08-Jun-2019 12:00 AM
5699
वीना
वह देश लौट गया। वहाँ जाकर, सुना है, किसी पुस्तकालय में काम कर रहा है।
अब उसे गये इतना समय बीत गया है कि उसके अभाव का दर्द मेरे भीतर ही कहीं उग आया है इस तरह कि अगर वह दूर हो जाये, मुझे लगेगा कि मेरा कोई अंग टूट कर गिर गया है।
बरसों हुए पेरिस सूना हो गया। ऋषि काण्व के आश्रम से शकुन्तला के राजा दुष्यन्त के घर जाने का कि़स्सा क्या उसने मुझे इन्हीं दिनों के लिए सुनाया था? या वह महज संयोग था ? ऐसे भविष्य का मानचित्र जो तब उसके लिए उतना ही अँध्ोरे में था जितना मेरे। शकुन्तला के जाते ही आश्रमवासियों को, उसकी सखियों और ऋषि को सारा आश्रम ही सूना लगने लगा। मानो वह भीतर से खाली हो गया हो। यही कुछ उस अमरीकी फि़ल्म में होता है जो मैं उसके साथ देखने गयी थी ओडियाँ सिनेमाघर में। देर रात का शो, जब या तो फि़ल्म के शौकीन या शराबी या थके माँदे लोग फि़ल्म देखने आते थे। ‘इस निर्देशक के विषय में सुना है कि वे कुछ हट कर हैं। हाॅलीवुड में रहते हुए भी उससे कुछ अलग बनाते हैं। देखते हैं।’ टिकट लेते समय लाईन में लगे-लगे वह बोला था। वह किसी नयी किताब या फि़ल्म या चित्र वीथिका में पूरी उत्सुकता के साथ प्रवेश करता था। मानो जीवन की पहली किताब या पहली फि़ल्म देखने जा रहा हो। फि़ल्म के अन्त में टैक्सी ड्रायवर अपनी प्रेमिका को अन्तिम बार टैक्सी से उतार कर आगे चलता है। उसके सामने लगे आईने में टैक्सी के चारों ओर फैला न्यूयार्क शहर अपनी रोशनियों में जगमगाता पर तब भी सूना दिखायी देता है। मानो टैक्सी ड्रायवर के लिए पूरा शहर वीरान हो गया हो। उसके जाते ही यह शहर भी भीड़ भरा पर खाली हो गया है। कभी-कभी यह भरा हुआ भी लगने लगता है पर मुझे पता रहता है कि इस भराव के थोड़े-से नीचे ही अथाह खोखल हाँफ़ रही है और मैं कभी भी उसमें गिर पडूँगी।
मैं भी अपनी पढ़ाई पूरी कर लौट सकती थी। पर कहाँ लौटती ? किसके पास ? मैं फिर यह सोचकर यहीं रह गयी कि यहाँ अपना अकेलापन कम-से-कम पहचाना हुआ लगेगा। मैं सोच नहीं पायी थी कि अकेलेपन से पहचान शायद हो ही नहीं सकती है। किन्हीं पलों में वह पहचाना-सा लग सकता है पर वह हमेशा वैसा होता नहीं। शायद अकेलेपन का लक्षण ही है कि वह हर बार अपना अजनबी पहलू ही हमारे सामने लाता है और अपना पहचाना पहलू हमेशा के लिए गुम कर देता है। मैंने इसी उम्मीद में यहाँ वर्षों काट दिये कि शायद मेरी अपने अकेलेपन से पहचान हो जाए। वह नहीं हुई। वह मुझे चुभता रहा कहीं गहरे और मैं उस चुभन को थामे घर से अस्पताल और अस्पताल से घर भागती रही। घर में खिड़की से, अस्पताल में मरीज़ की आँखों से अपने से बाहर झाँकती रही। यहाँ इतनी-सी राहत ज़रूर है कि जब मैं उन सड़कों से गुज़रती हूँ जहाँ हम साथ टहले थे या उन लम्बे-लम्बे पेड़ों की छाँव को छूती हूँ जिनके नीचे कुछ देर हम बारिश से बचने रुके थे, जब उसने अपने स्वेटर की बाँह से मेरे माथे से टपकता पानी इतने ध्यान से पौंछा था कि कहीं मेरी बिन्दी न पुछ जाए, क्षणभर को उसका अदृश्य सान्निद्ध हल्की-सी गन्ध्ा-सा भागता हुआ मेरे भीतर फैल जाता है।
सुना है उसने अपनी बेटी का नाम नुआ रखा है। नुआ! हाँ, नुआ! वह सत्रहवीं मंजि़ल पर बना मेरा अपार्टमेण्ट है। नुआ! जब वह यहाँ पहली बार आया था, उसने खिड़की से बाहर देखकर कहा था, ‘यहाँ आकर लगता है कि संसार में हमारे अलावा कोई बचा ही नहीं है। हम ही जीवन को संभाल कर आगे ले जाएँगे। वीना, यह तुम्हारा घर है या नुआ का जहाज। संसार-समुद्र में अकेला तैरता नुआ का जहाज।’ उसने मुझे भूलाया नहीं है। बिल्कुल भी नहीं। शायद उसने हमारे साथ रहे होने की याद अपनी बेटी के नाम में चुपचाप रख ली है। वह उसकी बेटी भी है, हमारे साथ की स्मृति भी।
मैंने उसे रोकने की कोशिश भी की थी। पर इस तरह कि उसे पता न चल सके कि मैं उसे जानबूझकर रोकने की कोशिश कर रही हूँ।
‘...तुम यहाँ रहकर अपने विषय में बहुत काम कर सकते हो। तुम चाहते भी ऐसा हो...’
‘...भारत में ऐसे विश्वविद्यालय अब बाकी कहाँ हैं जिनमें तुम अपनी तरह का काम कर सको....’
‘...मुझे लगता है कि तुम्हारा भविष्य यूरोप में ही है। लौटकर तुम्हारा विकास रुक सकता है....’
