राग में बार-बार होता जन्म - जीवन-चरितः पण्डित कुमार गन्धर्वः पहला अध्याय - ध्रुव शुक्ल
22-Mar-2023 12:00 AM 1357

जन्मकथा
मैं तो रोज़ मरता हूँ - जो कुमार गन्धर्व आज तिलक कामोद गा चुके, वे कुमार गन्धर्व और तिलक कामोद दोनों मर चुके। फिर कुमार गन्धर्व गायेंगे और तिलक कामोद ही, पर वही नहीं - वे दोनों मर चुके ...
-कुमार गन्धर्व

किसी जन्म में कोई संगीतकार कैसे जन्म लेता है, कोई भी पूरी तरह कहाँ जान पाता है। आठ अप्रैल 1924 ईसवी को भारत के कर्नाटक प्रदेश के बेलगाम से कुछ दूरी पर बसे सुलेभावी गाँव में शिवपुत्र सिद्धरामैया कोमकली का जन्म हुआ, जो बाद में संगीतकार पण्डित कुमार गन्धर्व के नाम से पूरे संगीत विश्व में प्रतिष्ठित हुए। उनके पिता श्री सिद्धरामैया कोमकली सुलेभावी ग्राम में ही स्थापित लिंगायत सम्प्रदाय के कोमकली मठ के प्रमुख थे।
उनकी माँ सिद्धौआ ने जिन छह सन्तानों को जन्म दिया उनमें सबसे बड़े भाई शिवरुद्रैया, दूसरे गंगैया और फिर तीसरे शिवपुत्रैया (कुमार गन्धर्व) हुए। चौथी इकलौती बहन राचम्मा हुई। पाँचवीं सन्तान शंकर नहीं रहा। छटवाँ भाई शान्तिवीर हुआ। पिता और उनकी सन्तानों को संगीत से बेहद लगाव था। पिता किराना घराने की गायकी में दीक्षित थे। माँ का कण्ठ भी मीठा था।
बेटा शिवपुत्र सात-आठ बरस की उमर तक अपने परिवारजनों की दृष्टि में संगीत के प्रति निर्लिप्त प्रतीत होता रहा। सुलेभावी के स्कूल में उसका दाखिला करवाया गया पर वह स्कूल भी नहीं गया। कोई नहीं जान पाया कि शिवपुत्र की स्मृति में बसे हुए स्वर न जाने कब उसके कण्ठ से फूट पड़ेंगे।
और एक दिन अचानक शिवपुत्र सिद्धरामैया कोमकली गा उठे - वह नारायणराव बालगन्धर्व का गाना था - तात करी दुहिता विनाश। उनकी गायकी परिवारजनों और पड़ौस के लोगों को आश्चर्यचकित कर रही थी। सब सोच में पड़ गये कि इतनी छोटी उमर में बिना किसी तालीम और रियाज़ के कोई कैसे गा सकता है। हू-ब-हू वैसा ही जैसा बालगन्धर्व और उस समय के बड़े संगीतकार गाया करते थे। किसी एक दिन उस अंचल में पूज्यनीय गुरू कलमठ स्वामी शिवपुत्र के गायन से अभिभूत होकर कह उठे कि यह तो कुमार गन्धर्व है। बस उसी दिन से शिवपुत्र सिद्धरामैया कोमकली अपनी नौ बरस की उमर में ही कुमार गन्धर्व नाम से प्रसिद्ध होने लगे।
कुमार गन्धर्व अपने बचपन को याद करते हुए अपनी डायरी में लिखते हैं कि यह उन दिनों की बात है जब वे बैलहोंगल के पास आमटूर गाँव में रहते थे। उन दिनों केवल शास्त्रीय संगीत के ही ग्रामोफ़ोन रिकार्डस् बनते थे। फ़िल्मी संगीत का कोई अता-पता नहीं था। संगीतकार नारायणराव व्यास, पण्डित दीनानाथ मंगेशकर, विनायकराव पटवर्धन, रामकृष्ण बुवा वझे, मल्लिकार्जुन मंसूर, अब्दुल करीम खाँ, हीराबाई बड़ोदेकर, गौहरजान सोलापुरकर और इंदिराबाई वाडकर आदि मशहूर शास्त्रीय गायकों के ही रिकार्डस् सुनने को मिलते थे।
पिता सिद्धरामैया कोमकली जब भी आमटूर से बैलहोंगल जाते, कुमार गन्धर्व को भी अपने साथ ले जाते। छोटे कुमार को तो पिता के साथ जाने का यही लालच रहता कि बैलहोंगल पहुँचते ही अपन को शीरा-पूरी, बटाटे की भाजी, अम्बोली और मैसूरपाक खाने को मिलेगा। पर पिताजी वहाँ पहुँचकर अच्छे गानों के रिकार्डस् सुनवाते। मोटर स्टैण्ड पर उतरते ही वे अपने मित्र के रेस्टारेण्ट में ले जाते। फ़ौरन अम्बोली और शीरे का आर्डर दिया जाता।
कुमार जी कहते हैं कि मैं बचपन के उस आनंद का वर्णन नहीं कर सकता जब पिता मुझे रेस्टारेण्ट में बिठाकर किसी काम से चले जाते और मुझे रेस्टारेण्ट का मालिक अच्छे-अच्छे गानों के रिकार्डस् सुनवाता रहता। वह आग्रह करने पर एक ही रिकार्ड को कई बार सुनवाता। दो-तीन बार सुनने के बाद पूरा रिकार्ड याद हो जाता और उस रिकार्ड के साथ गाने की तैयारी भी हो जाती। पिता जी होटेल में गाने से मना करके जाते इसलिए वहाँ मन होते हुए भी गाने से डर लगता था। कभी किसी के कहने से गा देते और पिता जी को पता लग जाता तो मार खाना पड़ती।
कुमार गन्धर्व याद करते हैं कि एक दिन उनके पिता ने यह ज़िद ठान ली कि मेरा गाना किसी थियेटर में होना चाहिए। पिता जी बैलहोंगल में ही किसी जिनिंग फैक्टरी के मैनेजर की मदद से दो कमरे लेकर कुमार जी के साथ रहने लगे। मैनेजर गाने के शौकीन थे और उनके पास ग्रामोफ़ोन भी था। अच्छे गाने वालों के रिकार्डस् भी थे जिन्हें कभी-कभी सुनने का अवसर भी मिल जाता। पिता जी मिरज से तानपूरा भी बनवाकर ले आये और अपने साथ एक दिलरुबा वादनकार को संगत के लिए भी साथ ले आये। उसके साथ जब गायन होता, पिता कुछ नयी चीज़ें भी सिखाते रहते।
मुझे उस समय ताल में गाना नहीं आता था- कुमार गन्धर्व कहते हैं - मुझे जितनी चीज़ें याद थीं, पिता जी उन्हें लय-ताल में बिठा लेते। ताल का ज्ञान नहीं था पर पिता ने एक तरकीब बता दी कि जब मैं ज़ोर से चाट बजाऊँ तो तू फ़ौरन गाना शुरू करना। कभी उनकी आँखों और हाथों के इशारे भी ताल में बने रहने के काम आ जाते। बैलहोंगल में ही संगीतप्रेमी डॉक्टर गिण्डे रहते थे। उनका बड़ा बेटा दिलरुबा बजाता था और सबसे छोटा गाता था। उनका लड़का ताल में गाता है इसका उन्हें बड़ा गुरूर था। जब मैं गाता तो मेरी हँसी उड़ायी जाती। बाद में डॉ. गिण्डे का यही छोटा बेटा प्रोफ़ेसर रातंजनकर का शिष्य हुआ और उसे विख्यात ध्रुपद गायक की प्रतिष्ठा मिली।
चिदम्बरम् का महोत्सव हर साल होता था। दूर-दूर से लोग आते थे। एक बार डाक्टर गिण्डे कुमार गन्धर्व को भी अपने साथ ले गये। हर साल इस महोत्सव में गायनाचार्य रामकृष्ण बुवा वझे आते थे। बड़े दिनों से कुमार गन्धर्व की इच्छा उन्हें क़रीब से देखने की थी। क्योंकि कुछ दिन पहले ही - बोले रे पपीयरा - उनका रिकार्ड प्रकाशित हुआ था और उसे सुनकर कुमार गन्धर्व पूरा गा लेते थे। वे गिण्डे जी के साथ किसी ठसाठस भरे हाल में जब विश्राम कर रहे थे तभी गिण्डे जी ने उन्हें उकसाया कि धीमी आवाज़ में - बोले रे पपीयरा - गाये और कुमार गन्धर्व शुरू हो गये। सब उनकी तरफ देखने लगे। उसी समय एक लेटा हुआ मोटा-सा व्यक्ति भी उन्हें कुतूहल से ताक रहा था - वे और कोई नहीं, गायनाचार्य रामकृष्ण बुवा वझे ही थे। उन्होंने क़रीब आकर नाम-पता पूछा। जब यह बात पिता को पता चली तो वे बहुत खुश हुए।
