प्रवास की सुदीर्घ साधना
12-Dec-2017 05:56 PM 10970

कृष्ण बलदेव वैद से उदयन वाजपेयी की बातचीत

कृष्ण बलदेव वैद देश के अग्रणी उपन्यासकारों में हैं। वैद साहब ने अपने लगभग हर उपन्यास में उपन्यास लेखन के क्षेत्र में नये प्रयोग करने का जोख़िम उठाया है। वैद साहब ने ‘उसका बचपन’, ‘बिमल उर्फ़ जाएँ तो जाएँ कहाँ’, ‘गुज़रा हुआ ज़माना’, ‘दर्द लादवा’, ‘मायालोक’ समेत अनेक प्रसिद्ध उपन्यास लिखे हैं। वैद साहब के कई कहानी संग्रह भी प्रकाशित हुए हैं। इन लगभग सभी पुस्तकों का अनेक भारतीय, यूरोपीय और एशियायी भाषाओं में अनुवाद हुआ है। वैद साहब के लेखन से न सिर्फ़ हिन्दी बल्कि अनेक भारतीय भाषाओं के कई लेखक गहरे तक प्रभावित रहे हैं। उनके लिखने की शैली तक को वैद साहब के लेखन ने किसी हद तक बदला है। वैद साहब 1947 में भारत के विभाजन के बाद डिंगा, जो पाकिस्तान में आ गया था, से दिल्ली आ गये। बहुत मुश्किल हालात में उनका आरम्भिक जीवन बीता। पाठक इस बातचीत में यह लक्ष्य करेंगे कि वैद साहब ने अपना उच्च अध्ययन शरणार्थी शिविर में रहकर पूरा किया है। वे वर्षों अमरीका में अँग्रेज़ी पढ़ाते रहे हैं और अब कई बरस भारत में गुज़ारने के बाद दोबारा अमरीका लौट गये हैं। यह बातचीत ई-मेल पर जनवरी से अपै्रल 2017 तक लगभग चार महीनों तक चली। मैं उन्हें एक सवाल लिखकर भेजता था, वे अगले दिन तक मुझे उसका जवाब भेज देते थे, जिसे पढ़कर मैं उन्हें अगला सवाल भेज देता था। वैद साहब कम्प्यूटर पर लिखने वाले लेखक नहीं है। वे कम्प्यूटर पर ई-ख़त के अलावा शायद ही कुछ लिखते होंगे। इस अनभ्यास के कारण वे मेरे सवालों के जो जवाब टाईप करते थे, वे बार-बार उड़ जाते थे। उन्हें उन जवाबों को दोबारा टाईप करना पड़ता था। कई बार तिबारा भी। इस सबके बाद भी वे पूरे धीरज से मेरे सवालों के जवाब देते रहे। इस बातचीत के दौरान उनकी पत्नी और कवि-चित्रकार चम्पा वैद बीमार हुईं और संक्षिप्त-सी बीमारी के बाद उनका देहावसान हो गया। हम समास की ओर से उन्हें याद करते हैं और अपनी श्रृद्धांजलि देते हैं और वैद साहब की साहित्य-निष्ठा के समक्ष सिर झुकाते हैं।

उदयन वाजपेयी- आपको यह कब महसूस हुआ कि आपको लेखन कार्य करना चाहिए कि यही काम है जो आप ज़िन्दगी भर करते रहना चाहेंगे?
कृष्ण बलदेव वैद- लिखने की कामना का बीज या जर्म डिंगा के उस हाईस्कूल में ही शायद रौप-सा गया होगा जिसमें दसवीं तक पढ़ा; सरदार हाकिम सिंग हाईस्कूल में। डिंगा और वह स्कूल अब पाकिस्तान में हैं। उस कस्बे की टेढ़ी-मेढ़ी गलियों और बलखाते बाज़ार में, अब मैं अपने सपनों और दुःस्वप्नों में ही भटक सकता हूँ या अपनी कल्पना में। उनकी कुछ झलकियाँ मेरे उपन्यासों ‘उसका बचपन’ और ‘गुज़रा हुआ ज़माना’ में भी मौजूद हैं। नवीं या दसवीं कक्षा में ही मैंने एक कच्ची-सी कविता, जिसकी पहली पंक्ति मुझे अभी तक याद है, प्रकाशन के लिए एक उर्दू अख़बार ‘प्रताप’ या ‘मिलाप’ को भेजी थी और वह उसके रविवारी अंक में प्रकाशित भी हुई थी। उसकी पहली पंक्ति थी, मुहब्बत की देवी का घर चाहता हूँ। ये अख़बारें लाहौर में छपती थीं और डिंगा के एकमात्र बाज़ार के सिरे पर स्थित सार्वजनिक वाचनालय में, जो गुरूद्वारे के बगल में था, बाकायदा आती थीं। मैंने अपनी उस शर्मनाक कविता को बहुत शौक और झेंप से उसी वाचनालय में पढ़ा था और अपने काँपते हुए हाथों से फाड़ी हुई उसकी कतरन को चुरा लाया था। वह मेरी पहली और आखिरी कविता ही नहीं, चोरी भी थी। उस स्कूल के हेडमास्टर सरदार नरोत्तम सिंह जौहर ने मुझे मेरी अँग्रेज़ी की बुनियाद और सराहना दी और उर्दू-फ़ारसी के उस्ताद बशीर एहमद शाह ने मुझे उर्दू-फ़ारसी दी। जो बाद में मेरी हिन्दी के रंग का आधार बनीं। उस स्कूल और उस कस्बे का मेरी ज़िन्दगी और मेरे लेखन में बहुत महत्व है।

कॉलेज में भी मेरे प्रिय उस्ताद वही थे, जो पढ़ने-लिखने के लिए कॉलेज की दुनिया में जाने-माने जाते थे। उन दिनों में मैं उर्दू के कुछ लेखकों के सम्पर्क में भी आया। उनमें कन्हैयालाल कपूर, ओ.पी. मोहन और एहमद शाह बुख़ारी के नाम मैं ख़ास तौर पर लेना चाहूँगा। कपूर और बुख़ारी अँग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर, उर्दू के वरीष्ठ, मुमताज़, मज़ाहिया और तंज़िया लेखक थे। मोहन भी अँग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर और उर्दू के युवा प्रतिभा-सम्भावना सम्पन्न लेखक थे। बुख़ारी और मोहन मेरे अँग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर थे। कपूर पढ़ाते तो दूसरे कॉलेज में थे लेकिन एम.ए. के दिनों में उनसे मेरी ख़ास दोस्ती हो गयी थी और मेरे होस्टल में वे अक्सर आया करते थे। इन तीनों उस्तादों के प्रभाव के कारण कॉलेज में मेरी लेखकीय नियति और साफ़ होती गयी। तुम्हारे सवाल का जवाब मुझे यही देना होगा कि विभाजन के बाद जब मैं अपने लूटे-पिटे परिवार समेत दिल्ली पहुँचा और वहाँ कैम्प कॉलेज में जैसे-तैसे मैंने अँग्रेज़ी में एम.ए. पूरा किया और जलन्धर में अँग्रेज़ी का लेक्चरर बना, मैंने महसूस करना शुरू किया कि मैं उर्दू में लिखूँगा और जीविका के लिए अँग्रेज़ी का प्रोफ़ेसर बन जाऊँगा। उन दिनों आई.ए.एस. की बहुत धूम हुआ करती थी। वह अब भी है लेकिन उन दिनो देश नया-नया आज़ाद हुआ था और पंजाब के युवाओं में ख़ासतौर पर आई.ए.एस. का बहुत आकर्षण था। मेरे एम.ए. के साथियों में से भी चार-पाँच आई.ए.एस. में गये। मुझ पर भी कई तरह के दबाव उसी दिशा में ढकेलने की तरफ थे पर मेरे मन में कोई उलझन नहीं थी, मैं जानता था कि मैं उसके बिल्कुल नाक़ाबिल था। मैंने उसका इम्तेहान न देने की कसम उठा रखी थी इसलिए यह कह सकता हूँ कि 1950 तक पहुँचते-पहुँचते मैंने फ़ैसला कर लिया था कि मैं लिखूँगा और जीविका के लिए अँग्रेज़ी पढ़ाऊँगा। लिखना मैंने उर्दू में शुरू किया। शुरू-शुरू की कहानियाँ उर्दू की पत्रिकाओं में ही प्रकाशित हुईं, कराची, लाहौर, दिल्ली की प्रसिद्ध लघु साहित्यिक पत्रिकाओं में। हिन्दी में मेरी पहली कहानी, बीच का दरवाज़ा, जब ‘साहित्यकार’ में प्रकाशित हुई, नरेश मेहता के अनुरोध पर वह बतौर ‘उर्दू कथा’ की तरह ही छपी, हालाँकि ‘साहित्यकार’ के आयोजनों में भीष्म साहनी, नेमीचन्द जैन, निर्मल वर्मा, रामकुमार और नरेश मेहता के साथ मैं भी था! यानी 1952 तक मेरे मन में ये भी साफ़ हो चुका था कि मैं हिन्दी में ही लिखँूगा। इस सफ़ाई में मुल्कराज आनन्द का भी हाथ था, जिन्होंने ये सुझाया कि मुझे अपनी मुख्य मूल भाषा का चुनाव शुरू में ही कर लेना चाहिए। सो मेरे मन में रहा-सहा असमन्जस भी समाप्त हो गया और मैंने अपनी किस्म की हिन्दी को चुन लिया, जिसमें उर्दू-फ़ारसी के लिए सब दरवाज़े खुले रहेंगे और पंजाबी व अँग्रेज़ी के लिए कुछ खिड़कियाँ भी।

उदयन- अभी हाल में मैंने उर्दू के नामचीन लेखक शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी साहब से बात की है। वे विभाजन के साहित्य के श्रेष्ठ होने पर प्रश्न लगा रहे थे। यह ज़रूर है कि उनका इशारा उर्दू लेखन की तरफ था पर आप को उर्दू और हिन्दी दोनों का लेखक मानना होगा। बल्कि आपके लेखन की भाषा को (जिसमें कम अज़ कम तीन चार उत्तर भारतीय भाषाएँ शामिल होंगी) किसी एक नाम में बाँधना मुश्किल है। आपने भी अपनी युवा अवस्था और बाद में भी विभाजन से प्रेरित साहित्य पढ़ा होगा। क्या आपको भी उस साहित्य के विषय में यही लगता है कि उसमें अधिकतर सन्तुलन बनाये रखने का प्रयास हुआ था जैसे कि उर्दू के नक़्क़ाद और अफ़सानानिगार हसन असकरी ने कहा था। मैं इस साहित्य में आपके उपन्यासों को शामिल नहीं कर रहा। उनका दर्ज़ा बहुत ऊँचा है और वे विभाजन की पीड़ा को बिलकुल अलग तरह से रूपायित करते हैं। क्या हिन्दी और उर्दू का साहित्य विभाजन की पीड़ा को पूरी निर्ममता और कलात्मक दृष्टि से प्रकट कर सका? क्या आपकी नज़र में उस समय के ऐसे कुछ लेखक हैं जिनकी कृतियाँ आप इस सन्दर्भ में याद करना चाहेंगे।

वैद साहब- शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी साहिब के नाम-ओ-काम से मैं खूब वाकिफ़ हूँ और उन्हें एक दो-बार मिला भी हूँ। उनके रिसाले ‘शबख़ून’ में मेरी कुछ कहानियाँ भी प्रकाशित हो चुकी हैं। अब वह रिसाला बन्द हो गया है। कुछ महीने पहिले मैंने उनका ई-मेल पता खोज निकाला और फिर उनसे अँग्रेज़ी में ईमेल-आचार भी हुआ।
मैं विभाजन-केन्द्रित साहित्य के बारे में फ़ारूक़ी साहिब की शंकालु दृष्टि से सहमत हूँ। उर्दू नज़्म में विभाजन की तबाही और बर्बर अमानवीयता की अक्कासी उर्दू कथा साहित्य की अपेक्षा अधिक कलात्मकता से हुई है। हाँ, अलबत्ता मण्टो ने ‘टोबा टेक सिंह’ समेत अनेक मार्मिक छोटी-बड़ी कहानियाँ हमें दी हैं जिनमें विभाजन की विभीषिका मण्टो की विशिष्ट निर्ममता में नहाती हुई नग्नता और मारू मुस्कान के साथ हमारे अन्तर्मन पर अंकित हो जाती है, लेकिन राजेन्द्र सिंह बेदी के अलावा और कोई उर्दू कथाकार मण्टो की गहराई और ऊँचाई तक नहीं पहुँचा। इसलिए मैं मोहम्मद हसन असकरी से भी सहमत हूँ कि उर्दू (और हिन्दी) का बेश्तर कथा साहित्य-कहानियाँ-उपन्यास और नाटक भी या तो अतिभावुकता का शिकार होकर रह गया या फिर संतुलन-संयम का। ईमानदारी की आड़ में ये भय भी छिपा दिखायी दे जाता है कि मुसलमान या हिन्दू या सिक्ख नाराज़ न हो जाएँ। और ये भय लेखक को खुल कर खिलने या लिखने से रोक लेता है। एक बात और : बहुत कम हिन्दी और उर्दू के गद्य लेखकों ने विभाजन के बारे में लिखते हुए भीड़ की भयानकता को सशक्त तरीके से दिखाया है। मुझे इलियास कनेटी की महान अनौपन्यासिक किताब ‘क्राउड्स एण्ड पॉवर’ (भीड़ और शक्ति) याद आ रही है।
उदयन- आपका डिंगा का घर कैसा था, कहाँ था, शहर के बीचोंबीच या किसी सरोवर के किनारे या किसी नदी के निकट? आपके साथ कौन-कौन रहता था? क्या अपनी माँ और बहनों के बारे में कुछ बताना चाहेंगे? आपके बचपन के दोस्त-यार क्या अब भी आपको कभी किसी स्वप्न में टकराते हैं? आपको विभाजन के विषय में सबसे पहले कब एहसास हुआ था?
वैद साहब- डिंगा के घर के बारे में बताने से पहले मैं तुम्हें एक बात और बताना चाहता हूँ। मेरी पैदाईश डिंगा में हुई थी क्योंकि उस समय मेरे पिता वहाँ मुलाज़िम थे। वह पटवारी थे, नहर के विभाग में। लेकिन उनका अपना गाँव, डेरा बख़्शियान, वहाँ से दूर ज़िला रावलपिण्डी, तहसील गुज्जर खान में था। वहाँ उनके बड़े भाई अपनी अवकाश प्राप्ति के बाद रहते थे। वे भी पटवारी थे, मुझे मालूम नहीं कहाँ-कहाँ। उस गाँव में दोनों भाईयों की कुछ ज़मीन भी थी जिसकी देखभाल मेरे ताऊ जी का एक बेटा किया करता था। वह अपने परिवार समेत उसी गाँव में रहता था।
मैं होश सम्भालने के बाद गर्मियों की छुट्टियों में अकेला कुछ दिनों के लिए डेरा बख़्शियान जाया करता था। और वहाँ अपने ताऊ जी के घर रहा करता था। उन दिनों की कई यादें अभी तक मुझे खुश और नाखुश करती रहती हैं। वहाँ जाने के लिए रेलगाड़ी से गुज्जर ख़ान के स्टेशन पर उतरने के बाद चार-पाँच कोस पैदल चलना पड़ता था। सारा रास्ता पहाड़ी, हरा-भरा और सुन्दर था। कई नदी-नाले रास्ते में आते थे। कभी-कभी गधे या टट्टू की सवारी भी करनी पड़ती थी। वह गाँव, डेरा बख़्शियान भी पहाड़ी और पथरीला था। बारिशों के मौसम में उस गाँव की पथरीली गलियाँ धुल जाया करती थी, कुलबुल-कुलबुल करते पानी से। उसमें रहने वाले हिन्दू परिवार एक-दूसरे के रिश्तेदार, दूर या पास के हुआ करते थे। मुसलमान भी उस गाँव में रहते थे, उनके पास ज़मीनें नहीं थीं। वे काश्तकार या कामगार थे। हिन्दू परिवारों की अपेक्षा वे विपन्न थे। हमारे परिवार का एक हिस्सा बहुत सम्पन्न था। उस हिस्से के कई व्यक्ति फ़ौजी अफ़सर रह चुके थे। अँग्रेज़ी सरकार ने उन्हें पश्चिमी पंजाब के कई इलाकों में उनकी सेवाओं के बदले मुरब्बे (ज़मीनें) अता किये थे। उनमें से दो भाईयों ने डेरा बख़्शियान में दो महलनुमा मकान बनवा दिये थे। उन मकानों के बारे में कई मनगढ़न्त क़िस्से-कहानियाँ प्रचलित थीं।
डिंगा में पैदा होने के बाद मैं अपने परिवार के साथ कुछ वर्षों के लिए मंगोवाल, जो डिंगा से बहुत छोटा गाँव था और जहाँ मेरे पिता का तबादला हो गया था, चला गया था। उस गाँव में हम कई साल रहे, मैं चौथी कक्षा तक वहीं पढ़ा। वहाँ से फिर पिता का तबादला डिंगा में हो गया। वहीं से मैंने दसवीं पास की और वहीं से मैं 1942 में लाहौर कॉलेज में गया।
डिंगा में हम किराये के मकान में रहते थे। जिन दो मकानों की यादें मेरी स्मृति में खुदी हुई है, अभी तक, वे किसी नदी या सरोवर के किनारे या क़रीब नहीं थे, बल्कि दो गलियों में थे। पहला मकान जिस गली में था उसका नाम ‘साहनियों की गली’, दूसरे मकान वाली गली का नाम ‘शेखों की गली’ था।
‘साहनियों की गली’ वाले मकान में हम ज़्यादा देर तक रहे। वह मकान दो मंज़िला था। नीचे के दो कमरों में से एक को कोठड़ी ही कहना ठीक होगा; उसमें हमारे ट्रंक वगैरह और दीगर फालतू सामान भरा रहता था। वहाँ दिन में भी दिखायी कम ही देता था। दूसरे कमरे में एक खिड़की थी जो गली में खुलती थी। उस कमरे के बाहर देवड़ी थी जिसके एक कोने में पानी के लिए हाथ-पम्प था। वहाँ हम सब नहाते-धोते थे। देवड़ी के सामने एक छोटा-सा सेहन था जिसमें एक गाय या भैंस बँधी रहती थी, और कभी-कभी एक घोड़ी भी जिस पर सवार हो पिता आस-पास के गाँव का दौरा किया करते थे। सेहन के एक सिरे पर एक और कोठड़ी-सी थी जिसमें जानवरों का भूसा-चारा भरा रहता था। ऊपर के हिस्से में जाने के लिए तंग सीढ़ियाँ थीं और चारे वाली कोठड़ी की छत पर पहुँचने के लिए लकड़ी की ‘परसांग’ (सीढ़ी) थी।
ऊपर के हिस्से में एक कमरा और उसके बाहर बरामदा था। बरामदे से रसोई का काम लिया जाता था, कमरे से लेटने, काम करने और सर्दियों में सोने का। उस कमरे की एक खिड़की से एक मकान के सेहन की रौनक देखी जा सकती थी। ऊपर की छत पर पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ थी। उस छत के एक कोने में टट्टी बनी हुई थी। बाकी की छत गर्मियों में रात को सोने के लिए थी। उस छत से गली की दूसरी छतें दिखायीं देती थीं और बगल के एक मकान का सेहन। उस मकान में एक मुस्लिम परिवार रहता था।
मुझे रात को नींद हमेशा देर और दिक्कत से आया करती थी। सपने तब भ्ाी बहुत आते थे।
परिवार में माता-पिता के अलावा एक बहन और एक छोटा भाई था; बहन मुझसे कुछ बरस बड़ी थी, भाई मुझसे दस बरस छोटा था। एक भाई और हुआ करता था जिसकी मौत मेरे जनम से पहले हो गयी थी। उससे और एक छोटी बहन, जिसकी मौत मंगोवाल में हुई थी, मेरी धुँधली याद में बहुत धाँधली मचाया करती थी और बहुत प्यारी थी।
माँ, जिसे हम सब बच्चे ‘भाभी’ कहकर बुलाते थे, सिर्फ़़ गुरमुखी पढ़ सकती थी, कभी-कभी गुरमुखी की गीता पढ़ा करती थी। बहन का नाम देवकी था। माँ उसे बहुत डाँटा-डपटा करती थी। देवकी को रामचरितमानस पढ़ने का शौक था और वह सारी उम्र उसे पढ़ती-गुढ़ती रही। उनकी शादी ख़राब रही। ख़राबी के कारण बहुत उलझे हुए थे। लड़के को मंगोवाल की एक सम्पन्न आर्यसमाजी विधवा ने धर्मपुत्र बनाया हुआ था। वह लाहौर में रहती थी अपने पुत्र के साथ। जब मेरा परिवार मंगोवाल से डिंगा चला गया, वह महिला अपने धर्मपुत्र के साथ लाहौर से डिंगा भी आयीं और तभी बहुत बहस-मुबाहिसे के बीच बहन देवकी की शादी उस नौजवान से तय हो गयी। शादी के बाद देवकी की एक बच्ची भी हुई। फिर शादी ने ख़राब होना शुरू कर दिया और मेरे बहनोई ने लापता होना। वह बॉम्बे चला गया और उसने वहाँ गुम होना शुरू कर दिया। उसका नाम ओमप्रकाश था और मेरी भाँजी मुन्नी (सुदेश), जो अब नहीं है (बहन देवकी उससे पहले ही चली गयी थी) के मुताबिक उसके पिता ओमप्रकाश और मशहूर फ़िल्म अभिनेता ओमप्रकाश एक ही थे। एक बार मैंने दिल्ली से अभिनेता ओमप्रकाश को फ़ोन भी किया था, शायद 1975 के आस-पास और कहा था कि मैं उनसे मिलना चाहता हूँ। वे बोले, मैं इस वक़्त धुत्त हूँ लेकिन मैं दिल्ली आ रहा हूँ फ़लाँ तारीख को, मैं साऊथ एक्सटेंशन में अपने मकान में ठहरूँगा, आप मुझे वहाँ मिल सकते हैं। सो मैं उसको उसके बताये हुए पते पर मिलने गया। उससे पहले मैंने दिल्ली में शाम अपने दोस्तों सुजीत और मीनाक्षी मुखर्जी के साथ गुज़ारी थी। दूसरे दिन मेरी आवाज़ अभिनेता ओमप्रकाश से मिलने जाने से पहले गुम हो गयी। आवाज़ की गुमशुदगी का कारण मानसिक-मनोवैज्ञानिक ही रहा होगा। ख़ैर मैं उनसे मिला, वह शालीनता से पेश आये लेकिन उन्होंने नहीं माना कि वह अपनी धर्म-माता, तेज कौर और मेरी बहन देवकी को जानते भी थे, लेकिन मेरा शक दूर होने के बजाय और पक्का हो गया। उन्होंने दूसरी शादी कर ली थी और अपनी दूसरी बेटी से मुझे मिलाया भी। आखिर में मैंने उनसे मनवा लिया कि वह एक बार मेरी भाँजी मुन्नी से मिलकर उसे भी यह बात कह देंगे। सो मुन्नी उनके घर गयी और उनके इंकार के बावजूद उन्हें कह आयी कि वे माने न माने, उनसे मिलने के बाद उसे यकीन हो गया है कि वही उसके पिता हैं। जब वह लापता हुए थे, विभाजन से पहले ही तो मुन्नी उस समय कुछ महिनों की ही थी, विभाजन के वक़्त मुन्नी हमारे पास डिंगा में थी।
विभाजन की आहटें तो मुझे स्कूल के ज़माने में ही आनी शुरू हो गयी थी। हमारे स्कूल के लगने के आरम्भ में सारा स्कूल कम्पाउण्ड में प्रार्थना के लिये इकट्ठा हुआ करता था। दो तरह की प्रार्थनाएँ सामूहिक रूप से की जाती थी। स्कूल एक स्थानीय सिक्ख के नाम से था, सरदार हाकिम सिंह हाई स्कूल, लेकिन उसमें हिन्दू और सिक्खों के अलावा मुसलमान भी बहुत पढ़ा करते थे। इसलिए शबदों के बाद एक और प्रार्थना भी हुआ करती थी जिसके पहले बोल थे, ‘मुझको है तेरी जुस्तजू, मुझको तेरी तलाश है/जानेजहाँ कहाँ है तू, मुझको तेरी तलाश है।’ मैं दोनों प्रार्थनाओं में खूब ऊँची आवाज़ में शामिल हुआ करता था।
प्रार्थना के बाद उस दिन की अख़बारी सुर्खियाँ सुनायी जाती थीं। मुझे याद तो नहीं लेकिन मेरा अनुमान है कि जब मैं नवीं में था, शायद 1942 में, मुझे पहली बार यह खटका लगा कि पाकिस्तान का ख़तरा बेबुनियाद नहीं। 1946 या 1947 में लाहौर में ही मैंने अपने कॉलेज की एक सभा में जिन्ना को पहली बार सुना था।
उदयन- डिंगा और डेरा बख़्शियान में आप कौन-सी किताबें पढ़ा करते थे? वे आपको कहाँ मिलती थीं, क्या उन जगहों में पुस्तकालय या किताबों की दुकान हुआ करती थीं?
क्या उन दिनों आपके साथ भी वैसा ही था जैसा कई घरों में हुआ करता था कि बच्चे और बड़े मिलकर रामलीला या पारसी रंगमंच देखने जाते थे?
आपने कहा कि आप अँग्रेज़ी पढ़ने-पढ़ाने की ओर आकर्षित हुए, ऐसा आपकी नज़र में क्यों हुआ होगा?
वैद साहब- डिंगा और डेरा बख़्शियान में पढ़ने का शौक या ‘चस्का’ मुझे अपने या अपने घर के प्रभाव से नहीं, स्कूल के दो मास्टरों के प्रभाव से ही मिला- हेड मास्टर नरोत्तम सिंह और बशीर अहमद शाह के प्रभाव से। हमारे स्कूल की आर्थिक स्थिति मजबूत नहीं थी; मास्टरों को पगार कम और बेवक़्त़ दी जाती थी। दूसरे स्कूल-रॉय बहादुर सुन्दर दास हाई स्कूल- की इमारत हमारे स्कूल की भुरभुरी और पुरानी इमारत से ज़्यादा भव्य और ‘आधुनिक’ थी, वहाँ के मास्टरों को तनख़्वाहें ज़्यादा और बाक़ायदा वक़्त पर मिलती थी, लेकिन उसकी साख और धाक हमारे स्कूल की साख और धाक से बहुत कम थी। दाखिले के दिनों में मेरे हेड मास्टर साहिब मुझे और कुछ दूसरे होशियार लड़कों को अपने दफ़्तर में बुलाकर हमें दाख़िले के लिये आये पिताओं को अँग्रेज़ी की कोई कविता सुनाने का हुक्म दिया करते थे और अन्त में बड़े गर्व से कहा करते थे, कोई कह सकता है कि ये लड़के अँग्रेज़ नहीं हैं।
उस कस्बे और स्कूल में कोई लाइब्रेरी या किताबों की दुकान तो नहीं थी लेकिन रामलीला हर साल हुआ करती थी, सर्कस और टुरिंग टॉकिज़ कम्पनियाँ भी आती-जाती रहती थीं। उस कस्बे में कुछ मशहूर पागल और बीसियों कवि (उर्दू, हिन्दी, पंजाबी के) हुआ करते थे जिनके अड्डे बाज़ार में जमा हुआ करते थे। सनातन धर्म सभा और आर्य समाज सभा के सालाना जलसों की धूम हुआ करती थी, मुहरर्म के दिनों में कस्बे की तवायफ़ों को काली पोशाक में अपने आपको पीटते और उनकी या हुसैन की तानों का मज़ा लेने के लिए जो भीड़ बाज़ार में जमा होती थी, उसमें हिन्दू-मुसलमान-सिक्ख सब हुआ करते थे।
मुझे याद है कि मैंने एक बार अपने स्कूल में ‘मर्चेण्ट ऑफ़़़ वेनिस’ के कोर्ट सीन के मंचन में पोर्शिया की भूमिका अदा की थी।
हमारे घर में किताबें तो नहीं होती थी लेकिन पिता को उर्दू के जासूसी नॉवेल पढ़ने का शौक था इसलिए बेरहम डाकू और जालिम हसीना से मैं भी परिचित हो गया था।
डेरा बख़्शियान में मैं अपनी बिरादरी के एक चाचा, विद्याधारी से बहुत प्रभावित हुआ करता था। वे बरसों जापान में रहे थे और किसी इंकलाबी पार्टी के सदस्य हुआ करते थे, शायद सुभाष चन्द्र बोस के अनुयायी भी थे। अपनी वृद्धावस्था में वे डेरा बख़्शियान में आ रहने लगे थे। उनके चेहरे पर उनके अनुभवों का ताप और प्रताप मुझे आकर्षित किया करता था। वह मेरे लिए एक पूरी किताब हुआ करते थे।
लाहौर और रावलपिण्डी जाकर कॉलेज में पढ़ने के दौरान ही मुझे अँग्रेज़ी और उर्दू की किताबें पढ़ने का अवसर आैर गहरा शौक मिला। जब मैं इण्टरमीडियट में था, किसी ने मुझे ‘क्राइम एण्ड पनिश्मेंट’ पढ़ने को दिया। मुझे याद है कि मैं कई दिन उस नॉवेल में डूबा रहा। इसी तरह इलियास कनेटी का नॉवेल, ‘ऑटो दे फे’ लाहौर में ही अपने दोस्त वेद नरूला से लेकर पढ़ा और उसी से जार्ज बर्नार्ड शॉ के कई नाटक भी लिये।
पढ़ने-पढ़ाने के शौक भी मुझे कॉलेज के दिनों में ही पड़े। उसकी बुनियाद डिंगा के स्कूल में पड़ी।
बी.ए. के बाद और गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर में अँग्रेज़ी में एम.ए. में दाखिला लेने के पहले दो-तीन महिनों के लिए मैंने सरदार हाकिम सिंह हाईस्कूल में बतौर सेकण्ड मास्टर पढ़ाया भी। वह अनुभव और अवसर मुझे हेड मास्टर नरोत्तम सिंह की कृपा से मिले।
उदयन, डेरा बख़्शियान के हिज्जे मेरी रोमन हिन्दी में ठीक ही हैं। डेरा बख़्शियान अर्थात् ‘बख़्शियों का डेरा’। मेरे पिता को लोग ‘बख़्शी जी’ कहकर ही बुलाते थे। हम जात से मोहयाल ब्राह्मण हैं। यानि काश्तकार-ज़मीदार ब्राह्मण। मोहयालों की सात जातें हैं : वैद, दत्ता, बाली, छिब्बर, मोहन, लउ, बोम्बवाल। मोहयाल सभा का एक रिसाला उर्दू में लाहौर से प्रकाशित हुआ करता था जिसके हर अंक के मुख्य पृष्ठ पर ये नाक्किस शेर छपा करता था : सदा ऊँचा रहे झण्डा शान-ए-मोहयाली का/ वैद, दत्ता, मोहन, छिब्बर, बोम्बवाल, लउ, बाली का। पंजाब में मोहयाल अपनी ऐंठ के लिए मशहूर या बदनाम थे। मेरी ऐंठ भी शायद वहीं से आती थी। तुम्हारा बाबा (ब्लैक शीप) वैद
उदयन- आप कह रहे हैं कि आप पढ़ने के लिये लाहौर गये थे। लाहौर उन दिनों बहुत खूबसूरत शहर के तौर पर मशहूर था। क्या आप अपने लाहौर दिनों के बारे में कुछ कहेंगे? आप वहाँ किन लोगों के बीच रहते थे? उन दिनों किस तरह की बातें आप लोगों के बीच हुआ करती थीं? इन बातों में भारत के भविष्य के विषय में क्या प्रश्न उठते थे अगर उठते थे?
वैद साहब- इण्टरमीडियट के लिए मैं डी.ए.वी. कॉलेज, लाहौर में दाखिल हुआ, 1942 में। उसी समय काँग्रेस और महात्मा गाँधी ने ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन शुरू किया था। डी.ए.वी. कॉलेज उस आन्दोलन का गढ़ हुआ करता था। मेरी उम्र 15 की थी। मैं उस आन्दोलन में सक्रिय तो नहीं था लेकिन उसमें निहित विचारधारा से सहमत ज़रूर था। मैं जलसे-जलूसों में शामिल तो होता था लेकिन मैंने सत्याग्रह नहीं किया। मेरे सब दोस्त मेरी ही तरह के थे- हम सब अक्सर गर्मागर्म बहसें किया करते थे, ब्रेडला हॉल में काँग्रेस के जलसों में जाते थे। मुझे याद आता है कि उन्हीं दिनों में कई बार लाहौर हाई कोर्ट में चल रहे किसी बड़े मुकदमे में कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी को सुनने के लिए कोर्ट गया। मुंशी की वकालत और भाषा ने मुझे बहुत प्रभावित किया था।
लाहौर में शुरू के कुछ दिन अपनी बहन देवकी के घर रह लेने के बाद मैं मोहयाल आश्रम (छात्रावास) में रहने लगा। वहीं मेरी जान-पहचान ओ.पी. मोहन से हुई जो वहीं रहते थे और उस होस्टल के प्रॉक्टर भी थे। वे भी डी.ए.वी. कॉलेज में अँग्रेज़ी में एम.ए. कर रहे थे। बहुत रंगीले व्यक्ति थे। उनका कमरा दिलचस्प लोगों का एक अड्डा-सा था। मैं उस अड्डे को दूर से ही देखा करता था लेकिन ओ.पी. मोहन मेरे हीरो हुआ करते थे।
लाहौर के वे दिन मेरी चेतना के खिलने के दिन थे। मैंने उन्हीं दिनों पढ़ना और गप्प मारना शुरू किया। मेरे दोस्तों में वेद नरूला और बहादुर सिंह घुम्मन मुझे अभी तक याद हैं। घुम्मन को दौड़ने का शौक था। उसने दौड़ने में कई पुरस्कार पाये। वेद को हम देवा कहा करते थे। उसे पढ़ने का शौक था। उसका बड़ा भाई मोहन का दोस्त हुआ करता था। इसलिए वेद मुझे मोहन के क़िस्से सुनाया करता था, क़िस्से जो उसने अपने बड़े भाई से सुने थे। उन क़िस्सों से मोहन के बारे में मेरा कौतुहल और बढ़ गया। लाहौर की सड़कों पर सैर करना मुझे बहुत प्रिय था। लाहौर की सुन्दरता का निखार देखने मैं लॉवरेंस गार्डन अक्सर जाया करता था। रवि रोड और अनारकली की सैर भी मैं खूब किया करता था।
डी.ए.वी. कॉलेज के कुछ प्रोफ़ेसर बहुत रोचक थे। उनमें गणित के प्रोफ़ेसर हुकमचन्द मल्होत्रा को मैं याद करना चाहूँगा। वे गणित में माहिर तो थे ही लेकिन गणित के अलावा भी वह बहुत दिलचस्प बातें किया करते थे। वह अक्सर इधर-उधर की हाँक लेने के बाद आँखे बन्द करके कहा करते थे : कोई मरे, कोई जिये/हुकम चन्द घोल पतासे पिये! हर रोज़ एक-दो बार अपनी इन चहेती पंक्तियों का जाप कर लेते थे। उनका एक और चहेता शेर हुआ करता था जो उन्होंने खुद बनाया था और जिसका निशाना डी.ए.वी. कॉलेज की लाईफ़-मेम्बरशिप हुआ करती थी। वह अक्सर इस शेर का पाठ भी किया करते थे : अजब शै है डी.ए.वी. कॉलेज की लाइफ़-मेम्बरी/ न फ़िकरे रोज़गार न खौफे़ मुअत्तली। सब जानते थे कि वह खुद डी.ए.वी. कॉलेज के लाइफ मेम्बर रह चुके थे; कई साल पहले उन्होंने उससे त्याग-पत्र दे दिया था। तब से ही वह डी.ए.वी. कॉलेज की उस प्रथा पर उस शेर का प्रहार कर रहे थे।
डी.ए.वी. कॉलेज, लाहौर में बीस मिनिट की एक क्लास वेद पाठ की हुआ करती थी जो उन सब लड़कों के लिये ज़रूरी थी जो हिन्दी नहीं जानते थे। उस क्लास का नाम भ्रामिक था क्योंकि उसमें क, ख, ग से शुरू कर हिन्दी ही पढ़ाई जाती थी। मेरे लिए वह क्लास वरदान साबित हुई क्योंकि उसके बगैर मैं हिन्दी का लेखक शायद ही बन पाता। अब भी मैं कुछ हिन्दी वालों की नज़र में हिन्दी में एक अवैध वैद ही हूँ, खैर! कुछ ही वर्ष बाद हिन्दी में ही लिखने का फैसला मैंने न किया होता अगर डी.ए.वी. कॉलेज में वेद पाठ की वह बीस मिनिटिया क्लास न होती।
दो साल बाद मेरा बी.ए. के लिए सनातन धर्म कॉलेज रावलपिण्डी में दाखिल हुआ तो ओ.पी. मोहन एम.ए. के बाद उसी कॉलेज में बतौर लेक्चरर नियुक्त हो गये और मेरे अच्छे दोस्त बन गये। मैं एस.डी. कॉलेज के होस्टल में रहता था और होस्टल का प्रॉक्टर भी था। ओ.पी. मोहन अँग्रेज़ी पढ़ाते थे और उर्दू में लिखते थे। वह मेरे कमरे में अक्सर आते थे। अँग्रेज़ी के ही एक और प्रोफ़ेसर बोम्बवाल भी थे। वह भी बहुत बढ़िया आदमी थे और अँग्रेज़ी विभाग के अध्यक्ष डॉ. हरिहर नाथ हुक्कु लखनऊ के थे और उनका व्यक्तित्व भी प्रभावशाली था; उनमें लखनवी बाँकपन की सज-धज थी। मेरी राजनैतिक चिन्ता उस कॉलेज में लाहौर की अपेक्षा ज़्यादा चमक उठी। 1945 में ही शायद आई.एन.ए. के तीन युवा नेता सहगल, ठिल्लो, शाहनवाज़ रिहा होकर रावलपिण्डी आये थे और बड़ी धूम-धाम से उनका स्वागत किया गया था। युवा कार्यकर्त्ताओं में मैं भी था। उसी दिन मैंने पहली बार रावलपिण्डी में साइकल चलायी थी।
सनातन धर्म कॉलेज, रावलपिण्डी की स्थापना 1944 में ही हुई थी। उसकी इमारत भी नयी थी, सारा स्टॉफ़़ भी नया था। उसके पिं्रसिपल ईश्वर चन्द्र त्रिखा थे, जो विभाजन के बाद सागर विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार बने। शायद तुम या अशोक उनके नाम से परिचित हो। उनका मकान हमारे होस्टल के पीछे कुछ ही दूरी पर था। उनका बेटा मेरे कमरे में अक्सर बैठा रहता था। उसे विद्यानाथ सेठ और तलत मेहमूद के गाने गाने का शौक हुआ करता था। विभाजन के बाद वह आई.पी.एस. का अफ़सर बन गया था। तब वह एक बार चण्डीगढ़ में हमारे घर भी आया था। खालिस्तान की माँग करने वाले सिक्खों के बारे में उसके विचार सुनकर मैं काँप उठा था।
दूसरी और आख़िरी बार मैं लाहौर में 1946 में रहा। तब मैं गवर्नमेंट कॉलेज में अँग्रेज़ी में एम.ए. के लिए दाखिल हुआ। वहाँ दाखिले के लिये मेरे स्कूल के हेड मास्टर नरोत्तम सिंह ने मुझे एक प्रमाण-पत्र दिया था, जिसमें मेरी अँग्रेज़ी की और मेरी क़ाबिलियत की बहुत ही सुलिखित और सुविचारित प्रशंसा थी। मेरा ख़्याल है कि उस प्रमाण-पत्र के बगैर गवर्नमेंट कॉलेज में मेरा दाखिला मुश्किल होता।
लाहौर में तनाव के बावजूद 1946-47 का वह लाहौरी साल मेरा सुनहरा साल कहलाने का हक़दार है। के.एल. कपूर के नाम एक परिचय-पत्र ओ.पी. मोहन ने मुझे दिया था, जो कपूर से मेरी दोस्ती-शार्गिदी का आधार बना। कपूर डी.ए.वी. कॉलेज में ही अँग्रेज़ी पढ़ा रहे थे। वह उर्दू के बहुत बड़े लेखकों में शुमार किये जाते थे और लाहौर के सब अदीबों को जानते थे। वैसे भी वह बहुत मजे़दार बातें किया करते थे। उनके मज़ाहिया और तनज़िया मजमूनों के सब मजमूये मैंने पढ़ रखे थे। कपूर मोहयाल आश्रम के मेरे कमरे में अक़्सर आया करते थे और मैं उनके घर अक़्सर जाया करता था। कपूर साहिब का दिमाग़ सुझाव देने में बहुत चलता था। वह मज़ाक-मज़ाक में बीसियों सुझाव हर किसी को देते रहते थे, मुझे भी बहुत सुझाव उन्होंने दिये। विभाजन के बाद मैं उन्हें मिलने दिल्ली से मोगा गया जहाँ वे एक कॉलेज के प्रिसिंपल बन गये थे। एक रात मैं उनके यहाँ रहा। उन दिनों चम्पा से मेरी शादी की बात-बहस चल रही थी। मैंने उन्हें बताया कि मैं शादी कर रहा हूँ तो वह मेरे इरादे के खिलाफ़ दलीलों का ढेर लगाने लगे। बोले, ये ग़लती कभी मत करना, अगर लेखक होना चाहते हो तो। बोले, हस्तमैथुन करते रहो, वैश्यावृत्ति करते रहो, इधर-उधर झक मारते रहो, लेकिन शादी से सारी उम्र परहेज़ करो। मैं सुनता रहा और चुप रहा। कुछ वर्ष बाद जब हम दिल्ली से चण्डीगढ़ चले गये, एक बार वह हमारे घर आये और पहली बार चम्पा से मिले। तब उन्होंने हमारी शादी और उसके खिलाफ़ उनके सुझावों के क़रीब दस-बारह साल बाद ये मान लिया कि चम्पा के साथ शादी करके मैंने ठीक ही किया।
अब मैं व्यतीत में गोते लगाते-लगाते थक गया हूँ।
वैदार्जन बाबा
उदयन- क्या आपको विभाजन के समय के कुछ ऐसे दृश्य याद हैं जिनसे आज भी आपके मन में उन दिनों की विभीषिका एकबारगी जाग उठती हो। आप खुद उन दिनों अँग्रेज़ी राज के बारे में क्या सोचते थे?
