पैरते63 हैं। हाथों में कड़े पड़े, दस्त-ए-हिनाई64 में पोर-पोर छल्ले थे।
...एक सम्त लगन65 और पतीलों में नैचे66 भीगते थे, सामने कुछ हुक़्क़े तैयार ताज़ा किये रखे थे। तिपाइयाँ सुराख़दार बिछी थीं। चिलमें उनमें घर सी थीं। कोई गंडा-गंडा लड़ाता था, कोई दूनी की पीता था... साकि़न भी मुस्कुराती थी, ये कैफि़यत दूना नशा जमाती थी। एक तरफ़ सामने खरीदार दुआएँ देते थे, कश्मीर और सालजहाँ67 माँगते थे। यारकि़न्द पैसे वाली चिलम के भरवाने वाले उड़ाते थे। कोई कहता था, साकिन के दम की ख़ैर, आज तो पेड़ो पर की हमको भी पिलवाइये। साकिन कहती थी, बेटा अँगिया के अन्दर पेविया बहुत उम्दा है। दम-बदम चिलम जमा कर देती थी। ख़रीदारों में यह बहस थी कि एक कहता था, तुम सर करो। दूसरा कहता था, क्या हमको पस्त पीने वाला मुक़र्रर किया है?
....हल्वाई की दुकान पर थाल-ए-बरंजी68 बराबर चुने69 थे। आगे दुकान के ज़ंजीर-ए-बरंजी लटकती थी, घण्टी उसमें बँध्ाी थी। अन्दर दुकान के नौकरों ने गोलों पर कढ़ाओ चढ़ाये थे, मिठाई बनाते थे। अल्मारियाँ मिठाई से भरी रखी थीं, मिठाइयों को जालदार और मिहराबदार चुना था कि फूल और गुलदस्ते बने मालूम होते थे। मिठाई पर वकऱ्-ए-तिलाई70 और नुक्ऱई71
(59) स्त्रियों के गले में पहनने की सोने-चाँदी की गोल हँसली
(60) स्त्रियों के बालों अथवा गालों पर छिड़कने का सुनहरा या रूपहरा चूर्ण
(61) तख़्त से पीठ लगाये हज़ारों नाज़-नखरों के साथ बैठी थीं
(62) चमकता हुआ चेहरा हुस्न का समुन्दर था
(63) पानी की सतह पर तैरना
(64) मेहँदी लगे हुए हाथ
(65) टब
(66) हुक़्क़े की नै
(67) कश्मीर और सालजहाँ का इस्तेमाल यहाँ कश्मीर में उगाई जाने वाली चरस से है
(68) काँसे के थाल
(69) सज
(70) सोने का वकऱ्
(71) चाँदी के बने हुए
लगे थे, अजब जोबन देते थे72 ...नानबाई बसद खुशअदाई जुरूफ़-ए-मिस्सी साफ़-शफ़्फ़ाफ़ में तालिम लज़ीज़ चुने हुए73। पुलाओ, ज़र्दा, कोरमा, मुगऱ् का शोरबा, कबाब-ओ-बाक़र ख़ानी, आबी नान, हवाई कुल्चे वग़ैरह, हर किस्म का खाना मुहैया रखते थे। तनूर74 गर्म था पतीला चढ़ा था। एक तरफ़ माही दमे75 में कबाब गर्मा-गर्म थे। कुछ लोग दुकान में खाना खाते थे, कुछ ख़रीदार प्याले लिये खड़े थे...
(तिलिस्मे होशरुबा, जिल्दे अव्वलः दास्तानगो, मुहम्मद हुसैन जाह)
मैं इस झील की तह में कितनी दूर निकल आया हूँ? कोई शक्ति मुझे झील से बाहर ले आयी है, या अभी इस झील ही में हूँ? मुझे कहाँ ले जाया जा रहा है? मैं जानता हूँ यह दुनिया बहुत बड़ी है और पूरा ब्रह्माण्ड (अगर वह पूरा है भी) असीम है और मैं सबसे छोटे कण से भी तुच्छ हूँ। या शायद हूँ ही नहीं, और यह सब मेरी कल्पना की दुनिया में आबाद है? मुझे फिर नींद आ गयी।
प् ूपसस ंतपेम ंदक हव दवूए हव जव प्ददपेतिमम
३ंदक सपअम पद जीम इमम.सवनक हसंकम
।दक प् ेींसस ींअम ेवउम चमंबम जीमतमए वित चमंबम बवउमे कतवचचपदह ेसवूए
क्तवचचपदह तिवउ जीम अमपसे व िजीम उवतदपदह३
ज्ीमतमश्े उपकदपहीज ंसस ं हसपउउमत ंदक दववद ं चनतचसम हसवू
।दक मअमदपदह निसस व िसपददमजश्े ूपदहे
३प् ीमंत जीम संाम ूंजमत संचचपदह ूपजी सवू ेवनदके३
भाषा तो वही है जो मैंने पहले सुनी थी, अपने उस पुराने गाँव में, जब नटराज ने सभी सृष्टियों को नष्ट कर दिया था। लेकिन आवाज़ अलग, लहजा अलग। जैसे कोई नींद या नशे में हो और कुछ भर्राई हुई सी आवाज़ में बोल रहा हो लेकिन यही दशा तो मेरी भी है। मैं शायद नशे ही में हूँ। तरह-तरह की विचित्रताओं के फैलाव और रंगा-रंगी ने मुझे अपने आप से किसी तरह काट दिया है। मैं आसपास की दुनिया को देख तो रहा हूँ (अगर वह दुनिया ही है) लेकिन समझ नहीं पा रहा हूँ।
मैंने दोबारा झील में छलाँग लगा दी। अब जो पाँव ज़मीन को लगे तो मैंने देखा कि उसी मंज़रगाह का किनारा है, पीछे कोई नदी बह रही है, शाम हर तरफ़ फैल रही है, नदी का किनारा
(72) अजब हुस्न था
(73) नानबाई बहुत नाज़-नखरों के साथ ताम्बे के चमचमाते हुए बर्तनों में स्वादिष्ट पकवान सजाये हुए
(74) तन्दूर
(75) एक तरह का बर्तन
शाम के रंग का है, मैं हूँ। मैंने खुद को सम्भाला, लाठी कन्ध्ो पर रखी और उत्तर की ओर रवाना हो गया। वहाँ, जहाँ हिमालय पर्वत का मुश्किल से पार किया जा सकने वाला सिलसिला है, पानी है, बफऱ् है, हवा है। मेरे पिता ने एक बार मुझे कहा था कि दुनिया के निरर्थक कामों में वक़्त गुज़ारने से बहुत बेहतर है कि तुम कुण्डलिनी को जागृत कर लो और फिर सम्पूर्ण आत्मज्ञान की खोज में हिमालय पर्वत में कहीं गहराई में अपना घर बना लो और कुण्डलिनी से वार्तालाप स्थापित करो। सृष्टि जो कुछ है और सृष्टि में जो कुछ है वह तुम्हारे ही मस्तिष्क का जीता-जागता प्रतिबिम्ब है। ये ऊपरी दृश्य तुम्हारे मस्तिष्क के आन्तरिक परिदृश्य का हिस्सा हैं। हिमालय के कोने-कोने में जि़न्दगी के रूप भरे हुए हैं। वहाँ पहाड़ों और चोटियों पर चिराग़-ए-लाल से रौशनी होती है, वहाँ तुम्हें खुद से बाहर निकलने का मौक़ा मिल सकता है। अभी तो तुम सोये हुए हो, कि तुम्हें इस नश्वर जीवन से बहुत लगाव है, जैसा कि एक शायर ने, जो अभी पैदा नहीं हुआ, इस तरह लिखा है जब उसने हक़ीक़त और ख़्वाब पर ग़ौर किया।
ता जुम्बिशे तारे नफ़स अफ़्साना तराज़ अस्त
बेदिल बकमन्द-ए-रगे ख़्वाब अस्त दिले मा76
क्या मतलब, वह अभी पैदा भी नहीं हुआ और उसके शेर आप पर उतर चुके हैं, या उतर रहे हैं? यह कौन सी दुनिया और कौन सा ज्ञान है? लेकिन पिता के सामने कुछ कहने की हिम्मत किसे थी? तुम निश्चितताओं से बाहर आ सकोगे तब तुम्हें यह बात भी मालूम हो जायेगी।
अचानक मेरे सामने आसमान में एक खिड़की रौशन हो गयी। खिड़की, दरार, या सिफऱ् मेरा वहम, मुझे आँखों के सामने दुनिया कुछ अन्ध्ाकारमयी सी लगने लगी। लेकिन अब इस खिड़की में एक सुनहरी शाख़ नज़र आयी जिस पर एक नीला-पीला पक्षी कुछ कहता हुआ नज़र आया। उसके पीछे एक काला पर्दा सा, जिस पर वही शब्द लिखे हुए थे, जो वह पक्षी (या कोई सर्वव्यापी अस्तित्व?) अपनी ज़बान से अदा कर रहा था। मैं उन शब्दों को पढ़ नहीं सकता था लेकिन जो कुछ सुन रहा था उसे खूब समझ सकता था। शुरू के शब्द साफ़ सुनायी नहीं दिये, लेकिन उनके बाद ः
डपतंबसमए इपतक वत हवसकमद ींदकपूवता
डवतम उपतंबसम जींद इपतक वत ींदकपूवता
च्संदजमक वद जीम ेजंतसपज हवसकमद इवनही
३
३व् िींउउमतमक हवसक ंदक हवसक मदंउमससपदह
(76) चूँकि मेरी साँस के हर तार की गतिविध्ाि कहानियाँ गढ़ती है - बेदिल हमारा दिल ख़्वाब की डोर में कसा हुआ है।
ज्व ाममच ं कतवूेल म्उचमतवत ंूंाम
व्त ेमज नचवद ं हवसकमद इवनही जव ेपदह
ज्व सवतके ंदक संकपमे व िठल्रंदजपनउ
व् िूींज पे चेंजए वत चेेंपदहए वत जव बवउमण्
क्या मतलब, यह बायज़ेंटिअम कोई जगह है? और वहाँ ऐसे परिन्दे हैं, या कम से कम एक परिन्दा ऐसा है जो अतीत और वर्तमान और भविष्य की सभी बातों के इल्म पर हावी है? और क्या मेरे पिता ने कभी वह पक्षी पाला था? लेकिन अब तो वह उनके पास नहीं है। फिर उन्हें यह सब कैसे मालूम है? मगर ज़रा ठहरें, मुझे भी तो दोबारा किसी फिरंगी ज़बान में बहुत कुछ शायरी सुनायी दी थी। और मुझे मालूम नहीं कि जिन लोगों के वे शेर हैं वे किस ज़माने में थे? और सच पूछो तो मुझे खुद भी नहीं मालूम कि मैं किस ज़माने में हूँ? क्या मेरे पीछे कोई अतीत है, और क्या मेरा कोई भविष्य भी है? क्या ऐसा भी होगा कि मेरे बाद जो लोग होंगे वे मेरी इस बकवास को पढ़ सकेंगे? क्या जिस भाषा में इस वक़्त बातचीत कर रहा हूँ वह कोई भाषा है भी या यह सिफऱ् मेरे दिल में है? और कहीं लिख दूँ तो क्या यह भाषा कल बाक़ी भी रहेगी कि नहीं?