अब सिद्धरामैया कोमकली ने निश्चय कर लिया कि कुछ रुपये-पैसे का इन्तज़ाम करके शिवपुत्र का जलसा बेलगाम में ही जमाया जाये। काफी भाग-दौड़ के बाद लक्ष्मी थियेटर में जलसा होना तय हुआ। बड़े ज़ोर-शोर से प्रचार होने लगा। पोस्टर छापे गये। समाचार पत्रों में नाम आने लगा। शहर में बड़े होर्डिंग्स लगाये गये। जलसे का दिन उगा। हाल खचाखच भरा था। कुमार गन्धर्व का गायन शुरू हुआ। तबले पर महबूब खाँ, सारंगी पर काले खाँ, तानपूरे पर पिता और बड़े भाई संगत कर रहे थे। निर्भय होकर गाया, खूब तालियाँ बजीं। तीन-चार रागों के बाद संगीतकारों के ग्रामोफ़ोन रिकार्डस् के साथ भी गाकर सुनाया। खूब वन्समोर की आवाज़ें आयीं। जलसा शानदार हुआ।
बेलगाम के आसपास दूर तक कुमार गन्धर्व के नाम की तूती बोलने लगी। जब लक्ष्मी थियेटर छोटा पड़ने लगा तो बेलगाम के ही कुछ और बड़े शिवानन्द थियेटर में तीन जलसे हुए। इन जलसों की सफलता के बाद पिता जी ने तय किया कि अब टूर पर निकला जाये। तब कुमार गन्धर्व पार्टी बनी और बेलगाम से बाहर संगीत-यात्रा चल निकली।
कुमार गन्धर्व जब नौ बरस के हुए तब उनके गाये हुए राग भैरवी और दुर्गा स्वरांकित होकर प्रसिद्ध हो चुके थे। क़रीब ग्यारह वर्ष की आयु में जब वे बम्बई, कलकत्ता, इलाहाबाद की संगीत-यात्राओं पर निकले तो उनके नाम की धूम मच गयी। इलाहाबाद की संगीत सभा में उनका गायन सुनने के लिए उस्ताद फैयाज़ खाँ और मशहूर गायक कुन्दनलाल सहगल भी मौजूद थे। कुमार ने अपनी संगीत प्रस्तुति के लिए शेरवानी और टोपी बनवायी थी।
उन दिनों अब्दुल करीम खाँ का एक नाट्यगीत - उगीच का कान्ता - श्रोताओं के मन पर छाया हुआ था। जैसे ही कुमार गन्धर्व ने उसके सुर लगाये तो वहाँ मौजूद संगीत प्रेमी झूम उठे। फैयाज़ खाँ ने आनन्द से भरकर कहा कि अगर मैं जागीरदार होता तो अपनी दौलत तुझ पर निछावर कर देता। कुन्दनलाल सहगल भी गायकी पर फ़िदा हो गये और कुमार को कलकत्ते की संगीत सभा में आने का न्यौता भी दिया।
कलकत्ते के विद्यापीठ सभागार में कुमार गन्धर्व ने राग झिंझोटी छेड़ा - पिया बिन नाहीं आवत चैन। जो श्रोता उन्हें छोटा बच्चा समझकर हँस रहे थे, वे स्वर छिड़ते ही अवाक् रह गये। इस श्रोता समूह में कुमार गन्धर्व के होने वाले गुरु बी.आर. देवधर भी मौजूद थे। वे पहले भी कुमार को गाते हुए कानपुर की महफ़िल में सुन चुके थे। उन्होंने प्रस्ताव किया कि कुमार गन्धर्व बम्बई में होने वाली पहली संगीत परिषद में आकर गाएँ।
बम्बई के जिन्ना हाल में गायन सभा हुई और कुमार गन्धर्व ने अपने गायन में सबको बाँध लिया। कुछ समय बीतने पर दूसरी संगीत परिषद में भी उन्हें बुलाया गया। यह महफ़िल भी खूब जमी। श्रोता मन्त्रमुग्ध हुए। कुछ दाँतो तले अँगुली दबाकर रह गये। दो मार्च 1936 ईसवी के टाइम्स ऑफ़ इण्डिया अख़बार ने उन्हें संगीत का भावी जीनियस कहा।
बाद के दिनों में पूर्वी और पश्चिमी संगीत के जानकार और समीक्षक राघव मेनन दिल्ली में अरविन्द दर्शन के विद्वान और राजनेता कर्णसिंह के घर कुमार गन्धर्व से मिलने आये। राघव मेनन संगीतकार कुन्दनलाल सहगल के जीवनीकार भी थे। यह जानकर कुमार जी ने उन्हें सहगल का गाया हुआ राग देवगन्धार में - झुलना झुलाये - ख़याल सुनाया और राग काफी में सहगल की गायी एक होरी भी सुना डाली। राघव मेनन ने इस संगीतकार से चकित होकर उस ज़माने के प्रतिष्ठित ज्योतिषी बी. वी. रामन के समक्ष कुमार गन्धर्व की जन्मकुण्डली पेश की। जन्म कुण्डली भी यही संकेत कर रही थी कि भारतीय शास्त्रीय संगीत की भूमि पर किसी नये अवतरण की सम्भावना है।
पश्चिमी संगीतकार वाल्टर काफ़मन ने भी बम्बई में कुमार गन्धर्व का गाना सुनकर उसे संगीत के सुन्दर उपहार की तरह स्वीकार किया था। जब वे अडल्स हक्सले और उनकी पत्नी के साथ दूसरी बार भारत आये तो संगीत समीक्षक राघव मेनन ने दिल्ली में उनकी मुलाक़ात कुमार गन्धर्व से करवाते हुए कहा कि ये हमारे देश के मोत्ज़ार्ट हैं। यह सुनकर हक्सले ने कुमार जी की ओर देखते ही कहा कि इनकी भौहें मोत्ज़ार्ट जैसी लग रही हैं।
कुमार गन्धर्व बाल्यकाल के उन संगीत से भरे दिनों के बारे में कहते हैं कि मुझे हरेक राग, उसके स्वर और पूरी बन्दिश नज़रों के आगे प्रकट होती-सी लगती। मैं सिर्फ़ गाता ही नहीं था, उसे देखता भी था। वे हँसते हुए यह भी कहते कि बचपन में मेरा इतना कौतुक हुआ, इतनी वाहवाही हुई कि अगर और किसी की होती तो उसकी पूँछ फूट पड़ती। वे अपने पिता को याद करते हुए अपने मित्र से कहते हैं कि मुझे बचपन में भालू की तरह बाँधकर खूब नचाया गया।
कुमार गन्धर्व के परिवार में सराफ़ी का धन्धा होता था और कुछ ज़मीन भी थी। उनके चाचा और पिता के बीच जब जायदाद के बटवारे की नौबत आयी तो जायदाद में हिस्सा लेकर पिता अपने भाई से अलग हो गये। उन्हें अपने हिस्से में चावल और ज्वार के खेतों के साथ धन भी मिला। धन हाथ लगते ही पिता ने कोई धन्धा करने का विचार किया। उन्होंने हेण्डलूम की मशीन लगाकर कपड़े का धन्धा शुरू किया पर व्यापार का अनुभव न होने के कारण चपत खा गये। धन्धा ज़ल्दी ही बन्द करना पड़ा।
कुमार गन्धर्व अपने पिता को व्यावहारिक रूप से मन-ही-मन परखकर कहते हैं कि उनका दिल तो बहुत बड़ा था। वे देना खूब जानते और लेना बहुत कम जानते थे। उनके इस गुण के कारण उन्हें ठगने वाले ही मिले। पर उनके स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। वे वैसे के वैसे ही रहे। जब सिद्धरामैया कोमकली के घर शिवपुत्र (कुमार गन्धर्व) का जन्म हुआ तब घर में दरिद्रदेव का नृत्य हो रहा था। जब माता ने उन्हें जन्म दिया तब घर में अन्न ही नहीं था। पिता परदेस गये थे। वे अचानक उसी दिन लौट आये और शाम के समय खाना बनाया गया।
कुमार गन्धर्व एण्ड पार्टी पर तो उस समय धन की बरसात होने लगी थी जब वे क़रीब दस बरस के रहे होंगे। वे इसी उमर के आसपास अपनी चमत्कारी संगीतकला का प्रदर्शन करने अपने पिता के साथ इन्दौर भी आये। इन्दौर के महाराजा थियेटर में कुमार गन्धर्व एण्ड पार्टी ने अपना कार्यक्रम पेश किया और लौट गये। उस समय कुमार गन्धर्व ने मालवा की लोकधुनें नहीं सुनी थीं और पूरी तरह देवास भी कहाँ देखा था। देवास के नगर निवाल थियेटर में उनका एक जलसा ज़रूर हुआ था।
