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कविताएँ - पूनम अरोड़ा
SAMAS ADMIN
05-Sep-2018 12:00 AM
6145
1.
तुम कहते हो, मैंने तुम्हें माँसभक्षी बनाया
मुझे लगा मैंने केवल खुद को तुम्हे सौंप दिया था
तुम जिह्ना के भोगे हुए आनन्द थे
मैं सन्तुलन के तर्पण का पानी
हम अपने-अपने बीज थे !
न पुत्र हूँ मैं न पुत्री
पेड़ हूँ केवल
ईश्वर के घनत्व से उपजा
सिन्धु घाटी के जल से सुवासित
तद्भव और तत्सम शब्दों की लिपि
मेरा एकमात्र घर है।
2..
विराम
है समाप्त
मेरे उष्मा केन्द्र
जाग्रत होना चाहते हैं तुमसे
केवल तुमसे
मेरा आध्यात्मिक प्रेमी
मुस्कुराता है
एक प्राचीन सत्य के साथ
उसके भोग में
कोई अंश नही दुनिया का
मैं भी
उसकी आत्मा के सीने पर
पैर रख उतारती गयी
अपनी मासूमियत
तर्क
बिखराव
स्मृतियाँ
सम्बन्ध
और देह
बहुत समय बाद वह पूरे चाँद की रात थी।
3.
अभी-अभी मेरे दो टुकड़े हुए हैं !
मैं अपने सन्तुलन में
तराजू की नोक जितनी लड़खड़ायी हूँ
मेरे दृश्य, समझ और अहं भी
विभक्त हो गये हैं
क्या किसी विषैले वन्य जीव की आँतों की लिसलिसाहट है यह?
या दर्शन की कोई पाश्चात्य दुःसाहसी विडम्बना !
रंग की भी अपनी धुन होती है !
जिन दिनों मैं रक्तिम पलाश के फूल चुनती थी सड़कों से
उन दिनों महावर और बिछुए उतार दिये थे मैंने।
अब जब नीला रंग मेरे कण्ठ में उतरा है
उसके साथ चेरी ब्लाॅसम की नाजुक कलियाँ
मेरी रीढ़ की सीधी रेखा पर
कोई प्रेम कहानी बुनना चाहती है।
इन दिनों मैं बेमतलब मुस्कुराती हूँ
बेमतलब क्रोध करती हूँ
बेमतलब अपने बचपन के प्रेमी को याद करती हूँ
जिसने मुझे रात के समय खिड़की से पुकारा भर था।
उस समय मैं स्ट्राॅबेरी जैम बना रही थी
और शक्कर की जगह
गाँव से मँगवाया गुड़ डालने के बारे में सोच रही थी
मेरे पिता ने सबके सामने उसे दो थप्पड़ लगाये
मैं कितनी अनजान थी प्रेम की भाषा उन दिनों
वो शायद बसन्त का मौसम रहा होगा
लेकिन स्मृति पर ज़ोर डालने से
वह पतझड़ का मौसम लगता है।
अब मैं अपने घर की चाबियाँ
कही भी रख कर अक्सर भूल जाती हूँ
पीछे मुड़ कर देखती हूँ
तो बन्द घर की जगह
सूखा खलिहान दिखायी देते हैं।
मेरे दोनों टुकड़ों में ध्वस्त शोरगुल
अपनी-अपनी दुनिया के कोनों में पड़ा
ईश्वर की आँख बनना चाहता है
लेकिन किसी भी टुकड़े को
अब स्ट्राॅबेरी जैम बनाना नहीं पसन्द।
4.
हे पार्थ !
आँखें खोलो
देखो सन्ध्यातारा
रक्त नमक नहीं होता
जो अपनी आवृति नष्ट कर देगा रेत में
वह देर तक खौलेगा मृत देह में।
देर तक उसका ताप रहेगा धमनियों में।
कुछ सियार भटकेंगे मृत देहों की सुगन्ध पाकर
कुछ भेड़िये नोचेंगे बचे हुए स्वप्नों को
हे पार्थ !