क्या मैं इस झील में दोबारा कूद पड़ूँ जिसमें एक बार कूद कर मैं यहाँ पहुँचा था? बेवकूफ़ आदमी, होश की बात करो, लेकिन शायद तुम होश ही में नहीं हो। क्या तुम इतना भी नहीं समझे कि अब तक जो कुछ हुआ है उसमें तुम्हारे दिल-ओ-दिमाग़ का कुछ दख़ल रहा हो तो रहा हो, लेकिन तुम्हारे इरादे का कोई दख़ल नहीं था। अब दोबारा अपने इरादे से इस झील में गोता लगाओ तो शायद डूब ही हो जाओ, या कहीं और पहुँच जाओ। वस्तुओं का अन्त ऐसे नहीं होता। जो है और जो नहीं है उसमें कुछ ऐसा फ़कऱ् भी नहीं। सिफऱ् तुम्हारी समझ का फ़कऱ् है। तुम हिमालय पर्वत के लिए निकले थे, बस उस तरफ़ ही जाओ। जब तुम्हें कोई रोकेगा तो देखेंगे क्या होता है। अभी तो रास्ता आसान है। ख़ैर, आसान न सही लेकिन मालूम है।
तो मैं चला गया। मैं आँख बन्द करके एक तरफ़ चल पड़ा।
(5)
उनका नाम वामन वशिष्ठ था। या शायद वामन उनका नाम नहीं था, बल्कि लक़ब था, क्योंकि वे भी वामन अवतार की तरह छोटे क़द के थे, बल्कि कहा जाए कि बौने थे तो ज़्यादा उचित होगा। वामन अवतार की तरह वे भी विष्णु जी के बहुत सच्चे और पक्के भक्त थे, बल्कि कुछ लोग उन्हें विष्णु जी का अवतार ही समझ लेते थे। लेकिन वे उन वामन अवतार की तरह नहीं थे जो लोहे की लाठ की तरह ज़मीन में गड़े हुए हैं और उसका सिरा आसमान को छूता है। लोग कहते थे वे ज़मीन को थामे हुए हैं नहीं तो क्षण-प्रतिक्षण इतने भूकम्प आएँ कि सारी दुनिया में उथल-पुथल हो जाये। उन्हीं वामन अवतार ने एक बार अपने राजा से कहा कि मुझे रहने-सोने के लिए कुछ ज़मीन दे दो। राजा ने उनके छोटे क़द को देखा तो मुस्कराकर कहा, ‘ज़मीन क्या करोगे, तीन क़दम चलो, उतनी ज़मीन तुम्हें मिल जायेगी जितनी तुम तीन क़दमों में तय कर सकोगे। वही तुम्हारे लिए काफ़ी होगी’।
वामन ने राजा को रहम भरी निगाह से देखा और कहा, ‘अच्छा तो मैं चला। तुम मेरे क़दम देखते रहना कि तीन से ज़्यादा तो नहीं हो रहे हैं।’
फिर राजा के सामने ज़मीन-आसमान के बीच कहीं एक खिड़की सी खुल गयी। वामन अवतार उसमें से साफ़ दिखायी दे रहे थे। पलक झपकने में जितना समय लगता है उससे भी कम अवध्ाि में वामन ने जानी-पहचानी सृष्टि, सूरज, चाँद, सितारे, समुद्र, पर्वत सब पार कर लिये। फिर देखते ही देखते वे सम्भावनाओं की दुनिया को भी पार कर गये, यानी उस सबको, जो अभी है नहीं लेकिन हो सकता है, या कभी हुआ होगा और अब समय के उस पार बहने वाले ध्ाुंध्ाले पानियों में अनगिनत सदियों से डूबा हुआ है। फिर उनका दूसरा क़दम महसूस की जाने वाली सृष्टि से आगे, सम्भावना से परे, उन सृष्टियों को पार कर गया जिनका अस्तित्व नहीं है, लेकिन जो कभी वजूद में आने के लिए आतुर हैं। या असल में अभी वे आतुर भी नहीं हैं लेकिन जब उन्हें सम्भावनाओं का ज्ञान होगा तो उनकी आत्मा में अध्ाूरेपन का एहसास चुभने लगेगा और वे आत्मपूर्ति के लिए अस्तित्व में आ जाने के लिए व्याकुल होने लगेंगी। राजा के हवास गुम होने लगे, लेकिन उसकी आँखें वहीं खिड़की के पार टकटकी लगाये हुए थीं। वामन अवतार का तीसरा क़दम इन्द्रलोक, परलोक के आगे किसी और काल की सृष्टि पर पड़ा ही था कि राजा चीख उठाः
‘बस महाराज, बस। मुझसे बड़ी भूल हुई। अब आगे देखने का सामथ्र्य नहीं है। मैं हाथ जोड़ कर क्षमा याचना करता हूँ’।
वामन अवतार मुस्कुराये। राजा ने अपना मुकुट उनके क़दमों में रख दिया और गिड़गिड़ा कर बोला, ‘यह राज-पाट सब आपका। मैं इसके योग्य नहीं। यह सब आप सम्भालिये, मुझे वनवास दीजिये’।
वामन अवतार ने राजा को अहंकार और दिखावे से बचने की नसीहत दी, कहा हम ताज छीनने वाले नहीं, ताज देने वाले हैं और अपनी राह ली।
और एक कथन यह भी है कि वे तीन क़दम जो वामन अवतार ने तय किये थे, वे थेः पहला, नींद। दूसरा, नींद और स्वप्न। तीसरा, गहरी नींद। ये तीनों क़दम रूहानी तौर पर शायद वही थे, जो वामन ने राजा की आँखों के सामने अपने हाड़-माँस के शरीर के साथ तय किये थे। सत्य तो ईश्वर ही जानता है। लेकिन जिन वामन वशिष्ठ का हम जि़क्र कर रहे हैं वे अभी अपने हमनाम अवतार के बहुत पीछे, कई दजऱ्ा नीचे कहीं आत्म-सन्तुष्टि की तलाश में थे। उन्होंने कुण्डलिनी को इस दर्जा अपनी गिरफ़्त में कर लिया था कि वे उसे दुपट्टे के तौर पर अपनी कमर में लपेटे रहते थे। लेकिन अभी वे खुद को, या अपने आंतरिक अस्तित्व को अध्ाूरा समझते थे। वामन वशिष्ठ के पास सब कुछ था, वे अनंत विध्ााओं के मालिक थे और अथाह रहस्यों की गहराइयों में उतर चुके थे। लेकिन अभी उन्हें वह नहीं मिला था, जो उन्हें निस्पृहता के अध्ािकार-क्षेत्र पर स्थापित कर देता।
वे इसी तलाश में मुल्कों-मुल्कों, गाँव और शहरों, जंगलों और वीरानों में भटकते रहे। एक बार वे थक कर और अपनी हस्ती से खिन्न होकर एक टीले के दामन में चादर लपेटे पड़े थे। तो उन्होंने ख़्वाब में किसी को देखा, कुछ रौशनी और कुछ बादल के लिबास में छुपा हुआ। वामन ने चाहा कि उन (आत्मा? जिन? कल्पना?) से पूछें कि मेरी उल्झन क्या है और उसका इलाज क्या है? लेकिन तेज और भय ने ज़बान खोलने की क्षमता छीन ली थी। फिर उन्होंने महसूस किया (देखा? दिल में कहीं उसकी छाया देखी?) कि वह हस्ती दूर किसी बहुत ऊँची जगह उत्तर दिशा की ओर इशारा कर रही है। फिर उनके दिल में ख़याल आया, मुझे उत्तर की तरफ़ चलना चाहिये। उसके पहले कि उनकी आँख खुलती (या वे होश में आते?) उन्होंने सुना, कोई कह रहा है, पर्दा तुम खुद हो, तुम्हारा ज्ञान और अच्छाई इससे बड़ा हिजाब है। उन्हें सकता आ गया। यह सब जो मैंने सदियों की तपस्या और ध्यान और जंगलों और पहाड़ों में मारे-मारे फिर कर हासिल किया है, यही मुझ पर हिजाब बनकर छा गया है? क्या इसी प्रकाश के कारण मैं अन्ध्ाा हो गया हूँ और मेरी उल्झन यही है कि मुझे अन्तर्दृष्टि की तलाश है?