जब वे 1943 ईसवी में कृष्णराव मजूमदार के आत्मीय बुलावे पर देवास आये तब कुमार गन्धर्व एण्ड पार्टी पीछे छूट चुकी थी। वे विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के आधुनिक शिष्य प्रोफ़ेसर बी. आर. देवधर का शिष्यत्व अंगीकार कर चुके थे। उन्नीस वर्ष की किशोर वय में बाल चमत्कार पीछे छूटता जा रहा था। फिर वे कई बार देवास आते रहे।
जब कुमार गन्धर्व तीस जनवरी 1948 को देवास में बस जाने के लिए आये, तब वे अकेले नहीं थे। भानुमति कौंस उनकी पत्नी के रूप में साथ आयी थीं। उनके साथ कृष्णन नम्बियार भी आये जो कण्णा कहलाते थे। भानुमति कराची के कौंस परिवार की थीं और कण्णा उस परिवार के निकट थे। माँ के अभाव में कण्णा ने ही भानुमति को पाल-पोसकर बड़ा किया। भानुमति कुमार जी की उमर की थीं। शायद कुछ महीने बड़ी थी। उनका जन्म कराची में हुआ था।
कौंस परिवार कराची में व्यापार करता था। भानुमति के पिता को संगीत से गहरा लगाव था। उनके बड़े भाई दत्तोपन्त तबला बजाते थे। भानुमति भी गायिका बनना चाहती थीं। माता-पिता की मृत्यु हो जाने के कारण वे संगीत की तालीम के लिए सत्रह बरस की उमर में पूना आ गयीं। पूना में संगीत सीखते हुए भावगीत गायक गजाननराव वाटवे ने सलाह दी कि उन्हें संगीत की अच्छी तालीम के लिए देवधर गुरु जी के पास बम्बई जाना चाहिए। वे 1943 में बम्बई आ गयीं। उन्होंने अपनी स्कूल शिक्षा पूरी करने के लिए सेण्ट जेवियर कॉलेज और संगीत सीखने के लिए गुरु देवधर जी के स्कूल ऑफ़ इण्डियन म्यूज़िक में एडमीशन लिया।
भानुमति का कुलीन रूप सबको आकर्षित करता था। वे कॉलेज में पढ़ाई के साथ बेडमिण्टन भी खेलतीं और कुमार गन्धर्व से गाना भी सीखने लगीं। स्वर का लगाव आहिस्ता-आहिस्ता कुमार के प्रति लगाव में भी बदलने लगा। उन्हें सिखाते समय कुमार गन्धर्व का मन खूब लगता था। कुमार ने उन्हें मशहूर संगीतकार अंजनीबाई मालपेकर का सान्निध्य भी ग्रहण करवाया। कुमार जी से ब्याह के पहले भानुमति के गाये भावगीतों का रिकार्ड भी बन चुका था।
1947 ईसवी में कुमार गन्धर्व के फेफड़ों में तपेदिक ने अपना घर बना लिया था। जिस दिन वे देवास में अपना घर खोज रहे थे उसी दिन उन्हें महात्मा गाँधी की हत्या की ख़बर मिली। तपेदिक के रोग का इलाज दुर्लभ था और कुमार गन्धर्व के हितैषी भी मन-ही-मन यह मान बैठे कि कुमार अब शायद गा न पायेंगे। पर कुमार जी का मन शान्त था। वे देवास में जीने की जगह खोज रहे थे। आखिरकार उन्हें एक मामूली-सा लाल बंगला किराये पर मिल ही गया। वह एक छोटी-सी टेकरी पर बना था जहाँ नीम के वृक्ष पर एक टेलर बर्ड फिर अपना घोंसला बुन रही थी।
कुमार जी के अनन्य मित्र राहुल बारपुते इस बंगले की निःस्तब्धता का वर्णन करते हुए लिखते हैं कि इसकी नीरवता को अहाते में खड़े नीम के वृक्ष पर आने वाली चिड़ियाँ अपनी चहचहाहट से भंग करती रहती थीं। मुम्बई-आगरा रोड के किनारे पर बने इस बंगले के दूसरी तरफ देवास शहर फैला हुआ था। राहुल बारपुते की कलम पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रतिष्ठित थी। वे अक्सर कुमार जी से मिलने आया करते थे।
प्रखर समाजवादी नेता लाड़ली मोहन निगम 1950-52 की अवधि में किसी दीर्घ संघर्ष के दौरान देवास में अटके हुए थे। कुमार गन्धर्व को याद करते हुए उन्होंने एक वाक़ये का ज़िक्र किया है। वे एक शाम आगरा-बाम्बे रोड के निर्जन पहाड़ी इलाके से गुजर रहे थे। उन्हें मन को प्रफुल्लित करने वाले स्वर सुनायी दिए और वे बरबस उन स्वरों की ओर खिंचे चले गये। वे पहाड़ी पर बनी उस बँगलेनुमा झोपड़ी के क़रीब पहुँच गये जहाँ से ये स्वर किसी निर्झर की तरह बह रहे थे। वे सुनसान बरामदे के पास ठिठककर उस आवाज़ में कुछ देर भीगते रहे।
सहसा संगीत रुका और भीतर से खाँसने की आवाज़ आयी। एक छाया बाहर आयी और उसने परिचय पूछा। उन्होंने अपना परिचय देकर वहाँ कुछ देर बैठने की इजाजत माँगी पर उन्हें आदरपूर्वक भीतर आने का आमन्त्रण मिला। भीतर जाकर देखा कि एक जीर्ण-शीर्ण काया दीवार के सहारे लेटी हुई है और उसके पाँवों के पास अद्वितीय सुन्दर स्त्री तानपूरा लिए गा रही है। पाँच-सात मिनिट बीतने पर रुग्ण काया के चेहरे पर कुछ झुँझलाहट प्रकट हुई और उठते हुए क्षीण आवाज़ में कहा कि ऐसे नहीं, ऐसे गाओ।
अभी स्वर फूट ही रहा था कि एक मिनिट बाद ही कुमार जी को ज़ोर की खाँसी आने लगी और ढेर सारा बलगम भी। गाती हुई स्त्री ने तानपूरा रखकर अपनी अंजुरी में सारा बलगम ले लिया। उसे फेंककर अपने हाथ साफ किये, सिरहाने को ठीक किया और मुझसे जाने का आग्रह किया। मुझे दरवाज़े तक छोड़ने भी आयी। मैंने अनुमति चाही कि अगर फिर आना चाहूँ तो क्या आ सकता हूँ। मुझे अनुमति मिल गयी।
लाड़ली मोहन निगम की कुमार गन्धर्व और भानुमति से यह पहली मुलाक़ात थी। वे अक्सर लाल बँगला जाने लगे। कुछ दिनों बाद उज्जैन और आसपास के विद्वान, प्रोफ़ेसर, लेखक कुमार जी के क़रीब आने लगे। उस समय प्रोफ़ेसर श्याम परमार भी कुमार जी के घर आते थे। वे उन दिनों मालवा के लोकगीतों पर शोध कर रहे थे। कुमार गन्धर्व उनसे मालवा के लोकगीतों पर बहुत सुलझी हुई और परिष्कृत बातचीत किया करते थे।
एक दिन लाड़ली मोहन ने कुमार जी से पूछा कि आपके बीमार हो जाने से संगीत को बड़ा नुक़सान हुआ होगा। तब कुमार गन्धर्व ने उनसे कहा कि अगर मैं लगातार गाता ही रहता और बीमार न पड़ता तो शायद मैं भौतिक दुनिया में ही विचरण करता रहता और संगीत के विषय में मुझे सोचने का मौका ही न मिलता। पाँच-सात वर्ष की इस बीमारी ने मुझे सोचने और संगीत को समझने की क्षमता दी है। मेरी निश्चित राय है कि भारतीय संगीत का उद्गम लोकसंगीत है। उन्होंने कहा कि मैं नाथजोगी परम्परा और मालवा सहित देश के अन्य अंचलों के लोकसंगीत का अध्ययन कर रहा हूँ। मेरा विश्वास है कि एक दिन संगीत को उसकी सही परिभाषा देने के लिए सक्षम होऊँगा। कुमार जी बोले कि इतना सब कुछ पा लेने के बाद भी तुम मेरी बीमारी से दुखी हो। मैंने इस बीमारी में जो पाया है, अगर मैं लगातार गाता ही रहता तो भी उतनी दौलत नहीं पाता जितनी कि आज मैंने पायी है।
