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पितृ – वध या पितृ – संवाद - योगेश प्रताप शेखर
Yogesh Pratap Shekhar
India
02-Aug-2020 12:00 AM
1657
रज़ा फाउंडेशन के अंतर्गत रज़ा पुस्तकमाला की ख़ासियत यह है कि इस में केवल साहित्य और कला की पुस्तकें ही नहीं प्रकाशित हुई हैं बल्कि कलाओं के साथ – साथ विचार एवं आलोचना को भी पर्याप्त जगह दी गई है | जैसे कवियों के पहले कविता – संग्रह का प्रकाशन हुआ है वैसे ही आलोचना की किताबों को भी छापा गया है | उदाहरण के लिए वरिष्ठ कवि चंद्रकांत देवताले पर प्रभात त्रिपाठी लिखित एकाग्र निबंध ‘चुप्पी की गुहा में शंख की तरह’ और डॉ. राजकुमार की ‘हिन्दी की जातीय संस्कृति और औपनिवेशिकता’ को देखा जा सकता है | इसी क्रम में आशुतोष भारद्वाज की पहली आलोचना पुस्तक ‘पितृ – वध’ का प्रकाशन हुआ है |
‘पितृ – वध’ का शाब्दिक अर्थ हुआ, पिता का वध | एक और अर्थ हो सकता है कि ‘पितरों का वध’ | ‘पितृ या पितर’ पिता के कुल के पूर्वजों को भी कहा जाता है | अत: इस नाम को पढ़ते या सुनते ही पाठक को एक आरंभिक झटका – सा लगता महसूस होता है | इस का अनुमान लेखक को भी है इसलिए वे इस की पर्याप्त चर्चा भूमिका में करते हैं | इस से यह स्पष्ट होता है कि एक लेखक अपने से ठीक पहले के वैसे लेखकों, जो उसे बहुत प्रिय रहे हैं, के अपने ऊपर पड़े प्रभाव एवं इस की प्रक्रिया का विवेचन करना चाह रहा है | आशुतोष जी ने लिखा है कि “एक सजग रचनाकार को अक्सर बहुत जल्द यह बोध हो जाता है कि जिन पूर्वजों को वह अर्घ्य देता आया है, जिनका पितृ – ऋण वह अदा करना चाहता है, जिनके शब्द उसकी सर्जना को रोशनी देते आए हैं उन्होंने दरअसल उसकी चेतना को अपनी गिरफ़्त में ले रखा है, उनका स्वर उसकी कृतियों को चुप दिशा देता चलता है | इसके बाद उस पूर्वज से मुक्ति पाने का संघर्ष शुरू होता है जिसकी परिणति एक अन्य बोध में होती है कि उस पूर्वज, दरअसल उसके प्रेत का वध अपने काग़ज़ पर किये बग़ैर, अपनी स्याही से उसका शोक – गीत लिखे बग़ैर इस लेखक को मुक्ति नहीं मिलेगी | लेकिन किसी लेखक के लिए यह स्वीकार करना आसान नहीं है कि उसका रचना – कर्म उसके पितामह की शव – साधना है या हो जाना चाहता है क्योंकि यह वध मुक्ति का साधन हो या न हो, आख़िर मुक्ति का समूचा प्रत्यय एक विराट मायाजाल है, लेकिन यह मनुष्य को असहनीय अपराध – बोध में डुबो सकता है |” इस पूरे उद्धरण को पढ़ कर रामधारी सिंह दिनकर के ‘कुछ शीर्षकमुक्त चिंतन’ का एक टुकड़ा याद आ जाता है | दिनकर जी ने लिखा था कि “वैज्ञानिक इसलिए काम करता है कि पूर्वज के सिद्धान्त उसे अशुद्ध मालूम होते हैं, अधूरे दीखते हैं | कलाकार इसलिए काम करता है, क्योंकि वह पूर्वजों का अनुकरण करना चाहता है, क्योंकि वह उन्हें आराध्य समझता है |” इन दोनों उद्धरणों से यह सवाल सामने आता है कि एक लेखक का अपने पूर्वज लेखकों के साथ कैसा संबंध होना चाहिए ? दिनकर जी का विचार हमें यह बताता है कि यह आरंभिक रिश्ता है कि एक नया लेखक अपने पूर्वज लेखकों को आराध्य समझे या उन्हें अपनी श्रद्धा निवेदित करे | इस के बाद की