आशना77 अपनी हक़ीक़त से हो ऐ देहक़ान78 ज़रा
दाना तू, खेती भी तू, बाराँ79 भी तू, हासिल भी तू
आह, किस की जुस्तजू आवारा रखती है तुझे
राह तू, रहरौ80 भी तू, रहबर81 भी तू, मंजि़ल भी तू
ना खुदा तू, बहर82 तू, कश्ती भी तू, साहिल भी तू
फिर मैं कहाँ जाऊँ? कहीं नहीं, अपने छोटे इल्म और अपनी मासूम ग़लतफ़हमियों को भूल जा, दूर वह उत्तर का आसमानी ठिकाना तेरा अपेक्षी है। तूने अभी अपने आप से बाहर निकलना तो सीखा नहीं है, यह कुण्डलिनी जिसे तू अपनी विशिष्टता जानता है, यही तो तेरी राह का बंध्ान है। तेरे हाथ-पाँव इसी ने बांध्ा रखे हैं। इन क़ैदों से परे हो जा। तो ऐ शर्मिंदा-ए-साहिल उछल कर असीम
(77) परिचित
(78) किसान
(79) बारिश
(80) पथिक
(81) मार्गदर्शक
(82) समुद्र
हो जा। ये हिन्द-ओ-ईरान क्या, सीन-ओ-रोम क्या, ये सब क़ैद हैं जो तुझ पर ज्ञान लादे हुए है, वरना कायनात की हर चीज़ एक-दूसरे से जुड़ी हुई है और जुड़ी हुई नहीं तो क़रीब ज़रूर है।
(6)
तो ये हालात और वजूद थे, जिन्होंने एक दिन वामन वशिष्ठ को हिमालय की गोद में पाया। अब तक वे घने जंगलों में रौशनी की तलाश करते थे, विस्तारों का उन्हें अनुभव नहीं था। अपने भीतरी विस्तार की तो वे कल्पना कर सकते थे लेकिन फैलाव की इन्तिहाँं और बुलन्दियों की क्रूर उदासीनता से उन्हें वास्ता नहीं पड़ा था।
बफऱ् ने बांध्ाी है दस्तारे फ़जि़यात83 तेरे सर, ख़ंदाज़न84 है जो कुलाह85-ए-आलमताब86 पर
और लुत्फ़ यह था कि इस ऊँचाई और उदासीनता के बावजूद उन्हें उस तिलिस्मी पर्वत में सफ़र बिल्कुल बोझ नहीं लगता था। थकान या उक्ताहट उन्हें दूर से छूती भी नहीं थी।
कई दिन, कई रात के सफ़र ने उन्हें हिमालय पर्वत की गहराइयों में पहुँचा दिया। यहाँ चीड़ के पेड़ तो बहुत पहले ही पीछे छूट गये थे, अब मुद्दत हुई वे ऊँचे, तन्दुरुस्त, घनी पत्तियों वाले देवदार भी ग़ायब थे। पहाड़ों पर कहीं-कहीं कुछ झाडि़याँ नज़र आती थीं, लेकिन छोटी-छोटी और मुरझायी हुईं। उनकी जगह सभी गहरी या कम गहरी गुफ़ाओं पर बफऱ् की मोहर थी। हवाएँ बहुत तेज़ थीं लेकिन ध्ाूप ज़रा-सी रह गयी थी, जैसे किसी की आँखों में नींद छाने लगे, आँखें ज़रा-ज़रा खुली हुई हों और उनकी पीली-सुनहरी रौशनी फि़ज़ा को गर्म करने की कोशिश करती हो। हवाएँ, त्राहि-त्राहि और दोनों तरफ़ क़तार बाँध्ो हुए पहाड़ों की दीवारें, उनकी बुलन्दी भी ठीक से नज़र नहीं आती थी। वे सारे पशु-पक्षी जिन से निचली दीवारों में रौनक़ थी, अब कहीं दिखायी नहीं देते थे। सिफऱ् बफऱ्ानी तेंदुआ कभी कहीं किसी चट्टान के साये में अपनी झलक दिखा देता था। सबसे ऊँची चोटियों पर बसने वाले असुरों के डील-डौल और काले रंग वाले झालरदार लिबास में लिपटे याक किसी दूर की वादी में दिखायी देते, लेकिन सिफऱ् भ्रम की तरह, कि खुदा जाने कि वे वास्तविक थे या कल्पना शक्ति ने उन्हें बनाया था। इंसान का कहीं पता नहीं था। ध्ाुंध्ालके में यह भी ठीक से मालूम नहीं होता था कि यह चाक-ए-गिरेबान सुबह की लालिमा है या शाम की नश्तर87 ने सूरज की नस खोली है और उसका लहू सारे आसमान पर फैल गया है।
(83) बड़ाई की पगड़ी
(84) आनन्दित
(85) मुकुट
(86) सारे संसार को प्रकाशित करने वाला
(87) चाकू
वशिष्ठ ऋषि ने लड़खड़ाते हुए क़दम आगे बढ़ाये। सामने एक स्याह चट्टान पर कुछ रहस्यमयी-सी, हल्की लेकिन स्थिर रौशनी सी नज़र आयी। पीछे कुछ नहीं था, सिफऱ् ऊँची-नीची भूरी-स्याह पहाडि़याँ आसमान तक फैली हुई थीं। मगर सुरीली-सी आवाज़ आहिस्ता-आहिस्ता फि़जा में फैलने लगी थी, जैसे कोई विचित्र वीणा पर गा रहा हो। वे और क़रीब गये तो कोई परी, या शायद कोई युवती,या शायद पहाड़ों में बसने वाली कोई रूह थी। उन्होंने हिम्मत करके दो-चार क़दम आगे बढ़ाये, गाने वाली अब सामने नज़र आ रही थी। ऐसी शक्ल! यह सरापा88, या यह क़द-ओ-क़ामत, यह क़यामत जल्वा बदन। वशिष्ठ ऋषि ने या किसी और भी ऋषि-मुनि ने अपने दूरवर्ती और सबसे ज़्यादा बेक़ाबू करने वाले ख़्वाब में भी न तो ऐसी शक्ल देखी होगी और न ऐसी आवाज़ सुनी होगी। हिम्मत करके वे और क़रीब गये कि चेहरे-मोहरे को और साफ़ देख सकें, लेकिन उसके व्यक्तित्व का जादू ऐसा था कि वे बहुत आगे बढ़ नहीं सके। जिस हद तक सम्भव हुआ, उन्होंने आँख उठाकर उस परी को देखा। फिर वशिष्ठ मुनि को महसूस हुआ कि कहीं क़रीब ही महफि़ल सजी हुई है। दास्तानगो किसी का सरापा बयान कर रहा हैः
सरापा का क्या बयान लिया जाये कि सफ़हए-फ़साना-ओ-वक़्त, तहरीर-ओ-सफ़-ए-रुख़, रश्कगुज़ार-ए-बिहिश्त89 बनता है। क़लम खुद नुक्ताचीनी करता है... माँग जादा-ए-कहकशान-ए-फ़लक90 को राह भुला दे, पेशानी-ए-नूरागीं सुबह-ए-सादिक़ को काजि़ब91 बना दे। ख़ाल-ए-हिन्दु रहज़न-ए-ज़मीर-ए-आशिक़ाँ92, भवें वो मिहराब जो सजदागाह-ए-हसीनान-ए-जहाँ... आँखें वो जाम-ए-सरशार महबूबी जो दिल-ए-ख़स्ता को बिर्याँ करें93...रुख़्सार-ए-ताबाँ गुल-ए-सुखऱ् को नदामत से आब-आब करे94 बल्कि चश्मा-ए-खुर्शीद को बेआब-ओ-ताब करे... लब-ए-याकूत रंग-ए-लाल बदख़्शानी का जिगर खून करे95 बल्कि याकूत-ए-रुम्मानी को हीरा खिलाये96, मरजान ग़ैरत से मर-मर जाये... सीना गंजीना-ए-नूर छातियों का इस पर ज़हूर97, नार-ए-पिस्ताँ को देख कर नार-ए-बस्ताँ का सीना शक़ हो98, सेब-बेही का रंग ग़ैरत से फ़क़ हो। शिकम साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़
(88) पद्य या कविता में सिर से लेकर पैर तक के अंगों या रूप-आकृति का वर्णन
(89) चेहरे की रूप-रेखाओं से स्वर्ग भी ईष्र्या करता है
(90) आकाशगंगाओं का पथ
(91) माथे की चमक सच्ची सुबह को मिथ्या बना दे
(92) गाल का तिल प्रेमियों का दिल छीन के ले जाये
(93) आँखें महबूबियत की शराब के वे प्याले हैं जो नाजुक दिल को जला दें
(94) चेहरे की चमक गुलाब को शर्म से पानी-पानी करे
(95) याकूत जैसे लाल होंठ बदख्शाँ के लाल को शर्मिंदा करे
(96) (याकूत जैसे लाल होंठ) अनार के सुखऱ् दानों जैसे याकूत से खुदकुशी करवाएँ
(97) स्तन प्रकट हुए तो ऐसा लगा कि रौशनी के ख़ज़ाने हों
(98) स्तनों की आग से बुझते हुए अंगारों का सीना भी फट जाये
तख़्त-ए-बिल्लौर99, नाफ़ को गिर्दाब-ए-बहर-ए-हुस्न100 कहना पुरानी बात है, ये चश्मए-आब-ए-हयात है। मू-ए-कमर आईना-ए-हुस्न में गोया बाल आया है101, या तार-ए-ख़ते-शुआआ-ए-आफ़्ताब- ए-सिपहर-ए-हुस्न बरमला है102। आगे अजब लज़्ज़त की चीज़ है, वो हंसनी है जो मोती चुगती है, या वो चोरखाना103 है जिसको क़लीद-ए-तमन्ना104 खोलती है। वो मज़्मून-ए-हिजाब है जिस पर मोहर-ए-ख़ते शबाब है105। वो मोरनी है जो कि मस्ती में राल106 मोर के मुँह से टपके तो वो अपनी मिन्क़ार107 में ले ले। वो दीदाए-पुरनूर108 है जिसमें वस्ल109 की सलाई सुरमा लगायेगी, वो गुंचए-तंग-ए-सरबस्ता110 है जिसमें हवा-ए-तमन्ना बड़ी मुश्किल से जायेगी...