वह नहीं माना। बिल्कुल भी नहीं माना। चला गया। मैं अपनी पढ़ाई में फँसी यहीं रह गयी। सोचा ज़रूर था कि लौट जाऊँगी। पर हो नहीं पाया। यहीं उलझ कर रह गयी। वह भी कभी नहीं लौटा। वहीं का होकर रह गया।
यही पुल है। हाँ, इसी पुल के नीचे वह बैंच पर किताबें खोले बैठा रहता था। घण्टों। अपनी नज़रों को किताब में गड़ाये हुए। सामने बहते पानी की तरंगें मानो उसके लिए थीं ही नहीं। या शायद वह उन्हें किन्हीं भीतरी आँखों से देखता रहता हो (कमाल है। तुम्हारी बाहरी आँखें कमज़ोर पड़ रही हैं और तुम भीतरी आँखों की बात कर रही हो!) तरंगों में बहते सेन के पानी पर दिन की कुनकुनी ध्ाूप में आकाश टुकड़ों में तैरता रहता। लकड़ी के पुल को पैदल ही पार करते थे। उसकी रेलिंग पर लड़के-लड़कियाँ एक-दूसरे के हाथ पर हाथ ध्ारे नीचे के बहाव को देखते रहते। मैं भी नीचे झाँकती रहती। वह पुल के नीचे बैठा दीखता अवश्य था पर मैंने उस पर ध्यान नहीं दिया था। वह मेरे इन्तज़ार का स्थान था।
जैक पास की ट्रेवल कम्पनी में कुछ घण्टे काम करता था। शाम ढले ही लौटता था। उसके आने के घण्टे दो घण्टे पहले ही मैं काॅलेज से आकर पुल पर खड़ी होकर बचा हुआ समय गुज़ारती। डूबते सूर्य की लम्बी होतीं किरणें शहर के हर गली-कूचे में बिखरती जातीं। कुछ बहते पानी की लहरों के पीछे छिप जातीं। बीच-बीच में इन किरणों को फैलाती क्रूस सेन की सतह पर फिसलती हुई पुल के नीचे से गुज़रतीं।
वह दूर से आता दिख जाता। मैं मानो लम्बी होती सन्ध्या की किरणों पर फिसलती-सी उससे लिपट जाती। आपस में लिपटे हुए ही हम पुल पार करते और किसी रेस्तराँ में ठहरकर एक-दूसरे को दिनभर का हाल बताने में डूब जाते।
‘वे मुझे सेनेगल भेज रहे हैं’,
उस दिन जैक ने कम्पनी से लौटने पर बताया,
‘तुम भी मेरे साथ चलो।’
मैं चुप रही आयी। नहीं जा सकती थी। मेरी डाॅक्टरी की पढ़ाई ख़त्म होने में दो बरस बाकी थे। जैक को यह खूब मालूम था। उसे यह भी मालूम था कि मुझे अपनी पढ़ाई में कितनी गहरी दिलचस्पी है। मुझे वह पूरी करनी ही है। मैं हर दिन कुछ नया जानने की राह देखती हूँ। अगर जाना चाहती तो भी नहीं जा सकती थी।
‘मैं नहीं आ सकती।’
मैं जैक की आँखों में मानो अपनी नज़रें ठूँसकर बोली थी।
जैक मेरी बगल में देखते हुए बोला था मानो मेरे देखने को फाँस की तरह निकालकर फेंकते हुए,
‘मेरी वापसी का पक्का नहीं हैं।’
रेलिंग छोड़कर मैं सीध्ाी खड़ी हो गयी। उसे गले लगाकर उसका माथा चूमते हुए बोली,
‘वापसी का पूछो तो। तब तक मैं इन्तज़ार करती रहूँगी।’
सारे शरीर से खून भागकर उसके चेहरे पर इकट्ठा होने लगा। वह मेरे हाथों के बीच से बाहर आया और पुल के दूसरी ओर जाने लगा। मैं उसके पीछे भागी पर पाँव फिसलने से गिर पड़ी। मुँह से चीख और ऊपर के होंठ से खून साथ ही बाहर आये। वह सीध्ाा चलता चला गया। उठते हुए मैं उसे देखती रही। ‘नाराज़ है। शान्त हो जाएगा। कुछ देर में उसे फ़ोन कर लूँगी।’ यह सोचकर उसके पीछे नहीं गयी। देर रात हाॅस्टल से उसे फ़ोन किया। घण्टी बजती रही। शायद वह नहा रहा होगा, मैंने सोचा था। रुक-रुककर फिर फ़ोन किया। उसने नहीं उठाया। आध्ाी रात तक गाढ़ी सर्दी में हाॅस्टल के गलियारे में खड़ी डायल करती रही। उसने नहीं उठाया। अलस्सुबह उसके कमरे को भागी। मेट्रो से उतर कर उसके पास तक का रास्ता तुरन्त काटने की खातिर दौड़ने लगी। रात की ओस में भीगे फुटपाथ पर सुबह का ध्ाुँध्ालका छाया था। जगह-जगह लगे पेड़ों की शुरुआत को घेरती गोल लोहे की जालियों पर पड़ते मेरे पैर बार-बार फिसल जाते। इमारत का दरवाज़ा खोलकर लकड़ी की सीढि़यों पर मैं भागने लगी। थप-थप-थप-थप। भीतर की सारी चुप्पी बफऱ् की बारीक पर्त की तरह टूटकर बिखर गयी। उसका कमरा बन्द था। जब दो-तीन बार घण्टी बजा चुकी, दरवाज़े पर हाथ पटकने लगी मानो वही उसे मुझे मिलने से रोके खड़ा है। तेज़ आवाज़ सुनकर बूढ़ी मालकिन पास के अपार्टमेण्ट से बाहर निकल आयी।
‘वह रात में कमरा छोड़ गया। मैं काॅफ़ी पी रही हूँ, तुम आओगी।’
इसके बाद भी शाम को पुल की रेलिंग पकड़ने की आदत को थामे रही। अब जैक के दफ़्तर की ओर देखने की जगह इध्ार-उध्ार, देखती रहती। विछोह का आवेग सिमटकर ध्ाड़कनों के बीच ही कहीं गढ्ढे की तरह था जिसे मैं बिना देखे ही लाँघ जाती। मेरा ध्यान रह-रहकर पुल के नीचे जाने लगा। वहाँ वह बैठा रहता था। उसे पुल के नीचे बैंच पर पढ़ते कई दिनों देखती रही। उसके बैठने, किताब को पढ़ने और इनसे भी अध्ािक उसके अटूट ध्यान में अजीब-सा खिंचाव था। मेरी नज़रें उस ओर घूम ही जाती थीं। लम्बा चक्कर काटकर फिर एक शाम पुल के नीचे उतरी और उसकी बैंच के दूसरे सिरे पर बैठ गयी। उसने किताब से आँखें नहीं उठायीं। उससे बात करने की इच्छा लिए मैं वहीं बनी रही। नदी के किनारे हल्का-हल्का अँध्ोरा फैलना शुरू हो गया। वह जल्द ही घना हो गया। बैंच पर अँध्ोरा छाने लगा था और ऊपर पुल पर रोशनियाँ झिलमिला रही थी। वे पानी पर चमकीली चादर-सी फैल गयी थीं। वह ध्ाीरे-ध्ाीरे किताब से बाहर आया और किनारों में सिमट कर बहते पानी को देखने लगा, मानो वह सार्वजनिक बैंच पर नहीं, अपने कमरे की खिड़की से बाहर झाँक रहा हो। कुछ मिनट बाद उसने अपना चेहरा मेरी ओर घुमाया कुछ कुछ इस संकोच से कि वह मेरी निजता में खलल डाल रहा हो। दोबारा सामने देखते हुए उसने पास रखी किताबों को टटोलकर हाथ में दबाया और उठने लगा।
‘आप रोज़ यहाँ आकर पढ़ते हैं।’
वह आश्चर्य से मुझे देखने लगा। पहली बार मुझे लगा, मेरी उपस्थिति उसके भीतर ठहरी है।
‘लाइब्रेरी से पुस्तक सिफऱ् दो हफ़्तों के लिए मिलती है।’
वह मानो आध्ाा नींद में और आध्ाा जागा हुआ बोला। किताबों को हाथ में उठाये, वह तेज़ी से खड़ा हो गया। हड़बड़ी में एक किताब फिसलकर नीचे गिर गयी। वह झुक पाता, इससे पहले मैंने वह किताब उठा ली और उसके साथ चलते हुए उसे पलटने लगी। वह किन्हीं रिल्के और मरीना के आपस में लिखे ख़त थे। उन्हें मुश्किल से पढ़ने की कोशिश की। सिर्फ़ शब्द पढ़ सकी, उनके पीछे की कहानी मुझसे दूर ही बनी रही। कनखियों से उसकी ओर देखा कि शायद वह मुझे पन्ना पलटते देख रहा होगा। वह सीध्ाा चल रहा था।
वह सोबाॅन से दर्शनशास्त्र में शोध्ा कर रहा था।
‘आप दर्शन पढ़ाएँगे ?’