एक दिन इत्तफ़ाक से जब कुमार जी और निगम जी ही लाल बंगले में थे, तब कुमार जी कहने लगे -- तुमने देखा है कि भानु ने मेरी कितनी सेवा की है। उसने मेरे बलगम को अपने हाथों में लिया है। जब मैंने उससे कहा कि मैं बचूँगा नहीं, मेरी बीमारी असाध्य है, तब वह मुस्कराते हुए बोली कि कुमार तुम अपनी फ़िक्र करो, तुम स्वस्थ हो जाओ, बस। जहाँ तक मेरा सवाल है, मुझे तो यह रोग होगा ही नहीं क्योंकि मैं तुम्हारे साथ रहते-रहते इम्यून हो गयी हूँ। उस दिन कुमार जी भावुक हो उठे और उन्होंने क़िताबों की तहों के बीच में एक लिफ़ाफ़े में रखी तस्वीर निकालकर दिखायी जो उनके साथ भानुमति की शादी की थी। जिसमें कुमार गन्धर्व एक नरकंकाल की तरह लग रहे थे। जैसे हड्डियों के ढाँचे पर किसी ने शेरवानी पहना दी हो और उसके क़रीब अद्वितीय सुन्दर कन्या खड़ी हो।
बम्बई में कुमार गन्धर्व का भानुमति से विवाह अत्यन्त सादगीपूर्ण हुआ। उनके मित्र पंढरीनाथ कोल्हापुरे याद करते हैं कि ब्याह में शामिल होने के लिए अपने सभी पच्चीस दोस्तों को कुमार जी ने सिल्क के कुरते सिलवाये थे। उनकी शादी में देवधर गुरु जी के अलावा रामकृष्ण बेन्द्रे तो शामिल हुए ही, इस अवसर पर विलायत हुसेन खाँ और गंगूबाई हंगल का गायन भी हुआ। वी.जी. जोग ने वायोलिन बजाया। विलायत हुसेन खाँ साहब ने शादी पर ही तीन बन्दिशें सुनायीं। कुमार गन्धर्व ने राग कौशी गाया। सुघर बर पायो - ख़याल का यह मुखड़ा गाकर अपनी शादी की तस्वीर में रंग भरा।
लाड़ली मोहन निगम उस तस्वीर को देखकर हतप्रभ-से रह गये और सोचने लगे कि जिसके लिए डाक्टरों ने साल-दो साल की मोहलत दी हो, कोई लड़की उससे शादी कैसे कबूल कर सकती है। एक दिन जब उन्होंने भानुमति से ही पूछा तो वे बोलीं कि लाड़ली, संगीत की दुनिया को यह व्यक्ति बहुत कुछ देगा। अगर ये बच जाये तो मेरे लिए इससे बड़ी चीज़ और क्या हो सकती है।
कुमार जी की काल से लड़ने की शक्ति, उनकी जिजीविषा और भानुमति की आकाँक्षा ने मिलकर उस संगीत को बचा लिया जिसे हम आधी सदी तक सुनते रहे। कभी लाड़ली मोहन निगम से कुमार गन्धर्व ने कहा था कि मैं इस अद्वितीय स्त्री को कर्ज में छोड़कर नहीं मरना चाहता। जिसने अपना सर्वस्व मुझे दिया है जब तक उसके भविष्य और साये का इंतजाम न कर लूँ तब तक तो मुझे जिंदा रहना ही होगा।
भानुमति ने कुमार जी की खातिर एक छोटे-से कस्बे देवास में रहना कबूल किया। यहाँ की आबोहवा तपेदिक के मरीजों के अनुकूल थी। उन्होंने एक बालिका स्कूल में अध्यापिका की नौकरी कर ली। वे हेड मास्टरनी बन गयीं। आमदनी सीमित थी। जब लाल बँगले की टेकरी के आसपास भीड़-भाड़ बढ़ने लगी तब कुमार परिवार ने देवास शहर से कुछ दूर जंगल के सुनसान के बीच नया घर खोजा। किराया भी कम था और आबोहवा भी अनुकूल थी।
कुमार गन्धर्व और उनके परिवार की हालत को निकट से जानकर राहुल बारपुते आँखों देखा हाल सुनाते हुए कहते हैं कि मास्टरी की नौकरी मिल जाने से भानुमति रोज स्कूल चली जातीं। तपेदिक के कारण कुमार जी चुपचाप रुग्ण शैया पर लेटे रहते। इस चुप्पी के बीच कण्णा जी घर का काम-काज सम्भाले रहते। डाक्टरों ने हिदायत दी थी कि कम-से-कम पाँच साल तक कुमार गन्धर्व को गाना वर्जित रहेगा। इस बीमारी की हालत में जो लोग कुमार जी की मदद करते हुए मन से टूटने लगते तो कुमार जी ही उनको ढाढस बँधाया करते।
वे अपनी पत्नी से कहते कि भानु, तुम चिन्ता मत करो, जब तक मैं गाना नहीं करूँगा, मैं नहीं मरूँगा। उन दिनों तपेदिक का पूरा इलाज खोजा नहीं जा सका था। कुमार गन्धर्व अपने बँगले में अक्सर झूलने लगते अवसाद के परदों को तुरन्त हटा दिया करते।
अवसाद के परदों को धीरज से हटाते-हटाते दुःख के दिन बीत गये और कुमार गन्धर्व फिर गाने लगे। जैसे उनका दूसरा जन्म हुआ हो। उन्हीं दिनों भारत स्वतन्त्र होकर अपने दूसरे जन्म को सँवार रहा था। देवास के पड़ौस में इतिहास प्रसिद्ध नगरी माण्डवगढ़ है जहाँ कभी रूपमति और बाज़बहादुर के प्रेम में डूबे स्वर गूँजते थे। देश के पहले प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू वहाँ आये तो स्वस्थ होने के बाद कुमार गन्धर्व की पहली सार्वजनिक संगीतसभा प्रधानमन्त्री की उपस्थिति में माण्डू में ही हुई।
1952 ईसवी में अनेक मित्रों के सहयोग से महाराज बाड़ा, उज्जैन के हाई स्कूल में कुमार गन्धर्व की एक और गायन सभा आयोजित हुई। जो आत्मीय जन उनकी राजी-खुशी को लेकर कई वर्षों से चिन्ता में डूबे रहे उनका मन खिल उठा। वे एक नये कुमार गन्धर्व को अपने बीच देख पा रहे थे। वे जो सुन रहे थे वह बिलकुल नया लग रहा था। वे उस अभिनव गायन को आत्मसात करने के लिए बैचेन थे। जबकि कुमार गन्धर्व अपने संगीत में खुद अपने आपसे लोहा ले रहे थे।
यूँ शोध और संगीत के संवर्धन के लिए 1959 ईसवी में देवास में ही कुमार गन्धर्व अकादमी भी स्थापित हुई। अकादमी का कोई बोर्ड भी नहीं लगाया गया। वह रजिस्टर्ड भी नहीं हुई। बस उसकी कल्पना मन में थी। ख़त-ओ-क़िताबत के लिए लैटरहेड छपवा लिया था।
कुमार गन्धर्व देवास में अपना भानुकुल बसाना चाहते थे। यहाँ विंध्याचल पर्वत श्रेणी के एक ऊँचे शिखर पर भगवती चामुण्डा का प्राचीन मन्दिर है। पैसेज टू इण्डिया पुस्तक के प्रसिद्ध लेखक ई.एम. फ़ास्टर बीसवीं सदी के दूसरे दशक में देवास के महाराज तुकोजीराव तृतीय के निजी सचिव रहे। उन्होंने इस पर्वत शिखर को द हिल ऑफ़ देवी कहा और इसी नाम से एक पुस्तक भी लिखी। इसी मन्दिर की तलहटी में कुमार गन्धर्व ने अपने सबसे न्यारे घर की कल्पना की। कुछ ज़मीन खरीदी और घर बनाने की तैयारी होने लगी जिसका नाम भानुकुल रखा जाना था। अभी तो किराये के घर में ही भानुकुल का स्वप्न भानुमति के गर्भ में पल रहा था।
1956 ईसवी में कुमार गन्धर्व के घर मुकुल शिवपुत्र का जन्म हुआ। कुमार जी ने यह नाम शब्दकोष से खोजकर रखा। नाम में ‘म’ ज़रूर होना चाहिए यह आग्रह भी था। मुकुल नाम तय हुआ। मुकुल माने कली, देह, आत्मा। वे अपनी पहली सन्तान को उस प्रसन्न मध्यम से जोड़ रहे थे जो खुद उनकी पहचान बन रहा था।
उस समय भानुमति की बड़ी बहन त्रिवेणी कौंस देवास के क़रीब शाजापुर में चिकित्सक थीं। कुमार परिवार से उनका नाता किसी आने वाले समय की आहट जैसा था। जब मुकुल क़रीब चार बरस के हो गये तब 1961 में उनके छोटे भाई का जन्म हुआ। कुदरत की गति ही कुछ ऐसी है कि वह सन्तति को जन्म देते समय माँओं के जीवन की कठिन परीक्षा लेती है। उनकी प्रसवपीड़ा मृत्यु का सामना करने जैसी होती है। भानुमति ने मृत्यु का सामना करते हुए पुत्र यशोवर्धन को जन्म दिया। भानुकुल में दूसरी किलकारी गूँजी पर उसे भानुमति नहीं सुन सकीं।