वैद साहब- डेरा बख़्शियान में हिन्दू-मुस्लिम दंगे मार्च-अपै्रल, 1947 में ही हो गये थे। हम वहाँ नहीं थे लेकिन पिता के बड़े भाई और उनके एक पुत्र परिवार समेत वहाँ थे। उन्हें गाँव के मुसलमानों ने ख़बरदार कर दिया था कि वे वहाँ से चले जाएँ क्योंकि अब उनका वहाँ रहना खतरनाक है। इसलिए वह कुछ सामान लेकर कहीं और, रावलपिण्डी या किसी और जगह चले गये थे।
हम उनके बारे में चिन्तित तो थे लेकिन इससे ज़्यादा मुझे कुछ याद नहीं उनके बारे में। विभाजन के बाद ही हम उनसे दिल्ली में मिले क्योंकि वह भी दिल्ली में ही थे।
लाहौर में, मुझे याद है, 1947 की गर्मियों की छुट्टियों के शुरू होने से पहले ही तनाव शुरू हो गया था। जिस इलाके में हमारा मोहियाल होस्टल था, जिसमें कई कॉलेजों के लड़के रहा करते थे (उनकी संख्या 100 के क़रीब थी), उसमें ज़्यादा संख्या हिन्दुओं और सिक्खों की ही थी लेकिन ख़तरा शुरू हो गया था कि रात को मुसलमान इलाकों से हमला हो सकता था, इसलिए पता नहीं किस महीने में, शायद अपै्रल में हमारे होस्टल में भी रात का पहरा शुरू हो गया था, जिसमें हम सब बारी-बारी पहरा दिया करते थे।
डिंगा में मुझे याद नहीं कि मैं किस महीने की किस तारीख को पहुँचा था। लेकिन ये मुझे याद है कि उस कस्बे की हवा और फ़ज़ा बदल गयी थी। ये ख़तरा शुरू हो गया था कि आस-पास के मुसलमान, गाँव के कई मुसलमान डिंगा पर हल्ला बोल देंगे। डिंगा में कई हिन्दू साहूकार थे, जो आस-पास के मुसलमानों को सूद पर कर्ज़ दिया करते थे। वह सब साहूकार अपनी बेईमानी के लिए मशहूर और बदनाम थे। इसलिए ये शक निराधार नहीं था कि मुसलमान अन्दर से हिन्दुओं और सिक्खों से, जिन्हें हिन्दू ही समझा जाता था, नफ़रत करते हैं। हिन्दू और सिक्ख मुसलमानों के साथ उठते-बैठते तो थे लेकिन खाते-पीते नहीं थे। डिंगा के बाज़ार में मुसलमानों की दुकानें थी लेकिन बहुत ही कम। मेरे उपन्यास, ‘गुज़रा हुआ ज़माना’ में डिंगा की मिली-जुली आबादी और ज़िन्दगी की जो तस्वीर उभरकर आती है, उससे पता चलता है कि उसमें किस तरह की पेचीदगी थी, किस तरह की ख़तरनाक सम्भावनाएँ थी, किस तरह के विस्फोटक आपसी सन्देह थे, किस तरह की आपसी दुविधाएँ थी। डिंगा और उसके आस-पास के गाँव को मैं समूचे पंजाब बल्कि भारत का आईना मानता हूँ।
मुझे यकीन था कि वहाँ जो कुछ होगा कल्पनातीत होगा। सदियों के बड़े-घुटे आपसी कीने और कमीनगियाँ, घृणाएँ और विकृत आकर्षण फटें-फूटेंगे और वही वहाँ हुआ। उसी तरह के विस्फोट उन इलाकों में भी हुए होंगे जिनमें मुसलमान कम संख्या में थे।
मैंने लाशों के ढेर तो नहीं देखे लेकिन जिस अस्थाई कैम्प में हम एक-दो दिन डिंगा में रहे, उसके कुछ दृश्य ‘गुज़ारा हुआ ज़माना’ में हैं। एक छोटा-सा बच्चा याद आता है जो लावारिस पड़ा कराह रहा था, अकेला; मैं भी उसके पास रुका नहीं, रुक नहीं सका। डिंगा से हमें मिलिट्री के ट्रकों में बिठाकर मण्डी बहाउद्दीन ले जाया गया था; वह शहर डिंगा से शायद पचास-साठ मील की दूरी पर था। रास्ते में कई गाँव पड़ते थे जहाँ के मुसलमानों ने हमें कुछ खाने-पीने को दिया, जो कुछ मिला, लोगों ने चुप-चाप खा भी लिया, जिनमें मैं, मेरे पिता, मेरे छोटे भाई और मुन्नी थे, लेकिन मुझे याद है बहन देवकी और माँ ने कुछ खाया न पिया।
मण्डी बहाउद्दीन में हमें किसी स्कूल में ठहराया गया। वहाँ हम शायद महीना भर रहे। वहाँ हर शाम कुछ जवान हिन्दू आदमी एक बैठक किया करते थे, मैं भी कभी-कभी उनके बीच जा बैठता था, कुछ देर के लिए। लेकिन उनकी बातें मुझसे सुनी नहीं जाती थी। वह अपनी बहादुरी और बर्बरता के क़िस्से सुनाया करते थे, किस तरह से उनने मुसलमान हमला करने वालों का मुक़ाबला किया, कितने दुश्मनों को उनने मारा, कितने हिन्दू और सिक्खों को उनने बचाया, कितनी बन्दूकें उनके पास थीं और कितने छुरे और चाकू और कितने ईंटें और पत्थर और लाल मिर्चें। मैं चुप-चाप सुनता रहता और फिर भीगी बिल्ली की तरह उठकर इधर-उधर हो जाता।
कुछ दिनों बाद मुझे पता चला कि मेरे एक सिक्ख दोस्त, सुरजीत सिंह की माँ अपनी एक जख़्मी बहू के साथ उसी स्कूल की एक कोठरी में है। उसकी बेटी मेरे एक दूसरे सिक्ख दोस्त हरदयाल सिंह की बीवी थी। हरदयाल सिंह और सुरजीत सिंह डिंगा की एक ही गली में रहते थे। उनके घर पास-पास थे। सुरजीत सिंह को उसकी माँ ने ज़िद्द करके किसी शरणार्थी गाड़ी में अमृतसर भेज दिया था जहाँ उनके कोई रिश्तेदार रहते थे। सुरजीत की माँ विधवा थी। मैं हरदयाल और सुरजीत के घर गया था। सुरजीत की बहन बालो, जिसका पूरा नाम मैं नहीं जानता था, बहुत सुन्दर थी। हरदयाल और जीता मेरे सहपाठी भी थे। हरदयाल के परिवार के सारे लोग मारे गये थे। उसकी बीवी बालो बच तो गयी थी लेकिन बुरी तरह से ज़ख्मी थी। उसके माथे का घाव बहुत हौलनाक था। मैं जीते की माँ और बालो के पास काफ़ी-काफ़ी देर तक बैठा रहता था और बालो के अर्नगल प्रलाप सुनता रहता था। जीते की माँ उसे रोकती-टोकती और समझाती-बुझाती रहती थी कि उसे अब हौसला रखना चाहिए क्योंकि अब उनका रखवाला वाहे गुरू ही है। बालो बार-बार मुझे यही बताती रहती थी कि उसकी टाँगे टूट गयी है, क्योंकि उसने ऊपर से छलाँग लगा दी थी, मरने के लिए, जब उसने ‘उन्हें’ मारे जाते देखा। ‘उन्हें’ से उसका मतलब अपने पति हरदयाल से होता।
फिर मुझे पता ही नहीं चला कि वे दोनों कब किसी शरणार्थी ट्रेन में बैठ कहाँ चले गये या उनका क्या हुआ। हम भी एक शरणार्थी गाड़ी में बिठा दिये गये कुछ दिनों बाद। फिर हम जालन्धर के शरणार्थी कैम्प में कुछ दिन या महीने रहे।
विभाजन की विभीषिका कराहते हुए उस छोटे से लावारिस बच्चे और जख़्मी बालो के अनर्गल प्रलापों में ही सीमित होकर मेरी स्मृति को अभी तक कचौटती रहती है।
उन दिनों और दिल्ली में पुनर्वास के बाद कई दोस्तों से कई बार विभाजन पर बहस और बात हुई। ‘उसका बचपन’ तो मैंने 1956 में ही पूरा कर लिया था लेकिन ‘गुज़रा हुआ ज़माना’ मैं 25 वर्ष बाद ही लिख सका। ये तथ्य भी उस अनुभव की संश्लिष्टता और काठिन्य का द्योतक है।
उदयन- आप जैसा पढ़ाकू अपनी शुरुआती जवानी के दिनों में और भी बहुत कुछ पढ़ता रहा होगा। आपके दोस्तों की सूची लम्बी है। हम उनमें से अनेक पर बात कर सकते हैं। शुरुआत एक उपन्यासकार से ही करते हैं। मैं आपसे सबसे पहले भोपाल में मिला था। तब आप निर्मल वर्मा के साथ वहाँ आये थे। आप दोनों एक-दूसरे के साथ लगभग लगातार हँस रहे थे। आप दोनों की वह हँसी मुझे अब भी याद आती है। आपको निर्मल वर्मा के साथ बिताये अपने शुरुआती दिन याद हैं? आपकी उनसे मुलाकात किन लोगों के बीच हुई थी?
वैद साहब- स्कूल के दिनों में पढ़ता कम था, कुढ़ता और गुढ़ता ज़्यादा था। घर में आर्थिक तंगी के कारण कलह अधिक होती थी, किताबें बिलकुल नहीं होती थी। मैंने आठवीं या नवीं के साथ फ़ारसी में मुंशी, यानि फ़ारसी के तीन इम्तिहानों, मुंशी, मुंशी आलम, मुंशी फ़ाजिल का इम्तिहान भी पास कर लिया था, बशीर अहमद शाह साहिब से ही पढ़ कर। उसके लिए मुझे फ़ारसी की कई किताबें भी पढ़ने को मिल गयी थी दीवाने हाफ़िज़ वगैरह, उनमें अरबी का भी एक छोटा-सा संकलन हुआ करता था, जिसका नाम मुझे अभी तक याद है- सुल्लम-उल-अदब अर्थात् साहित्य की सीढ़ी। कस्बे में हमारी जान-पहचान के कुछ लोगों को ख़तरा होने लगा था कि मैं मुसलमान बन जाऊँगा। लेकिन मुंशी पढ़ने का यह फ़ायदा मुझे बताया गया था कि मैं इण्टरमीडियट सिर्फ़ अँग्रेज़ी का इम्तिहान देकर ही पास कर लूँगा और मेरे माता-पिता को कॉलेज का बोझ नहीं उठाना पड़ेगा। बाद में अगर मैंने मुंशी आलम कर लिया तो मैं बी.ए. की डिग्री सिर्फ़ अँग्रेज़ी का इम्तिहान पास करके हासिल कर सकूँगा।
जिन हिन्दी और उर्दू लेखकों को मैं कॉलेज में पसन्द करता था, उनमें से प्रेमचन्द और सुदर्शन और राजिन्दर सिंह बेदी और इस्मत चुक़तई और ग़ालिब और मीर और ज़ौक और इक़बाल के नाम मैं लूँगा। सुदर्शन और प्रेमचन्द को मैं उर्दू में ही पढ़ता था। अँग्रेज़ी के उपन्यासकारों में मुझे डिकेंस और हार्डी और लॉरेंस बहुत पसन्द थे। पढ़ने का शौक या चस्का मुझे कॉलेज के दिनों में ही पड़ा। एम.ए. में बुखारी और कपूर के मज़ाहिया और तंज़िया मज़ामीन मैं बहुत चाव से पढ़ता था। लेकिन ‘पढ़ाकू’ मैं बाद में ही बना, जब मैंने कुछ कमाना और किताबें खरीदना और लाईब्रेरी जाना शुरू कर दिया और बाक़ायदा या बेक़ायदा लेखक भी बन गया।
मुझे भी भोपाल की वह यात्रा याद है। निर्मल और मैं किसी सरकारी गेस्ट हॉउस के एक ही कमरे में ठहराये गये थे। वह यात्रा शायद 1984 में हुई थी। तब तक निर्मल के साथ मेरी दोस्ती पुरानी, परायी और किसी क़दर कसैली भी हो चुकी थी लेकिन फिर भी बीच-बीच में यह तथ्य हम दोनों भूल जाया करते थे, जान-बूझ कर भी और वैसे भी और तब पुरानी पारस्परिक अनुकूलता लौट आया करती थी और हम किसी भी बात बेबात पर बेतहाशा हँसने और लोट-पोट होने लगते थे। उस यात्रा में भी ऐसा कई बार हुआ था।
निर्मल और रामकुमार से मुलाकात दिल्ली के करोलबाग, जिसे मैं टाँगेवालों की तरह जानबूझकर करोलीबाग कहा और लिखा करता था- अमेरिका से निर्मल को ख़त लिखते वक़्त लिफ़ाफे पर उसका पता लिखते समय अनायास ‘करोलबाग़’ के बजाय ‘करोलीबाग़’ लिख दिया करता था और निर्मल की हँसी की कल्पना कर मुस्करा दिया करता था। 1950 में जब मैं जालन्धर डी.ए.वी. कॉलेज से मुअत्तल होकर दिल्ली आया, हंसराज कॉलेज में अँग्रेज़ी की लेक्चररशिप शुरू करने के लिये, तो एक साल मैं इस्ट पटेल नगर में किराये के एक कमरे में रहा। बाद में मैंने न्यू राजिन्दर नगर में किराये का मकान ले लिया। वहाँ पटेल नगर में मेरे पड़ोस में भीष्म साहनी रहते थे। उनसे जान-पहचान अपने उस्ताद और दोस्त ओ.पी. मोहन के द्वारा हुई जो जाट कॉलेज, रोहतक में अँग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर थे और भीष्म को और मुझे अच्छी तरह से जानते थे। तब तक मैं जालन्धर में एक साल की नौकरी और रिहाईश के दौरान वहाँ कई उर्दू-हिन्दी-पंजाबी के कवियों और लेखकों के सम्पर्क में आ चुका था, एक-दो कहानियाँ उर्दू में लिख चुका था और ‘शंकरर्स वीकली’ में मेरे तीन मज़ाहिया लेख अँग्रेज़ी में प्रकाशित हो चुके थे, ‘केबी’ के उपनाम से। भीष्म ने मुझे बताया कि उर्दू के एक लेखक देविन्दर इस्सर ने करोलबाग में एक संस्था बनायी है ‘कल्चरल फोरम’ के नाम से, जिसमें हिन्दी, उर्दू, पंजाबी और अँग्रेज़ी के कुछ नये लेखक हर हफ़्ते इतवार को एक प्राइवेट कोचिंग कॉलेज में मिलते और कहानियाँ-कविताएँ पढ़ते और उनपर धूँआधार बहस करते हैं, तुम भी वहाँ आया करो। देविन्दर इस्सर का नाम मैंने सुन और पढ़ रखा था। वहीं महेन्द्र भल्ला, भीष्म साहनी, रामकुमार, निर्मल, देविन्दर इस्सर के अलावा कुछ और नये लेखकों से मुलाकात हुई और उनमें से कई मेरे दोस्त बने। फिर निर्मल के द्वारा मैं स्वामीनाथन से भी मिलने लगा और वह भी मेरा दोस्त बनता गया। निर्मल और मैं कनॉट प्लेस और इण्डिया कॉफ़ी हाउस भी जाने और बैठने लगे। रामकुमार नया-नया पेरिस से लौटा था और वहाँ की बातें सुनाया करता था। चम्पा से जब 1952 में शादी हुई तो उसने मुझे बताया कि उसका परिवार करोल बाग के उसी इलाके में निर्मल के पड़ोस में ही रहता था और वह भी निर्मल, रामकुमार और उनकी माँ को अच्छी तरह से जानती थी। हंसराज कॉलेज का मेरा एक साथी और दोस्त, धरम नराय, जो अर्थशास्त्र का लेक्चरर उसी दिन बना था जिस दिन मैं अँग्रेज़ी का और जल्द ही मेरा हँसोड़ दोस्त भी बन गया था, सेण्ट स्टीफन्स कॉलेज के दिनों से निर्मल और रामकुमार को खूब जानता था, इसलिए भी निर्मल और रामकुमार से दोस्ती हो जाने में देर और दिक्कत नहीं हुई। वैसे भी हम सब तब वामपन्थी हुआ करते थे- निर्मल, रामकुमार, स्वामी, धरमु (धरम नराय) तो तब पार्टी के मेम्बर भी थे। निर्मल और रामकुमार के घर के पास ही सड़क पर एक गन्दे नाले के किनारे पान-सिगरेट की एक खोखा-दुकान हुआ करती थी, जिससे निर्मल और मैं और कभी-कभी स्वामी पान-बीड़ी लिया करते थे; वह हमारा छोटा-सा अड्डा हुआ करता था। वहाँ भी हमें एब्सर्ड हँसी के दौरे खूब लोट-पोट किया करते थे।
उस ‘कल्चरल फोरम’ का, जो कई बरस चला, जहाँ से हिन्दी के कई नये लेखक उभरे, हम सब के साहित्यिक परवान में काफ़ी योगदान रहा, और ख़ास तौर पर हमारी हँसी में, जिस पर कभी-कभी रामकुमार बिगड़ भी जाता था, जैसाकि एक दिन उसके मथुरा रोड वाले घर में जब निर्मल और मैं हुसैन की मौजूदगी में बेतहाशा हँसते ही जा रहे थे और हुसैन भी हमारी हँसी में शामिल हो गये थे लेकिन रामकुमार गुस्से से लाल-पीला होता रहा था।
उसी ‘कल्चरल फोरम’ में हमारी पहली मुलाकात श्रीकान्त वर्मा, मनोहर श्याम जोशी, नरेश मेहता, नेमी जी और प्रयाग नारायण त्रिपाठी से हुई थी। वे दिन भी खूब और खूबसूरत हुआ करते थे।
उदयन- भीष्म साहनी के पड़ोस में रहते हुए आप के दिमाग़ में उनकी क्या छवि बनी थी? उनके लेखन के बारे में उन दिनों आपके क्या ख़यालात थे? मैं यह इसलिए भी पूछ रहा हूँ क्योंकि आपके और उनके लेखन के बीच मीलों का फ़ासला है, जैसा कि आपके और निर्मल जी के लेखन के बीच भी। उन दिनों आपका लेखकीय स्वभाव आकार ले रहा होगा और इन सब लेखकों की कृतियों पर आप निश्चय ही सोचते रहे होंगे। तब तक आपने ‘उसका बचपन’ भी नहीं लिखा था।
वैद साहब- भीष्म साहनी से बतौर लेखक परिचित होने के पहले ही मैं जालन्धर डी.ए.वी. कॉलेज में गुज़ारे एक वर्ष के दौरान उनके नेता-पक्ष से परिचित और प्रभावित हो गया था। वह पंजाब यूनिवर्सिटी टीचर्स यूनियन के जनरल सेक्रेटरी हुआ करते थे। मैं यह जानता था कि वह बलराज साहनी के छोटे भाई हैं। बलराज साहनी की पहली फ़िल्म ‘धरती के लाल’ मैंने लाहौर में एम.ए. के दिनों में देख ली थी और ये भी जान गया था कि उनके एक भाई भीष्म साहनी डी.ए.वी. कॉलेज रावलपिण्डी में अँग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर हैं। शायद रावलपिण्डी के अपने बी.ए. के दिनों में भीष्म को दूर से जानता भी था, हालाँकि मैं सनातन धर्म कॉलेज में पढ़ रहा था। भीष्म साहनी मुझसे 12 साल बड़े थे, बेशक एक दूसरे को जान लेने के बाद हमारी उम्रों का फ़र्क बहुत जल्द ही कहीं उड़-सा गया था।
विभाजन के बाद भीष्म ने जी.एम.एन. कॉलेज, अम्बाला में अँग्रेज़ी की प्रोफ़ेसरी शुरू कर दी थी। उस कॉलेज के प्रिसिंपल बलराज साहनी की पहली बीवी दमयन्ती उर्फ़ दम्मों के बड़े भाई थे, जिनका नाम इस वक़्त मुझे याद नहीं आ रहा। वही रावलपिण्डी के डी.ए.वी. कॉलेज के एक मशहूर और बने-ठने प्रिसिंपल हुआ करते थे; रावलपिण्डी में उनकी बड़ी धूम थी। मैंने भी उनका नाम सुना हुआ और उन्हें देखा भी हुआ था। वह देखने में बहुत भव्य हुआ करते थे और पोशाक में भी, पण्डित नेहरू और अज्ञेय की तरह और तर्ज़ पर ही। उनका बलराज साहनी और भीष्म साहनी पर बड़ा असर था, आर्य समाजी और काँग्रेसी असर जिसकी शिकायत बाद में भीष्म मुझसे भी किया करते थे। खैर, 1949-50 में भीष्म को जी.एम.एन. कॉलेज की प्रोफ़ेसरी से निकाल दिया गया और सारे पूर्वी पंजाब के कॉलेजों में उस कदम के ख़िलाफ और भीष्म के हक में एक प्रतिरोध तहरीक़ चल उठी, जिसमें मोहन राकेश और मैं जो दिल्ली से नये-नये जालन्धर गये थे- मैं अँग्रेज़ी विभाग में और राकेश हिन्दी में- भी शामिल हो गये, भाषण देने लगे, अपने कॉलेज की हड़ताल में सबसे आगे थे। उन्हीं दिनों मैं पहली बार भीष्म से मिला भी, जालन्धर में ही। उस वक़्त तो हमारे खिलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की गयी लेकिन एक साल बाद जब हमारे पक्के होने का वक़्त आया तो नये प्रिंसिपल ने हमें जवाब दे दिया। यूनियन की स्थानीय शाखा ने कुछ शोर मचाया लेकिन राकेश और मेरी जालन्धर से छुट्टी हो गयी। उसके कुछ ही दिन बाद मैंने ‘शंकरर्स वीकली’ के लिये केबी के नाम से अपना दूसरा व्यंग्य लिखा, जिसका शीर्षक था, ‘चार्ज शीट’। भीष्म से बेतकल्लुफ़ दोस्ती हो जाने के बाद मैं उससे मज़ाक किया करता था, तुम्हारे लिये मैंने कई कुर्बानियाँ कीं, जालन्धर की पहली नौकरी से निकाला गया और मुझे हंसराज कॉलेज आना और हिन्दी का लेखक बन जाना पड़ा!
मेरे जवाब की भूमिका लम्बी हो गयी लेकिन शायद भीष्म के लेखकीय पक्ष के बारे में अपनी राय देने से पहले मैंने उसे ज़रूरी समझा।
उनके पड़ोस में रहते हुए और कल्चरल फोरम में उनसे मिलते और उसके बाद गप्प मारते हुए, और उन्हें पढ़ते हुए मैंने उन्हें हमेशा एक हद तक पसन्द किया है, ख़ास तौर पर उनके नर्म और नाजुक ह्यूमर (हास्य) को और उनके शरारती अंदाज़ को, लेकिन मैंने अक्सर उनके लेखन को किसी कदर ‘आर्यसमाजी’ भी समझा और कहा है। भीष्म मुझे राकेश और अश्क और यादव से तो बेहतर लेखक लगते हैं लेकिन उनकी आधुनिकता को उनकी प्रगतिशीलता और उनके आर्य समाजी संस्कार दबाये रहता है। उनके भोलेपन का मैं मज़ाक उड़ाया करता था- उनकी एक कहानी युद्ध के खिलाफ़ और शान्ति के प्रचार को लेकर है जिसमें आख्याता अपनी माँ को सम्बोधित कर कहता है, मेरे अनुसार, ‘माँजी, लोग लड़ते-मरते क्यों है, क्यों नहीं एक दूसरे को प्यार करते, दुलारते और खिलाते-पिलाते।’ लेकिन उनकी कई कहानियाँ मुझे पसन्द भी है जैसे ‘क्रिकेट मैच’, ‘साग-मीट’, ‘चीफ़ की दावत’, ‘लेनिन का साथी’, कई और जिनके नाम मेरी कम होती हुई याद की पकड़ में नहीं आते।
मैंने उन्हें घटिया लेखक कभी नहीं समझा या कहा, न ही उबाऊ, न ही बनावटी और बेईमान लेकिन सीमित-संयमित, सुधारवादी और अनाधुनिक हमेशा कहा और समझा है।
उदयन- आप बता रहे थे कि आपने बी.ए. के पहले भी नौकरी की है।
वैद साहब- लाहौर से इण्टरमीडियट के बाद और रावलपिण्डी में बी.ए. के लिये दाखिल होने से पहले मैंने अपने रिश्तेदार भाई की कोशिश-सिफ़ारिश-सलाह से रावलपिण्डी में एक सरकारी ऑर्डिनेंस डिपो में दो या तीन महीने अस्थायी क्लर्की भी की। रहने के लिए एक और दूर की बूढ़ी मौसी के दो छोटे-छोटे कमरों में जगह भी मिल गयी। उस मौसी के पास उसका एक बेटा रहता था। मुझे कुछ पता नहीं कि वह क्या करता था। मैंने उसे ‘गिलासों’ गर्म दूध और ‘ढेरों’ रोटियाँ वगैरह खाते और मालिश के बाद ‘घण्टों’ वर्जिश करते ही देखा। मैं उससे डरता तो था लेकिन वह भीतर से भोला हुआ करता था। ज़ाहिर है वह हट्टा-कट्टा और क़द-काठी में मुझ से दोगुना था। मेरी उम्र उस समय सिर्फ़़ 17 की थी और मेरा क़द बहुत छोटा और बेरौनक था। दफ़्तर में मेरा बॉस एक अँग्रेज़ हुआ करता था। मैं उससे भी डरता था। लेकिन मेरा एक साथी क्लर्क चोरी-चोरी और चुपचाप मेरी मदद करता रहता था।
उस आर्डिनेंस डिपो का अलार्म दूर से ही सुनायी दे जाता था; सुबह को वह एक जानवराना आवाज़ में दहाड़ते हुए हम सबको अपने अन्दर खींच लिया करता था और शाम पाँच बजे उसी आवाज़ से हमें बाहर धकेल-उगल दिया करता था। मैंने उस अलार्म के इर्द-गिर्द एक कहानी बुनने की नाकाम कोशिश उन्हीं दिनों की थी। मैं अपनी मजूरी में से कुछ उस बुढ़िया मौसी को देता था, कुछ डिंगा अपने घर भेज देता था, और कुछ अपने जेब खर्च के लिये भी बचा लिया करता था। उस समय मुझे कोई बुरी आदत नहीं थी।
रावलपिण्डी के कॉलेज में बी.ए. के बाद और डिंगा के स्कूल में दो-तीन महीने मास्टरी और लाहौर गवर्नमेंट कॉलेज में एम.ए. के लिये दाखिल होने से पहले मैंने बाकायदा नौकरी की तलाश की थी और सिविल सप्लाई विभाग में आवेदन-पत्र भेजा था। उसके लिए इण्टरव्यू में बुलाया भी गया था। मुझे सियालकोट में एक डेप्युटी कमिश्नर के हुजूर में पेश होना था। लाहौर के दिनों का मेरा एक दोस्त वेद नरूला सियालकोट के पास ही एक शहर में रह रहा था। वहाँ उसके पिता वकील थे। मैं इण्टरव्यू से पहले एक-दो दिन उसके घर रहा। उन्हीं एक-दो दिनों में मैंने सायकल चलाना सीखा। वह डेप्युटी कमिश्नर बहुत अच्छा और संवेदनशील व्यक्ति निकला। उसने मुझे समझाया कि वह मुझसे और मेरी ज़हानत से प्रभावित हुआ है लेकिन उसकी राय में मुझे आगे पढ़ना चाहिये, अगर हो सके तो, क्योंकि सिविल सप्लाई विभाग की इन्सपेक्ट्री की दौड़-धूप और बेईमानियाँ मेरे बस की नहीं होंगी। उसकी बात सुन मैंने उस नौकरी का इरादा छोड़ दिया और दो-तीन महीने डिंगा में अपने स्कूल की मास्टरी के बाद गवर्नमेंट कॉलेज लाहौर में अँग्रेज़ी एम.ए. में दाखिल हो गया।
जालन्धर की नौकरी के मेरे इण्टरव्यू का क़िस्सा भी बहुत दिलचस्प है। सुनाता हूँ। जब मैंने वहाँ आवेदन-पत्र भेजा, उस कॉलेज के प्रिंसिपल लाला ज्ञानचन्द हुआ करते थे। उन्होंने मुझे जवाब दिया, अपने हाथ से लिखे हुए ख़त में कि मैं उन्हें दिल्ली में ही फ़लाँ दिन, फ़लाँ पते पर, फ़लाँ वक़्त पर मिलूँ और मेरे किसी दोस्त ने अगर मेरे साथ कैम्प कॉलेज से अँग्रेज़ी में ही एम.ए. पास किया हो और वह नौकरी की तलाश में हो तो मैं उसे भी अपने साथ इण्टरव्यू पर लेता आऊँ।
मैंने तब कैम्प कॉलेज के पिछवाड़े खुले मैदान में लगे तम्बू-होस्टल में ही रहने की इज़ाजत कॉलेज के प्रिंसिपल से ले रखी थी। मैं होस्टल में ही खाना खाया करता था। वहाँ मेरा ‘हिसाब’ चलता था और मेस का ठेकेदार मेरा एतबार किया करता था। रावलपिण्डी के मेरे दो दोस्त, केदारनाथ उर्फ़ शेक्सपियर और पृथ्वीचन्द उर्फ़ ‘लोहा’ सब्ज़ी मण्डी से पैदल हर शाम मेरे तम्बू-होस्टल में आया करते थे, मेरे ‘हिसाब’ से खाना खाने। सब्ज़ी मण्डी मेरे होस्टल से कई मीलों की दूरी पर थी। उन दोनों ने भी मेरे साथ ही कैम्प कॉलेज से अँग्रेज़ी में एम.ए. किया था। वह रावलपिण्डी में बी.ए. में मेरे सहपाठी हुआ करते थे। एम.ए. में वह दोनों वहीं रह गये थे और मैं लाहौर चला गया था। विभाजन के बाद वह दोनों भी लुटे-पिटे उधर से इधर हिन्दुस्तान आ गये थे, हम कैम्प कॉलेज में फिर मिल गये थे।
उस शाम जब वह दोनों आये, मैंने उन्हें प्रिंसिपल ज्ञानचन्द का पत्र दिखाया। पृथ्वीचन्द आई.ए.एस. की तैयारी करना चाहता था और बाद में वह उसमें कामयाब भी हो गया लेकिन केदारनाथ की बाँछे खिल गयीं। उसने उस शाम खूब खाया, बहुत उछला, वह क़द में मुझसे भी छोटा था, पृथ्वीचन्द के साथ चलता हुआ वह उससे आधा लगता था क्योंकि पृथ्वी मुझसे भी बहुत लम्बा था। वह रावलपिण्डी के दिनों में बतौर शेक्सपियर मशहूर हो गया था क्योंकि वह हमेशा अँग्रेज़ी में बोलता था और किताबें बहुत पढ़ता था। वैसे भी वह सनकी था और बहुत सी अण्ट-सण्ट जानकारियाँ उसे थी।
केदारनाथ इण्टरव्यू वाले दिन मेरे साथ प्रिंसिपल साहेब के बताये हुए पते पर पहुँच गया। हम एक बैठक-सी में बिठा दिये गये। थोड़ी देर बाद पिं्रसिपल साहेब आये तो उन्होंने सूती पायजामे के ऊपर एक ऊनी पायजामा भी पहना हुआ था जिसके नीचे से सूती सफ़ेद पायजामा का पाँयचा झाँक रहा था। हम दोनों ने उसे देख लिया लेकिन केदारनाथ से रहा न गया, वह बोला, ‘प्रिंसिपल साहिब, ये आप बहुत अच्छा करते हैं कि सूती पायजामे के ऊपर ऊनी पायजामा भी पहन लेते हैं, इससे आपकी टाँगे खूब गर्म रहती होंगी।’ प्रिंसिपल साहेब मुस्करा दिये और बोले ‘मैं जब कॉलेज में पढ़ता था तब भी यही किया करता था।’ केदार बोला, ‘ठीक ही करते थे आप।’
केदारनाथ की ऐसी ही और कुछ बातों के बावजूद हम दोनों उस इण्टरव्यू में सफल हो गये और हमें उसी समय दो हस्त-लिखित नियुक्ति पत्र भी मिल गये। जब हम उस घर से निकले, हमारी खुशी का कोई ठिकाना नहीं था।
उदयन- जालन्धर और बाद में हंसराज कॉलेज में पढ़ाने के आपके क्या अनुभव थे। क्या उन दिनों जालन्धर और दिल्ली के छात्र अँग्रेज़ी पढ़ने में बहुत अधिक रूचि ले रहे थे। क्या उनमें से अधिकतर साहित्य में ही शोध आदि करना चाहते थे या आपकी तरह पढ़ाना या फिर अँग्रेज़ी पढ़ना वे इसलिए चाहते थे कि उन्हें आई.ए.एस. जैसी कोई परीक्षा पास करने की आकांक्षा थी। क्या आपको उन दिनों के अपने कुछ छात्र या साथी याद हैं? आपने जहाँ पढ़ाया, उन कॉलेजों का क्या परिवेश था? क्या उन दिनों छात्रों और शिक्षकों में भारतीय साहित्य को लेकर उत्सुकता थी जैसी मसलन स्वतन्त्रता के पहले हुआ करती थी?
वैद साहब- जालन्धर के डी.ए.वी. कॉलेज में पढ़ाना केदारनाथ और मैंने एक ही दिन शुरू किया था। हम कुछ दिन डी.ए.वी. कॉलेज के मेहमानघर के एक ही कमरे में रहे भी। लेकिन केदारनाथ को लड़कों को अनुशासित करने में इतनी दिक्कत आयी कि वह नौकरी छोड़ देने पर तैयार हो गये तब प्रिंसिपल ज्ञानचन्द ने एक विकल्प उसे सुझाया। डी.ए.वी. संस्था जालन्धर में ही एक महिला कॉलेज भी चलती थी। प्रिंसिपल ज्ञानचन्द ने उन्हें घर बुलाकर सुझाया कि वह उस महिला कॉलेज में पढ़ाना शुरू कर दे। वह तुरन्त मान गया और वहाँ चला गया।
अनुशासन की समस्या मेरे सामने भी उठी थी शुरू-शुरू में, लेकिन जालन्धर में विभाजन के फ़ौरन बाद मैं अपने परिवार समेत एक शरणार्थी कैम्प में जब रहा था, डी.ए.वी. कॉलेज के एक एथलीट विद्यार्थी स्वयंसेवक से मेरी दोस्ती हो गयी थी। जब मैं 1949 के शुरू में जालन्धर के उसी कॉलेज में लेक्चरर बनकर गया तो वह जाट लड़का, परसा सिंह, वहीं था। उसकी उस कॉलेज में बड़ी धाक हुआ करती थी। उसने अपने चेलो-चाटों को फ़रमान दे रखा था कि मेरी क्लासों में चूँ-चारा तक न करें। जिस क्लास में वह खुद नहीं होता था, बाहर बरामदे में खड़ा हो पहरा दिया करता था। इसलिए भी मुझे दिक्कत नहीं हुई थी।
तीन महीनों के बाद प्रिंसिपल ज्ञानचन्द वहाँ से चले गये और उनकी जगह प्रिंसिपल सूरजभान आ गये। उनके नाम से मैं वाकिफ़ था क्योंकि लाहौर में मोहयाल होस्टल के पीछे उनका मकान हुआ करता था और वह लाहौर में किसी डी.ए.वी. हाईस्कूल के हेड मास्टर हुआ करते थे। विभाजन के बाद ही शायद वह किसी डी.ए.वी. कॉलेज के प्रिंसिपल बने। उन्होंने ही एक साल बाद मुझे और मोहन राकेश को कन्फर्म न करने का फै़सला किया।
जालन्धर में सिर्फ़ एक साल ही रहा। उस साल की मुख्य घटना अम्बाला के जी.एम.एन. कॉलेज से पंजाब यूनीवर्सिटी टीचर्स युनियन से जनरल सेक्रेटरी भीष्म साहनी की मुअत्तली ही रही जिसका खामियाज़ा और लोगों के अलावा राकेश और मुझे भी भुगतना पड़ा।
मोहन राकेश से तब मेरी जान-पहचान तो थी, दोस्ती नहीं थी, वह दिल्ली लौटने पर ही हुई। वहाँ के विद्यार्थियों और साथियों में परसा सिंह के अलावा मैं बहुत कम का क़रीबी हो पाया। उस कॉलेज का परिवेश मेरे लिये पराया ही रहा। जालन्धर शहर में अलबत्ता उर्दू के मेरे कई दोस्त बन गये थे, जिनमें फ़िक्र तौंसवी और मखमूर जालन्धरी ख़ास हुआ करते थे। दोनों माकूल शायर थे, उम्र में मुझसे कुछ बड़े थे, हम अक्सर मिला और इकट्ठे घूमा करते थे। फ़िक्र बाद में दिल्ली आ गया था। वह नस्र भी लिखता था, तंज़िया और तकींदी। बरसों तक उसने एक बहुत ही अच्छा हफ़्तावारी कलम एक रोज़ाना उर्दू अख़बार से लिये लिखा- ‘प्याज़ के छिलके’।
जालन्धर के बाद और हंसराज कॉलेज, दिल्ली से पहले मैंने अम्बाला एस.डी. (सनातन धर्म) कॉलेज में भी दो महीने पढ़ाया जहाँ मेरे एक शागिर्द श्री एन.एन.वोहरा ने वर्षों बाद इण्डिया इण्टरनेशनल सेंटर में मेरे पाँव छूकर मुझे चकित कर दिया। पूछने पर उनने मुझे बताया कि मैंने उन्हें 1950 में एस.डी. कॉलेज में पढ़ाया था और उनसे एक बार कोई लम्बी बात की थी जो उन्हें अभी तक याद है। वह तब सेंटर के डायरेक्टर थे और अब शायद जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल हैं।
गवर्नमेंट कॉलेज में मेरे एम.ए. के सहपाठियों में से बहुत से आई.ए.एस. और आई.एफ.एस. में चले गये थे। मुझ पर भी लोगों का दबाव बहुत था लेकिन मैंने ज़्यादा मुश्किल रास्ता चुना।
हंसराज कॉलेज में मैंने आठ साल लगातार पढ़ाया; 1958 में तीन साल के लिये हार्वर्ड चला गया, पीएच.डी. करने; 1961 में हंसराज कॉलेज में वापस लौट आया; 1962 से 1966 तक मैं फिर हार्वर्ड में शोध कर रहा था कि मुझे स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ़़ न्यूयार्क एट पॉस्टडम से एक बुलावा आया कि मैं एक-दो साल के लिये वहाँ पढ़ाऊँ। मैं अमरीका में तब अकेला ही गया था। मैंने चम्पा को फ़ोन किया और चण्डीगढ़ में कुलपति सूरजभान को लिखा कि वह मुझे बिला तनख़्वाह छुट्टी दें। उन्होंने यह कहकर इंकार कर दिया कि वह मुझे खोना नहीं चाहते। मैंने केबल से त्यागपत्र दे दिया और चम्पा ने भी अपने सेंट जॉन्स स्कूल से त्यागपत्र दे दिया और तीनों बेटियों समेत मेरे पास चली आयीं।
उदयन- चम्पा जी से आपकी भेंट कहाँ हुई थी? आपका इश्क किस तरह परवान चढ़ा? क्या इससे पहले आपका ‘सेंटीमेंटल एजुकेशन’ हो चुका था और अगर हाँ तो उसकी भी दबी छुपी-सी चर्चा में कोई हर्ज़ तो नहीं।
वैद साहब- मेरी सच्चा ‘सेंटीमेंटल एज्युकेशन’ चम्पा से ही शुरू हुआ। मेरे जालन्धर और अम्बाला के बाद दिल्ली हंसराज कॉलेज में आ जाने के बाद, 1950 में। उससे शादी की बात तो तथाकथित पारम्परिक तरीके से किसी तीसरे ने ही चलायी थी लेकिन जल्द ही उस बात की बागडोर हम दोनों ने अपने-अपने हाथों में ले ली। मैं हंसराज कॉलेज में पढ़ाता था, वह किसी मॉण्टेसरी स्कूल में। साथ-साथ वह पढ़ भी रही थी।
पहली बार जब मैंने उसे दिल्ली यूनिवर्सिटी में इंग्लैण्ड से आयी हुई एक कम्पनी का प्रस्तुत किया हुआ ‘हेमलेट’ देखने के लिये बुलाया था तो वह बस से अकेली ही वहाँ पहुँची थी; मैं उसे वहीं मॉरिस हॉल में मिला था। मेरे कुछ दोस्त भी हॉल में मौजूद थे; वह भी हमारे साथ ही बैठे थे। रास्ते में कश्मीरी गेट के बस स्टॉप पर भी मेरा एक दोस्त पाण्डे, जिसे वह पहचानती थी, उसके साथ हो लिया था। नाटक के बाद हम यूनिवर्सिटी के कॉफ़ी हॉउस में भी कुछ देर अकेले बैठे थे। वापसी के किराये के लिए मेरी जेब में पैसे नहीं बचे थे। बस का टिकिट उसी ने खरीदा था। मैंने उसे उसके घर छोड़ा था। मैं भीतर नहीं गया था। अगली बार मिलने पर चम्पा ने मुझे बताया कि उसकी माताजी उससे बहुत नाराज़ हुई थी। उनने उसे एक धप्पड़ भी मारा था। वह खुद उस दिन से बीमार पड़ गयी थी, इसलिए मैंने उसके घर से बाहर मिलने-जुलने की अपनी ज़िद्द स्थगित कर दी थी और रोज़ रात को उसके घर जाना और ‘घण्टो’ वहाँ बैठे रहना शुरू कर दिया था। मैं सबसे पहले उसकी माताजी के पास बैठता था, उनका हालचाल पूछता था, उनकी मुठी-चापी करता था और फिर चम्पा और मैं दूसरे कमरे में बैठ जाते थे। हर किस्म की बातें होती थीं और कई किस्म की हरकतें। माँ की चम्पा को हिदायत थी कि वह मुझे दस बजे रात के बाद बैठने न दे। मैं उसे समझाता था कि रास्ता जंगली है और पैदल जाना खतरनाक है, मैं यहीं सो जाता हूँ। वह जब जाकर अपनी माताजी से यह सब कहती थी तो माताजी उसे झिड़क देती थी और कहती थी, तेरे जैीे बेवकूफ़ लड़की मैंने नहीं देखी। ये ड्रामा क़रीब हर रोज़ होता था। इससे तंग आकर मैंने अल्टीमेटम दे दिया कि मुझे बाहर मिलो, मेरे साथ मेरे बताये हुए दोस्तों के घर जाओ, मेरे साथ सैर-सपाटे पर निकलो, नहीं तो ये सिलसिला समाप्त समझो। ये कहकर गर्मी की छुट्टियों में मैं शिमला भाग गया था, चम्पा से नाराज़ होकर। फिर मेरे लौटने पर पता नहीं कैसे सुलह हुई। उस वक़्त के एक बड़े पक्के प्यारे और अलेखक लेकिन पढ़े-लिखे दोस्त को मैं इक़बाल का एक शेर बार-बार सुनाया करता था : इक़बाल तेरे इश्क ने सब ख़म दिये निकाल/मुद्दत से आरजू़ थी कि सीधा करे कोई।
1952 में शादी के बाद चम्पा ने मुझे बताया कि शादी से कुछ ही दिन पहले उनके किसी रिश्तेदार ने चम्पा के माता-पिता से कहा कि उसने खुद मुझे कई बार कई लड़कियों के साथ देखा है, कि उसने मुझे सोवियत और चीनी एम्बेसी में पी-कर धुत्त होते हुए भी देखा है, कि मेरा चरित्र बहुत ख़राब है, कि मैं कम्युनिस्ट हूँ। ये सब सुनकर उसके पिताजी भी उसकी माताजी की ही तरह मेरे खिलाफ़ हो गये। उनने चम्पा से कहा कि हमारी सब तैयारियाँ हो चुकी हैं, अगर तुम हाँ कर दो तो मैं अब भी यह शादी रोक दूँगा और सब तैयारियाँ रोक दूँगा। चम्पा ने ये सुन कर एक फ़िल्मी-सा डायलॉग मारा : मेरी शादी तो इस लड़के से हो चुकी है; अगर आप नहीं मानोगे तो मैं सारी उम्र कुँवारी बैठी रहूँगी। ये सुन उसके पिताजी लाजवाब हो गये और सोच में पड़ गये। शादी के बाद जब मैंने ये सब सुना तो मुझे उसके पिताजी और माताजी को समझाने और सराहने में काफ़ी देर लगी। लेकिन हमारी शादी को अब 65 वर्ष होने वाले हैं, इसी वर्ष दिसम्बर में हमारी शादी अमर है!
उदयन- आपकी दिल्ली की शुरूआती यादें क्या हैं? क्या तब तक दिल्ली में शक्ति तन्त्र की वैसी व्याप्ति हो चुकी थी जैसी मसलन अब है?