अवस्था वही हो सकती है जिस का ज़िक्र आशुतोष जी ने किया है | नए लेखक और उस के पूर्वज लेखकों से उस के संबंध के बारे में टटोलते – टटोलते यह कहा जा सकता है कि नए लेखक के भीतर पूर्वज लेखक यदि गुणसूत्र की तरह उपस्थित हैं तो ऐसी स्थिति काम्य भी है और अनिवार्य भी | जैसे हमारे भीतर माता – पिता के गुणसूत्र होते ही हैं | पर हम में से कोई अपने माता – पिता का सोलहों आने अनुकरण करने लगे या उस पर सिर्फ़ उस के माता – पिता का ही प्रभाव नज़र आए तो वह केवल और केवल उपहास का पात्र होगा | ठीक इसी प्रकार अपने प्रिय पूर्वज लेखकों से नया लेखक अनिवार्यत: जुड़ा ही है पर वह उन का अनुकरण न कर के अपना स्वतंत्र विकास करता है | निश्चय ही इस प्रक्रिया में अपने ऊपर पड़े प्रभाव और उस प्रभाव से मुक्ति का भी रचनात्मक महत्त्व है | आशुतोष जी की यह पुस्तक हमें इस से अवगत कराती है | ‘वध’ शब्द की जो अर्थच्छवियाँ अब तक हमारे भीतर पैठी हैं उन से अलग अर्थ उस में भरने की भी कोशिश की गई है | ऐसा करने में तर्क की संदर्भच्युत निरपेक्षता भी कई बार महसूस होती है पर इसे भी अर्थ – ग्रहण की प्रक्रिया में ही देखा जाना चाहिए |
आशुतोष जी की इस किताब में अज्ञेय, मुक्तिबोध, श्रीकांत वर्मा, कृष्णा सोबती, कृष्ण बलदेव वैद और निर्मल वर्मा पर विचार है | कृष्णा सोबती और कृष्ण बलदेव वैद से लंबी बातचीत भी दी गई है | तीन लेख भारतीय उपन्यासों में स्त्री की उपस्थिति से संबद्ध हैं | सब से अंत में लेखक ने अपनी एक डायरी भी दी है | इन सब से गुज़रते हुए एक वैसे लेखक का साक्षात्कार होता है जो अपनी रचना – प्रक्रिया के कई पहलुओं से लगातार मुठभेड़ करता हुआ उन्हें दर्ज़ भी करता चल रहा है | एक उदाहरण से ही बात स्पष्ट हो जाएगी | कथाकार अज्ञेय पर विचार करने के क्रम में बड़ी सूक्ष्मता से अंतर बताया गया है कि एक सामान्य पाठक द्वारा और एक परवर्ती लेखक द्वारा एक पुराने लेखक को पढ़े जाने में क्या अंतर होता है ? इस से यह भी पता चलता है कि एक लेखक किसी पुराने लेखक को किस रूप में ग्रहण करता है ? आशुतोष जी ने लिखा है कि “एक लेखक और सामान्य पाठक के पाठ में शायद गहरा फ़र्क़ है | किसी रचना से गुज़रते वक़्त उनके सरोकार भिन्न हो सकते हैं | लेखक, ख़ासकर उन लम्हों में जब वह उस विधा में रची गयी कृति से गुज़रता है जिसे वह ख़ुद भी बरतता है, उसे पाठकीय से कहीं अधिक लेखकीय आईने में टटोलना चाहता है | आरम्भिक लेखक तो ख़ासकर | ... पाठक के मानवीय संसार का विस्तार किसी भी कृति की उपलब्धि है लेकिन युवा लेखक को इतने से तृप्ति नहीं होती | वह इन रचनाओं की कोशिकाओं में वे सूत्र ढूँढ़ता है जिनसे उसकी हफ़्ते भर से अटकी कहानी आगे बढ़ सके, उसके अधूरे किरदारों को बूँद भर रोशनी मिल सके, उसकी उपमाओं में उड़ान, मुहावरों में मस्ती आ सके |” ज़ाहिर है कि ऐसा करने में उस लेखक, जिसे पढ़ा जा रहा है, के साथ न्याय न होने की भी संभावना है | इसे आशुतोष भी समझते हैं और तुरंत दर्ज़ करते हैं कि “शायद उसका यह पाठ उस किताब के साथ न्याय न हो, लेकिन उसके भीतर तमाम संवेदना उड़ेलते हुए भी रचना – प्रक्रिया रचनाकार को इतना निर्मम तो बना ही देती है कि वह हर शै को शिकंजा मानता है जो उसके रचना संसार को समृद्ध नहीं करती है |” इसी लेख में आशुतोष जी यह भी स्पष्ट करते हैं कि “निर्मल वर्मा कई अर्थों में मेरे सृजनात्मक आदर्श रहे हैं, उनके रचनात्मक डीएनए की कोशिकायें अपनी धमनियों में स्पन्दित होता पाता हूँ | हालाँकि पिछले वर्षों में मेरा गल्पकार उनसे मुक्ति पाने के फेर में उनसे दूर होता गया है, पितृ – हत्या के स्वप्न भी कई बेरहम और बेबस रातों में उमड़ आते हैं |” इसे पढ़ कर एक सवाल मन में आता है कि क्या यही कारण है कि प्राय: सभी ‘रचनाकार आलोचक’ जब आलोचना लिखते हैं तो वे उन्हीं लेखकों को विचार करने के लिए चुनते हैं जिन का असर उन के लेखन की रचना – प्रक्रिया पर पड़ा होता है ? टी. एस. इलियट जिसे ‘कार्यशाला की आलोचना’ कहते हैं, यह उसी का आख्यान तो नहीं ? टी.एस. इलियट ने अपनी किताब ‘ऑन पोएट्री एंड पोएट्स’ में लिखा है कि “मैंने उन कवियों पर सबसे अच्छा लिखा है जिनका मुझ पर प्रभाव था या जिनकी कविताओं से मैं लिखने के बहुत पहले से परिचित था |”
जैसा कि ऊपर यह संकेत किया गया कि आशुतोष जी की उपर्युक्त किताब में एक नए लेखक द्वारा अपने पूर्वज लेखकों से लेखकीय संबंध का अंकन है | इन सब की अत्यंत मार्मिक उपस्थिति निर्मल वर्मा को याद करते हुए लेख में है | आशुतोष जी पहली बार निर्मल जी से मिलने जाते हैं | आलोचना में कथात्मक रस का अनुभव कराती ये पंक्तियाँ देखिए | आशुतोष जी लिखते हैं कि “सीढ़ियों के सामने खुलते कमरे से निर्मल बाहर आये थे | ब्राउन स्वेटर और जींस | छुटकू से, जापानी गुड्डा कोई ... लाफिंग बुद्धा | मेरे कंधे तक भी नहीं | विस्मित सा देखता रहा ... क्या यह वही थे ...
लाल टीन की छत, अन्तराल
और
अँधेरे
में वाले निर्मल | क्या इन्होंने ही लिखा था ––
साहित्य हमें पानी नहीं देता
,
सिर्फ़ प्यास का बोध कराता है और अधिक तृषाकुल बनाता है |
अपने जीवन में पहली बार किसी लेखक को देख रहा था ... ड्रॉइंग रूम में चारों ओर ऊपर तक अँटी किताबें, जिनके शीर्षक पढ़ने का मैं सफल – असफल प्रयास करता था | टीवी के केबिन में रिकॉर्ड प्लयेर जिस पर शायद बिट्टी, डैरी और नित्ती भाई ने कभी जैज के रिकॉर्ड सुने थे | और निर्मल ... वे दोनों हाथ आपस में बाँधे, सिमटे सकुचाये बैठे थे | कभी बात खुलती तो भी वे कुछ शब्द बोल चुप हो जाते | गहन औदात्य |” इस उद्धरण की अंतिम पंक्ति से निर्मल वर्मा के लेखकीय व्यक्तित्व को मिला कर देखा जा सकता है | निर्मल वर्मा का लेखकीय व्यक्तित्व एक दृष्टि से शालीनता, चुप्पी और उस से नि:सृत उदात्तता का मूर्त रूप ही लगता है | इसी प्रकार कृष्ण बलदेव वैद से संवाद के दौरान आशुतोष जी एक सहज सवाल उन से यह पूछते हैं कि “कौन सी चीज़ें रचनाकार के लिए एकदम घातक होती हैं, जिनसे उसे बचना चाहिये ?” यह प्रश्न एक नवोदित अपने क्षेत्र के अनुभवसिद्ध से पूछता है जिस के अनुभव की रोशनी में वह अपना प्रकाश पाना चाहता है | ठीक इसी तरह का सवाल वे कृष्णा सोबती से भी पूछते हैं कि “आप के लिए रचना के क्या मायने हैं ?”