मैंने एक बार उससे कहा था। वह बैंच पर ही बैठा था।
‘कुछ और करना चाहता हूँ।’
वह बहुत ध्ाीरे-से बोला था। उसकी आवाज़ में गहरी विनम्रता पर उससे अध्ािक गहरी दृढ़ता थी। उसे देखती रही थी। ऐसी विनम्र दृढ़ता का मेरा यह पहला अनुभव था।
‘संसार और खुद को जानने की राहें खोलने और खोजने हम दर्शन और साहित्य के पास जाते हैं। दर्शन इस मार्ग को आलोकित करता है पर साहित्य का प्रभाव अनूठा है। वह खुद को जानने के सुख का संक्षिप्त-सा अनुभव कराके उसकी चाहना को जीवन्त बनाये रखता है। शायद यही कुछ संगीत, नाटक, सिनेमा भी...।’
उसके मुँह से निकले शब्द चमकीले जान पड़ते थे। समझती कुछ नहीं थी या लगभग कुछ नहीं पर उन शब्दों का प्रकाश मेरे अन्तस को क्षण दो क्षण के लिए झिलमिला देता था। वह आँखों में आँखें डालकर बोलना शुरू करता, फिर ध्ाीरे-से अपने देखने को मेरी आँखों के किनारे पर ले जाकर उसे दूर ले जाता मानो मेरे देखने को हौले-से खींचकर विस्तृत कर दे रहा हो।
उसने मुझसे कभी नहीं पूछा कि मैं उसे बैंच पर बैठा कब से देख रही थी और क्यों देख रही थी। उसने नहीं पूछा कि मैं बात करते हुए अचानक उदास क्यों हो जाती थी ? उसके जानने का दायरा कुछ और ही था। मसलन उसे यह जानने में गहरी रुचि थी कि क्या मैं फ्राँसीसी भाषा अच्छी तरह समझ लेती हूँ और क्या मैंने फ्राँसीसी कवियों को उनकी ही भाषा में पढ़ा है। मुझे उनमें से कौन पसन्द है। मानो वह एक दूरी से ही, किताबों, कविताओं की दूरी से मुझे टटोल रहा हो। या शायद उसे मेरे उतने ही अन्तस से सरोकार हो जो हमारे बीच तिरता रहता था, बाकी की ओर वह झाँकता तक न हो। इस के बाद भी हमेशा यूँही लगा कि वही है जो मुझे गहरायी से जानता है और मेरे हर दुःख में बिना कुछ कहे हिस्सेदारी करता है मानो वह मेरे जीवन के लगभग हर कम्पन को किताबों के परदों के पीछे से महसूस कर लेता हो। हमारे बीच की दूरी सूनसान नहीं थी, उसमें ध्ाीरे-ध्ाीरे हमारी आत्मीयता ध्ाड़कना शुरू हो गयी थी। लेकिन इस आत्मीयता के लिए वह दूरी आवश्यक थी, उसी में वह ध्ाड़कन थी जो हमारे रिश्तों को जीवन्त बनाये रखी थी। उसे पाटना मुश्किल था, न मैं ही वैसा चाहती थीः उसके और मेरे बीच के अन्तराल में ही मैं अपने को विस्तरित होते पा रही थी और उसी अन्तराल में मेरी स्मृतियाँ नया आकार ले रही थीं। हम साथ कला-दीर्घाओं में जाते और घण्टों चित्र देखते रहते। प्राचीन मिस्र के रिलीफ़ से लेकर सेज़ाँ के साँ विक्ट्योर के पहाड़ों तक, रूदाँ के शिल्पों से लेकर पिकासो के चित्रों और कागज़ के शिल्पों तक हम साथ जाते और संग्रहालयों-दीर्घाओं के बाहर के रेस्तराँ में घण्टों अपने अनुभवों पर कभी चुप रहते, कभी बातें करते। अगर कभी पार्क के एकान्त में मैं उसे छूने की कोशिश करती, वह मना नहीं करता पर मुझे महसूस होता मैं जिन होठों को छू रही हूँ, वह उनसे कुछ पीछे खड़ा हमें देख मुस्करा रहा है।
उसे रोक नहीं सकी। रोकती भी कैसे। हमारे बीच का अपनापन हमारे बीच की दूरी में ही ध्ाड़कता था। उसे मिटाने का साहस मुझमें नहीं था। वह चला गया और हमारे बीच की दूरी इतनी अध्ािक बढ़ गयी कि हमारा साथ मानो हम दोनों का अपना संवेदन बनकर रह गया। भारत में उसके साथ मैं हो गयी, पेरिस में वह मेरे साथ हो गया और इन दोनों ही जगहों पर हम अकेले हो गये।
लखना
वो तो मेमसाहब की भलमनसाहत है वरना पुलिस ने तो लखनलाल को फँसाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। मेम साहब ही बीच में पड़कर लखनलाल को छुड़वा लायी थीं। वरना वे इतना पीटते कि हड्डी-पसली टूट जाती। ग़रीबों को चोर-हत्यारा बनाने में क्या देर लगती है। वे मार-मारकर कहलवा लेते हैं । हमें कहना पड़ता है, हाँ, माई-बाप हम ही चोर हैं... हाँ, माई-बाप हम ही हत्यारे हैं। हमें तो वही बोलना पड़ता है जो वे सुनना चाहते हैं। उन्होंने आव देखा न ताव, मुझे पकड़ कर थाने ले गये। हम कहते रहे, साब, हमने कुछ नहीं किया, हम तो बाहर सो रहे थे। हम कैसे जानें क्या हुआ? कैसे हुआ। पर नहीं, उन्होंने हमारी एक न सुनी। सुनते भी कैसे। हम वो बोल रहे थे जो वो सुनना नहीं चाहते थे। हमें तो वो बोलना था जो वो सुनना चाहते थे। तब वे सुनते। हम बार-बार बोले, साब, हमने कुुछ नहीं किया। पर नहीं, इन्स्पेक्टर मारता चला गया। मारता चला गया। कितनी तो गालियाँ दी होंगी। एक से बढ़कर एक। हमारे तो पूरे खानदान को गालियों में समेट लिया। इस देश में मुफ़लिस होने का ये नुकसान तो है ही सहीः कोई तुम पर भरोसा नहीं करता। हम खुद ही अपने ऊपर शक करते रहते हैं, फिर कोई और भरोसा करे भी कैसे ? हम बोलते रहे, वह मारता रहा। जब वह थक गया, उसने अपना डण्डा दूसरे को दे दिया। वे समझ रहे थे कि हमें मार-मारकर अपना मन चाहा उगलवा लेंगे।
‘साला इतना पिटकर वो बोल देगा जो हम चाहते हैं!’