वैद साहब- विभाजन के बाद की दिल्ली में विभाजन के दौरान बहाये गये ख़ून और किये गये ख़राबे का रंग घुला-मिला था। वह दिल्ली के मेरे पहले दर्शन थे। मैं जालन्धर में शरणार्थी कैम्प में कुछ दिन किसी तरह गुज़ार लेने के बाद जालन्धर शहर में भी कुछ दो-तीन महीने रहा था। मैं काम करने के बाद ही दिल्ली गया था। पिता को दिल्ली के पास ही एक क़स्बे, बल्लभगढ़ में पटवारी की मुलाज़मत मिल गयी थी और मुझे कैम्प कॉलेज के लिये सरकारी कर्ज़ मिल गया था जो बाद में मुआफ़ कर दिया गया था। हम कुछ बहाल हो गये थे। मैंने कुछ दिन अपने उसी रिश्तेदार के सरकारी क्वार्टर में रहा था, जिसने मुझे इण्टरमीडियट के बाद 1944 में रावलपिण्डी की अस्थायी क्लर्की दिलवायी थी। उस क्वार्टर के पड़ोस में ही लाहौर गवर्नमेंट कॉलेज का मेरा एक सहपाठी और दोस्त, गोपालकृष्ण भानोट भी रहता था, शायद अपने बड़े भाई या बाप के साथ। वह हिन्दू कॉलेज में पंजाब यूनिवर्सिटी का एम.ए. पूरा कर रहा था, शाम के किसी स्पेशियल प्रोग्राम में। मुझे कैम्प प्रोग्राम, जो हरकोर्ट बटलर हाई स्कूल की भव्य इमारत में शाम को लगता और जिसका तम्बू होस्टल की उस इमारत के पिछवाड़े एक खुले मैदान में था- में ही जगह मिली थी और उसी के लिए सरकारी कर्ज़ भी। गोपाल को मिलकर बहुत खुशी हुई थी। कैम्प कॉलेज की क्लास में भी लाहौर गवर्नमेंट कॉलेज के दो-तीन विद्यार्थी मेरी क्लास में थे।
उस वक़्त की दिल्ली भी बदल रही थी, पंजाबी शरणार्थियों के कारण। बहुत जल्दी-जल्दी में उनके लिए नयी बस्तियाँ बनवायी जा रही थी- राजिन्दर नगर, पटेल नगर, शक्ति नगर, किंग्सवे कैम्प, पंजाबी बाग वगैरह। उन दिनों पंजाबी शरणार्थियों की सराहना में ये अक्सर कहा और सुना जाता था कि वह बहुत मेहनती हैं, ख़ासतौर पर सिक्ख शरणार्थी। पंजाबी की एक कहानी बहुत मशहूर हो गयी थी; उसका शीर्षक शायद ये था : ‘कोई सिक्ख भिखमंगा किसी ने किड़े नहीं वेख्या’।
दिल्ली में उन दिनों बंगाली मार्केट के पास त्रिवेणी कला संगम बन गया था और श्रीराम सेंटर शायद बन रहा था। कनॉट सर्कल या सर्कस में शंकर मार्केट बना दी गयी थी। वहाँ की एक आर्ट गैलेरी एक और अड्डा था, जहाँ कलाकार और लेखक और बौद्धिक मिला करते थे। कॉटेज एम्पोरियम की पुरानी बिल्डिंग भी जनपथ पर थी और उसके बाहर का कैफ़ेटेरिया और उसके ऊपर की आर्ट गैलेरी, जिसका नाम अब मुझे याद नहीं आ रहा और जिसे रिचर्ड बार्थोलोमियो चलाते थे, भी हम सबका एक बारौनक अड्डा हुआ करता था। इन सबका बाबा आदम उन दिनों जनपथ पर स्थित इण्डिया कॉफ़ी हाउस था, जिसे मैंने अपने उपन्यास ‘बिमल उर्फ़ जाएँ तो जाएँ कहाँ’ का एक पूरा अध्याय दिया था- ‘सवाल’। जनपथ पर कई छोटी-छोटी स्टॉल तभी खुल गयी थी और अभी तक है, बल्कि खूब फलफूल रही है और उस सड़क की भीड़ और शान बढ़ा रही है।
‘बिमल’ में विभाजन के बाद की बदलती हुई दिल्ली के कई रंग और दृश्य हैं; बिमल खुद उन सब उखड़े हुए युवाओं का प्रतिनिधि है जो स्वतन्त्रता के बाद अपनी ज़मीन खोज और बना रहे थे, दिल्ली में ही नहीं सारे देश में, अपने पथ की खोज कर रहे या उसे बना रहे थे, दिल्ली में ही नहीं सारे देश में। उस उपन्यास में उनकी समस्याएँ हैं, उनके सवाल हैं और उनके उबाल और उनकी कुण्ठाएँ भी। उसमें मुंशी भवन का ज़िक्र आता है जो अजमेरी गेट के पास था और वामपन्थी सरगर्मियों का केन्द्र भी।
बाद में तम्बू काफ़ी हाउस भी खुल गया था, कनॉट सर्किल या सर्कस में ही, जहाँ डॉ. राम मनोहर लोहिया बैठने लगे थे और एक ओपन एयर कॉफ़ी हाउस भी चल पड़ा था। जहाँ कृष्ण सोबती अपना दरबार लगाया करती थीं और एक और बार भी था जहाँ स्वामी (नाथन) और उसके दोस्त बैठा करते थे। कनॉट प्लेस में ही वेंगर्स और स्टेंडर्ड और नरुला के बार भी थे जो उस वक़्त बहुत सम्पन्न, बौद्धिक-प्रिय हुआ करते थे। बहुत बाद में कनॉट सर्कस या सर्कल में ही रेगल की बगल में एक टी हाउस भी खुला जो शायद अभी तक है तो, लेकिन उसमें वह बात नहीं जो शुरू-शुरू में थी। रिवोली के बाहर भी कुछ सालों के लिये एक छोटी-सी जगह बनी थी।
उसी ज़माने में कुछ सालों के लिये नयी दिल्ली में ही शारदा उकील और बरदा उकील की चलायी हुई एक संस्था, ऑल इण्डिया फ़ाइन आर्टस् एण्ड क्राफ़्ट सोसायटी (एआईएफएएसीएस) भी बहुत सक्रिय थी।
पुरानी दिल्ली में जामिया मस्ज़िद के आस-पास कई होटल और रेस्तराँ थे, जहाँ हुसैन और उर्दू के शायर मज़ाज बहुत जाया करते थे। शादी के बाद मैं भी चम्पा को वहाँ के लोरा होटल और रेस्तराँ में ले गया था, हालाँकि वह शुरू से अब तक शुद्ध शाकाहारी है।
पुरानी दिल्ली के चाँदनी चौक और दरीबे में शाकाहारी खाने और ज़ेवरों की कई मशहूर दुकानें भी थीं और हैं। मेरे दोस्त धरमनारायण का एक बड़ा-सा पुराना खानदानी महलनुमा मकान वहीं दरीबे में था और वह अपने बाड़े-से संयुक्त परिवार के साथ वहाँ रहता था और कहा करता था, इस घर में लाखों की संख्या में लोग हैं, जिनमें हज़ारों बच्चें भी है जिनके नाम और शक्लें मुझे मालूम नहीं। दरीबे में उसके साथ घूमते हुए कदम-कदम पर पकोड़ियाँ और गोल-गप्पे खाने पड़ते थे क्योंकि धरमू कहता था कि ये सब मास्टर कलाकार हैं अपनी-अपनी चीज़ों के, ये सब कुछ ही सालों में प्रगति और आधुनिकता और परिवर्तन के शिकार हो जायेंगे और अगर तुम हिन्दी का लेखक-वेखक होने के स्वप्न देखते हो तो तुम्हारे लिये ज़रूरी हो जाता है, इन मास्टर कलाकारों की चीज़ें़ खाना-इनकी गन्दगी मत देखो वैदराज, इनकी कला देखो और इनकी चीज़ों का स्वाद देखो हकीम साहिब! वह मुझे ये भी याद दिलाता रहता था कि पीएच.डी. कर लेने के बाद मुझे बहुत मुश्किल हो जायेगी क्योंकि मैं एक चलता-फिरता विरोधाभास बन जाऊँगा : डॉक्टर वैद!
तब दिल्ली की ज़िन्दगी पर शक्ति तन्त्र इतना हावी नहीं हुआ था लेकिन आसार उसी भविष्य की तरफ अंगुलियाँ उठा रहे थे जिसमें वह तन्त्र दिल्ली की ज़िन्दगी का गला दबोचना शुरू कर देगा।
1962 में मैं हंसराज कॉलेज से पंजाब यूनिवर्सिटी, चण्डीगढ़ चला गया था। 1962 से 1966 तक मैं वहाँ रहा। उस अर्से में मेरा एक जापानी लेखक दोस्त, ओदा मकातो वहाँ आया था, दूसरी बार। उसके साथ मैं दिल्ली भी गया था। उसने कहा था कि अगर हो सके तो मैं उसे डॉ. लोहिया से मिलवा दूँ। सो हम उस तम्बू कॉफ़ी हाउस में चले गये। वहाँ हमें डॉ. लोहिया अपनी टोली के साथ बैठे दिख गये। मैंने अपना परिचय देकर ओदा को उनसे मिलवाया तो वह बोले, कल मेरी कोठी में तुम दोनों आ जाना, वहाँ आराम से बात कर सकूँगा। सो हम दूसरे दिन उनकी कोठी पर पहुँच गये। ओदा के सवालों के जवाब लोहिया देर तक देते रहे। फिर मुझसे बोले, आप बहुत अच्छा लिख रहे हैं, लिखते रहिये। मैं हैरान तो हुआ लेकिन मैंने पूछा नहीं कि उनने मेरा क्या-क्या पढ़ा है, बाद में मुझे ख़्याल आया कि शायद बद्री विशाल पित्ती ने मेरे बारे में उनसे कभी कुछ कहा हो। मैंने बद्री विशाल जी से भी कुछ नहीं पूछा। वह मुलाकात बहुत अच्छी थी। उसके बाद मुझे उनसे मिलने का कोई संयोग नहीं हुआ।
उदयन- उन दिनों आप श्रीकान्त वर्मा, अशोक सेक्सरिया और उस ओर से ही आयीं कृष्णा सोबती से मिले होंगे। इन लोगों के साथ आपके क्या कैसे संवाद और बहसें हुआ करती थीं? क्या उन दिनों ऐसी कुछ किताबें आयी थीं जिन पर आप लोगों की राय में अन्तर हुआ करता था इसलिए भी बहसें हुआ करती हों? या भारत की राजनीति पर उन दिनों आप लोगों के बीच क्या बहसें थीं? ये लेखक, जिनके नाम सवाल की शुरुआत में हैं, भी तब नये-नये दिल्ली आये होंगे।
वैद साहब- दिल्ली में मेरे साहत्यिक सम्बन्धों का असली आरम्भ जुलाई 1950 में जालन्धर में एक वर्ष और अम्बाला में दो महीने पढ़ा लेने के बाद हंसराज कॉलेज, दिल्ली में पढ़ाना शुरू करने के बाद ही शुरू हुआ। मैं वहाँ 1958 तक रहा, उसके बाद वहाँ से हार्वर्ड चला गया तीन वर्षों के लिए, अँग्रेज़ी में पीएच.डी. करने, वहाँ से लौटकर मैंने एक वर्ष और हंसराज कॉलेज में पढ़ाया; और उसके बाद मैं पंजाब यूनिवर्सिटी, चण्डीगढ़ के अँग्रेज़ी विभाग में बतौर रीडर चला गया, वहाँ से फिर 1966 में अमरीका जहाँ मैंने क़रीब लगातार 19-20 वर्ष पढ़ाया।
1950, 1958, 1961 और 1962 के बीच दिल्ली में बसे हुए हिन्दी लेखकों से, ख़ासतौर पर भारत के हिन्दी और अन्य भाषाओं के कुछ लेखकों से मेरे सम्पर्क और सम्बन्ध बनने और पनपने लगे। फिर मैंने 1985 में पढ़ाना बन्द कर दिया और दिल्ली और भारत और लेखन में अधिक समय और सामर्थ्य लगाना शुरू कर दिया। अब अपने आखिरी दौर में हम मैं-बीवी फिर यहाँ अमरीका में ही अटक गये हैं, क्योंकि एक तो सफ़र अब और ज़फर होता जा रहा है और दूसरे हमारी तीनों बेटियाँ और चारों नाती-नतरें यहीं बसे-रसे हुए हैं, और उनका स्नेह-मोह हमें यहाँ से हिलने का जोखिम उठाने नहीं देता।
जिन तीन लेखकों के तुमने अपने इस सवाल में नाम लिये हैं- श्रीकान्त वर्मा, अशोक सेक्सरिया, कृष्णा सोबती- उनसे ‘उन दिनों’ दिल्ली में कभी-कभी इधर-उधर मिल तो ज़रूर जाता था, उनके साथ बात-बहस भी होती थी, लेकिन उनसे मिलना-जुलना और बतियाना-बहसियाना-याराना बहुत कम था। वह बाद में कृष्णा सोबती और श्रीकान्त के साथ तो हुआ लेकिन अशोक सेक्सरिया के साथ उनके कोलकाता लौट जाने के बाद नहीं हुआ।
उन दिनों की एक महत्वपूर्ण पुस्तक मुझे याद आती रहती है, और असंख्य लेखकों और पाठकों को भी ज़रूर आती होगी, ‘मैला आँचल’, जिसने अपने ही बलबूते पर हिन्दी जगत में धूम मचा दी थी। उसपर हम सब दोस्तों में खूब चर्चा होती थी, उसकी कला पर, उसकी भाषा पर, उसकी तथाकथित ‘आँचलिकता’ पर, उसकी विषय-वस्तु पर, उसकी प्रगतिशीलता पर। उन दिनों उसकी टक्कर का उपन्यास और नहीं आया था, अभी तक भी बहुत कम ही हैं।
राजनीति पर बहसें बहुत होती थीं- औपचारिक और अनौपचारिक गोष्ठियों में भी, पत्र-पत्रिकाओं में भी, सड़कों पर भी, कॉफ़ी हाउस और बार में भी।
मेरा अपना ‘उसका बचपन’ भी आ चुका था और धीरे-धीरे पढ़ा और सराहा भी जा रहा था लेकिन अभी तक नेमी जी ने उसपर अपना वह लेख नहीं लिखा था जो बाद में उनकी पुस्तक, ‘अधूरे साक्षात्कार’ में छपा और खूब चर्चित भी हुआ। कृष्ण सोबती ने मुझसे ‘उसका बचपन’ की सराहना की थी, निर्मल वर्मा ने उसके शीर्षक पर उँगली उठायी थी।
उन दिनों ‘कहानी’ और ‘कल्पना’ में प्रकाशित कहानियों और लेखों की चर्चा बहुत हुआ करती। उन्हीं दिनों शायद श्रीकान्त वर्मा ने ‘कहानी’ में अपना कॉलम, ‘जिरह’, शुरू किया था जो मुझे पसन्द था और जिसकी चर्चा बहुत होती थी। उनकी एक कविता की दो पंक्तियाँ भी बहुत चलीं थीं : मैं अपने कमरे में खड़ा हूँ नग्न/क्षमा करें महिलाएँ; और उनकी एक कहानी भी मुझे बहुत पसन्द आयी थी : ‘दूसरे के पैर’।
उदयन- आपने ‘उसका बचपन’ लिखना कब और कैसे शुरू किया। यानि तब तक आपके मन में क्या चलने लगा था? आपकी प्रेरणा के स्रोत कौन से लेखक थे? क्या आपने इसके हिस्से अपने किसी दोस्त को या कहीं पढ़कर सुनाये थे?
वैद साहब- ‘उसका बचपन’ का पहला प्रारूप 1955-56 में लिखा गया; उसे लेकर मैं 1956 में गर्मियों की छुट्टियों में एक महीने के लिए अकेला रानीखेत चला गया। वहाँ मैं एक होटल, मॉउण्ट व्यू में होटल से अलग एक कॉटेज में रहा। मैं पहले प्रारूप को साथ ले तो आया था लेकिन दूसरा प्रारूप लिखते हुए मैंने उसे एक बार भी देखा नहीं क्योंकि मैं उससे असन्तुष्ट था। वह उस उपन्यास के अन्तिम प्रकाशित रूप से दो अढ़ाई गुना लम्बा था। उसमें पारम्परिक उपन्यास का-सा फैलाव था, उसी के ‘फ़र्निचर’ से वह आता हुआ था- मेरा संकेत यहाँ वर्जीनिया वूल्फ़ के विख्यात निबन्ध ‘मिस्टर बेनेट एण्ड श्रीमती ब्रॉउन’ की तरफ है। उसका नरेटर सर्वज्ञ और सर्वस्थित था; उसका दृष्टिकोण किसी एक पात्र तक सीमित नहीं था; इसलिए भी उसमें हर प्रकार का बिखराव था, जो मुझे पसन्द नहीं था।
दूसरा प्रारूप रानीखेत के एक महीने में ही पूरा हो गया। ‘कहानी’ पत्रिका के सम्पादक श्रीपत राय भी तब रानीखेत में थे। उनका बंगला मेरे होटल से ज़्यादा दूर नहीं था। ‘कहानी’ में तब तक मेरी कुछ कहानियाँ प्रकाशित हो चुकी थी। श्रीपत जी से पहली मुलाकात रानीखेत में ही हुई लेकिन ख़तोकिताबत हो चुकी थी। मैंने दिल्ली लौटने से पहले उनको पाण्डुलिपि पढ़ने को दी। उन्होंने उसे रातोंरात ही पढ़ लिया- उन्हें मालूम था कि मैं दिल्ली लौटने वाला हूँ- और मुझे बताया कि वे उसे सरस्वती प्रेस से प्रकाशित करेंगे अगर उसका अन्तिम प्रारूप भी दूसरे प्रारूप जैसा ही हुआ तो। और इसके बाद उनकी हँसी शुरू हो गयी। ज़ाहिर है मैं बहुत खुश हुआ।
दिल्ली से मैंने कुछ ही महीनों में उन्हें उपन्यास पूरा करके भेज दिया। उन्होंने उन्हीं दिनों उपन्यास नाम की एक पत्रिका भी निकाली थी जिसमें सिर्फ़ एक पूरा छोटा उपन्यास प्रकाशित करने की उनकी योजना थी। पहले अंक में बलवन्त सिंह का एक उपन्यास था, दूसरे में ‘उसका बचपन’। पुस्तक रूप में मेरा उपन्यास 1957 में निकल आया, रामकुमार के बनाये हुए कव्हर चित्र और श्रीपत जी के लेटरिंग में उपन्यास के नाम के साथ।
निर्मल के विचार से मुझे उपन्यास को नाम कोई और देना चाहिये था। मैंने भी उसके कई नाम सोचे हुए थे लेकिन अन्त में मुझे वही पसन्द आया जो मैंने उसे दिया। किसी एक लेखक ने मुझे प्रेरित नहीं किया था। उन दिनों हिन्दी और उर्दू के कथा साहित्य के अलावा अँग्रेज़ी में उपलब्ध काफ़्का, कामू, सार्त्र, दोस्तोएवस्की, गन्चारोव, चेखफ़, तुर्कनेव, गोर्की और मूल अँग्रेज़ी के हेनरी जेम्ज़, जेम्स ज्वॉयस, प्रूस्त, लॉरेन्स, वर्जीनिया वूल्फ़, ई.एम. फॉस्टर, डिकेंस, हार्डी वगैरह को भी खूब पढ़ रहा था। मेरी रुचि और शैली को बनाने में इन सबका और हिन्दी उर्दू के प्रेमचन्द, जैनेन्द्र, अज्ञेय, राजिन्दर सिंह बेदी, इस्मत चुगताई, हैदर, हज़ारी प्रसाद, फणीश्वर नाथ रेणु का योगदान भी ज़रूर है।
मैंने प्रकाशन से पहले ‘उसका बचपन’ को श्रीपत जी के अलावा किसी को दिखाया-सुनाया नहीं था।
इससे पहले कि ये ई-मेल चौथी बार बीच में ही उड़ पड़े, मैं इसे रवाना कर रहा हूँ।
उदयन- श्रीपत राय के विषय में यह सुना है कि वे चित्रकार भी थे। आपकी नज़र में वे किस तरह के चित्रकार और व्यक्ति थे? उनसे आपकी मुलाकातें कैसे शुरू हुईं, शायद रानीखेत में ही, पर आपकी उनकी दोस्ती कैसी थी? क्या वह लम्बी चली? आपके मुँह से मैंने उनका नाम कई मर्तबा सुना है। आप उनके बारे में बताएँ। वे आज के हिन्दी समाज में बहुत हद तक विस्मृत व्यक्ति ही हैं। उनकी पत्रिका कैसी हुआ करती थीं? मैंने सुना है कि शायद उनकी पत्रिका में फणीश्वर नाथ रेणु के उपन्यास के लगभग विरुद्ध अभियान जैसा चला था।
वैद साहब- श्रीपत राय से मुलाकातें रानीखेत में ही शुरू हुईं, औपचारिक और लेखक-सम्पादक ख़तोकिताबत उनसे पहले ही शुरू हो गयी थी। उनके छोटे भाई, अमृत राय को 1949-50 में जालन्धर में ही देख-मिल लिया था, जब वह किसी अवसर पर वहाँ आये थे; उनसे दोस्ती और बेतल्लुफ़ी भी, हँसी-मज़ाक भी कुछ पहले ही शुरू हो गयी थी; लेकिन उनसे मिलना-जुलना-गुलना कम ही रहा, ख़तोकिताबत भी। श्रीपत क्योंकि दिल्ली आ गये थे और बर्षों तक, क़रीब-क़रीब अन्त तक, वहीं रहे, इसलिए भी उनसे मेलमिलाप ज़्यादा रहा, ख़तोकिताबत भी। जिन पाँच-सात लोगों को मैं अमरीका से भी बराबर लिखता रहा उनमें श्रीपत राय भी थे।
वह एक गुणी चित्रकार और सम्पादक थे। चित्रकारी उनने लेखन के बाद ही शुरू की। मुझे मालूम नहीं कि ये ‘लत’ उन्हें कब, क्यों और कैसे लगी; अगर मैं विजय मोहन सिंह की तरह जासूस होता तो शायद मुझे ये सब मालूम हो जाता।
अब मुझे यह भी याद नहीं कि वह दिल्ली किस बरस आये, कि उनने हौज़ ख़ास वाला बड़ा मकान कब खरीदा या बनवाया। शायद तब मैं अमरीका में पढ़ या पढ़ा रहा था। लेकिन वहाँ पढ़ाना शुरू करने के बाद मैं जब-जब वहाँ से दिल्ली आया, और कई बार आया, हर दूसरे-तीसरे साल आया, तो श्रीपत से ज़रूर मिला, निर्मल और रामकुमार और भीष्म साहनी के साथ भी और अकेले भी, चम्पा के साथ भी और अकेले भी, खाने-पीने के लिये भी और वैसे भी। ‘उसका बचपन’ 1957 में प्रकाशित हो गया था। उसके बाद हमारी ख़तोकिताबत का रंग भी बदल गया था, हमारी बेतल्लुफ़ी की शुरूआत हो गयी थी, हमारा हँसी-मज़ाक और आपसी चोट-चकोट शुरू हो गये थे। हमारी उम्रों का फ़र्क कम होना शुरू हो गया था। मैं कभी-कभी उन्हें ‘आप’ के बजाय ‘तुम’ कहने और लिखने लगा था, उन्हें अमरीका या चण्डीगढ़ से लम्बी चिट्ठियाँ लिखने लगा था, सिर्फ़ साहित्य के बारे में ही नहीं, अपनी कुछ उलझनों और समस्याओं के बारे में भी। उनके बेटे, मुन्ना ने (हाँ उनके एक बेटे का घर का नाम भी मुन्ना था) ने एक पाकिस्तानी लड़की से प्रेमविवाह कर लिया था और वह कुछ देर के लिए पियक्कड़ हो गया था। श्रीपत उसके बारे में चिन्तित रहते थे और मुझसे अक्सर बात किया और मुझे अक्सर लिखा करते थे। मेरी बेटी रचना एक साल के लिये मिराण्डा हाउस (कॉलेज) में पढ़ने के लिए अमरीका से दिल्ली, मिराण्डा के होस्टल में रही थी, ज़िद्द करके। वहाँ श्रीपत राय की बेटी सारा राय उसकी दोस्त बन गयी और वह सारा और श्रीपत राय के साथ दिल्ली की कला-प्रदर्शनियों को देखने जाने लगी।
कला-समीक्षक रिचर्ड बार्थलोमेव ने ही शायद ‘स्टेट्समेन’ में अपने एक रिव्यू में श्रीपत राय को ‘सनडे पेण्टर‘ का ‘बुरा’ नाम दे दिया था, जिसकी वजह से श्रीपत जी को बतौर चित्रकार एक ख़ास और शौकिया और अमीर श्रेणी में धकेल दिया गया, जिससे वह निकल नहीं पाये और अन्ततः उनने चित्रकारी बन्द ही कर दी। तब उनने मुझसे कहा कि मैं जो चाहूँ उठा ले जाऊँ और मैंने उनके दो कैनवास चुन लिये और अपने वसन्त कुंज वाले फ़्लेट में लटका भी लिये। तुमने उन्हें देखा भी होगा।
जब मैंने पढ़ाना बन्द कर दिया, 1985 में, और दिल्ली में ज़्यादा वक़्त बिताना शुरू कर दिया तो श्रीपत जी ने अपना हौज ख़ास वाला बड़ा मकान बेच डाला और खुद किराये के एक फ़्लेट में रहने लगे। उनकी बीवी ज़ेहरा इलाहाबाद चली गयी, वहाँ वह और सारा रहती रहीं, श्रीपत भी आखिर वहाँ अपने मकान में जाकर रहे और बीमार हो गये। वहीं ज़ेहरा और उसकी बहन मुगल मेहमूद का इन्तकाल शायद एक ही दिन हो गया, जिसके बारे में श्रीपत जी को बताया नहीं गया क्योंकि वह खुद बहुत बीमार थे, उनके निधन के बाद दिल्ली में हुई शोक सभा में मैं भी था और मैं कुछ बोला भी जिसका सारांश था कि श्रीपत राय की असाधारण प्रतिभा को पूरी तरह पनपना नसीब नहीं हुआ।
अन्त से पहले ‘कहानी’ की अपनी बहुत ही मार्मिक सम्पादकीय टिप्पणियों का एक संकलन, जिसका शीर्षक था ‘कहानी की बात’, श्रीपत जी ने प्रकाशित किया। उनके अन्त के बाद कुछ देर के लिये शानी ‘कहानी’ के सम्पादक बने और उसके एक अंक में मेरी कहानी ‘पिता की परछाईयाँ’ प्रकाशित हुई।
‘कहानी’ के हर अंक के आवरण पर किसी विश्व-विख्यात चित्रकार का कोई चित्र हुआ करता था। श्रीपत राय की ‘अमृत धारा’, उनके बनाये हुए मदिरा के प्याले में कुछ ही बूँदें हुआ करती थी, जिसका नाम हम दोस्तों में मशहूर था।
उदयन- आपने बताया था कि आपकी साठ के दशक की दिल्ली में जगदीश स्वामीनाथन से मुलाकात हुई थी। आपके उनसे लम्बे समय तक पारिवारिक और कला सम्बन्धी ताल्लुकात रहे। आप उनके बारे में विस्तार से कुछ कहें। आपकी हमेशा ही हर दोस्त से बहसें होती रही हैं, स्वामी से भी ऐसा रहा होगा। आप उनकी चित्रकला और कविताओं के बारे आज क्या सोचते हैं?
वैद साहब- अगर मैंने तुम्हें यह बताया कि 60 के दशक में जे. स्वामीनाथन से मैं पहली बार मिला था तो मुझसे घोर ग़लती हुई; वैसे ये भी सम्भव है कि तुम्हें याद ग़लत रहा हो; क्योंकि 1962 में तो मैं दिल्ली से चण्डीगढ़ चला गया था, हार्वर्ड से जुलाई, 1961 में लौटकर और हंसराज कॉलेज में फिर से एक साल पढ़ा कर; 1966 तक मैं वहीं रहा। जब-जब वहाँ से दिल्ली आता, तब-तब अन्य दोस्तों के अलावा, स्वामी और भवानी से भी ज़रूर मिलता। 1966 में अमरीका चले जाने के बाद भी दूसरे तीसरे साल मैं जब-जब वहाँ से भारत आता तो न सिर्फ़़ स्वामी से मिलता बल्कि स्वामी उन पाँच दोस्तों में से होता- दूसरे चार निर्मल, रामकुमार, कृष्ण सोबती, भीष्म साहनी होते- जिनसे मैं मिलता ही नहीं, घण्टों मिलता।
स्वामी से पहली मुलाकात तो 1950 में ही हो गयी थी। तब स्वामी दाढ़ी नहीं रखता था। दाढ़ी के बगैर वह बीस साल बाद के कालिदास का-सा लगता था। तब वह पार्टी का मेम्बर हुआ करता था। वहीं उसकी आँख भवानी पर टिक गयी थी। उससे शादी के बाद एक दिन वह अकेले में मुझसे बोला- केबी, अब शादी तो हो गयी, अब मुझे कुछ और भी तो करना होगा; भवानी तो इसी में मस्त रहती है, मुझे तो अब कुछ और भी करना-धरना है। तब स्वामी अपने उस ख़ास रंग में आ गया जब वह तभी आता था जब उसके अन्दर कोई ख़ास हलचल हो रही होती। ऐसी शामों का स्वामी बहुत गहरा, गम्भीर और अभेद्य होता था। मेरे तब के और बाद के सब दोस्तों से स्वामी अलग था। इसी बात को दूसरी तरह कहूँ तो मेरा तब का और बाद का और कोई दोस्त उसकी रहस्यमयता, उसकी गहनता, उसकी रंगीनी, उसकी रोचकता और उसकी विराटता का मुकाबला नहीं कर सका।
रामकुमार की ही तरह स्वामी ने शुरू के दौर में मूर्त चित्र बनाये। तब के ज़माने का एक चित्र मुझे याद है। एक बेंच पर बड़ी उम्र का एक आदमी बैठा हुआ है। बेंच भी सुनसान है, वह जगह जहाँ वह रखी हुई है, भी सुनसान है, उस पर बैठा हुआ आदमी भी। वह तस्वीर एक कहानी भी सुनाती है, एक कैफ़ियत भी पैदा करती है। इसी तरह चिड़िया और पेड़ का सवाल-जवाब एक समाँ बाँधता है, एक खामोश स्वर साधता है, एक चित्र बनाता है, एक नृत्य रचता है।
स्वामी के अमूर्तन पर आदिवासी कलाकारों का प्रभाव उसके रंगों में भी फूलता और फूटता है, उसकी रेखाओं में भी। स्वामी की चित्रकला में रामकुमार की-सी कोमलता और सुन्दरता और सफाई नहीं; यह सब गुण उसे अभीष्ट भी नहीं। उसमें दूसरी ही खोज है, दूसरी ही खरज है। स्वामी के चित्रों में अँधेरों का उजाला है, उजालों का अँधेरा है।
स्वामी के संगीन चेहरे को देख कर मुझे दहशत हुआ करती थी। महसूस होता था, सामने एक ऐसा क़ातिल खड़ा हो जो कोई खून करने के फौरन पहले या बाद अपना खंजर साफ़ कर रहा हो। मैंने कहीं यह लिखा भी था।
स्वामी को गंगूबाई हंगल का गायन और आवाज़ बहुत पसन्द थी। अगर वह खुद गाता तो उसकी आवाज़ और गायन गंगूबाई हंगल के-से होते। अपने ही एक लेख से कुछ पंक्ति यहाँ टीप रहा हूँ :
स्वामी एक डूबा हुआ कलाकार है। नहीं। डूबता हुआ। ऐसा जिसे किसी तिनके का सहारा न हो, जो खुद किसी तिनके-सा हो, जो इसीलिए हमेशा डूबता हुआ और तैरता हुआ दिखायी देता हो। अपने ही बालपरहीन परिन्दों की तरह जो खुद कभी-कभी तिनकों से नज़र आते हैं। हवा में तैरते हुए तिनके। पहाड़ों को उड़ा ले जाते हुए तिनके। डूबते हुओं के सहारे तिनके।
स्वामी की तस्वीरों की अपूर्णता भी सम्पूर्ण नज़र आती है।
भोपाल में स्वामी की सुस्ती शिखर पर थी, काम करने की क्षमता और शक्ति भी। उसपर काम के दौर भी आते थे, दौरे भी पड़ते थे। वहीं भोपाल में उस पर आखिरी दौर पड़ा था। उस दौरे ने उसे जो तस्वीरें दीं, तीर थे, जो सीधे उन निशानों में पैवस्त हो गये, जिनका स्वामी को पता तक नहीं था।
स्वामी की कविताओं में मुझे उसकी तस्वीरों की-सी बात नज़र नहीं आती थी। कविताओं में सम्भला हुआ रहता था, चित्रों में वह पहुँचा हुआ पागल नज़र आता था।
इस वक़्त यहाँ 23 जनवरी की सुबह के ठीक 5ः01 बजे हैं; मैंने तुम्हारा अगला सवाल-पत्र क़रीब 4ः15 बजे पढ़ा था। फिर मैं पूरी तरह जागा, दबे पाँव स्टडी-कम्प्यूटर-कमरे से बाथरूम गया, फ़ारिग हुआ, चेहरे पर ठण्डे पानी के छींटे मारे, अपने कमरे में गया, कपड़े बदले, दबे पाँव बैठक में से होता हुआ किचन तक पहुँचा, भट्टी जलायी, इलाइची टी-बेग वाली चाय बनायी, कॉर्न-ब्रेड के दो-तीन टुकड़े एक छोटी तस्तरी में रख दबे पाँव फिर स्टडी-कम्प्यूटर में आ तुम्हें यह लिखने बैठ गया। सोचा आज सीधा ‘समास बातचीत’ में कूद पड़ने के बजाय कुछ इधर-उधर की हाँक दूँ।
आजकल नींद रातभर टूट-टूट जाती है- अजीब-अजीब सपनों से, छोटी-बड़ी मनसिक समस्याओं से, यादों-यन्त्रणाओं से, वयोवृद्धता से, यूँही कभी सोचा नहीं था कि इस उम्र को पहुँचूँगा, 90वें वर्ष के छठ्ठे महीने में छटपटा रहा होऊँगा- इस बदआवाज़ शब्द का दोष व्याकरण को देना होगा, मुझे नहीं! एक बुरा शेर याद आ रहा है : मुसीबत और लम्बी ज़िन्दगी/बुजुर्गों की दुआ ने मार डाला!
खैर! अब समास बातचीत की तरफ जाता हूँ, अलग से, इसे भेज कर...
उदयन- आपके शुरूआती भटकाव के दौरान, जब आप चण्डीगढ़ से दिल्ली से अमरीका से दिल्ली से अमरीका आ-जा रहे थे, आपको अपनी बेटियों की किस तरह याद है? वे उन दिनों छोटी रही होंगी। चम्पा जी का जीवन भी तब अपेक्षाकृत मुश्किल रहा होगा। अमरीका जाकर पढ़कर आने का विचार आसानी से समझ में आता है पर वहाँ जाकर बसने की बात आने पर आप क्या सोच रहे थे? क्योंकि यह आज की नहीं पुरानी बात है। आज तो कई लोग पढ़ाई करते ही इस तरह हैं कि वे अमरीका में बस सकें।
वैद साहब- भटकाव शुरू में ही नहीं था, अब जब अन्त की इन्तहाँ को छू रहा हूँ तब भी है। इस भटकाव का अन्त तो मेरे अन्त के साथ ही होगा, जो अब दूर नहीं; उसी के उजाले में जी रहा हूँ।
बचपन से ही मैं भीतर से विस्थापित हूँ; जहाँ भी होता था, पूरे मन से वहाँ नहीं होता था। वह उखड़ंचू मनःस्थिति- ‘रहना नहीं देश बेगाना है’- शुरू से ही है और आखिर तक रहेगी, हर देश और काल में। विभाजन के विस्फोटक विस्थापन ने उस पर मुहर लगा कर मुझे हमेशा के लिए स्थायी तौर पर क्षत-विक्षत कर दिया और स्थायी जलावतन बना दिया। मैं बसा-रसा कभी भी नहीं, कहीं भी नहीं।
कभी सोचता हूँ कि अगर पंजाब यूनिवर्सिटी के वाइस-चान्सलर ने मुझे बिना पगार की दो साल के लिये छुट्टी दे दी होती तो मैं दो साल के बाद वापस वहाँ चला गया होता। आखिर अमरीका में भी मैं सिर्फ़़ एक ही साल के लिये ही वहाँ से ब्रेण्डाइज़ यूनिवर्सिटी बतौर विज़िटिंग प्रोफ़ेसर गया था; लगभग 18 साल तो मैंने पाट्सडैम के बर्फि़स्तान में ही गुज़ारे।
मुझे याद आता है कि जब चम्पा और मैं अपनी बेटियों के साथ हार्वर्ड के नज़दीक वॉटरटॉउन में रह रहे थे और मैं ब्रेण्डाइज़, पाट्सडैम से कहीं बेहतर और नामी-गरामी यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहा था और वहीं रह जाने की कोशिश कर रहा था तो एक शाम ज्योत्स्ना बेटी ने हमसे एक निहायत शिकायती लहज़े में कहा था : हम तीनों स्कूल बदल-बदल कर तंग आ गये हैं; हम पाट्सडैम वापस जाना चाहते हैं और वहीं रहना और पढ़ना चाहते हैं। हम चौंक उठे थे। और हमने फैसला कर लिया था कि अमरीका में जब तक रहेंगे, पाट्सडैम से हिलेंगे नहीं। तीनों बेटियाँ स्कूल के बाद बारी-बारी अपनी मर्ज़ी से एक बहुत ही बढ़िया कॉलेज, वैस्सर में गयीं, जो पाट्सडैम से काफ़ी दूर भी था और जहाँ उन्हें होस्टल में रहना था।
बेटियों से सम्बन्धित सवाल का जवाब तुम्हें मिल गया। चम्पा जब तक मेरे साथ हार्वर्ड में थी, बहुत खुश थी। दो बेटियाँ रचना और ज्योत्स्ना भी वहाँ हमारे साथ थीं; उर्वशी को वह दिल्ली अपने माता-पिता के पास छोड़ आयी थी, वह कुछ ही महीनों की थी। खुद चम्पा बॉस्टन यूनिवर्सिटी में एम.एड. कर रही थी, शाम की क्लासें लेकर। मैं शाम को रचना और ज्योत्स्ना को सम्भालता था; दोनों बेटियाँ भी हार्वर्ड प्री-स्कूल में जाती थीं; हम सब हार्वर्ड में खुश रहे। पीएच.डी. और एम.एड. के बाद हम सीधे वापस भारत लौटे क्योंकि मैं हंसराज कॉलेज से तीन साल की बे-पगार छुट्टी लेकर हार्वर्ड गया था। 1966 में पंजाब यूनिवर्सिटी के वाइस-चान्सलर ने- जो उस वक़्त वही सज्जन थे, जो 17 साल पहले डी.ए.वी. कॉलेज जालन्धर के प्रिंसिपल थे और मुझे वहाँ की लेक्चररशिप से निकाल चुके थे- मुझे छुट्टी नहीं दी। मैंने केबल से त्यागपत्र दे दिया। हंसराज कॉलेज के प्रिंसिपल जी.एल. दत्ता को भी उन्होंने ही 1950 में चिट्ठी लिखी थी और पूछा था : मुझसे तो पूछ लिया होता! डी.ए.वी. कॉलेज और आर्य समाज से आपने पुराने सम्बन्धों के बावजूद आपने एक शरारती और कॉम्युनिस्ट लड़के को अपने कॉलेज में रखकर ग़लती की; अब उसे एक साल बाद कन्फ़र्म मत कीजियेगा। प्रिंसिपल दत्ता ने मुझे बुलाया और वह चिट्ठी पढ़कर और मज़ा ले-लेकर मुझे सुनायी और फिर मेरा वह शंकर्स विकली वाला लेख, ‘चार्जशीट’ भी पढ़कर सुनाया। उस लेख में मैंने जालन्धर के कॉलेज और प्रिंसिपल पर एक व्यंग्यात्मक प्रहार-सा किया था, अपने नाम उसकी एक चार्जशीट के रूप में। इस सबके बाद प्रिंसिपल दत्ता ने जब यह कहा, मैं सब सम्भाल लूँगा; तुम चिन्ता मत करो; जाओ और अपना काम करो मज़े से, तो मेरी जान में जान आयी। मैं यह क़िस्सा कई बार कई लोगों को सुना चुका हूँ।
मेरा जानलेवा निबन्ध, ‘कलाकार बतौर प्रवासी’, तुमने पढ़ा ही होगा; वह मैंने अमरीका में ही लिखा था, पाट्सडैम में पढ़ाते हुए ही।
अमरीका के लम्बे प्रवास के बारे में मैं यही कह सकता हूँ कि वह मेरा चुनाव नहीं था, मेरी नियति ही थी; और उस नियति को मेरे बचपन के हालात ने और मेरी जवानी में हुए देश-विभाजन ने ही बनाया या बिगाड़ा है, अमरीका में रहने या बसने या अपनी बेटियों को वहाँ बसाने या पैसा बनाने और ऐश उड़ाने और प्रोफ़ेसरी का केरियर बनाने की इच्छाओं ने नहीं।
उदयन- जब आप पहली मर्तबा अमरीका पहुँचे, आपको कैसा महसूस हुआ क्या आपको वहाँ कुछ अजनबीपन लगा? क्या वहाँ (यानि आपके लिए यहाँ) आपकी कोई दोस्ती पहले से थी, क्या कोई ऐसे दोस्त थे, जिन्होंने आपका साथ दिया? आपने हेनरी जेम्ज़ पर काम करने का मन क्यों बनाया? मुझे याद आ रहा है कि आप अमरीका में आनन्द कुमार स्वामी की पत्नी से मिले थे। उनसे मिलना आपके लिए किस कारण महत्वपूर्ण था?
वैद साहब- पहली मर्तबा मैं न्यूयार्क 1958 की गर्मियों में पहुँचा था, शायद मई या जून के महीने में, समुद्री जहाज़ से, लन्दन से क्वीन इलिजाबेथ पर, जो उस जहाज़ की आखिरी यात्रा थी या आखिरी यात्राओं में से पहली। बॉम्बे से लन्दन तक मैं, भारत के अन्य फुलब्राइट वज़ीफ़ाख़्वारों के साथ स्त्रथ्नेवर नाम के जहाज़ पर पहुँचे थे; लन्दन में हम पाँच दिन रुके थे।
बॉम्बे तक चम्पा मेरे साथ रेलगाड़ी में दोनों बेटियों और पेट में पल रही उर्वशी समेत मुझे विदा करने आयी थी। बाक़ी फुलब्राइटरों को भी उसी होटल में ठहराया गया था। वहाँ हमारी संक्षिप्त-सी दीक्षा (ओरिएण्टेशन) भी हुई थी, अमरीकी जीवन और संस्कृति के बारे में। बॉम्बे में एक दो दिन गुज़ार लेने के बाद हम रवाना हो गये थे। चम्पा बेटियों के साथ एक रात शामलालजी के घर रही थी। दूसरे दिन बिमलाजी उसे स्टेशन पर विदा कर आयी थी।
जहाज़ में पाँच लोगों की एक अलग टोली-सी बन गयी थी जिसमें मेरे अलावा चार और थे। सुमित्रा बेनोए शिकागो यूनिवर्सिटी में जा रही थी; मुझे याद नहीं कि वह वहाँ क्या कर रही थी; आनन्दलक्ष्मी ब्रायन मावर कॉलेज जा रही थी बाल मनोविज्ञान में पीएच.डी. करने; मोहन राम दिल्ली यूनिवर्सिटी के किसी कॉलेज में वनस्पतिशास्त्र पढ़ाता था और कॉर्नेल जा रहा था, पीएच.डी. करने; विश्वनाथन जानी मानी भरतनाट्यम् नर्तकी बाला सरस्वती का छोटा भाई था और बाँसुरी बजाता था, याद नहीं कि वह क्या करने कहाँ जा रहा था, अँग्रेज़ी का एक शख़्स भी उस ग्रुप में था, जो हार्वर्ड जा रहा था, पीएच.डी. करने- नागराजन, जिससे मेरी बॉम्बे में अच्छी जान-पहचान हो गयी थी और हार्वर्ड में और बाद में भारत लौट कर अच्छी दोस्ती भी रही लेकिन वह हमारे रास्ते की टोली में नहीं था। मेरी टोली के बाकी के चार हमेशा उसकी पीठ पीछे उसकी पुराणपन्थी बातों और हरकतों का मज़ाक उड़ाया करते थे और मैं हमेशा उसके पक्ष में बोला करता था।
जब हम न्यूयार्क पहुँचे, मेरा लिटरेरी एजेण्ट गुन्थर स्टूलमान मेरे स्वागत के लिए बन्दरगाह पर मौजूद था। जब उसने झुककर मुझसे हाथ मिलाया, वह बोला, यू केन टेल एवरीबॅडी दैट यू हैव द टॉलेस्ट लिटरेरी एजेण्ट इन न्यूयार्क इफ़ नॉट इन द एनटायर वर्ल्ड।
सचमुच वह बहुत ही लम्बा था, साढ़े छह फुट से भी ज़्यादा!
घर ले जाकर कुछ ताज़ादम हो जाने के बाद उसने पूछाः के.बी. तुम न्यूयार्क में अपनी पहली शाम कैसे गुज़ारना चाहते हो? मैंने कहा, बॉवेरी में घूमकर और कहीं किसी जगह अच्छा जेज़ सुनकर। गुन्थर हँस दिया और बोला, तुम्हें बॉवेरी के बारे में कैसे और क्या मालूम है? मैंने कहा, विलेज के बारे में पढ़कर। वह बोला, विलेज में तो हम रहते ही हैं, चलो घूमते हैं और जेज़ भी सुनते हैं।
हम निकले। घर से निकलते ही बॉवेरी के असली बाशिन्दे नज़र आने लगे, झूमते और झूलते हुए, दरवाज़ों से टेक लगाये, आँखे मूँद पड़े हुए, खाली बोतल हाथ में लिये हुए, हाथ पसारे हुए, मुस्कराते हुए, कुछ बड़बड़ाते हुए, एक-दूसरे से बतियाते हुए, क़द्रदानों को तलाशते हुए... कुछ देर बाद गुन्थर बोला, अब जेज़ सुनें? जब मैंने, ‘हाँ’ में सर हिला दिया तो वह मुझे टैक्सी में बिठाकर फ़ाइव स्पॉट्स नाम के बार में ले गया, वहीं विलेज में कुछ दूर। बाद में उसी से पता चला कि उस बार में चोटी के कलाकार जेज़ बजाते और गाते हैं। जो मैंने उस शाम वहाँ सुना, वह मुझे अद्भुत लगा। मैं मस्ती में झूमता रहा और गुन्थर के दोस्तों के साथ पीता रहा; मैं भूल गया कि मैं अमरीका के सबसे बड़े शहर में अपनी पहली शाम गुज़ार रहा हूँ, कि मैं वहाँ अजनबी हूँ, कि मैं गुन्थर को भी पहले कभी नहीं मिला, कि अभी तक मेरी उससे कुछ ख़तोकिताबत ही हुई है, मैं भूल गया कि मैं कुछ ही घण्टे पहले जहाज़ से पहली बार न्यूयार्क में उतरा था...