जाता नहीं कुछ कहीं भी
न समाप्त होता है कभी युद्ध
जीवन अक्सर पीड़ा देता है
और अस्त्र भी
देखो उस लहू की धार को
उन कटे अंगों को
उन जुबानों को
जो निकली पड़ी हैं अन्तिम प्यास से।
लेकिन यह साँझ है
और माँओं के चूल्हे गर्म
सन्तोष के कौर ग्रहण करना।
अपने आशीषों पर विश्वास रखना।
अगर जन्मे कोई ग्लानि
एकलव्य के अँगूठे की पीड़ा बनना।
उस छल को याद करना
जिसे द्रोण ने गुप्त साधना के बदले एकलव्य से लिया।
यह निश्चित है।
कोई युद्ध कभी समाप्त नहीं होता।
न धूमिल होते हैं इतिहास में दर्ज कुछ दृश्य।
न समाप्त होते हैं कुछ प्रसंग।
न धुँधले होते हैं कुछ प्रतिबिम्ब।
कुछ तीर तुम्हारे भी हृदय पर घात करेंगे।
कुछ शंकाओं से तुम्हारे पुत्र अभिशप्त हो जायेगें।
तुम्हारी गरजती ललकारों का सूर्यास्त
उस पतन का सूचक होगा
जिसमें ग्लानि के अभियन्ता केवल तुम बनोगे।
हे पार्थ !
कठिन है सर्वथा
अपने ही अहंकार को नष्ट करना।
और भी कठिन है उससे धर्मयुद्ध जीतना।
सरल है कुन्ती पुत्र अर्जुन होना
पर कठिन है
उसी गर्भ से कर्ण होकर जन्म लेना।
सरल है
अनैतिक सर्वनाश पर मुग्ध होना
लालसा के लाक्षागृह में एक संकोची कमल खिलाना।
और उससे भी सरल है
हर युग के अभिमन्यु के लिए चक्रव्यूह की रचना करना।
युगों के दीर्घ-स्वरों में
अब युधिष्ठिर सीख चुके हैं अमर्यादित होना।
भूल चुके हैं उस झूठ पर नेत्र झुकाना
जिस झूठ पर धर्मयुद्ध का सारांश लिखा गया।
जो युग-पुरुषों की जिह्ना पर
अपने पुण्यों की विजय-गाथा कहता रहा।
भेस बदल चुके अर्जुन के सारथी।
और युद्ध हो चुके बिन हथियारों के।
लेकिन आज भी प्रलय के बाद बचे मानव श्रापित हैं।
और शायद तब तक श्रापित रहेगें
जब तक कोई एक प्रश्न अस्तित्व से ऊपर नहीं उठ जाता।
जब तक
दुर्योधन अपनी जंघाओं के
वज्र होने के तिलिस्म को त्याग नहीं देता।
निश्चित है
कोई युद्ध कभी समाप्त नहीं होता।
न शीतल हो पाते हैं कुछ रक्त।
और न भूले जाते हैं कुछ अपमान।
देवता गन्ध का अनुसरण करते हैं
त्याग करते हैं प्रायोजित अशुद्धियाँ।
किसी गर्भ में हुई हलचल का उन्हें भान होता है
भान होता है उस वीर्य का भी
जो स्निग्धता खो चुका होता है।
हर जन्म यहाँ उत्सव है।
और मृत्यु संस्कार।
हे पार्थ !
उठो अपने आचरण में।
यदि लक्ष्य-संधान को आतुर हो।
किसी असन्तुलित योजना के बल पर
कोई दुर्ग नहीं टिकता है।
न ध्वस्त होते हैं
मृत्यु तक पहुँचाने वाले विष-बाण।
करना है विद्रोह
तो त्याग दो कवच अपनी अस्थियों पर से।
त्याग दो अपने प्रेम-पात्रों की स्तुतियाँ।
त्याग दो युद्ध के मध्य यह कहना:
‘मारा गया अश्वत्थामा’
5.
एक रात के अलाव से निकले लावा ने
अबोध स्त्री के माथे पर शिशु उगा दिया
वह जब-जब रोया
अकेला रोया।
अबोध स्त्री के हाथ अपरिपक्व थे और स्तन सूखे।
किसी बहरूपिये ने
एक रात लम्बी नींद स्त्री के हाथ पर रख एक गीत गाया।
शिशु किलकारी मारने लगा।
देवताओं ने चुपचाप सृष्टि में तारों वाली रात बना दी।
गीत गूँजता रहा सदियों तक।
अबोध स्त्रियाँ जनती रहीं
कल्पनाओं के शिशु
और बहरूपिये पिता सुनाते रहे
समुद्री लोरियाँ।
6.
तुम्हे लौटना होगा !
अपनी यौन इच्छाओं के साथ
व्याकुल देह को रिक्त कर
मुझसे विरक्ति के बन्धन का निर्वाह करना होगा।
क्यों तुम मेरी मादक आत्मा की राह में खड़े हो?
उतर जाओ उन खाली सीढ़ियों से।
अपने डूबते हृदय को सम्भालो।
सुन !