अकेले पड़ गये कुमार गन्धर्व ने उनकी अस्थियाँ उज्जैन में शिप्रा नदी में विसर्जित करते हुए मित्रों से कहा - देखो, अब आम का मौसम शुरू होने वाला है। भानु को आम बहुत पसन्द थे। पर अब वह हम लोगों के बीच नहीं है। कुमार गन्धर्व अवाक्-हतप्रभ थे पर सब मित्रों से यही कहते कि आप सब इतने चुप क्यों हैं। आपको देखकर ही तो मुझे धीरज मिल रहा है।
स्वराघात करते-करते उन्हें आघात सहने का खूब अभ्यास हो गया था। कहते हैं कि राग बागेश्री में यह बन्दिश शिप्रा नदी के घाट पर ही उपजी थी - फेर आई मोरा अम्बुआ पे, अजब गोलाई रंग आयो, बनायो... माता जी के रास्ते पर जो घर बना, वह भानुकुल कहलाया। आज भी हर चिट्ठी इसी पते पर आती है।
वसुन्धरा श्रीखण्डे भी 1946 ईसवी के आसपास देवधर गुरु के स्कूल में गायन सीख रही थीं। वे कलकत्ते से आयी थीं। वे कुमार गन्धर्व को गाते हुए देख चुकी थीं और मन में अभिलाषा रही कि वे उन्हीं से सीखें। वहीं भानुमति से उनका गहरा रिश्ता जुड़ता गया। भानुमति से कुमार जी के ब्याह के बाद वे बम्बई के दादर मुहल्ले में उनके घर जाने लगीं। जब कुमार जी की तबीयत ठीक न रहती तो वे भानुमति से सीखतीं।
जब कुमार गन्धर्व देवास में रहने लगे तब वसुन्धरा श्रीखण्डे वहाँ आकर कुमार जी और भानुमति से संगीत सीखतीं। जब बम्बई लौट जातीं तब उनका आत्मीय पत्र-व्यवहार भी होता रहता। एक बार बम्बई की किसी संगीत सभा में गाते हुए कुमार जी की आवाज़ बिगड़ गयी और उन्हें बीच में ही गाना छोड़ना पड़ा। वसुन्धरा जी 1960 के नवम्बर महीने में कुमार जी के अपयश की चिन्ता से भरकर भानुमति को चिट्ठी लिखती हैं। यह भी सूचना देती हैं कि फिर कुमार जी ने अगले ही कार्यक्रम में इसकी भरपाई कर दी। ऐसा गायन पेश किया कि सब वाह-वाह कर उठे। वसुन्धरा अपनी गुरु माँ (भानुमति) से आशीर्वाद की आकाँक्षा से भरी हैं। वे नन्हें मुकुल को याद करती हैं कि वह कैसे उनकी अंगुली पकड़कर दौड़ लगाता है। वे भानुमति से आग्रह करती हैं कि बम्बई में इतने सफल कार्यक्रमों के बाद कुमार जी जब देवास आयें तो रोटी के टुकड़े से उनकी नज़र उतार दें।
वसुन्धरा श्रीखण्डे 1961 के सितम्बर में भानुमति को लिखे पत्र में कुमार जी के घर दूसरी सन्तान के आगमन पर बम्बई से देवास आकर गुरु माँ की सहायता का प्रस्ताव करती हैं। उन्होंने यशोवर्धन के जन्म की आहट सुन ली थी। वे चिन्तित हैं कि बारिश बहुत हो रही है, भानुकुल के निर्माण का काम अभी अधूरा पड़ा है और ऐसे समय भानुमति सन्तान को जन्म देने इन्दौर तक कैसे जायेंगी। जब मुकुल का जन्म हुआ तब वसुन्धरा श्रीखण्डे कुमार जी के घर बधावा लेकर बम्बई से देवास आयी थीं।
अक्सर पैसे की कमी बनी रहती थी। घर का सोना बेचकर घर बन रहा था। कुमार गन्धर्व जब अपनी संगीत-यात्राओं पर होते तो भानुमति को यही चिन्ता सताती रहती कि वे रसरंजन (बाटली) से दूर रहें और उनकी संगीतरंजन पर एकाग्रता बनी रहे। उनके तानपूरे मिले रहें। वे पत्र लिखकर उन्हें हिदायतें देतीं। कुमार जी के घर पर न होने से उन्हें भूख नहीं लगती थी। वे कुमार जी को लिखती हैं कि देवास में प्रकृति हरी-भरी है, वर्षा हो रही है और मेरे पाँव दुःख रहे हैं।
कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो अपनी ओर आती मृत्यु को पहचान लेते हैं। भानुमति के जीवन में कुमार गन्धर्व का तपेदिक उनकी ओर आती मृत्यु जैसा ही था। जिसे भानुमति ने कुमार गन्धर्व के जीवन में नहीं आने दिया।
उनके छोटे पुत्र यशोवर्धन याद करते हैं कि तपेदिक से बीमार पिता के प्रति उनकी माँ की निष्ठा और समर्पित सेवा के किस्से इन्दौर के मेडीकल कॉलेज में पढ़ने और पढ़ाने वालों का साहस बढ़ाने के लिए सुनाये जाते थे। क्योंकि उस समय तपेदिक का समय-साध्य इलाज सम्भव नहीं था। बस, स्ट्रेप्टोमायसिन और आइसोनेक्स के सहारे जीवन को टिकाये रखने की कोशिश की जाती थी। अनेक मरीजों को यह बीमारी उठा ले जाती थी। कुमार जी के जीवन को बचाने की दवा भले ही कम थी पर दुआ उससे कई गुनी ज़्यादा थी।
जब कुमार जी की शादी बम्बई में भानुमति से हुई तब संकोचवश अपने गुरु के ब्याह में वसुन्धरा श्रीखण्डे नहीं गयीं। बाद में पण्डित विष्णु दिगम्बर पलुस्कर के जयन्ती समारोह में भानुमति के क़रीब बैठकर कुमार गन्धर्व का गायन सुना। वे राग तोड़ी में परम्परागत बड़ा ख़याल गा रहे थे - जा जा रे मोरा पथिकवा। इस ख़याल की शुरुआत में ही तार सप्तक को छूना पड़ता है। उसे गाने में बड़ी ताकत लगती है। उस दिन कुमार जी छाती में दर्द उठ रहा था। यह तपेदिक की पहली सूचना थी। कुमार जी की बीमारी के दिनों में भानुमति ही वसुन्धरा श्रीखण्डे की सहजा-सहजी गुरु बनीं।
एक समय कलकत्ते से बम्बई की रेल यात्रा करते हुए वसुन्धरा श्रीखण्डे के सपने में कुमार गन्धर्व की मृत्यु हो गयी। जब वे बम्बई पहुँचीं तो वहाँ यही ख़बर फैली थी। बाद में उनका सपना और लोगों के बीच फैली ख़बर झूठ साबित हुई। कुमार गन्धर्व के गायन में भानुमति और वसुन्धरा तानपूरे पर संगत के लिए भी बैठती थीं। वसुन्धरा के लिए भानुमति कुमार जी से अधिक पूज्यनीय हो गयीं। वे अपनी डायरी में लिखती हैं कि अगर दोनों को तराजू पर तौलें तो भानुमति का वजन ज़्यादा निकलेगा।
1960 ईसवी की बात है। एक दिन वामनहरि देशपाण्डे के घर वसुन्धरा श्रीखण्डे कुमार जी से गाना सीख रही थीं। वे नीची गर्दन किये हुए राग भीमपलासी में - इस जग में तुम कौन - गा रही थीं और उस दिन कुमार गन्धर्व उन्हें कुछ अलग ही दृष्टि से एकटक देख रहे थे। गाते-गाते अचानक वसुन्धरा की दृष्टि उन पर पड़ी। वे चमकती हुई आँखें उनसे कुछ कह रही थीं। वसुन्धरा को लगा कि जैसे उन आँखों ने उन पर कोई मोहिनी डाल दी है और उनका शरीर सिहर रहा है। वे अपने आपसे पूछ बैठीं, ये क्या हुआ। मन स्तब्ध हो गया और आगे का गाना भी नहीं सूझ रहा था। फिर सोचने लगीं कि ये अशक्य है। एक सौंदर्यवती पत्नी के रहते हुए कुमार जी मुझे इस तरह कैसे देख सकते हैं।