न्यूयार्क में चार-पाँच दिन ही मैंने गुन्थर के साथ गुज़ारे। वह मुझे न्यूयार्क की सैर कराता रहा, उसकी साहित्यिक और प्रकाशकीय कहानियाँ सुनाता रहा, मैं उससे तरह-तरह के सवाल पूछता रहा- लेखकों, प्रकाशकों, लघु पत्रिकाओं, किताबों, किताबों की दुकानों के बारे में- और वह मुझे बहुत ही दिलचस्प और हँसाऊ जवाब देता रहा। उन पाँच ही दिनों में वह मेरा दोस्त बन गया।
उसके बाद हमारा भारतीय ग्रुप बिखर गया। नागराजन और मुझे तो एक महीने के लिये बेनिंगटन कॉलेज भेज दिया गया, ओरिएण्टेशन के लिये, औरों को और कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में। बेनिंगटन कॉलेज वरमॉण्ट स्टेट में एक सुन्दर-से कस्बे में है, जिसका नाम भी बेनिंगटन है। वह कॉलेज भी सुन्दर और अपनी असाधारण उदारता और विख्यात प्रयोगवादिता के लिये मशहूर है। वहाँ यूरोप के बड़े-बड़े लेखक अक्सर बुलाये जाते हैं। 1957 में यूजीन आइनेस्को वहाँ कुछ महीनों के लिये रहे थे। केनेथ बुर्क वहाँ कई बरस रहे। स्टेनले एडगर हायमन और बर्नार्ड मालामूड और वॉलेस फ़ॉली भी वहाँ थे। हार्वर्ड नेमेरोव को भी मैं वहीं मिला। बाद में मैंने 1968-69 में एक साल उनकी जगह बतौर विज़िटिंग प्रोफ़ेसर ब्रेण्डाइज़ यूनिवर्सिटी में पढ़ाया भी।
जहाज़ के तीन हफ़्तों से ज़्यादा के सफर ने, लन्दन और न्यूयार्क में कुछ-कुछ दिनों के क़याम के बाद बेनिंगटन कॉलेज में पूरे एक महीने की ओरिएण्टेशन ने मुझे और मेरे जैसे अजनबियों को अमरीका और हार्वर्ड के लिये तैयार कर दिया था। हार्वर्ड में कुछ हिन्दुस्तानी सूरतें भी दिखायी दे जाती थीं।
हार्वर्ड के प्रोफ़ेसर आई.ए. रिचर्ड्स को नीरद चौधरी ने मेरे बारे में एक चिट्ठी भी अलग से लिख दी थी। वह रिचर्ड्स के दोस्त बन गये थे, जब रिचर्ड्स ने दिल्ली यूनिवर्सिटी में एक लेक्चर दिया था और चौधरी ने उन्हें अपने घर खाने पर बुलाया था। वह लेक्चर मैंने भी सुना था। पूरा लेक्चर कीट्स की ‘ओड टू नाईटेंगल’ की दो-तीन पंक्तियों पर था।
हार्वर्ड में बिताये तीन सालों के दौरान मैं रिचर्ड्स से कई बार मिला। उनने हेनरी जेम्ज़ पर मेरा थीसिस भी पढ़ी और ‘द टर्न ऑफ़़ द स्क्रू’ पर मेरे अध्याय को और एडमण्ड विलसन से मेरे मतभेद को उनने ख़ास तौर पर सराहा। जब मैं ब्रेण्डाइज़ में पढ़ा रहा था तो रिचर्ड्स ने मुझे और चम्पा को अपने घर भी बुलाया।
कहने का मतलब यह कि मैं हार्वर्ड में भी अजनबी नहीं था।
नीरद चौधरी ने मेरे लिये यू.एस.ई.एफ.आई. (यूनाइटेड स्टेट्स एजुकेशनल फाउण्डेशन इंडिया) को, जो भारत में फुलब्राइट वज़ीफ़ों की इंचार्ज संस्था थी, जो समझदार-ज़ोरदार सिफ़ारिशी ख़त लिखा था, वह बहुत लम्बा और अच्छा था। वैसे ख़त मेरे लिये उन लोगों ने भी नहीं लिखा था जो मुझे वर्षों से जानते थे और जो मेरे साथ पढ़ा भी रहे थे। नीरद बाबू मुझे विदा करने दिल्ली के स्टेशन पर भी पहुँच गये थे।
आनन्द कुमारस्वामी की तीसरी पत्नी और इकलौते बेटे की माँ डोना लुइज़ा कुमारस्वामी से मुलाकात भी एक संयोग था, जिसकी कहानी तुम्हें सुनाता हूँ।
मैं एक दिन हार्वर्ड की मुख्य लाइब्रेरी, वाइडनर, के बुक-स्टैक्स के उस निचले तले में भटक रहा था जिसमें संस्कृत, अरबी, फ़ारसी, हिबू्र, ग्रीक, लेटिन की वे किताबें थीं जिन्हें बहुत कम लोग इस्तेमाल करते हैं। मेरे अपने बैठने का करेल तीसरी या चौथी मंज़िल पर था। मैंने उस निचली मंज़िल के पुस्तक-स्टेक्स की कतारों में एक वृद्ध महिला को एक बड़ी-सी किताब में खोये हुए देखा। मेरा माथा ठनका कि वह श्रीमती कुमारस्वामी ही होगीं लेकिन मैं कुछ बोला नहीं। मैंने सुन रखा था कि उनकी विधवा पत्नी हार्वर्ड के पास ही केम्ब्रिज में कहीं उसी मकान में रह रही हैं जिसमें कुमारस्वामी उनके साथ रहा करते थे। मैं कनखियों से उस महिला को दूर से देखता रहा। फिर मैंने उसे अपनी तरफ आते हुए देखा तो मैं भी आगे बढ़ा। उसने पूछा- मैं आपसे पूछ सकती हूँ कि आप किस देश के हैं? मैंने कहा, भारत से। ‘आप अगर फ़ारसी जानते हों तो इस किताब की इस सतर का अर्थ मुझे अँग्रेज़ी में समझा सकते हैं?’ ‘कोशिश करूँगा।’ उस महिला ने हाथों में उठायी उस किताब को खोला और सतर पर अपनी अँगुली फिरा दी। मैंने उससे फ़ौरन पहले और बाद की सतरें भी पढ़कर उस सतर का अनुवाद अँग्रेज़ी में कर दिया और फिर उस अर्थ को उसकी कॉपी में लिख भी दिया। जब वह खुश नज़र आयीं तो मैंने उनसे पूछने का साहस किया कि वह श्रीमती कुमारस्वामी तो नहीं? उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, ‘जी, लेकिन आपको पता कैसे चला?’ मैंने कहा, जैसे आपको पता चला कि मैं भारत से हूँ और शायद मुझे फ़ारसी आती हो। इस पर हम एक साथ हँसे, धीमी आवाज़ में। हम सरगोशियाँ ही कर रहे थे वहाँ, फ़ैसला यह हुआ कि हम बाहर चलकर हेयस बिकफोर्ड-हार्वर्ड के लोगों का एक चहेता केफ़ेटेरिया और अड्डा- में कॉफ़ी पीएँ।
इस संयोग से हमारा सम्पर्क हुआ और जल्द ही वह घनिष्ठ भी हो गया। तब तक चम्पा और उसके साथ रचना और ज्योत्स्ना केम्ब्रिज आ चुके थे और मुझे हॉल्डेन ग्रीन का वह स्थान मिल चुका था जिसमें हार्वर्ड के वह जोड़े रहते थे जिनमें से कोई एक हार्वर्ड से किसी भी विषय पर पीएच.डी. कर रहा हो।
पता नहीं क्यों लेकिन श्रीमती आनन्द कुमारस्वामी से मिलने और उनका हमारे घर आना-जाना और जब हम दिल्ली से चण्डीगढ़ चले गये तो उनका वहाँ आना और एम.एस. रन्धावा के पास ठहरना और वहाँ हमारा मिलना हम दोनों के लिये बहुत उत्साह की बात रही- उनके अन्त तक।
वह अन्त तक कुमारस्वामी के क़ागज़ात और पाण्डुलिपियाँ ठीक करती रहीं, उनका सम्पादन करती रहीं। उनसे शादी करने से पहले वह उनकी सेक्रेटरी और सहायक थीं।
उनके घर जाना, जाते रहना और कुमारस्वामी की स्टडी में बैठना, उनकी किताबों को छूना मुझे बहुत ही अच्छा लगता था। ऐसा महसूस होता था जैसे उन्हें और उनकी महानता और महत्ता को छू लिया हो। वह उनकी छोटी-छोटी और बड़ी-बड़ी बातें भी बताया करती थीं। उनने मेरे और चम्पा और दोनों बेटियों के कई फोटो भी लिये। वह फ़ोटोग्राफ़र बहुत ऊँचे दर्ज़े की थीं और उनका कैमरा बहुत पुराना था।
उदयन- नीरद चौधरी भारत के बौद्धिकों के बीच विवादास्पद ही रहे। आपका उनसे सम्बन्ध प्रगाढ़ रहा है और आप जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, उन्हें भारत का महत्वपूर्ण विचारक मानते रहे। उनके और आपके रिश्ते के इतिहास पर कुछ देर ठहरा जाए। पर पहले आप पिछले सवाल का बाकी क़िस्सा पूरा करें।
वैद साहब- तुमने देखा ही होगा कि नीरद चौधरी मेरे अपने बौद्धिक और अकादमिक जीवन में भी यदा-कदा एक वज़नदार भूमिका निभाते रहे। अगर मुझे ग़लत याद नहीं तो वह मेरे कहने पर हंसराज कॉलेज में भी एक भाषण देने गये थे। उनसे मेरी ख़तोकिताबत भी रही। वे पाट्सडैम में आकर हमारे घर रहे थे और उन्होंने हिन्दुइज़्म पर एक विवादास्पद भाषण दिया था; उन्हीं दिनों उनने हिन्दुइज़्म पर एक विवादास्पद किताब लिखी थी। मैंने उन्हें रोज़र लिप्से, जो उन दिनों पाट्सडैम के कला विभाग के अध्यक्ष थे, से भी मिलवाया था और नीरद बाबू ने मृत्यु के बारे में उनके एक सवाल के जवाब में कुछ मार्मिक कहा था। पाट्सडैम के बौद्धिक उनकी प्रखरता से अति प्रभावित हुए थे, जैसे कि वह उनसे पहले या बाद रामकुमार के स्लाइड लेक्चर से प्रभावित हुए थे, जो उनने कॉलेज के कला विभाग में आधुनिक भारतीय कला के सन्दर्भ में अपनी कला के विकास-मूर्तन से अमूर्तन तक-के बारे में दिया था।
नीरद चौधरी को मैं भी विवादास्पद मानता हूँ लेकिन इस स्वीकार से मेरी दृष्टि में उनकी वैचारिकता या उनके विचार का महत्व अधिक ही होता है, कम नहीं। उनकी पहली किताब, ‘द ऑटोबायोग्राफी ऑफ़़ एन अननोन इण्डियन’ जो उन्होंने लिख तो 1947 से पहले ही ली थी लेकिन प्रकाशित आज़ादी के बाद 1950 में हुई, ने जो तहलका देश और दुनिया में मचाया था, उसमें विवाद भी था, सराहना भी। कई लेखकों की राय में उसका पहला हिस्सा जिसमें लेखक ने अपने गाँव का और अपने बचपन और लड़कपन का नक्शा खैंचा है, किसी भी बड़े बांग्ला के या किसी और भारतीय भाषा के उपन्यास से कम नहीं।
अपनी ऑटोबायोग्राफी के आरम्भ में ब्रिटिश साम्राज्य की स्मृति को किया गया सलाम (डेडिकेशन) अगर नीरद बाबू ने न दिया होता तो किताब के खिलाफ़ इतना शोर शायद ही मचाया जाता। बहुत बाद में उनने यह सफ़ायी भी दी थी कि उनके उस वक्तव्य को समझा नहीं गया। इस समर्पण में व्यंग्य का अंश भी था, जिसे पकड़ने की फुरसत किसी के पास नहीं थी। नीरद चौधरी के बारे में प्रचलित तरह-तरह की अफ़वाहों में भी मुबालिगा हुआ करता था। इसमें किसी शक की गुँजाइश नहीं कि उनकी शख़्सियत में चार्ली चेप्लिन की-सी फ़िल्मी हरकतों का आधिक्य था जिन पर हर किसी को दूर से ही हँसी आती थी। हिन्दुस्तान में ऐसी हरकतों की खिल्ली उड़ाने में किसी को कोई संकोच नहीं होता, शर्म नहीं आती। इसका ज़िक्र वह खुद अपने लेखन में किया करते थे, यानी वह अपनी खिल्ली उड़ाया करते थे। उन्हें जानने और चाहने वाले लोग, जिन में मैं अपने आपको शामिल करता हूँ, जानते हैं कि वह सच्ची मज़ाहिया नज़र के स्वामी थे। उनमें बालसुलभ भोलापन और असंख्य विसंगतियाँ भी थीं। लेकिन उनका दिमाग़ बला का तेज़ और उनका दिल बिलकुल साफ़ था। उनके किरदार में झूठ और छलावा लेश मात्र भी नहीं था।
1981 में जब हम भारत आ रहे थे, हम लन्दन में कुछ दिन रुके ही इसलिए थे कि हम नीरद बाबू और उनकी पत्नी अमीय को मिलने ऑक्सफोर्ड जा सकें। हम अपनी एक दोस्त की बहन के घर ठहरे हुए थे। निश्चित दिन पर हम डॉ. मोहिनी और उसकी बेटी के साथ ब्राइटन से ऑक्सफोर्ड कार में गये। नीरद बाबू ने मुझे वह कमरा दिखाया जो उन्होंने हमारे लिये ठीक किया हुआ था। हमने उनके घर रुकने का ख़्याल बदल दिया था, यह सोचकर कि उन्हें 80 से ऊपर हो जाने के कारण कष्ट हो सकता है। उन दोनों ने हमें जैसा स्वादिष्ट और सुरुचिपूर्ण बांग्ला खाना खिलाया, जैसी बढ़िया बियर पिलायी, वैसा खाना और पीना शायद ही पहले कहीं मिला हो। खाने के दौरान नीरद बाबू अपनी जवानी का एक क़िस्सा सुनाते रहे, जिसका सारांश था कि वह एक बार किसी छोटे-से रेल्वे प्लेटफार्म पर एक देहाती लड़की को दूर से देख कर ही उसकी सुन्दरता पर मोहित हो गये और जब उनकी गाड़ी वहाँ से चल दी तो वह फफक कर रो दिये। इस बिन्दु पर पहुँचते-पहुँचते उनकी आँखें भीग गयी थीं लेकिन कहानी की तान उन्होंने यह कहकर तोड़ी-आज इस मथुरा की मूर्ति को देख, और यहाँ नीरद बाबू ने डॉ. मोहिनी की सुन्दर बेटी की तरफ इशारा किया, मुझे वह देहाती लड़की याद आ गयी। मेज़ पर बैठे सब लोग स्तब्ध रह गये।
लंच के बाद हम ऑक्सफोर्ड की सैर को निकाले तो नीरद बाबू ने अपना लिबास बदल लिया। बाहर इतवार की भीड़ थी। नीरद बाबू चार्ली चेप्लिन का अवतार बने चल रहे थे लेकिन वहाँ किसी को हँसी नहीं आ रही थी। वह मथुरा की मूर्ति को शान से चलने का ढंग सिखा रहे थे। फिर वह दौड़ते हुए किताबों की एक दुकान में घुस गये और कुछ ही देर बाद मेरे लिये अपनी एक किताब खरीद लाये, ‘क्लाईव ऑफ़़ इण्डिया’; वहीं खड़े-खड़े उसपर कुछ शब्द लिखे और किताब मुझे दे दी।
उनके घर से चलते वक़्त उनकी आँखों में आँसू थे। मैंने झुककर उन्हें प्रणाम किया और हम चल दिये। अन्तिम बार चम्पा और मैं जब उन्हें लन्दन से ऑक्सफोर्ड में मिलने गये तो उनने मकान बदल लिया था, उनकी पत्नी अमीय का देहान्त हो चुका था, उनका बेटा ध्रुव उन्हें मिलने आया हुआ था; वह कोशिश कर रहा था कि वह उसके साथ दिल्ली लौट जाएँ और उसके पास वहीं रहें लेकिन वह लौटने के लिए तैयार नहीं थे क्योंकि यह कहते हुए वह एक शरारती बच्चे की तरह हँस रहे थे, उन्हें वहाँ अच्छा बीफ़ नहीं मिलेगा। ध्रुव को इस बात पर गुस्सा आ रहा था। नीरद बाबू ने मुझे हेनरी जेम्ज़ के उपन्यास ‘द पोर्टेट ऑफ़़ अ लेडी’ का वह संस्करण दिखाया, जिसमें उन्होंने छपायी की एक ग़लती पकड़ी थी!
ऊपर के एक छोटे से कमरे को दिखाते हुए उनने हमें बताया यह कमरा अमीय का था और अब मेरा मन्दिर है। फिर हमें ऑक्सफोर्ड से मिली डी.लिट. की हॉनरिस कोज़ा डिग्री दिखायी और मल्लिका का दिया हुआ सी.बी.ई. का सब कुछ दिखाया। उनकी ऐसी ही बातों पर लोगों को उन पर ग़लत हँसी आती है। मुझे जो हँसी आती है उसमें ग़लती कोई नहीं होती, वह मुझे उनके बालसुलभ भोलेपन पर ही आती है। उनसे विदायी प्रणाम करते समय मेरी आँखें भी भीगी हुई थी, उनकी भी।
नीरद बाबू का अध्याय खत्म करने से पहले उनकी पुस्तकों में अपनी कुछ चहेती पुस्तकों की सूची बनाना चाहता हूँ :
सबसे ऊपर उनकी पहली किताब : ‘द ऑटोबायोग्राफी ऑफ़़ एन अननोन इण्डियन’। यही मैंने सबसे पहले पढ़ी थी और इसी पर मैं सबसे ज़्यादा फिदा हुआ था, इसकी सारी विवादास्पदता के बावजूद और कारण। उन पाठकों में मैं भी था, जिन्हें इसमें एक बड़े उपन्यास का-सा वज़न महसूस हुआ था। उसके बाद उनकी दूसरी किताब ‘द कांटिनेंट ऑफ़़ सर्से’ जो पहली के 14 वर्ष बाद 1965 में प्रकाशित हुई। उसके बाद ‘हिन्दुइज़्मः अ रिलिजियन टू लिव बाय’ 1979 में, उसके बाद ‘द स्कॉलर-एक्स्ट्रा ऑर्डिनरी’, मेक्स-मूलर की जीवनी। उनके निबन्धों का एक संग्रह, ‘द इण्डियन इंटलेक्चुअल्स’ भी मुझे पसन्द है। और ‘अ पैसेज टू इण्डिया’ पर उनका लेख जो ‘एंकाउण्टर’ में प्रकाशित होकर चर्चित हुआ था और ‘किम’ पर उनका लेख भी।
उदयन- आप जब अमरीका में हेनरी जेम्ज़ की कहानियों पर शोध कर रहे थे, मुझे आपने बताया था कि आपका संवाद उन दिनों वहाँ कई लेखकों और अध्येताओं से रहा था जैसे हैरी लेविन। आपको वहाँ के अध्येताओं में कौन-कौन याद हैं, कौन से लेखकों की आपको याद है? क्या उन दिनों में आपकी भेंट किन्हीं चित्रकारों से भी हुई थी? क्या आप वहाँ ऐसे भी कुछ लेखकों या चित्रकारों से भी मिल सके थे जिनसे आप कई दिनों से मिलना चाहते रहे थे? वहाँ के विश्वविद्यालयों में उन दिनों कैसा वातावरण था?
वैद साहब- हार्वर्ड के तीन वर्षों में अतिव्यस्त भी रहा, अतिमस्त भी। वह मेरे तीन बेहतरीन वर्ष कहे जा सकते हैं। चम्पा और बेटियों के आ जाने से पहले भी मुझे रहने के लिए एक अच्छी जगह मिल गयी थी, जहाँ एक मकान मालकिन की छत्रछाया में हम तीन-चार अध्येता रहते थे। वहाँ मैं तीन महीने रहा। फिर मुझे उससे भी एक और अच्छी जगह हार्वर्ड के परिसर के और नज़दीक मिल गयी। वह एक कोऑपरेटिव काम्यून-सा था। उसकी संचालक भी एक वृद्ध लेकिन खूब चुस्त, अनुभवी, वामपन्थी महिला ही थीं, जो अभी तक अनेक संस्थानों में सक्रिय थी और दिनभर अपने कमरे में कुछ न कुछ टाइप करती रहती थीं। उनका नाम लोरेंस लुस्कोम्ब था और हम सब उनको लोरेंस कहकर बुलाते थे। वहाँ एक जोड़ा भी था, रॉबर्ट और केरल गस्नर। उनकी एक बेटी और एक बेटा था, लिण्डा और टिमी। रॉबर्ट हार्वर्ड के डिविनिटी स्कूल से पीएच.डी. कर रहा था, केरल बच्चों को सम्भाल रही थी। बाकियों में एक और हिन्दुस्तानी भी था, जो आगरा से था और वह फिज़िक्स में पीएच.डी. कर रहा था, एक लड़की थी, जो एम.आई.टी. से कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग में कुछ कर रही थी। वह एक पुराना मकान था; उसमें दो मंज़िलें थीं, कई कमरे थे, कई बाथरूम थे। औरतें बारी-बारी रात का खाना बनाती थीं, आदमी सफ़ाई वगैरह करते थे और बर्तन माँजते थे। नाश्ता और लंच सब अपना-अपना बना लेते थे। खरीदारी का काम सब में बँटा हुआ था। सब्ज़ी-तरकारी के लिए सबको बारी-बारी जाना पड़ता था। किचन में एक नोटिस बोर्ड लगा हुआ था। उस पर हम सबकी नज़र अक्सर दौड़ जाती थी क्योंकि वहाँ जानकारियों के अलावा मज़ाक और कार्टून भी दिखायी दे जाते थे। रात का खाना सब एक साथ खाते थे। मेहमानों की इज्ज़त तो थी लेकिन सूचना पहले से देनी पड़ती थी।
चम्पा भी दो बेटियों के साथ समुद्री जहाज़ पर ही आयी थी। वह भी लन्दन रुकी थी। उसका भी पहला विदेशी सफ़र था। मैं उन दिनों इतना व्यस्त था कि चम्पा को लेने न्यूयार्क भी नहीं जा सकता था। इसलिए रॉबर्ट और केरल गस्नर ने ही न्यूयार्क में चम्पा का स्वागत किया और वही उसको अपनी कार में लेकर केम्ब्रिज आये। चम्पा और बेटियों के आ जाने के बाद एक-दो दिनों में ही हमें हॉल्डेन ग्रीन के मकानों में से एक अलग मकान मिल गया।
चम्पा के आ जाने के बाद मेरी व्यस्तता में रौनक भी आ गयी। श्रीमती कुमारस्वामी भी आने लगीं, हम उनके घर भी जाने लगे। वेद मेहता भी उन दिनों हार्वर्ड में ही थे। वह भी आने लगे। वेद वटुक भी अपनी पत्नी के साथ हॉल्डेन ग्रीन में ही रह रहे थे; वह भी मिलते-जुलते रहते थे। दिल्ली के एक डॉ. मुर्घायी हार्वर्ड में फिज़िक्स में कुछ कर रहे थे। वह भी हॉल्डेन ग्रीन में ही रहते थे। उनकी दो बेटियाँ भी थीं, हमारी बेटियों की हमवयस्क। उनसे भी मेलजोल हो गया। हमारे सामने वाले मकान में कार्ल टीटर रहते थे, जो बाद में हार्वर्ड के भाषा-विज्ञान विभाग के अध्यक्ष बने। उन्हीं का भारी-भरकम टेप-रिकॉर्डर लेकर मैं एम.आई.टी. के एक गेस्ट हाउस में हक्सले से बातचीत करने गया था, वह मुझे उसके बोझ से झुका हुआ देखकर अचम्भित हो गये थे। हॉल्डेन ग्रीन में हैरी लेविन भी हमारे घर एक-दो बार आये थे। नागराजन तो अक्सर आता था।
एक दिन मेरा एक अमरीकी दोस्त और आर्चिबाल्ड मैक्लीश की राइटिंग वर्कशॉप का मेरा साथी हमें रॉबर्ट लॉवेल के घर बॉस्टन ले गया था। लॉवेल तब बॉस्टन यूनिवर्सिटी में पढ़ा रहे थे। उनकी बीवी भी एक प्रतिष्ठित लेखक थी- इलिजाबेथ हार्डविक। लॉवेल के बारे में रॉबर्ट फिट्ज़गेराल्ड ने मुझे बहुत कुछ बता रखा था- उनकी कविताएँ मैंने पढ़ी हुई थी। उस वक़्त भी उनके नाम और काम और मानसिक विकार की बड़ी धूम हुआ करती थी। वह शाम बहुत अच्छी गुज़री थी।
बॉस्टन में डॉ. अमिया चक्रवर्ती भी रहा करते थे। वह बॉस्टन यूनिवर्सिटी में ही प्रोफ़ेसर हुआ करते थे। उनकी बीवी डेनिश थी। उनसे भी हमारी मुलाकात कई बार हुई। उनसे परिचय श्रीमती कुमारस्वामी ने ही करवाया था।
हार्वर्ड से दिनों में मैं किसी चित्रकार के सम्पर्क में नहीं आया था लेकिन मेरे एक अच्छे फ़ोटोग्राफ़र दोस्त की पत्नी इचिंग खूब किया करती थी। उसने मेरा एक इचिंग बनाकर मुझे उसका एक छापा दिया था। वह हमारे वसन्त कुंज वाले घर में मेरे क्रन्दन कक्ष (स्टडी) में टँगा रहता था।
कवियों और अन्य लेखकों से मिलने-जुलने और गप्प मारने के अवसर मुझे हार्वर्ड के दिनों में कम और पाट्सडैम के वर्षों में ज़्यादा मिले क्योंकि एक तो पाट्सडैम में मैं ज़्यादा अर्सा रहा और दूसरे मेरी वजह से मेरे बुलावे पर कई अच्छे लेखक और कलाकार वहाँ आते भी रहे। भारत से ही कई लोग वहाँ आये जैसे निर्मल, रामकुमार, सोनल मानसिंह, सुरेश अवस्थी, पी. लाल, नीरद चौधरी। कई अमरीकी कवि और उपन्यासकार, आलोचक भी वहाँ आये, जेम्स डिकी, एलेन गिंसबर्ग, एलेन डूगन, अनाइस नीन, पॉल एंगल, जॉन गार्डनर, जे.वी. कनिंघम, रिचर्ड पोइरियर, हैरी लेविन।
अमरीकी विश्वविद्यालयों में 60 के दशक में राजनैतिक, संस्कृतिक, साहित्यिक और बौद्धिक हलचल मची रहती थी। जिस वर्ष मैं ब्रेण्डाइज़ में था, वहाँ और हार्वर्ड में हर रोज़ कुछ न कुछ होता रहता था।
उदयन- आपने अपने पिछले जवाब में हक्सले का ज़िक्र किया। मुझे याद है कि बरसों पहले आपने मुझसे उस मुलाकात की उड़ती-उड़ती बात की थी। क्या आप उसे कुछ विस्तार से याद करना चाहेंगे।
वैद साहब- हक्सले का हम भारतीय युवाओं के बीच एक ज़माने में बहुत बोल-बाला था, फ्ऱाँस के अस्तित्ववादियों से भी ज़्यादा। इसलिए 1961 में जब मुझे केम्ब्रिज में पता चला कि वह हार्वर्ड के पड़ोसी एम.आई.टी. में कुछ महीनों के लिये आये हुए हैं, मैंने उन्हें एक पिक्चर पोस्ट-कार्ड पर उनसे एक लम्बी बातचीत का प्रस्ताव भेज दिया। वह तुरन्त मान गये तो मैंने उनसे फ़ोन पर समय और स्थान निश्चित कर लिया और फिर अपने पड़ोसी और दोस्त कार्ल टीटर का एक बहुत भारी भरकम टेप-रिकार्डर, जिस पर उसने अमेरिकन इण्डियन भाषाओं पर शोध-कार्य किया था, लेकर मैं निश्चित समय पर हक्सले के गेस्ट हाउस में पहुँचा तो मुझे उस टेप-रिकार्डर से झुका देखकर वह करुण हो मुस्करा दिया। मैंने सफ़ाई पेश करते हुए कहा, ये मेरा नहीं, मेरे दोस्त का है, मानो उस बोझ का बोझ अपने उस दोस्त पर डालकर मैं हल्का हो गया हूँ। उस मशीन को चलाने में हक्सले अपनी लगभग नबीना आँखों से मेरी मदद करते रहे। आखिर वह चल ही पड़ी और हमारी बातचीत शुरू हो गयी। मैंने अपने सवाल, अगर मुझे ठीक याद है, उनके उपन्यासों से शुरू किये- ‘पॉइंट काउंटर पॉइंट’, ‘आइलेस इन गाज़ा’, ‘अ ब्रेव न्यू वर्ल्ड’, वगैरह से और उनसे पूछा कि ‘नॉवेल ऑफ़़ आइडियास’ (विचारों का उपन्यास) के बारे में वह क्या सोचते हैं। उनकी विनम्रता और उदारता से मैं अब तक प्रभावित हो चुका था। वह बहुत संभलकर बराबर मुस्कराते हुए बोल रहे थे और अपनी बहुत लम्बी टाँगों को सम्भालने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने छूटते ही कह दिया कि वह असली या ‘पैदाइशी’ उपन्यासकार थे ही नहीं, कि उनके चरित्रों में असली जान नहीं होती, वह हाड़-माँस के नहीं होते, कि उनके उपन्यासों में निबन्ध-तत्व का आधिक्य होता है; मैं उनसे असहमत होने की कोशिश करता रहा। मुझे याद है कि मैंने उनसे आनन्द कुमारस्वामी की बात शुरू करते हुए यह भी पूछा था कि वह उनसे कभी मिले भी। उन्होंने बताया कि उनसे मिलने का कोई संयोग तो नहीं हुआ लेकिन वह उनकी उपस्थिति से आगाह हुए बगैर नहीं रह सकते थे क्योंकि वह उन विद्वानों में से एक थे जिन्होंने हमेशा ‘ट्रेडिशन विथ अ’ के स्थान पर ‘द’ का ही पक्ष लिया और उसके आलोक में वह मध्यकाल के बाद पतन ही पतन देखते रहे। उनकी इस आलोचना से मैं भी, अपनी तमाम अज्ञानताओं के बावजूद किसी हद तक सहमत था लेकिन मैं कुमारस्वामी के अधिकार के साथ उन दोनों में से किसी का पक्ष नहीं ले सकता था, इसलिए मैं चुपचाप उनकी यह बात सुनता रहा।
मैंने उनसे उनकी पुस्तक ‘डोर्ज़ ऑफ़़ परसेप्शन’ के बारे में बात करते हुए यह भी पूछा कि उनके अपने प्रयोग तरह-तरह के रसायनों और मेस्केलिन वगैरह से- कैसे रहे? उन्होंने हँसते हुए जवाब दिया कि आखिर शिव जिस सोमरस और धतूरे और भाँग को पीकर अपनी तीसरी आँख खोल लिया करते थे, वह भी रसायन ही थे। अब मैंने उनसे यह पूछा कि योगियों की समाधियों में रसायन की क्या भूमिका रहती है तो उन्होंने कहा कि यौगिक समाधि और किसी ड्रग या एल.एस.डी. की दी हुई मस्ती में कोई तात्विक अन्तर शायद नहीं, सिवाय इसके कि समाधि का असर ज़्यादा देर तक रहता होगा।
उन्हीं दिनों हार्वर्ड में टिमोथी लियरी भी थे और वे भी एल.एस.डी. के साथ तरह-तरह के प्रयोग कर रहे थे और बाबा रामदास बन जाने की तैयारियाँ कर रहे थे।
उसके बाद ही भारत लौट कर मैंने सुना कि हक्सले के केलिफोर्निया के घर में आग लगी और उनके बहुत से कागज़ात जलकर राख हो गये लेकिन हक्सले उसके कुछ ही देर बाद जब भारत आये तो दिल्ली में उन्हें देखने मैं भी गया। खुशवन्त सिंह ने उनके बारे में बोलते हुए उस आग का ज़िक्र भी किया और कहा कि हक्सले एक दूल्हा हैं। मेरे पास ही अर्थशास्त्री प्रोफ़ेसर राज कृष्णा, दया के दोस्त, खड़े हुए थे, मुझसे बोले, आप तो हक्सले से मिलने यहाँ भी गये होंगे, मैंने आपकी उनसे बातचीत वीक्ली में पढ़ी थी; मैंने जवाब दिया, मैं नहीं गया, संकोचवश।
उदयन- आप दिल्ली से हार्वर्ड गये थे। दिल्ली विश्वविद्यालय की संस्कृति एक तरह की थी, आज से कहीं बेहतर। पर हार्वर्ड की स्थिति इससे अलग रही होगी। हार्वर्ड विश्वविद्यालय में खुलापन कहीं अधिक रहा होगा। आपको वहाँ जाकर अचानक झटका-सा लगा होगा। आपने अपने शरुआती दिन का हल्का-सा विवरण दिया है, क्या आप वहाँ अपने पहले कुछ दिनों के विषय में कुछ कहेंगे।
वैद साहब- किसी ऐसे झटके की कोई याद कोशिश करने पर भी अब मुझे नहीं आती जिससे मुझे कोई चिन्ता हुई हो या चोट पहुँची हो। शुरू के दो-चार दिन तो रिहाईश वगैरह के इन्तज़ाम में ही लगे; हार्वर्ड में विदेशियों के लिए ख़ास प्रबन्ध था। एक अमरीकी परिवार ने पहले से ही मेरे बारे में हार्वर्ड से उपलब्ध जानकारी के आधार पर मुझे सहायता और ‘सरपरस्ती’ के लिए चुना हुआ था। वह परिवार उस समय केम्ब्रिज से कुछ मील दूर एक उपनगर में रहता था। पति, टेड पोलुम्बॉम फ्री-लान्स फोटोग्राफ़र था, पत्नी, नायना (वह भारतीय नहीं थी) प्रिण्ट-मेकर थी; उनकी दो बेटियाँ हमारी बेटियों की उम्र की ही थीं। टेड और नायना की साहित्य और कला में गहरी रुचि थी। उनके साथ अच्छी दोस्ती बना लेने में मुझे कोई देर नहीं लगी। वह मेरे मेज़बान परिवार बने। जब एक वर्ष बाद चम्पा भी दो बेटियों को लेकर मेरे पास आ गयी और हम हॉल्डन ग्रीन में रहने लगे तो पोलुम्बॉम परिवार से हमारे मेल-जोल और बढ़ गये। 1961 में हमारी वापसी के बाद टेड दिल्ली भी आया। उसकी योजना थी कि वह दिल्ली के जन-जीवन की झलकियाँ अपने कैमरे से लेगा, मैं उन झलकियों के बारे में कुछ लिखूँगा और हम एक किताब बनायेंगे। मैं कई दिन उसके साथ सुबह-सवेरे पुरानी दिल्ली के गली-मुहल्लों में घूमा किया; उसने बहुत-सी तस्वीरें ली भी, लेकिन हमारी योजना किन्हीं कारणों से योजना ही रही।
हार्वर्ड में हम सबकी खिंची हुई टेड की तस्वीरों की कलात्मकता की बात ही और है। मैं सालों तक उस परिवार के सम्पर्क में रहा। दो-चार बार उन्हें अमरीका में भी मिला। टेड अब नहीं रहा, नायना बॉस्टन में रहती है। उनका एक बेटा भी हुआ, बाद में; उनकी एक बेटी लोवा यूनिवर्सिटी में जर्नलिज़्म की प्रोफ़ेसर रही। उसकी शादी एक चीनी से हुई। दूसरी बेटी ने शादी नहीं की। उनके बेटे, लेन ने एक भारतीय लड़की से शादी की। टेड पोलुम्बॉम का सारा काम वाशिंगटन के एक नये न्यूज़ियम (हाँ, यह शब्द सही है) में रखा हुआ है।
टेड पोलुम्बॉम येल में पढ़ा; शुरू से ही वह प्रगतिशील ख़यालों का था। 1952-53 में सेनेटर जोसेफ़ मैकार्थी की बदनाम कमिटी ने वाशिंगटन में कम्यूनिस्टों के खिलाफ बहुत शोर मचा रखा था और बहुत से लेखकों, फ़िल्मी और मंच के अभिनेताओं, प्रोफ़ेसरों और बौद्धिकों पर देशविरोध के आरोप लगाकर उन्हें अमरीका-विरोधी गतिविधियों के लिए ब्लैकलिस्ट कर या करवा दिया था। हमें भारत में यह चिन्ताजनक खबरें मिलती रहती थीं और हम उत्तेजित होते रहते थे। हार्वर्ड के शुरुआती दिनों में मुझे उस दौर के बारे में तरह-तरह के क़िस्से-कहानियाँ सुनकर- हार्वर्ड के कुछ विश्व-प्रसिद्ध विद्वानों और आलोचकों के- अधिक झटके लगे थे। मिसाल के तौर पर जब मैंने सुना कि हार्वर्ड के एक प्रोफ़ेसर और मशहूर आलोचक, एफ.ओ. मेथिसेन ने बॉस्टन के एक होटल के एक कमरे से कूद कर आत्महत्या कर ली थी क्योंकि वह मैकार्थी के आरोपों से परेशान और अवसादग्रस्त रहने लगे थे तो मुझे बहुत दुःख हुआ था। मेरा नया दोस्त टेड भी उसी मैकार्थी का शिकार होकर परेशान हो चुका था।
मैंने मैथिसेन की हेनरी जेम्ज़ और टी.एस. एलियट पर और अमरीकी साहित्य पर उनकी क्लासिक किताब ‘द अमेरिकन रेनेसां’ भारत में ही पढ़ी-सुनी हुई थी। हैरी लेविन उनके प्रिय शिष्य थे और उनने ‘द अमेरिकन रेनेसां’ लेविन को डेडिकेट की थी।
अपने पिछले किसी सवाल में तुमने मुझसे यह भी पूछा था कि भारत में ही आपने कैसे यह निर्णय ले लिया कि आप हार्वर्ड में हेनरी जेम्ज़ पर शोध करेंगे। अब उसका जवाब दे रहा हूँ : हेनरी जेम्ज़ के उपन्यास, ‘द एम्बेसेडर्स’ की तारीफ़ में पहले पहल ई.एम. फास्टर की पुस्तक, ‘एस्पेक्ट ऑफ़़ द नावेल’, पढ़ी और उसके बाद मेथिसेन की किताब, ‘हेनरी जेम्ज़ : द मेजर फेज़’ में, जो जेम्ज़ के अन्तिम तीन उपन्यास के बारे में है- ‘द अम्बस्सदोर्स’, ‘द विंग्स ऑफ़ द डोव’ और ‘द गोल्डन बोल’ के बारे में थी।
मैंने जेम्ज़ की कहानियों को अपने शोध के लिये इसलिए चुना कि उन पर मुझे कोई अच्छी किताब नहीं मिली थी। मेथिसेन को (उनके विद्यार्थी प्यार से मेट्टी कहा करते थे) मैंने शुरू के दिनों में कई बार सुना। हार्वर्ड के खुलेपन और ऊँचे स्तर का दिल्ली यूनिवर्सिटी से कोई मुकाबला नहीं किया जा सकता; उनमें ज़मीन आसमान का अन्तर था।
हार्वर्ड में रमने में मुझे कोई देर नहीं लगी थी; ख़ासतौर पर चम्पा और दो बेटियों के आ जाने के बाद मैं वहाँ बहुत खुश रहा। शोध खत्म हो जाने के बाद नागाराजन और मैंने अपने प्रोफ़ेसरों को एक मुश्तरका पार्टी भी दी थी- हमारे कई प्रोफ़ेसर और दोस्त मुश्तरका थे। मुझे याद है कि मेरे एक प्रोफ़ेसर, रूबेन ब्रॉवर (जो केम्ब्रिज, इंग्लैण्ड में आई.ए. रिचर्ड्स के शिष्य हुआ करते थे) उस पार्टी में बार-बार लोगों को यह बताये जा रहे थे कि मैं उपन्यासकार भी हूँ। मुझे बहुत झेंप होने लगी तो मैंने उन्हें टोका- मैंने तो अभी एक ही उपन्यास लिखा है। ब्रॉवर ने हँसकर कहा, उसे भी मैंने पढ़ा तो नहीं लेकिन मुझे यकीन है कि तुम और उपन्यास भी लिखोगे और अँग्रेज़ी में भी छपोगे। मेरी झेंप और बढ़ गयी थी।
यहाँ यह साफ़ कर दूँ कि जिस केम्ब्रिज का ज़िक्र मैंने हार्वर्ड के सिललिसे में कई बार किया, वह इंग्लैण्ड के केम्ब्रिज से भिन्न हैं- वह एक खूबसूरत और छोटा-सा अमरीकी शहर है, जहाँ एम.आई.टी. और हार्वर्ड पड़ोसी संस्थाएँ हैं। उस शहर को एक दरिया, चार्ल्स, बॉस्टन के बड़े और ऐतिहासिक शहर से विभाजित करता है। बॉस्टन और अमरीकी केम्ब्रिज को जुड़वाँ शहर भी कह सकते हैं। हार्वर्ड में हेनरी जेम्ज़ के बड़े भाई, विलियम जेम्ज़, बरसों प्रोफ़ेसर भी रहे। मेरे हार्वर्ड के दिनों में विलियम जेम्ज़ का एक बेटा, हेनरी जेम्ज़, उसी मकान में रह रहा था, जिसमें विलियम जेम्ज़ भी रहा करता था। आई.ए. रिचर्ड्स और हैरी लेविन उसे जानते थे। वह मुझे अपने पिता और चाचा की किताबें दिखाते थे। वह खुद चित्रकार थे, उनने हेनरी जेम्ज़ के बारे में बहुत कुछ बताया जो मेरे काम का तो नहीं था लेकिन मैं ध्यान से सुनता रहा।
अमरीका में आपको दुनिया भर के शहरों के नाम मिल जायेंगे। मैंने सुना है कि यहाँ दिल्ली नाम का भी एक कस्बा है, जिसे देलही कहा जाता है। इसी तरह रोम, लन्दन, ऑक्सफोर्ड, पेरिस वगैरह तो हैं ही।
उदयन- आप जब हार्वर्ड विश्वविद्यालय से भारत वापस आ गये, आप किन लोगों से मिला करते थे? तब तक निर्मल जी तो चेकोस्लोवेकिया चले गये थे, आपके अन्य मित्र नये कामों में लग गये होंगे और आप चण्डीगढ़ चले आये थे। क्या तीन बरसों में देश की स्थिति और बिगड़ गयी थी? या कुछ सुधार पर थी? क्या इस बार आप किन्हीं नये लोगों के सम्पर्क में आये थे?
वैद साहब- मुझे अब याद नहीं कि निर्मल कब किस वर्ष प्राग गया था। यह याद है कि जब मैं 1961 में हार्वर्ड से दिल्ली वापस आया तो भीष्म साहनी मॉस्को चले गये थे। चम्पा ने वापसी पर शकूर बस्ती के एक सरकारी स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया था, और मैंने तीन वर्ष छुट्टी पर रहने के बाद फिर हंसराज कॉलेज में, जो चित्रगुप्त रोड से दिल्ली यूनिवर्सिटी के कैम्पस में चला गया था। दिल्ली यूनिवर्सिटी के अँग्रेज़ी विभाग के अध्यक्ष बी. राजन बन गये थे और उनने मुझे दिल्ली यूनिवर्सिटी में हेनरी जेम्ज़ पर कुछ व्याख्यान एम.ए. के विद्यार्थियों को देने के लिये कहा था। उन्हीं की बदौलत मैं पहली बार अशोक और हिरेन गोहाँई को मिला था। अशोक के नाम और काम से मैं परिचित तो था लेकिन उनसे मिलने का अवसर पहले मुझे नहीं मिला था। नेमी जी को तो मैं अच्छी तरह जानता था लेकिन 1962 में मेरे चण्डीगढ़ चले जाने के बाद ही अशोक और रश्मि का सिलसिला शुरू हुआ था।
नये लोगों में मोहन राकेश, कमलेश्वर, मनोहर श्याम जोशी, श्रीकान्त वर्मा, महेन्द्र भल्ला, सुरेश अवस्थी, प्रयाग नारायण त्रिपाठी, प्रभाकर माचवे से बात-मुलाकात होती रहती थी। कृष्णा सोबती से भी उन्हीं दिनों शायद दोस्ती शुरू हो गयी थी। उषा प्रियंवदा से भी कभी-कभी सरसरी बात-मुलाकात हो जाती थी। राजेन्द्र यादव और मन्नू भण्डारी से भी मिलना-जुलना शुरू हो गया था।
हार्वर्ड के दिनों में विद्यानिवास मिश्रा से मुलाकात बर्कले में हुई थी। वात्स्यायन जी भी वहीं थे। दिल्ली में दूर से कभी-कभी वह बस में दिखायी दे जाते थे। उन्होंने तब अँग्रेज़ी में एक पत्रिका ‘वाक’ नाम से निकाली थी, जिसके सह-सम्पादक रिचर्ड बार्थोलोमिओ हुआ करते थे। उसके शायद पहले अंक में ही ‘उसका बचपन’ के अँग्रेज़ी अनुवाद का एक अंश प्रकाशित हुआ था। 1958 में मेरे हार्वर्ड जाने से पहले ‘उसका बचपन’ का मेरा अँग्रेज़ी अनुवाद ‘थॉट विकली’ में धारावाहिक छपा था।
स्वामीनाथन से दोस्ती हो ही चुकी थी। वापसी के बाद उससे भी मुलाकात होती रहती थी। देश की हालत सुधार पर नहीं थी।
चण्डीगढ़ चले जाने के बाद मैं दिल्ली से कट ही गया था। वहाँ मुल्कराज आनन्द टैगोर प्रोफ़ेसर बनकर आ गये थे। उनसे मुलाकात अक्सर होती रहती थी। वह जब कभी घर आते तो पार्टी के बाद बर्तनों की सफ़ाई में ज़िद करके मदद करते। हजारीप्रसाद जी भी उन दिनों वहीं थे। उनसे भी मिलना होता रहता था। नामवर सिंह भी वहाँ आते रहते थे। उन्हें पीने की दीक्षा मैंने ही दी थी, ऐसा वह कहा करते हैं। शहर वह सुन्दर था, लेकिन कलात्मक और साहित्यिक हवाएँ वहाँ कम ही चलती थीं।
मैंने वहाँ आर्थर मिलर के नाटक ‘अ व्यू फ्रॉम द ब्रिज’ को मंचित किया था, अपने निर्देशन में, अपने कुछ विद्यार्थियों के साथ। ब्रजिन्दर गोस्वामी और मनमोहन सिंह भी वहीं थे। काँग्रेसी नेता प्रताप सिंह कैरों उन दिनों पंजाब के मुख्यमन्त्री थे। उनके घर चण्डीगढ़ के बौद्धिकों की बैठक हुआ करती थी, जो कुछ महीने खूब चली। मनमोहन सिंह से हल्की-सी जान-पहचान और दोस्ती वहीं हुई थी।
उदयन- हार्वर्ड से भारत लौटने पर आपको अज्ञेय की उपस्थिति का कैसा, क्या एहसास हुआ? तब तक अज्ञेय हिन्दी साहित्य में अपना स्थान बना चुके थे। आपकी उनके लेखन के बारे में क्या राय थी?