(तिलिस्मे होशरुबा, जिल्द अव्वल, दास्तानगो, मुहम्मद हुसैन जाह)
दास्तानगो का बयान अभी जारी था, लेकिन अब गाने वाली की आवाज़ उस पर हावी होने लगी थी। वशिष्ठ ऋषि ने सुनाः
हमा उम्र बा तू क़द्र ह ज़दीम-ओ-ना रफ़्त रंज खुमारे मा
ची क़यामती के नमी रसी ज़े किना रे मा बा किना रे मा
चू गुबार नालए नेस्ताँ ना ज़दीम गामे अज़ इम्तिहाँ
के ज़े खुद गुजि़श्तन मा ना शुद बा, हज़ार कूचा दो-चारे मा
ना बा दामने ज़े ख़यार सद ना बा दस्तगाह दुआ रसद
चू रसद बा निस्बत पार सद कफ़ दस्त आबला वारे मा111
वामन वशिष्ठ को तन-बदन का होश नहीं रहा। उन्होंने दौड़ कर उस हसीना के पाँव लिये और अपने आप उन्होंने कहना शुरु कियाः
(99) शीशे की तरह साफ और सपाट पेट
(100) नाभि को समुन्दर का भँवर रूपी हुस्न (कहना पुरानी बात है)
(101) कमर इतनी पतली है मानो हुस्न के आईने में बाल आ गया हो
(102) (या) सम्भव है कि आकाश में जगमगाते हुए सूर्य की एक बारीक किरण
(103) गुप्त तहख़ाना
(104) अभिलाषा की कुंजी
(105) वह छुपी हुई इबारत है जिस पर यौवन की लिखाई की मोहर है
(106) लार
(107) चोंच
(108) प्रकाशमान नेत्र
(109) मिलन
(110) वो फूल जिसकी पँखुडि़याँ आपस में पूरी तरह से चिपकी हुई हों जिसमें कामना की हवा मुश्किल से पहुँच पाती हो
(111) सारी उम्र हम साथ पीते रहे, मगर इस रंज का खुमार नहीं जा सका
ची किसी ओ ची नाम ख़्वानिंदत
व र कुदामी मक़ाम दा निंदत112
वह मुस्करा कर बोली, ‘और आप? आपका गुज़र इस तरफ़ कैसे हुआ? मैं तो यहीं रहती हूँ, यही मेरा घर है और यही मेरी क़ब्र’।
‘मैं खुद को ढूँढ़ता हूँ लेकिन सफलता नहीं मिलती। क्या आप...? यह कौन सी तलाश है, किस की तलाश है? ये कलाम आपको किसने सिखाये’?
‘शायद आप भूलते हैं। यहाँ हर वस्तु हर समय उपस्थित है’।
‘और आपने यह भाषा कहाँ से सीखी’?
वह हँसी। ‘जहाँ से आपने सीखी होगी’।
‘मैंने? मैंने तो सीखी नहीं। जब आप गा रही थीं तो ये शब्द अपने आप मेरी समझ में आते जा रहे थे। मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि इस भाषा का नाम क्या है और यह शायर कौन है। वह है भी कि नहीं’?
‘चलिये, स्वयं को समझने के कई पड़ाव तो आपने तय कर लिये हैं कि आप अतीत, भविष्य की हर ज़बान समझ सकते हैं। लेकिन इसके आगे की राहें आप पर अभी तक बन्द हैं। खुद को हासिल करने के पहले, बहुत पहले, आपको अपने आप को समझने के अलावा बहुत सी मंजि़लों से गुज़रना है। आत्म-निरीक्षण, आत्म-अवलोकन, आत्म-नियन्त्रण और फिर अपने आप को भुला देना, और अन्त में भूले हुए को भी भुला देना’।
वामन वशिष्ठ ने कहना चाहा, ‘मैं समझा नहीं’। लेकिन इसके पहले कि शब्द उनके मुँह से निकलते, उस हसीना ने उनका हाथ पकड़ा और उन्हें अपने क़दमों से उठाते हुए बोली, ‘चलिये, मैं आपको अपना घर दिखाऊँ, अपने पति से मिलवाऊँ’।
कैसी अजीब परेशान करने वाली बात हैकि तू पास होते हुए भी दूर रहा और हमारी बाहों में नहीं आया
रेगिस्तान में फ़रियाद की आवाज़ वहीं बैठ जाती है, किसी और तक नहीं पहुँच पाती
हर क़दम पर मेरा इम्तिहान हुआ, हम अपने आपको छोड़कर कहीं नहीं जा सके, हालाँकि हज़ार गली-कूचे हमारे सामने आये
शर्म से हमारा हाथ उसके दामन तक नहीं पहुँचता, ना ही हमारी कोई दुआ क़बूल होती है
हमारे गर्म आँसुओं ने हमारी हथेली पर छाले डाल दिये हैं, ये हाथ बस उसके (माशूक) पैरों तक पहुँचा है और बस
(112) तुम कौन हो और तुम्हें किस नाम से पुकारते हैं और किस जगह रहती हो
‘मगर मुझे कहीं कुछ रास्ता तो नज़र आता नहीं’, वशिष्ठ ऋषि ने कुछ परेशान होकर कहा। ‘हर तरफ़ तो यहाँ पहाड़ हैं, घाटियाँ हैं, बन्द राहें हैं। रास्ते का क्या जि़क्र’?
‘यही तो मैंने कहा कि अभी आपने आत्म-निरीक्षण के आगे क़दम रखा नहीं। आपने वस्तुओं की वास्तविकता का पहला अध्याय भी नहीं पढ़ा। मेरे साथ चलिये, मेरे साथ-साथ चलिये’।
वशिष्ठ ऋषि ने अब जो देखा तो वो हक्का-बक्का रह गये पहाड़, बियाबान, घाटी, ऐसा कुछ तो वहाँ नहीं था। सामने हरियाली, पीछे झरना, दोनों तरफ़ फूलों की रविश, बीच में रास्ते पर नर्म क़दमों के निशान साफ़ नज़र आते थे। उनका पहला क़दम बहुत दिक़्क़त से उठा, फिर सब आसान हो गया।
‘मेरा नाम कल्पना है’। उस हसीना ने कहा। ‘मुझे मेरे पति ने बनाया है। मेरी जि़न्दगी में सब कुछ है, पर प्यार नहीं है, मेल-मिलाप नहीं, यहाँ तक कि सहचर्य भी नहीं। पति के बावजूद मैं अकेली हूँ, बाँझ हूँ। उस कमल की तरह जिसे पाला मार गया हो’।
‘पति ने बनाया...’? वशिष्ठ ऋषि कुछ कहते-कहते चुप हो गये, शायद इस तरह की कुरेद अशिष्टता के समान होती।
कल्पना ने वशिष्ठ की हिचकिचाहट को मानो महसूस ही नहीं किया और कहा, ‘मेरे पति बहुत दूर से आये हैं, दक्षिण में कोई केरलपुत्र नामक क्षेत्र है। उन्होंने हर तरह का ज्ञान हासिल किया है और वे हर प्रकार की शक्ति के मालिक हैं। वे, जो नहीं है उसे, अस्तित्व में ला सकते हैं, और जो है उसे विनष्ट कर सकते हैं’।
अब वामन वशिष्ठ को कुछ कहने की सामथ्र्य ही नहीं थी। क्या वह कोई अलौकिक शक्ति है? कोई असुर या देव तो नहीं? मैं न जाने कहाँ फँस गया हूँ। अब देखें निजात भी होती है कि नहीं। यह लड़की खुद कह रही है कि मैं कोई इंसानी वजूद नहीं हूँ, उन ऋषि की इच्छा-शक्ति का निराकार और जिस्मानी रूप हूँ। फिर तो वह कोई प्राणी ही नहीं हुई? मगर वह जो प्राणी नहीं है, वह तो सिफऱ् परमेश्वर है?
वे इन विचारों में गुम थे कि लड़की ने कहा, ‘घबराइए नहीं, अब घर बहुत दूर नहीं। लेकिन यह तो बताइए कि आप तो वामन अवतार के पहले ही क़दम में खो गये हैं। अभी आप ने सम्भावनाओं की दुनिया को भी ठीक से नहीं तय किया है। और अगर आध्यात्मिक रूप में कहें तो आप अभी नींद की मंजि़ल में हैं। फिर आप यहाँ कहाँ’?
वामन वशिष्ठ को यह पूछने की हिम्मत नहीं हुई कि आपको यह कैसे मालूम हुआ? अभी वे जवाब के लिए उचित शब्द ढूँढ़ ही रहे थे कि वह हसीना बोली, ‘आपको मेरे पति ने बुलाया तो नहीं है? यह मैं इसलिए पूछती हूँ कि बिना किसी आन्तरिक शक्ति के किसी भी जीवित प्राणी का यहाँ तक पहुँचना मुश्किल था’।
‘मुझे नहीं मालूम’, वामन वशिष्ठ ने ध्ाीमी आवाज़ में जवाब दिया। ‘हाँ, मुझे एक संकेत अवश्य मिला था कि उत्तर की ओर चलो। उध्ार ही तुम्हारा मुद्दा हासिल होगा’।
‘जी तो फिर बात वही है। कल्पित ऋषि ने आपको ज़रूर संकेत भेजा होगा’।
‘कल्पित’?