हम पिटते रहे। हमारे मुँह से वह सब कैसे निकलता जो हम जानते ही नहीं थे। सो हमारे मुँह से कुछ नहीं निकला पर शरीर के ऊपर ये नीली ध्ाारियाँ चुपचाप निकल आयीं। लखनलााल के शरीर में ऐसी नीली ध्ाारियाँ जाने कहाँ छिपी बैठी थीं कि पुलिस की मार पड़ते ही बाहर निकल कर लहराने लगीं। आज तक पीठ की वे नीली ध्ाारियाँ लहरा रही हैं। मानो पीठ पर भुजंग रेंग रहे हों। लगता है मार का दर्द उन्हीं के सहारे दायें से बायें और बायें से दायें हुआ करता है। क्या हम लुम्बिनी से इसलिए यहाँ आये थे? घर में खेती-बाड़ी है। पाँच बरस की लड़की है। साहब हमेशा उसकी फि़क्र करते थे। हमसे बार-बार कहते, उसे पढ़ाओ ज़रूर! हमारे यहाँ कहाँ रख्खे हैं अच्छे स्कूल कि हम अपनी बिटिया को पढ़ाएँ। हम तो नुआ बीबी को देखकर खुश हो लेते हंैं। बुढ्ढे माँ-बाप हमारी बीवी-बच्चों को पाल दे रहे हैं, यही क्या कम है। अब उनसे किस मुँह से कहें कि हमारी बच्ची को भी पढ़ाओ। वे लोग उसे खिला रहे हैं, लाड़ से रख रहे हैं, इसी का बोझ इस छाती पर क्या कम है। लेकिन साहब को कौन समझाये। देवता आदमी हैं, सबको अपने जैसा मानकर चलते हैं।
लखना ने कितनी बार कहा है कि साहब, ये वन्दना मेमसाहब के चाचा लोग भले आदमी नहीं हैं, आपको गाली देते फिरते हैं, लेकिन वे हमारी बात सुनते ही हँस देते, ‘लखना मैं हूँ ही गाली देने लायक, बेचारे गाली न दें तो क्या आरती उतारें?’ ऐसे आदमी को कोई कैसे मार सका? कोई कहता था, यह सब वन्दना मेमसाहब के चाचा का करा-ध्ाराया है। हो भी सकता है। पर पुलिस को सबूत चाहिए और सबूत लेनेे का एक ही तरीका उन्हें आता हैः मारो। ये पुलिस हम जैसे ज़ाहिलों तक को ज़ाहिल लगती है। जाओ जाकर पकड़ते क्यों नहीं किशोरलाल कोठारी केसरवाले को। वे गाली देते फिरते थे साहब को और उन्हें किसी ने कुछ नहीं कहा, हमें पकड़ लिया जिसने उनके खिलाफ एक लफ़्ज तक नहीं कहा। हमें पकड़ लिया। हमें, साहब जिसका अकेला सहारा थे।
मेम साहब और नुआ बीबी को छोड़कर कहीं जाया भी नहीं जाता वरना लखनलाल कब का भाग जाता। साहब मरे हैं, खतम थोड़ी हुए हैं। कहीं से तो देख रहे होंगे सारे लोगों की हरकतें। हमें भी एक दिन वहीं जाना है, तब साहब हमसे पूछेंगे कि क्यों लखना, तुम नुआ बीबी और मेमसाहब को छोड़कर कहाँ भाग गये थे, तब साहब के सामने हमारा सिर नीचा न हो जाएगा? पूछेंगे तो साहब वन्दना मेम साहब के बारे में भी। लखना यही बतायेगा कि साहब आपके फ़ौत होते ही वे तो बुझ ही गयीं, वे अपने भीतर कब की मर चुकी हैं, अब जो शरीर दिख रहा है, वो उनकी परछाई भर है। फ़ोन करती हैं और उनकी आवाज़ ऐसी लड़खड़ाती है कि डर लगता है उस तरफ फ़ोन लिए-लिए वे कहीं लुढ़क न जाएँ। नुआ बीबी के बारे में पूछती हैं और भगवान झूठ न बुलवाये, मृदुला मेमसाहब के बारे में भी फिकर करती रहती हैं। हम एक मर्तबा फ़ोन पर ही रो दिये। उस तरफ से वन्दना मेम साहब बोली,
‘लखना तुम तो अपने को संभालो, नुआ बीबी तुम्हें इस हाल में देखेगी तो क्या सोचेगी?’
मेमसाहब, वे हमसे रात-दिन बाबा के बारे में ऐसे-ऐसे सवाल घुमाकर पूछा करती हैं कि हमें लगता है कि अपना सिर फोड़ लें। हम गँवार आदमी, हम क्या जवाब देंगे नुआ बीबी के सवालों का। उनका कोई छोटा-मोटा दिमाग थोडे़ नहीं है, वे साहब की लाड़ली हैं, साहब के जैसा दिमाग है उनका भी।
हम आज भी चाकर है साहब के। पुलिस चाहे जो कहती रहे। हम हमेशा ही बाहर के बरामदे में सोते थे, साहब ने कभी कहा नहीं, चाहते तो बैठक में सो सकते थे, सर्दियों में सोते ही हैं लेकिन हमें बरामदा ही अच्छा लगता है। जैसे उड़न खटोले में लेटे हों। वहीं बरामदे में डाँट खाने को तैयार बैठे थे। नुआ बीबी को लाने में देरी हो गयी थी। साहब की यही क़मजोरी थी, वे नुआ बीबी के लिए डरते थे। जाने क्या खौफ़ था। किसी से बोलते हों तो पता नहीं। हमसे कभी कहा नहीं। हमसे कहते भी क्यों। हम कौन बड़े सयाने हैं। लखनलाल किसी के खौफ़ को क्या कम करेगा। वो तो खुद ही डरा हुआ इंसान है। साहब का अजीब हिसाब था। हमें मन भर कर डाँट लेंगे और जैसे ही देखेंगे कि डाँट कुछ ज़्यादा ही हो गयी है, तुरन्त हँसते हुए बोलेंगे,
‘लखना ये तो बताओं तुम खुद को ‘मैं’ की जगह लखनलाल क्यों कहते हो?’
हम अक्सर सोचते थे ये इंसान किस तरह का बना हुआ है, इसके गुस्से में भी हँसी की गुठली छिपी रहती है। हमने पच्चीसों बार इसकी जेब से दस-पाँच रुपये निकाले होंगे, हो सकता है उन्हें मालूम न चला हो पर चला भी हो तो हमसे कभी पूछताछ नहीं की। कई बार हमें खुद पर लाज आती थी कि ऐसे आदमी को क्या ठगना जिसे अपने ठगे जाने का होश तक नहीं है लेकिन कमी तो पड़ती ही रहती है और हम भी यह मानकर पैसे निकल लेते थे कि साहब से बिना कहे उध्ाार ले रहे हैं, मौका पड़ा तो लौटा देंगे।
साहब को चाय लाने में देर हो जाये, कोई डाँट नहीं। कपड़े प्रेस नहीं हों, कोई डाँट नहीं। वे बिना कुछ कहे खुद कर लेंगे। रात में साहब देर से लौंटे और दरवाज़ा देर से खोलो, कोई डाँट नहीं। कभी थोड़ी बहुत लगाकर पड़ जाओ और बरामदे में बदबू भर जाये, कोई डाँट नहीं। लाइब्रेरी में खाना पहुँचाने में देर हो जाये तब भी वे ऊपर देखे बगैर ‘ठीक है’ कहकर डिब्बा अपनी मेज़ पर रख लेते और कुछ बोलते नहीं थे। लेकिन नुआ बीबी को लाने में देर हुई नहीं कि पड़ी। पड़ी जमकर। सो उस रात डाँट पड़नी ही थी। पड़ी। जमकर पड़ी।
‘लखना तुम इतने बेवकूफ़ क्यों हो, तुमसे हज़ार बार कहा है नुआ को लाने में हरगिज़ देरी न हो, तुम मर रहे हो तब भी। तुम्हें कहाँ देर हुई ? हैं ? कहीं खड़े होकर तम्बाकू खा रहे होगे। तुम्हारा कोई इलाज नहीं, तुम बने ही ऐसे हो कि तुमसे लापरवाही छूट नहीं सकती, एक तो उसे देर से लेने गये और आकर खट से सो गये। तुम्हें इतनी तम़ीज नहीं कि वह अकेली बच्ची डर जायेगी। वो डरे, न डरे, हमारा सोना ज़रूरी है। मुझे फ़ोन क्यों नहीं कर दिया। अब चुप क्यों खड़े हो ? कुछ तो फरमाओ।’
जब साहब डाँटना शुरू करते हैं, डाँटते ही चले जाते हैं बीच में किसी की सुनते तक नहीं। जब वे थककर शान्त हुए लखनलाल को मौका मिला।
‘दरअसल साहब हम मेमसाहब को छोड़ने अस्पताल गये थे, उनका शरीर कुछ ज़्यादा ही तप रहा था। वे घबरा रही थीं कि अस्पताल से पहले ही आॅटो से गिर न जाएँ। हमने विचारा, नुआ बीबी को लाने में अभी देर है, हम मेमसाहब को अस्पताल पहुँचाकर मैदान पहुँच जाएँगे। इसमें लखनलाल को थोड़ी देर हो गयी।’
‘अच्छा’, बोलकर साहब अपने कमरे में जाने लगे। फिर कुछ लगा होगा कि ज़्यादा ही डाँट गये हैं। तुरन्त पलटे, चेहरा बनाये-बनाये ही बोले,
‘लेकिन तुम खुद को ‘मैं’ की जगह ‘लखनलाल’ क्यों कहते हो ?’