वैद साहब- अज्ञेय के बारे में मेरी राय हमेशा दुविधाग्रस्त रही है, उनके लेखन के बारे में भी, उनकी शख़्सियत के बारे में भी। इसीलिए मैं किसी भी दौर में उनसे अपनी दूरी को कम नहीं कर सका। मुझे यह मान लेने में कोई संकोच नहीं कि शायद दोष मुख्यतया मेरा ही या मेरा भी रहा होगा। ‘मेरा ही’ और ‘मेरा भी’ में से किसी एक युग्म का चुनाव मैं अभी तक नहीं कर पाया। इस इन्तहाँ पर, जब उन्हें चल बसे भी तीस बरस होने को हैं और मैं खुद 90 का हो रहा हूँ, ये स्वीकार करते हुए मुझे अजीब-सा महसूस होता है कि मैं अब तक उनके लेखन के विषय में कोई निश्चित निर्णय कर सका हूँ न उनकी शख़्सियत के बारे में, मैं उनकी इन दोनों उपलब्धियों के बारे में हमेशा दुविधाग्रस्त ही रहा।
उनकी कविता को मैंने कभी ध्यान से साधा नहीं। उनके उपन्यासों और उनकी कहानियों को ज़रूर ग़ौर से पढ़ा है। उनके अन्य गद्य का मैं गम्भीर पाठक कभी नहीं रहा। उनकी डायरियों-‘भवन्ति’ ‘शाश्वति’ आदि को मैं अधिक महत्व नहीं दे पाता। उनका व्यक्तित्व मुझे शुरू-शुरू में रहस्यपूर्ण लगता रहा, इसलिए आकर्षक भी, लेकिन दूर से ही; उनके क़रीब होने या रहने का सौभाग्य मुझे कभी नहीं मिला। उनके बारे में दूर से देखे और सुने हुए क़िस्से और दृश्यों से बनी उनकी तस्वीर में मुझे बनावट का अंश कुछ ज़्यादा ही नज़र आता रहा। इसीलिए मैं उन्हें एक खूबसूरत नक़ाबपोश मानता रहा और जब मैंने उनके निधन के बाद उनको याद करते हुए भारत भवन के एक यादगार आयोजन के लिये कुछ लिख कर पढ़ा तो उसका शीर्षक था- ‘अज्ञेय : एक खूबसूरत नक़ाबपोश’। उस छोटे से निबन्ध में भी मेरी दुविधापूर्ण दृष्टि ही मुझे दिखायी दी। मैं अक्सर सोचता और कभी-कभी किसी-किसी से कह भी देता था कि वह एक ओवर-रेटेड लेखक और हस्ती हैं, हिन्दी जगत में।
1961 में हार्वर्ड से लौट कर भी मुझे यही महसूस होता रहा।
‘शेखर’ का पुनर्मूल्यांकन करने के मंसूबे मैं बाँधता ही रहा। उस अलिखित निबन्ध में मैं यह स्थापित करना चाहता था कि शेखर के खोखलेपन को लेखक खुद पकड़ नहीं पाया क्योंकि वह उसे विशिष्ट और किसी हद तक महान मानता है, और यही उसकी नज़र की कमज़ोरी है। अगर वह उसकी पोल खोल सका होता या उसे सच्ची और असली विशिष्टता दे सका होता तो मुझे और मेरे जैसे पाठकों को उनकी लेखकिया नज़र कमज़ोर न लगती और उसे लेखक और शेखर एक ही मिट्टी और मानसिकता के बने हुए नज़र न आते।
‘अपने-अपने अजनबी’ मुझे ‘शेखर’ और ‘नदी के द्वीप’ से कहीं ज़्यादा सशक्त और महत्वपूर्ण कृति लगती है और उनकी कहानियाँ भी। हिन्दी साहित्य में उनका स्थान ऊँचा तो है लेकिन मुझे उसकी ऊँचाई का औचित्य असन्दिग्ध कभी नहीं लगा। जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ यह कहते हुए या सोचते हुए मुझे यह भी महसूस होता है कि मैं शायद ग़लत हूँ, अपनी दुविधा की बदौलत, जिससे मुझे इंकार नहीं।
उदयन- आपके अज्ञेय के विवरण को पढ़कर यह लगे बिना नहीं रहता कि हिन्दी साहित्य में अज्ञेय को ऐसा असन्दिग्ध स्थान मिलना खुद इस साहित्य के मूल्यों को सन्दिग्ध बना देता है। आप खुद भी हिन्दी साहित्य की मूल्य व्यवस्था पर कई बार सवाल उठा चुके हैं। क्या आपको लगता है कि हिन्दी साहित्य का व्यापक परिदृश्य कथा या उपन्यास या कविता का ठीक से मूल्यांकन करने में कामयाब नहीं हो पाया है? क्या आपकी इन विषयों पर अपने किन्हीं दोस्तों से चर्चा हुआ करती थी? वे कौन से दोस्त थे जो आपकी इन चिन्ताओं में साझा करते थे?
वैद साहब- आधुनिक हिन्दी साहित्य में अज्ञेय के ‘असन्दिग्ध’ स्थान के औचित्य को सन्देह की निगाह से देखने भर से समूचा हिन्दी साहित्य अगर सन्दिग्ध हो जाता है तो हिन्दी साहित्य की बेचारगी करुणाजनक ही कही जाएगी। आधुनिक हिन्दी साहित्य की आलोचनात्मक दृष्टि और उपलब्धि के अभाव की शिकायत का शोर अक्सर सुना जाता है। उस शोर में मेरी आवाज़ बहुत ही धीमी और अप्रभावी रही है। जिन दोस्तों से इसके बारे में बात या बहस होती रही, उनकी संख्या भी ज़्यादा नहीं- निर्मल, श्रीकान्त, मनोहरश्याम जोशी, भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती, श्रीपत राय से कभी-कभी इस विषय पर बात होती रही लेकिन उस बात को भी गम्भीरता से नहीं लिया जा सकता क्योंकि उसमें भी परिहास का तत्व अधिक और तर्क और तथ्य का कम हुआ करता था।
हिन्दी आलोचना की विपन्नता और अमौलिकता की शिकायत का शोर हमेशा बहुत रहा है लेकिन इस शोर में भी आलोचना की आलोचना का संगीत बहुत ही कम लोगों और कृतियों में उभर पाया है। अशोक वाजपेयी की गुहारों में कभी-कभार कोई तान सुनायी दे जाती है लेकिन उसे अक्सर अन्य भारतीय भाषाओं के लेखक ज़्यादा ध्यान से सुनते हैं, हिन्दी के लेखकों की अपेक्षा।
नहीं, मैं नहीं समझता कि आधुनिक हिन्दी साहित्य के परिदृश्य में अज्ञेय के असन्दिग्ध स्थान के औचित्य पर सन्देह करने से सारा हिन्दी साहित्य सन्दिग्ध हो जाता है। हाँ, अगर मैंने अपने सन्देह को प्रमाणित करने के लिए शेखर का वह पुनर्मूल्यांकन ही कर दिया होता तो मेरे सन्देह में कुछ दम शायद आ जाता।
उदयन- आपका कहना बिल्कुल ठीक है। मेरा सवाल कुछ और था। मैं पूछ रहा था कि क्या आपको नहीं लगता कि हिन्दी साहित्य में जिन आधारों पर लेखकों का मूल्यांकन होता रहा है, वे आधार पुख़्ता नहीं, पिलपिले हैं। इसका खामियाजा हिन्दी के आपके जैसे नयी तरह से लिखने वालों और खुद हिन्दी साहित्य ने लगातार भोगा है। आप उन दिनों अपने लिखे को सबसे पहले किसे पढ़ने देते थे। क्या आपके कोई ऐसे दोस्त भी थे जिनकी अपने लेखन पर राय को आप महत्वपूर्ण मानते हैं।
वैद साहब- तुम्हारी बात समझने में ग़लती हुई, क्षमा करो।
हिन्दी साहित्य में मूल्यांकन के आधार भी पिलपिले हैं और उन आधारों पर जो मूल्यांकन किये जाते हैं वह न सिर्फ़ पिलपिले हैं बल्कि भ्रामिक भी और समूचे साहित्य के लिये ग़लत भी। मैं सारा दोष लिखित आलोचना को ही दे रहा था; मुझे अलिखित और वाचालिक-वाचालित या मौखिक आलोचना को उसका हिस्सा भी देना चाहिए। अगर मैंने अपना वह शेखर-पुनर्मूल्यांकन लिख दिया होता, अपने ही किसी अटपटे अंदाज़ में तो उसका आधार वैसा न होता जैसा हिन्दी आलोचना में प्रायः होता है। यह मेरी खुशफ़हमी हो सकती है लेकिन है। मुझे सचमुच अफ़सोस है कि मैंने ‘जैनेन्द्र की आवाज़’, ‘त्यागपत्र पर दो चार शब्द’, ‘हिन्दी आलोचना की एक तस्वीर’, ‘भारतीय उपन्यास के स्वरूप का सवाल’, ‘उसके बयान’, ‘कलाकार बतौर प्रवासी’ वगैरह जैसे कुछ और निबन्ध क्यों नहीं लिखे। उनसे बेशक हमारे हिन्दी विभागों, विद्वानों, आलोचकों, इतिहासकारों की त्रुटियाँ ज़्यादा वज़नदार होतीं लेकिन मुझे यह सन्तोष तो होता ही कि मैं अपनी राहत के लिए गुनगुना सकता, ‘मुक़ाबला तो दिल-ए-नातवाँ ने खूब किया।’
नहीं, छापने से पहले मैंने शुरू-शुरू में ‘कल्चरल फोरम’ में कुछ कहानियाँ पढ़ने और उन पर हुई बेबाक बहस पर अपने मन में बहस करने के अलावा कभी किसी दोस्त को अपनी कृति प्रकाशन से पहले नहीं दिखायी। संकोच के अलावा मुझे एक वहम भी रोक लेता था कि अगर किसी को दिखाऊँगा तो इस कृति का कुछ कर नहीं पाऊँगा। वैसे ऐसे कई दोस्त और शाग़िर्द शुरू से मुझे नसीब होते रहे और आखिर तक होते रहेंगे जिनकी राय की मैं क़द्र करता हूँ। उनके नामों की सूची मैं यहाँ या और कहीं नहीं बनाऊँगा।
उदयन- क्या हार्वर्ड के दिनों में आप नृत्य और संगीत की सभाओं में जाया करते थे? आपने पहले जेज़ सुनने का ज़िक्र किया ही था। क्या आप वहाँ किसी प्रदर्शनकारी कलाकार के निकट सम्पर्क में आये थे? क्या किसी फ़िल्मकार से आपकी बातचीत सम्भव हो सकी थी? मैं यह दो कारणों से पूछ रहा हूँ। पहला यह कि मुझे पता है कि आपकी इन कलाओं में रुचि है और यह कि क्या आपके विश्वविद्यालय में ऐसे सम्पर्क की सहज सम्भावना थी?
वैद साहब- हार्वर्ड के दिनों में और बाद में दो बार कुछ-कुछ महीनों के लिये हार्वर्ड और न्यूयार्क में अपनी किताब के सिलसिले में रहते हुए मैं भारतीय शास्त्रीय संगीत और नृत्य की हर उपलब्ध बैठक या सभा में जाया करता था। याद आता है कि एक बार अली अकबर खाँ की कॉन्सर्ट हार्वर्ड के मशहूर मेमोरियल हॉल में, जहाँ मैंने उन्हीं दिनों औडन और डॉ. राधाकृष्णन को भी सुना था, रखी गयी थी और हम दोनों रचना और ज्योत्स्ना समेत आधी रात तक उन्हें सुनते रहे थे। कॉन्सर्ट के बाद हम उस्ताद से मिले भी थे। वह कॉन्सर्ट संगीत के एक महान प्रतिष्ठान की तरफ से थी। उसमें दाख़िला मुफ़्त था, समय की कोई पश्चिमी बन्दिश नहीं थी। भारतीय लोग तो बड़ी संख्या में थे ही, अमरीकी रसिकों की उपस्थिति भी बहुत थी। उस्ताद ने डूबकर, किसी भी समझौते के बग़ैर, बजाया था। वैसे भी वह उनके कलात्मक शबाब के दिन हुआ करते थे। सरूर की कोई सीमा नहीं थी। उसके बाद जब मैं एक साल के लिये 1968-69 में ब्रेण्डाइज़ में था, अली अकबर खाँ हार्वर्ड और ब्रेण्डाइज़ के पास कहीं आये थे और हम सब उन्हें सुनने गये थे। इसी तरह बॉस्टन सिम्फनी हॉल में एक बार उदय शंकर और उनके ग्रुप का नृत्य देखने का सौभाग्य मिला था और मुझे उसके दौरान याद आता रहा था कि जेम्स ज्वॉयस ने अपनी बेटी लूसिया से कहा था कि वह उनका नृत्य देखने ज़रूर जाये, कि वह उसके लिये एक अलौकिक अनुभव होगा। तब उदय शंकर यूरोप के दौरे के दौरान पेरिस में नाचे होंगे। मैंने ‘पाथेर पांचाली’ भी 1958 में दूसरी या तीसरी बार हार्वर्ड में ही देखी थी, एमिली डिकिंसन की एक जीवनीकार और भारत-प्रेमी अमरीकी महिला के साथ। पश्चिमी शास्त्रीय संगीत की कुछ सभाओं में गया तो ज़रूर लेकिन कुतुहलवश ही, उसमें मेरी रुचि अविकसित ही रही। जेज़ मैंने अमरीका में बहुत सुना।
हार्वर्ड क्वायर में ही एक सिनेमाघर था जिसमें फ़िल्मी क्लासिक्स दिखाये जाते थे; उसमें मैंने कई बार वेद मेहता के साथ हम्फ्री बोगार्ट और इंगमार बर्गमेन की कई फ़िल्में भी देखीं। लेकिन किसी फ़िल्मकार से मेरी जान-पहचान हार्वर्ड के दिनों में या उसके बाद नहीं हुई।
लेखकों और आलोचकों से मेलजोल होता रहा। कुछ लेखक-एलेन दूगन, जेम्स डिकी, एनाइज़ नीन, जे.वी. कनिंघम, आर्चिबाल्ड मेक्लीश, पॉल एंगल- अच्छे दोस्त भी रहे, कुछ-कुछ देर के लिए, लेकिन मेरा संकोची स्वभाव मुझे रोकता रहा।
हार्वर्ड में भी एक छोटा-सा कला म्यूज़ियम था जिसमें मैं अक्सर जाया करता था। बॉस्टन का म्यूज़ियम और ख़ास तौर पर आनन्द कुमारस्वामी का बनाया हुआ उसका एशियायी हिस्सा विश्व-प्रसिद्ध है, उसमें भी मैं अक्सर भटकता रहता था, अपने अज्ञान को कम करने के लिये। तीन वर्षों में पीएच.डी. करने की कोशिश में समय का अकाल भी रहता ही था। फिर भी हार्वर्ड के दिन मेरे जीवन में एक महान देन तो थे ही।
उदयन- जब आप हार्वर्ड से भारत लौटे, आपके मन में क्या यहाँ पढ़ाने के क्षेत्र में कुछ नया करने का उत्साह था? क्या आपको यह लगा था कि यहाँ भी महाविद्यालयों में कुछ अलग तरह से पढ़ाना मुमकिन हैं? आप लौटने के बाद क्लास लेने पर क्या अनुभव हुए थे? क्या आपके पढ़ाने के ढंग में कोई बदलाव आया था? हम यह जानने की कोशिश कर रहे हैं कि आप जैसे विलक्षण लेखक के पढ़ाने के तरीके कैसे विकसित हुए होंगे? आज यह सवाल कुछ अधिक ही महत्व का हो गया हे क्योंकि हमारे देश में साहित्य की शिक्षा की हालत ख़राब है।
वैद साहब- हार्वर्ड से भारत लौटने के बाद कुछ ही महीनों में भारतीय कॉलेजों और विश्वविद्यालयों की जकड़बन्दियों के यथार्थ से टकराकर हार्वर्ड की खुली हवाओं से बटोरा हुआ बौद्धिक उत्साह चकनाचूर होना शुरू हो गया था। फिर भी शुरू-शुरू में उस बटोरे हुए ऊर्जायुक्त बौद्धिकता के संक्षिप्त काल में मैंने अलग तरह से पढ़ाने की कोशिश ज़रूर की। उस कोशिश में डॉ. बी.राजन ने, जो खुद नये-नये दिल्ली विश्वविद्यालय के अँग्रेज़ी विभाग के अध्यक्ष बने थे, मेरी मदद भी की, मुझे विश्वविद्यालय की एम.ए. की क्लास को हेनरी जेम्ज़ पर कुछ लेक्चर देने की दावत दे कर। लेकिन यहाँ के बँधे-बँधाये पाठ्यक्रम में कोई परिवर्तन न डॉ. राजन कर सके, न मैं।
एक साल के बाद पंजाब यूनिवर्सिटी, चण्डीगढ़ के अँग्रेज़ी विभाग में बतौर रीडर चले जाने पर क्योंकि मैं सिर्फ़ एम.ए. को पढ़ाने लगा, इसलिए मैंने कोशिश की कि बन्दिशों के बावजूद यथासम्भव कुछ नया करूँ। इसलिए लेक्चर देने के अलावा मैंने महीने में दो बार अपने विद्यार्थियों से एक ट्युटोरियल ग्रुप में मिलना शुरू किया। मेरे इस प्रयोग से कुछ को कुछ फ़ायदा भी हुआ। उन्हीं दिनों प्रयाग शुक्ल और नामवर सिंह किसी और सिलसिले में चण्डीगढ़ में आये हुए थे। वह भी उस ट्युटोरियल ग्रुप में आये। एक बार हज़ारीप्रसाद जी ने भी मेरी क्लास को सम्बोधित किया और एक बार मुल्कराज आनन्द ने मेरे निमन्त्रण पर मेरी क्लास को ‘साहित्य और अन्य कलाएँ’ विषय पर एक व्याख्यान दिया। कुछ विद्यार्थियों की आँखें भी खुलीं और ज़ुबानें भी। लेकिन हार्वर्ड और अमरीका के दूसरे विश्वविद्यालयों में भी प्रोफ़ेसर अपना पाठ्यक्रम आप बनाते और बदलते रहते हैं। यहाँ उसे वर्षों तक बदला नहीं जाता। इसलिए प्रध्यापक भी बासी हो जाते हैं, विद्यार्थी भी। अब तो हालात और भी खराब हो गये हैं। ख़ास तौर पर ह्यूमेनिटीज़ में। इसलिए मैंने जब 1985 के बाद अपना समय भारत और अमरीका में बाँटना शुरू कर दिया तो अध्यापन को त्याग ही दिया।
हार्वर्ड की खुली-खिली हवाओं का एक पहलू यह भी था कि वहाँ प्रध्यापक और विद्यार्थी के बीच व्यवधान इतना कम था कि हरदिल अजीज़ प्राध्यापक को विद्यार्थी कई बार उसके नाम से बल्कि उपनाम से बुलाते थे जैसे कि अर्चिबाल्ड मेक्लीश को आर्ची, एफ.ओ. मेथिसेन को मेट्टी, हैरी लेविन को हैरी, रूबेन ब्रॉवर को बेन। इस बेतकुल्लफ़ी को निरादर नहीं बल्कि सादर निकटता ही समझा जाता था। वहाँ आई.ए. रिचर्ड्स को भारी बैकपैक उठाये हार्वर्ड यार्ड में और गॉलब्रेथ को हार्वर्ड कूप में किताबें खरीदते हुए और किसी न किसी विश्वप्रसिद्ध प्रोफ़ेसर को हार्वर्ड स्क्वायर में स्थित ब्रेटिल थियेटर में किसी फ़िल्म क्लासिक की तस्वीरें (स्टिल्स) देखते हुए या किसी केफ़ेटेरिया में किसी विद्यार्थी के साथ कॉफ़ी पीते हुए या शाम को किसी बार में डार्क बीयर पीते हुए देखा जा सकता था।
मैं हार्वर्ड के एक धुरन्धर मिल्टन अध्येता-प्रोफ़ेसर डग्लस बुश को उसी रास्ते से हार्वर्ड पैदल जाते हुए अक्सर देखता था जिस रास्ते से मैं जाया करता था। एक दिन हिम्मत करके आगे बढ़कर मैंने उन्हें अपना परिचय दिया तो वह बोले, आपने बी.राजन का नाम सुना है? मैंने जवाब दिया, जी, मिल्टन पर उनकी किताब, ‘पैराडाइस लॉस्ट एण्ड द सेवनटीन्थ सेन्चुरी रीडर’ के लेखक?’ बुश मुस्कराकर बोले, ‘वही; मैं उसकी इस किताब की बहुत कद्र करता हूँ, हमेशा अपने विद्यार्थियों को उसे ज़रूर पढ़ने के लिए कहता हूँ।’ बाद में जब मैंने उनसे रोमेन्टिक कविता का एक कोर्स लिया और पेपर लिखने के लिए वर्ड्सवर्थ की एक लम्बी कविता को चुना, और एक दिन हार्वर्ड की वायडनर लाइब्रेरी में वह दिख गये तो मैंने उन्हें अपने पेपर का विषय बताते हुए उनसे पूछा कि उस पेपर के लिये वह कुछ सेकण्डरी किताबें मुझे सुझायें तो उन्होंने दो तीन किताबें सुझाने के बाद कहा, एक सलाह भी दूँ? मैं कहा, ज़रूर दीजिए। वह बोले, सबसे पहले तो आप वर्ड्सवर्थ की उस लम्बी कविता को ही दो-तीन बार पढ़ें, ध्यान से; फिर आपके पास अगर वक़्त हो तो इन किताबों को भी देख लें; मैं खुद कुछ भी नया लिखते वक़्त यही करता हूँ। मुझे उनकी बात और अपनी ग़लती एक साथ समझ आ गयीं। उसके बाद मैंने हार्वर्ड में अपने सारे पेपर और हेनरी जेम्ज़ पर अपना थीसिस उनके सुझाव पर अमल करते हुए लिखे और अपने विद्यार्थियों को भी वही सलाह देता रहा जो उन्होंने मुझे दी थी।
वैसे भी वह नयी आलोचना का दौर था जिसमें सब तरफ कृति-केन्द्रन का बोल बाला हो रहा था। आई.ए. रिचर्ड्स, विलियम इम्पसन, जॉन क्रो रेनसम, हैरी लेविन, रॉबर्ट पेन वारन, क्लीन्थ ब्रूक्स आदि का दबदबा बढ़ता जा रहा था जैसे बाद में देरिदा, रोलाँ बाख़्त, होमी भाभा आदि का ज़ोर-शोर शुरू हुआ। लेकिन मैं अपने उन भारतीय प्रोफ़ेसरों का पढ़ाया हुआ था जो हमेशा सेकेण्डरी जानकारियों पर ज़्यादा बल देते थे। डग्लस बुश, हैरी लेविन, एक और प्रोफ़ेसर के साथ मेरी ओरल कमिटी में भी थे जिसे पार करने के बाद ही हार्वर्ड में आप पीएच.डी. का थीसिस लिखना शुरू कर सकते हैं। इसमें विफल हो जाने पर आपको एम.ए. की डिग्री देकर ही छुट्टी दी जा सकती थी।
हार्वर्ड के खुले-खिले वातावरण की एक और छोटी-सी कहानी आपको सुनाकर मैं यह प्रसंग समाप्त करूँगा। आर्चिबाल्ड मेक्लीश की राईटिंग वर्कशाप में प्रवेश पा जाना तो बहुत मुश्किल था लेकिन प्रवेश पा जाने के बाद और उनको क़रीब से जान लेने पर आपकी कई और मुश्किलें आसान हो जाती थीं। इस बात का अनुभव मुझे उन चन्द क्षणों में हुआ जो मैंने एक दिन वायडनर लाइब्रेरी की उस लिफ़्ट में बिताये जिसमें मैं आर्ची के साथ संयोग से अकेला नीचे जा रहा था। आर्की ने मुझसे पूछा, कृष्णा, तुम शादीशुदा हो? मैंने जवाब दिया, जी, मेरी दो बेटियाँ भी हैं। वह बोले, तुम्हारी परिपक्वता से मैंने भी यही अनुमान लगाया था। वे सब यहीं हैं न? मैंने जवाब दिया, जी नहीं, वह दिल्ली में हैं और वहीं रहेंगी क्योंकि मेरा फुलब्राइट इतना नहीं कि उन्हें यहाँ ला सकता। इतने में हम नीचे पहुँच गये। लेकिन आर्ची ने अपनी बात जारी रखी, लिफ़्ट के बाहर भी। बोले, मैं आईवोर के साथ बात करूँगा, कुछ इन्तज़ाम हो जायेगा, चिन्ता न करो। उसके एक-दो दिन बाद आई.ए. रिचर्ड मुझे इसी तरह सड़क पर मिल गये तो वे बोले, आर्की ने मुझे बताया और हमने रॉकफ़ेलर फाउण्डेशन में चेडबोर्न गिलपेट्रिक से बात की, उसने कहा है कि आपको रॉकफ़ेलर फैलोशिप भी मिल जायेगी, जिसकी बदौलत आप अपनी बीवी और दो बच्चियों को यहाँ ला सकेंगे।
इस तरह इन दोनों ने हैरी लेविन से मिलकर मुझे दो साल के लिये रॉकफ़ेलर फ़ैलोशिप दिलवा दी और अगले साल चम्पा दो बेटियों को साथ लेकर और उर्वशी को, जो सिर्फ़ तीन महीनों की थी, अपने माता-पिता का साथ छोड़कर वहाँ मेरे पास पहुँच गयी।
उदयन- आपको हार्वर्ड से आकर चण्डीगढ़ में रहना कैसा लगा था? क्या अपको दोबारा दिल्ली जाने की इच्छा होती थी या आप यह सोचते थे कि आपको अपना घर मिल गया है? मैं यह पूछते हुए यह पूछ रहा हूँ कि आपकी घर की क्या धारणा है? आपकी कई कहानियाँ भी इस सवाल के इशारे पर चली हैं, आज हम अपनी बात को इसी रास्ते पर कुछ दूर तक ले चलें। क्या आपके इस दौर में आपके माता-पिता आपके पास आकर रहते थे? आपका उनसे कैसा क्या नैकट्य था?
वैद साहब- हार्वर्ड से लौटने के बाद मैं एक साल हंसराज कॉलेज और दिल्ली में रहा और उसके बाद चण्डीगढ़ चला गया। लेकिन घर वहाँ भी नहीं बना या मिला। दिल्ली में कुछ पुराने दोस्त थे, कुछ नयी-पुरानी यादें और जगहें थी, कुछ नये अनुभव भी हो रहे थे, लेकिन चण्डीगढ़ बिलकुल नया बल्कि कोरा शहर था, जिसमें लाहौर का मेरा एक ही पुराना दोस्त और सहपाठी था, कपिल रैना, और उसका सभ्य परिवार; उसके पिता उर्दू के अच्छे शौकिया शायर थे, उसकी माँ सर तेज बहादुर सप्रू की सुपुत्री थीं, लेकिन वह खुद उखड़ा हुआ था। गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर के ज़माने के असाधारण ज़हनियात और प्रतिभा के स्वामी कपिल की वकालत नहीं चल रही थी; वह यूनिवर्सिटी में पढ़ा भी रहा था लेकिन वह बुझा-बुझा-सा रहता था, पीता बहुत था; पीकर अपने मानसिक स्वास्थ्य को वेल्लौर में हुए किसी इलाज से हुई क्षति की शिकायत बड़े ज़हीन और कुशल तरीके से किया करता था। 1966 में जब अमरीका में रहने लगा तो वर्षों तक उससे मेरी ख़तोकिताबत होती रही। उसकी चिट्ठियाँ बहुत बढ़िया हुआ करती थी लेकिन उसकी हालत बिगड़ती ही गयी।
चण्डीगढ़ में वही मेरा एकमात्र दोस्त था। वैसे बतौर प्रोफ़ेसर मुझे शिकायतें कम ही थीं। मेरे विद्यार्थियों में बहुत से लड़के-लड़कियाँ प्रखर और प्रतिभावान थे। एक तरह से दिल्ली से दूरी मुझे अच्छी भी लग रही थी लेकिन घर वहाँ भी नहीं बना। मेरे माता-पिता चण्डीगढ़ में उन दिनों कुछ-कुछ समय के लिये मेरे पास रहे लेकिन वह दिल्ली में मेरे छोटे भाई यशपाल वैद के पास ज़्यादा रहे।
मैंने अक्सर विभाजन को अपनी दिली और दिमाग़ी खानाबदोशी और बेघरी का दोष दिया है और उसे अपने रूहानी अवसाद और अलगाव (एलिएनेशन/एक्साइल) का कारण बताया और बनाया है। लेकिन अब इस उम्र में मैं इसे अति सरलीकृत आत्मनिरीक्षण का परिणाम मानने लगा हूँ, क्योंकि शुरू से ही मैंने घर को खो दिया था और उसी की तलाश में मैं अब तक मारा-मारा भटक रहा हूँ। शुरू से ही मैं दूसरों के घरों में अपना घर बनाने या ढूँढने की कोशिश करता रहा हूँ।
याद आता है कि कॉलेज के दिनों में जब छुट्टियों में मैं रेलगाड़ी से डिंगा जाया करता था तो इरादे बाँधता रहता था कि इस बार अपने घर में ही रहने की पूरी-पूरी कोशिश करूँगा लेकिन घर पहुँचते ही वह तमाम इरादे घुलने शुरू हो जाते थे। कॉलेज होस्टल में मैं अपने कुछ साथियों से मिलकर रात के अँधेरे और सन्नाटे को चीर दिया करता था अपने इस सामूहिक कीर्तन से : इरादे बाँधता हूँ, सोचता हूँ, तोड़ देता हूँ/कहीं ऐसा न हो जाये, कहीं वैसा न हो जाये।
सो मैं आपके इस वाजिब सवाल का (कि आपकी घर की क्या धारणा है) जवाब नहीं दे पाता। हाँ, मेरी कई कहानियाँ इसी सवाल के इशारे पर चली हैं और आपकी दृष्टि की इस पकड़ की मैं दाद ही दे सकता हूँ, आपके सवाल का जवाब नहीं।
आपने ज़रूर नोट किया होगा कि ‘माया लोक’ के तीन खण्डों का आखिरी और दहशतनाक खण्ड ‘घर का रास्ता’ है और जिसका अन्तिम वाक्य है : ‘सिर्फ़ मैं अकेले पंख फैलाये उस झूलते हुए पुल पर चल रहा हूँ और महसूस कर रहा हूँ मैं नहीं कोई और अबाध में उड़ा जा रहा हो, राहत से ऊपर, रंज के कंकड़ों से दूर’ मेरे प्रतिनायक की यह उड़ान भी उस रास्ते की तलाश का ही एक रूप है।
उदयन- आपके भारत लौटने पर आपकी बेटियों की क्या प्रतिक्रिया थी? वे सभी तब अपेक्षाकृत छोटी थीं और उनके जीवन का परिवेश आपके लौटने से बदल गया होगा। आपको और चम्पा जी को बच्चों को नये परिवेश में ढालने के क्या कोई विशेष प्रयत्न करने पड़े थे? खुद चम्पा जी पर इस बदलाव का क्या विशेष असर हुआ था? आप भले ही जीवन भर एक विशेष अर्थ में घर की तलाश करते रहे हैं पर आपने अपने चारों ओर अपने आत्मीयों के लिए घर तो निश्चय ही बनाया था। उस घर के विषय में कुछ कहें। उन दिनों आपके घर कौन आया करते थे, उनसे क्या बहसें होती थीं?
वैद साहब- हमारा समुद्री जहाज़ जब कराची में कुछ देर के लिये न जाने क्यूँ रुका और मुसाफ़िरों को जहाज़ से नीचे उतरने और घूमने की इज़ाजत मिली तो हम भी नीचे उतरकर इधर-उधर घूमे। उस दौरान हमारी बेटी रचना ने एक भिखारी को देख कर रोना शुरू कर दिया और हम वहीं से वापस अपने जहाज़ की तरफ लौट गये। रचना आठ बरस की और ज्योत्स्ना छह बरस की थी। इस से आप अनुमान लगा सकते हैं कि उन दोनों पर बदले हुए परिवेश का शुरू-शुरू में क्या असर हुआ होगा। अमरीका में शायद ही उन दोनों ने वैसा कोई भिखारी देखा हो, वहाँ भी निर्धन और बेघर लोग तो थे लेकिन हार्वर्ड के आस-पास उन्हें वैसा अनुभव शायद एक बार भी नहीं हुआ।
लौटने के बाद दिल्ली में हम एक बरस रहे। हमने चम्पा के माता-पिता के घर के पास ही एक फ़्लैट किराये पर ले लिया। रचना और ज्योत्स्ना का हमने अमरीकी स्कूल में दाखिल करा दिया। वहाँ उन्हें ज़्यादा दिक्क़त नहीं हुई। हार्वर्ड में भी वह हार्वर्ड के ही एक प्रयोगशील स्कूल में जाते थे।
उर्वशी तब तीन साल की ही थी। चम्पा की माताजी ने उसे अपने पास ही रखा लेकिन उर्वशी अपनी बहनों के साथ रहना चाहती थी हालाँकि वह मुझे वैद साहब और चम्पा को बहन जी कहा करती थी क्योंकि चम्पा के माता-पिता मुझे वैद साहब कहा करते थे और चम्पा का इकलौता भाई चम्पा को बहन जी कहकर बुलाता था। वैसे उर्वशी को मालूम तो था कि चम्पा और मैं उसके माता-पिता थे लेकिन उसके मन में इस विषय पर कुछ धुन्ध ज़रूर थी, जिसके बावजूद वह हमारे साथ चण्डीगढ़ जाने के लिये तैयार थी।
चम्पा की माताजी उससे बिछुड़ना नहीं चाहती थीं। कुछ महीने तो हम चण्डीगढ़ में उर्वशी के बगैर ही रहे। फिर हमने आपस में फैसला किया कि हमें उसे अपने पास ही रखना चाहिए। रचना और ज्योत्स्ना भी यही चाहती थीं और उर्वशी भी।
एक दिन हम सब फैसला करके चण्डीगढ़ से दिल्ली आये कि इस बार उर्वशी को ज़रूर लेकर ही चण्डीगढ़ लौटेंगे। माताजी से बहुत लम्बी बात हुई; हमने उन्हें बहुत दलीलें दीं, मनाने की कोशिश की कि बच्चियों के लिए भी और हमारे लिए भी यही ठीक है कि उर्वशी अब हमारे पास चली जाये लेकिन माताजी नहीं मानीं। हमने बस के टिकट भी खरीद लिये। जिस दिन हमें बस पकड़नी थी, उस दिन सुबह सवेरे माताजी घर से गायब हो गयीं। उधर हमारे जाने का वक़्त करीब आ रहा था, इधर सब लोग इस चिन्ता में डूबे हुए थे कि माताजी ने कुछ कर न लिया हो। सब सम्बन्धियों को फ़ोन किये जा रहे थे लेकिन कहीं से कुछ पता नहीं चल रहा था। चिन्ता चरम पर पहुँच गयी तो एक जगह से माताजी का फ़ोन आया। हमारा सामान तो बन्द पड़ा था। हम तीनों बेटियों और सामान को लेकर कार में बस-अड्डे की ओर भागे। अड्डे के पास पहुँचे ही थे कि बस आती दिखायी दी। हमने कार रोकी। ड्राइवर और मैं बस रोकने के लिये सड़क पर खड़े हो गये। बस रुकी तो हम उसमें बैठ गये और हमारा सामान भी बस पर चढ़ा दिया गया।
यह ड्रामा हमारे घर के इतिहास में अंकित है और हमारे भीतर भी कहीं लेकिन इसका ज़िक्र हम कम ही करते हैं।
तुम्हारे सवाल का सीधा-सा जवाब अभी भी मैंने नहीं दिया। संक्षेप में यही कि बदले हुए परिवेश का चम्पा और बेटियों पर कोई सीधा असर नहीं हुआ, उस बदलाव से निपटने के लिये यहाँ और फिर अमरीका चले जाने पर वहाँ अमरीका में भी हमें कोई ख़ास दिक्कत नहीं हुई। हाँ, उर्वशी को यह समझने में बहुत ज़्यादा समय लगा कि हमने उसे दो-तीन सालों के लिये यहाँ छोड़ क्यूँ और कैसे दिया। उसी सम्बन्ध में एक घटना और सुना कर मैं इस पटारे को बन्द कर दूँगा। 1968 में जब मैं ब्रेण्डाइस में था तो एक शाम उर्वशी ने हम दोनों से अचानक पूछा : आप मुझे सच बताइये कि मैं आपकी दत्तक बेटी तो नहीं? चम्पा का मैं नहीं कह सकता, उसका यह सवाल सुनकर मेरी आँखें अनायास भीग गयी थीं।
लौटकर दिल्ली में गुज़ारे एक साल के दौरान हमारे घर में मेरा कोई साहित्यिक या कलाकार दोस्त नहीं आया, किसी के साथ कोई बहस नहीं हुई। निर्मल प्राग चला गया था, भीष्म साहनी मॉस्को, स्वामी पोलैण्ड। एक साल के बाद मैं चण्डीगढ़ चला गया। वहाँ के माहौल के बारे में बता ही चुका हूँ। वहाँ के त्याग के बारे में भी।
उदयन- मैं शायद यह सवाल फिर से पूछ रहा हूँ पर मेरी नज़र में इसे शायद बार-बार पूछना ज़रूरी हो। क्या आप वापस अमरीका में पढ़ाने भारत की शिक्षा व्यवस्था और उसके निम्न स्तरीय व्यवहार से तंग आकर भी गये थे? क्या आपको यह लगा था कि वहाँ जाकर आप बेहतर ढंग से लिख सकेंगे और बेहतर पढ़ा सकेंगे? आपको ऐसा कुछ फैसला आज करना पड़ा, आप क्या करेंगे? आपके अमरीका में पढ़ाने का काम स्वीकार करते हुए क्या ख़्याल थे? क्या उसके पीछे यह भाव भी था कि वहाँ आपको ज़्यादा जानने को मिलेगा, पढ़ने मिलेगा?
वैद साहब- तुम्हें जो खाली पत्र अभी मिला वह खाली इसलिए है कि उसमें लिखा मेरी ही किसी ग़लती से बीच में ही उड़ गया था, इसलिए मैं उसकी उड़ान का कुछ देर सोग मनाने के बाद ही तुम्हारे सवाल का जवाब दे सकूँगा, ग़लतियों का मुजरिम, वैद।
मैं 1966 में चण्डीगढ़ से ठानकर अमरीका नहीं गया था कि मैं बाल-बच्चों समेत वहीं रहूँगा, वहीं लिखूँगा, वहीं पढ़ाऊँगा हमेशा के लिए बल्कि हार्वर्ड में किसी शोध के लिए गर्मियों में तीन महीनों के लिए ही गया था। वहाँ जाने के बाद ही मुझे वहाँ की एक यूनिवर्सिटी के अँग्रेज़ी विभाग ने, जिसका एक अमरीकी प्रोफ़ेसर केलसी हार्डर मेरे साथ पंजाब यूनिवर्सिटी में बतौर फुलब्राइट प्रोफ़ेसर पढ़ा चुका था, मुझे दो साल के लिए बतौर विज़िटिंग प्रोफ़ेसर पढ़ाने की पेशकश भेज दी; मैंने पंजाब यूनिवर्सिटी से दो साल की बिना पगार की छुट्टी माँगी तो उन्होंने इंकार कर दिया। यह कहानी मैं आपको किसी पहले जवाब में भी सुना चुका हूँ। खैर, मैंने त्यागपत्र दे दिया और चम्पा को लिख दिया कि वह भी सेण्ट जॉन स्कूल की अपनी नौकरी से त्यागपत्र दे और बच्चों समेत मेरे पास आने की तैयारियाँ शुरू कर दें। उसने ऐसा ही किया। अगर मुझे पंजाब यूनिवर्सिटी से दो साल की छुट्टी मिल गयी होती तो दो साल बाद मैं क्या करता, इसके बारे में मैं कुछ कह नहीं सकता।
मेरे मन में यह ज़रूर रहा होगा कि अमरीका के अच्छे विश्वविद्यालयों के मुकाबले में भारत के अच्छे-से-अच्छे विश्वविद्यालय भी ठहर नहीं पायेंगे। मैंने तो हमेशा अँग्रेज़ी पढ़ाने के पेशे को रोज़ी-रोटी का साधन ही माना था और इस पेशे को इसीलिए अपनाया था ताकि मुझे अपनी ही शर्तों पर लिखने का अवसर मिलता रहे और मुझे किसी से कोई समझौता न करना पड़े। लिखने के लिए विदेश में जानबूझ कर रहना मुझे ज़रूरी तो नहीं लगता था लेकिन अवचेतन में यह संशय भी ज़रूर रहा होगा कि मैं स्वभाव से एक्सिलिक मनोवृत्ति का हूँ। विभाजन की विभीषिका ने मेरे अलगाव को और बढ़ा दिया था। अमरीका में वतन की याद तो बहुत आती थी लेकिन उस दूरी को भी मैंने एक अनुभव की तरह लिया और उसमें से भी अपने लेखन की प्रेरणा और विषय-वस्तु बटोरता रहा।
फिर मैंने अमरीका में रहना, पढ़ाना और सारा समय बिताना बन्द क्यों कर दिया? 1983 तक पहुँचते-पहुँचते मैं बतौर प्रोफ़ेसर ‘बर्नआउट’ हो गया था। बहुत सोच-विचार के बाद फैसला यह हुआ कि मैं वहाँ से दो साल की छुट्टी ले लूँ और उन दो सालों के बाद फैसला करूँ कि मुझे पढ़ाना बन्द कर देना चाहिए या नहीं। सो मैंने यही किया। भारत में जाकर पढ़ाने की इच्छा ही मेरे मन में नहीं उठी। अमरीका में पूरे 20 साल रहने और पढ़ने-पढ़ाने के बाद भारत और अमरीका के बीच वक़्त बाँटने को भी मैंने अपने लेखन के लिए एक आवश्यक अनुभव के तौर पर लिया। वैसे हो सकता है कि इस सोच के नीचे, बहुत नीचे, कहीं कोई और मकसद या मन्तव्य दबा-छिपा हो। मानवीय मन की गुफ़ाओं में क्या-क्या दबा-छिपा रहता है, इसका कोई ठिकाना नहीं।
उदयन- अमरीका वापसी पर आप किन लेखकों, कलाकारों और अध्येताओं से मिलते थे? क्या आपको उनके साथ हुई बातें किसी हद तक याद हैं? सम्भवतः वे वियतनाम युद्ध के बाद के वर्ष रहे होंगे, आपके और आपके दोस्तों के मन में इस सब पर क्या चला करता था? अमरीकी बौद्धिकों में इस पर बहुत बहस हुई है, उस पर आप कैसा महसूस कर रहे थे?