‘जी हाँ, मेरे पति का नाम कल्पित है। कल्पना और कल्पित की जोड़ी अच्छी है न’? वह अजीब रहस्यमयी-सी हँसी हँसकर बोली, ‘देखिए वह हमारा घर है’।
गुफा का मुँह बहुत विशाल नहीं था, लेकिन ज़रा गर्दन झुकाकर कोई भी इंसान आसानी से दाखि़ल हो सकता था। और वामन वशिष्ठ तो छोटे क़द के थे, उनके लिए कोई समस्या नहीं थी। गुफा से हल्की-हल्की रौशनी बाहर आ रही थी, इस तरह नहीं जैसे अन्दर कोई चिराग़ रौशन हो बल्कि इस तरह जैसे कहीं दूर अलाव जल रहा हो और उसके शोले दीवार पर अपने बिम्ब से हर तरफ़ फैल गये हों। कल्पना के क़दम देखते हुए वे अन्दर दाखि़ल हुए। गुफा की रौशनी कहाँ से आ रही थी, वे इस बात का निश्चय नहीं कर सके लेकिन रौशनी अत्यन्त सूक्ष्म थी। उन्होंने देखा कि गुफा की छत कहीं ऊँची, कहीं नीची है लेकिन उसकी लम्बाई बहुत है, बल्कि ऐसा कहें तो ग़लत नहीं होगा कि गुफा का सिरा नज़र नहीं आता था। कल्पित ऋषि गुफा में एक तरफ़ चिकने फ़र्श पर पाँव मोड़कर बैठे थे, इस तरह मानो कोई सभा हो और वे सभापति हों।
गुफा के मुख से ज़रा दूर, आखि़र तक बीचों-बीच एक छोटी-सी नहर बह रही थी, बहुत साफ़ पानी, तह में रंग-बिरंगे पत्थर। लेकिन नहीं, शायद वे मछलियाँ थीं, अठखेलियाँ करतीं, गोते लगातीं, इध्ार से उध्ार उछलतीं, एक तमाशे का समा था। यह नहर कहाँ से आयी है और उसका सिरा किध्ार है, वामन वशिष्ठ ने सोचा। लेकिन वे अभी कुछ बोल नहीं पाये थे कि कल्पित ऋषि ने कहा, ‘बैठो, तुम अच्छे आये। मैंने तुम्हें इध्ार आने का संकेत दिया था, मिला होगा’।
‘जी हाँ,’ वशिष्ठ ऋषि ने फँसी-फँसी आवाज़ में जवाब दिया।
बात यह है कि तुम भी मेरे हमसफ़र हो, लेकिन तुम्हें रास्ता ठीक से नहीं मालूम, बल्कि यूँ कहूँ तो ग़लत नहीं होगा कि तुम मंजि़ल से भी बेख़बर हो’।
वामन वशिष्ठ कुछ कहने वाले थे कि कल्पना ने अपने होंठों पर उँगली रखकर उन्हें चुप रहने का इशारा किया। कल्पित ऋषि की आँखें बन्द थीं लेकिन वे इस तरह बातचीत कर रहे थे मानो सब कुछ देख रहे हों।
‘तुम तो बिल्कुल ही राह से भटक गये हो। जिनके नाम पर तुम्हारा नाम है वे ईश्वर को पहचानने वाले थे, लेकिन पूरी तरह नहीं। बनाना और मिटाना दोनों एक ही कृत्य हैं लेकिन मिटाने में देर लगती है। अन्तराल या अवध्ाि के अर्थ में देर नहीं, उस परिवर्तन के अर्थ में जो मिटाने के बाद आहिस्ता-आहिस्ता दिखायी देता है। रहस्य सम्राट ने मुझे यही बताया था। तुमने मिटने के अमल का पहला अक्षर अभी-अभी देखा, उसे सीखना और ज़बान से अदा करना तो दूर की बात है’।
वामन वशिष्ठ की समझ में कुछ नहीं आया। कल्पना भी ज़रा हैरत भरी निगाहों से अपने पति को देख रही थी।
‘यह नहर देख रहे हो? और ये मछलियाँ? उन्होंने सवाल किया। फिर जवाब का इन्तिज़ार किये बगैर उन्होंने कहना शुरु किया, ‘यह नहर मेरी बनायी हुई है और मछलियाँ भी। लेकिन यह मेरे हाथ-पाँव की मेहनत से नहीं, मेरी सृजन-शक्ति से बनी हैं। पहले यहाँ कुछ नहीं था। तुम सोच रहे होगे इस पानी का स्रोत कहाँ हो सकता है? स्रोत मैं हूँ’।
कल्पना ने चैंककर अपने पति को देखा। यह बात शायद उसे भी नहीं मालूम थी।
‘मैंने यहाँ कितनी उम्रें गुज़ारीं, मुझे इसका अन्दाज़ा तो है, लेकिन पूरा ज्ञान नहीं,’ कल्पित ऋषि ने कहा। ‘तुम इध्ार-उध्ार कहाँ देख रहे हो, बताओ’?
वशिष्ठ ऋषि अब तक असहाय सिर झुकाये खड़े थे। अब उन्होंने निगाह उठायी तो देखा कि देखने में जहाँ मछलियों वाला चश्मा ख़त्म होता था, उसके कुछ आगे, या कुछ ऊपर, पूरा सौरमंडल क़ायम था। सब सितारे अपने-अपने काम में लगे हुए थे। सूरज की गर्दिश से निगाहें चैंध्ािया रही थीं लेकिन उसकी गर्मी उन तक नहीं पहुँची थी। लेकिन चश्मे के बाद तो देखने में कुछ नहीं था, गुफा वहीं ख़त्म हो चुकी थी, और उस पर वहाँ कोई बाँध्ा बँध्ाा नहीं दिखायी देता था, लेकिन बाँध्ा का पानी वहाँ कहीं जमा नहीं होता था। न जाने उसका पानी और ये मछलियाँ कहाँ चली जाती हैं, उन्होंने सोचा। अब तो इस गुफा की छत भी दिखायी नहीं देती थी। लेकिन कहीं, जहाँ छत होनी चाहिये थी, एक और सृष्टि नज़र आ रही थी जिसमें कोई सितारा, कोई सौरमंडल नहीं था मगर उसके बावजूद एक के बाद एक कई आकाश गंगाएँ सामने से गुज़र रही थीं। उनके बहुत आगे, या उनसे ऊपर, या पीछे, कई रौशन सितारे चकाचैंध्ा कर रहे थे, लेकिन उनकी रौशनी कभी दूर जाती हुई महसूस होती, कभी अपनी जगह पर क़ायम दिखायी देती और कभी-कभी तो किसी आकाशगंगा की भीड़ में वह सितारा ही नज़र नहीं आता था।
वामन वशिष्ठ ने घबराकर अपने हाथ-पाँव को देखा। सब कुछ वहीं तो था जहाँ होना चाहिये था। वे किसी और दुनिया में नहीं फेंक दिये गये थे, अपनी जगह सुरक्षित थे। सुरक्षित? क्या वाक़ई यहाँ कोई सुरक्षित है? कुछ ध्ाुँध्ाली-सी आवाज़ उन्होंने सुनी, उसमें अजीब तरह का गै़र-इंसानी ज़ोर था, जैसे कोई किसी ख़तरे से आगाह कर रहा हो। उन्होंने ध्यान देकर सुना। नहीं, कोई ख़तरे वाली बात नहीं थी। कल्पित ऋषि कह रहे थे,
‘ये सारे आसमान, और उनके सारे सूरज और सितारे, हवाएँ और बादल, प्रकाश और अन्ध्ाकार, सब मेरे बनाये हुए हैं। और ये वही हैं और वही नहीं भी हैं, जिन्हें तुम ऊपर इंसानी आसमान में देखते या जिनकी कल्पना करते हो’।
वामन वशिष्ठ ने हिम्मत कर पूछा, ‘म...मगर क्यों’?
कल्पित ऋषि कुछ शर्मिंदा हो मुस्कुराये (शर्मिंदा मुस्कुराहट और उनके होठों पर, वशिष्ठ ने हैरत से सोचा)। ‘हाँ, क्योंकि मेरा जी इस दुनियावी ब्रह्माण्ड से उकता गया था। मैं इतना ज्ञान हासिल कर चुका था, फिर वह सब भुला भी चुका था और अपने दिल-ओ-दिमाग़ ही नहीं पूरे अस्तित्व को ज्ञान, जानकारी, गुमान, भ्रम सबसे पवित्र कर चुकने के बाद भी जिन प्रश्नों के उत्तर की मुझे तलाश थी, उनसे अछूता ही रहा। कहते हैं एक बृहत सृष्टि है, जिसमें सब सृष्टियाँ जमा हैं, या मिली हुई हैं। तो फिर उसकी शक्ल क्या है? वह त्रिकोण है कि चैकोर है कि गोल है कि द्वीप है? क्या कोई नियम-क़ानून हैं, जिन के तहत यह सृष्टि जीवित है और अपना काम करती रहती है? और यह जीवित है भी कि कहीं? अपनी मामूली दुनिया में तो मैं समय, स्थान, कारण और उसके परिणाम, सब जानता हूँ, लेकिन ये सब किस तरह काम करते हैं? अच्छा अगर कोई बृहत सृष्टि नहीं है, सिफऱ् हमारी सृष्टि है तो फिर वह सब कहाँ हैं? वह जम्बू-द्वीप, वह सुमेरु पर्वत, वह अनादि और अनन्त कमल का फूल कहाँ से आया?