वे सोचने लगीं, ऐसा नहीं होना चाहिए। हे भगवान, मुझे बचा लो। वसुन्धरा अपनी डायरी में दर्ज करती हैं कि कुमार गन्धर्व को गाते हुए देखने पर उनके रूप का आकर्षण नहीं होता। पर उस दिन उनकी दृष्टि से डर लगने लगा था। उनसे सीखने की इच्छा से कुछ विरक्ति होने लगी। वे लिखती हैं कि जब कभी वे देवास में कुमार जी के घर के कामों में भानुमति का हाथ बटाने लगती तो भानुमति उनसे कहतीं कि आप तो घर की बहू की तरह काम करती हैं।
कुमार जी को पहली बार अकेले रोते देखा - वसुन्धरा श्रीखण्डे लिखती हैं - जब भानुमति की मृत्यु हुई। अब कौन इन्हें शक्ति देगा और मैं किससे सीखूँगी। अचानक मेरी पीठ पर हाथ रखते हुए कुमार ने कहा - तुम क्यों रो रही हो। उस हाथ का स्पर्श कुछ अलग ही था। अस्थियाँ विसर्जित करने के बाद कुमार जी ने उसी शाम तानपूरे मिलाये और कुछ मन्द्र स्वर लगाना शुरू किये। ऐसा लगा कि वे सुरों के पैर पकड़कर उनसे हिम्मत माँग रहे हैं। वे स्वरों की सेवा करके उनसे धीरज जुटाने की कोशिश कर रहे हैं और हम मूक होकर आँसुओं को पी रहे थे।
जब वसुन्धरा श्रीखण्डे माँ से बिछुड़ी सन्तान को इन्दौर के अस्पताल में देखने गयीं। तो उस नवजात की मुट्ठी में उनकी अँगुली आ गयी। क्या यह आने वाले समय की पूर्वसूचना थी। जब यशोवर्धन को अस्पताल से अकेला ले जाने लगे तो मुकुल रोने लगा, माँ साथ नहीं थी। कुमार जी नहीं रो रहे थे। वे मुकुल को समझा रहे थे कि तुम मैट्रिक पास हो जाओ तब हम माँ को ले आयेंगे। लौहपुरुष बोल रहा था और वसुन्धरा सोच रही थीं कि उसे भी किसी के सामने रोना चाहिए। बच्चे का रोना बाहर सुनायी दे रहा था और हम भीतर-भीतर रो रहे थे।
वसुन्धरा जी अपनी डायरी में लिखती हैं कि मुकुल उन्हें देवास से जाने नहीं दे रहा था। वह लिपटकर रो रहा था। मन हुआ कि उसे अपने साथ ले जाऊँ पर यह सम्भव नहीं था। कुमार जी ने मुझे बग्गी में बिठाकर बस स्टेण्ड पर छोड़ दिया। मैं कुछ कर नहीं पा रही थी। पन्द्रह दिन बाद कुमार जी गायन के लिए बम्बई आये। उनकी आँखें धँस गयी थीं। मैं अपने मन को सम्भाल नहीं पा रही थी। वे धीरज से मंच पर चढ़े। मैं डर रही थी कि अगर गाते हुए उनका गला भर आये तो इन्हें कौन सम्भालेगा। पर ऐसा नहीं हुआ, वे मन के पक्के थे।
दूसरे दिन कर्नाटक संगीत के कार्यक्रम में कुमार जी ने मुझे बुलाया। मध्यान्तर में हम बाहर आये। मैंनें सिर्फ़ कॉफ़ी ली और कुमार जी ने एक बड़ा भी लिया और आधा खाकर मुझे दे दिया। मैंने झट से ले लिया और मन ही मन शरमा भी गयी। फिर लगा कि ये ठीक नहीं है। कुमार जी मुझे सिनेमा दिखाने ले गये और आधी से भी कम फ़िल्म देखने के बाद हम चौपाटी गये। उन्होंने मुझसे पूछा कि तुम कहीं एंगेज तो नहीं हो। क्या तुम मेरा सब कुछ सम्भालोगी। मैंनें बिना देर किये हाँ कर दी। मन ही मन सोचा कि क्या मैं कुमार जी से शादी करने को तैयार हो गयी।
वसुन्धरा जी कहती हैं कि उनके प्रस्ताव में मुझे मुकुल दिखा। वो डूबते हुए दिखे। बूढ़ा कण्णा मामा दिखा। उनकी असहायता और विपत्ति दिखी। उनका संगीत दिखा। उन्हें जीवित रहने के लिए मैंनें अपना हाथ बढ़ाया। यूँ तो यह तिनके का सहारा ही था। पर सहारा देने की मेरे मन में इच्छा जागी। जब मैंने अपनी तरफ से देखा तो मैं बहुत छोटी दिखी। आनंद मनाऊँ या दुःख मनाऊँ। कुमार जी ने मुझे वही अँगूठी पहना दी जो उन्होंने भानुमति को पहनायी थी।
26 अप्रैल 1962 को मैं शादी करके देवास जा रही थी। सोच रही थी कि जिस सूने संसार में जा रही हूँ, वहाँ मेरी नज़र कौन उतारेगा। एक रात हम भानुकुल के आँगन में सो रहे थे। कुमार जी, कण्णा मामा भी अपनी-अपनी खाटों पर नींद में थे। मेरे सपने में नौ हाथ लम्बी काली साड़ी पहने भानुमति दिखीं और मैं उनकी बगल में सो रही हूँ। वे पूछ रही हैं कि तुमने शादी क्यों की और कुमार जी उनका डेथ सर्टिफिकेट लिए दरवाज़े पर खड़े हैं। मैं रो रही हूँ। वे मेरे रोने से जागकर मुझे जगा रहे हैं। मेरा सपना सुनकर उन्होंने तुरन्त पटमंजरी, भटियार अंग में एक बन्दिश रची - याद आयी री जागी मैं। उसका अन्तरा अभी नहीं बना था।
उस नये घर में भानुमति का गृहप्रवेश न हो सका। वसुन्धरा कोमकली गृह-स्वामिनी होकर आयीं। दोनों ने संगीत कुमार गन्धर्व से ही सीखा और संयोगवश दोनों उनकी जीवन-संगिनी भी बनीं। मुकुल शिवपुत्र भानुकुल में ही पले-बढ़े और उनके नवजात छोटे भाई यशोवर्धन को उनकी डाक्टर मौसी त्रिवेणी कौंस ने पाला-पोसा। 1966 ईसवी में वसु ताई (वसुन्धरा कोमकली) ने भानुकुल में बेटी कलापिनी को जन्म दिया।
मुकुल की संगीत की तालीम कुमार गन्धर्व के सान्निध्य में ही प्रारम्भ हुई। मुकुल का ध्यान सामवेद, ज्ञानेश्वरी और कर्नाटक संगीत में भी लगा। यशोवर्धन को बचपन से ही चित्रकला में रुचि रही। उनकी शिक्षा-दीक्षा इन्दौर में होती रही। उन्होंने फ़िल्म प्राडक्शन, आर्कीटेक्चर और इण्टीरियर डिजाइनिंग की दिशा पकड़ी। कलापिनी की संगीत-साधना कुमार जी और वसु ताई की छत्रछाया में बचपन से ही होती रही। उन्हें बचपन में फ़िल्मी गाने अच्छे लगते थे।
यशोवर्धन ने अपना शुरुआती पेशा भारत में ही किया। वे अब कनाडा में रहते हैं। उनके मन में अभी भी अपने संगीतकार पिता और भानुकुल की यादें बसी हुई हैं। उन्हें बचपन से ही लगता रहा कि उनके पिता उनकी माँ को नहीं भुला पाते और वे उनसे अकेले में ही आत्मीय होते हैं।
एक दिन पिता ने अकेले में पूछा कि बेटा, क्या तुझे कभी ऐसा महसूस होता है कि मैं तुझसे प्रेम नहीं करता। यशोवर्धन इस याद को भुला नहीं पाये हैं। उस दिन पिता की यह बात सुनकर वे अकेले में खूब रोये। 1991 ईसवी में अपने पिता से उनकी यह अन्तिम मुलाक़ात थी।
उनके बड़े भाई मुकुल देवास के पास ही नेमावर और खजराना कस्बों में अकेले जीवन गुज़ारने लगे थे। उनकी पत्नी की अकाल मृत्यु से उन्हें गहरा आघात लगा था। उनका ब्याह प्रसिद्ध हारमोनियम वादक बण्डु भैया चौघुले की बेटी से हुआ था। कुमार जी के चित्रकार मित्र विष्णु चिंचालकर यह महसूस करते थे कि इस घटना से कुमार जी के सर्जनात्मक मन की ताजगी भी कुछ मलिन-सी पड़ गयी है।
एक रात कुमार गन्धर्व ने डरावना सपना देखा - उनके दोनों पैर सड़ गये हैं। वे चल नहीं पा रहे। मुकुल उनसे दूर जाता हुआ दिखायी दे रहा है और वे उसे पकड़ नहीं पा रहे। उनकी आवाज़ गले में अटककर रह गयी है। - वे फफक-फफककर रोते हुए नींद से जागे। बेचैन होकर कलापिनी और वसुन्धरा जी को पुकारने लगे। घर के लोगों को अचानक टूटी नींद में उनकी आवाज़ किसी गहरी आशंका से भरी और आने वाले समय के प्रति विकल लग रही थी।