वैद साहब- हार्वर्ड से पाट्सडैम में मैं शायद अगस्त 1966 में पहुँचा था लेकिन उससे पहले का किस़्सा भी यहाँ कहना चाहता हूँ। इतना बड़ा फैसला कर लेने के बाद मैंने राहत की साँस तो ली थी लेकिन उस फैसले के बोझ से मैं दब भी गया था। उस दबाव को दूर करने के लिए ही मैं हार्वर्ड की एक छोटी लाइब्रेरी के उस कमरे में पहुँच गया जिसे ‘पोइट्री रूम’ कहा जाता था। उस कमरे में कई कवियों, उपन्यासकारों और नाटकों के बहुत ही उत्तम टेप और रिकार्ड थे। मैं उस ‘पोइट्री रूम’ में अक्सर जाया करता था। उस दिन मैंने ‘वेटिंग फॉर गोडो’ को चुना। मैं उस नाटक को डूबकर सुन ही रहा था कि मुझे गश आ गया। जब मुझे कुछ होश आया तो मुझे एम्बुलेंस में हार्वर्ड के एक अस्पताल में ले जाया जा रहा था। अस्पताल में मेरे बहुत से टेस्ट हुए; दो-तीन डॉक्टरों ने मुझे देखा; एक रात मुझे वहाँ रखा। मैं कुछ दिन केम्ब्रिज में अपने दोस्तों बॉब गुसनर और कॅरल गुसनर के पास रहने के बाद वहाँ से पाट्सडैम चला गया।
पाट्सडैम कॉलेज स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ़ न्यूयार्क का एक अंग है; उसके बाकी अंग न्यूयार्क राज्य के अन्य शहरों में बिखरे हुए हैं। पाट्सडैम न्यूयार्क राज्य के उत्तरी भाग में है। वह सारा इलाका अपनी सुन्दरता और सर्दी के लिए मशहूर है- वहाँ सर्दियों में बर्फ़ बहुत ज़्यादा गिरती है। शुरू-शुरू में हमसे सब पूछा करते थे, आपने पाट्सडैम को ही क्यों चुना और हम कह दिया करते थे कि केलसी और लुईसा के कारण। पाट्सडैम में हम खुश और स्वस्थ ही रहे, ठण्ड और बर्फ़ के बावजूद। पाट्सडैम में एक और कॉलेज भी है- क्लार्कसन कॉलेज ऑफ़ इंजिनियरिंग। दोनों कॉलेजों में कुछ अन्य भारतीय प्राध्यापक भी है और क्लार्कसन में कुछ भारतीय विद्यार्थी भी। शहर में और आस-पास के कस्बों और शहरों में कुछ भारतीय डॉक्टर भी हैं। हमारे डॉक्टर वहाँ भारतीय ही थे। हमारे जितने भारतीय दोस्त हमारे पास गये और रहे, सबको पाट्सडैम और उसका छोटा-सा दरिया पसन्द आया। कॉलेज की तरफ से मुझे हर प्रकार की सुविधा मिली। मैं अपनी एक क्लास को, रॉइटिंग वर्कशाप को, अपने घर में ही लेता था- हफ़्ते में एक बार, दो घण्टों के लिए। हमारे पास मकान भी बहुत बड़ा था और हमने उसमें सामान बहुत कम रखा हुआ था, इसलिए वह और भी बड़ा नज़र आता था। सबके पास अपना कमरा था और मेहमानों के लिए दो कमरे थे। ऊपर-नीचे मेरे टहलने के लिए बहुत जगह थी और मैं उसका इस्तेमाल खूब किया करता था। उदासी और अपने वतन और परिवेश से दूरी के अहसास के हमले हुआ तो करते थे लेकिन हम अपने-अपने तरीके से उनसे निपट लेते थे। हम सबको संगीत और पुस्तकों का शौक़ था और वह शौक हमें बचा लिया करता था। बीच-बीच में हम मॉण्ट्रियल भी चले जाते थे क्योंकि वहाँ चम्पा के एक निकट सम्बन्धी रहते थे और मॉण्ट्रियल पाट्सडैम से दो घण्टों से कम की दूरी पर था। न्यूयार्क में हमारे कई अमेरीकी मित्र थे; उन में से एक जोड़ा दिल्ली यूनिवर्सिटी में भी 1961-62 के दौरान रहा था। विलियम फ़िशर और लिलियन फ़िशर; विलियम ने दिल्ली यूनिवर्सिटी के अँग्रेज़ी विभाग में पढ़ाया भी था। उनसे मेरी मुलाकात और दोस्ती दिल्ली में ही हुई थी। उनके पास भी हम न्यूयार्क में रह सकते थे, इसलिए हम न्यूयार्क भी जाया करते थे और वह पाट्सडैम में हमारे पास आ जाते थे। उनके दो बेटे उनके साथ दिल्ली में थे और एक बच्चा उन्होंने इलाहाबाद के एक अस्पताल से एडॉप्ट किया था।
1967 और 1968 की गर्मियों में केल्सी की उक्साहत और सहायता से मैंने एक महीने की रॉइटिंग वर्कशाप चलायी थी। शहर से कुछ मील दूर ‘स्टार लेक’ नाम की एक छोटी-सी झील के किनारे पर कुछ केबिन, एक बैठक हॉल, एक बड़ा रसोईघर और बहुत-सी ऊँची-नीची घासीली खुली जगह थी जिसका इस्तेमाल अभी तक कॉलेज के खिलाड़ी ही किया करते थे। केल्सी ने मुझे वह जगह दिखायी और कहा कि इसका इस्तेमाल अगले दो वर्षों की गर्मियों में एक महीने के लिए तुम करो, ‘स्टार लेक रॉइटिंग वर्कशाप’ के लिये, तुम जिन लेखकों और शिक्षार्थियों को उसमें भाग लेने के लिए बुलाना चाहो, बुलाओ, तुम उसके मुखिया होगे। मैंने उसकी बात पर सोचना शुरू कर दिया और सोचने के बाद मैंने कुछ लेखक दोस्तों को लिखना शुरू किया और फ़ोन करना भी। मैंने 1967 में 15 दिन के लिए लोवा यूनिवर्सिटी से पॉल एंगल्स को, जिसने सबसे पहले ‘लोवा रॉइटिंग वर्कशाप’ शुरू कर अमरीका में रॉइटिंग वर्कशाप पद्धति की बुनियाद रखी थी, बुलाया। पॉल एंगल्स कवि तो दर्मियाने दर्ज़े के ही थे लेकिन उनकी रॉइटिंग वर्कशाप से जो लेखक निकले वे लगभग सब अव्वल दर्ज़े के ही थे- फिलिप रोथ से लेकर टी.सी. बॉयल तक। और 15 दिनों के लिए जेम्स डिकी को बुला लिया, जो वॉण्डरबिल्ट यूनिवर्सिटी में केल्सी के सहपाठी थे और जिनकी नयी पुस्तक की उन दिनों बहुत चर्चा हो रही थी और जो उस वर्कशाप के बाद मेरे भी एक कठिन दोस्त बन गये। कुछ-कुछ दिनों के लिये मैंने अपनी दोस्त अनाइस नीन को, जिनकी पहली और दूसरी प्रकाशित डायरी ने, जिसे मेरे दोस्त और एजेण्ट गुण्टर स्टुलमान ने सम्पादित किया था, एनाइस को एक कल्ट फिगर बना दिया था और हार्वर्ड के दिनों के अपने आलोचक दोस्त रिचर्ड पॉयरियर को भी बुला लिया।
(अब मैं थक गया हूँ और मुझे डर भी लग रहा है कि कहीं यह सब उड़ न जाये, बीच में ही, इसलिए बाकी का जवाब मैं कल दूँगा।)
शिक्षणार्थियों ने अपने आवेदन-पत्र के साथ अपनी कविताओं, कहानियों या अन्य लेखन के कुछ नमूने भी भेजे थे जिनके स्तर को देख मुझे सुखद आश्चर्य हुआ था। वर्कशाप की कॉमर्शियल इश्तेहारबाज़ी तो हमने नहीं की थी- सिर्फ़ ‘न्यूयार्क रिव्यू ऑफ़़ बुक्स’, जिसे न्यूयार्क टाइम्स बुक रिव्यू न समझा जाये, में एक छोटा-सा नोटिस छापा था, लेकिन बहुत से अमरीकी और केनेडियाई कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के अँग्रेज़ी विभागों को इश्तेहारनुमा नोटिस भेजा गया था, जिसमें ‘स्टार लेक रॉइटिंग वर्कशाप’ के बारे में जानकारी दी गयी थी, स्थान, समय, आमन्त्रित लेखक- प्राध्यापक वर्कशाप के बारे में कुछ तात्विक बातें इत्यादि; शिक्षणार्थियों की उम्र और शिक्षा और डिग्री वगैरह की कोई बन्दिश या सीमा नहीं बतायी गयी थी, इसलिए जवाब देने वालों में कई काफ़ी उम्र के अनुभवी लोग भी थे। लेखक के नमूनों को ही अधिक महत्व दिया गया था।
तुम्हे याद ही होगा भारत भवन, भोपाल में वर्षों बाद ‘अन्तरभारती’ को भी मैंने इसी रास्ते पर चलाने का प्रयास किया था। जवाबों की संख्या और लेखकीय नमूनों के स्तर से केल्सी और मैं बहुत सन्तुष्ट हुए। आखिरी निर्णय मैंने ही किया और अन्त में तीस-पैंतीस लोग चुन लिये गये। उनमें आये शायद बीस-बाईस ही थे।
डॉ. बी. राजन के पोस्ट कार्ड से मुझे बहुत ज़्यादा खुशी हुई। उन्होंने भी हमारा इश्तेहारनुमा नोटिस अपनी केनेडियाई यूनिवर्सिटी-यूनिवर्सिटी ऑफ़ नॉर्थन ऑण्टेरियो, न्यू लन्दन, कनाडा- में देखा और तुरन्त मुझे वह पोस्ट कार्ड लिख दिया, जिससे मुझे पता चला कि वे भी दिल्ली और दिल्ली यूनिवर्सिटी को त्याग चुके हैं; हमारी ख़तोकिताबत फिर शुरू हो गयी।
इसी तरह मैंने 1968 की गर्मियों में दूसरी ‘स्टार लेक रॉइटिंग वर्कशाप’ का आयोजन किया, जिसमें मैंने न्यूयार्क से कवि एलन दूगन और आयोवा से उपन्यासकार वेंस बोर्जले को बतौर लेखक प्राध्यापक और दो-तीन और लोगों को कुछ-कुछ दिनों के लिये बुला लिया।
दोनों बार हमें सफलता तो मिली लेकिन जेम्स डिकी और एलन दूगन को नियन्त्रित करने में दिक्कत भी बहुत हुई। यह दोनों पीते बहुत थे। पीकर उनकी बातों में और बहार और चमक आ जाती थी लेकिन उन्हें सम्भालना मुश्किल हो जाता था। केल्सी, मैं और शिक्षार्थी तो उनकी ज़्यादतियों को सह-समझ लेते थे लेकिन स्टार लेक कैम्प के मैनेजर और पाट्सडैम कॉलेज के प्रबन्धकों को ऐसे लेखक आपत्तिजनक और अनैतिक लगते थे।
उन दिनों का माहौल बहुत ही खुला-दुला और सीमाहीन था। बदनाम लेखन प्रयोग-प्रगतिशीलता की ‘सिक्टिज़’ का वह दशक अमरीका में ही नहीं बल्कि सारे पश्चिम में सभ्यता, संस्कृति, नीति, राजनीति के हर पक्ष में बुनियादी परिवर्तनों का युग प्रवर्तक दौर था जिससे पूरब और अफ्रीका के देश भी अछूते नहीं रह सकते थे।
अमरीका में एक तरफ सिविल रॉइट्स के नये और उदार कानून बन रहे थे और दूसरी तरफ वियतनाम युद्ध और उसका विरोध ज़ोर पकड़ रहे थे। समाज और सेक्स की बन्दिशें टूट रही थीं; चेतना प्रवर्तक पदार्थों का उपयोग और उपभोग युवाओं में ही नहीं बल्कि पूरे समाज में बढ़ रहा था; इन प्रयोगों और इन पर बहसों की लपेट में बौद्धिक ही नहीं बल्कि अबौद्धिक भी आते जा रहे थे। पाट्सडैम जैसे शान्त और ख़ामोश छोटे शहरों और कॉलेजों में भी इस हमगीर हलचल का प्रभाव अनिवार्य था।
1968-69 का अकादमिक वर्ष मैंने ब्रेण्डाइज़ यूनिवर्सिटी में हार्वर्ड नेमेरोव की खाली हो गयी जगह पर बतौर विज़िटिंग प्रोफ़ेसर बिताया था। मुझे याद है कि हार्वर्ड नेमेरोव ने परिसर के एक कॉफ़ी हाउस में मुझे ब्रेण्डाइज़ में होने वाली हलचल के बारे में बहुत कुछ बताया था। उस वर्ष ब्रेण्डाइज़ और हार्वर्ड और उस सारे इलाके में बहुत कुछ हुआ था- वियतनाम युद्ध के विरोध में परिसर की कई इमारतों पर विद्यार्थियों ने कब्ज़ा कर लिया था और वह कब्ज़ा कई दिनों तक रहा था। ब्रेण्डाइज़ की एक पुरानी और मशहूर युवा नेता, एंजेला डेविस, विरोध की अगवायी कर रही थी।
पाट्सडैम और ब्रेण्डाइज़ में और उससे पहले हार्वर्ड में मेरे तमाम क़रीबी और हम-ख़याल दोस्त वियतनाम युद्ध के घोर विरोधी और सातवें दशक में हो रहे प्रयोगों और परिवर्तनों के पक्षधर थे, विशेष तौर पर सिविल राइट्स के विस्तार के लिए बनाये गये नये कानूनों के। हमारी बातें और बहसें इन्हीं परिवर्तनों और प्रयोगों के बारे में होती थीं- गुन्थर स्टूलमान, रिचर्ड पॉयरियर, एलन दुगन, हार्वर्ड नेमेरोव, विलियम और लिलियन फ़िशर, रॉबर्ट लॉवेल और इलिज़ाबेथ हार्डविक् जिनसे मैं ज़्यादा बार नहीं मिला, नबनीता देव सेन और अमर्त्य सेन (जो उन्हीं दिनों वहाँ थे) भारती मुखर्जी और क्लार्क ब्लेज़ और वेद मेहता से भी। मेरी सोहबत और दोस्ती अमरीका में उन्हीं लोगों से बनी जो मेरी किस्म के थे और बँधे-बँधाये ढर्रे से हटकर सोचते और चलते थे।
उदयन- पाट्सडैम विश्वविद्यालय पहुँचकर आपने अपना कौन-सा उपन्यास या कहानी संग्रह लिखना शुरू किया था? उस कृति की पाट्सडैम में रचना की क्या कोई कथा आपके मन में है? क्या बैकेट को ‘गोदो’ के अनुवाद के बाद आपने उन्हीं दिनों उन्हें पढ़ा था? बैकेट की अन्य कृतियों के आपके क्या अनुभव हैं? वे आपके करीब कैसे आ गये?
वैद साहब- रॉइटिंग वर्कशाप की कक्षा ही मैं घर में लेता था- हफ़्ते में एक बार, दो घण्टों के लिए क्योंकि एक तो वह बड़ी नहीं होती थी, 15 या 20 लोगों से अधिक नहीं, दूसरे उसमें अनौपचारिकता अधिक हुआ करती थी। लेकिन एक कक्षा मैं और लिया करता था, हफ़्ते में दो या तीन बार; वह मैं परिसर में ही लिया करता था। प्रायः मैंने वहाँ हफ़्ते में दो से अधिक कक्षाओं को नहीं पढ़ाया।
तुम जानते हो कि कोई भी लेखक कहीं भी दिन-रात लिखने में ही नहीं जुटा रहता। लेखकों ने अन्य कलाकारों की ही तरह अपनी सुस्ती और हरामखोरी और टाल- मटोल की आदत का रोना रोया है- मैंने भी। अपने दोस्त स्वामीनाथन के बारे में यह सवाल मेरे मन में अक्सर उठा करता था : ये साला काम कब करता है; जब देखो तब यह या ऊँघ रहा होता है या बीड़ी-रम वगैरह पी रहा होता है या खाँस रहा होता है या फिर कोई क़िस्सा या कहानी सुना रहा होता है; इसे काम करते या कुछ पढ़ते-वढ़ते तो कम ही देखा है!
तो पाट्सडैम में भी मैं पढ़ाने से बचा समय लिखने में ही नहीं गुज़ारता था। लिखने के लिए तो मैं सुबह सवेरे या देर रात ही बैठा करता था; वे बैठकें भी अक्सर बंज़र और बाँझ ही होती थीं। पढ़ाने और लिखने के लिए पढ़ना और पढ़ते रहना भी ज़रूरी था। विद्यार्थियों को मिलने के लिए कुछ ‘ऑफ़िस अवर्स’ भी निकालने पड़ते थे और कुछ कमेटियों में कुछ समय भी बरबाद करना पड़ता था। मैंने हमेशा अकेदमिक ताम-झाम और ख़ुराफ़ात से परहेज़ तो बहुत किया है लेकिन उसके बावजूद मुझे कुछ समय उस सब में नष्ट करना ही पड़ता था।
बैकेट और ज्वॉयस और हेनरी जेम्ज़ को पढ़ना मैंने भारत में ही शुरू कर दिया था लेकिन बैकेट के नाटकों का मंचन मैंने पहले पहल हार्वर्ड में ही देखा था, 1958 में। उसे पढ़ते और मंच पर देखते ही उसकी दुनिया के दीन मुझे अपनी ही दुनिया के बाशिन्दे महसूस हुए थे; उनकी भाषा और खामोशी और वेशभूषा और हरकतें और लाचारियाँ जानी-पहचानी लगी थीं; मुझे बैकेट मुश्किल नहीं बल्कि अपना ही सगा-सम्बन्धी लगा था। कहना यह चाहता हूँ कि बैकेट के उपन्यासों और नाटकों के मौन और उनकी भाषा और उनके पत्रों से किसी प्रकार की कोई बेग़ानगी या अजनबीयत नहीं महसूस हुई थी। उनकी हँसी में मैं उन कराहों को भी सुन सकता था जो मैं अपने परिवेश में हर समय, हर स्थान, हर गली-कूचे-बाज़ार-चौक-उत्सव-समारोह-आयोजन-एकान्त में सुनता आया था। बैकेट की दुनिया यथार्थ के और कल्पना-अनुभव के धरातल पर मुझे अपनी दुनिया से अलग नहीं लगी थी।
पाट्सडैम में पहुँचने के बाद और कुछ महीने वहाँ अकेले रहने के दौरान मैंने उस जगह जम जाने की कोशिश में ही गुज़ारे-परिसर और कस्बे को जान लेने में, विभाग में सबसे मिलने-जुलने में, लाइब्रेरी में, कस्बे की सड़कों और दुकानों में, चम्पा और बेटियों के इन्तज़ार में। केल्सी और लौइज़ के अलावा अँग्रेज़ी विभाग के ही रॉन मोल और उसकी बीवी जूडी के साथ भी मेरी दोस्ती हो गयी। याद आता है कि एक स्टोर से मैं बाँस का एक रेक, जिससे लोग घास पर गिरे सूखे पत्ते वगैरह इकट्ठे करते हैं, खरीद लाया था। मैंने बैठक की एक दीवार पर दो छोटे कील ठौंककर उस रेक को टेढ़ा टाँग दिया। उस शाम जब रॉन और जूडी आये तो हमने जेज़ सुनना और पीना शुरू कर दिया। जेज़ की ताल पर हम सिर मार रहे थे कि मैंने उस टेढ़े टँगे रेक की तरफ इशारा करके रॉन और जूडी से कहा : द रेक्स प्रोग्रेस! और इस पर हम तीनों ने एक लम्बा क़हकहा एक साथ छोड़ा जो जेज़ के समन्दर में डूब गया। रॉन मोल इंग्लैण्ड की 18वीं सदी के साहित्य का विशेषज्ञ था और मेरे संकेत के श्लेष को समझ गया था। वह टेढ़ा टँगा रेक उस दीवार की एक यादगार सज़ावट देर तक बना रहा और उसे देख हम तीनों ही नहीं और लोग भी हँसते मुस्कराते रहे। मैं सोचता हूँ कि बैकेट भी उसे पसन्द करते।
चम्पा और बेटियों के आ जाने के बाद कुछ समय उन्हें पाट्सडैम में जमाने में लग गया। न लिखने का एक और बहाना मुझे मिल गया। लिखने के बजाय लिखने के नेक इरादे बाँधने में ही मेरा वक़्त कटता रहा। ‘स्टार लेक वर्कशाप’ की तैयारियाँ होने लगीं। कुछ समय कार चलाना सीखने में बीता और कुछ कार खरीदने में। मुझे ठीक-ठीक याद भी नहीं कि वहाँ मैंने किन-किन कहानियों पर काम किया; मैं याद पर दबाव डालने की कोशिश भी करता रहा हूँ। ‘बिमल’ के बारे में तीन कहानियाँ क्योंकि मैं भारत में ही लिख चुका था और वे कल्पना आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हो चुकी थी- ‘समाधि’, ‘बिमल, कॉफ़ी हाऊस, और बुनियादी सवाल’, और ‘एक था बिमल’- इसलिये उनके आधार पर मैं बिमल को एक उपन्यास का नायक या प्रतिनायक भी बनाना चाहता था लेकिन इस ख्वाहिश पर अमल करना शुरू मैंने 1968 में ही किया, ब्रेण्डाइज़ जाने के बाद। पाट्सडैम के पहले दो सालों की मुख्य उपलब्धि ‘स्टार लेक रॉइटिंग वर्कशाप’ थी। उसमें जो शिक्षार्थी आये उनमें से सबसे ज़्यादा गुणवान एरिज़ोना से आयी एक मिली-जुली नस्ल की एक काली प्रतिभा-सम्पन्न तेज़-तर्रार लड़की थी जिसने अपनी कविताओं के नामों से मुझे बहुत प्रभावित किया था और जिसने बाद में अपनी प्रकाशित कविताओं और पुस्तकों से अमरीका के कविता जगत में तहलका मचा दिया था। उसका तख़ल्लुस ‘अई’ था। उसे मैंने कुछ वर्ष बाद कविता पाठ के लिए पाट्सडैम फिर बुलाया था। और भारत भवन के अन्तर्राष्ट्रीय कविता समारोह में भी बुलाने की कोशिश की थी लेकिन वह किसी कारण आ नहीं सकी थी। अब वह नहीं रही। उसने चार कविता पुस्तकें प्रकाशित की और चारों को एक-एक बड़े पुरस्कार दिये गये। उसकी कविताएँ हर बड़ी पत्रिका के अनेक अंकों में आती रहीं। मेरे अमरीकी शागिर्दों में दो ही मशहूर हुए, एक कवि अइ और दूसरे उपन्यासकार टी.सी. बायल, जिसे तुम उस एन्थनी बायल मत समझना जिसका ज़िक्र मैं शायद आगे करूँ और जो हमारे घर भोपाल में भी कुछ दिन रहा था।
‘बिमल उर्फ़ जायें तो जायें कहाँ’ को शुरू तो मैंने ब्रेण्डाइज़ में किया लेकिन समाप्त पाट्सडैम लौट कर ही किया। उसका अँग्रेज़ी अनुवाद भी ‘बिमल इन बोग’- जो उसके हिन्दी मूल से पहले ही पी. लाल के प्रकाशन, रॉइटर वर्कशाप, से दो जिल्दों में प्रकाशित हुआ- पाट्सडैम में ही हुआ।
पाट्सडैम में ही स्थायी रूप से रहने का फैसला कर लेने के बाद मैंने वहाँ जो लिखा उसके बारे में बाद के सवालों के जवाब में बताऊँगा।
उदयन- ब्रेण्डाइज़ आपको क्यों जाना पड़ा? वहाँ की स्थिति किस तरह पाट्सडैम से अलग थी?
वैद साहब- ब्रेण्डाइज़ मैं अपने भीतर दबी पड़ी इस महत्वकांक्षा के दबाव से ही गया कि जिस तरह मैंने हार्वर्ड जैसी विश्वप्रसिद्ध यूनिवर्सिटी से पीएच.डी. कर ली और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस से अँग्रेज़ी में मेरी पहली आलोचनात्मक पुस्तक ‘टेक्निक इन द टेल्स ऑफ़ हेनरी जेम्ज़’ प्रकाशित हो गयी, उसी तरह मैं हार्वर्ड जैसी ही किसी सुप्रसिद्ध यूनिवर्सिटी में अँग्रेज़ी और अमरीकी साहित्य पढ़ाऊँ और हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस जैसे ही किसी उत्कृष्ट प्रकाशक से मेरी दूसरी किताब प्रकाशित हो। और इसके साथ-साथ मैं हिन्दी में उपन्यास और कहानियाँ भी लिखता रहूँ। मैं उस समय अपनी सीमाओं को भूल गया था। ब्रेण्डाइज़ में एक वर्ष बिताने के बाद मुझे मालूम हो गया था कि मैं पाट्सडैम जैसी जगह में ही दोनों काम कर सकता था कि वहीं मेरे अनुवाद कार्य और हिन्दी में मेरे सृजनात्मक काम को सराहा जा रहा था और मुझे वह सुविधाएँ उपलब्ध थीं जिनके बगैर मेरा सृजनात्मक काम सम्भव नहीं हो रहा था। और मेरी बेटियों ने यह कहकर, कि वे तीनों हमारी खानाबदोशी से तंग आ रही हैं, उन्हें पाट्सडैम ही पसन्द है, रही सही कसर पूरी कर दी, और मैंने अपने भीतर दबी पड़ी उस महत्वकांक्षा को और दबा दिया, बल्कि उसकी जान ही निकाल दी। तब से अब तक मैं इधर-उधर भटकने के बजाय अपनी सीमाओं को स्वीकार कर, चुप मारकर अपना काम करता आ रहा हूँ, अपने ही तरीके से, अपनी ही शर्तों पर, अपनी ही सीमाओं में रहते हुए।
उदयन- ब्रेण्डाइज़ में रहते आपकी मुलाकात किन लोगों से हुई या होती थीं? क्या कोई याद लायक हादसा गुज़रा था वहाँ?
वैद साहब- जैसा मैं पहले दो एक बार कह चुका हूँ 1968-69 का अकादमिक वर्ष ब्रेण्डाइज़ और हार्वर्ड और देश भर के अनेक विश्वविद्यालयों में वियतनाम युद्ध के विरोध का चरम वर्ष बन गया था, इसलिये कोई न कोई धमाका क़रीब हर रोज़ कई शहरों में हो जाता था। मुझे याद है कि ब्रेण्डाइज़ परिसर की एक केन्द्रीय इमारत पर कुछ दिन विद्यार्थियों का कब्ज़ा रहा था; उस दौरान बड़ा तनाव था; बहुत धुँआधार तक़रीरें होती थी; कभी-कभी कोई हिंसक विस्फोट भी हो जाता था। उन दिनों चम्पा और मुझे अनेक प्रोफ़ेसरों ने पीने-खाने की पार्टियों में घर बुलाया; हमें अगर बेबी-सिटर मिल जाया करती थी तो हम जाते भी थे। कनिंघम और एक और प्रोफ़ेसर के यहाँ हम एक से अधिक बार गये; वह लोग भी हमारे घर आये। आई.ए. रिचर्ड्स की पुरानी बिल्डिंग में, जो केम्ब्रिज में थी, हम एक प्रोफ़ेसर की पार्टी में शामिल हुए थे जिसमें कई हस्तियों के दर्शन पहली बार हुए। इसी तरह हैरी लेविन के घर जब क्रिसमस की पार्टी हुई तो हमें अँग्रेज़ी के कुछ अपने पुराने पापी मिले। मैं आर्थर गोल्ड से भी ब्राण्डेज में रहते हुए ही मिला, जिसने पीएच.डी. तो शायद प्रिंसटन से ली थी लेकिन जो दिल्ली यूनिवर्सिटी में भी कुछ महीने फुलब्राइट पर बतौर विद्यार्थी रहा था। गरज ये कि उस इलाके में मेरे कई पुराने दोस्त थे जिनसे मिलकर मुझे खुशी होती थी।
सारी हलचल और उठान-पुठान के बीच और बावजूद मैंने उस वर्ष लिखा भी खूब। ‘बिमल उर्फ़ जायें तो जायें कहाँ’, पर मैंने वहाँ बहुत जम कर काम किया। बैकेट से उनके दो नाटकों के हिन्दी अनुवाद की अनुमति भी मैंने माँगी और अनुवाद भी मैंने वहीं शुरू किया। हमारे वहीं रहते ही बॉस्टन में अमरीकन एसोसिएशन ऑफ़ एशियन स्टडीज़ की वार्षिक कॉन्फ्रेन्स हुई। मैं उसमें गया तो मुझे अपने अनेक पुराने दोस्तों को मिलकर बहुत हर्ष हुआ- रामानुजन, एड. डिमोक (जो शिकागो विश्वविद्यालय के साउथ एशियन स्टडीज़ विभाग में बहुत सक्रिय थे और बांग्ला के विद्वान थे और जिन्होंने मुझे हार्वर्ड के दिनों में शिकागो हिन्दी कहानी पर व्याख्यान के लिये बुलाया था और मैं गया था, और वह व्याख्यान मेरे हार्वर्ड से भारत लौटने पर ‘बुक्स एब्रॉड’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ था और एक दिन दिल्ली में जब मुझे अशोक सक्सेरिया पहली बार श्रीकान्त वर्मा के साथ मिले तो उन्होंने उस प्रकाशित लेख का ज़िक्र कर अपनी सजगता से बहुत प्रभावित किया था), बोनी क्रॉउन, एशिया सोसायटी, न्यूयार्क, की एक जानी-मानी हस्ती जिसने 1962 में अपने अपार्टमेंट में मुझे ओरायन प्रेस से ‘स्टेप्स इन डार्कनेस’ के प्रथम प्रकाशन पर, जब मैं किसी और सिलसिले में न्यूयार्क में ही था, एक शानदार पार्टी दी थी जिसमें मेरे दोस्तों, वेद मेहता और गुन्थर स्टुलमान के अलावा कई और लेखक और अनुवादक जैसे कि जापानी के अनुवादक डोनाल्ड कीन भी थे। सबसे बड़ी हैरानी उस पार्टी में कपिला वात्स्यायन को देख और मिलकर हुई थी। बॉस्टन की उसी कॉन्फ्रेन्स में मुझे उर्दू के आलोचक गोपीचन्द नारंग भी मिले थे और जब उनने पूछा कि आप आजकल क्या लिख रहे हैं तो मैंने जवाब दिया ‘बिमल’ और एक दो क्षण रुककर उस उपन्यास का अन्तिम पूरा शीर्षक मेरी ज़बान से पहली बार निकला- ‘बिमल उर्फ़ जायें तो जायें कहाँ’। इस शीर्षक को मैंने क़रीब-क़रीब गा कर कहा था- मैं इतना खुश था, नारंग साहिब को मिलकर नहीं बल्कि उस इल्हाम पर जिसकी वजह से वह शीर्षक अचानक मुझ पर उतरा। रामानुजन ने एक शाम हमारे साथ हमारे घर में गुज़ारी और वहीं सोये भी। उस शाम और रात हुई बातों में से कई अब तक मुझे याद है- रामानुजन से हमेशा ऐसी ही बातें होती रहीं, हर मुलाकात में।
वह साल मेरे लिये हर लिहाज़ से भरपूर रहा लेकिन हमारी बेटियाँ वहाँ नाखुश ही रहीं क्योंकि उनका स्कूल उन्हें पसन्द नहीं था- वहाँ शायद वह किसी नस्लीय दुराग्रह की शिकार हुई थीं।
उदयन- ‘बिमल’ को आपने कब से लिखना शुरू कर दिया था? उसे पूरा करने में इतने अधिक वर्ष लग गये, ऐसा क्यों? ‘बिमल’ में आपने लिखने का एक बिलकुल ही नया अंदाज़ खोज निकाला था जिससे हिन्दी का साहित्य लेखन समृद्ध हुआ है। भाषा का ऐसा सूक्ष्म नृत्य हिन्दी की कम ही कृतियों में नज़र आता है। ऐसी भाषा लिखने के पीछे क्या महज संयोग ही है या आप किसी विशेष अनुभव या रूपाकार की खोज में थे? इसमें आपके प्रवास का भी कोई स्थान क्या आप देखते हैं?
वैद साहब- ‘बिमल उर्फ़’ बतौर उपन्यास शुरू तो शायद पाट्सडैम में ही हो गया था, 1967 में, लेकिन उससे भी पहले मैं हार्वर्ड से लौटने के बाद और दोबारा 1966 में गर्मियों में हार्वर्ड फिर जाने और फिर वहीं अमरीका में रह जाने और पंजाब यूनिवर्सिटी, चण्डीगढ़ से दो वर्ष की छुट्टी न मिलने पर त्यागपत्र दे देने के बीच के सालों में उसके तीन हिस्से लिख चुका था- ‘समाधि’, ‘बिमल’, कॉफ़ी हाउस और बुनियादी सवाल’ और ‘एक था बिमल’ ये तीनों बतौर कहानियाँ लिखी गयी थी। इन तीनों कहानियों की बुनियाद की पर ही बाद में ‘बिमल उर्फ़’ को खड़ा किया गया था। हो सकता है कि उन कहानियों को लिखते समय भी मेरे अवचेतन में ‘बिमल उर्फ़’ का बीज़ सोया पड़ा हो।
वह 1969 के अन्त तक समाप्त या सम्पन्न हो गया था लेकिन उसके प्रकाशन में देर होती रही। उस देर और उसके दौरान और कारण निर्मल वर्मा के साथ मेरी प्यारी दोस्ती में पड़ जाने वाली दरारों ने मुझे जो दुःख और दर्द दिया, वह अभी तक गया नहीं। ओम प्रकाश जी मेरी पाण्डुलिपि में कुछ अदल-बदल करना चाहते थे और मैंने उन्हें कह दिया था कि मैं सेंसर के या किसी और को मनाने के लिए अपने काम में कोई अदल-बदल नहीं करूँगा। मैं गर्मियों में दिल्ली में ही था। ‘बिमल उर्फ़’ पर आख़िरी नज़र मैंने गुलमर्ग में ही डाली थी और वहीं उसे पूरा हो गया समझा था। वहाँ से दिल्ली वापस आने के बाद ही मुझे ओम प्रकाश जी से उलझने का कटु अनुभव हुआ था। उससे पहले बैकट के ‘गोदो’ के मेरे अनुवाद को लेकर मैं उनसे लेखकिया स्वाधीनता की लड़ाई दूर से ही लड़ चुका था। तब श्रीकान्त वर्मा और कमलेश और कुछ औरों ने भी मेरा साथ दिया था। ‘गोदो के इन्तज़ार में’ की जो प्रथम प्रकाशित प्रति मुझे पाट्सडैम में मिली थी, उसे पढ़कर मेरा लेखकीय खून उबलने-सा लगा था और मेरी नींद हराम हो गयी थी। सारा अनुवाद बदल दिया गया था और मेरी भाषा मेरी नहीं रही थी।
मैंने बदली हुई भाषा के नमूने वहीं से हिन्दी जगत में इधर-उधर फैला दिये और लेखकों से फ़रियाद की कि वह मेरा साथ दें। ओम प्रकाश जी की अक्षम्य हरकत की बहुत मुज़म्मत हुई और आखिरी उनने अनुवाद के उस संस्करण को वापस ले लेने और उसकी जगह मूल अनुवाद को प्रकाशित करने की घोषणा की। इसके बाद ‘बिमल उर्फ़’ का काण्ड कैसे और क्यूँ हुआ, उसके क्या कारण थे, यह मुझे आज तक मालूम नहीं हुआ। शायद ओम प्रकाश जी मेरा इम्तेहान ही ले रहे थे। उन्हें उपन्यास में अश्ललीता का आधिक्य नज़र आने लगा। वह लोक-लाज और आर्य समाज से डरने लगे। उनने मेरे दोस्तो से कहना शुरू कर दिया कि वह मुझे समझाएँ कि मैं ज़िद्द न करूँ और उनका कहा मान जाऊँ। निर्मल ने जब मुझसे कहा, ‘तुम मान क्यों नहीं लेते उनकी बात, अपने उपन्यास को बचाने के लिए तुम इतना क्यों नहीं कर सकते,’ तो मुझे लगा कि यह तमाशा देख रहा है, इसने ‘गोदो के इन्तज़ार में’ के बारे में मेरे मोर्चे के समय भी यही रुख अपनाया था। इस आघात से हुआ घाव अभी तक भरा नहीं।
‘बिमल इन बोग’, ‘बिमल उर्फ़’ का मेरा अँग्रेज़ी अनुवाद, 1972 में प्रकाशित भी हो गया था। बद्रीविशाल पित्ती ने ‘कल्पना’ की ओर से ‘बिमल उर्फ़’ को शायद 1975 या 76 में प्रकाशित किया, हुसैन के ‘अश्लील’ आवरण के साथ, एक मात्रा तक बदले बगैर। फिर बाद में सम्भावना प्रकाशन ने और बहुत बाद नेशनल पब्लिशिंग हाउस ने उसे उसी हुसैनी आवरण के साथ निकाला।
‘बिमल उर्फ़’ में मैंने वही किया जो जेम्स ज्वॉयस के बाद फ़ॉकनर जैसे अनेक अँग्रेज़ी भाषा के और कुछ दूसरी पश्चिमी भाषाओं के उपन्यासकारों ने किया। ज्वॉयस के रास्ते पर उसके साथ कोई चल नहीं सका और उससे आगे कोई जा नहीं सका, और किसी ने चलने और जाने की कोशिश भी नहीं की, बल्कि बैकेट जैसे ज्वॉयस-भक्तों ने भी ज्वॉयस की भाषा से कुछ विशेष तत्वों को तो अपने काम में निखारा-सँवारा लेकिन उनकी चेतना-अपचेतना-अवचेतना की नदी या दरिया में गोते नहीं लगाये। मैंने ‘बिमल उर्फ़’ में डरते-सहमते यह दुस्साहस तो किया लेकिन मुझे यह भ्रम नहीं था कि मैंने कोई नया अन्दाज़ खोज निकाला है। मुझ पर मेरे कुछ आरोपीवृत्ति के आलोचकों ने ज्वॉयस की नकल का आरोप तो जड़ दिया जैसे कि ‘बिमल उर्फ़’ के बाद के कुछ उपन्यासों और नाटकों पर बैकेट की नक़ल का आरोप लगाया गया लेकिन मैंने ऐसे आरोपों का कोई जवाब देना ज़रूरी नहीं समझी; मुझे हिन्दी की साहित्यिक आलोचना की फूहड़ता और उसकी खण्डन-मण्डन की सरलीकृत पद्धति के प्रमाण मिलते तो रहते हैं लेकिन उनकी कोई चोट मुझ पर कोई असर नहीं करती। आप जैसे कुछ महीन पाठकों और आलोचकों ने ‘बिमल उर्फ़़’ और मेरे दूसरे कुछ उपन्यासों और काम में अगर संगीत-नृत्य देखा-सुना है तो मैं उनकी नज़र और ‘सुनन’ की दाद ही दे सकता हूँ पर मैं जानता हूँ कि यह गुण मुझ से बड़े लेखकों की भाषा में अपनी जादूगराना उपस्थिति के करिश्मे मुझ से कहीं ज़्यादा दिखते हैं।
‘बिमल उर्फ़़’ में मैं मुख्य तौर पर बिमल के माध्यम से स्वतन्त्रता बाद की उस युवा पीढ़ी को पकड़ना चाहता था जो स्वतन्त्रता और उससे जुड़े हुए विभाजन के बाद हर अर्थ में भटक रही थी- दिल्ली जैसे बड़े शहर में ही नहीं बल्कि देश के और ख़ास तौर पर देश के उन बड़े भागों के छोटे-छोटे कस्बों और गाँवों में भी जो विभाजन की विभीषिका से सीधे और बुरी तरह प्रभावित हुए थे।
प्रवास में रहते हुए मैं अपनी भाषा में लिखता तो रहा लेकिन मैं उसे सुनता अधिक अपने भीतरी कानों से ही था जैसे कि मैं अपने देश के दृश्यों को देखता अधिक अपनी भीतरी आँखों से ही था- हर प्रवासी लेखक और कलाकार की तरह। इसलिए मेरी देखने और सुनने की शिद्दत और बारिकी बढ़ती ही गयी, कम नहीं हुई। इसके अलावा अपने व्यामोह के दर्द से संभलने के लिए मैं प्रवास में शास्त्रीय संगीत के रिकार्ड भी तकरीबन हर शाम सुना करता था। उनकी लय और थाप का मेरे काम की भाषा में आ जाना अनिवार्य था। हर प्रवासी लेखक और कलाकार की ‘भाषा’ में सोज़ भी होता है, साज़ भी।
उदयन- वैसे तो अमरीकी समाज ज़्यादातर प्रवासियों से ही बना-संवरा है पर फिर भी इनके प्रवासी नागरिकों में ऐसे भी कोई लोग, जो लेखक रहे हों या न रहे हों, ज़रूर रहे होंगे जिनमें यह चेतना आपकी तरह ही प्रबल रही होगी, क्या ऐसे लोग आपके सम्पर्क में आये थे? क्या ऐसे लेखकों, कलाकारों के साथ भी आपका उठना-बैठना हुआ करता था? क्या अपनी इस विशिष्ट अस्तित्वगत स्थिति के कारण आप किन्हीं ख़ास लेखकों और दार्शनिकों की कृतियों की ओर गये थे?
वैद साहब- अमरीकी समाज ही नहीं, अमरीकी सभ्यता और संस्कृति, अमरीकी चिन्तन-मनन- दर्शन, अमरीकी रहन-सहन-पहन-खान-पीन-आदि, अमरीकी कला-साहित्य- संगीत-नृत्य-फ़िल्म-आदि पर प्रवासियों का फैसला-कुन प्रभाव शुरू से अब तक, ख़ास तौर पर पहले और दूसरे महायुद्ध के दौरान और बाद के वर्षों में, पड़ता रहा है। अब यूरोप के इंग्लैण्ड समेत कुछ देशों की देखादेखी यहाँ भी लोगों ने कुछ प्रवासियों और शरणार्थियों को सन्देह की निगाह से घूरना शुरू कर दिया है, लेकिन इस परिवर्तन को यहाँ के समझदार लोग और नेता उनके पतन की ही एक अलामत मानते हैं। अमरीका की विदेश नीति में कई तरह और दर्ज़े के दोष आसानी से निकाले जा सकते हैं और अक्सर खुदरोशन दिमाग़ अमरीकी बौद्धिकों द्वारा निकाले जाते हैं लेकिन प्रवासियों और शरणार्थियों को अभी भी यहाँ के अधिकतर पुराने बाशिन्दों परम्परागत अमरीकी उदारता से ही देखते और लेते हैं।
मैं आपके सवाल की सार्थकता समझता हूँ। मैंने जब यहाँ पाट्सडैम में दो साल पढ़ा लेने के बाद एक साल ब्रेण्डाइज़ जैसी उत्कृष्ट जगह भी पढ़ा लिया तो मैं वापस वहाँ जाने और जम जाने के लिये ज़्यादा उत्सुक तो नहीं था लेकिन तीनों बच्चों ने जब इधर-उधर भटकने का विरोध किया तो मैंने भी सोचा कि अच्छी जगह की तलाश में न जाने कितने साल और लग जायें और उसके लिये मुझे हिन्दी में सृजनात्मक लेखन के बजाय अँग्रेज़ी में शोध करना और उस क्षेत्र में अपना नाम चमकाने के लिए पर्चे और हेनरी जेम्ज़ पर अपनी पहली आलोचनात्मक पुस्तक की ही तरह और पुस्तकें हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस की ही तरह के किसी अव्वल दर्ज़े के प्रकाशक से प्रकाशित करवाने के लिऐ मेहनत भी करनी पड़ेगी। और मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि मुझ से यह तभी हो पायेगा कि मैं हिन्दी में अपना सृजनात्मक लेखन बन्द ही कर दूँ। इस विकल्प के आलोक में मुझे याद आया कि मैंने एम.ए. अँग्रेज़ी में इसलिए किया था कि ऐसा कर लेने के बाद मुझे किसी कॉलेज में पढ़ाने का काम मिल जायेगा और उर्दू-हिन्दी में कहानियाँ और उपन्यास लिखने के लिये आर्थिक आधार और समय मिलता रहेगा, मैं बतौर प्राध्यापक नहीं, बतौर लेखक ही अपना असली काम जीवन भर करूँगा और फिर मुझे पाट्सडैम भी अच्छा लगने लगा।
मैंने यह राग फिर इसलिए छेड़ा कि आपके मौजूदा सवाल के जवाब में मैं कहना यह चाहता हूँ कि बड़े-बड़े अमरीकी शहरों जैसे बॉस्टन और न्यूयार्क और सान फ्रान्सिसको और शिकागो की बड़ी-बड़ी यूनिवर्सिटियों में प्रवासी लेखकों और कलाकारों के साथ मिलने-जुलने और उठने-बैठने और वाद-विवाद-संवाद करने के अवसर मुझे ज़्यादा मिलते। पाट्सडैम में रहते हुए भी ‘स्टार लेक रॉइटिंग वर्कशाप’ के माध्यम से मैंने एक छोटा-सा तहलका तो मचा ही दिया था और जब तक मैं वहाँ रहा मैं अपने लेखक और कलाकार दोस्तों, भारतीय और अमरीकी दोनों को कभी कभार बुलाता और बुलवाता भी रहा, जिससे पाट्सडैम की फिज़ा में कुछ हरकत भी होती रही। और वहाँ भी मुझे अपनी किस्म और पसन्द के कई लोग अँग्रेज़ी विभाग में ही नहीं दूसरे विभागों में मिलते भी रहे। उनमें से अधिकतर मेरी ही तरह एक्सिलिक वृत्ति के ही थे, यहूदी होने के कारण। रॉजर लिप्से से मेरी दोस्ती वहीं हुई थी, और जब वह दो साल वहाँ रहकर कहीं और चला गया। उसने पढ़ाना छोड़कर किसी बैंक में कोई काम करना और कला और कलाकारों पर लिखना भी जारी रखा तो वह मुझे मिलता भी रहा। भारत भी वह आया, और शुरू-शुरू में हम कुमारस्वामी की आखिरी पत्नी डोना लुइसा की बातें करते रहे। रामकुमार और निर्मल दोनों हमारे पास कुछ-कुछ दिन रहे; दोनों ने पाट्सडैम में लेक्चर भी दिया; यह कहते हुए मुझे कोई संकोच नहीं हो रहा कि रामकुमार ने मेरे दोस्तों को निर्मल से ज़्यादा प्रभावित किया। नीरद बाबू जब आये थे तो रॉजर लिप्से वहीं था। मैं नीरद बाबू को रॉजर के घर भी ले गया था। नीरद बाबू ने तो वहाँ अपनी धाक ही बिठा दी थी। पाट्सडैम में एक और भारत-प्रेमी मेरा दोस्त बना रॉबर्ट सायनाई। वह दक्षिण अफ्रीका से था। उसके साथ बहुत दिलचस्प बातें हुआ करती थीं। हार्वर्ड के दिनों में एक दिन मुझे और मेरे अमरीकी दोस्त रॉबर्ट फिट्ज़गेराल्ड को हैरी लेविन ने सोसायटी ऑफ़ फेलो के लंच पर बुलाया था। पता नहीं कैसे नबाकोव के बारे में बातें होने लगीं तो मुझे पता चला कि हैरी लेविन नबाकोव को बहुत नज़दीक से जानते थे क्योंकि नबाकोव ने शुरू-शुरू में वेलस्ले कॉलेज पढ़ाया था जो हार्वर्ड के पास ही था और नबाकोव और उसकी पत्नी वीरा वहीं केम्ब्रिज में रहे थे। उस दिन पहली बार हैरी लेविन मुझसे और गेराल्ड खुला था; ऐसी ऐसी रोचक कहानियाँ उसने सुनायी कि मज़ा आता रहा। गेराल्ड ने बाद में मुझसे कहा, तुमने ही हैरी लेविन को खोला, वर्ना वह तो अपनी मुँहभीची खामोशी के लिये मशहूर बल्कि बदनाम है।
अमरीका में रह रहे अनेक प्रवासी कलाकारों और लेखकों के काम और नाम को मैं जानता था लेकिन उनके साथ उठने-बैठने के अवसर मुझे कम ही मिले।
अमरीका में रह रहे हिन्दुस्तानी लेखकों को मैं जानता था, उनमें से कईयों को मैं मिला भी- भारती मुखर्जी, वेद मेहता, और कई और को जिनके नाम अब मेरी पकड़ में नहीं आ रहे लेकिन वह सब अँग्रेज़ी में लिखते थे और उनमें सलमान रुशदी और रामानुजन की टक्कर का उस समय कोई नहीं था।
उदयन- मुझे याद है, आपने अंजना, ज्योत्स्ना जी, चम्पा जी को और मुझे पचमढ़ी में बड़े ही दिलचस्प अंदाज़ में ‘बिमल उर्फ़़’ पढ़ कर सुनाया था। क्या इस उपन्यास को लिखा भी इसी तरह गया था यानि क्या आप इसे किसी को या खुद को ही पढ़ कर सुनाते थे फिर आगे लिखते थे? मैं यह इसलिए पूछता हूँ क्योंकि इसीलिए उस उपन्यास में यह गुण है कि इसका पाठ मधुर लगता है। क्या यह मुमकिन है कि इसके पीछे दूर देश में अपनी जु़बान को सुनने की चाह रही हो? शायद तभी आपने ऐसा उपन्यास लिखा जो चुपचाप बैठकर पढ़ा भी जा सकता हो, ज़ोर से बोलकर, सुना भी जा सकता हो?