‘जब मेरा जी इन सवालों से घबरा जाता तो मैं अपना दिल बहलाने के लिए नये-नये आसमान और संसार बनाकर दिल बहलाता या समय बिताता। लेकिन नहीं। मुझे किसी और की तलाश थी। हुस्न की, जि़न्दा हुस्न की, जिसे मैं देख सकूँ, सुन सकूँ, छू सकूँ, जिसे मैं सिफऱ् और सिफऱ् अपना कह सकूँ। और वह हुस्न, इरादे और विचार का भी मालिक हो। वह बातचीत की कला में निपुण हो, उसे हवाओं, झरनों, पंछियों, बादल और बारिश और बिजली कड़कने इन सबके संगीत का भी बोध्ा हो’।
वामन वशिष्ठ ही नहीं, कल्पना भी कल्पित ऋषि का मुँह देख रही थी। दोनों चाहते थे कि कुछ कहें, लेकिन हस्तक्षेप की हिम्मत नहीं पड़ती थी। कल्पित ऋषि के शब्द हवा की तरह पूरी गुफा में बह रहे थे।
‘मुझे मालूम था कि सृष्टि का अन्तिम सिरा छू लेने पर ही मेरा दुःख दूर हो सकेगा। और यह दुःख सभी दुःखों का बादशाह था, कायनात का सिरा कहाँ है, मुझे अब तक मालूम नहीं हो सका था। तो मैंने पहली खूबसूरत वस्तु जो बनायी, मोर थी। दुनियावी मोर भी इतना ज़्यादा हसीन, इतना ज़्यादा दिलरुबा क्या होगा? मैं तो एक क्षण के लिए हैरान रह गया। यह मैंने बनाया है? लेकिन उसने अस्तित्व में आते ही पर फड़-फड़ाते हुए गुफ़ा के इस सिरे से उस सिरे तक का चक्कर लगाना शुरु कर दिया। इतनी ज़्यादा वहशत तो शायद हैवानी मोर में भी नहीं होगी। और उसकी आँखें, वे दिलफ़रेब कि तकते रहें, लेकिन उनमें समझ और विचार और इरादे की रौशनी नहीं थी। अफ़सोस कि उसका हुस्न मेरे किसी काम का नहीं था।
‘मैंने मोर को बाहर निकल जाने का इशारा दिया। इशारा क्या दिया, उसे गुफा का बाहरी मुख दिखा दिया और वह खुशी-खुशी उड़कर बाहर की चट्टान पर जा बैठा और अपनी होने वाली प्रेमिकाओं को अपनी झंकार भरी आवाज़ में पुकारने लगा। लेकिन वहाँ मोरनियाँ कहाँ थीं? वहाँ की हवा ही और थी, ज़मीन और थी। उसने थोड़ी ही देर में समझ लिया कि यहाँ कुछ हरा-भरा नहीं होगा और कुछ थकी हुई-सी रफ़्तार के साथ नीचे की वादियों की तरफ़ उड़ गया।
‘मैं मायूस नहीं हुआ, मैं जानता था कि जिस किसी की मुझे अभिलाषा है, वह बन ही जायेगा और बनाने की इस कोशिश में भी एक आनन्द था। कुछ और समय बीता (अगर समय की कोई कल्पना उस जगह सम्भव थी) और मैंने पानी का यह चश्मा बनाया जो तुम देख रहे हो। यह अच्छा शगुन था, क्योंकि पानी स्रोत और प्रतीक है जीवन और गतिशीलता का। जीती-जागती जि़न्दगी अब कुछ दूर नहीं होना चाहिए, मैंने सोचा। एक मुद्दत तक मैं लहरों के गुज़रने, लहराने और खुश करने का दृश्य देखता रहा। हर बार नया पानी, हर बार नयी लहर। और हर बार रौशनी के खेल या शरारत की वजह से लहरों के नये रंग। मैंने सोचा क्यों न मैं इस जि़न्दा, लगभग वाचाल, जि़न्दगी से भरपूर पानी को अपने पास बुलाऊँ, उसकी बातों से दिल बहलाऊँ, उसके रंगों से आनन्दित होऊँ। लेकिन तौबा, वे लहरें मेरी कब सुनने वाली थीं? उनमें श्रवण-शक्ति शायद थी भी नहीं। फिर मैंने चश्मे के पानी में रंग-बिरंगी छोटी-बड़ी मछलियाँ बनायीं। लेकिन अब एक नयी समस्या सामने थी। मेरी यह गुफ़ा बहुत लम्बी, बहुत गहरी सही, लेकिन पानी इसके आखि़री सिरे पर जमा होता रहा था। अब या तो वह वापस मेरी तरफ़ वापिस आये या उठना शुरु हो। मुझे ये दोनों सूरतें स्वीकार नहीं थीं। क्योंकि दिशा बदलने या अन्दाज़ और रफ़्तार बदलने के कारण पानी कुछ का कुछ हो सकता था। फिर ये मछलियाँ कहाँ जाएँगी? मेरे रहने और पाँव फैलाने की भी जगह रहेगी की नहीं?
वामन वशिष्ठ ने हिम्मत करके हस्तक्षेप किया, ‘लेकिन...लेकिन अब तो ऐसा नहीं है। गुफा के आखिरी सिरे पर कोई और गुफ़ा या हौज़ बना है? कल्पना हैरान खड़ी सुन रही थी। इस गुफा और उस गुफ़ा के बनने के इतिहास से वह वाकिफ नहीं थी। वह समझती थी कि कल्पित ऋषि ने उसे ऐसे ही पाया होगा और उसमें रिहाइश बना ली होगी। अब उसे लग रहा था कि कुछ भी ऐसा नहीं है, जो असल में वैसा ही हो जैसा कि नज़र आता है। गुफा की ऊँचाइयों पर वह दुनियाओं, जंगल और वीरानों, आकाशगंगाओं, पूरे-पूरे ब्रह्माण्डों को शुरु से ही स्थापित देखती आ रही थी। और बाहर जो आसमान और ज़मीन थे, वे अपनी ही तरह के आसमान और ज़मीन थे। क्या मालूम कितनी दुनियाएँ हैं और कहाँ हैं और किसने बनायी हैं। कल्पित ऋषि ने आँखें खोल कर कल्पना को देखा, कुछ अजब-सी मुस्कुराहट मुस्कुराये और फिर कहने लगे।
‘हाँ तो मैंने अपनी गुफा के सिरे पर छोटा-सा हौज़ बनाया। मछलियों को और चश्मे के पानियों को एक और जगह मिल गयी। फिर मैंने उस नये हौज़ के परले सिरे पर एक छोटी-सी नहर निकाली कि हौज़ जब भर जाये तो पानी और मछलियाँ उसके किनारों पर सैलाब का-सा ढंग नहीं अपना लें। अब सब बिल्कुल ठीक था। पानी नहर के स्रोत से निकल कर मेरी गुफ़ा में आता रहता और हौज़ में जमा होकर बाहर नयी गुफाओं और गहराइयों की तरफ़ निकल जाता। लेकिन वे मछलियाँ, हज़ार रंग की थीं और रंग बदलती भी रहती थीं और उनकी संख्या घटती-बढ़ती रहती। सतह से लेकर तह तक और तह से लेकर सतह तक उनकी अनगिनत आकृतियाँ बनतीं। चश्मा अपनी सुरीली, कुछ प्रसन्न सी आवाज़ में आता और जाता और गाता रहता। लेकिन मैं बात किससे करता? कौन मेरी गुफा के फ़र्श पर नाजुक क़दमों से चलता और उसके पदचिह्न फूलों की तरह खिलते जाते? किसके गुनगुनाने या गाने की आवाज़ मेरे ध्यान में बाध्ाा डालती और मुझे नींद आने लगती? किसके शरीर की रूप-रेखाएँ कभी कहीं झलक दिखा जाती कभी कहीं और किसी शमा की लौ की तरह रौशन नज़र आते? मैं किससे पूछता कि तुमने खाना खाया कि नहीं? मछलियों को अपना खाना खुद ही इस नहर में मिल जाता था। और कुछ नहीं तो छोटे-मोटे कीड़े-मकौड़े पानी के साथ बाहर से बहकर आते, वही उनके लिए काफ़ी थे। मछलियों की खूब चैन से गुज़र रही थी। चश्मा भी अपने नग़्मे के बहाव में मगन था। व्याकुल था तो मैं था’।
वामन वशिष्ठ ने घबराकर देखा। कल्पित ऋषि की आँखें कुछ लाल, कुछ नम हो रही थीं। सुर्ख तो ठीक है, लेकिन यह नमी क्यों? वशिष्ठ की समझ में कुछ नहीं आया। उन्होंने सोचा कि किसी तरह उनकी बातचीत फि़लहाल रोक दी जाये तो कैसा रहे? ऐसा न हो कि उन सभी दिल पिघलाने वाली और दिल दुःखाने वाली बातों को दोबारा अपने शब्दों के माध्यम से जीवित करने में उनके जीवन पर कुछ आँच आये। उन्होंने सवाल भरी आँखों से कल्पना को देखा और उन्हें हैरत हुई कि वह भी रो रही थी। आँसू उसके गालों पर ढलक आये थे लेकिन वह उन्हें पोंछने की भी रहमत नहीं करना चाहती थी। इस बीच कल्पित ऋषि का बयानीया जारी थाः
‘...मैं इस व्याकुल अवस्था में नहीं जीना चाहता। जी ही नहीं सकता। ये सब मेरे उपार्जन, या मेरी दूरवर्ती दुनियाओं के रूहानी सफ़र, मेरे कोई काम नहीं आयेंगे? मैंने सारे माहौल से खुद को अलग कर लिया। बन्द आँखों को खोल दिया। अब वे आँखें मृत और प्रकाशहीन थीं। सारी ज्योति, सारी सृजन-शक्ति मेरे मस्तिष्क में केन्द्रित हो गयी थी। नारी के शरीर, उसकी सुन्दरता, उसके हुस्न के स्वभाव के बारे में जो कुछ मैंने देखा और समझा और जिसकी कल्पना की थी, वह सब मेरे वश में था। बस जान डालने की देर थी। मुझे नहीं मालूम कि मुझे कितनी देर लगी, लेकिन एक दिन या शायद एक रात मेरी आँखों की ज्योति वापस आ गयी और कल्पना मेरे सामने खड़ी थी’।
वामन वशिष्ठ के मुँह से निकला, ‘यही कल्पना’? ये तो... ये तो जीवित हैं....? बिल्कुल जीवित। उनके खून की गर्मी, उनकी साँसों की ध्ाड़कन, मैं यहाँ से भी सुन सकता हूँ’!