मुकुल पर घर और घराने की आशाएँ टिकी थीं। वह अपनी माँ और पिता के बीच एक सेतु था। कुमार गन्धर्व के लिए हर दुःख निजी पूँजी की तरह रहा जिसे वे किसी को बताते नहीं थे। वे उसकी बन्दिश बाँधकर उसे गा सकते थे। अनूपरागविलास के दूसरे खण्ड में राग खम्बावती, एकताल, द्रुतलय में 1984 के साल में उनकी रची एक बन्दिश याद आती है --
मुरझायग्यो मोगेरो
मेरो मन बागारो सखि।।
क्यारो सूक्यो है ग्यो माँ
कई करूरी मैं हौ सखि।।
कुमार गन्धर्व संगीत से हटकर किसी बात पर ध्यान नहीं देते थे। मुकुल बचपन से ही अपने जीवन के प्रति आज़ाद-ख़याल रहे। पर बाबा (कुमार गन्धर्व) ने इस पर कभी कोई ध्यान भी नहीं दिया। वे मुकुल के साथ गम्भीर संगीत-चर्या तो करते रहे पर उसकी व्यावहारिक जीवन-चर्या के प्रति उदासीन ही रहे। भानुकुल में वसुन्धरा जी ज़रूर अनुशासन प्रिय रहीं और अपनी बात पर अड़कर कुछ सख्त भी। यशोवर्धन अपनी वसु ताई को याद करते हुए कहते हैं कि उन्होंने हमारी माँ की जगह ली थी।
यशोवर्धन को यह ख़याल है कि उनके पिता को संगीत के हर घराने की गहरी समझ थी। इसी कारण वे संगीत के प्रति उदार बन सके। उनकी इस उदारता के कारण ही वे संगीत के संसार में अपनी स्वतन्त्रता का मार्ग खोज सके। वे संगीत की जड़ तक पहुँचने का जीवन भर साधन करते रहे और खुद एक वृक्ष की तरह खड़े हो सके, अपनी सांगीतिक छाया फैला सके। यशोवर्धन को अपने पिता की एक बन्दिश - चिड़िया चुँचुहानी - अक्सर याद आती है। वे दूर रहकर भी पिता के स्वरों से उठती आवाज़ की खनक को नहीं भूले हैं।
वसु ताई जीवन भर कुमार जी से अपना स्वर मिलाती रहीं। उनका अनुभव रहा कि तपेदिक के बाद भी कुमार जी को नियमित दवा लेना पड़ती थी। वे कुछ चिड़चिड़े भी हो गये। उनका स्वभाव शुरू से गुस्सैल ही था। वसु ताई उनके इस गुस्से का का सामना उनकी संगीत शिष्या और पत्नी के रूप में करती रहीं। पर कुमार जी उन्हें बा कहकर ही बुलाते थे। बा याने माँ - जो उन्हें सम्भालती है, घर भी सम्भालती है। वसुन्धरा जी इस आत्मीय सम्बोधन को कभी न भुला सकीं।
गृहस्थी नाममात्र ही थी। कुमार जी को कभी गृहस्थी नहीं बांध सकी बल्कि उनके संगीत में ही सारी गृहस्थी बंधी रही। वसुन्धरा जी कहती थीं कि उन्हें अपनी संगीत उपासना में साथ देने के लिए ही गृहस्थी की ज़रूरत थी। सांसारिक गृहस्थी उनके लिए गौण ही रही। कुमार जी के न रहने पर भी वसु ताई महसूस करती रहीं कि कुमार गन्धर्व के घर में उनकी स्मृति जीवन्त बनी रहती है - जैसे वे अपने कमरे में बैठे कोई जाप कर रहे हैं। कोई पुस्तक पढ़ रहे हैं। कोई बन्दिश बांध रहे हैं, हम अब भी उसी बन्दिश के अंतरे जैसे हैं।
कलापिनी कोमकली का बालमन कुमार गन्धर्व की संगीत पाठशाला से घबराता रहा। कलापिनी कहती हैं कि जबसे आँख खोली, घर में चारों तरफ संगीत पाया। बाबा जब सोते रहते तब अलस्सुबह वसु ताई को खामोश नदी की तरह रियाज़ करते देखा। ताई के साथ मुकुल दादा भी रियाज़ करते थे। घर में इतना गाना फिर भी उसकी तरफ कोई रुझान नहीं था। माँ गाती है, पिता गाते हैं, भाई गाते हैं, शिष्य गाते हैं। इन सबमें मैं भी क्यों। घर में कोई न गाये, यही इच्छा बनी रहती थी। ताई तो बिलकुल नहीं। जब स्कूल में कोई पूछता कि मेरे माता-पिता क्या करते हैं और मैं कहती कि वे गाते हैं तो सब यही कहते कि यह तो ठीक है पर वे करते क्या हैं। गाने को करना नहीं माना जाता था।
जब संगीत सीखने की नौबत आयी तब कलापिनी आई (माँ) के सामने बैठती। गाने का शास्त्र और व्याकरण आई से ही ज़्यादा समझा। बाबा गुरू के रूप में काफी सख़्त थे। प्रारम्भ में जब उनके सामने सीखने बैठती तो समझ में नहीं आता, वे क्या सिखा रहे हैं और रसोईघर में आकर माँ के सामने फूट-फूटकर रोने लगती। तब पल्ले नहीं पड़ी बात आई समझाती।
कलापिनी के बाबा (कुमार गन्धर्व) जिस स्तर का गाना सिखाते थे, वह बिना किसी तैयारी के पहुँच के बाहर की बात थी। संगीत के अमूर्त सौन्दर्य को समझना और समेटना आसान नहीं था। फिर एक दिन अचानक लगा कि बाबा को यह दिख रहा है कि कलापिनी भी गा सकेगी।
गाने की ओर मुड़कर कलापिनी अपने बाबा के साथ संगीत यात्राओं पर जानें लगीं। बाबा के साथ बैठकर तानपूरों के स्वर छेड़ते हुए उन्हें अहसास होने लगा कि मुझे बहुत पहले ही गाने की ओर मुड़ना चाहिए था। यह तभी सम्भव है जब पूरे समय बाबा के साथ रह सकें और कुमार जी के संगीत के ताप के निकट बने रहना बहुत कठिन था। वे तो रेलगाड़ी में बैठकर कहीं जाते हुए भी संगीत-यात्री बने रहते। जो भी उनके साथ होता वह यात्रा में भी संगीत ही सीखता। बाबा के साथ अपनी यात्राओं को कलापिनी याद करती हैं।
मुकुल शिवपुत्र के बेटे भुवनेश कोमकली का लालन-पालन भानुकुल की अँगनाई में ही हुआ -
मैं गावूँ, पद गावूँ, गुण गावूँ।
मन भाव ताल सुर गावूँ।।
भुवनेश याद करते हैं कि बचपन में जब यह भजन कानों पर पड़ा तभी से इसके स्वर उनके मन पर छा गये। क्या ताल है, क्या राग है कुछ पता नहीं, बस यह याद हो गया। उन्हें केवल सुन-सुनकर बाबा (कुमार जी) की अनेक बन्दिशें याद हो गयीं। पर वह उमर एक जगह टिकने-बैठने की नहीं थी इसीलिए बाबा के सामने बैठकर सीखने का अवसर नहीं आया।
जब उनका देहान्त हुआ तब भुवनेश की आयु चौदह बरस की थी। इतना ज़रूर हुआ कि उनके बिदा होने के एक-दो साल पहले एक जगह बैठकर कुछ सुनना ज़रूर आ गया। बाबा ने एक बार भुवनेश से कहा भी था कि सुनकर ज़ल्दी याद होता है - यह कुमार गन्धर्व का अपना अर्जित अनुभव था। बचपन में उन्हें भी सुनकर याद होता रहा और एक दिन वे गा उठे।
देवास के भानुकुल निवास में कुमार गन्धर्व का सादा और शान्त कक्ष उनके बचपन की याद दिलाता है। वहाँ उनके बचपन की मोहक तस्वीर लगी है। वे चूड़ीदार पायजामा और शेरवानी पहने हुए हैँ। सिर पर सुन्दर टोपी है। वे बचपन में अपनी संगीत प्रस्तुति देते हुए इसी वेषभूषा में मंच पर विराजते थे।
उनकी छोटी-सी बैठक में बायीं तरफ नाथ विश्वंभर के वंशज और संगीत के जयपुर घराने के संस्थापक उस्ताद अल्लादिया खाँ और किराना घराने के संस्थापक उस्ताद अब्दुल करीम खाँ की पुत्री और शिष्या हीराबाई बड़ोदेकर के छायाचित्र लगे हैं। वे संगीतकार सुरेश बाबू माने की बहन थीं। वे अपनी गायकी में अप्रतिम आवाज़ और तन्मयता के लिए जानी जाती रहीं।
