12-Dec-2017 05:54 PM
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अश्व-1
जब वे पहचान लेते हैं
युद्ध का क्षेत्र और पराजय की गन्ध
जब उनकी आँख पर पड़ती है
भुजा के घाव से बहते रक्त की धारा
वे इसकी अनदेखी कर देते हैं
अश्वारोही प्राण तज देता है अपने
पर प्राणों का
होता ही कितना है
भार
अश्व-2
सुहागन माँ और विधवा स्त्री
का विचार नहीं करते
न उस प्रिया का जिसके
अधरों का रंग अस्त-व्यस्त हो जाता हो
चुम्बन से,
उनका सारा संसार
वे पीठ पर लादे रहते हैं
वे जानते है चक्रव्यूह में प्रवेश करना
निकलना भी उससे
उन्हें नहीं पता होता
कौन, किस कथा को
सुनते-सुनते सो गया था
रक्त से लिथड़ी तलवार
उन्होंने देखी है और मृत योद्धाओं को
पथ बिसराए बिना शिविर तक
छोड़ आना उन्हें आता है।
अश्व-3
रक्त की गन्ध से और
कोलाहल से
संकेत से स्वामी के फड़कती है छाती
आँखों में उभरते हैं लाल डोरे
अधीर देह ऐसी कि
अयालों तक में
कुण्डल पड़ जाते हैं।
रंग ना डारो श्याम जी-1
मोर पंख तुम्हारा
सारे रंग भी उसके
तुम्हारे रंग से साँवले हो जाते किनारों पर
ब्रज के आकाश का ओर छोर
तुमसे उलझा हुआ
मेरा केवल कोरा श्वेत वस्त्र
यह तो कोई रीत नहीं
यह तो कोई प्रीत नहीं
रंग ना डारो श्याम जी
रंग ना डारो श्याम जी-2
केसर मेरा
इन्द्रधनुष तुम्हारा
हल्दी मेरी
इन्द्रधनुष तुम्हारा
चन्दन मेरा
इन्द्रधनुष तुम्हारा
आकाश मोगरे के सुमन जैसा मेरा हाथ
ब्रह्माण्ड की बाँसुरी धरे तुम्हारे कर
यह तो कोई रीत नहीं
यह तो कोई प्रीत नहीं
रंग ना डारो श्याम जी।
रंग ना डारो श्याम जी-3
भीगी ओढ़नी
गुँथी पवन और शीत
ओढ़ा हो जैसे बस एक मोर पंख
आकाश पराया
निष्ठुर नयन
ग्राम बिरज
यह तो कोई रीत नहीं
यह तो कोई प्रीत नहीं
रंग ना डारो श्याम जी।
रंग ना डारो श्याम जी-4
सारे पासे, सारे मोहरे
पड़ते हैं तुम्हारे आँगन
चलते हैं तुम्हारी चाल
मेरी कलाइयों पर
पड़ते हैं साँवले वलय
सारी लीला पर पड़ा हुआ है
पीला तुम्हारे वस्त्र का
नीला तुम्हारी देह का
उससे अलग कोई रंग
कहाँ पाओगे, कहाँ से लाओगे
यह तो कोई रीत नहीं
यह तो कोई प्रीत नहीं
रंग ना डारो श्याम जी।
सिद्धार्थ-1
एक अभिमन्त्रित नीली रात पसरती है,
वसुन्धरा की देह पर
सारे स्वप्न और
उनसे लिथड़ी सारी नींद
अपनी गठरी में बाँध कर चली जाती है वह
जैसे शय्या त्याग कर चला गया हो सिद्धार्थ
एक वृक्ष पर लटकी रहती है
वह गठरी युगों तक
एक-एक स्वप्न जैसे एक-एक पत्ता झरता है
उन स्वप्नों को
कभी देखा हो जिन्होंने
कभी रचा हो जिन्होंने
वे सब चले गए हैं अब
जो झरते हैं स्वप्न
अब केवल पत्तों की तरह
झरते हैं
सिद्धार्थ-2
झर झर
उस रिक्तता में
झरते है
रेशम के डोरे
और युगान्तर पर
एक परदा लहराता है
वृक्ष की छाया में
रेशम से बूनी,
एक आकृति उस पर
उभरती है
प्रत्येक के लिए अपरिचित
तब
राहुल
उस पथ से जाता ठिठकता है
और थोड़ी देर में
अपनी माँ को वहाँ
लिवा लाता है
सिद्धार्थ-3
अपने कक्ष के द्वार पर
प्रासाद के द्वार पर
नगर के द्वार पर
ठिठका था मन
काया भी सिहरी थी
उसके बाद स्मृतियों के लत्ते-चिथड़े
एक-एक कर झरते गये पथ में
सूर्योदय तक
तुम्हारा उत्तरीय
इतना उजला हो गया था
न स्मृतियों की गन्ध
न गन्ध की स्मृति।
सिद्धार्थ-4
ज्ञानियों को वर्षों लग जाते हैं