कल्पना अचानक बोल उठी, ‘महाराज! और यह पानी का चश्मा, ये मछलियाँ, जो आपके सामने हैं, ये जीवित नहीं हैं क्या? क्या आपकी मति बिल्कुल ही मारी गयी है’? वह थोड़ी-सी हँसी हँसकर बोली, ‘शायद अभी कुछ ज़्यादा सफ़र नहीं किया है। संसार को आपने बहुत कम देखा है। अचानक वह बिफर कर बोली, ‘हाँ, इसी जीवन ने तो मुझे तबाह कर डाला। आप किस ख़याल में हैं और किस दुनिया के वासी हैं?
कल्पित ऋषि ने यह सब शायद सुना ही नहीं। वे कह रहे थे, ‘मैंने इसे वाक्-कला और वैचारिक सतह पर भी निपुण बनाया था। हृदय, मस्तिष्क और बाकी सभी महत्वपूर्ण अंग तो थे ही। लेकिन मुझे यह ख़बर नहीं थी, या शायद थी, लेकिन मैं अपने अति लोभ के कारण इस बात की उपेक्षा कर गया कि अगर दिल है तो जहाँ वह सारे जिस्म में खून दौड़ाता है, वहाँ वह भावनाएँ और दर्द और आवश्यकताएँ भी पैदा करता है। सब कुछ जानते हुए मैं इस दिल में जो माँस का एक टुकड़ा है और उस दिल में अन्तर करना भूल गया था, जो मनुष्य को मनुष्य बनाता है, जिसे कमी, ज़्यादती, रूह की भूख और जिस्म की प्यास का भी एहसास होता रहता है।
कल्पना कुछ कहना चाहती थी, लेकिन कल्पित ऋषि उस वक़्त उस भाव में थे कि देव और राक्षस भी हस्तक्षेप करने की हिम्मत नहीं करते।
मेरी आँखें देखते ही वह बोली, ‘मैं कौन हूँ’?
मुझे उत्तर नहीं सूझा तो उसने दूसरा सवाल कर दिया, ‘मेरा नाम क्या है’?
‘तुम्हें मैंने बनाया है। तुम्हारा अभी कोई नाम नहीं है’।
उसके माथे पर नाराज़ी की शिकन नज़र आयी तो मैंने बिना सोचे-समझे कह दिया, ‘तुम कल्पना हो।’
अच्छा तो फिर आप कौन हैं? हैं भी कि नहीं?
मैं हूँ लेकिन मेरा कोई नाम नहीं है। माँ-बाप ने अगर कोई नाम मुझे दिया था तो मैं उसे भूल चुका हूँ।
अच्छा, अगर मैं कल्पना हूँ तो आप कल्पित हैं। वह झट से बोली। हिसाब बराबर।
कल्पित भी अच्छा नाम है। मैंने कुछ असमंजस के बाद उसकी पसन्द को अपनी पसन्द बना लिया।
मुझे क्या करना होगा? मैं किस लिए बनायी गयी हूँ?
तुम्हारा कोई काम नहीं। तुम इस गुफा को अपनी लहरिया चाल से रौशन करो, अपनी मुस्कुराहट से लालिमा लाओ, अपनी आवाज़ से पशु-पक्षियों को और मुझे भी महसूस करो।
मुझे यह सब कुछ नहीं आता। वह इठला कर बोली। न मुझे खाना पकाना आता है, न मैं आपकी चादर में पैवन्द लगा सकती हूँ, न मैं रात को गीत सुनाकर आपको सुला सकती हूँ। और गाना तो मुझे बिल्कुल ही नहीं आता’।
ठहरो, ज़रा ठहरो। संगीत मैं तुम्हें दिखाऊँगा, तुम्हारी आवाज़ को परिन्दों की चहचहाहट से, ठण्डी हवाओं से हम आहंग होना, मैं तुम्हें सिखलाऊँगा। तुम्हें बस मेरे लिये जि़न्दगी की रौनक़ बनना होगा।
अब कल्पना से नहीं रहा गया, ‘जी हाँ, आपने मुझे सब कुछ सिखाया, सब कुछ बनाया, लेकिन कभी मुहब्बत की निगाह से नहीं देखा...’
मुहब्बत की निगाह? कल्पित ऋषि ने कुछ चकित होकर पूछा।
आप दिमाग़ की, दिल की, हक़ीक़त जानते हैं। अभी आपने खुद ही कहा। फिर इस दिल के तक़ाज़े भी जानते होंगे। कल्पना तेज़ लहजे में बोली। मुझे किसी की भी जि़न्दगी की रौनक़ नहीं बनना। मेरी भी कोई जि़न्दगी है? मेरी जि़न्दगी की रौनक़ कौन बनेगा? कौन बन सकता है? क्या मैं कोई बेजान खिलौना हूँ?
अब कल्पना के आँसू नदी की तरह बह रहे थे। वशिष्ठ तो एक तरफ़ रहे, कल्पित ऋषि को भी लब खोलने की हिम्मत नहीं थी।
आपने इतना कुछ ज्ञान हासिल किया लेकिन यह नहीं जाना कि चाहत के बग़ैर कुछ नहीं? मुझे चाहने वाला तो कोई आपने बनाया नहीं। और क्यों बनाते? आपको अपनी दिलचस्पी के लिए गुडि़या बनानी थी और आपने अध्ाूरा प्राणी पैदा कर दिया और उस पर आपको प्रकृति को जीतने का, सृष्टि को वशीभूत करने का जुनून था? नहीं, क्षमा कीजियेगा, आप तो सृष्टि के सृजन का दावा रखते थे’?
वशिष्ठ ऋषि को लगा, वे अचानक नींद से जाग गये हैं। उन्होंने आँखें मल कर देखा। सब कुछ तो वैसा ही था, वहीं था। लेकिन उन्हें यह वहम क्यों हो रहा था जैसे कुछ बदल गया है, या बदलने वाला है? योग वशिष्ठ (जिसके नाम से उन्होंने अपना नाम रखा था, यानी उनके दोनों नाम उध्ाार लिए हुए थे) में तो लिखा है कि सब कुछ इंसान के मस्तिष्क में है और वह यथार्थ, या वह अस्तित्व, जो इंसान अपने मस्तिष्क में और फिर अपने मस्तिष्क से जागृत करता है, उसमें पहाड़ की ऐसी चोटियाँ, ऐसे कोहसार भी हैं, जो लचकदार हैं। उन्हें बढ़ाया जाये तो पता लगता है कि एक अथाह, अनन्त सिलसिला है, जिसमें सब कायनातें लिपटी पड़ी हुई हैं। तो क्या ये प्याज के छिलके की तरह हैं, या प्याज के छिलके ही हैं। मगर यह कल्पना तो समझती है कि सब कुछ यथार्थ है। एक में एक बँध्ाा हुआ या मिला हुआ नहीं है। हर इंसान अपनी जगह पर यथार्थ है। मगर मुझे क्या ख़बर, मुझे क्या ज्ञान? अभी तो मैंने वामन अवतार का पहला क़दम भी नहीं पूरा किया है। मैं तो कहीं अध्ार में लटका हुआ हूँ। यूँ कहें कि मैं अभी नींद ही में हूँ। मैंने तो अभी नींद और स्वप्न के क्षेत्र की तरफ़ क़दम भी नहीं बढ़ाये हैं। कल्पना और कल्पित जिन रहस्यों से वाकि़फ़ हैं, मुझे उनकी भनक भी नहीं मिल सकी है। कल्पना को तो कल्पित ने बनाया है, यह बात वह खूब जानती है। लेकिन मुझे किसने बनाया, इस सवाल के जवाब का साया भी मुझ तक अभी नहीं पहुँचा। मुझे कल्पित ने अपनी शक्ति के बल-बूते पर खींच बुलाया था। लेकिन मुझे लगता है, यह यात्रा भी...
मगर कुछ बदल ज़रूर गया है, मुझे यक़ीन है। या मैं ही कुछ बदल गया हूँ। कुछ नहीं, बहुत कुछ। वामन वशिष्ठ ने इध्ार-उध्ार नज़रें दौड़ायीं। क्या कोई नया व्यक्ति उध्ार आने वाला है? क्या वह कल्पित ऋषि से भी ज़्यादा शक्तियों का मालिक है? मगर क्या कल्पित ऋषि की शक्तियाँ उनके लिए ख़ास हैं, और क्या हरेक में पायी जाती हैं? और शक्ति है क्या? क्या निजात और निर्वाण की राह, जिसे योग वशिष्ठ में मोक्ष पाया (राह-ए-आज़ादी) कहा गया है, सबके लिए है? यानी क्या हम में से कोई भी इस राह पर चल सकता है, अगर उसे राह का सिरा, यानी उसका पहला क़दम मालूम हो? लेकिन यह मोक्ष क्यों अनिवार्य है? हमें किसी ने यहाँ (या कहीं भी) क़ैद किया और फिर निजात की राह ढूँढ़ने के लिए आमन्त्रित किया? क्या कल्पित ऋषि को निर्वाण की राह मिल गयी है? और कल्पना को?