वैद साहब- तुम फिर ‘बिमल उर्फ़़’ की तरफ मुड़ उसे ही निहार रहे है; मैं भी अक्सर यही करता हूँ। पचमढ़ी की याद तो अब जवान नहीं रही लेकिन इससे कई साल पहले की पाट्सडैम की ‘बिमल उर्फ़़’ से गुँथी हुई अनेक यादें अभी तक मेरे भीतर लहलहाती रहती हैं। मैं उन दिनों उसे लिख रहा था और कभी-कभी मैं अपने लिखे हुए पर इतना खुश हो जाता था कि चम्पा को पकड़कर अपने पास बिठा लेता और उठने नहीं देता था जब तक वह मेरा बिमलपाठ ध्यान से सुनती रहती। आखिर वह सुनते-सुनते और मेरे जुनून से तंग आ जाती, मेरा जुनून बढ़ता ही जाता, और वह उठकर नीचे चली जाती। और ‘बिमल उर्फ़़’ की समाप्ति के बाद जब मैंने उसका अँग्रेज़ी अनुवाद करना शुरू कर दिया तो मैंने अपने कुछ अमरीकी दोस्तों को भी तंग करना शुरू कर दिया। कभी-कभी मैं अपनी रॉइटिंग क्लास को भी बोर किया करता था और कभी-कभी किसी दूसरे शहर, जैसे शिकागो या बॉस्टन-केम्ब्रिज में किसी दोस्त को फ़ोन कर उसे एक-आध घण्टे बिमल-बानी सुनाया करता था। सुनने वालों का मुझे पता नहीं, मैं अक्सर मस्ती के आलम में पहुँच जाया करता था।
वर्षों पहले मैंने गगन गिल से- जिन दिनों उन दोनों से खुल कर बात हुआ करती थी- किसी इसी तरह की बातचीत में कहा था कि मेरी कुछ कृतियों को ऊँची आवाज़ में भी पढ़ कर देखना और सुनना चाहिये अगर मेरी भाषा का संगीत सुनना हो तो। वैसे तो खामोश रह कर भी उसे सुना जा सकता है अगर आप खामोश रहते हुए भी अपना तीसरा कान खुला रखें तो, लेकिन ऊँचा पढ़ने से आसानी हो जाती है।
‘बिमल उर्फ़़’ की आत्मा उसकी भाषा में है; उसकी भाषा की आत्मा उसके नृत्य और संगीत में है। बेशक उसकी आत्मा का एक अंश उसके श्लेषों में भी है किन्तु वह भी ऊँचा पढ़ने से कुछ अधिक निखर जाते हैं। मेरा बाद का एक उपन्यास, ‘नर-नारी’ भी माँग करता है कि उसे कभी-कभी ऊँचा पढ़ा या पढ़कर भी सुना-सुनाया जाये। और मेरी उपन्यास-त्रयी- ‘नसरीन’, ‘दूसरा न कोई’, ‘दर्द ला दवा’ भी। ‘उसका बचपन’ और ‘गुज़रा हुआ ज़माना’ भी। बाकी रहे ‘काला कोलाज़’ और ‘माया लोक’ और ‘एक नौकरानी की डायरी’ तो मेरे अपने विचार में उन्हें भी अगर कहीं-कहीं से ऊँचा पढ़कर किसी को सुना दिया जाये तो उनकी भाषा को कोई ज़ोफ तो नहीं पहुँचेगा लेकिन कुछ देर पढ़ने के बाद अगर आँखे बन्द करके उनके दृश्यों को देखा जाये तो ‘काला कोलाज़’ में से कुछ कोलाज उभरते नज़र आ जा सकते हैं, ‘माया लोक’ में से कुछ स्वप्न, और ‘नौकरानी’ में से शानो की एक नयी भाषा-चेतना। संक्षेप में मेरे कुछ उपन्यास ऊँचा पढ़े जाने की माँग करते हैं, कुछ आँखें बन्द करके देखे जाने की, और कुछ में से कोई ख़ास माँग तो नहीं फूटती लेकिन उन्हें भी अगर दुलारा या दुतकारा न जाये तो उनसे ज़्यादा आनन्द उठाया जा सकता है।
क़रीब पैंतीस बरस पढ़ा लेने और तरह-तरह के विद्यार्थियों का सामना करने के बाद भी अपने आप को मंच-भीरुता का शिकार मानता हूँ। पर कभी-कभी न जाने कैसे मैं इस भीरुता को कुचल कर शब्द-वीर हो जाता हूँ। ऐसा ही एक शाम प्रयाग शुक्ल- आयोजित राष्ट्रीय नाट्य संस्थान नयी दिल्ली में एक अवसर पर हुआ जिसमें मैंने अपने कुछ नाटक-टुकड़े पढ़कर सुनाये थे जिनके दौरान मैं मंच-भीरुता से नितान्त मुक्त न जाने कैसे हो गया था और बाद में प्रयाग ने और कई औरों ने मेरी अदायगी की प्रशंसा की थी। उसके बाद कभी कभार उस अवसर के अनुभव को दोहराने की तरंग मेरे अन्दर उबाला मारती और अपने आप बैठ जाती। मैं चार्ल्स डिकन्स की तरह अपने उपन्यासों का पाठ कर नाम और पैसे के ख्वाबी पहाड़ कभी-कभी दूर से अब भी देख लेता हूँ।
उदयन- पाट्सडैम वापस आकर बसने के बाद और उसके पहले भी आप भारत आते रहते थे। चूँकि आप कुछ बरसों के अन्तराल के बाद भारत आया करते थे, आपने भारत के कुछ हिस्सों को, जहाँ भी आप जाते होंगे, बदलते देखा होगा। क्या उस बारे में आप कुछ कहेंगे?
आपके ‘बिमल उर्फ़’ के बाद के बल्कि आपके हर उपन्यास, उपन्यास लेखन की कोई न कोई नयी ज़मीन तोड़ते है। उदाहरण के लिए ‘नसरीन’ ‘बिमल’ से नितान्त अलग है, ‘उसका बचपन’, ‘गुज़रा हुआ जमाना’ से, ये सभी ‘दर्द ला दवा’ से। आपके लिये हर नया उपन्यास भाषा में और भाषा का नया दुस्साहस हुआ करता है, ऐसा कैसे हो पाता है? आप उपन्यास किस तरह लिखना शुरू करते हैं? मसलन आपने ‘दर्द ला दवा’ लिखने के पहले क्या सोच विचार किया था? इसी तरह ‘गुज़रा हुआ जमाना’ के पहले भी।
वैद साहब- यहाँ से वहाँ और वहाँ से यहाँ आने-जाने का मैं शीघ्र ही इतना अभ्यस्त हो गया था कि मुझे वहाँ के परिवर्तन दिखायी ही नहीं देते थे, महसूस ही नहीं होते थे। और वैसे भी उन बाहरी परिवर्तनों के बावजूद भीतरी भारतीयता निरन्तरता काइम दिखायी देती थी, महसूस होती थी। यह भी सम्भव है कि मैं जानबुझकर अपनी ही किसी धारणा की रक्षा के लिये उन परिवर्तनों को अपनी निगाह और अहसास से ओझल रखता था। जो हो मुझे उन संक्षिप्त वापसियों में ऐसा महसूस नहीं होता था कि मैं किसी बदले हुए स्थान या सभ्यता-संस्कृति-स्थल में आ गया हूँ और इससे मैं त्रस्त होने के बजाय आश्वस्त ही होता था। मेरी इस बात से तुम यह निष्कर्ष भी निकाल सकते हो कि मैं खुद भी यहाँ इतने बरस रहने, रोज़ी कमाने, परिवार पालने, और लिखने के बावजूद बुनियादी तौर पर यहाँ का नहीं हुआ, मेरी निगाह और मेरा अहसास नहीं बदले और तुम्हारे इस निष्कर्ष से मेरी सहमति होगी।
तुम्हारी हर उपन्यास में कोई न या कोई नयी औपन्यासिक ज़मीं तोड़ने की बात से मुझे बल मिलता है क्योंकि ऐसा मेरे कुछ इने-गिने पाठकों ने ही खुलकर कहा है। शायद इसलिए मैंने इतनी लम्बी उम्र में इतने कम और कम-हुजम उपन्यास लिखे हैं। अपनी लम्बी उम्र के इस डगमगाते टीले पर खड़ा लड़खड़ाता हुआ जब मैं उनपर दृष्टि डालता हूँ तो वह मुझे ‘भाषा में भाषा का नया दुस्साहस’ ही नहीं दिखाता बल्कि भाषा के साथ संरचना का भी।
उपन्यास लिखने की कोई एक विधि या नुस्खा मेरे झोले में नहीं है; यह तुम्हारे सवाल की मंशा भी नहीं है, मैं जानता हूँ। मेरा हर उपन्यास मेरे ही किसी आब्सेसनों या जुनून से शुरू होता है, और वह जुनून मेरे ही किसी अनुभव या अनुभव-पुंज या अनुभव-कुंज से। वह जुनून जब तक मेरे दिल और दिमाग़ दोनों पर सवार न हो जाये तब तक मैं उसे उपन्यास में रूपान्तरित नहीं कर सकता। अगर वह जुनून झूठा हो तो वह उपन्यास बीच में ही कहीं छूट जाता है। मेरे कागज़ों में अनेक ऐसे छूटे हुए झूठे जुनून अपूर्ण उपन्यासों की बेचारी हालत में पड़े हुए हैं। वह जुनून ही लिखने से पहले मेरा सोच-विचार होता है।
‘नसरीन’, ‘दूसरा न कोई’, और ‘दर्द ला दवा’ लिख लेने के बाद ही मुझे लगा था कि वह एक त्रयी बनाते हैं, जिसकी हर कड़ी अपने में मुकम्मल तो है लेकिन दूसरी दोनों से जुड़ी हुई भी हैं क्योंकि उनकी केन्द्रीय चेतना या अवचेतना एक या एक सी ही है। इसी तरह बीरु ‘उसका बचपन’ और ‘गुज़रा हुआ ज़माना’ का नायक तो है लेकिन ‘बचपन’ में उसकी नज़र और चेतना अपने परिवार और अपने एक मुसलमान दोस्त के परिवार तक ही सीमित रहती है; ‘ज़माना’ में वह घर के बाहर अपने कस्बे में और फिर अपने कस्बे से दूर लाहौर में और फिर लाहौर से वापस फिर कस्बे में और फिर मिस्त्री गुलाम अली की पनाह में उस भूसे की कोठरी में और अन्त में उन अस्थायी शरणार्थी केम्पों में बड़ा होता है। इन दोनों उपन्यासों में वीरु की कहानी के माध्यम से एक पूरे परिवार की और एक कस्बे की कहानी के माध्यम से एक पूरे प्रान्त की करुण और संश्लिष्ट त्रासदी की कहानी कहने या तस्वीर उतारने की कोशिश की गयी हैं।
उदयन- पाट्सडैम की आपकी दिनचर्या में आपको समाने में कुछ तकलीफें शायद आयी हों, उन्हें हल करने में शायद आपकी किसी ने मदद भी की हो। या आपने वह सब अपने आप ही चम्पा जी की मदद से हल किया हो। आप बाद के वर्षों में वहाँ रहते हुए शायद किन्हीं यादगार व्यक्तियों से मिले हों जो आपको आज भी याद आते हों। इस बीच आपकी कुछ कृतियों के अनुवाद प्रकाशित हो चुके थे, उन पर भी वहाँ के लेखकों, आलोचकों ने कोई दिलचस्प बात कही हो। आपको वहाँ लम्बे समय तक रहते हुए अपने देश की कौन सी बातें रह-रहकर याद आती थीं। क्या यह अनुभूति भी कभी हुई कि ‘यहाँ कहाँ फँस गये’। देश से दूरी के अहसान को आप कैसे संभाल पाते थे?
वैद साहब- पाट्सडैम में समाने के लिए शुरू-शुरू में हर प्रकार की सहायता और सहानुभूति की हमें ज़रूरत थी, जो हमें स्थानीय लोगों और अँग्रेज़ी विभाग के सहयोगियों से मिलती रही, जिसके लिये हम समुचित आभार व्यक्त करते रहे। जैसा कि हम सब ने हार्वर्ड के दिनों में भी महसूस किया था, इस मामले में अमरीकी नर-नारी, ख़ास तौर पर उच्च-शिक्षा और संस्कृति संस्थानों से सम्बन्धित लोग विदेशियों और प्रवासियों से अभ्यस्त ही नहीं बल्कि उनके प्रति उदार और खुले-दुले भी हैं। हमें भी हार्डर परिवार के अलावा कई और ऐसे परिवार जल्द ही मिल गये जिनके साथ हमारी पारिवारिक दोस्ती हो सकती थी, इसलिए नये परिवेश और प्रवासियत की अन्य चुनौतियों से निपटने के लिये हमें सहारे भी मिलते रहे। जब तक मैं वहाँ अकेले रहा, और मेरे पास तब कार भी नहीं थी, तब तक एक युवा युगल ने मुझे अपनी सोहबत-संगत का सहारा दिया। पति रोन मोल अँग्रेज़ी विभाग में ही पढ़ाता था; उसे भी जेज़ संगीत पसन्द था, मुझे भी, उसकी बीवी जूडी को भी; उन दोनों को उसके बारे में जानकारी ज़्यादा थी; उनकी उत्सुकता और उदारता भारतीय शास्त्रीय संगीत के बारे में भी पर्याप्त थी, इसलिए हमारी अक्सर शामों का अन्त जेज़ और उस्ताद अली अकबर खान या उस्ताद अल्ला रक्खा के साथ सर मारने पर होता था, आग के सामने बैठकर पीते हुए, कभी-कभी सुरूर में आ जाने के बाद एक-एक डॉलर के नोट आग और संगीत को अर्पित करते हुए!
चम्पा और बेटियों के आ जाने के बाद मैंने कार खरीद ली, चम्पा और मैंने कार चलाना भी सीखा और ड्राइविंग लाइसेंस भी ले लिया लेकिन अधिक बर्फ़बारी में हमें अक्सर किसी दोस्त या हमसाये या कारीगर की मदद लेनी पड़ जाती थी और उन कठिन अवसरों पर मेरे दो सहयोगी, टोनी बॉयल और बॉब किसी और उनसे पहले हेनरी सेंट ओंग मेरी मदद के लिए खिले मुख आ जाते थे। इन सबमें से सब से ज़्यादा स्मरणीय हेनरी ओंग हुआ करता था लेकिन जब हम ब्रेण्डाइज़ से लौटे तो वह स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ़़ न्यूयार्क (सुनी) के ही एक और कैम्पस में चला गया था। वहाँ से भी वह पाट्सडैम आया जाया तो करता था लेकिन वह पुरानी बात नहीं रही थी। उसमें मुझे न जाने क्यों डी.एच. लॉरेंस दिखायी दिया करता था, शायद दोनों की दाढ़ियों और बुनियादी सादगी और सफ़ायी में मुझे कोई साम्य नज़र आया करता था। मैंने लॉरेंस को देखा तो नहीं था लेकिन उसकी तस्वीर देखी थी और उसे और उसके बारे में पढ़ा बहुत था। अब मुझे हेनरी ओंग की याद में स्वामी की याद दिखायी देती है।
‘उसका बचपन’ के अँग्रेज़ी अनुवाद, ‘स्टेप्स इन डार्कनेस’ के रिव्यू तो काफ़ी और बहुत सराहना-युक्त हुए थे; आई.ए. रिचर्ड्स और हैरी लेविन समेत जिन परिचित आलोचकों ने उसे पढ़ा, उनने मुझे सराहना-पत्र भी लिखे। जॉन गार्डनर और रेमण्ड कार्वर जिनके काम की किसी ज़माने में बहुत चर्चा हुआ करती थी, उन्हें भी ‘स्टेप्स इन डार्कनेस’ पसन्द आया था। एक बार जॉन गार्डनर पाट्सडैम आये थे और हमारी क्लास में और हमारे घर भी आये थे। उन्होंने मेरी स्टडी में ‘स्टेप्स इन डार्कनेस’ को देखकर हैरानी ज़ाहिर की, और बोले, यू आर द रॉइटर ऑफ़ दिस वण्डरफूल नॉवेल! जब मैंने अपना विनम्र सर झुका दिया तो वह बोले, रेमण्ड कार्वर रिकमॉण्डेड दिस नॉवेल एण्ड आई रीड इट एण्ड एडमायर्ड इट इमेंसेली!
मेरी कई कहानियों के मेरे अँग्रेज़ी अनुवाद कई समृद्ध साहित्य पत्रिकाओं में भी- न्यू वर्ल्ड रॉइटिंग, एनकॉउण्टर, बॉटेगे ऑस्क्यूर, द लिट्रेरी रिव्यू, द शिकागो रिव्यू, कन्टेम्पररी लिट्रेचर इन ट्रांसलेशन, प्रिज्म इण्टरनेशनल, ट्राई-क्वार्ट्रली, वेस्टर्न ह्यूमेनिटिज रिव्यू-प्रकाशित होते रहे लेकिन बेश्तर अमरीकी लेखकों और आलोचकों के लिये मैं बेनाम ही रहा।
देश की दूरी का अहसास कभी-कभी इतना सख्त सन्दिग्ध हो उठता था कि कभी-कभी मैं बेइख्तियार उबल पड़ता था कि कहाँ आ फँसे; इस उबाल पर पी-पाकर या अपने उबाल को ही समझा-बुझा कर काबू में कर लेना पड़ता था।
गोल-गप्पे (पानी-पतासे) और चाटभटुरे बहुत याद आया करते थे और पुरानी दिल्ली और डिंगा और डेरा बख़्शियाँ की गलियाँ और नयी दिल्ली की टोडरमल लेन की बू, प्रूस्त की मेडलीन की बास की तरह।
उदयन- क्या आप अपनी समय-समय पर हुई भारत वापसियों के बारे में कुछ कहेंगे? कब-कब कौन नये पुराने लोगों से आपकी यहाँ मुलाकात हुईं, आपकी नयी जगहों को देखने की इच्छा हुई और वहाँ जाकर आपको कैसे अनुभव हुए आदि। आप चाहें तो क्रम से बताएँ या न बताएँ, यह पूरी तरह आप पर है। जो मन में आता चले, हमसे साझा करने की इच्छा होने पर ही वैसा करें।
वैद साहब- जब तक माता-पिता जीवित रहे तब तक तो सबसे पहले अम्बाला, जहाँ वे मेरे भाई यशपाल के पास रहते थे, जाता रहा और कुछ दिन वहाँ गुज़ार कर वापस दिल्ली आ जाता रहा। पहले पिता गये, फिर माता। दोनों के अन्तिम समय मैं उनके पास नहीं था, अपनी इस चूक ने मुझे बहुत चोट पहुँचायी, बरसों तक वह मुझे कचोटती रही और मैं इस सन्दर्भ में जेम्स ज्वॉयस को याद करता रहा।
दिल्ली में कृष्ण सोबती, जॉय माइकल, भीष्म साहनी, निर्मल वर्मा, धर्मनारायण, स्वामीनाथन, रामकुमार (और कभी-कभी उनके घर में हुसैन), अलकाज़ी, नेमिजी, अपने प्रकाशकगण, कभी-कभी राजेन्द्र यादव और कमलेश्वर, एक बार लक्ष्मी नारायण लाल और अमृता प्रीतम, मीनाक्षी और सुजीत मुखर्जी, श्रीकान्त वर्मा, शामलाल- कई नाम इस समय याद से उतर या उड़ भी गये होंगे- से मिला करता था।
यायावरी का मुझे ज़्यादा शौक नहीं था, ज़्यादा बार मैं दिल्ली से बाहर कम ही गया। 1981 में चम्पा और मैं रेलगाड़ी से भारत भर में घूमे थे, ख़ासतौर पर उन सब जगहों पर जहाँ हमारे लेखक दोस्त या परिचित रहते थे। हमारी यात्रा हैदराबाद से शुरू हुई थी और दिल्ली में समाप्त। सारा इन्तज़ाम एक एजेण्ट ने किया था। हैदराबाद में हम उस्मानिया में स्थित इण्डियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ अमेरिकन स्टडीज़ में विजिटिंग स्कॉलर की हैसियत से तीन महीने गुज़ार रहे थे। मैं पाट्सडैम से सबेटिकल पर था। हैदराबाद में हम बद्रीविशाल पित्ती जी से भी अनेक बार मिले; उन्हें मैं तो पहले भी जानता था; उन ने तब तक शायद ‘बिमल उर्फ़’ प्रकाशित कर दिया था।
इस क़रीब एक महीने के भारत भ्रमण में हमें बहुत ही आनन्द आया और हमारे भारत-प्रेम और भारत-ज्ञान में बहुत वृद्धि हुई। हैदराबाद में मैं तो पहले भी एक दो बार जा चुका था। पहली बार जब गया था तो प्रयाग शुक्ल वहीं कल्पना में काम कर रहे थे। तभी मैं पित्तीजी और प्रयाग जी से पहली बार मिला था।
हमें दक्षिण के मन्दिर ख़ासतौर पर बहुत पसन्द आये थे। त्रिवेन्द्रम में हम अयप्पा पणिक्कर के घर रुके थे। वहाँ से हम नगरकोएल गये जहाँ हमारी मेजबानी एक युवा कवि हरिहरण ने की। वह जिद्द कर के मुझे अपने कॉलेज में भी ले गया। उसके घर में अतिस्वादिष्ट और पुरतकुल्लफ़ दक्षिणी खाना खिलाया गया और वहीं शायद शुचीन्द्रम मन्दिर के आँगन में नादस्वरम सुनते हुए और देवी-देवताओं की मूर्तियों को स्नान करते देखते हुए मुझे अपने जीवन में पहली और सम्भवतः अन्तिम बार एक आध्यात्मिक अनुभव हुआ जिसके दौरान मैं किसी और ही आलम में पहुँच गया और मेरी आँखें और आत्मा भीग गयीं।
वहाँ से हम रामेश्वरम् और कन्याकुमारी गये। वहाँ के दृश्य दर्शनीय थे लेकिन वहाँ हमें जिन चारित्रिक गिरावटों के दीदार भी करने पड़े, उनके बगैर ही हम अगर रहे होते तो हमारे लिए अच्छा होता। वहाँ से इसी दौरे में हम कटक और भुवनेश्वर भी गये। कटक में हम जयन्त महापात्र के घर रुके और भुवनेश्वर में एक होटल में। हम जयन्त और रून्नू के साथ पुरी भी गये थे। जयन्त और रामनुजन को मैं हिन्दुस्तानी अँग्रेज़ी के सबसे बड़े कवि मानता हूँ। पुरी में समुद्र के किनारे एक रेल्वे होटल में एक रात रुके भी थे। वहाँ से हम कोलकता गये। वहाँ हम नबनीता देव सेन के घर रुके। नबनीता और अमर्त्य सेन को हार्वर्ड के दिनों में हम कैम्ब्रिज में भी मिल चुके थे। उन दिनों उनकी शादी नयी-नयी ही थी। लेकिन अब 1981 में वे एक-दूसरे से जुदा हो चुके थे। हमारी यह यात्रा दिसम्बर में शुरू हुई थी और कोलकता में हम दिसम्बर के अन्त में पहुँचे थे।
नबनीता का घर बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु के घर की बगल में था और नबनीता का कुत्ता सारी रात भूँकता रहता था और बसु का नौकर आ-आकर नबनीता को उसे चुप कराने के लिए कहता रहता था। इस बात से हमें आगाह कर दिया गया था। नबनिता की माँ भी लेखक थीं और वे उनके साथ ऊपर की मंजिल में रहती थीं। चम्पा और मैं दो तीन दिनों में उनसे कई बार मिले। नये वर्ष का स्वागत हमने वहीं किया- तारापद राय चौधुरी के घर एक पियक्कड़ पार्टी से जिसमें हम कई बांग्ला कवियों- शक्ति दा, शंखो घोष, सुनील गंगोपाध्याय- और उनकी पत्नियों से मिले। उस पार्टी में जल्द ही सब कवि पत्नियों समेत धुत्त हो गये थे, सब मस्ती में गा-झूम रहे थे- ओ शुन्दरी आदि- और आधी रात को नबनीता और मैं चम्पा को वहीं छोड़कर उसकी कार में सबके लिए खाने की तलाश में भटकते फिरे थे। बरसों बाद जब यह बांग्ला कवि-मण्डली भोपाल के हमारे घर में आये तो हम ने उस पार्टी को और हमारी पहली मुलाकात को खूब याद किया।
पाट्सडैम में पियक्कड़ पार्टियाँ तो बहुत होती थीं, हमारे घर में भी काफ़ी हुईं, उनसे आनन्द भी बहुत मिलता रहा लेकिन उनमें वह बात नहीं होती थी हमारे लिए जो भारत में हुआ करती थी।
बनारस में हम रुके तो लेकिन तब तक मुझे बुखार हो गया था इसलिए वहाँ से इलाहाबाद जाने का ख्याल हमने तर्क कर दिया।
फिर इसी सबेटिकल का आधा हिस्सा हमने दिल्ली में गुज़ारा आई.आई.टी. के अँग्रेज़ी विभाग में। वहाँ हम विजिटिंग प्रोफ़ेसर के लिए बनाये गये अतिथि गृह में रहे। ‘ज़िन्दगी नामा’ के लिए कृष्णा सोबती को साहित्य अकादेमी पुरस्कार मिला था, उसकी शीला के घर में हुई पार्टी में अशोक और निर्मल और श्रीकान्त वर्मा भी मिल गये। सो मैंने उन सबको और स्वामीनाथन को अगले दिन अपने घर खाने पर बुला लिया। शायद अनन्तमूर्ति भी उसमें थे। लेकिन उस पार्टी के अन्त में मैंने निर्मल को अलग ले जाकर खरी-खरी सुना दी थी, पहली बार, क्योंकि सारे खाने के दौरान मुझे निर्मल की सारी बातों से यही लगता रहा था कि निर्मल अपने नैतिक पतन को अनजाने में ही खुद नंगा कर रहा था। यहाँ मैं उस संक्षिप्त निजि बात के विस्तार में नहीं जाना चाहता।
उदयन- आप नवें दशक में भारत लौट आये। सन् 1983 के आसपास पास। आपने वापस आने का यह फैसला कैसे और क्यों लिया। यहाँ लौटते हुए आपकी क्या अपेक्षाएँ थीं? आपकी और घर के अन्य सदस्यों की?
वैद साहब- कहीं से भी सम्पूर्ण वापसी लगभग असम्भव है, ख़ास तौर पर उस प्रवास से जहाँ आप अपनी तीन बेटियों और असंख्य सम्भावनाएँ छोड़ आये हो। 1983 तक पहुँचते-पहुँचते हमारी तीनों बेटियाँ वस्सर कॉलेज से बारी-बारी बी.ए. कर चुकी थी। उसके बाद रचना और ज्योत्स्ना ने तो क्रमशः ब्रेण्डाइज़ यूनिवर्सिटी और मेक्गिल यूनिवर्सिटी में अँग्रेज़ी और साईकोलिंग्विस्टिक्स में पीएच.डी. करने चली गयीं और उर्वशी नॉर्थइस्टर्न यूनिवर्सिटी में लॉ डिग्री के लिए। और हम पाट्सडैम में अकेले रह गये- हमारा नीड़ हमें खाली और वीरान-सा लगने लगा। मैं पढ़ाते-पढ़ाते थक और कुछ खुश्क भी हो गया था। रचना की तो शादी भी हो गयी- वहीं क्लार्कसन में पढ़ रहे एक दक्षिण भारतीय लड़के के साथ- उन दोनों का ही निर्णय था जिसे हम सब ने सहर्ष समर्थन दिया था। ज्योत्स्ना की शादी की सम्भावना तो शुरू हो गयी थी, मॉटिं्रयाल में ही दक्षिण भारतीय मूल के एक नवयुवक के साथ लेकिन उनने अभी पक्का फैसला नहीं किया था। उर्वशी ने हमें बता दिया था कि वह शादी नहीं करेगी।
पिछले दो-तीन सालों से अपने आपको और अपनी बेटियों को तैयार तो हम कर रहे थे कि मैं अब भारत में ज़्यादा वक़्त बिताने का इरादा बाँध रहा हूँ ताकि अपना सारा समय अपने लेखन को दे सकूँ। उस अर्से में हमने आपस में बहुत जोड़-तोड़ भी किये, बहुत मानसिक उधेड़-बुन भी रही। उसी बीच रचना की बेटी कावेरी भी पैदा हुई और हम नाना-नानी भी बने। हमारी तीनों बेटियों ने हमें प्रोत्साहन दिया और मुझे पढ़ाने को त्याग देने की सलाह दी। मेरी चेतना में दबे-छिपे किसी संस्कार में वानप्रस्त आश्रम के किसी सम्पादित संस्करण की खींच भी रही होगी। मैंने दो वर्षों की छुट्टी लेने और उसके बाद प्रोफ़ेसरी से त्यागपत्र दे देने का फैसला कर ही लिया।
भारत लौट कर मैं किसी प्रकार के किसी बन्धन में नहीं फँसना चाहता था। जैसे ही हम दिल्ली पहुँचे तो ज्योत्स्ना ने भी शादी का फैसला कर लिया, उसी नवयुवक के साथ जिससे उसका प्यार चल रहा था। इधर हमने चण्डीगढ़ के खतरनाक हालात से परेशान होना शुरू कर दिया और विभाजन की विभीषिका की यादों ने मुझे स्वप्नों में भी सताना शुरू कर दिया। वापसी की सारी ऊर्जा और लिखने की ललक ने मुर्झाना शुरू कर दिया। चम्पा तो ज्योत्स्ना की शादी मनाने-करने के लिये वापस अमरीका चली गयी और मैं जापान से आ रही हमारी नयी कार के लिये दिल्ली चला गया। और फिर वहाँ से कोसानी, बगैर किसी भी किस्म के पूर्व-निश्चित प्रबन्ध के।
वहाँ मेरी खुशकिस्मती से रिहायश का बहुत अच्छा प्रबन्ध हो गया। वहीं से भोपाल जाने की बात शुरू हुई, अशोक से बात हुई, और चम्पा के लौटने पर हम तीन महीनों के लिये भोपाल चले गये। वह तीन महीने पाँच सुखद और सार्थक वर्षों से ज़्यादा खिंचते चले गये। वहाँ मैंने काम भी किया, आराम भी; वहीं बैठे-बैठे भारत भवन के प्रताप से भारत भर के दर्शन होते रहे, भारत भर के सुधि साहित्यकारों और कलाकार मिलते रहे, वहीं स्वामीनाथन के सब रंग-रूप और अशोक की समूची प्रखरता और उसकी सारी असाधारण क्षमताओं का मुझे अनुभव हुआ और वहीं मुझे अपनी भारत वापसी का सही पुरस्कार मिला और वहीं मुझे तुम्हारा और भोपाल और भारत भर के अन्य प्रतिभावान और सम्भावना-सम्पन्न लेखकों का स्नेह पाने का सौभाग्य हुआ। भारत भवन को मैं अपने जीवन का सुन्दरतम् अनुभव मानता हूँ।
उदयन- भारत भवन में ही आपने एक अत्यन्त अनूठा प्रयोग किया था, अन्तर्भारती जिसमें आपने देश के अन्यान्य भाषी लेखकों को आपस में मिलने और एक-दूसरे को जानने का अवसर दिया। इससे भारतीय भाषाओं के लेखकों की आपसी दूरियाँ कम हुईं और उनके बीच कहीं अधिक सार्थक संवाद आरम्भ हुआ। इस कार्यक्रम के कारण ही भारत की लगभग सभी भाषाओं के लेखक एक-दूसरे से प्रतिकृति होने की स्थिति में आये। अभी दो दिन पहले ही मैं मेघालय के ख़ासी भाषा के कवि, डेस्मण्ड कर्माओलंग से मिला। हमारी मित्रता अन्तर्भारती के कारण ही हो सकी।
‘अन्तर्भारती’ को करने के पीछे आपकी क्या दृष्टि रही थी? क्या भारतीय भाषाओं के बीच के असंवाद के बारे में आप सचेत थे?
वैद साहब- ‘अन्तर्भारती’ का प्रयोग भारत भवन के बहु-आयामी प्रयोग के सन्दर्भ में ही पनप सकता था। वह मेरे मन में आता और उगता ही नहीं अगर अशोक और स्वामीनाथन ने उसके लिए पर्याप्त भूमि और मुआफ़िक जलवायु न बनाये होते। उस परिवेश में नये-नये और क्रान्तिकारी ख़याल और ख़्वाब अनिवार्य थे। याद आता हे कि जहाँनुमा की किसी अनौपचारिक बातचीत में जब मैंने यह विचार व्यक्त किया तो अशोक ने तत्काल उसका स्वागत ऐसे किया कि जैसे उसका महत्व उनके सामने बल्कि उनके मन पर उसी तरह कौंध गया हो जैसे कि वह कुछ क्षण पहले मेरे मन पर कौंधा था। अशोक की सबसे बड़ी और अनूठी खूबी यही है कि वे हर सुझाव या स्वप्न की कौंध के लिये हरदम तैयार रहते हैं, उसे किसी संशय या सन्देह या लम्बी और अनावश्यक बहस का विषय या निशाना नहीं बनाते, उसकी कौंध का जवाब अपनी कौंध से देते हैं।
‘अन्तर्भारती’ के ख्वाब और खयाल के पीछे मेरी दृष्टि में बहुत कुछ था- भारतीय भाषाओं के बीच असंवाद और उस असंवाद को कम और दूर करने के लिये युवा लेखकों की केन्द्रीय भूमिका और युवा लेखकों की प्रतिभा और सम्भावनाओं की पहचान के लिये कोई अन्तर्भारती स्थल या प्लेटफार्म।
इस प्रयोग में अशोक के अलावा भोपाल और भारत भवन के आप सरीखे सक्रिय हिन्दी के युवा लेखकों के उत्साही सहयोग ने भी मेरी सहायता की। संक्षेप में इस प्रयोग को सफलता भारत भवन जैसे प्रयोगशील संस्थान में ही मिल सकती थी और वैसा संस्थान अशोक जैसे संस्थापक और दृष्टा की देखरेख में ही सम्भव हो सकता था।
अन्तर्भारती के ख़्वाबो-ख़याल के पीछे कहीं न कहीं पाट्सडैम की दोनों स्टार लेक रॉइटिंग वर्कशाप की सफलताएँ भी काम कर रही होंगी-चुपचाप।
उदयन- चण्डीगढ़ लौटने पर वहाँ का जीवन कैसा था? वहाँ आप कुछ समय तक ही रहे पर आप तब तक हिन्दी के ख्यातनाम लेखक थे। क्या उसका कोई असर आपके वहाँ के जीवन पर पड़ा था?
वैद साहब- चण्डीगढ़ लौटने पर वहाँ के जीवन में इन्दिरा गाँधी के क़त्ल और दिल्ली में निर्दोष सिक्खों पर हुई बेरहम बर्बरता के बाद ख़ास तौर पर न सिर्फ़ चण्डीगढ़ में बल्कि पंजाब भर और दिल्ली समेत उत्तरी भारत में वैसे ही तनाव तन गया महसूस होने लगा था जैसा 1947 के आसपास भारत भर में पाकिस्तान और विभाजन को लेकन महसूस होता था। इन्दिरा गाँधी के वध से पहले भी अमृतसर के दरबार साहिब में मोर्चा लगाये बैठे भिंडरावाले के कुप्रचार और बेहकावों से भड़काये गये सिक्खों ने ख़ालिस्तान की माँग शुरू कर दी थी। उसके बाद दरबार साहिब पर भारत सरकार ने धावा बोल दिया और उसके बाद जो हुआ वह सब ग़लत हुआ और उसे सुधारने में वर्षों लग गये।
चण्डीगढ़ पहुँचते ही वहाँ के तनाव को महसूस करना और उसका साम्य 1947 के तनाव से करना हमारे लिए अपरिहार्य हो गया था। उस अहसास को दबाये रखने के लिए ही मैंने शायद ‘बिमल उर्फ़’ पर आधारित एक नाट्य रूपान्तर किया और कुछ चण्डीगढ़-निवासियों से मिलकर उसकी रिहर्सल अपने ही घर में शुरू कर दी। फिर वह नाट्य रूपान्तर मेरे ही निर्देशन में दो-तीन बार खेला भी गया। मुझे पंजाब यूनिवर्सिटी, चण्डीगढ़ में बिताये अपने पुराने दिन याद आते रहे जब मैंने 1963 या 1964 में आर्थर मिलर का एक नाटक, ‘अ व्यू फ्राम द ब्रिज’ अपने कुछ विद्यार्थियों के साथ चण्डीगढ़ के टैगोर थियेटर में पेश किया था।
‘बिमल उर्फ़’ की प्रस्तुति कई लोगों को पसन्द आयी थी जिनमें मोहन महर्षि, इन्द्रनाथ मदान, निरुपमा दत्त वगैरह के अलावा मेरा एक बहुत पुराना डिंगा के सरदार हकीम सिंह हाई स्कूल का हम-जमात और दोस्त धरमवीर भी था जो एक शो के बाद जब मुझे मिला तो उसे पहचानने में मुझे दिक्कत हुई और देर लगी। उसने बताया कि वह असम टी प्लांटेशंस में अपनी किसी मुलाज़मात से अवकाश प्राप्ति के बाद चण्डीगढ़ में अपनी पत्नी समेत रह रहा था। उसने भी मेरे निर्देशन और नाटक की बहुत तारीफ़ की।
लेकिन इस सबके बावजूद उन दिनों ख़ास तौर पर चण्डीगढ़ में रहना और रहते चले जाना हमारे लिए मुश्किल था। इसलिए मैंने भोपाल में ही पनाह लेने के अवसर को खुशी-खुशी कबूल किया। चण्डीगढ़ में अलबत्ता ‘काला कोलाज’ मैंने आरम्भ कर दिया था; वह उपन्यास और कुछ कहानियाँ भोपाल में सम्पन्न हुईं।
चण्डीगढ़ खाने-पीने-मस्ती मारने के लिये या बुढ़ापे में आराम और सैर करने के लिये ले कॉर्बुसिये का प्रायोजित एक सुन्दर स्थान था लेकिन वहाँ उन दिनों कोई साहित्यिक और कलात्मक और सांस्कृतिक हलचल मुझे नहीं दिखी। हाँ, ब्रजिन्दर गोस्वामी जैसे कुछ लोग खामोशी से वहाँ भी अपनी लगन में लगे रहे; अगर मैं भी वहीं रह गया होता तो कुछ न कुछ तो लिख ही लेता और वह शायद सार्थक भी समझा जाता लेकिन भोपाल और दिल्ली जैसी बात वहाँ न होती। और पाट्सडैम और अब कॉलेज स्टेशन जैसी बात शायद न बनती; यह गुमनामी और देश-ख्वेश से दूरी भी अब इस दौर में मेरे लिये और मेरे काम के लिए मुझे ज़रूरी लगती हैं।
उदयन- भोपाल भारत भवन में बिताये अपने दिनों के बारे में आपने बताया है, पर भोपाल शहर और उसके आसपास की जगहों की आपकी क्या याद है? आप उन दिनों इन पास की जगहों बहुत घूमे हैं। कई बार तो मेरे साथ भी। उनके बारे में और वहाँ हुई मुलाकातों के बारे में कहिये।
वैद साहब- भोपाल शहर भी एक सुन्दर शहर है। पुराना शहर ख़ास तौर पर। वहाँ घूमना मुझे बहुत प्रिय था। फज़ल ताबिश के घर हम अक्सर जाया करते थे। ईद हम वहीं मनाते थे। जब स्वामीनाथन का बनाया शाहीन इक़बाल की याद में फज़ल के घर के पास ही खड़ा कर दिया गया तो हम अक्सर उसे देखने भी चले जाया करते थे और फिर फज़ल के घर। फज़ल और उसकी बीवी की मेहमान-नवाज़ी कमाल की थी और उनके घर का गोश्त बहुत लज़ीज़ होता था। उसकी याद से ही मूँह में पानी आ जाता है। मैं अक्सर उसके बेटे को साथ लेकर बाज़ार में घूमा करता था।
बड़े ताल के किनारे-किनारे मैं सैर किया करता था। कभी-कभी छोटे ताल के किनारे-किनारे भी बहुत दूर निकल जाता था। शुरू-शुरू में पेड़ों से लटके हुए चमगागड़ों से मैं डरता था, फिर उनकी उपस्थिति का मैं आदी हो गया और वह मुझे अच्छे भी लगने लगे। वैसे चमगादड़ मैंने कहीं और नहीं देखे। कभी-कभी, किसी-किसी रोशनी में उन पर लटके हुए मोरों का गुमान भी होता था।
नये भोपाल की अपनी रौनक हुआ करती थी, अपनी चहल-पहल।
शहर से कुछ ही दूर भीम बेटिका में हम कई बार गये। एकाध बार मैं शायद अन्तर्भारती के लेखकों को भी वहाँ ले गया था, तुम्हें याद होगा और एक बार जब मैं निराला सृजनपीठ में कई बरस बिताने के बाद फिर किसी अवसर पर भोपाल में था तो तुम्हारे, अल्पना और तुम्हारे दो बेटों के साथ मैं भीम बेटिका गया था और हमने वहाँ पिकनिक का आनन्द लिया था। पता नहीं किस बात पर हमने हँसना शुरू कर दिया तो हँसते ही चले गये। तुम्हारे बेटों ने सोचा होगा हम थोड़ी देर के लिये पागल हो गये थे। वापसी पर हम भोज के शिव मन्दिर में भी रुके थे। वहाँ हम पहले भी कई बार जा चुके थे। वहाँ का पुजारी हमें उस मन्दिर में स्थापित शिव लिंग की अनेक रोचक कहानियाँ सुनाया करता था।
साँची भी हम चन्द एक बार गये। एक बार डॉ. बी. राजन और उसकी पत्नी को लेकर उन्हें वह स्थल दिखाने।
माण्डु मैं तो एक से अधिक बार गया, स्वामी और अशोक के साथ, लेकिन एक बार चम्पा और मैं स्वामी का ड्राइवर लेकर इन्दौर, उज्जैन होते हुए माण्डु गये थे। और फिर वहाँ से ओंकारेश्वर और महेश्वर। मुझ नास्तिक पर भी उन मन्दिरों का बहुत असर हुआ था। माण्डु पर मैंने एक अच्छी दर्दभरी कहानी भी लिखी थी, ‘कबरबिज्जु’ जो ‘साक्षात्कार’ में प्रकाशित हुई थी।
याद आया कि उज्जैन में हम शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ से भी मिले थे; उनके घर भी गये थे; कुछ और लोग भी थे। सुमन ने हमारे लिये जॉनी वॉकर की बोतल खोली थी। चम्पा ने उज्जैन में गढ़कालिका के मन्दिर में मन्नत माँगी थी कि अगर वह कविता लिखने में सफल हो गयी तो वह एक बार फिर वहाँ आयेगी। वह दोबारा वहाँ जा तो नहीं सकी लेकिन यहाँ से उसने प्रियव्रत के हाथ 1100 रुपये दो बरस पहले भेज दिये थे जो ध्रुव शुक्ल ने उस मन्दिर में पहुँचा दिये थे। हम दोनों एक बार सागर भी गये थे और तुम्हारे भाई अनिल के घर एक रात ठहरे थे। लेकिन याद नहीं आ रहा कि कब। मैं अकेला भी सागर गया था, किसी साहित्यिक आयोजन में और मैंने कलावाद के समर्थन में कुछ कहा भी था।
गर्ज़ कि, (इस उर्दू लफ़्ज का इस्तेमाल किसी ज़माने में बहुत किया करता था) भारत भवन के अलावा भी भोपाल और उसके आस-पास की जगहों की यादों के बाग़ मेरे भीतर खिलते रहते हैं और मैं उनमें घूमता रहता हूँ।
उदयन- आपने जिस तरह भोपाल के प्राकृतिक और सांस्कृतिक परिवेश के विषय में बताया, क्या उसी तरह पाट्सडैम और ब्रेण्डाइज़ के बारे में भी कुछ याद करना चाहेंगे?