यह आखिरी बार था जब लखनलाल ने साहब को जि़न्दा देखा था। वे नुआ बीबी को गोद में उठाये अपने कमरे में चले गये। हम बाहर बरामदे में आकर पड़ गये। ऊँनींदे थे ही, डाँट भी इतनी नहीं पड़ी थी कि नींद पूरी तरह उचट जाती। सोते चले गये। रात में साहब के साथ कब क्या हुआ, हमें पता नहीं चला। हमारी किस्मत देखो, हमसे चार कदम दूर हमारा सहारा छिन रहा था और हम शान से फ़र्श पर सो रहे थे। पुलिस ने लखनलाल को ठीक मारा। वो उसी लायक है। भीतर साहब न जाने कितनी पीड़ा सह रहे थे और लखनलाल के कान पर जूँ तक न रेंगी। और अब नुआ बीबी के सवालों से घायल हुए जा रहे हैं। हे ईश्वर! क्या बतायें इस ज़रा सी बच्ची को कि उसके बाबा कहाँ चले गये। कौन जान पाया है आज तक। जब किशन महाराज एक बार यमुना पार हुए तो इस तरफ लौटकर नहीं आये। गोपियाँ रोती-रोती थक गयीं, तब साहब तो मानस जात ठहरे। एक बार पार उतरे फिर कैसा लौटना।
पूछती रहे पुलिस जो चाहे सो। इन्स्पेक्टर डण्डा मार-मारकर पूछता रहा,
‘क्या ताल्लुक था तेरे साहब का वन्दना से ? बोल ? वो तेरे साहब के घर आती थी न ? क्या करते थे वे दोनों ? बोल!’
हम रोते-रोते बोले थे,
‘मरे हुए आदमी पे कीचड़ मत उछालो इन्स्पेक्टर साब! हम क्या समझें, उनका क्या ताल्लुक था ? आप हम पर कितने ही डण्डे छोड़ो, हमें जो पता है वही तो कहेंगे।’
‘बकवास बन्द कर, चूतड़ की चमड़ी निकलेगी तब ये हेकड़ी जाएगी।’
उनका डण्डा लगते ही आँखें भर आतीं। साहब के जाने पर जो आँसू नुआ बीबी के डर से अन्दर ही भरे रह गये थे, उन्हें पुलिस की मार से बाहर आना था, लखनलाल ये न जानता था। पुलिस के डण्डे खाकर। वरना इस पकी हुई उमर में रोना क्या अच्छा लगता है। अब वहाँ क्या मुँह दिखायेंगे साहब को। सोचा था अपने आँसुओं की गठरी बाँध्ाकर ऊपर लेते जायेंगे और साहब से कहेंगे,
‘देख लो साहब हम भले ही अपने को लखनलाल बोलते हैं लेकिन ये गठरी नुआ बीबी के सामने नहीं खुली। वैसी की वैसी बँध्ाी लेते आये हैं।’
वहाँ कौन सुनने वाला था। इन्स्पेक्टर गुस्साये कुत्ते की तरह गुर्राये जा रहा था।
‘हमने साहब और वन्दना मेमसाहब को जब भी देखा, पढ़ते ही देखा। किताब खोलकर या तो साहब पढ़कर सुना रहे होते या वन्दना मेमसाहब सुना रही होतीं। एकाध्ा बार ये भी देखा कि वे आपस में बड़े डूबकर कोई बात कर रहे हैं।’
‘कैसी बात ?’
‘हम क्या बुझे कैसी बात ? साहब की साध्ाारण-सी बातें लखनलाल को पल्ले नहीं पड़ती थीं, उनकी गहरी बातें तो बिल्कुल ही हमारे बस के बाहर थी। इतना ज़रूर है कि ये लगता जैसे नैमिसारन्न में ऋषि-मुनियों की बातचीत हो रही हो। कैसी बात, हम क्या बताएँ। अगर वो बातें समझ पाते तो भवसागर न तर जाते। यहाँ बैठे रहते थाने में। उनके साथ होने के समय, इन्स्पेक्टर साहब आपको उनके चेहरे देखने थे। ऐसे चमकते जैसे उगते सूरज की ध्ाूप पड़ रही हो। कई मर्तबा नुआ बीबी आकर वन्दना मेमसाहब की गोद में आकर बैठ जाती। साहब अपनी बात आध्ाी छोड़कर चैके में चले जाते, चाय बनाने। वन्दना मेमसाहब नुआ बीबी से बतियाती रहतीं। वे उनसे बहुत लाड़ करती हैं।’
‘क्या खाक लाड़ करती हैं, तेरा साहब उन्हें पागल कर गया है। समझे, साहब के भडुवे!’
‘ऐसा कैसे हो सकता है इन्स्पेक्टर साहब, जोत दिखाने वाला किसी को पागल कैसे कर सकता है। हमारे-आपके कहने से क्या होता है। हमें पता है कि वन्दना मेमसाहब और साहब ने एक-दूसरे को जोत दिखायी थी। जोत। उसी से उनके चेहरे ऐसे चमकते थे। झिलमिल। झिलमिल।’
साँवली
नहीं। मुझे किसी ने भी बुलाया नहीं। मैं यूँ ही चली आयी। आपकी किताब में मेरी जगह थी कहाँ, लेकिन मैं तब भी आ गयी। रहा नहीं गया। सोचा कुछ देर यहीं विलम लूँ। नहीं, थकान नहीं उतारनी, अपने ऊपर चढ़ा अपना कि़स्सा उतारना है। हाँ, बताती हूँ। मैं वन्दना के ताऊ की वही लड़की हूँ जिसके नौकरी करने के कारण, जिसके पढ़ने के कारण उसके पिता को हज़ार किस्म के सवालों के जवाब देते रहना पड़ता था। वन्दना ने मेरा नाम नहीं बताया। शायद उसके मन में रहा होगा, बाहर नहीं आया। मैं बताये देती हूँ। साँवली है मेरा नाम। पहले साँवरी था लेकिन जब पिता ने स्कूल में भरती कराया, अध्यापक ने सुध्ाार कर साँवली कर लिया। याने मेरे नाम का पहला हिस्सा पिता का दिया हुआ है, दूसरा अध्यापक का। इन्हीं दोनो हिस्सों की खींचा-तानी में मेरी जि़न्दगी खत्म हो गयी। चैकिए मत, मैंने ठीक कहा, खत्म हो गयी। याने चुक गयी। याने खर्च हो गयी। पूरी की पूरी। खर्च होते ही खाली कमरे में डाल दी गयी। क्योंकि मैं जो बोलती थी वह बाकियों की समझ में नहीं आता था और बाकी जो बोलते थे, उसे मैं समझ नहीं पाती थी। लेकिन ऐसा सबके साथ होता है। क्या आज तक कोई भी किसी की भी बात समझ पाया है? मुझे पता है समझता कोई नहीं, चेहरे पर समझने का भाव ले आता है। समझाने वाले को इससे आश्वस्ति हो जाती है। सुनने वाला भी सन्तुष्ट हो जाता है कि एक बार फिर उसने समझने का स्वांग दिखाने में चूक नहीं की है।