उसका एक क्षण परिभाषित करने
सतत चलता है शास्त्रार्थ
वहाँ बैठा अन्यमनस्क एक युवक
अचानक अपनी नयनहीन माँ का
हाथ पकड़ कहता है :
चल माँ,
यहाँ ऐसे ही कटता है समय
यहाँ ऐसे ही घटता है समय
हम कल भी आ सकते हैं
इस क्षण को घटता देखने।
प्रेम-1
सृष्टि अपने नृत्य के सम पर थी
कोई भी उच्श्रृंखल सुर,
उद्दण्ड सुर नहीं था
फिर एक-एक कर
धुँधले होते गये वन के वृक्ष
आँखों में मोतिया पड़ गया हो जैसे
यह भी कोई अपरिचित रागिनी हो शायद
जहाँ वृक्ष अपनी छाया
जहाँ शब्द अपनी माया तज दे
एक धुँधलाते निष्पर्ण छायाहीन
तरुवर की तरह प्रेम भी था
दृष्टि गवाँ चुके स्तब्ध खड़े
पथिक की तरह
अन्धकार के कोलाहल में, हाहाकार में
उँगलियों की पोर पर बसी
स्मृतियाँ टटोलता।
प्रेम-2
निष्फल नहीं होती यह याचना
जैसे कोई भी याचना
नहीं होती निष्फल।
आँखों में ही नहीं भरता अन्धकार
पैरों तले कुचला भी जाता है।
वृश्चिक दंश
हाथों पर हो या माथे पर
उसका विष कभी विश्वासघात नहीं करता।
प्रेम रटते-रटते
जब श्वास लग जाती है किसी की
पसीज कर उसके लिए
देवता अपनी सृष्टि का
एक कोना झाड़-बुहार देते हैं
तब तक सूर्यास्त भी हो चुका होता है,
दंश भी
निष्फल नहीं होती यह
याचना।
प्रेम-3
गहन तिमिर का
लगभग अदृश्य होने की सीमा पर
ठिठका एक कण
उस कण का उससे भी संक्षिप्त क्षण
दीये की ज्योति से
उठता सर्पिल धुँआ
और धुँअठती पास वाली दीवार
चलते-चलते किसी ने जिस पर
उँगली से अनायास खींच दी हो एक रेखा
जिस रेखा से झरा हो वह कण
जिसका उससे भी संक्षिप्त हो क्षण
यह अन्तराल है प्रेम का
गहन तिमिर और पुनर्जन्म की
स्मृति से लिथड़ा
जो स्मृति
किसी ज्योति की तेजस्वी काया से
कभी गुँथे होने की स्मृति है।
प्रेम-4
इतना ऊँचा नभ से
जैसे किसी नक्षत्र का तल हो वहाँ।
उस जगह से प्रेम शायद
भिक्षापात्र में पड़ी दो-चार दमड़ियों को
बार-बार टटोलते किसी अन्धे भिखारी के
पीछे-पीछे चलती एक छाया जैसा दिखता हो
क्लान्त छाया जो
प्रतिक्षण सूर्यास्त की
प्रतीक्षा करती हो
देवप्रिया-1
कोई देवप्रिया
जब लेती है करवट,
एक प्रगाढ़ आलिंगन में जो
अवकाश हो सकता है,
उस अवकाश में
तुम्हारी नथनी गड़ती है
एक काले मेघ से पटे आकाश की छाती पर
तुम्हारे कपाल पर
झुक आये केश
उसे और विचलित कर देते हैं।
देवप्रिया-2
पृथ्वी ने तुम्हे हरी दूब दे दी
बिछौने की जगह
अपना विरल वस्त्र तुम्हें दे दिया आकाश ने
चन्द्रिका उस पर बिखर गयी
सूर्य ने उस पर ज़री लगा दी
नित्य-नियम से देवता उठे
ऐसे जैसे आकाश
कटा-फटा न हो एक किनारे
जैसे चन्द्रिका माथा झुका के न जाती हो वापस
जैसे सूर्य के ताप में कोई चूक न हो और
जैसे पूजा के थाल में इक्कीस ही
रखी हों दूर्वा
देवप्रिया-3
तुम्हारे वस्त्र का
जैसा था गाढ़ा
आकाश ने ओढ़ लिया वह रंग
आभूषणों का स्वर्ण
सूर्य ने ले लिया
कण्ठहार का नीला मणि
माँग लिया पृथ्वी ने
तुम्हारी विवस्त्र देह की चन्द्रिका
जिसमें उलझी हैं स्मृतियाँ
आकाश की
सूर्य की
पृथ्वी की
झरती हैं मुझ पर
सबसे छोटा नक्षत्र मैं
सबसे संक्षिप्त आकाश
देवप्रिया-4
अनिच्छा से जाते हैं अपने पथ
सूर्य और चन्द्र
तुम्हारे देहमण्डल से निष्कासित
दिन छोटे होने लगते हैं
रात घटती जाती है
तुम्हारी नाभि के खोल में
मण्डराती पृथ्वी
ऋतुओं की अनदेखी का
उलाहना देती है
तुम्हे।