एक छायाचित्र में अपनी बीमारी से बाहर निकलकर पण्डित कुमार गन्धर्व माण्डवगढ़ में पण्डित जवाहरलाल नेहरू को कोई राग सुनाने के बाद उनके साथ खड़े हैं। वे काफी दुबले दिखायी दे रहे हैं। रामू भैया दाते की तस्वीर भी एक दीवार पर है जो देवास आने और बसने में उनके मददगार थे। वे कुमार गन्धर्व और बेगम अख़्तर के मुरीद भी थे। उनकी पहचान रसिकराज के रूप में थी। उस कमरे में कुमार गन्धर्व का खाली पलंग करीने से बिछा हुआ है।
इस कमरे में कुछ समय बिताते हुए मुकुल शिवपुत्र की याद आ गयी। वे भानुकुल छोड़ने के कई बरस बाद पिता की मृत्यु पर देवास आये थे। कुमार जी का दाह-संस्कार उनके पौत्र मुकुल के बेटे भुवनेश के हाथों हुआ। मुकुल फिर वापस लौट गये। उन्होंने अपने जीवन में फक्कड़ता की भटकन को अपना लिया है। पिता की मृत्यु के तीस बरस बाद भी वे घर नहीं लौटे हैं। अपने पिता से जो संगीत उन्होंने पाया, काश वह कुमार गन्धर्व की अनुपस्थिति को नये नेह और रस से भरने के काम आ सका होता। कहीं दूर गूँजती मुकुल की तान भानुकुल तक क्यों नहीं आ रही।
घराना भले न बना हो, कुमार गन्धर्व का घर संगीत से सूना नहीं हुआ है। वहाँ कलापिनी गाती हैं, भुवनेश गाते हैं। संगीत का शिक्षण भी होता है। पर यह ख़याल मन में बना रहा कि इनके साथ मुकुल शिवपुत्र भी गा रहे होते। मन कुछ इस तरह भारी हो गया जैसे अनूपरागविलास में बसी कोई बन्दिश खो गयी है और कई-कई बार ढूँढने से नहीं मिल रही। अगर किसी को उसकी याद भी आ जाये और कोई उसे गाने के लिए मनाये तो वह मान नहीं रही। मृत्यु से आठ बरस पहले राग कौशी कानड़ा में रची कुमार गन्धर्व की बन्दिश याद आ रही है - बादर छायो है, कितक दिन बीत्यो, दरस न तेरो।
कुमार गन्धर्व के पुस्तकालय में संगीत की पुस्तकों के साथ महाभारत, सूरसागर, श्रीमद्भागवत, रामचरितमानस, कबीर का महाबीजक, गुरुग्रंथ साहब, ज्ञानेश्वरी, आचार्य विश्वेश्वर का काव्यप्रकाश, त्यागराज कृति संग्रह, तर्कतीर्थ लक्ष्मण शास्त्री के लेख संग्रह, विश्वनाथ शास्त्री की लघु सिद्धान्त कौमुदी, हिन्दी की निर्गुण काव्यधारा, राहुल सांकृत्यायन के यात्रा वृत्तान्त, भारतीय लोक साहित्य और ग्रामगीतों की पुस्तकें अपनी जगह बनाये हुए हैं।
इनके अलावा अरस्तू, टाल्स्टाय, मैक्सिम गोर्की, आवारा मसीहा शरत बाबू, गाँधी और नेहरू की आत्मकथा, अज्ञेय, हजारीप्रसाद द्विवेदी, यू. आर. अनन्तमूर्ति की क़िताबें भी हैं। इनके साथ चित्रकार पिकासो के मोनोग्राफ़ भी मौजूद हैं। इन क़िताबों को उलटकर देखो तो उन पर कुमार गन्धर्व के निशान मौजूद हैं। संगीत शास्त्र की कुछ क़िताबों में कई जगह क्रास के निशान भी मिलते हैं और उन्हें देखकर लगता है कि जैसे कुमार गन्धर्व शास्त्र में लिखी कुछ बातों से सहमत नहीं हैं।
भानुकुल के परिसर में सबके लिए जगह हमेशा रही। कलापिनी याद करती हैं कि घर के पीछे हर हफ्ते मवेशियों का बाजार भरता था। आसपास के गाँवों से लोग आते थे। उन्हें जब तपती धूप में कोई छाया नहीं मिलती तो वे मधमाद सारंग की बन्दिश की तरह सूरज की तपन से बचने के लिए हमारे घर के वृक्षों की छाँव में रोटी-पानी किया करते। बाबा ने उनकी प्यास बुझाने के लिए अलग से एक नल लगवाया था। जब भी ये किसान भाई आते, बाबा उनसे खेती-किसानी की बातें किया करते -
रुखवा तले आया, आया तले आया
बैठा बटमार, तपना करि दूरा।
अरे वो बाजी आवो
पियासा बुझाले तोरा।
कलापिनी अपने बचपन के सावन के झूलों की यादों में झूलने लगती हैं - एक दिन बाबा ने कहा कि मैं तेरे लिए घर पर ही झूला डालूँगा। वे बाजार से लाल चटख रस्सी लाये, बाँस लाये और मेरे लिए सुरमल्हार की बन्दिश में सुन्दर झूला बनाया -
नीको-नीको लग्यो री, रंग सुरंग साचो आछो री।
रेसम की डोर बनाऊँ, बँधाऊँ झूलाऊँ री।
कुमार गन्धर्व के घर के आसपास पड़ौसी नहीं हैं। सिर्फ़ माता जी के रास्ते पर आते-जाते दर्शनार्थी ही दिन भर दीखते हैं। देवी को चढ़ने वाले ईंगुर-बूँदा-चूनरों की छोटी-छोटी गुमटियाँ पूरे दिन जरी-गोटा लगी लाल चूनरों से झलमलाती रहती हैं। शाम ढलते ही दूकानदार अपनी दूकान समेटने लगते हैं। माता जी के रास्ते के खालीपन में दूर कहीं से अजान की आवाज़ गूँजने लगती है। वह कुमार गन्धर्व के द्वार पर भी दस्तक देती-सी लगती है। भानुकुल के प्रांगण में मौलश्री, आम, बाँस, रीठा, चम्पा, कनेर के वृक्षों के बीच खिली फुलवारी साँवरी होती जाती साँझ में डूबने लगती है।
हर बारिश में मौलश्री के फूल लगातार झरते रहते हैं जैसे बूँदें फूल बनकर झर रही हों और पण्डित कुमार गन्धर्व त्रिताल के ताल में गीतवर्षा करते हुए राग जलधरबसन्ती गा रहे हों -
हीरा मोती निबजे हैं
मन फूला चौदिस बन फूला रे।
हरख भयो सब जीव भौंमरी
नदिया ताल भरिग्यो जलसो फूला रे।
- (अच्छी वर्षा के कारण अब) खेत में हीरे-मोतियों के समान फ़सल उपजेगी। चारों दिशाएँ (चौदिस), जंगल सब खिले हुए हैं। धरती (भौंमरी) के सब प्राणी हर्षित (हरख भयो) हैं। नदी, तालाब सब पानी से (जलसो) भर गये (भरिग्यो) हैं।
पण्डित कुमार गन्धर्व का संगीत कभी वर्षा की तीव्र बौछार-सा, कभी धुआँधार झड़ी-सा और कभी झरती रिमझिम फुहारों जैसा भी तो प्रतीति में आता रहा है। वे जीवन भर अपने संगीत में नयी फलसिद्धि के लिए अपना खेत इस तरह सम्भालते रहे हैं कि उनकी गीतवर्षा का जल यूँ ही न बह जाये, वह सबके लिए ठहर सके -
अवधूता, गगन घटा गहरानी हो
पछिम दिशा से उठी बादरी
रुम झुम बरसे मेघा
उठो ग्यानी मेंढ़ सँवारो
बह्यो जात है पानी ... अवधूता
मराठी लेखक रवीन्द्र पिंगे ने कुमार गन्धर्व के घर से लौटते हुए पूछा -- आपके पास अपने घर का कोई फ़ोटो है। कुमार गन्धर्व बोले अजी नहीं, इस घर का फ़ोटो कैसे उतर सकता है। आजू-बाजू मैंने ढेर सारे पेड़ लगा रखे हैं। उनके पत्ते आड़े आते हैं। मेरी पहले से एक कल्पना थी कि मैं पेड़ों में गुम होकर रहूँ, इसलिए पेड़ लगाये। अब वे बड़े हो गये। मैंने जान-बूझकर फूलों का छोटा-सा बागीचा नहीं बनाया। ये फैलने वाले बड़े पेड़ लगाये। घर के चारों ओर पेड़ होना अच्छा रहता है क्योंकि उनकी वजह से एक वर्ष का ऋतुओं का जो चक्र होता है वह बिलकुल अपनी आँखों के सामने घूमता नज़र आता है।

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