खाली कमरे में मुझसे बात करने न मेरी बेटी आती, न बेटा। पति तो वैसे भी परमेश्वर का रूप है और परमेश्वर का नैसर्गिक गुण ही है पहुँच से बाहर बने रहना। कमरे में रोशनी पर्याप्त थी। उससे जुड़ा हुआ गुसलखाना भी था। उसकी एक दीवार में खिड़की भी थी। खिड़की के पीछे करोड़ों मील तक फैला आसमान था, आसमान में सुबह शाम पक्षी दिखायी देते थे। लेकिन मैं थक गयी। कुछ न करते-करते थक गयी। यह कुछ न करने की थकान, कुछ करने की थकान से बहुत अलग होती है। कुछ करने की थकान सुस्ताने से झर जाती है। लेकिन कुछ न करने की थकान झरती नहीं, इकट्ठा होती रहती है, शरीर पर नहीं, मन पर भी नहीं, कहीं और जो होता आपका ही अंश है लेकिन जिसके लिए आपकी भाषा में कोई शब्द नहीं है। या शायद मुझे न पता हो। होगा ज़रूर। आप लोग माहिर है हर चीज़ का शब्द बनाने के। जब आपने न रहने तक के लिए शब्द बना लिया तो किसी और चीज़ की बिसात ही क्या है? जैसे ही कोई मुश्किल घटना होती नज़र आती है, आप जल्दी से जाकर उस पर एक शब्द का ढ़क्कन रख आते हैं। सारी मुश्किल घटनाओं को, अबूझ चीज़ों को वश में करने का आपने बढि़या तरीका निकाल रखा हैः उसे कुछ नाम दे दो। आप नाम नहीं देते, ढँकना ढक देते हैं। हर उस चीज़ पर जो आपकी समझ से बाहर होती है।
मैं थक गयी। अपने को एक अजीब नाम से पुकारे जाने से यह हुआ हो। कौन जाने। पहले पहल कोई न कोई मेरे कमरे में आता था। और मुुझसे बात करने की कोशिश भी करता। मेरी माँ पुचकारती, ‘ध्ाीरज ध्ार छोरी, ध्ाीरज ध्ार!’ कहती। पिता भी आते। मुझे देखते रहते और मुड़ कर चले जाते। बेटा बेटी को मुझसे दूर रखा जाता। शायद वे खुद पास न आना चाहते हों। कौन जाने। पति परमेश्वर काम-काज में व्यस्त रहते। उनके लिए इतना बहुत था कि मैं कहीं हूँ।
लेकिन वो नहीं आया। खिड़की के बाहर करोड़ों मील फैले आसमान में कहीं दूर आकर ही खड़ा हो जाता। पल दो पल। मैं आँख भर देख लेती फिर चला जाता। लेकिन उसे तो आना नहीं था सो वह उस खिड़की के इलाके तक में नहीं फटका। मेरी आँखे पथरा गयी, वो नहीं पिघला। अच्छा, मैं यह बताना भूल गयी कि मैं उस बन्द कमरे में रहते रहते मर गयी। मतलब वो हो गयी जिसे आप लोग मरना नाम से पुकारते हो। आप चैंको मत कि मरी छोरी कैसे बोले जा रही है (हे राम, मैं अपने को अब तक भी छोरी’ कह रही हूँ, देखो तो सही आज तक ‘औरत’ शब्द मैं अपने लिए नहीं सोच पायी!) इसमें क्या है। क्या जि़न्दा, क्या मरे सब बोलते हैं। लिखने वालों के भेजे में ऐसो कोई भेद तो होवे नहीं। ऐसा तो नहीं कि लिखने वाला सिरफ़ जि़न्दों को सुनता हो, मरों को चुप कर देता हो। वो बेचारा ऐसा सब करना कहाँ जाने। वो सबको सुनता है। आप भी सबको सुनते हो। क्या जि़न्दा क्या मरे। नहीं, वो नहीं बता पाऊँगी। मरने के बाद क्या होता है वगैरह नहीं बता पाऊँगी। उसे तुम्हारी समझदार भाषा में बताया नहीं जा सकता। फिर मैं वो सब कहूँ भी क्यों जिसपर आप समझने का नाटक तक नहीं कर पाएँ। और यह ऐसा कुछ खास है भी नहीं। और कौन आप हमेशा बने रहने वाले हो, जैसे ही वहाँ से विदा हुए, यहाँ का सब दिखायी देने लग जायेगा।
मुझे भरोसा था, वो ज़रूर आएगा। मुझे कमरे से बाहर तो वो नहीं ही ला पायेगा (मैं आना भी नहीं चाहती थी)। लेकिन मुझे भरोसा था, वो आयेगा ज़रूर। ज़रूर आयेगा। मैं दरवाज़े पर कान लगाये लोगों की बात सुनती रहती कि कहीं कोई ध्ाोखे से भी उसका जि़क्र कर दे कि मुझे पता चल जाये वो कहाँ है, कैसा है, क्या कर रहा है। इसलिए नहीं कि मैं वहाँ जा पाती। मुझे निकलने कौन देता। पर इसलिए कि मैं कल्पना करती कि वह क्या कर रहा होगा। किस जगह होगा। मुझे उसकी कल्पना करने कितनी ज़रा-सी खबर चाहिए थी। मुझे वह भी नहीं मिली। मैं फ़र्श पर बैठी-बैठी बाहर की सब बातें खूब ध्यान से सुनती रहती। उसके जि़क्र के अलावा उनमें और सब होता। मुझे जैसे ही लगता कि किसी बात में उसका जि़क्र आ सकता है, मैं पूरी तल्लीनता से सुनने की कोशिश करती लेकिन बोलने वाला इतना सयाना होता कि उसके जि़क्र आने से पहले ही अपनी बात का रास्ता बदल देता।
मैं सूनी की सूनी रह जाती। मैं तो उसकी खबर की एक ईंट से कल्पना का पूरा महल बना लेती पर वह ईट तक नसीब नहीं हुई।
कई कई बार मेरी नसों में तीखा खिंचाव होने लगता जैसे मेरा मन ही नहीं, मेरे शरीर का एक एक ध्ाागा भी उसके लिए आन्दोलित हो रहा है। खिंच रहा है। मैं फ़र्श पर लोट-लोट जाती। ऐसे मेें अगर कोई मुझे खाना देने कमरे में आ जाता तो वह भीतर से ही चिल्लाता, ‘ओ बइ, छोरी के दौरो पड़ी गयो!’ सुना आपने, यह है आपकी भाषा, आपकी समझदार भाषा, इसमें ‘आकांक्षा’ को दौरा कहते हैं। जितनी देर में घर के लोग कमरे में जुटते और कुछ लोग झाड़ा-फूँकी करते, मैं फ़र्श पर लेटी-लेटी आकांक्षा के ज्वर को अपने शरीर से उतरते हुए महसूस करती रहती।
वह अपने अभाव में ही मेरे क़रीब आ गया होता।
‘आकांक्षा का ज्वर’! वाह, कितना खूबसूरत वाक्य है ये। इस अकेले वाक्य के साथ मेरा कोई झगड़ा नहीं। इसने मेरा खूब साथ दिया। इसी के सहारे मैंने अपनी जि़न्दगी के कठिन दिन काट दिये। आपकी किताब में शायद मुझे दोबारा मौका न मिले, इसीलिए मैं इस वाक्य की गहरायी में जलते-बुझते न जाने कितने दृश्यों में से कुछ को जल्दी से एक बार और देख लेती हूँ। हाँ, एक बार और। इन्हीं दृश्यों में मैं स्कूल जा रही हूँ। काॅलेज जा रही हूँ। मेरे महकते दिन, मेरे फूल-दिन।
पास के गाँव में जाना होता था, माँ रोज़ कहा करती, ‘साँवरी स्कूल कईं जानो?’ पिता रोज़ उसे समझाते, ‘पढ़ी लिखी छोरी कईं थारे सुवाय नी।’ दो-दो चोटियों में दो-दो लाल रिबन। माँ ज़मीन पर बैठती और मुझे अपने सामने दोनों पैरों के बीच बिठा लेती और इतनी ताकत से चोटी बाँध्ाती जैसे मुझे ही बाँध्ा रही हो। ऐसी कस के बँध्ाी चोटियाँ कि वे नीचे से मुड़ जाती। रिबन नीचे लटके रहने की जगह ऊपर उठे रहते। जैसे डालों पर दो लाल गुलाब खिले हों। मैं गेंद की तरह उछलती स्कूल जाती। मानो किसी दूसरे संसार में जा रही होऊँ। रास्ते में जो भी मिलता, यह कहना न भूलताः
‘छोरी स्कूल जइरी है!’