अभी वे इन सवालों में उलझे हुए थे कि उन्होंने देखा, कल्पना के सिर के चारों तरफ़ कुछ आग के-से शोले हैं। क्या ये कल्पना के सिर से उठ रहे हैं? या कोई नयी आग है? पलक झपकते ही उन्हें ऐसा महसूस हुआ कि चश्मे में पानी की लहरें नहीं हैं, आग की लपटें हैं। और ये लपटें शोले बनकर हर तरफ़ लपक रही हैं। देखते ही देखते वे शोले मानो जि़न्दा होकर गुफ़ा में हर तरफ़ दौड़ने लगे। गुफा के आखिरी सिरे जो आसमान था, (या जो छत थी?) उस पर जगमगाने वाली, डराने वाली बेचैन कर देने वाली सारी दुनियाएँ, सब जंगल और वीराने, सब सागर और सब आसमान, जलने लगे। सिफऱ् कल्पित ऋषि और कल्पना अपने-अपने ध्यानों में डूबे हुए थे जैसे कुछ बदला ही नहीं है। या शायद उन्हें आग की गर्मी अभी तक पहुँची नहीं थी।
वामन वशिष्ठ ने लड़खड़ाते हुए, क़दम पीछे हटाये। वह आग शायद उनका पीछा कर रही थी। नहीं, सारे शोले अभी तक उसी गुफा में सीमित थे। अचानक उन्होंने महसूस किया उनके अन्दर से कुछ कम हो गया है। उन्होंने अपने शरीर को टटोला। कुण्डलिनी, जिसे वे हमेशा करध्ानी की तरह कमर से बांध्ो रहते थे, वह साँप ग़ायब था।
जैसे किसी ने दिन-दहाड़े उनकी आँखों पर काली पट्टी बाँध्ा दी हो। उन्हें आग की गर्मी और उसकी चमक तो महसूस हो रही थी, लेकिन नज़र कुछ नहीं आया। यह भी समझ में नहीं आया कि वे गुफा के बाहर हैं या अन्दर हैं। एक बार उन्हें ऐसा लगा कि वह आग गुफा से बाहर निकल कर उनके अस्तित्व पर छा जाने वाली हो। उन्होंने घबराकर एक और क़दम पीछे हटाया और अपना चेहरा हाथों में छुपा लिया। क्या यही अंजाम है? क्या इसी को निजात, निर्वाण, मोक्ष कहते हैं?
न मालूम कितनी देर हो गयी। उन्होंने हिम्मत करके आँखें खोलीं तो वहाँ कुछ भी नहीं पाया। आग ने सब निगल लिया था या ख़ाक कर दिया था और पर्वती बर्फीली हवा अचानक गर्म आँध्ाी बनकर सब कुछ उड़ा ले गयी थी? न कल्पना, न कल्पित ऋषि, न वह पानी का चश्मा, न वे मछलियाँ। न वह ख़ाक न पथरीली चट्टानें, न गुफा की गहराइयाँ, जहाँ तक नज़र जाती थी, एक ऊँची पहाड़ी थी, जो दूर किसी ढलान में गुम थी और वह जीवनदायिनी नहर, जो इस सबका स्रोत थी? वे खुद से शर्मिंदा हुए। उन्हें अपने ही अस्तित्व का स्रोत पता नहीं था और अब वह नाग भी उन्हें छोड़ गया था। उन्हें किसी और अस्तित्व के सच्चे या झूठे होने का सवाल उठाने का अध्ािकार ही क्या था?
एक ज़माने में उन्हें सूफि़यों के कुछ हल्कों में उठने-बैठने का मौक़ा मिला था। उनमें से एक सूफ़ी का कहना था कि हर क्षण अस्तित्व है और हर क्षण मृत्यु है। तो फिर ऐसी सूरत में किसी निश्चित हस्ती के स्रोत की तलाश व्यर्थ थी।
वशिष्ठ ऋषि ने थके हुए क़दमों से नीचे उतरना शुरु किया। अब वह हरियाली थी न झरना, न वेसरू और देवदार के पेड़। रास्ता ऊबड़-खाबड़ था, जैसा कि पहाड़ों में होता ही है। वे ज़रा और नीचे उतरे, मौसम कुछ गर्म हो चला था। गुफा के आसपास तो बहुत ठण्डा मौसम था और उसके ज़रा ऊपर हर जगह बफऱ् बन्दी थी। यहाँ सूरज तो अभी उन्हें दिखायी देता था लेकिन आसमान दूर-दूर तक नीला था। वे उतरते गये। सहसा उन्हें शक हुआ कि कहीं कोई चीज़ चमक रही है। इध्ार-उध्ार तो कुछ भी नहीं था। ऊपर ऊँचा पहाड़ था। नीचे, जहाँ वे खड़े हुए थे, मुश्किल पहाडि़याँ उतरती चली गयी थीं। उन्होंने हिम्मत करके बायें तरफ़ की कगार पर से झाँकना चाहा। उनका सिर चकराने लगा। नहीं, कुछ भी नहीं था। फिर उन्होंने दो क़दम उतरकर दायीं ओर देखा। हरा सुनहरा रंग चमक रहा था। उन्होंने नज़रें जमाने की कोशिश की और देखा कि बहुत कुछ नीला रंग भी था। यह तो मोर था। वही मोर तो नहीं जो कल्पित ऋषि ने बनाया था? आमतौर पर मोर इतनी ऊँचाई पर नहीं पाये जाते। ऐसा लगता था कि यह वही मोर था, किसी कारण से उसकी उड़ने की सामथ्र्य ख़त्म हो गयी तो वह घाटी की दरार में उतर गया। शायद दम लेने के लिए लेकिन फिर वह उस दरार से बाहर नहीं आ सका, शायद पर फैलाकर उड़ जाने की जगह नहीं थी। क्या कल्पना और मछलियों से भरी नहर की तरह वह मोर भी कल्पित ऋषि की राह चलने पर मजबूर हो गया था?
वामन वशिष्ठ के गालों पर दो क़तरे बह निकले। ध्ाुँध्ा हर तरफ़ बहुत तेज़ी से छायी जा रही थी। भारी दिल के साथ उन्होंने टटोल-टटोलकर क़दम रखना शुरु किया। थोड़ी देर बाद ध्ाुंध्ा ने उन्हें बिल्कुल ग़ायब कर दिया।
इलाहाबाद, फरवरी - अप्रैल 20२०
परिशिष्ट भाग
सन् 20२० में मुहम्मद हसन अस्करी की पैदाइश को सौ साल हो गये। मैंने यह कहानी (या आप चाहें तो इसे कोई और नाम दे लें) अस्करी साहब को श्रद्धांजलि के तौर पर लिखना शुरू किया था, लेकिन जैसे-जैसे कहानी की सूरत बनती गयी, मुझे महसूस हुआ कि अस्करी साहब इसे पसन्द नहीं करते, क्या कहानी के तौर पर क्या किसी तरह की लाक्षणिक रचना के तौर पर। लेकिन मुझे तो लिखना वही था जिसकी आवश्यकता मेरे दिल-ओ-दिमाग़ में थी। कई बैठकों में यह कहानी पूरी हुई। अब जैसी भी है, आपके सामने है।
इस कहानी को गति देने में इक़बाल का बहुत-सा कलाम नुमायाँ हैसियत रखता है। मैं इक़बाल से कहाँ और किस तरह लाभान्वित हुआ हूँ, वह सब कुछ कहानी में साफ़ नहीं। और आज के इक़बालपरस्त दौर में तो शायद बिल्कुल न दिखायी दे, लेकिन सरनामे के तौर पर ‘बाले जिब्रील’ का एक शेर ज़रूर पहुँचा न जा सकेगा।
इस कहानी को एक़दम गतिमान करने में सबसे नुमायाँ एरिक हंटिंग्टन की एक कि़ताब और उस पर मेरे दोस्त डेविड शुलमन की समीक्षा है, जो ‘न्यूयाॅर्क रिव्यू आॅफ़ बुक्स’ में छपी थी। हंटिंग्टन की कि़ताब ‘यूनिवर्सिटी आॅफ़ वाशिंगटन प्रेस’ ने प्रकाशित की है और उसका नाम है, ‘क्रिएटिंग दि यूनिवर्स, डिपिक्शन आॅफ़ दि काॅस्माॅस इन हिमालयन बुद्धिज़्म’। जैसा कि नाम से ज़ाहिर है, यह कि़ताब हिमालयी बुद्ध मत में प्रचलित ब्रह्माण्ड-विज्ञान से बहस करती है। मैंने इसे यहाँ-वहाँ से पढ़ा। इसमें बहुत-सी बातें ऐसी मिलीं, जो आध्ाुनिक मनुष्य की वैचारिक उलझनों और आन्तरिक कशाकश की तरफ़ इशारा करती हैं और असल में सोचने का निमन्त्रण भी देती है।
इस कहानी में बहुत कुछ मेरा गढ़ा हुआ है। जिस तरह से भी पढ़ें, यह कहानी ही है, कहानी के सिवा और कुछ नहीं। मैं इसे मुहम्मद हसन अस्करी की आत्मा की सेवा में श्रद्धा-सुमन के तौर पर पेश करता हूँ।
श.फ़ा.
इस कहानी का अनुवाद करने में मुझे अलग-अलग जगहों पर सहयोग आदरणीय शमीम हनफ़ी साहब, श्री अतहर फ़ारूक़ी, श्री तालीफ़ हैदर, श्री अशरफ़ चैध्ारी, श्री दानिश हुसैन और श्री मुशर्रफ़ अली फ़ारूक़ी से मिला है। इन सभी का जितना भी आभार व्यक्त किया जाए कम ही होगा।
अनु., अक्टूबर 2020