वैद साहब- पाट्सडैम को मैं एक सुन्दर और साफ़ छोटा कस्बा कहूँगा जिसमें क्लार्कसन और पाट्सडैम कॉलेज की बदौलत कुछ विदेशी रंग-रौनक की लहरें भी लहलहाती रहती थीं क्योंकि दोनों में एशिया और यूरोप के प्रोफ़ेसर और उनके परिवार और विद्यार्थी आते जाते रहते थे। जैसाकि मैंने पहले भी ज़िक्र किया होगा, हमारे घर से कुछ ही फ़ासले पर दरिया, जिसका अजीब-सा नाम, रैकेट था, खामोशी से बहता रहता था। सर्दियों में दिसम्बर-जनवरी में वह जम जाता था और कुछ मनचले उस पर स्केटिंग किया करते थे। उस दरिया का ‘वैदिया’ नाम ‘प्रवास गंगा’ था; इस नाम से मैंने एक लम्बी कहानी भी लिखी थी, जिसके एक अपूर्ण अँग्रेज़ी अनुवाद को मैंने ‘द बेंच ऑफ़़ आइसोलेशन’ शीर्षक दे रखा है- हेनरी जेम्ज़ की एक उम्दा और पुख्ता कहानी का शीर्षक है, ‘द बेन्च ऑफ़़ डेसोलेशन’।
उस उदास दरिया के किनारे-किनारे टहल कर मैंने कई उदास शामें गुज़ारी हैं।
पाट्सडैम की एक सड़क एल्म स्ट्रीट कहलाती थी जिस पर खड़े एल्म पेड़ों की दोरोय्या क़तारों को एल्म पेड़ों की एक बीमारी धीरे-धीरे खत्म कर रही थी, जिस खात्में को लेकर कई पाट्सडैम-निवासी बहुत चिन्तित रहते थे। वे पेड़ और वह सड़क पाट्सडैम की प्राकृतिक सुन्दरता का एक मुख्य कारण थे। अन्य सड़कों पर भी अन्य पेड़ों की छत्रछाया बहार और गर्मियों के महीनों में बहुत घनी हो जाती थी और उनपर सैर करने में बहुत मज़ा आता था। सब वाकिफ़ों और दोस्तों के घरों में इन महीनों में पैदल पहुँचा जा सकता था। मार्च-अपै्रल के महीनों में सब लोग खूब बीयर पीते थे। मेरे कई दोस्त कस्बे और आबादी से दूर देहात में रहते थे। वहाँ हमारा एक कलाकार दोस्त, जिम सटर एक झील के किनारे पर रहता था। उसके पास एक नाव भी थी। हमारी एक हिन्दुस्तानी दोस्त, मीनाक्षी मुखर्जी जब हमारे पास आयी और चार-पाँच दिन रही तो हम दो-तीन बार उसे लेकर जिम और जॉर्जिया के घर गये और जिम ने अपनी नाव में उस झील की सैर करायी। वर्षों तक दिल्ली और फिर हैदराबाद में मीनाक्षी जब-जब हमें मिली उसने उस सैर को याद किया। रॉजर लिप्से भी पाट्सडैम से कुछ दूर एक प्यारी-सी छोटी-सी कुटिया में रहता था। उन दिनों वह अकेला था क्योंकि उसका अपनी फ्राँसीसी बीवी से तलाक हो चुका था। उनकी एक बेटी उसके पास आया करती थी। जब सोनल मानसिंह और नीरद बाबू (चौधुरी) मॉटिं्रयल से पाट्सडैम आये, मैं उन्हें रॉजर से मिलाने उसके घर ले गया। रॉजर की उन दोनों से ऐसी गाढ़ी दोस्ती हो गयी कि रॉजर अब तक नीरद बाबू की बातों को याद करता है और सोनल से दिल्ली में दो-तीन बार मिल चुका है। दो साल पहले भी वह कपिला वात्स्यायन के बुलावे पर कुमारस्वामी पर भाषण देने गया था तो सोनल के अलावा हमारे कहने पर वह अशोक और मनीष से भी मिला था।
ब्रेण्डाइज़ की यादों में हार्वर्ड और पाट्सडैम की-सी बात नहीं थी क्योंकि एक तो हम वहाँ एक ही साल रहे और दूसरे ब्रेण्डाइज़ के खूबसूरत परिसर से दूर एक बेनाम और बेरंग और असांस्कृतिक बस्ती, वाटरटॉउन में रहे जो न केम्ब्रिज थी न बॉस्टन न पाट्सडैम। ब्रेण्डाइज़ का अपना परिसर एक ऐसे बेरंगोकैफ कस्बे, वाल्थम, में था, जहाँ रहना और भी ग़लत होता। वाटरटॉउन में रहने के कारण ही शायद हमारी बेटियों को वैसे अशुभ अनुभव हुए कि वह पाट्सडैम वापस जाने और रहने की माँग करने लगीं।
ब्रेण्डाइज़ में एक साल बतौर विजिटिंग प्रोफ़ेसर पढ़ाने के कारण मेरा अकादमिक वक़ार और सितारा तो चमक गया लेकिन वहाँ की याद मुझे भी कम ही आती है।
उदयन- भोपाल से आप दिल्ली चले गये थे। उन दिनों ही आपने नाटक लिखे और उन्हें खेला भी गया। दिल्ली की रंग-दुनिया से अपनी वाक्फ़ियत के बारे में बताएँ। आपके रंग-निर्देशकों या अभिनेताओं या रंगकर्म के अन्य कलाकारों से कैसे सम्बन्ध रहे?
वैद साहब- भोपाल से दिल्ली वापसी भी हमारे जीवन में एक बहुत बड़ी घटना थी। चण्डीगढ़ के मकान में तब हम जा नहीं सकते थे हालाँकि पंजाब और चण्डीगढ़ के हालात में तब तक कुछ सुधार आ गया था- वह मकान और उसका सामान-फर्नीचर, पर्दे, फ्रिज़ वगैरह अब डॉक्टर मनमोहन सिंह का हो गया था। चम्पा ने फिर मुझे उलाहना देना शुरू कर दिया कि मैंने उससे पूछे बगैर उसकी सारी पुरानी यादों को भी बेच दिया। यह सच है कि मेरे लिए घरेलू चीजें़, सामान, फ़र्नीचर, मकान आदि वगैरह वह महत्व नहीं रखते जो परिवार के दूसरों के लिए। खैर, दिल्ली, वसन्त कुंज का फ़्लैट हमें मिल तो गया था लेकिन वह अभी इस हालत में नहीं था कि हम तत्काल उसमें चले जाते। खुशकिस्मती से चम्पा के भाई, सतीश बाली, के एक दोस्त का एक खूबसूरत बरसाती फ़्लैट हमें किराये पर मिल गया, सफदरगंज डेव्हलपमेंट एरिया में। उस मकान में लिफ़्ट भी थी, जिसमें एक बार हमारा एक मेहमान कुछ देर के लिये फँस भी गया था, और उसके बाद चम्पा हमेशा उस लिफ़्ट में अकेली ऊपर-नीचे जाने से कतराती भी थी- वैसे उसका गठिया तब तक बढ़ गया था और उसे सीढ़ियाँ चढ़ना-उतरना कठिन होता जा रहा था। जब तक वसन्त कुंज का फ़्लैट मेरी अंजान देख-रेख में तैयार होता रहा- उसकी तैयारी में एक-डेढ़ वर्ष के क़रीब लग गया था- हम उस बरसाती अपार्टमेंट में रहे और सुखी रहे। तुम तो शायद उस फ़्लैट में नहीं आये लेकिन ध्रुव शुक्ल, मदन सोनी, स्वामी, अशोक, रॉजर लिप्से और उसकी नयी पत्नी सुज़न, रामकुमार, चंचल सरकार और उसकी पत्नी और हमारी पुरानी दोस्त लोतिका मित्रा वगैरह आते रहे। कृष्ण सोबती, नामवर सिंह, विद्यानिवास मिश्रा, कमलेश, वागीश शुक्ल, केदारनाथ सिंह, गीता कपूर... सर्दियों में हम ऊपर खुली छत पर धूप सेंका करते और गर्मियों में रात को खुले आकाश तले सोया करते थे। किताबों के लिये हमने वहाँ बड़े-बड़े बुक-शेल्फ बनवा लिये थे, जिन्हें हम बाद में उखड़वा कर वसन्त कुंज ले गये थे। वहाँ का एक-डेढ़ साल मज़ेदार रहा था। उस बरसाती अपार्टमेंट में हमने कई बड़ी दावतें भी कीं। वहाँ से तक़रीबन हर रोज़ मैं अकेला वसन्त कुंज चला जाता था और तीन-चार घण्टे वहाँ रुककर मज़दूरों, मिस्त्रियों, तरखानों, ठेकेदारों से तकरार-तकाज़े किया करता था और यह मेरे लिये बिल्कुल नया अनुभव था क्योंकि चण्डीगढ़ का मकान चम्पा के पिताजी ने बनवाया था और भाई सतीश बाली ने डिजाईन किया था। हम तब पाट्सडैम में थे।
नाटक मैंने वसन्त कुंज के फ़्लैट में ही लिखने शुरू किये। वैसे एक नाटक मैंने बरसों पहले 1956-57 में भी लिखा था, जिसका शीर्षक था, कीजिए हाय-हाय क्यों’, गालिब के एक शेर से लिया हुआ : ‘गालिब-ए-ख़स्ता के बगैर कौन से काम बन्द है/रोइये ज़ार-ज़ार क्यों ‘कीजिए हाय-हाय क्यों’। उस नाटक के नायक का नाम भी बिमल ही था, जिसे बाद में ‘बिमल उर्फ़’ में भी इस्तेमाल किया गया जिससे काफ़ी उलझाव पैदा होते रहे, जिन्हें मैंने, नाटक दोबारा लिख कर और नायक का नाम बदल कर दूर कर दिया। उस नाटक का अँग्रेज़ी में अनुवाद मैंने पाट्सडैम चले जाने के बाद किया था, ‘मोन नो मोर’ के नाम से और वह दिल्ली से निकलने वाली एक छोटी पत्रिका ‘इनेक्ट’ में प्रकाशित भी हुआ था। उसमें उसके सम्पादक ने, मुझ से पूछे बगैर कुछ परिवर्तन भी कर दिये थे, जिन पर मैंने कड़ा एतराज़ उठाया था, जिस पर उस पत्रिका के सम्पादक ने, जिसका नाम मुझ अब याद नहीं रहा लेकिन जिसका किसी ज़माने में दिल्ली की नाटक-दुनिया में बड़ा नाम हुआ करता था, मुझे नाराज़गी का एक कड़ा ख़त लिखा था जिसने मुझे इतना खफ़ा कर दिया था कि मैं चुप हो गया था। मैं उससे फिर कभी नहीं मिला; शायद पहले भी कभी मैंने उसे देखा तक नहीं था, सिर्फ़ उसका नाम ही सुना था।
याद आता है कि ‘हाय हाय क्यों’ से भी पहले मैंने एक और नाटक भी लिखा था। ‘हाय हाय क्यों’ ‘कल्पना’ में प्रकाशित भी हुआ था। उसे भी कई निर्देशकों ने पढ़ा था लेकिन उसका मंचन करने का दुस्साहस बलराज पण्डित ने ही किया था। उसकी प्रताड़ना की खबरें मुझे पाट्सडैम में ही मिली थी, निर्मल के पत्रों से। उससे भी पहले मैंने कई रेडियो नाटक भी लिखे थे, जिन्हें मैंने ज़्यादा महत्व कभी नहीं दिया क्योंकि उनमें से अक्सर पॉट-बॉयलिंग (रोटी पकाने) के लिये ही लिखे गये थे लेकिन उनमें से एक दो बुरे भी नहीं थे। उसी ज़माने में मैंने एक और नाटक लिखा था जिसे अलकाज़ी समेत कई निर्देशक प्रस्तुत करने की योजनाएँ तो बनाते रहे लेकिन किया किसी ने नहीं। ‘भूख आग है’ का पाठ मैंने नटरंग प्रतिष्ठान के एक विशेष आयोजन में किया था। पाठ के बाद उस नाटक पर एक बहस भी हुई थी, जिसमें हबीब तनवीर, मोनिका तनवीर, कृष्णा सोबती, शारदा राव, चरणदास सिधु, नेमीचन्द जेन, अशोक वाजपेयी, अशोक लाल और मैंने भाग लिया था। उसका निर्देशन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की तरफ से राम गोपाल बजाज़ ने किया था और उसे दिल्ली के अलावा अन्य कई शहरों में प्रस्तुत किया गया था। मैंने अब तक आठ नाटक लिखे हैं; उनमें से सात प्रकाशित हो चुके हैं, आठवाँ, ‘पार्क के पीर’ नटरंग में तो प्रकाशित हो चुका है, किताब की सूरत में अभी नहीं आया।
‘भूख’ के अलावा मेरे कुछ अन्य नाटक भी इधर-उधर शौकिया निर्देशकों द्वारा प्रस्तुत तो किये जाते रहे हैं लेकिन मैंने उन्हें देखा नहीं। ‘भूख आग है’ को मैंने कई बार देखा है, दिल्ली में, लेकिन मैं पूरी तरह सन्तुष्ट उसकी प्रस्तुति से कभी नहीं हुआ। ‘हमारी बुढ़िया’ को, मेरी आशा और आकांक्षा थी, कारन्त जी प्रस्तुत करेंगे लेकिन दुर्भाग्यवश वे बीमार पड़ गये।
सच कहूँ तो दिल्ली की रंग दुनिया के सभी प्रमुख लोगों को मैं जानता तो था और कुछ एक को बहुत अच्छी तरह से भी लेकिन उसमें मेरी पैठ नहीं थी। दोष शायद मेरा ही रहा हो लेकिन उसमें मैं रसा-बसा कभी भी नहीं।
उदयन- दिल्ली में आपके आखिरी वर्षों में भी मैं आपसे कई बार मिलता रहा था। आप मुझे अपने वसन्त कुंज मकान में एकसाथ ‘घर में’ और ‘घर के बाहर’ मालूम देते थे। पर आप शायद इसी तरह हर जगह ही रहे हैं। दिल्ली को छोड़ने का मन बनाने के बाद के दिनों में आप क्या सोच रहे थे? आपको दिल्ली छोड़ने की ज़रूरत ही क्या थी?
वैद साहब- 2007 का वर्ष मेरे जीवन का एक व्यथा-वर्ष भी था और पर्व-वर्ष भी। उसी वर्ष वहाँ दिल्ली के गंगा राम अस्पताल में डॉ. चन्द्रशेखर अग्रवाल की तशखीस के बाद उन्हीं के नेक और सम्यक सुझाव पर मेरा सब से ज़्यादा गम्भीर दिमाग़ी ऑपरेशन हुआ और उसी वर्ष की 27 जुलाई को मेरा अस्सीवाँ जन्म-दिन मनाया गया, जिस अवसर पर मेरे लगभग सभी जीवित भारतीय दोस्त-साहित्यिक, असाहित्यिक, बौद्धिक, अबौद्धिक, अन्य-कला-मस्त- और मेरे परिवार के सभी सदस्य उपस्थित थे। मेरे अनन्य मित्र दयाकृष्ण ने मुझे बाद में बताया कि वह भी अदृश्य रूप में वहीं था और सब देख-सुन-भोग रहा था। मुझे विश्वास है कि स्वामीनाथन, भवानी, निर्मल और रामू गाँधी भी वहीं कहीं व्याप्त थे। मेरी अनेक पुस्तकें उस अवसर पर विमोचित हुई। एक डॉक्यू-फ़िल्म भी दिखायी गयी। खाना-पीना-हँसना भी बहुत हुआ और उसके चार दिन बाद चम्पा और मैं रचना के साथ रॉचेस्टर चले गये क्योंकि वहाँ मुझे केरोटिड आर्टेरीज़ का ऑपरेशन करवाना था- डॉ. अग्रवाल को मेरी उस समस्या का सुराग़ मेरे दिमाग़ के ऑपरेशन के बाद के किसी टेस्ट से मिला था और उनका कहना था कि अगर आप अमरीका जा ही रहे हैं तो बेहतर होगा कि आप यह दूसरा बड़ा ऑपरेशन वहीं करवा लें ताकि वहाँ से किसी को फिर यहाँ न आना पड़े- पिछली बार दिमाग़ के ऑपरेशन के वक़्त रचना सात दिन की छुट्टी लेकर रॉचेस्टर से दिल्ली आयी थी।
2007 के बाद ही असल में हम सबने सोचना शुरू कर दिया था कि अब दिल्ली में अकेले पड़े रहना हमारे लिए मुश्किल होता चला जायेगा क्योंकि हम अब लम्बे सफ़र की दिक्कतों को बर्दाश्त करने के क़ाबिल नहीं रहे थे, ख़ास तौर पर चम्पा जिसका रक्त-चाप और गठिया उसे बहुत तंग करने लगे थे। उधर उर्वशी को भी केंसर ने बहुत कमज़ोर कर दिया था हालाँकि वह सारे परिवार में अपनी हिम्मत और इच्छा शक्ति के लिये अव्वल नम्बर पर हुआ करती थी।
वैसे तुमने ठीक ही देखा और कहा है कि मैं जहाँ भी होता हूँ, पूरा-पूरा वहाँ नहीं होता- ‘एट होम और होम-सिक’ एक साथ महसूस करता हूँ : ‘रहना नहीं देश बेगाना है’ की मनो-अवस्था में होता हूँ।
बचपन से ही मेरी यही हालत चली आ रही है और अन्त तक यही रहेगी।
यहाँ भी मैं पूरी तरह यहाँ नहीं हूँ। लेकिन अन्त अब यहीं होगा...
उदयन- आपने अभी दयाकृष्ण का नाम लिया। आपकी उनसे दोस्ती कैसे हुई? आप उनसे किन-किन जगहों पर, कैसी-कैसी परिस्थिति में मिले? आपकी उनसे किसी तरह की बातें हुआ करती थीं? आप दोनों में एक साम्य मैं देख सकता हूँ : आप दोनों के लेखन का स्वभाव खिलंदड़े किस्म का है। आप दोनों ही अपने लेखन में लगातार जोखिम उठाते हैं। इसके साथ ही आप अपने एक ज़माने में प्रिय दार्शनिक सिओरन (रोमानियायी चिन्तक जो पेरिस में रहते थे) के लेखन के बारे में भी कुछ कहें।
वैद साहब- दयाकृष्ण से जान-पहचान तो 1950 में जब मैंने हंसराज कॉलेज में पढ़ाना शुरू किया था तब से ही हो गयी थी, दोस्ती होने में भी ज़्यादा देर नहीं लगी थी क्योंकि हमारे व्यक्तित्व में बुनियादी अनुकूलताएँ थीं जो बाद में हमारे लेखन के स्वभाव में भी तुम जैसे कुछ दृष्टा लोगों को नज़र आने लगीं। उनसे मुलाकातें दिल्ली में किसी भी जगह हो सकती थी- सड़कों पर, दिल्ली यूनिवर्सिटी के कॉफ़ी हाउस में, नयी दिल्ली के इण्डिया कॉफ़ी हाउस में, पुरानी दिल्ली के किसी गली-कूचे में, किसी कला प्रदर्शनी में, किसी गोष्ठी में, किसी संगीत सभा में कहीं भी- और होती रहती थीं, वे शुरू से ही आज़ाद-ख़याल और आवारा-मिज़ाज इन्सान और चिन्तक की तरह दिखायी देते और बात करते और घूमते रहते थे। वे मुझे दिल्ली में भी मिले, हार्वर्ड के दिनों में हार्वर्ड में भी, होनु लूलु (हवाई) के ईस्ट-वेस्ट सेंटर में भी, फिर जयपुर और भोपाल में भी। वह और फ्रान्सीन कई बार हमारे वसन्त कुँज के घर में आये। वे दोनों खाना बहुत शौक से खाते थे और पीते संयम से लेकिन बाकायदा मज़ा ले ले कर। दया से मैं इण्डिया इण्टरनेशनल सेंटर में भी बीसियों बार मिला।
जयपुर विश्वविद्यालय में मैंने दया और जसबीर जैन की दावत पर कुछ दिनों की एक ‘राइटिंग वर्कशॉप’ भी की थी। तब मैं वहाँ गेस्ट हाउस में ठहरा था। दया उस समय विश्वविद्यालय के प्रो-वाईस-चांसलर थे। तब दया और मैं मेरे गवर्नमेंट कॉलेज, लाहौर के एक सहपाठी, र.क.कौल, के घर एक शाम खाने के लिए भी गये थे। कौल तब वहाँ अँग्रेज़ी का प्रोफ़ेसर और दया का प्रशंसक था।
दया से बातें साहित्य, कला, हिन्दू धर्म और संस्कृति पर भी होती थीं, राजनीति और रामू गाँधी पर भी। जवानी में कुछ समय के लिए दया श्री अरविन्दाश्रम में भी रहा था। तब श्री अरविन्द और मदर भी शायद वहीं थे। उस कयाम के बारे में तो दोस्ती के आरम्भिक दौर में ही बहुत बातें हो चुकी थीं, अब आश्रम के परिवर्तन और पतन का विश्लेषण कभी-कभी हो जाता था। मैं भी एक बार एक और अरविन्द-भगत, शिशिर कुमार घोष, के संग आश्रम में कुछ दिन एक बहुत ही सुरुचिपूर्ण अतिथिगृह में रहा था। तब सिर्फ़ मदर ज़िन्दा थीं, शिशिर दा जानते थे कि मैं नास्तिक हूँ और भगतों के स्तर की आस्था मुझ में नहीं होगी इसलिए उन्हें मेरे प्रश्नों से कोई परेशानी नहीं हुई। मेरा वह कयाम वहाँ बहुत शान्तिसुखदायक रहा था। लेकिन उसकी बात दया से न जाने क्यों कभी नहीं हुई।
दया से उसके आख़िरी दिनों में कर्म और पुनर्जन्म के बारे में कई बार बात होती रही। दया और मैं एक बात पर सहमत थे कि कर्म सिद्धान्त में विश्वास रखने वालों के लिए कोई ‘एल्ट्रूइस्टिक’ कदम उठाने में रुकावट होना अनिवार्य है। इसलिए कर्म सिद्धान्त की न्यायपरकता के बावजूद उसकी उपादेयता पर हमारा संशय कभी दूर नहीं हुआ।
दया से हर गम्भीर बात या बहस कभी गुरुगम्भीर नहीं होती थी।
दया मेरे उन दिवंगत दोस्तों में से है जिनको मैं अक्सर याद करता हूँ।
ई.एम. सिओरन से लगभग पच्चीस बरस पहले तक मैं बेबहरा (अपरिचित) रहा। उसके नाम और काम के बारे में मैंने तभी जाना जब एक संयोग से बैकेट की एक जीवनी से मुझे पता चला कि जिन थोड़े से फ्राँसीसी लेखकों को वे कभी-कभी मिलते थे, उनमें फ्राँसिस पोंज के अलावा एक रोमेनियायी लेखक भी थे जो 1937 से पेरिस में रह रहे थे और फ्राँसीसी में लिखते थे। फिर मैंने उनकी किताबें पढ़नी शुरू कर दीं और उनके बारे में अपने भारतीय लेखक दोस्तों से बात भी शुरू कर दी और पाया कि शामलाल जी के अलावा और किसी ने उनका कुछ भी नहीं पढ़ा था। उनकी किताबों में यूँ तो उन सबको मैं बहुत पसन्द करता हूँ जिन्हें मैंने पढ़ा है लेकिन निम्नलिखित शीर्षक मुझे बेहद रुचते हैं :
द ट्रबल विथ बिईंग बोर्न, द टेम्पटेशन टू एक्ज़िस्ट, अ शॉर्ट हिस्टोरी ऑफ़़ डिके, हिस्टरी एण्ड युटोपिया, द फाल इनटू टाइम, ड्रॉन् एण्ड क्वाटर्ड, अनाथिमास एण्ड एडमिरेशन्स।
उन्होंने बैकेट और बोर्खेस पर भी लिखा है।
बैकेट की कब्र के पास ही उनकी कब्र है। वे 1995 में गये, बैकेट 1989 में। दोनों की कब्रों की ज़्यारत मैंने पेरिस में की थी और दोनों को मैंने कुछ भीगे हुए पत्थर और पत्ते और खामोशी पेश की थी- उस दिन बूँदाबाँदी हो रही थी।
सिओरन का गद्य सूत्रात्मक और इपिग्रामेटिक है और फ्राँसीसी गद्य की इस समृद्ध परम्परा को और समृद्ध करता है। दोनों लेखकों में हताशा की समानता तो है लेकिन सिओरन की हताशा के अँधेरे में सिर्फ़ अँधेरे का ही उजाला है, किसी काली मुस्कान या हँसी का नहीं। सिओरन की चमक-दमक सिर्फ़ दिमाग़ी है, बैकेट क्योंकि उपन्यासकार और नाटककार है, इसलिए उनमें कहीं-कहीं और कभी-कभी एक सन्त भी दिखायी और सुनायी पड़ जाता है; सिओरन भी सन्त तो है- वह रामाकृष्ण और बुद्ध से परिचित हैं- लेकिन उनके सन्तत्व में शक्ति अधिक है। दोनों का लेखन अत्यन्त उद्धरणीय है, सिओरन का कुछ ज़्यादा।
उदयन- आप कुछ वर्षों पहले ही दिल्ली छोड़कर अमरीका चले गये हैं। वहाँ पहुँच कर कॉलेज स्टेशन में अपना ठिकाना बनाने के पहले आप किन शहरों में रहे, अगर रहे? कॉलेज स्टेशन इस विचित्र नाम के शहर में ही रहना आपने क्यों तय किया?
वैद साहब- जब से मैंने पाट्सडैम में पढ़ाना शुरू किया- सितम्बर 1966 से- तब से हमने न भारत पूरी तरह छोड़ा है न अमरीका। पाट्सडैम में तीनों बेटियों सहित रहते और पढ़ाते हुए भी मैं या हम सब दूसरे-तीसरे वर्ष अपने वहाँ रहते हुए परिवार-माता-पिता, बहन-भाई, दूसरे सगे-सम्बन्धियों और मित्र-लेखक-परिवार से मिलने-जुलने और वहाँ बिताए जा चुके अपने आधे के क़रीब जीवनकाल की स्मृतियों और जड़ों को बहाल और हरा-भरा रखने के लिए भी और अपने अमरीकी प्रवास के लिए नयी सांस्कृतिक और सांस्कारिक ऊर्जा बटोरने के लिए भी कुछ महीनों के लिए भारत जाते रहे, पाट्सडैम की प्रोफ़ेसरी छोड़ देने के बाद भी क्योंकि हमारी तीन बेटियों ने अमरीका में बसना-रसना शुरू कर दिया था, हम दोनों उन्हें मिलने और उनमें से दो, रचना और ज्योत्स्ना, के चारों बच्चों की पैदाइश के पहले और बाद उनके पास उनकी सहायता के लिए वापस अमरीका में आते रहे और इस तरह मैंने अपना ग्रीन कार्ड भी बनाये रखा।
हमारे इस विभाजन और विभाजित जीवन का हमें फायदा भी हुआ, नुकसान भी। फ़ायदा यह हुआ कि दोनों देशों और परिवेशों से हमारा नाता बना रहा, नुकसान यह कि हम दोनों में किसी एक देश में पूरी तरह बस-रस नहीं पाये।
अपने इस अन्तिम दौर से पहले तक अपने इस विभाजित जीवन का इतना शदीद और मुश्किल अहसास और अनुभव नहीं हुआ था जितना अब हो रहा है। मैं इस बरस 27 जुलाई को 90 का हो जाऊँगा, चम्पा 13 सितम्बर को 87 की। चम्पा को पिछले तीन दशकों से भी पहले से रक्त-चाप और दोनों टाँगों में गठिया है, जिसका इलाज वक़्त पर हुआ नहीं और अब होना और कठिन हो गया है और जिसकी वजह से वह पिछले दस-पन्द्रह सालों से घर में भी मुश्किल से चल-फिर सकती हैं। सफ़र तो अब उनके लिए असम्भव-सा हो गया है। मैं खुद भी इक्कीसवीं सदी के आरम्भ से ही चन्द एक बड़े गम्भीर ऑपरेशन वहाँ और यहाँ करवा चुका हूँ- प्रोस्टेट, मस्तिष्क, हर्निया, कैरोटिड आर्टरी, कैटरेक्ट- और अब चम्पा की वजह से घर में ही बन्द रहने पर मजबूर हूँ। खुशकिस्मत हूँ कि अभी तक चल फिर और सोच-समझ सकता हूँ, तुम्हारे सुलझे हुए सवालों के जैसे-तैसे जवाब दे सकता हूँ और दे रहा हूँ, लेकिन मैं भी अब थक गया हूँ। हमने अपनी वयोवृद्धावस्था की पर्याप्त कल्पना और उसका समुचित प्रबन्ध नहीं किया, इस चूक का अब मैं पश्चाताप ही कर सकता हूँ। वहाँ अब हम इसलिए नहीं रह सकते कि वहाँ अगर हम में से कोई या हम दोनों एक साथ बीमार पड़ जाएँ तो हमारी तीनों बेटियों को अत्यन्त परेशानी और दिक्कतें होंगी और वहाँ हमारे सारे भाई-बन्धु-दोस्त-यार हमारी ही तरह बूढ़े और लाचार हो चुके हैं, और जो हम से छोटे हैं उन पर हम अपने बुढ़ापे और बीमारी का बोझ डालना नहीं चाहते, इसलिए न चाहते हुए भी हम अब से कुछ वर्ष पहले वहाँ का साज़ोसामान और मकान वहीं छोड़कर यहाँ आ पड़े, यहीं अन्त का इन्तज़ार और सामना करने, इस ख्याल से कि यहाँ हमारी तीनों बेटियाँ और चारों दोहते-दोहतियाँ तो हैं, वहाँ से दूरी के दर्द के धुएँ के हम आदी हो चुके हैं, जैसे-तैसे उसे बर्दाश्त कर लेंगे। आने के बाद हमने चम्पा के आर्किटेक्ट भाई सतीश की सहायता से वसन्त कुँज वाला ठिकाना भी बेच दिया और वहाँ के सामान को भी बाँट दिया। अब हम वहाँ के बहुत से बन्धनों और बोझ से मुक्त हो गये हैं।
यहाँ आने के बाद हम पहले तो रचना के पास न्यूयार्क स्टेट में स्थित रोचेस्टर शहर में रहे; वहाँ हम पाट्सडैम से भी आते-जाते रहते थे जब रचना अपनी शादी के बाद रमेश के साथ वहाँ चली गयी थीं; वहीं हमारी पहली दोहती कावेरी का जन्म हुआ था। वहाँ रचना के पास मकान बहुत बड़ा था। जब रचना वहाँ से न्यूयार्क शहर चली गयी, एक छोटे अपार्टमेंट में तो हम यहाँ कॉलेज स्टेशन के विचित्र नामधारी इस कस्बे में ज्योत्स्ना के पास उसके बड़े और खुले मकान में आ गये और तब से थोड़े-थोड़े दिनों के लिए न्यूयार्क शहर में रह रही उर्वशी और रचना के अपार्टमेंट में गुज़ार कर यहीं इस मकान में अपना आखि़री ठिकाना बनाये हुए हैं, ज्योत्स्ना की ‘छत्र-छाया में’। वह यहाँ टेक्सास ए एण्ड एम विश्वविद्यालय में, जैसा कि मैं तुम्हें बता चुका हूँ मनोभाषाविज्ञान की प्राध्यापक है।
छोटे कस्बे में और बड़े मकान में रहना हमें पसन्द है। इस अवस्था में हम न्यूयार्क जैसे बड़े और मुश्किल शहर में एक छोटे अपार्टमेंट में उर्वशी या रचना के पास नहीं रह सकते क्योंकि अब इस उम्र में हम बड़े शहर के सांस्कृतिक आकर्षणों का लाभ भी नहीं उठा सकते और बड़े मकान की सुविधाएँ भी हमारी और हमारी बेटियों की बिसात से बाहर हैं।
यह है हमारे मौजूदा प्रवास की कठिन कहानी!
विडम्बना तो यही है कि पिछले इन्हीं तीन दशकों में चम्पा ने हिन्दी में कविताएँ लिखना शुरू किया और दो-तीन कविता-पुस्तकें भी प्रकाशित कीं, चित्रकारी शुरू की और तीन चार एकल प्रदर्शनियाँ दिल्ली, भोपाल और इन्दौर में कीं और कुछ नाम भी कमाया। वे सारी शारीरिक अक्षमताओं के बीच और बावजूद अब भी कुछ न कुछ तो करती ही रहती हैं। और मैं भी अपने तमाम संशयों के बीच और बावजूद कुछ न कुछ तो लिखता-पढ़ता ही रहता हूँ। यही ग़नीमत है!
उदयन- ‘कॉलेज स्टेशन’ किस तरह का कस्बा है? क्या वहाँ कोई नदी या सरोवर है? आपकी वहाँ क्या दिनचर्या रहती है? आप इन दिनों किन लेखकों को पढ़ रहे हैं? क्या आप कुछ किताबें बार-बार पढ़ते हैं? आप पिछले जवाब में कह गये हैं कि आप भी कुछ लिखते रहते हैं, आप इन दिनों क्या लिख रहे हैं?
वैद साहब- कॉलेज स्टेशन पाट्सडैम से बड़ा है। टेक्सास ए एण्ड एम विश्वविद्यालय भी पाट्सडैम कॉलेज से बड़ी है। इसका शुमार अमरीका के सबसे बड़े विश्वविद्यालयों में किया जाता है। कस्बे में टेक्साज़ की हर वस्तु की तरह हर चीज़ बड़ी है- सड़कें, मैदान, मकान, दुकानें, इंसान, हैवान, बखान, तूफ़ान इत्यादि; सिर्फ़ हिन्दुस्तानी और एशियाई (विएतनामी, कोरियाई, चीनी) लोग छोटे हैं। कॉलेज स्टेशन और ब्रायन दो जुड़वाँ शहर हैं, कैम्ब्रिज और बॉस्टन की तरह लेकिन इन दोनों के बीच दरिया कोई नहीं बहता। इस मकान में से पहले जब ज्योत्स्ना यहाँ आयी थी तो ब्रायन में रहती थी, ब्रायन कॉलेज स्टेशन से ज़्यादा पुराना और गुंजानाबाद है; उसकी सार्वजनिक लाइब्रेरी कॉलेज स्टेशन की सार्वजनिक लाइब्रेरी से ज़्यादा अच्छी है, लेकिन एक के कार्ड से दूसरी लाइब्रेरी से भी किताबें निकलवाई जा सकती है।
कॉलेज स्टेशन और ब्रायन में हिन्दुस्तानी काफ़ी संख्या में हैं। यूनिवर्सिटी में हिन्दुस्तानी विद्यार्थियों और प्राध्यापकों की संख्या काफ़ी ज़्यादा है। कॉलेज स्टेशन में ताज नाम का एक बहुत ही अच्छा रेस्तराँ भी है। मालिक हैदराबाद से हैं। खाना दक्षिण भारतीय और उत्तर भारतीय होता है, माँसाहारी और शाकाहारी दोनों किस्म का। भारतीयों और एशियाई लोगों के अलावा स्थानीय और अमरीकी लोग भी वहाँ बहुत होते हैं। ख़ासतौर पर दोपहर के खाने पर जो बुफे किस्म का होता है और विद्यार्थी उसे पेट भर-भर के खाते हैं क्योंकि मिकदार पर कोई बंदिश नहीं होती।
विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी बहुत बड़ी और बढ़िया है। पहले जब चम्पा को घर में अकेला छोड़ा जा सकता था, मैं लाइब्रेरी में बहुत समय बिताया करता था, अब घरबन्द हो गया हूँ। लेकिन अब भी ज्योत्स्ना मुँहमांगी किताबें ला देती है, इसलिए किताबों की कोई किल्लत नहीं। हर साल ब्रायन सार्वजनिक लाइब्रेरी में अपै्रल में बुक-सेल हुआ करती है जिसमें ज्योत्स्ना और मैं बाकायदा जाते हैं और खूब अच्छी किताबें खरीद लाते हैं। हम इस साल की तारीखों का बेसब्री से इन्तज़ार कर रहे हैं। पिछले साल हमने वहाँ से ढेरों किताबें खरीदीं जो मेरे आस-पास इस स्टडी में सजी और बिखरी पड़ी हैं जिसमें मैं बैठा यह टाइप कर रहा हूँ। नमूने के तौर पर पेश हैं : The Autobiography of Surrealism, The Letters of Samuel Beckett, The Letters of T.S. Eliot, Francis Bacon : His Life and Violent Times [the British Painter], A Writer's Diary vol. 1, 2: Dostoyevsky, Milosz: Collected Poems, Stenndhal's The Charterhouse of Parma, Thomas Mann : Doctor Faustus, Neruda : An Intimate Biography, "Imagining Indianness : Cultural Identity and Literature" edited by Diana Dimitrova and Thomas de Bruijn अभी-अभी आयी है डाक से। इसमें मेरा भी एक लेख हैः The Indian Contexts and Subtexts of My Text. यह पेपर मैंने लायडन की एक गोष्ठी में पढ़ा था शायद 2000 में। इसे देख रहा हूँ और बैकेट के खतूत पढ़ रहा हूँ। मैं पढ़े हुए को बार-बार पढ़ता रहता हूँ क्योंकि बहुत जल्दी पढ़ी हुई किताबों को भूल जाता हूँ।
आजकल लिख तो तुम्हारे सवालों के जवाब ही रहा हूँ। डायरी-5 का सम्पादन ख़त्म करके दिल्ली को भेज दिया है क्योंकि वह रज़ा फाउण्डेशन की प्रायोजित पुस्तक माला में प्रकाशित हो रही है। आजकल अपनी प्रकाशित डायरी को भी फिर पढ़ रहा हूँ। कभी-कभी अपनी अन्य पुस्तकों को भी पढ़ लेता हूँ, कहीं से भी। उस आत्माराधक मूर्खता से अपने होने का अहसास होता है और साथ ही महसूस हो जाता हैः डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता।
दिन तो आजकल घर के घेरे में ही बीत जाता है इसलिए दिनचर्या वैसी ही है जैसी एक घरबन्द कैदी की हो सकती है- चम्पा की सेवा, अख़बार, किताबें, तुम्हारे जवाब, खाना-पीना, घर की सैर, घर का काम, टी.वी., ई-मेल, फ़ोन। कल मनीष का फ़ोन आया। वह वहाँ की शाम के अँधेरे में उदयपुर की झील किनारे बैठा बोल रहा था; उसके साथ मेरे दो पाठक बैठे हुए थे उदयपुर के, जो मुझे मिल चुके थे जब मैं कुछ वर्ष पहले उदयपुर गया था। उनसे भी बात हुई। वे तीनों मुझे याद कर रहे थे और अशोक के साथ यहाँ आने की बात कर रहे थे और मैं उन से कह रहा था कि यहाँ देखने के लिए कुछ भी नहीं और वे बोले, आप ही काफ़ी हैं हमारे लिए! मैं सुनकर खिसयानी हँसी हँसा।
उदयन- क्या आप अपने जीवन की कुछ बेहद दिलचस्प मुलाकातें याद कर सकते हैं? कुछ का आपने ज़िक्र किया है। क्या उनके अलावा भी आप कुछ को याद कर सकते हैं? मसलन कभी कोई आपको जहाज या हवाई जहाज में अचानक मिल गया (गयी) हो और आपकी उससे बात होने लगी हो। या कोई किसी रेस्तराँ में संयोग से मिल गया (गयी) हो और अचानक आपसे बतियाने लगा हो। या लगी हो। आपकी ज़िन्दगी इतने मुकामों से होकर गुज़री है कि ऐसा सम्भवतः कई बार हुआ हो।
वैद साहब- मेरी आज की रात उनींदी रही और बेचैन भी-शायद मुझे भीतर कहीं यह खटका हो गया था, किसी ग़ैबी इल्हाम के जरिए, कि आज मुझे इस बातचीत की समापन सूचना मिल जायेगी यानी कि पिछले एकाधिक महीने से मेरे दिन की वह धुरी जो इस बातचीत ने मुझे दी थी तुम अचानक खींच लोगे और मेरे दिन फिर धुरीहीन हो जायेंगे। ख़ैर, सब दिन होत न एक समान!
मुझे इस अन्तिम जवाब के लिए जो दो मुलाकाते सूझ रही हैं वे इतनी दिलचस्प तो नहीं जितनी हम दोनों चाहते हैं कि वे होतीं, लेकिन इस वक्त कोई और सुघटना याद नहीं आ रही।
एक बार हवाई जहाज़ में दिल्ली से भोपाल जाते हुए मेरे साथ वाली सीट पर मुझे उस्ताद अमज़द अली बैठे दिखायी दिये। मैं इस संयोग पर खुश भी हुआ और कुछ घबराया भी, क्योंकि मैं उन्हें जानता नहीं था। उन्हें देखा और सुना कई बार था, कालिदास और स्वामी से उनके कालिदास के साथ सूखे उस्तादाना सलूक की शिकायतें भी कई बार सुनी थीं लेकिन उनसे मेरा परिचय नहीं था। उन्हें अपना परिचय दिये बगैर मैंने उनसे बातें शुरू कर दीं; वे यह तो शायद जान गये कि मैं जानता हूँ कि वे कौन हैं लेकिन उन्होंने मुझसे यह नहीं पूछा कि मैं कौन हूँ और न ही मैंने बताया। पता चला कि वे भी भोपाल जा रहे थे। मैंने तब भी नहीं बताया कि मैं भी वहीं जा रहा हूँ और आजकल वहीं रहता हूँ और भारत भवन या अशोक से मेरा कोई सम्बन्ध है। उन्होंने ज़रूर बताया कि उनका पारिवारिक सम्बन्ध है और वे वहाँ अक्सर जाते रहते हैं। मैंने उस पारिवारिक सम्बन्ध के बारे में कुछ पूछना अनुचित समझा। इधर-उधर की कुछ और बातों के बाद हम खामोश हो गए और हमने ऊँघना शुरू कर दिया। भोपाल पहुँचकर हम हाथ मिलाकर एक-दूसरे से विदा हो गये। अगर वे उस्ताद अमजद अली न होते तो मैंने उस मुलाकात को यहाँ याद न किया होता क्योंकि उसमें और कुछ है ही नहीं।
दूसरी मुलाकात भी जहाज़ में ही हुई। चम्पा और मैं 2012 की गर्मीयों में ह्यूस्टन से दिल्ली जा रहे थे, इमिरेट से ह्यूस्टन से दुबई तक के सफ़र में कोई स्टॉप नहीं था। दुबई से लगभग एक-डेढ़ घण्टे पहले कहीं चम्पा की तबीयत ख़राब हो गयी और मुझे ऐसा लगा कि वह बेहोश होने को है। मैंने होस्टेस से कहा कि वह लाऊड स्पीकर पर पूछे कि मुसाफिरों में कोई डॉक्टर है तो आकर चम्पा को देखे। होस्टेस की घबराई हुई घोषणा के जवाब में एक महिला अपना हैंडबैग उठाये हमारी तरफ आती दिखायी दी। उसने चम्पा का रक्तचाप लिया, आला लगाकर उसे देखा-परखा, उससे पूछा कि वे क्या दवाईयाँ लेती हैं, उनमें से एक गोली उसने चम्पा को दी और दिलासा दिया कि खतरे की कोई बात नहीं और फिर हमें बताया कि वे ह्यूस्टन में प्रैक्टिस करती हैं और कराची जा रही हैं। कुछ देर हमारे पास बैठी रहीं। उनका मशवरा था कि हम दुबई में जहाज़ बदलने से पहले हवाई अड्डे के अस्पताल में ही आराम करें, वहाँ के डॉक्टर को भी दिखा लें और तब दिल्ली के लिए दूसरे जहाज़ में बैठें। चम्पा अब बहाल हो गयी थी। डॉक्टर महिला ने हमें अपना कार्ड दिया जो मुझ से दिल्ली में गुम हो गया और मैं उन्हें शुक्रिये का ख़त भी न लिख सका। लेकिन उन्होंने शायद चम्पा की जान बचा ली हो। उनका मुसलमानी नाम भी अब मुझे याद नहीं। वे बहुत मीठी उर्दू बोलती रहीं।
उस हादसे के बाद हमने फिर भारत जाने का ख़्याल छोड़ दिया। यह बताना मैं भूल गया कि हम दुबई के हवाई अड्डे पर अस्पताल गये, जहाँ सब नर्सें केरल की थीं और डॉक्टर पाकिस्तान का था। वहाँ चम्पा को बहुत आराम मिला और वह दिल्ली तक के सफ़र में ठीक रहीं।

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