रास्ता बहुत नहीं था। जगह-जगह सुबह की ओस बिखरी रहती जिस पर आकर ध्ाूप के चकत्ते फैल जाते मानो वे ओस को वापस आकाश ले जाने आये हों। छोटे-से तालाब के ऊपर रात के कोहरे की चादर फहराती हुए गायब होने से पहले पानी में अपना चेहरा देखने की कोशिश करती। थोड़ी-देर मैं सड़क किनारे चलती, फिर खेतों से गुज़रती। सरसों के खेतों में ध्ाूप के छूटे हुए पैरों के निशान बिखरे रहते। मैं खेतों की मेड़ पर फुदकती स्कूल पहुँच जाती। कुछ खेतों में अमरूद के पेड़ों की कतारे थीं। आम के पेड़ो की कतारे जैसे भर दुपहर में आध्ो गोले में कुछ बुजुर्ग हाथ में हाथ डाले खड़े हों। पता नहीं कैसे वहाँ कुछ कटहल के पेड़ भी थे जिनके हर हिस्से से ढ़ेरों कटहल लटकते रहते। लगता वे कभी भी गिर पड़ेंगे। उनसे बचती-बचाती, अमरूदों पर पत्थर मारती, तालाब में कुछ देर छप-छप करती मैं स्कूल से लौटती।
घर आते ही पूरे आँगन में किताबें-कापियाँ फैला लेती। सब कहते,
‘छोरी घणी पढ़इ करे!’
स्कूल मेरे लिए जितनी पढ़ने की जगह थी, उतना ही ख़्वाब भी था। मानो अपनी दुनिया से अलग कोई अनोखी दुनिया। मैं सचमुच खूब पढ़ाई करती थी। मेरी टीचर मुझे बहुत चाहती थी। वह दुबली-पतली-सी टीचर मुझे हमेशा कहती ः
‘साँवली तू खूब पढ़ना, खूब। लड़की का आध्ाा-अध्ाूरा पढ़ना काम का नहीं। घर वालों का उलहना होकर रहा जाता है!’
परीक्षा के दिनों में मैं रात-रात भर पढ़ती और अव्वल आती। मैं तो छलाँग मारती एक से दूसरी कक्षा में जाती चली जा रही थी। स्कूल में मेरे अलावा दो लड़कियाँ और थीं। दोनों ही पढ़ने में बिल्कुल ढाँय। लड़कों से बात करने का मन नहीं होता था। मैं जितना बोलती, अपनी टीचर से बोलती। वहाँ और भी शिक्षक-र्शििक्षकाएँ थीं लेकिन सिर्फ़ एक ऐसी थीं जिनसे मैं खूब बोल पाती। उन्हें ही मैं टीचर कहा करती थी। वे हमेशा मुझे अपने साथ रखतीं। कक्षाओं के बाद भी वे मुझे अपने पास रखना चाहतीं। खाने की छुट्टी में भी मैं उनके पास बनी रहती। वे मेरे लिए तरह-तरह के पकवान बनाकर लातीं। उनके संगी-साथी उन्हें छेड़ा करते ः
‘तुम साँवली को गोद क्यों नहीं ले लेती!’
टीचर मुस्करा देती। कहतीं कुछ नहीं।
एक दिन उनका तबादला पास के गाँव के स्कूल में हो गया। उन्हें हमारा स्कूल छोड़ना पड़ा। पहले मुझे कुछ समझ में नहीं आया पर ध्ाीरे-ध्ाीरे मेरे मन में यह बात उतरने गयी कि वे चली गयीं हैं और अब नहीं आएँगी। मैं महीनों रोती रही। माँ और पिता की मुश्किल हो गयी। मुझे स्कूल जाना भारी पड़ने लगा। घर से निकलकर जैसे ही यह ख़्याल मन में आता कि वहाँ टीचर नहीं होगी, मैं वापस आ जाती। फिर घर से टस से मस न होती। सारा-सारा दिन बिस्तर पर पड़ी रहती। किताब, काॅपी या बस्ते पर नज़र पड़ते ही रोना शुरू कर देती। आँसुओं से भरी आँखों में किताब, काॅपी, बस्ता और कमरे की दीवारें, खिड़कियाँ पहले ध्ाुँध्ाली पड़ती, फिर डूब जातीं।
हारकर एक दिन पिताजी गये और उन टीचर को बुलाकर घर ले आये। उन्हें देखते ही मैं बिलख कर रोने लगी। वे भी रोती रहीं। कुछ देर बाद उन्होंने मुझे समझाया। मैं समझ कुछ नहीं रही थी सिफऱ् उनकी आवाज़ को कई दिनों से प्यासे की तरह पी रही थी। जैसे हफ़्तों सूखे में खड़े पौध्ो की जड़ों को अचानक नमी ने घेर लिया हो। मेरी एक एक नस में जैसे जीवन का संचार होने लगा। मुझे अपने हर रेशे से आती अपने ही होने की अनुगूँज महसूस होने लगी। वे मुझे गोद में लेकर बोलीं कि वे हर हफ़्ते के किसी भी एक दिन स्कूल आया करेंगी, मुझसे मिलने।
वे चली गयीं और मेरा बस्ता सज गया। स्कूल में हर दिन मैं जितना पढ़ती, उससे कहीं अध्ािक उनका इन्तज़ार करती। पूरा-पूरा दिन बीत जाता और वे नहीं आती लेकिन हफ़्ते में एक दिन ज़रूर आता जब मेरा इन्तज़ार फि़ज़ूल नहीं जाता। वे खाने की छुट्टी में आती और मुझे ले जाकर स्कूल के बाहर के इमली के घने पेड़ के नीचे बैठ जाती। मैं उनकी गोद में सिर रखकर लेट जाती, वे मेरे बालों पर हाथ फेरते हुए मुझसे कुछ कुछ बोलती रहतीं। वे क्या बोलती थी, मुझे कभी याद नहीं रहा, लेकिन उनके बोलने के लहजे में मेरे प्रति उनका गहरा अनुराग बूँद-बूँद टपकता रहता। इमली के पेड़ की छाँव हमारे ऊपर से सरकती हुई दूर चली जाती, टीचर मुझे स्कूल में जाने को कहकर अपना बैग लेकर अपने स्कूल लौट जाती। मैं इमली के पेड़ के नीचे खड़ी रहकर देर तक उनकी पीठ देखती रहती।
उनकी गोद में सिर रखकर लेटने की इतनी इच्छा होती कि जिस दिन वे नहीं आतीं, मैं घर लौटते समय किसी खेत में अमरूद या आम के पेड़ के नीचे बस्ते को ज़मीन पर रखती, अपनी चुनरी उतारकर उसके ऊपर जमाती और उस पर सिर रखकर यह सोचती हुई लेट जाती कि मैं टीचर की गोद में लेटी हूँ। कुछ देर इस तरह लेट कर मैं उठती और घर की ओर चल देती। इसी तरह एक दोपहर मैं टीचर की खयाली गोद में लेटी थी कि मुझे लगा कि टीचर ने मुझे झुककर मेरे माथे को चूमा है। मैं आँख बन्द किये लेटी रही। फिर लगा टीचर ने अपने दोनों हाथों में मेरे चेहरे को भर लिया है और झुक कर मेरी बन्द आँखों को चूमा है। आज उन्हें मुझ पर इतना लाड़ आ रहा है, मैं आँख बन्द नहीं रख सकी। वहाँ टीचर नहीं थीं। कोई भी नहीं था। पास के पेड़ों की पत्तियाँ ध्ाीरे-ध्ाीरे हिल रही थीं। घबराकर मैं उठ खड़ी हुई। कँध्ाों पर चुनरी डाली और बस्ता उठाकर घर की ओर भागने लगी। घर पहुँचते-पहुँचते वह स्पर्श जो टीचर का जान कर मेरे शरीर ने सोख लिया था, वापस शरीर की सतह पर तैरने लगा। मुझे लगा, कि मेरी आँखों और माथे पर ढेरों चीटियाँ चल रही हैं। मैं बार-बार अपनी हथेलियों से उन्हें हटाती घर पहुँची। माँ मुझे देखती ही बोली,
‘क्या हुआ रे छोटी, तोरा चेहरा इतना लाल कैसे है?’