जासूसी उपन्यास पढ़ने वाले,
मैं एक गौरैया हूँ
मेरे स्वर में मधु है ताजा और सुगन्धित
मैंने हत्या की है उन छोटे प्राणियों की
जिन्होंने मेरे स्वर को इतना तल्लीन बनाया है।
करनी पड़ी हत्या
क्योंकि उनका प्रेम मुझे डसता था।
पर मैं कसम खाती हूँ
मुझे दुःख हुआ था
बस उतना ही जितना तुम्हारी हत्या करने में होता।
तुम्हारा संहार कर मुझे तृप्ति मिलेगी।
मैं सच कहती हूँ।
हुगली नदी का जादुई जल मेरे हाथ में है।
उस जल की सौगन्ध।
बताओ किस रीति से हत्या करूँ तुम्हारी?
क्या बर्बाद कर दूँ तुम्हारी उम्र?
या किसी बंगाली बाबा से पुड़िया ले आऊँ ?
कि तुम्हे खिला सकूँ मिष्टी दोई और चाय के साथ ?
मैंने गिरीश घोष से जड़ी-बूटी खरीद ली है।
तुम्हारे यौनिक भूत की पिपासा का अन्त करने के लिए।
उसने पान खाते हुए मुझे सब विधि समझायी;
प्रेम का अर्थ गहन है
भूत की लकड़ी के तन्त्र से कहीं ज़्यादा गहरा और असरदार।
इस लकड़ी का काढ़ा कड़वा होता है थोड़ा
तो तुम अपनी जिव्हा की नोक से चखना
और अपने स्वर का मधु मिला देना।
हत्या के बाद मुझे सच में कोई ग्लानि नहीं हुई।
खाती हूँ तुम्हारी कसम।
मेरे भटकते प्रेमी !
तुम्हारी सूनी आँखे सदा रहेंगी मेरी स्मृति में।
7.
मुझसे कहा गया ‘धर्म पर विश्वास रखो’
मैंने पूजा-पाठ त्याग दिये।
और छोटे पौधे रोपने लगी जगह-जगह।
मुझे नास्तिकों की मित्रता से दूरी के संकेत दिये गये।
मैंने दार्शनिकों की किताबों से अपना कमरा भर लिया।
और बिल्लियाँ पालने लगी।
जो लोग दुविधा में जीते रहे
पुरुष में स्त्री और स्त्री में पुरुष को महसूस करते हुए
वे मुझे मौलिक और सैद्धान्तिक नागरिक लगे देश के
जबकि मैं रात को सोते समय
अक्सर अपने ही अस्तित्व से डर जाया करती थी।
मैं स्त्री हूँ !
यह बात कई अलग-अलग अवसरों पर पता चली मुझे।
लेकिन एक दिन
मैंने आँखों में चुभती
हिंसक, क्षुद्र और अनैच्छिक चुप्पियाँ तोड़ दी।
छोड़ दिये अखबार पढ़ना
और इस बात पर भरोसा करना
कि प्रेम केवल हृदय में होता है
ऊब की कुंजियों में नहीं !
अब मेरे पास बहुत विकल्प है।
केवल एक विकल्प त्याग दिया है मैंने:
स्त्री होना !
8.
हवा में बहती
एक गन्ध
जो स्थगित कर देती है तुम्हारी निर्वसन स्मृतियाँ।
कि तभी अचानक याद आ जाता है मुझे
हमारा प्रथम सहमा और सकुचाया संवाद
और उस संवाद के बीच में किसी और स्मृति का आ जाना।
स्मृति में वह हाईवे भी आता है
जिस पर भूलवश मेरी गाड़ी का स्टेरिंग घूम गया था।
स्मृति का यह टुकड़ा तुम्हारे शहर के साथ चलते
रेत के टीलों से अभिन्न प्रेम रखता है।
अस्थिर स्मृतियों में तुम्हे देखने से कब रोक पायी मैं खुद को।
मोरोकन चाय पीते हुए
जब तुम सुनते थे जाॅर्ज माइकल के गीत
उस समय मैं स्मृतियों में
नीले आकाश के खालीपन को ढूँढ रही होती थी।
और तुम्हारी मेरी नाभि छूने के अविरल संकेत पर
मैंने बुन ली थी मन में एक टूटी-सी कविता।
स्मृतियों की सृष्टि कितनी सघन होती है
कि दृष्टि और दृश्य में मेरे केश अब तक खुले हुए हैं रागों से।
अनन्त अन्धकार में
मैंने एक दिन बाँध दी थी सब स्मृतियाँ
अपनी बिल्लियों के गले में।
अब मैं हवा हूँ
किसी भी अर्थ में ध्वनि नहीं, मेघों की।
9.