किताब के अंत में लेखक की डायरी भी दी गई है | पुस्तक का यह सब से मार्मिक हिस्सा है | इस में एक लेखक के पूरे मानस का विवरण है | एक लेखक की संवेदनशीलता, उस का संघर्ष, उस का अन्य लेखकों की रचनाओं से संवाद, प्रकृति और दूसरे कला – माध्यमों से उस का रिश्ता | ये सब इस डायरी में दर्ज़ हैं | ये सब अत्यंत मार्मिकता और गहन अनुराग से व्यंजित हैं | पर इन्हें पढ़ कर एक प्रश्न भी मन में उमड़ता है कि हिंदी के एक नवोदित लेखक की इस डायरी में हिंदी के रचनाकारों पर बहुत कम टीपें दर्ज़ हैं | इन की तुलना में पश्चिमी लेखकों और कलाकारों पर ज़्यादा टिप्पणियाँ है | एक जगह रामचरितमानस का और एक स्थान पर कादम्बरी का उल्लेख है | कथाकारों में भी प्रेमचंद से लेकर यशपाल तक अनुपस्थित हैं | क्या इस से यह निष्कर्ष निकालना ज़्यादती होगी कि हिंदी के नए लेखक के रचनात्मक मानस और उस की संवेदना के निर्माण में हिंदी साहित्य की परंपरा महत्त्वपूर्ण भूमिका नहीं निभा रही है ? उस के संवेदनात्मक मानस का निर्माण पश्चिमी लेखक कर रहे हैं | इस से यह नतीज़ा नहीं निकालना चाहिए कि हिंदी के लेखकों को प्राचीनता का पुजारी होने की सलाह दी जा रही है | यह भी उद्देश्य नहीं है कि पश्चिम के लेखकों को यदि हिंदी के नए लेखक पढ़ रहे हैं तो ऐसा नहीं होना चाहिए | बस एक सहज प्रश्न है जिस का संकेत किया जा रहा है क्योंकि जिस भीष्म – वध का ज़िक्र भूमिका में लेखक ने किया है उस के प्रसंग में दो बातें स्मरणीय ज़रूर हैं कि भीष्म तो परशुराम के शिष्य थे ही, अर्जुन के गुरु रहे द्रोणाचार्य भी परशुराम के ही शिष्य थे और अर्जुन एवं भीष्म के प्रमुख शस्त्र धनुष – बाण ही थे | इसलिए परंपरा हमारे लाख विरोध के बावजूद हमारे भीतर रहती है | यहाँ प्रसिद्ध चिंतक थियोडोर अडोर्नो की एक बात याद आती है जिस का उल्लेख नामवर सिंह ने भी कई बार किया है कि “परंपरा अपने अंदर हो तभी उससे अच्छी तरह नफरत की जा सकती है |” परंपरा से क्या रिश्ता ‘वध’, नफरत या अंधश्रद्धा का ही हो सकता है या इस संबंध के और भी आयाम हैं ? आशुतोष भारद्वाज की यह पुस्तक अनेक ऐसे ही अलक्षित सवालों पर हमें सोचने को प्रेरित करती है | निश्चय ही यह ‘पितृ – वध’ नहीं ‘पितृ – संवाद’ है |
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