‘लाल, कैसा लाल?’
मैं पहले ही उन निराली चीटियों से परेशान थी। फिर ये चेहरे की ललाई!
‘जैसे तू बड़ी ज़ोर से शर्माई हो!’ वह बोली और बुक्का फाड़कर हँसने लगी।
‘तू क्या बावली हुई है, मेरे पास कौन है शर्माने को?’ मैं खीज कर बोली।
माँ तुरन्त सँभल गयी पर वह चाह कर भी मुस्कराहट को अपने चेहरे से हटा नहीं सकी। वह वहाँ से चली गयी।
अगले दिन टीचर आयी। हम फिर इमली के पेड़ की छाया में बैठे। मैंने उन्हें कल दोपहर की घटना सुनायी। सिफऱ् चीटियों वाली बात नहीं बतायी। वरना माँ का मज़ाक भी बताना पड़ता। वे कुछ देर सोचती रहीं, फिर आँखों में आँसू भर कर बहुत रुक-रुक कर बोलीं,
‘इतना अनुराग ठीक नहीं, साँवली!’
मैं हमेशा की तरह उनका लहज़ा सुनती रही, शब्द तो मैं वैसे भी कम ही सुनती थी।
अगली दोपहर मैं रास्ते के खेत में नहीं रुकी, लगभग भगती हुई-सी वहाँ से गुज़र गयी। वह ठीक ठीक डर नहीं था, कुछ अँध्ोरी-सी सिहरन थी जो उस दिन की सोचते ही मेरी देह में बिजली की तरह कौंध्ा जाती थी। लेकिन कुछ दिनों बाद यह उत्सुकता हुई कि रुक कर देखें तो सही कि क्या होता है। स्कूल से लौटते हुए मैंने अमरूद के पेड़ के नीचे अपना बस्ता रखा, उस पर अपनी चुनरी सजायी और घास पर आँखें बन्द कर लेट गयी। बहुत देर तक पास के खेत के किसान की आवाज़ आती रही। वह कुछ गा रहा था। फिर वह भी शान्त हो गयी। मुझे लगा कोई मेरे जूते हटा रहा है, मैं घबरायी-सी चुप लेटी रही। अब मुझे अपने पाँव पर हाथ का स्पर्श महसूस हुआ, फिर दायें तलवे पर किसी के होंठों का दबाव पड़ने लगा। मैं तेज़ी से उठकर बैठ गयी। वह घबड़ाकर ध्ाड़ाम से पीछे की ओर गिर गया। उठकर जैसे ही भागने को हुआ, मैंने उसका हाथ पकड़ लिया।
‘क्या कर रहे थे?’ मैंने कड़क कर पूछा।
‘पाँव छू रहे थे!’
‘क्यों?’
‘हमें लगा देहाती कपड़ों में परी उतरी है!’
‘तो’
‘हमने सुना है कि परी को होठों से छुओ तो उससे ब्याह हो जाता है!
वह गोरा-सा हट्टा कट्टा लड़का था। सुनहले बाल माथे पर बिखरे थे। आँखें नीचे सरोवर-सी बिल्कुल निष्कपट थी। ऊपर कमीज़ पहने था, नीचे ध्ाोती। मुझे ज़ोर की हँसी आयी लेकिन मैं उसे दबायी रही। अपना चेहरा कड़ा किये हुए ही मैं बोली,
‘और अगर इसके बाद भी परी की तुमसे ब्याह करने की इच्छा नहीं हुई तो?’
‘परी की अपनी क्या इच्छा। उसे जो वश में कर ले, वही उसकी इच्छा!’
इस पर मेरा ध्ाीरज टूट गया। मैं गुस्सा होने की जगह हँसने लगी। पहले वह घबराया, शायद उसके लिए परियाँ सिफऱ् शादी के लिए होती थी, हँसने के लिए नहीं। लेकिन जल्दी ही उसका चेहरा भी खिल गया। वह भी हँसने लगा। वह हँसते-हँसते मेरे क़रीब आया। उसने चुपचाप हाथ बढ़ाकर मेरी चोटी अपनी हथेली में थामी और चुपचाप उसके रिबन को चूम लिया। मैं जान गयी कि वह अब भी परी को वश में करने में लगा है। मैं कुछ नहीं बोली। अचानक वह उठ खड़ा हुआ और चिल्लाया,
‘ओ मरा!’
वह तुरन्त वहाँ से भाग गया। मैं देर तक उसके दौड़ते पैरों की आवाज़ को सुनती रही। जैसे ही वह आवाज़ खत्म हुई, मुझे लगा मेरे शरीर का सारा खून मेरे चेहरे की ओर भाग रहा है।
‘क्या इसे ही उस दिन माँ शर्माना कह रही थी?’
अगले दिन टीचर नहीं आयी। मैं अमरूद के नीचे जाकर रोज की तरह लेट गयी। न जाने कहाँ से बेआवाज़ चलता हुआ वह आया और घास पर रखी आकाश की ओर खुली मेरी हथेली को चूमा। मैं सुन्न पड़ी रही। वह उठकर दूसरी ओर गया, मेरे दूसरे हाथ को बहुत संभाल कर अपने दोनों हाथों में उठाया और सिर झुकाकर उसकी हथेली को खोलकर उस पर अपने होंठ रख दिये। मैंने अपनी हथेली बन्द कर ली। उसकी नाक मेरी पकड़ में आ गयी। वह इतनी ज़ोर से चीखा कि मैं सिहर गयी। मैंने उसकी नाक छोड़ दी।
‘क्या हुआ?’ मैंने पूछा।
‘परी का क्या ठिकाना, मार ही डाले।’
मैं हँसने लगी। हँसते-हँसते मेरी आँखें बन्द हो गयीं। वे जैसे ही खुलीं, वह अंजुलि में फूल लेकर खड़ा दिखायी दिया।
‘ये कहाँ से लाये?’
‘परी की हँसी से झरे थे, मैंने इकट्ठा कर लिये।’
वह मुझे छूता गया और परी उसके वश में होती चली गयी।
वह अपनी परी को स्कूल छोड़ने जाने लगा। परी का स्कूल खत्म हुआ, वह शहर जाकर काॅलेज में पढ़ने लगी। वह हर हफ़्ते वहाँ चला आता। हम एक साथ पार्क चले जाते। वह वहाँ बैठकर भी मुझे तरह-तरह की कहानियाँ सुनाया करता। वह मुझसे अक्सर पूछता कि मुझे काॅलेज में कौन-सी कहानियाँ सुनायी जाती हैं। मैं कहती, ‘कोई नहीं।’ वह चकित रह जाता। उसे यह समझ में नहीं आता था कि अगर काॅलेज में कहानियाँ नहीं सिखायीं जाती तो मैं वहाँ क्या करने जाती हूँ। वह पता नहीं किस दुनिया का वासी था। पूरा समय कहानियाँ सुनते-सुनाते हुए काट देता। वे कहानियाँ ही उसका घर थीं। आँगन थीं। देश थीं परदेश थीं। वह जीवन की हर घटना को पहले अपनी किसी कहानी में प्रवेश कराता, फिर उसे समझ पाताः ‘यह तो वही बात हुई जैसे एक बार....’
बस इतना ही था ‘आकांक्षा का ज्वर’ जो इतने बरसों तक मुझ पर चढ़ा रहा। मुझे क्या से क्या कर गया। वह किसी को भी क्या कर जाता है। वह किस को परी चुन ले, इसका कोई ठिकाना नहीं। मेरा सौभाग्य कि इस बार परी मुझे चुना गया था। परी जिसकी अपनी कोई इच्छा नहीं, जो उसे वश में कर ले, वही उसकी इच्छा। इसके आगे कुछ नहीं सुनाऊँगी। इसके आगे कुछ है भी नहीं सुनाने को। पर जाते-जाते एक बार और बोल लेती हूँः आकांक्षा का ज्वर।