मैं अपने दोष गिनने बैठी
तो आसमान की सारी चिड़ियाँ एक स्वर में रोने लगीं।
जबकि धरती के नीचे
फूलों के पौधों की जड़ें लोरियाँ बन रही थीं।
क्या आपने देखा नहीं ?
सारी चिड़ियाँ अपने घरौंदे इन्ही लोरियों से बनाती हैं।
और दोषी लड़कियाँ
उन चिड़ियों की आँखों से झरती हुई
धरती के हर कोने में जंगली फूल-सी उग आयी हैं।
क्या वाकई आपने देखा नहीं?
10.
स्मृतियों का एक पूरा जंगल उग आया है मुझमें।
एकदम ताज़ा !
और उतनी ही हलचल भरा
जितना कोई निराश प्रेमी हो सकता है
अपने एकान्त के क्षणों में।
जितने मूर्त हो सकते हैं परजीवी मृत त्वचा पर
और जितने अमूर्त हो सकते हैं
प्रेम दिवस के हमारे प्रगाढ़ चुम्बन।
एक आदमकद आईने में
एक बार खुद को देखा था बहुत गौर से
देखते-देखते मालूम हुआ
कि मुझमें सीढियाँ हैं बहुत से दुखों की।
जिनके दैत्य मुझे न कोई सांत्वना देते हैं
न चाँदनी की शीतल चाशनी।
इसलिए मैं डूबती जाती हूँ
अपनी उत्तेजना के कवच में।
ठण्डी होती जाती हूँ
बर्फ़ का फूल की तरह।
मेरे जिस्म पर उगी आँख भी
स्वप्न में खून बहाती है
और वो जम जाता है मेरी गर्म मुट्ठियों में।
मेरा स्वप्ननायक माक्र्स की विचारधारा में औंधे मुँह गिर कर लहूलुहान है।
किसी प्राचीन लड़ाई का अन्त वह टुकड़ों में करना चाहता है।
बुद्धम शरणम गच्छामि के खण्डरों में भटकते हुए।
एक पल रुक कर मैं देखती हूँ
उसी आदमकद आईने में।
जब लाँग वाॅक हाॅक स्ट्रीट पर पहली बार
अचानक और बेपरवाह हुए
मेरी सहमी पीठ पर
तुम्हारे हाथों की कम्पन ने मेरी आत्मा को बेतरतीब किया था।
उस कम्पन की आँखें अभी तक नहीं झपकी हैं।
11.
यह विवादास्पद हो सकता है
कि देह का आकर्षण किसी से हो
और मन का किसी से।
स्वप्न किसी के आयें और तृप्त कोई और करे।
नदी ने कब जाना
अपना मन।
समग्र होकर भी चेतना कब बँधी है
और
कब रुका है यह भयावह लेकिन आलौकिक नृत्य।
इस एक देह में
कितनी देहें बसीं हैं कल्पनाओं कीं।
12.
मैं जब भी सोचता हूँ
उसी आदम चेतना से सोचता हूँ
जिसमें लहू का एक कतरा भी
अपनी दाढ़ी नही खुजाता।
पैरों के नीचे की ज़मीन सरकती है
तो सरकने दो।
ये गर्म खून की बूँदों का उफान है।
और मेरी आदत का पिंजरा भरा है।
मैं आदमी की जात हूँ
यही जताना चाहता हूँ।
मैं एक काग़ज़ हूँ
बेतरतीब हूँ अपनी जेबों की तरह।
मैं खाली हूँ अपने जूतों में
कड़वे संघर्षों की तरह।
एक तरसा हुआ जलसा हूँ
भड़की हुई आग हूँ।
मसान की दहकती दुर्गन्ध
तपते जून की पीली घास हूँ।
मेरे कोष्ठकों में बन्द है
शंकराचार्य के आसन में भूलवश आया अहम्
मेरी माया में बेचैनी है सुलगती।
मैं त्रस्त हूँ उस प्यास के लिए
जिसके खाँचों में अनेक तस्वीरें बन्द है।
मैं त्रस्त हूँ उस तस्वीर से
जिसको पी सकूँ घूँट-घूँट।
मैं आदिम हूँ।
मैं आदमी हूँ।
मैं आदिम की जात हूँ।
यही जताना चाहता हूँ।
मैं जब भी सोचता हूँ
उसी आदम चेतना से सोचता हूँ।
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हिरेन भट्टाचार्य की कविताएँ असमिया से अनुवाद: किशोर कुमार जैन, अपराजिता डेका
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